शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

हम सभी आक्युपाइयर हैं

 अरुंधती रॉय
(अनुवाद: मनोज पटेल)
मंगलवार की सुबह पुलिस ने जुकोटी पार्क खाली करा लिया, मगर आज लोग वापस आ गये हैं। पुलिस को जानना चाहिए कि यह प्रतिरोध जमीन या किसी इलाके के लिए लड़ी जा रही कोई जंग नहीं है। हम इधर-उधर किसी पार्क पर कब्जा जमाने के अधिकार के लिए संघर्ष नहीं कर रहे हैं। हम न्याय के लिए संघर्ष कर रहे हैं। न्याय, सिर्फ संयुक्त राज्य अमेरिका के लोगों के लिए ही नहीं बल्कि सभी लोगों के लिए।
17 सितंबर के बाद से, जब अमेरिका में इस आकुपाई आंदोलन की शुरुआत हुई, साम्राज्य के दिलो दिमाग में एक नयी कल्पना, एक नयी राजनीतिक भाषा को रोपना आपकी उपलब्धि है। आपने ऎसी व्यवस्था को फिर से सपने देखने के अधिकार से परिचित करा दिया है, जो सभी लोगों को विचारहीन उपभोक्तावाद को ही खुशी और संतुष्टि समझने वाले मंत्रमुग्ध प्रेतों में बदलने की कोशिश कर रही थी।
एक लेखिका के रूप में मैं आपको बताना चाहूंगी कि यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसके लिए मैं आपको कैसे धन्यवाद दूं।  हम न्याय के बारे में बात कर रहे थे। इस समय जबकि हम यह बात कर रहे हैं, अमेरिकी सेना इराक और अफगानिस्तान में कब्जे के लिए युद्ध कर रही है। पाकिस्तान और उसके बाहर अमेरिका के ड्रोन विमान नागरिकों का कत्ल कर रहे हैं। अमेरिका की दसियों हजार सेना और मौत के जत्थे अफ्रीका में घूम रहे हैं। और मानो आपके ट्रीलियनों डालर खर्च करके ईराक और अफगानिस्तान में कब्जे का बंदोबस्त ही काफी न रहा हो, ईरान के खिलाफ एक युद्ध की बातचीत भी चल रही है। महान मंदी के समय से ही हथियारों का निर्माण और युद्ध का निर्यात वे प्रमुख तरीके रहे हैं, जिनके द्वारा अमेरिका ने अपनी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दिया है। 
अभी हाल ही में राष्ट्रपति ओबामा के कार्यकाल में अमेरिका ने सऊदी अरब के साथ 60 बिलियन डालर के हथियारों का सौदा किया है। वह संयुक्त अरब अमीरात को हजारों बंकर वेधक बेचने की उम्मीद लगाये बैठा है। इसने मेरे देश भारत को 5 बिलियन डालर कीमत के सैन्य हवाई जहाज बेचे हैं. मेरा देश भारत ऐसा देश है जहां गरीबों की संख्या पूरे अफ्रीका महाद्वीप के निर्धमतम देशों के कुल गरीबों से ज्यादा है। हिरोशिमा और नागासाकी पर बमबारी से लेकर वियतनाम, कोरिया, लैटिन अमेरिका के इन सभी युद्धों ने लाखों लोगों की बलि ली है … ये सभी युद्ध ”अमेरिकी जीवन शैली” को सुरक्षित रखने के लिए लड़े गये थे। आज हम जानते हैं कि “अमेरिकी जीवन शैली” … यानी वह मॉडल जिसकी तरफ बाकी की दुनिया हसरत भरी निगाह से देखती है … का नतीजा यह निकला है कि आज 400 लोगों के पास अमेरिका की आधी जनसंख्या की दौलत है।
इसका नतीजा हजारों लोगों के बेघर और बेरोजगार हो जाने के रूप में सामने आया है, जबकि अमेरिकी सरकार बैंकों और कारपोरेशनों को बेल आउट पैकेज देती है, अकेले अमेरिकन इंटरनेशनल ग्रुप (एआईजी) को ही 182 बिलियन डालर दिये गये। भारत सरकार तो अमेरिकी आर्थिक नीतियों की पूजा करती है। 20 साल की मुक्त बाजार व्यवस्था के नतीजे के रूप में आज भारत के 100 सबसे अमीर लोगों के पास देश के एक चौथाई सकल राष्ट्रीय उत्पाद के बराबर की संपत्ति है, जबकि 80 प्रतिशत से अधिक लोग 50 सेंट प्रतिदिन से कम पर गुजारा करते हैं; ढाई लाख किसान मौत के चक्रव्यूह में धकेले जाने के बाद आत्महत्या कर चुके हैं। 
