दूसरे बच्चों की तरह 12 साल का गोलू भी स्कूल जाना चाहता है लेकिन यह उसके लिए केवल एक सपना है क्योंकि आर्थिक तंगी से गुजर रहे परिवार के लिए उसे दक्षिण दिल्ली के एक ढाबे में सुबह से रात तक जूठे बर्तन धोना पडता है। गरीबी के कारण ही झारखंड से आये दस साल के राजू को अपने छोटे भाई के साथ दिल्ली की सडकों पर फूल बेचना पडता है। यह कहानी केवल राजू या गोलू की नहीं बल्कि उन हजारों बच्चों की है जो आजीविका के लिए बचपन को भुला कर काम कर रहे हैं। उन्हें आज मनाए जाने वाले विश्व बाल श्रम विरोधी दिवस की कोई जानकारी नहीं है। इस दिन के महत्व के बारे में बताए जाने पर गोलू ने पूछा यह कौन सा दिन है। कहां मनाया जाता है। क्या इस दिन मिठाई मिलती है। यही प्रतिक्रिया राजू की थी जो इतना धन कमाना चाहता है कि उसका परिवार आसानी से गुजरबसर कर सके। वह कहता है यह काम मुझे अच्छा नहीं लगता लेकिन परिवार के लिए कर रहा हूं।
वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार, देश में करीब एक करोड 26 लाख बाल श्रमिक हैं। हालांकि अंतरराष्ट्रीय संगठन और समाज का अनुमान है कि उनकी संख्या चार करोड से साढे चार करोड के आसपास है। ये बच्चे घरों में, फैक्ट्रियों में, रेस्तरां में, सडक के किनारे ढाबों में, मिठाई की दुकान पर और खेतों में काम करते नजर आ जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार, कृषि कार्य में 70 फीसदी बाल मजदूर हैं और अब तक इस श्रेणी को भारत में बाल श्रम रोधी कानून ने कामकाजी बच्चों के तौर पर मान्यता नहीं दी है। गैर सरकारी संगठन सेव द चिल्ड्रन के थॉमस चांडी ने कहा कि बाल श्रमिक शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषक आहार आदि से वंचित रहते हैं और कार्य स्थलों पर उन्हें कई जोखिमों का सामना करना पडता है। उनके यौन शोषण से ले कर हिंसा के शिकार होने तक की आशंका लगातार बनी रहती है। न्यूनतम मजदूरी पर उनसे उनकी क्षमता से कई गुना अधिक काम लिया जाता है।
गैर सरकारी संगठन चाइल्ड फंड इंडिया की राष्ट्रीय निदेशक डोला महापात्र ने कहा कानून अच्छा है लेकिन समस्या इसके जमीनी स्तर पर कार्यान्वयन को लेकर है। जब तक समुदाय बच्चों से काम कराने के खिलाफ जागरूक नहीं होगा तब तक कानून से इस समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता। चांडी ने कहा इसके अलावा, बाल श्रम को रोकने वाला अधिनियम हर तरह के बाल श्रम पर रोक नहीं लगाता। साथ ही वर्तमान कानून का कारगर तरीके से कार्यान्वयन भी नहीं हो रहा है। उन्होंने कहा इस कानून को शिक्षा का अधिकार :आरटीई: अधिनियम की तरह सुसंगत बनाने की जरूरत है। आरटीई को सरकार ने 2009 में लागू किया था। उन्होंने कहा कि भारत में रोजगार करने के लिए न्यूनतम आयु सीमा भी तय नहीं है। भारत ने अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की संधि 138 :न्यूनतम आयु सीमा: और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की संधि 182 :बाल श्रम का सर्वाधिक निकृष्टतम प्रकार: का अनुमोदन भी नहीं किया है। अक्तूबर 2006 में सरकार ने बाल श्रमिक :निरोधक एवं नियमन: अधिनियम 1986 में संशोधन कर 14 साल से कम उम््रा के बच्चों से काम कराने पर रोक लगा दी।
वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार, देश में करीब एक करोड 26 लाख बाल श्रमिक हैं। हालांकि अंतरराष्ट्रीय संगठन और समाज का अनुमान है कि उनकी संख्या चार करोड से साढे चार करोड के आसपास है। ये बच्चे घरों में, फैक्ट्रियों में, रेस्तरां में, सडक के किनारे ढाबों में, मिठाई की दुकान पर और खेतों में काम करते नजर आ जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार, कृषि कार्य में 70 फीसदी बाल मजदूर हैं और अब तक इस श्रेणी को भारत में बाल श्रम रोधी कानून ने कामकाजी बच्चों के तौर पर मान्यता नहीं दी है। गैर सरकारी संगठन सेव द चिल्ड्रन के थॉमस चांडी ने कहा कि बाल श्रमिक शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषक आहार आदि से वंचित रहते हैं और कार्य स्थलों पर उन्हें कई जोखिमों का सामना करना पडता है। उनके यौन शोषण से ले कर हिंसा के शिकार होने तक की आशंका लगातार बनी रहती है। न्यूनतम मजदूरी पर उनसे उनकी क्षमता से कई गुना अधिक काम लिया जाता है। चांडी ने प्रेस ट्रस्ट से कहा इससे बच्चे की वृद्धि और विकास बाधित होता है। अक्तूबर 2006 में सरकार ने बाल श्रमिक :निरोधक एवं नियमन: अधिनियम 1986 में संशोधन कर 14 साल से कम उम््रा के बच्चों से काम कराने पर रोक लगा दी। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि यह रोक केवल कागजों पर ही नजर आती है।
विदेशों में जमा काले धन को वापस लाने के मुद्दे पर छिडी बहस के बीच बाल अधिकारों के लिये काम करने वाले एक संगठन का कहना है कि बाल मजदूरी से भारत में प्रतिवर्ष 1.2 लाख करोड रूपये की राशि अर्जित की जाती है । कैपिटल करप्शन :चाइल्ड लेबर इन इंडिया नाम से तैयार की गयी बचपन बचाओ आंदोलन :बीबीए: की रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया गया है। यह रिपोर्ट बाल मजदूरों की संख्या, उनके द्वारा अर्जित की आय और नियोजक के वयस्क मजदूरों की जगह बाल मजदूरों को रख कर अर्जित किये गये अनुचित आय के आंकडो के आकलन के आधार पर तैयार की गयी है। इस अध्ययन में बताया गया है अधिकतम मुनाफा का लालच बाल मजदूरी को बढावा देता है क्योंकि बच्चे सस्ते श्रम के लिये उपयुक्त होते है । बाल मजदूरी, भ्रष्टाचार और काले धन का प्रवाह और अवैध गिरोह एक दूसरे के पूरक है जिससे केवल नियोजकों और दलालों को फायदा होता है । इसके मुताबिक देश में करीब छह करोड बाल मजदूर है जो कि एक साल में प्रति दिन 15 रूपये की दर से लगभग 200 दिनों तक काम करते है । इस आधार पर एक साल में 18,000 करोड रूपये की राशि बनती है । और अगर इन छह करोड बाल मजदूरों की जगह पर छह करोड वयस्क मजदूरों होते तो उन्हें औसत 115 रूपये की प्रति दिन की मजदूरी से देनी पडती और यह रकम 1,38,000 करोड रूपये होगी । इसमें बताया गया है इन दोनों आंकडो के बीच का अंतर 1.20 लाख करोड बनता है ।
वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार, देश में करीब एक करोड 26 लाख बाल श्रमिक हैं। हालांकि अंतरराष्ट्रीय संगठन और समाज का अनुमान है कि उनकी संख्या चार करोड से साढे चार करोड के आसपास है। ये बच्चे घरों में, फैक्ट्रियों में, रेस्तरां में, सडक के किनारे ढाबों में, मिठाई की दुकान पर और खेतों में काम करते नजर आ जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार, कृषि कार्य में 70 फीसदी बाल मजदूर हैं और अब तक इस श्रेणी को भारत में बाल श्रम रोधी कानून ने कामकाजी बच्चों के तौर पर मान्यता नहीं दी है। गैर सरकारी संगठन सेव द चिल्ड्रन के थॉमस चांडी ने कहा कि बाल श्रमिक शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषक आहार आदि से वंचित रहते हैं और कार्य स्थलों पर उन्हें कई जोखिमों का सामना करना पडता है। उनके यौन शोषण से ले कर हिंसा के शिकार होने तक की आशंका लगातार बनी रहती है। न्यूनतम मजदूरी पर उनसे उनकी क्षमता से कई गुना अधिक काम लिया जाता है।
