रविवार, 7 मई 2017
आदिवासी जनता का गुलामी के खिलाफ जंग
(सुनील कुमार)
‘‘देश में आजादी के इतिहास की बात होती हैं तो कुछ लोगों की चर्चा बहुत होती है, कुछ लोगों की आवश्यकता से अधिक होती है लेकिन आजादी में जंगलों में रहने वाले हमारे आदिवासियों का योगदान अप्रतीक था। वह जंगलों में रहते थे बिरसा मुंडा का नाम तो शायद हमारे कानों में पड़ता है लेकिन शायद कोई आदिवासी जिला ऐसा नहीं होगा जहां 1857 से लेकर अब (थोड़ा रूककर) आजादी आने तक आदिवासियों ने जंग न की हो, बलिदान न दिया हो। आजादी क्या होती है, गुलामी के खिलाफ जंग क्या होता है उन्होंने अपने बलिदान से बता दिया था।’’ - नरेन्द्र मोदी, 15 अगस्त 20176
भारत के प्रधानमंत्री ने यह बात लाल किले के प्राचीर से कहा और सही बात कहा लेकिन एक बात जो उनकी जुबान पर
आयी लेकिन उन्होंने उसे दबा दिया और आदिवासियों की लड़ाई को आजादी तक ही सीमित कर दिया, वह लड़ाई अब भी जारी है। जिसका वर्तमान रूप माओवाद के नाम से जाना जाता है। आदिवासी जनता देशी-विदेशी पूंजीपतियों के रहमो करम पर जिन्दा नहीं रहना चाहती है इसके लिये वह हर रोज संघर्ष कर रही है। मोदी जी अपने भाषण में आदिवासी जनता के बलिदानों का जिक्र करके अपने आप को पूर्ववर्ती सरकारों से अलग दिखाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन उनकी पूरी कार्यप्रणाली पूर्ववर्ती सरकारों जैसी ही है। नई आर्थिक नीतियों को और तेज गति से लागू करने के लिये आदिवासियों की जीविका के साधनों जल-जंगल-जमीन छीन रही है। खनिज सम्पदा को देशी विदेशी लुटेरों को लूटने के लिये ‘मेक इन इण्डिया’ के नाम पर खूली छूट दी जा रही है। जंगल से लूटे गए माल को शहर और विदेशों तक पहुंचाने के लिये जंगली ईलाकों में छह लाईन की सड़क का निर्माण करवाया जा रहा है, समुद्री तटों पर बंदरगाह बनवाये जा रहे हैं। इस लूट के विरोध में आदिवासी कहीं माओवादी आंदोलन के नेतृत्व में हथियार बंद, तो कहीं अन्य जन संगठनों के नेतृत्व में धरना-प्रदर्शन के द्वारा इस लूट को रोकना चाहते हैं। कहीं कहीं आंशिक जीत भी मिल जाती है। माओवादी ईलाकों में कई साल पहले इकरारनामा (MOU) होने के बावजूद भी उसे जमीन पर लागू नहीं किया जा सका है जैसा कि बस्तर के लोहंडीगुडा में 2044 हेक्टेअर में बनने वाला टाटा का स्टील प्लांट का इकरारनमा 6 जून, 2005 से 4-5 नवीनीकरण के बावजदू 2016 में रद्द करना पड़ा, यही हाल अन्य इकरारनामों का भी है। सरकार आदिवासी जनता के संघर्ष के कारण इन कम्पनियों के लिये जमीन अधिग्रहण नहीं कर पा रही है। आदिवासियों ने जिस तरह से अंग्रेजों की गुलामी को नही स्वीकारा उसी तरह वह देशी-विदेशी पूंजीपतियों की गुलामी को स्वीकार नहीं करना चाहते। वह अपनी आजादी को बचाये रखने के लिये, अपने जीविका के साधन जल-जंगल-जमीन पर अपना हक चाहते हैं उसके लिये वह संघर्ष कर रहे हैं जिसको सरकार पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए छीनना चाहती है। आदिवासी प्रकृति प्रेमी होता है और वह खुले में जीना चाहता है। इस जिन्दगी में उनको आजादी मिलती है। उनकी आजादी और जीविका के साधन को छीनने के लिये अर्द्ध सैनिक बलों के जवानों को खुली छूट सरकार ने दे रखी है कि आदिवासियों की हत्या, बलात्कार करो, घरों को लूटो आपको कुछ नहीं होने वाला है जिसकी झलक हम देख रहे हैं। इन कम्पनियों को भूमि उपलब्ध कराने के लिये ‘अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो’ नीति के तहत 2004 में सलवा जुडूम चलाया गया जिसमें 650 गांव को जला दिया गया, महिलाओं से बलात्कार किया गया, सैकड़ों लोगों को मार दिया गया, लाखों लोग गांव छोड़ने पर मजबूर हुए, हजारों लोगों को उनके गांव से उठाकर कैम्पों में रखा गया जिसका खर्च टाटा और एस्सार जैसी कम्पनियों ने उठाया। सरकार द्वारा गठित कमेटी का कहना है कि कोलम्बस के बाद जमीन हड़पने का सलवा जुडूम सबसे बड़ा अभियान था। गृहमंत्री चिदम्बरम द्वारा आदिवासी इलाकों में माओवादियों के सफाये के लिये ऑपरेशन ग्रीन हंट चलाया गया। इस अभियान के तहत काफी संख्या में सीआरपीएफ, सीआईएसएफ, बीएसएफ, कोबरा, नागालैंड, भारत तिब्बत सीमा पुलिस, ग्रे हाउंड भिन्न-भिन्न तरह के अर्द्ध सैनिक बल के जवानों को माओवादी ईलाकों में भेजा गया। आदिवासी ईलाकों में इतनी बड़ी फोर्स होने से अघोषित रूप से जंग का रूप ले लिया। इसे हिमांशु कुमार की भाषा में कहा जाये तो अमीर और गरीब की सेना के बीच छत्तीसगढ़ में जंग चल रही है। अमीर की सेना के द्वारा फर्जी मुठभेड़, गांव में लूट-पाट, बलात्कार बढ़ गया। मिशन 2016 के तहत बस्तर संभाग में 134 लोगों की हत्यायें की गई। आई.जी. एस.आर.पी. कल्लूरी सोशल साईट पर खुशी का इजहार करते हुये सुकमा एसपी कल्याण एलेसेला को बधाई देते है। इस तरह की घटनाओं के बाद पुलिस वालों को पुरस्कृत भी किया जाता है, जैसे सोनी सोरी के गुप्तांग में पत्थर डालने वाले अंकित गर्ग को 2013 में राष्ट्रपति द्वारा वीरता पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। इसी तरह एसएसपी रहते हुए कल्लुरी को भी वीरता पुरस्कार से नवाजा जा चुका है।
सरकारी जुल्म
30 अक्टूबर, 2015 को राष्ट्रीय स्तर की महिलाओं का एक दल जगदलपरु और बीजापुर गया था। इस दल को पता चला कि 19/20 से 24 अक्टूबर, 2015 के बीच बासागुडा थाना अन्तर्गत चिन्न गेल्लूर, पेदा गेल्लूर, गुंडुम और बुड़गी चेरू गांव में सुरक्षा बलों ने जाकर गांव की महिलाओं के साथ यौनिक हिंसा और मारपीट की। पेदा गेल्लूर और चिन्ना गेल्लूर गांव में ही कम से कम 15 औरतें मिलीं, जिनके साथ लैंगिक हिंसा की वारदातें हुई थीं। इनमें से 4 महिलायें जांच दल के साथ बीजापुर आईं और कलेक्टर, पुलिस अधीक्षक व अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक के समक्ष अपना बयान दर्ज कराइंर्। इन महिलाओं में एक 14 साल की बच्ची तथा एक गर्भवती महिला थीं, जिनके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया था। गर्भवती महिला के साथ नदी में ले जाकर कई बार सामूहिक बलात्कार किया गया। महिलाओं के स्तनों को निचोड़ा गया, उनके कपड़े फाड़ दिये गये। मारपीट, बलात्कार के अलावा इनके घरों के रुपये-पैसों को लूटा गया, उनके चावल, दाल, सब्जी व जानवरों को खा लिए गये और जो बचा वह साथ में ले गये। घरों में तोड़-फोड़ किया गया और उनके टॉर्च, चादर, कपड़े भी लूटे गये।
इस बीच में काफी फर्जी मुठभेड़ और बलात्कार की घटनाएं हुईं। 15 जनवरी, 2016 को सीडीआरओ (मानवाधिकार संगठनों का समूह) और डब्ल्यूएसएस (यौन हिंसा और राजकीय दमन के खिलाफ महिलाएं) की टीम छत्तीसगढ़ गई थी। इस टीम का अनुभव भी अक्टूबर में गई टीम जैसा ही था। 11 जनवरी, 2016 को सुकमा जिले के कुकानार थाना के अन्तर्गत ग्राम कुन्ना गांव के पहाड़ियों पर ज्वांइट फोर्स (सी.आर.पी.एफ., कोबरा, डीआरजी, एसपीओ) के हजारों जवानों (लोकल भाषा में बाजार भर) ने डेरा डाल रखा था। कुन्ना गांव में पेद्दापारा, कोर्मा गोंदी, खास पारा जैसे दर्जन भर पारा (मोहल्ला) हैं। यह गांव मुख्य सड़क से करीब 15-17 कि.मी. अन्दर है और गांव के लोगों को सड़क तक पहुंचने के लिए 3 घंटे लगते हैं। 12 जनवरी, 2016 को सुरक्षा बलों, एसपीओ और जिला रिजर्व फोर्स के जवानों ने गांव को घेर लिया। फोर्स ने ऊंगा के घर का दरवाजा तोड़ दिया, घर में रखे 500 रुपये ले लिये और 10 किलो चावल, 5 किलो दाल और 5 मुर्गे खा लिये। उनकी पत्नी सुकुरी मुसकी के अन्डर गारमेंट जला दिये और उनके घर के दिवार पर यह लिख दिये -‘‘फोन कर 9589117299 आप का बलाई सतडे कर।’’ ऊंगा का आधार कार्ड भी फोर्स वाले लेकर चले गये। इसी तरह गांव के अन्य घरों में तोड़-फोड़ की। चावल, दाल, सब्जी, मुर्गे, बकरी खाये और मरक्का पोडियामी के घर में लगे केले के पेड़ से केले काट कर ले गये। मुचाकी कोसी, करताम हड़मे, करतामी गंगी, हड़मी पेडियामी, कारतामी कोसी, पोडियामी जोगी व हिड़मे भड़कामी सहित कई महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार व लैंगिक हिंसा किया। महिलाओं ने सोनी सोरी के नेतृत्व में बस्तर संभाग के कमिश्नर के पास शिकायत की। इन महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ और उनके स्तन को निचोड़ा गया यह देखने के लिये कि वह विवाहित है या अविवाहित। गांव में 17-18 साल की लड़की अगर शादी-शुदा नहीं है तो उसको माओवादी मान लिया जाता है।
बीजापुर के बासागुड़ा थाना अर्न्तगत बेलम नेन्द्रा व गोटुम पारा में 12 जनवरी, 2016 को सुरक्षा बल के ज्वांइट फोर्स गांव में तीन दिन तक रूकी रही। इन तीन दिनों में वे गांव के मुर्गे, बकरे को बनाये, खाये और दारू भी पिये। कराआईती के घर में 7 जगहों पर खाना बनाये और दारू पिये। कराआईती के घर के 40 मुर्गे, 105 कि.ग्रा. चावल, 2 किलो मूंग दाल, बरबटी खाये और दो टीन तेल (एक टीन कोईना का और एक सरसों का) खत्म कर दिये। घर में रखे 10 हजार रू. भी ले गये। कराआईती के घर में खाने के साथ दारू भी पिये, जिसके बोतल आस-पास पड़े हुये थे।
मारवी योगा के घर के 14 मुर्गे, 10 किलो चावल, मूंग दाल, सब्जी और टमाटर खा गये, जिन्हें वे शनिवार को बाजार से लाये थे। वे अपने साथ बड़े भाई की बेटी को रखते हैं जिसको फोर्स वाले ने गोंडी में कहा कि सभी औरतें एक साथ रहो रात में बतायेंगे। यहां तक कि एक घर से कॉपी और पेन भी ले गये। गांव में रूकने के दौरान दर्जनों महिलाओं के साथ बलात्कार और यौनिक शोषण किये। इससे पहले भी 6 जनवरी को सुरक्षा बलों के जवान गये थे। तब उन्होंने मरकमनन्दे को पीटा था, उसकी बकरी ले गये थे और लैंगिक इस हिंसा भी की थी। इस गांव को सलवा जुडूम के समय दो बार जला दिया गया था। जब ये पीड़ित महिलाएं बीजापुर आयीं तो पुलिस अधीक्षक इनकी शिकायत लेने को तैयार नहीं थे। इनको थाने के अंदर डराया-धमकाया गया। दो-तीन दिन बाद देश भर से जब एसपी-डीएम को फोन गया तो इनकी शिकायत सुनी गई।
सुकुमा जिले के कोटा थाना अन्तर्गत गोमपाड़ गांव में 13 जून, 2016 को घर से मड़कम हिड़मे को उठाकर अर्द्धसैनिक बल के जवान ले गये और दुष्कर्म करने के बाद हत्या कर दिया गया। उसको काली वर्दी पहनाकर और एक भरमार बंदूक रखकर माओवादी बतलाने की कोशिश की गई। जेल से जमानत पर रिहा हुये सत्रह वर्षीय अर्जुन को उसके घर से उठा कर 16 अगस्त, 2016 की हत्या कर दी गई। 24 सितम्बर, 2106 को दंतेवाड़ा जिले के गारदा गांव के दो लड़के सोनाकू राम और बिजनो जिनकी उम्र 16 व 18 वर्ष थी, अपने रिश्तेदार के घर मृत्यु की सूचना देने गये थे। रिश्तेदार के घर से सुबह चार बजे उठाकर उनकी हत्या कर दी गई। 28 जनवरी 2017 में बाजार गये भीमा और सुखमती की फर्जी मुठभेड़ में हत्या कर दी गई। सुकमा जिले के चिंतागुफा गांव में 1 अप्रैल, 2017 को सुबह चार बजे ‘सुरक्षा’ बल के जवानों द्वारा बाप के सिर पर बंदूक रख कर 14 वर्षीय लड़की के साथ बलात्कार किया गया। इस तरह की खबरें आये दिन बस्तर संभाग से मिलते रहते हैं। यह खबर राष्ट्रीय समाचार पत्रों के मुख्य समाचार नहीं बन पाती। राष्ट्रीय मीडिया में यह खबर तब आती है जब बीजापुर के सरकिनागुड़ा जैसी घटना होती है जिसमें 17 ग्रामीणों को (इसमें 6 बच्चे थे) मौत की नींद सुला दी जाती है या ताड़मेटला या उड़ीसा के मलकानगीरी जैसी घटना होती है। इस खबर पर रायपुर से लेकर दिल्ली तक यह कह कर खुशियां मनाई जाती है कि बहादुर जवानों को बड़ी सफलता मिली है। नक्सलियों के मांद में घूसकर मारा, माओवादियों को धूल चटाया इत्यादि इत्यादि। झीरम घाटी या सुकमा जैसी बड़ी घटना होती है तो राष्ट्रीय अखबारों में इसको कायराना हमला, माओवादियों की हताशा बताया जाता है, इसी तरह के शब्द सरकार द्वारा इस्तेमाल होती है और माओवादियों को खत्म करने के लिये और अर्द्धसैनिक बल भेजा जाता है, आधुनिक हथियारें खरीदे जाते है, सेना और वायु सेना की मद्द की बात कि जाती है।
गागड़ू राम दस साल पहले अपना गांव चिंगेर छोड़ कर कासोली राहत शिविर में रहने आए थे। इन्हें उम्मीद थी कि वो जल्दी ही अपने गांव लौट जाएंगे लेकिन वे कभी लौट नहीं पाए। कुछ ऐसे ही हाल में रह रहे हैं पल्लेवाल गांव के मुरिया आदिवासी मंगड़ू राम। मंगड़ू राम कहते हैं “मैं अपने गांव में मरना चाहता हूं. यहां कासोली कैंप में नहीं.” “मोदी आए थे, वो बोले हैं कि मैं दादा लोगों को ख़त्म कर दूंगा, उनको समझा दूंगा। कहां खत्म हो रहे हैं ये तो अब और बढ़ रहे हैं, लगता है, एक दिन यहीं कैंप में ही हम सब को ख़त्म होना होगा।”
सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों पर हमले
जब इस तरह के दमन का विरोध मानवाधिकार कार्यकर्ता, पत्रकार, वकील, बुद्धिजीवी करते हैं तो उनको भी माओवादी समर्थक कहकर उन पर झूठे केस बनाकर उन पर जुल्म किया जाता है। अर्द्धसैनिक बलों के अलावा सामाजिक एकता मंच, बस्तर विकास संघर्ष समिति, नक्सल पीड़ित संघर्ष समिति, अग्नि जैसे दर्जनों मंच सरकारी संरक्षण में बनाये गये हैं जिनकी सभाओं में आई जी कल्लूरी सहित जिले के एसपी शामिल होते रहे हैं। इन मंचों के माध्यम से राजसत्ता सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हमले करवाती है, डराने धमकाने का काम करती है। महेन्द्र कर्मा के पुत्र छविन्द्र कर्मा सलवा जुडूम 2 की घोषणा कर चुके हैं। बस्तर के फरसपाल में आयोजित छविन्द्र कर्मा और कल्लूरी के प्रेस कान्फ्रेंस में अरविन्द सेवानी और रश्मि परास्कर भी शामिल थे। अरविन्द सेवानी और रश्मि परास्कर भूमकाल संगठन से जुड़े हुये हैं जो कि महाराष्ट्र सरकार के फडिंग से चलता है और इनका सम्बंध नागपुर से है। ये दोनों सलवा जुडूम के नेताओं से मिलते हैं और जगदलपुर लीगल एड ग्रुप (जगलक) को नक्सलियों का चेहरा बताते हैं। इन सब बातों के खुलासा करने वाले पत्रकारों को जेल में डाल दिया जाता है और धमकियां दी जाती है। सलवा जुडूम 1 के समय बस्तर की अंदरूनी ईलाके की खबरें बाहर नहीं आये इसके लिये पहले हिमांशु कुमार के आश्रम को तोड़ कर भगा दिया गया। ताड़मेटला जाते समय स्वामी अग्निवेश पर अंडे और पत्थर फेंके गये। सलवा जुडूम टू की तैयारी चल रही है तो जगदलपुर लीगल एड ग्रुप के शालिनी गेरा और ईशा खंडेलवाल, पत्रकार मालिनी सुब्रमण्यम को जगदलपुर छोड़ना पड़ा। सामाजिक कार्यकर्ता बेला भाटिया के घर पर हमले किया गया और 24 घंटे के अंदर बस्तर छोड़ देने का अल्टीमेटम दिया गया। दिल्ली के प्रो. अर्चना प्रसाद और नंदनी सुंदर सहित 5 सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हत्या और माओवादियों से सम्बंध रखने का केस दर्ज किया गया। तेलंगाना डेमोक्रेटिक फ्रंट के लोगों को झूठे केसों में फंसा कर जेलों में डाल दिया गया । अग्नि संस्था से जुड़े बबू बोरई खुलेआम पोस्ट करता है कि हिमांशु कुमार और कमल शुक्ला को चप्पल से पिटाई और मुंह काला करने वाले को दो लाख रू. ईनाम दिया जायेगा और वह खुलेआम घूमता है।
मोदी जी आप करहते हैं ‘‘जंगलों में माओवाद, सीमा पर उग्रवाद के नाम पर, पहाड़ में आतंकवाद के नाम पर कंधे पर बंदूक लेकर निर्दोषों को मारने का खेल चलाया जा रहा है।’’ आदिवासी अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संगठित होकर लड़ रहे हैं, चाहे आप इनके संघर्ष को जिस नाम से पुकारें। रोज-रोज के फर्जी मुठभेड़ और गिरफ्तारियों से आदिवासियों के लिए अस्तित्व का खतरा पैदा हो गया है। इस लूट को बनाये रखने के लिये भारत सरकार, छत्तीसगढ सरकार जितना भी फर्जी मुठभेड़ में लोगों को मारे, महिलाओं के साथ बलात्कार करे, शांतिप्रिय-न्यायपसंद लोगों को धमकाये और उन पर हमले कराये, इस सब से शांति स्थापित नहीं हो सकती। शांति स्थापित करने के लिये लोगों को उनका अधिकार देना पड़ेगा। आप की राज्यव्यव्स्था की जड़ में शोषण, उत्पीड़न और भ्रष्टाचार है। माओवाद उन्मूलन के नाम पर भी आपकी व्यवस्था भ्रष्टाचार करती है जवानों के हथियार खरीदने से लेकर उनके खाने के समान तक में कमीशन लेती है और उनको खराब क्वालिटी के खाने और साजो समान देती है। फर्जी माओवादी को आत्मसर्म्पण कराने के बाद पैसा डकार जाती है।
प्रधानमंत्री से प्रश्न
मोदी जी आप कहते हैं ‘‘हमारी आने वाली पीढ़ियों को इतिहास से उतना परिचय नहीं है। सरकार की एक योजना है कि आने वाले दिनों में उन राज्यों में स्वतंत्रता सेनानी जो आदिवासी थे जंगलों में रहते थे, अंग्रेजों से जूझते थे, झुकने को तैयार नहीं थे उनके पूरे इतिहास को समावेट करते हुये इन वीर आदिवासियों को याद करते हुए एक स्थायी रूप से म्युज्यिम बनाते हुये जहां जहां राज्य के एक आध जगह हो सकती है जहां सब को समेट करके बड़े म्युजियम बनाया जा सकता है। .... ताकि आने वाली पीढ़ियों को हमारे देश के लिये मर मिटने में आदिवासी कितने आगे थे उसका लाभ मिलेगा।’’ क्या आप कभी इन आदिवासियों का इतिहास लिखेंगे जो मुनाफे के आग में हवस के शिकार हो रहे हैं; क्या उनका कभी इतिहास लिखा जायेगा जो इस लूट को बनाये रखने के लिये खूनी खेल रहे हैं? क्या उन सामाजिक कार्यकर्ताओं, मानवाधिकार, बुद्धिजीवियों, वकीलों, पत्रकारों के इतिहास लिखे जायेंगे जिन पर झूठे केस बना कर जेलों में रखने का षड़यंत्र किया जा रहा है? क्या आपके उस म्युज्यिम में मड़कम हिड़मे, अर्जुन, सोनाकू राम, बिजनो, भीमा और सुखमती जैसे लोगों की तस्वीर लगेगी जिसकी आपके बहादुर सुरक्षा बल के जवानों ने बलात्कार कर हत्या कर दी।
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर सवाल
सुरक्षा बल के जवान मारे जाते हैं तो सरकार, पुलिस अधिकारी, तथाकथित देशभक्त मानवाधिकार, सामाजिक कार्यकर्ताओं को कोसते हैं, उनसे सवाल किया जाता है कि वह इस घटना की निन्दा क्यों नहीं कर रहे हैं। सरकार भूल जाती है कि जनता उसको टैक्स इसलिए देती है वह लोगों को सुरक्षा प्रदान करे और शांति बनाये रखें। लोगों को जीविका के साधन मुहैय्या कराये। मानवाधिकार, सामाजिक कार्यकर्ताओं का काम है कि सरकार की गलती को दिखाना उनके चाहने से शांति कायम नहीं हो सकती, शांति के लिए सरकार को पहल करनी होगी। जवानों के मृत शरीर के साथ छेड़-छाड़ करने का आरोप माओवादी और डीजी नक्सल ऑपरेशन भी नकार चुके हैं। डीजी ने कहा कि अंग काटने की बात सोशल मीडिया की उपज है। सरकार से यह जरूर पूछा जायेगा कि 46 दिन पहले अभय मिश्रा को जब गोली लगी थी तो उन्हें ऑपरेशन के बाद छुट्टी पर क्यों नहीं भेजा गया, क्यों जंग के मैदान में एक घायल सिपाही को भेजा गया? सरकार से जरूर पूछा जायेगा कि आदिवासी महिलाआें द्वारा जो भी केस दर्ज है उसमें सरकार ने क्या कदम उठाया? ताड़मेटला कांड में सीबीआई ने चार्ज शीट में जिन अधिकारियों, जवानों का नाम आया है उस पर क्या कदम उठा रही है?
चिंतागुफा हमला
कोई भी व्यक्ति इंसानों की बहने वाली खून पर खुशी नहीं मना सकता यहां तक कि माओवादी भी अपने बयान में कह चुके हैं कि ‘‘जवान हमारे दुश्मन नहीं हैं। माओवादी कहते हैं कि आत्मरक्षा और मिशन 2016 के तहत दक्षिण बस्तर में 9 माओवादियों तथा उड़ीसा में 9 ग्रामीणों सहित 21 माओवादियों की हत्या के बदले के रूप में इसे देखना चाहिए; मिशन 2017 को रोकने तथा प्राकृतिक संसाधनों की लूट, जनता पर किये जा रहे हमले और महिलाओं पर यौन हिंसा के खिलाफ इस हमले को देखा जाना चाहिए।’’ जो जवान मारे गये हैं वे सड़क निर्माण की सुरक्षा में लगे हुए थे। मारे गये जवानों को इस सड़क से कोई लाभ नहीं होने वाला था। यह जवान गरीब परिवार से आते हैं उनका परिवार जिस स्थान पर रहता है उनके यहां ऐसी सड़कें नहीं होंगी। उनके परिवारों को टूटी-फूटी रास्तों से ही अस्पताल व स्कूल, कॉलेज जाना पड़ता होगा। लेकिन छत्तीसगढ़ के दुर्गम इलाकों में भी अच्छी सड़कों का निर्माण किया जा रहा है ताकि टाटा, एस्सार, जिन्दल, मित्तल व अन्य पूंजीपतियों (लूटेरों) द्वारा छत्तीसगढ़ की प्राकृतिक सम्पदा को लूट कर ले जाया जा सके। इन्हीं लूटों में से कुछ हिस्सा पाकर शासक वर्ग उन की रक्षा करने के लिए इन जवानों को वहां भेजती है, जिसका विरोध वहां की जनता कर रही है। प्रधानमंत्री जी आपने कहा था ‘‘चालीस साल हो गया धरती मां रक्तरंजित हो रही है लेकिन आंतकवाद के रास्ते पर जाने वालों ने कुछ नहीं पाया। मैं उन नौजवानों को कहना चाहता हूं कि यह देश हिंसा को, यह देश आतंकवाद को कभी सहन नहीं करेगा, यह देश आतंकवाद के सामने कभी झुकेगा नहीं, माओवाद के सामने। नौजवानों को कहता हूं कि लौट आईये अपने मां-बाप के सपनों की तरफ देखिये, मुख्यधारा में आईये, एक सुख चैन की जिन्दगी जीये हिंसा का रास्ता कभी किसी का भला नहीं करता।’’ आपके इस वक्तव्य का जवाब माओवादियों के इस वक्तव्य से मिलता है ‘‘हम हिंसावादी नहीं हैं, लेकिन सामंती शक्तियों, देसी-विदेशी कॉर्पोरेट घरानों का प्रतिनिधित्व करने वाली केंद्र-राज्य सरकारों द्वारा हर पल किए जा रहे हिंसा के प्रतिरोध में और पीड़ित जनता के पक्ष में खड़े होकर अनिवार्यतः हिंसा को अंजाम देने के लिए हम बाध्य हैं।“
मार्च 2011 के पुलिस ने तीन गांव तिम्मापुर, ताड़मेटला और मोरपल्ली के 250 घरों को जला दिया गया था और इस दौरान तीन व्यक्ति मारे गए और कई महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया। इस मामले में सीबीआई द्वारा सात विशेष पुलिस अधिकारियों के खि़लाफ़ चार्जशीट दायर की गई है। सीबीआई ने कहा कि इस त्रासदी में 323 विशेष पुलिस अधिकारियों, पुलिसकर्मियों और सीआरपीएफ तथा कोबरा के 95 कर्मियों के शामिल होने के सबूत उनके पास हैं। स्वामी अग्निवेश के काफिले पर हमले के सिलसिले में सलवा जुडूम के 26 नेताओं के खि़लाफ भी चार्जशीट दायर की है। इन नेताओं का बस्तर में बीजेपी और कांग्रेस से सरुबंध है। इनमे से कुछ का विकास संघर्ष समिति, अग्नि और सामाजिक एकता मंच जैसे पुलिस समर्थक गुटों से भी सम्बंध है। कल्लूरी ने प्रेस कान्फ्रेंस करके यह स्वीकार किया था कि यह घटना मेरे रहते हुई थी कार्रवाई करनी है तो पहले हम पर करो लेकिन आज तक कल्लूरी पर कोई कार्रवाई नहीं कि गई। एन.