हम इसे प्रगति कहते हैं, और अब अपने आप को एक महाशक्ति समझते हैं। आपकी ही तरह हम लोग भी सुशिक्षित हैं, हमारे पास परमाणु बम और अत्यंत अश्लील असमानता है.अच्छी खबर यह है कि लोग ऊब चुके हैं और अब अधिक बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं हैं। आकुपाई आंदोलन पूरी दुनिया के हजारों अन्य प्रतिरोध आंदोलनों के साथ आ खड़ा हुआ है, जिसमें निर्धनतम लोग सबसे अमीर कारपोरेशनों के खिलाफ खड़े होकर उनका रास्ता रोक दे रहे हैं। हममें से कुछ लोगों ने सपना देखा था कि हम आप लोगों को, संयुक्त राज्य अमेरिका के लोगों को अपनी तरफ पाएंगे और वही सब साम्राज्य के ह्रदय स्थल पर करते हुए देखेंगे. मुझे नहीं पता कि आपको कैसे बताऊं इसका कितना बड़ा मतलब है. उनका (1 फीसदी लोगों का) यह कहना है कि हमारी कोई मांगें नहीं हैं। शायद उन्हें पता नहीं कि सिर्फ हमारा गुस्सा ही उन्हें बर्बाद करने के लिए काफी होगा। मगर लीजिए कुछ चीजें पेश हैं, मेरे कुछ “पुराने क्रांतिकारी ख्याल” हमारे मिल-बैठकर इन पर विचार करने के लिए:  
हम असमानता का उत्पादन करने वाली इस व्यवस्था के मुंह पर ढक्कन लगाना चाहते हैं। हम व्यक्तियों और कारपोरेशनों दोनों के पास धन एवं संपत्ति के मुक्त जमाव की कोई सीमा तय करना चाहते हैं. “सीमा-वादी” और “ढक्कन-वादी” के रूप में हम मांग करते हैं कि :
  • व्यापार में प्रतिकूल-स्वामित्व (क्रास-ओनरशिप) को खत्म किया जाए। उदाहरण के लिए शस्त्र-निर्माता के पास टेलीविजन स्टेशन का स्वामित्व नहीं हो सकता; खनन कंपनियां अखबार नहीं चला सकतीं; औद्योगिक घराने विश्वविद्यालयों में पैसे नहीं लगा सकते; दवा कंपनियां सार्वजनिक स्वास्थ्य निधियों को नियंत्रित नहीं कर सकतीं।
  • प्राकृतिक संसाधन एवं आधारभूत ढांचे … जल एवं बिजली आपूर्ति, स्वास्थ्य एवं शिक्षा का निजीकरण नहीं किया जा सकता।
  • सभी लोगों को आवास, शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवा का अधिकार अवश्य मिलना चाहिए।
  • अमीरों के बच्चे माता-पिता की संपत्ति विरासत में नहीं प्राप्त कर सकते। इस संघर्ष ने हमारी कल्पना शक्ति को फिर से जगा दिया है। पूंजीवाद ने बीच रास्ते में कहीं न्याय के विचार को सिर्फ “मानवाधिकार” तक सीमित कर दिया था, और समानता के सपने देखने का विचार कुफ्र हो चला था। हम ऎसी व्यवस्था की मरम्मत करके उसे सुधारने के लिए नहीं लड़ रहे हैं, जिसे बदले जाने की जरूरत है। एक “सीमा-वादी” और “ढक्कन-वादी” के रूप में मैं आपके संघर्ष को सलाम करती हूं।
भाषण के वीडियो का लिंक :
http://rabble.ca/rabbletv/program-guide/2011/11/best-net/arundhati-roy-peoples-university-washington-square-park

साभार

शनिवार, 12 नवंबर 2011

भारत के पॉल राब्सन 'भूपेन हजारिका'

प्रणय कृष्ण
वे असम की मोजैक जैसी एकता के अलम्बरदार थे. बीच-बीच में असम जातीय संघर्षों और अफरा-तफरी के दौरों से गुजरा पर भूपेन दा के गीतों में साझी असमी संस्कृति की गहरी एका हमेशा मौजूद रही आयी. यह अवाम के साझे दुःख-दर्द और संघर्षों से बनी एका थी...

सरकारों के दमन से लरजती दमन उत्तर-पूर्व की भीषण सुन्दर ऊँची-नीची सड़कों पर कभी आपको गुजरने का मौक़ा मिलेगा तो औचक ही भूपेन हजारिका के गाये गीत के बोल कानों में बज उठेंगें- ‘हे डोला, हे डोला, हे डोला...’. भूपेन दा ने वंचितों के श्रम को जिस तरह इस गीत की लय में आबद्ध किया था, वह अपने आपमें एक प्रतिरोध था. उन्होंने ऐसे गीतों की मार्फ़त संगीत की दुनिया को बताया कि संगीत का श्रम से कितना गहरा रिश्ता है कि संगीत की बेहतरी का कोई भी रास्ता अवाम के संगीत से ही होकर आगे जा सकता है.
असम में १९२६ में पैदा हुए भूपेन हजारिका को अध्ययन की ललक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, कोलंबिया विश्वविद्यालय और शिकागो विश्वविद्यालय तक खींच ले गयी, पर वे हिन्दुस्तान लौटे. १२ साल की छोटी उम्र में ही उन्होंने असमी लोकसंगीत गायक के रूप में ख्याति अर्जित कर ली थी. अपने इलाके की मुश्किलों और संघर्षों के बीच सीखते हुए उन्होंने अपने संगीत को अवाम की जिंदगी का आईना बना दिया.
चायबागान के मजदूर हों या मछुवारा समुदाय, इन जुझारू तबकों की जिंदगी को उकेरते उनके लिखे-गाये गीत हमेशा याद किये जाते रहेंगें. इन गीतों में करुणा की एक गहरी अंतर्धारा व्याप्त है जो श्रोता को संघर्ष की जिंदगी के पास खडा कर देती है. भूपेन दा की गहरी मद्धिम आवाज़ में गूंजते ये गीत श्रोता के साथ अद्भुत तादात्म्य बनाते हैं, एका स्थापित करते हैं.
संसद में भी असम का प्रतिनिधित्व करने वाले भूपेन दा का जन-आन्दोलनों से गहरा जुड़ाव रहा आया. असम जन सांस्कृतिक परिषद के वे संस्थापक अध्यक्ष थे. उल्फा के खिलाफ लड़ते हुए मारे गए शहीद का. अनिल बरुआ और आज के असमी के मशहूर जनगायक लोकनाथ गोस्वामी सहित असमिया आंदोलनधर्मी लोकगीतकारों कलाकारों से उनके गहरे रिश्ते थे. भूपेन दा का गायन एक तरह से प्रगतिशील आंदोलन के साथ ही बना-बढ़ा. प्रगतिशील आंदोलन के इन पिछले पचहत्तर सालों पर नज़र डालिए तो अनिल बिश्वास, हेमंग विश्वास, शैलेन्द्र आदि जन गीतकारों की धारा ही भूपेन दा के गीतों की ऊर्जा भरती थी. वे इस श्रृंखला की एक मज़बूत कड़ी थे. असमी लोक संगीत को उन्होंने जमीन में गहरे धंस कर हासिल किया था, और उसे उसी गहराई से जमीन और आन्दोलनों से जोड़े भी रखा. उनका लोक, परलोक नहीं है, यह रोजमर्रा की लड़ाईयां लड़ता, संघर्ष की तैयारी करता लोक है.
वे असम की मोजैक जैसी एकता के अलम्बरदार थे. बीच-बीच में असम जातीय संघर्षों और अफरा-तफरी के दौरों से गुजरा पर भूपेन दा के गीतों में साझी असमी संस्कृति की गहरी एका हमेशा मौजूद रही आयी. यह अवाम के साझे दुःख-दर्द और संघर्षों से बनी एका थी.
सुनते हैं भूपेन दा अपने अध्ययन के दिनों में महान अश्वेत नायक-गायक पाल राब्सन के संपर्क में आये थे और उनके मिसीसिपी पर लिखे गीत से प्रेरित हो ‘गंगा, तुमि बहिछो कैनो’ (गंगा, बहती हो क्यों) नाम का कालजयी गीत लिखा था. जॉन लेनन, पॉल रॉब्सन जैसे क्रांतिकारी कालजयी गीतकारों के गीतों के साथ इस गीत की जगह दुनिया के प्रतिरोधी गीतों पहली सफ में है.
गीतकार, कवि, कम्पोज़र अभिनेता भूपेन दा के व्यक्तित्व की बहुत सी छवियाँ थीं. बहुमुखी प्रतिभा के धनी भूपेन दा ने असमिया फिल्म और संगीत को दुनिया के पैमाने पर खडा करने में अपना योगदान तो दिया ही, हिन्दी और बांग्ला फिल्म उद्योग को भी उन्होंने कई अभूतपूर्व गीत दिए. रुदाली फिल्म का ‘दिल हूम हूम करे, घबराए’ जैसा गीत विरले ही संभव हो पाता है. उन्होंने फिल्म उद्योग में भी अपनी मूल असमी गायकी की ताकत को ही और विकसित किया था.
दादा साहेब फाल्के, संगीत नाटक एकेडमी और पद्मश्री जैसे पुरस्कारों से सम्मानित भूपेन दा कुछ वर्ष पूर्व सत्ता (भाजपा) के बहुत नजदीक पहुँच गये थे, पर जल्दी ही वे इस मोह से छूट गए. आम मजूरों-मेहनतकशों के गायक के रूप में किया गया काम आज भी आंदोलन के गीतों की तरह कानों में गूंजता है.

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

आर्थिक मंदी, फिर मची खलबली

 बनवारी लाल शर्मा 
अमरीका की क्रैडिट रेटिंग क्या घटी, पूरी दुनिया में हलचल मच गई। लगता है जैसे एक बार फिर आर्थिक मंदी पूरे विश्व को चपेट में लेने की तैयारी में है। आखिर क्या और क्यों हुआ ऐसा और भारत पर इस का क्या असर पड़ेगा, इस पर लेख में चर्चा की गयी है। अंतरराष्ट्रीय साख निर्धारक संस्था स्टैंडर्ड ऐंड पुअर्स यानी एसऐंडपी ने अमरीकी क्रैडिट की रेटिंग एएए से घटा कर एए प्लस कर दी। बताया जाता है कि 95 सालों में ऐसा पहली बार हुआ है। इस खबर ने दुनिया भर के शेयर बाजारों को हिला कर रख दिया। भारतीय शेयर बाजार भी औंधे मुंह गिरा। उसका सूचकांक अपने 14 महीने के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया। यही हाल दुनिया के अन्य शेयर बाजारों का भी रहा। असर ऐसा हुआ कि महज एक ही घंटे में कुछ लोगों का दिवाला पिट गया। इसी के साथ पूरी दुनिया में एक बार फिर मंदी हावी हो गई। 2007 की मंदी का असर यह रहा कि अमरीका में गरीबी का प्रतिशत बढ़ गया है और 2007 से लेकर 2010 तक के आंकड़ों में उल्लेखनीय फर्क नजर आने लगा है। बताया जाता है कि इसका असर आने वाले सालों में और भी दिखाई देगा। हाल ही में अमरीका के सेंसेक्स ब्यूरो की ओर से जारी आंकड़ों में बताया गया है कि 2010 में गरीबी की प्रतिशत में 0.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और यह 15.1 प्रतिशत पर पहुंच गई है। 2007 में मंदी की शुरुआत में यह प्रतिशत 2.6 थी, जबकि 2009 में 14.3 प्रतिशत पर थी। गौरतलब है कि 15.1 का आंकड़ा रेटिंग से पहले का है। चूंकि मंदी का दूसरा दौर चल रहा है, इसलिए जाहिर है अभी इस प्रतिशत में और वृद्धि होगी। पहली नजर में देखने में यही लगता है कि इस रेटिंग में कोई ज्यादा फर्क तो नहीं है लेकिन जानकारों का मानना है कि चूंकि अमरीकी अर्थव्यवस्था पर विश्वबाजार निर्भर करता है इसलिए रेटिंग में हल्की सी भी कमी का असर दिखना स्वाभाविक है। इस रेटिंग का कुल मिला कर आशय यह है कि अमरीका को कर्ज देने में जोखिम है। दुनिया भर में अब तक यह आम धारणा थी कि अमरीकी सरकार का कोषागार काफी मजबूत है। यह खत्म न होने वाला कुबेर का खजाना है। इसीलिए इसे कर्ज देने में कोई खतरा नहीं है, लेकिन एसऐंडपी द्वारा हाल ही में की गयी रेटिंग से इस आम धारणा को गहरा धक्का लगा है। लेहमैन ब्रदर्स समेत तमाम दिग्गज बैंक 2008 में आर्थिक मंदी के दौर से गुजर चुके हैं, जिसका असर पूरी दुनिया में देखा गया। अभी दुनिया उस झटके से पूरी तरह उबर भी नहीं पायी है कि एक बार फिर से मंदी के बादल मंडराने लगे। ऐसे में भविष्य को सुरक्षित कर लेने की गरज से अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कर्ज लेने की सीमा बढ़ाने का फैसला किया। यह मामला जब अमरीकी कांग्रेस में अनुमोदन के लिए आया तो बहुमत न होने के कारण ओबामा के प्रस्ताव को हरी झंडी नहीं मिल सकी। विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी को इसके लिए मनाने का प्रयास किया गया लेकिन वह तैयार नहीं हुई। इसको लेकर रिपब्लिकन पार्टी और डेमोक्रेटिक पार्टी के बीच लंबी बहस चली। कई दिनों की मशक्कत के बाद आखिरकार ओबामा सरकार को रिपब्लिकन पार्टी को इसके लिए तैयार करने में सफलता मिल ही गयी। दुनिया में यह संदेश गया कि अमरीकी अर्थव्यवस्था पर भरोसा नहीं किया जा सकता क्योंकि वह कट्टरपंथियों और सिरफिरे नेताओं के हाथ में है। इससे पहले अमरीका में दिनोदिन बढ़ती जा रही बेरोजगारी के मद्देनजर राष्ट्रपति बराक ओबामा पर आउटसोर्सिंग को बंद कराने के लिए दबाव डाला गया। बराक ओबामा अमरीका में निवेश के लिए दूसरे देशों को राजी करने हेतु विभिन्न देशों का हाल ही में दौरा भी कर चुके हैं। इससे यह आशंका और पुख्ता हो जाती है कि दुनिया का सबसे सम्पन्न देश अमरीका अब कंगाली के कगार पर है।
साख की रेटिंग का फंडा
रेटिंग पर चर्चा करने से पहले देखें कि स्टैंडर्ड ऐंड पुअर्स कैसी संस्था है। 1906 में अमरीका में स्टैंडर्ड स्टैटिस्टिक ब्यूरो नाम की एक संस्था हुआ करती थी जो अर्थव्यवस्था से संबंधित तमाम सूचनाओं को इकट्ठा किया करती थी। वह उन सूचनाओं को पूरे साल एक कार्ड के रूप में प्रकाशित किया करती थी। इसकी स्थापना लुतर ली ब्लेके ने की थी। वहीं, 1860 में हेनरी वर्मनम पुअर्स ने अमरीका में एक और कंपनी की स्थापना की थी जो अमरीका की अर्थव्यवस्था पर सालाना तौर पर तमाम सूचनाओं को एक किताब के रूप में प्रकाशित किया करती थी। बाद में हेनरी वर्मनम के बेटे हेनरी विलियम ने इसे संभाला और इसका नाम एचवीऐंडएचडब्लू पुअर्स कंपनी रखा, लेकिन 1941 में इन दोनों कंपनियों का विलय हुआ और यह स्टैंर्डउ ऐंड पुअर्स बन गयी तथा यह वित्तीय सेवा कंपनी के रूप में जानी जाने लगी। वित्तीय शोध, दुनिया भर के स्टाक व बान्ड का विश्लेषण करने के साथ यह कंपनी सार्वजनिक और निजी कारपोरेशनों की रेटिंग करती है। इसकी रेटिंग को अमरीकी स्टाॅक एक्सचेंज द्वारा मान्यता प्राप्त है। क्रेडिट रेटिंग के लिए गे्रड निर्धारित हैं। ये गे्रड एएए से लेकर डी तक हैं। हाल ही में स्टैंर्डउ ऐंड पुअर्स ने विभिन्न पक्षों का विश्लेषण करके अमरीकी अर्थव्यवस्था की साख की रेटिंग की है। इसकी रेटिंग के अनुसार, मौजूदा समय में अमरीका की रेटिंग एएए से गिरकर एए भी नहीं रही, बल्कि उससे भी नीचे एए प्लस हो गई है। यानी अमरीकी अर्थव्यवस्था की क्रडिट रेटिंग सर्वोच्च एएए की सर्वोच्च रेटिंग से एए प्लस के तीसरे पायदान पर पहुंच चुकी है। एसऐंडपी ने यह भी कहा है कि यदि आगे भी यही हाल रहा तो वह अमरीकी ऋण साख को अगले 12 से 18 महीनों में और घटा सकती है। यही दुनिया भर के निवेशकों के लिए चिंता का विषय बन गया है। स्टैंडर्ड ऐंड पुअर्स की रेटिंग का असर इतना जबरदस्त रहा कि शेयर बिकवाली का दौर शुरू हो गया। अमरीकी बान्ड के ग्राहक देशों, संस्थाओं और लोगों को भी यह आशंका होने लगी कि अगर अमरीका का खजाना खाली है तो उनकी रकम का डूबना तय है। वहीं अमरीका को कर्ज देने वाली संस्थाओं को भी कर्ज की रकम की वापसी को लेकर शंका होने लगी और लगने लगा कि 2008 की आर्थिक मंदी का जिन्न एक बार फिर से बोतल से बाहर निकल आया है। इसका असर विश्व की अर्थव्यवस्थाओं पर देखने को मिला और विश्व के तमाम प्रमुख शेयर बाजारों में भारी उथलपुथल मच गयी।
विशेषज्ञों की नजर में
विशेषज्ञों का इस मुद्दे पर नजरिया अलग-अलग है। कुछ का यह मानना है कि 2008 की स्थिति इससे बिल्कुल अलग थी। बल्कि दोनों स्थितियों में जमीन और आसमान का फर्क है। कोलकाता के जानेमाने अर्थशास्त्री शैबाल कर का मानना है कि यह महज एक आशंका है कि अमरीका एक बार फर आर्थिक मंदी की चपेट में आ सकता है। 2008 में जो स्थिति पैदा हुई थी, अर्थशास्त्र की भाषा में वह ‘सबप्राइम क्राइसिस’ कहलाती है। उस समय अमरीकी बैंक और वित्तीय संस्थानों ने ऐसी कंपनियों को कर्ज दिया था जो कर्ज को चुकाने में सक्षम नहीं थीं और कंपनियाँ डूब गयीं। इसीलिए कर्ज देने वाले बहुत सारी संस्थाओं को रकम वापस न मिलने के कारण मंदी का संकट देखने को मिला। इस बार मामला वैसा नहीं है। इस बार एसऐंडपी की रेटिंग के कारण बाजार में हड़कंप मचा है। माना यह भी जा रहा है कि अगर यह आशंका सच साबित हुई तो अमरीका को अपनी परियोजना से बाहर जाकर कई लाख करोड़ डाॅलर कर्ज लेना पड़ सकता है। अर्थशास्त्री अभिजीत राय चैधरी कहते हैं कि कर्ज लेने से अमरीका के सरकारी खजाने पर असर पड़ेगा। ऐसे में कर्ज चुकाने में भी अमरीका को दिक्कत पेश आएगी। जाहिर है कि कर्ज देने वाले का जोखिम बढ़ जाएगा।
एसऐंडपी से नाराजगी
एसऐंडपी की रेटिंग से अमरीका में बड़ी नाराजगी है। अमरीकी वित्तमंत्री टिमोथी गेथनर ने अपने एक बयान में कहा है कि रेटिंग एजेंसी एसऐंडपी ने अमरीका के वित्तीय बजट के गणित का अच्छी तरह अध्ययन नहीं किया है और उसने गलत निर्णय ले लिया। एजेंसी ने अन्य मुद्दों पर ध्यान देने के बजाय पिछले कुछ महीनों से चल रही बकवास बहस पर ज्यादा ध्यान दिया। वहीं, ओबामा ने भी अमरीकी ट्रेजरी सुरक्षित होने का दावा करते हुए कहा कि अमरीका हमेशा ‘ट्रिपल ए’ देश बना रहेगा, भले ही बाजार ऊपर नीचे होता रहे। अमरीका केन्द्रीय बैंक फैडरल रिजर्व ने अपने एक बयान में कहा है कि स्टैंडर्ड ऐंड पुअर्स की रेटिंग का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमारी सिक्युरिटी पर कुछ ही समय के लिए असर रहेगा, क्योंकि अन्य कई बड़ी रेटिंग एजेंसियों की नजर में अमरीका की अर्थव्यवस्था अभी भी दुनिया की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था है। चीन ने अमरीका के सरकारी बाँडों में 1,600 अरब डाॅलर का निवेश कर रखा है, जाहिर है, चीन को बड़ा धक्का लगा है।
भारत की स्थिति
अमरीका के मौजूदा हालात पर भारत ने निश्चित तौर पर बड़ी चैकस प्रतिक्रिया जतायी है, लेकिन रिजर्व बैंक से लेकर योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया तक ने दावा किया है कि यह गंभीर चिंता का विषय नहीं है। इनका कहना है कि भारतीय बाजार की अपनी स्थिति मजबूत है और वह अमरीका के भरोसे नहीं है। लेकिन वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने संकट के इस दौर में चिंता जतायी है और कहा है कि ऐसे में विश्व बैंक को अपना पूंजी आधार बनाने के तरीके ढूँढने होंगे। साथ ही विश्व बैंक को कुछ अलग हट कर सोचने की जरूरत है।
(सरिता के अक्टूबर (द्वितीय) 2011 अंक से साभार)

रविवार, 6 नवंबर 2011

कल अमेरिका में प्रतिरोध की लहर के केंद्र में था ओकलैंड