गैर सरकारी संगठन चाइल्ड फंड इंडिया की राष्ट्रीय निदेशक डोला महापात्र ने कहा कानून अच्छा है लेकिन समस्या इसके जमीनी स्तर पर कार्यान्वयन को लेकर है। जब तक समुदाय बच्चों से काम कराने के खिलाफ जागरूक नहीं होगा तब तक कानून से इस समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता। चांडी ने कहा इसके अलावा, बाल श्रम को रोकने वाला अधिनियम हर तरह के बाल श्रम पर रोक नहीं लगाता। साथ ही वर्तमान कानून का कारगर तरीके से कार्यान्वयन भी नहीं हो रहा है। उन्होंने कहा इस कानून को शिक्षा का अधिकार :आरटीई: अधिनियम की तरह सुसंगत बनाने की जरूरत है। आरटीई को सरकार ने 2009 में लागू किया था। उन्होंने कहा कि भारत में रोजगार करने के लिए न्यूनतम आयु सीमा भी तय नहीं है। भारत ने अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की संधि 138 :न्यूनतम आयु सीमा: और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की संधि 182 :बाल श्रम का सर्वाधिक निकृष्टतम प्रकार: का अनुमोदन भी नहीं किया है। अक्तूबर 2006 में सरकार ने बाल श्रमिक :निरोधक एवं नियमन: अधिनियम 1986 में संशोधन कर 14 साल से कम उम््रा के बच्चों से काम कराने पर रोक लगा दी।
वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार, देश में करीब एक करोड 26 लाख बाल श्रमिक हैं। हालांकि अंतरराष्ट्रीय संगठन और समाज का अनुमान है कि उनकी संख्या चार करोड से साढे चार करोड के आसपास है। ये बच्चे घरों में, फैक्ट्रियों में, रेस्तरां में, सडक के किनारे ढाबों में, मिठाई की दुकान पर और खेतों में काम करते नजर आ जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार, कृषि कार्य में 70 फीसदी बाल मजदूर हैं और अब तक इस श्रेणी को भारत में बाल श्रम रोधी कानून ने कामकाजी बच्चों के तौर पर मान्यता नहीं दी है। गैर सरकारी संगठन सेव द चिल्ड्रन के थॉमस चांडी ने कहा कि बाल श्रमिक शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषक आहार आदि से वंचित रहते हैं और कार्य स्थलों पर उन्हें कई जोखिमों का सामना करना पडता है। उनके यौन शोषण से ले कर हिंसा के शिकार होने तक की आशंका लगातार बनी रहती है। न्यूनतम मजदूरी पर उनसे उनकी क्षमता से कई गुना अधिक काम लिया जाता है। चांडी ने प्रेस ट्रस्ट से कहा इससे बच्चे की वृद्धि और विकास बाधित होता है। अक्तूबर 2006 में सरकार ने बाल श्रमिक :निरोधक एवं नियमन: अधिनियम 1986 में संशोधन कर 14 साल से कम उम््रा के बच्चों से काम कराने पर रोक लगा दी। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि यह रोक केवल कागजों पर ही नजर आती है।
विदेशों में जमा काले धन को वापस लाने के मुद्दे पर छिडी बहस के बीच बाल अधिकारों के लिये काम करने वाले एक संगठन का कहना है कि बाल मजदूरी से भारत में प्रतिवर्ष 1.2 लाख करोड रूपये की राशि अर्जित की जाती है । कैपिटल करप्शन :चाइल्ड लेबर इन इंडिया नाम से तैयार की गयी बचपन बचाओ आंदोलन :बीबीए: की रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया गया है। यह रिपोर्ट बाल मजदूरों की संख्या, उनके द्वारा अर्जित की आय और नियोजक के वयस्क मजदूरों की जगह बाल मजदूरों को रख कर अर्जित किये गये अनुचित आय के आंकडो के आकलन के आधार पर तैयार की गयी है। इस अध्ययन में बताया गया है अधिकतम मुनाफा का लालच बाल मजदूरी को बढावा देता है क्योंकि बच्चे सस्ते श्रम के लिये उपयुक्त होते है । बाल मजदूरी, भ्रष्टाचार और काले धन का प्रवाह और अवैध गिरोह एक दूसरे के पूरक है जिससे केवल नियोजकों और दलालों को फायदा होता है । इसके मुताबिक देश में करीब छह करोड बाल मजदूर है जो कि एक साल में प्रति दिन 15 रूपये की दर से लगभग 200 दिनों तक काम करते है । इस आधार पर एक साल में 18,000 करोड रूपये की राशि बनती है । और अगर इन छह करोड बाल मजदूरों की जगह पर छह करोड वयस्क मजदूरों होते तो उन्हें औसत 115 रूपये की प्रति दिन की मजदूरी से देनी पडती और यह रकम 1,38,000 करोड रूपये होगी । इसमें बताया गया है इन दोनों आंकडो के बीच का अंतर 1.20 लाख करोड बनता है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें