साहिबाबाद ईएसआई काफी बड़ा अस्पताल है। उस हॉस्पिटल के एक हिस्से में जिसमें मरीजों के इलाज के 6 कमरे थे और हर कमरे में 5-6 बेड पड़े हुए थे कैद कर दिया गया है। मरीजों के आने और क्वारंटाइन के 7 दिन तथा कोरोना टेस्ट के दिन को मिलाकर कम से कम 10 दिन होने पर डिस्चार्ज होकर जाने के लिए एक ही दरवाजा है और चारों तरह ब्लॉक कर दिया गया है। डायरेक्ट सूरज की रोशनी की कोई व्यवस्था नहीं है। कोरोना हैंडलिंग में सरकारी विभाग की लापरवाही के बेजोड़ नमूने हैं। मरीजों को कॉल करने के उनके जितने भी सेल हैं जैसे डी एम कोरोना हेल्पलाइन, सी एम कोरोना हेल्पलाइन इत्यादि और हॉस्पिटल के बीच कोई आपसी कोआर्डिनेशन नहीं है। यदि मरीज इनकी लापरवाही और बेहूदगी को गंभीरता से लें तो लगेगा कि सरकारी मानदंडो के हिसाब से जो लोग कोरोना पॉजिटिव हैं, उन्हें मारने या खुद मर जाने के लिए हॉस्पिटल में कैद किया है। हर मरीज के पास उपरोक्त हेल्पलाइन से दिन में कई बार फोन आते हैं लेकिन उन्हें खुद पता नहीं होता कि फला मरीज जिससे बात हो रही है वह अपने घर पर है या हॉस्पिटल में। कॉल करने वाले विभाग को हमारे द्वारा अपडे
ट दिए जाने के बाद भी अगले दिन हमसे वही बेहूदा सवाल पूछा जाता कि आप कहाँ हैं? आपका ऑक्सीजन लेवल और तापमान क्या है? जबकि ज्यादातर लोगों का केवल भर्ती होने के समय ही ऑक्सीजन लेवल और तापमान लिया जाता था। जो वाकई थोड़ा अस्वस्थ थे उम्रदराज थे या सुगर के मरीज थे बस उनका ही चेक होता था। बाकी लोग किसी तरह दिन गिनकर समय काटते थे। हम व्यक्तिगत तौर पर आश्वस्त नहीं है कि कोरोना वाइरल फीवर कुछ अलग भी है। लेकिन इसका आशंका जरूर है कि इसके नाम पर सारी स्वास्थ्य सेवाएं ध्वस्त की जा रही हैं और इसके बहाने दूसरा कोई इलाज नहीं दिया जा रहा है। कोरोना के मरीजों के हैंडलिंग के नियम में मुझे पता चला कि यदि आप हॉस्पिटल में भर्ती हैं और आपके परिवार में शादी है तो आपको शादी अटेंड करने की छुट्टी मिल जाएगी लेकिन फिर आपको आकर क्वारंटाइन होने के लिए भर्ती होना पड़ेगा लेकिन 2 साल की बच्ची और 72 साल की बुजुर्ग महिला के लिए सरकार और स्वास्थ्य विभाग के पास सुरक्षा का कोई न इंतजाम है और न ही कोई परवाह। क्या फिर भी आपको लगता है कि कोरोना कोई गंभीर बीमारी है? आखिरकार 7 दिसंबर को हम दोनों की क्वारंटाइन की मियाद पूरी हुई और हम दोनों रिहा कर दिए गए। जैसे स्वस्थ गए थे वैसे स्वस्थ तो नहीं नहीं लौटे लेकिन शुकुन यह था कि मेरी बिटिया स्वस्थ थी।
मंगलवार, 22 दिसंबर 2020
आपबीतीः एक गलती ने पहुंचा दिया कोरोना कैदखाना
सुनीता
जिस दिन कृषि उत्पादों पर मोदी सरकार द्वारा पास बिल पर देश के किसानों ने देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया था उसी 26 नवम्बर 2020 को मैं और मेरे पति ने कोरोना टेस्ट कराया। यह टेस्ट उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा इंदिरापुरम, गाज़ियाबाद के एक गुरुद्वारा में कैम्प लगाकर किया जा रहा था। पूर्वी उत्तर प्रदेश के अपने गांव 7-8 महीने रहकर अक्टूबर के पहले सप्ताह में मैं गाज़ियाबाद आई थी। गांव से आये अभी डेढ़ महीने हुए थे कि मुझे और मेरे पति को सर्दी-जुकाम और हल्का बुखार हो गया। एहतियात बरतते हुए हम दोनों पैरासिटामोल खाकर हम दोनों ठीक हो चुके थे। मेरे पति के ऑफिस में उनके एक कलीग ने बोला कि कोरोना टेस्ट करा लो। उन्होंने आव देखा न ताव हमारा और अपना कोरोना टेस्ट करा लिया।
हमें लगा था कि हम लोग पूरी तरह ठीक हैं कोरोना पॉजिटिव होने का कोई सवाल ही नहीं बनता लेकिन सीधे उल्टा हुआ।कोरोना टेस्ट सेम्पल देने के 24 घंटे के अंदर उत्तर प्रदेश के कोरोना साइट पर हम दोनों का एंटीजेन निगेटिव दिखाया। 28 और 29 नवम्बर के शाम तक उपरोक्त साइट पर RT-PCR रिसेम्पलिंग दिखाता रहा। 30 नवम्बर को दिन के 11 बजे के करीब उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग से फोन आया कि हम दोनों कोरोना पॉजिटिव हैं। जब हमें पता चला कि हम कोरोना पॉजिटिव हैं तो हम लोग सतर्क हो गए और होम क्वारंटाइन हो गए और मजे में थे। 1 दिसंबर को उत्तर प्रदेश, गाज़ियाबाद के स्वास्थ्य विभाग ने तरह-तरह के नम्बर से फोन करके हमारा जीना हराम कर दिया। हमने उन्हें बताया कि हमें किसी भी किस्म की कोई दिक्कत नहीं है फिर भी यदि टेस्ट में पॉजिटिव आया है तो हम लोग होम क्वारंटाइन हैं, हमारी दो साल की बिटिया भी है और वह भी स्वस्थ है। उन्होंने हमारे पास ऑक्सिमिटर, थरमामीटर और घर में टॉयलेट बाथरुम के होने के बारे में पूछा जिसकी उपलब्धता की जानकारी हमने उन्हें दी। पॉजिटिव आने के 24-36 घंटे में उत्तर प्रदेश, गाज़ियाबाद स्वास्थ्य विभाग से न कोई डॉक्टर आया और न ही किसी ने कोई दवा लेने का सुझाव दिया। 1 दिसंबर को सेपरेट टॉयलेट न होने का हवाला देकर हमें होस्पिटलाइज़ होने का दबाव बनाया जाने लगा। तंग आकर मेरे पति होस्पिटलाइज़ होने को तैयार हो गए लेकिन मुझे अपनी बच्ची के साथ होम क्वारंटाइन रहने के लिए कन्विंस करने की कोशिश करते रहे किंतु कोरोना हैंडलिंग विभाग का ऐसा अमानवीय रवैया रहा कि हम दोनों को बच्ची के साथ ले जाने के लिए एम्बुलेंस भेज दिया। हम और बच्ची हो न जाने पर फोन करने वाले डॉक्टर ने एफ.आई.आर करने की धमकी भी दी। आखिरकार सरकार और जनता के बीच इस बीमारी के प्रति अफवाह को देखते हुए हम लोग होस्पिटलाइज़ होने को तैयार हो गए।