ऐसा लगता है कि अमेरिका फ़िलहाल विरोध के एक असाधारण और अभूतपूर्व लहर के आगोश में आ चुका है। एक ऐसी लहर जो नवउदारवादी नीतियों और कारपोरेट लोभ, लालच और लूट के खिलाफ पूरी दुनिया में फैलाते जा रहे गुस्से का हिस्सा है। इन नीतियों और उनको निर्धारित करने वाले नए ज़माने के उन शहंशाहों ने, जिन्हें अमेरिका में अब 1% का नाम दिया गया है, वर्षों तक दुनिया के एक बड़े हिस्से को युद्ध, भुखमरी और तबाही में झोंकने और इस जीवनदायिनी ग्रह को विनाश के कगार पर पहुँचा देने के पश्चात् अब अपने देश की की जनता को ही रोजी-रोटी, पनाह और जिंदगी के सुख-चैन से महरूम करना शुरू कर दिया है। इसी के खिलाफ गुस्से को इजहार करने का ही नाम है "आक्युपाई"। और शोषण और विनाश के उस वर्त्तमान दुष्चक्र से निकलने की एक मासूम पर ईमानदार कोशिश का नाम है "आक्युपाई" जिसे पूँजीवाद कहते है। मुमकिन है इस आन्दोलन के प्रणेता या नेता ऐसा नहीं सोचते या मानते हों लेकिन अपने जिन नारों और मुद्दों से से उन्होंने "शैतान की आँत" में खलबली मचा रखी है वह सीधे सीधे लोभ-लालच-लाभ पर टिकी इस व्यवस्था के खिलाफ जाती हैं।

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कल ओकलैंड के प्रदर्शन का एक दृश्य 
इसी के चलते मुख्यतः नौजवानों के नेतृत्व वाले इस आन्दोलन को मजदूरों, अमेरिका के विभिन्न ट्रेड यूनियनों एवं वामपन्थी संगठनों, शिक्षकों, छात्रों और समाज के अनेक तबकों का समर्थन हासिल हो रहा है। कल के ओकलैंड के "आम हड़ताल" की सफलता के बाद यही उम्मीद की जा सकती है कि आन्दोलन के प्रभाव और पहुँच में और विस्तार होगा। इसके पहले ही यह अमेरिका के 900 छोटे बड़े शहरों में पहुँच चुका था। कल की सफलता के बाद उसे और अधिक फ़ैलाने से रोका नहीं जा सकता है। ओकलैंड के कल के कार्यक्रमों में 30,000 से भी अधिक लोगों के शामिल होने का समाचार मिला है और आम हड़ताल के तौर पर देखा जाय तो यह काफी हद तक सफल रहा है कैलीफोर्निया प्रान्त का यह शहर पूरी तरह बन्द तो नहीं हुआ लेकिन अपराह्न को स्थानीय सिटी हॉल के सम्मुख स्थित फ्रांक ओगावा प्लाज़ा से (जिसे अब ओस्कार ग्रांट प्लाज़ा का नया नाम दिया गया है और जहाँ आक्युपाई शिविर कायम है) जुलूस जब यहाँ के बंदरगाह पर पहुँचा तो उसे पहले ही बन्द घोषित किया जा चुका था। यह आन्दोलनकारियों द्वारा घोषित योजना के अनुरूप हासिल एक उल्लखनीय सफलता थी। इसके अलावा कैलीफोर्निया प्रान्त के बे एरिया में और पूरे अमेरिका में इस आम हड़ताल के समर्थन में आयोजित 'राष्ट्रीय प्रतिरोध दिवस' के तहत जुलूस और प्रदर्शनों की गहमागहमी रही। दिन भर पूरी तरह शान्तिपूर्ण रहे इस आन्दोलन को देर रात को कुछ अराजकतावादी तत्वों ने तोड़फोड़ और पुलिस के साथ हिंसा में संलग्न होकर नुकसान पहुँचाया है जिसकी हड़ताल के अह्वानकर्ता आक्युपाई ओकलैंड ने कड़े शब्दों में निन्दा की है
से साभार