जब हमारे कॉलोनी के गेट पर एम्बुलेंस आया तो दिन के 3 बज रहा होगा। एम्बुलेंस ऐसा था जैसे कि उसमें जिंदा आदमी नहीं बल्कि किसी लाश को उठाने आये हों। सीटों पर धूल अटी पड़ी थी। ऑक्सीजन सिलिंडर तो लटका हुआ था किंतु उसका पाइप टूटा हुआ लगा। ड्राइवर से बोलकर सीट साफ कराई और बिटिया के साथ हम दोनों सवार हो गए। हम तीनों को ईएसआई, साहिबाबाद ले जाया गया। हम दोनों काफी परेशान थे लेकिन अपने लिए नहीं बल्कि अपने 2 साल की बिटिया के लिए। मेरा रो-रोकर बुरा हाल हो गया था। ईएसआई के अंदर जिस गार्ड ने हम दोनों का नाम और आधार नंबर दर्ज किया वह हमारे लगभग 10 मीटर की पर खड़ा होकर कागजी खानापूर्ति की और हमें उस गेट के अंदर डाल दिया गया जिसमें पहले से ही 20-25 स्वस्थ लोग मौजूद थे। उन लोगों में जो लोग 60-70 साल के थे वे ही थोड़ा अस्वस्थ थे। हमें कोई संदेह नहीं कि वे अपने उम्र के वजह से थोड़ा अस्वस्थ थे न कि कोरोना के वजह से। जब हम अंदर गए तो न कोई डॉक्टर था और न ही कोई नर्स। हमारी मुलाकात संजय नाम के एक सज्जन मजदूर से मुलाकात हुई जो खुद हमारे ही तरह ज़बरदस्ती पकड़कर लाए गए थे। उनका हँसता चेहरा और खुशमिजाजी से थोड़ा राहत महसूस हुआ। वे ही उस हॉस्पिटल के स्टाफ को 224 नम्बर पर फोन करके दो लोगों का और आने की सूचना दी और हम लोगों को एक कमरे में पड़े बेड को चुन लेने का इशारा किया। हॉस्पिटल में हम दो लोगों की भर्ती तो दर्ज हो गई लेकिन बिटिया का हमारे साथ होने का कहीं भी दर्ज नहीं हुआ। इससे हम और भी चिंतित होने लगे कि उत्तर प्रदेश स्वास्थ्य विभाग इतना लापरवाह क्यों है? जब मैं अपनी बच्ची के साथ होम क्वारंटाइन होने की अपील कर रहे थे तो हम पर एफ.आई.आर. कर देने की धमकी देकर, सेपरेट टॉयलेट बाथरूम न होने का हवाला देकर यहाँ लाया गया जबकि हॉस्पिटल में लेडी और जेन्स का सेपरेट कंबाइन टॉयलेट-बाथरूम है। ऐसा नहीं था कि वहाँ केवल गरीब इलाकों के ही लोग थे। वहां गाज़ियाबाद, वैशाली के अपार्टमेंट में रहने वाले लोग भी आये थे। लेकिन उत्तर प्रदेश स्वास्थ्य विभाग की बेरहमी, लापरवाही और निरंकुशता इसमें थी कि उसे दो साल की बच्ची नजर नहीं आ रही थी जो बिल्कुल स्वस्थ थी। यदि सरकारी मानदंडों के अनुसार वहाँ आए हुए सभी लोग कोरोना इन्फेक्टेड थे तो 2 साल की स्वस्थ बच्ची को इंफेक्शन होना तय था जिसकी परवाह स्वास्थ्य विभाग को नहीं थी। हॉस्पिटल और सरकार की कोरोना हैंडलिंग विभाग की असंवेदनशीलता को देखते हुए हम लोगों ने तय किया कि अब बच्ची के साथ जो भी हो किन्तु इंफेक्शन से बचाया जाना चाहिए और हम लोगों ने उसी शाम एक मित्र की मदद से उसे ग्रेटर नोएडा उसके मौसी के पास भेज दिया। हॉस्पिटल से सभी मरीजों को पाँच दिन की दवा पहले दिन ही पकड़ा दिया जाता है जो हमें भी मिली। पहली खुराक खाने के बाद हम दोनों को लगा कि दवा नुकसान कर रही है और हम दोनों ने उसे लेना बंद कर दिया।
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