एच.आर.सी. के बुलाने पर भी कल्लूरी आज तक दिल्ली नहीं आया। सीबीआई के चार्जशीट के बाद भी अभी किसी पुलिसकर्मी, अधिकारी पर कोई कार्रवाई नहीं की गई है।
रायपुर के डिप्टी जेलर वर्षा डोंगरे ने अपने फेसबुक वॉल पर लिखा है कि- हम सभी को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए, सच्चाई खुद ब खुद सामने आ जाएगी। घटना में दोनों तरफ मरने वाले अपने देशवासी हैं। इसलिए कोई भी मरे तकलीफ हम सबको होती है. लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था को आदिवासी क्षेत्रों में जबरदस्ती लागू करवाना उनकी जल, जंगल, जमीन से बेदखल करने के लिए गांव का गांव जला देना, आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार, आदिवासी महिलाएं नक्सली हैं या नहीं, इसका प्रमाण पत्र देने के लिए उनको स्तन निचोड़कर देखा जाता है। टाईगर प्रोजेक्ट के नाम पर आदिवासियों को जल जंगल जमीन से बेदखल करने की रणनीति बनती है, जबकि संविधान के 5 वीं अनुसूची में शामिल होने के कारण सरकार को कोई हक नहीं बनता आदिवासियों के जल जंगल और जमीन को हड़पने का। आखिर ये सब कुछ क्यों हो रहा है? सच तो यह है कि सारे प्राकृतिक खनिज संसाधन इन्हीं जंगलों में हैं, जिसे उद्योगपतियों और पूंजीपतियों को बेचने के लिए खाली करवाना है. आदिवासी जल जंगल जमीन खाली नहीं करेंगे क्योंकि यह उनकी मातृभूमि है।
मैंने स्वयं बस्तर में 14 से 16 वर्ष की मुड़िया माड़िया आदिवासी बच्चियों को देखा था, जिन्हें थाने में महिला पुलिस को बाहर कर पूरा नग्न कर प्रताड़ित किया गया था। उनके दोनों हाथों की कलाईयों और स्तनों पर करंट लगाया गया था, जिसके निषान मैंने स्वयं देखे। मैं भीतर तक सिहर उठी थी कि इन छोटी-छोटी आदिवासी बच्चियों पर थर्ड डिग्री टार्चर किस लिए?
समस्या का समाधान
सुकमा के कलेक्टर श्री अलेक्स पॉल मेनन के अपहरण पर सरकार और माओवादियों की बीच भी कुछ लोगों ने मध्यस्थता करवाई थी। ’’माओवादियों द्वारा सुकमा जिले के कलेक्टर श्री अलेक्स पॉल मेनन के अपहरण से उत्पन्न स्थिति को सुलझाने के लिए चार मध्यस्थों डॉ. बी.डी. शर्मा, और प्रोफेसर हरगोपाल, (जिन्हें सी.पी.आई. (माओवादी) द्वारा मनोनीत किया गया था) और श्रीमती निर्मला बुच और श्री एस.के. मिश्रा (जिन्हें छत्तीसगढ़ शासन द्वारा मनोनीत किया गया था) के बीच रायपुर में बैठक हुई। इस बैठक में अलेक्स पॉल मेनन को छुड़ाने के साथ-साथ दूसरी बात पर जो चर्चा हुई थी वह था कि छत्तीसगढ़ के विभिन्न जेलों में न्यायिक हिरासत में बंद आदिवासियों की संख्या काफी है। राज्य सरकार विवेचना/अभियोजन लंबित सभी व्यक्तियों जिसमें माओवादियों से सम्बंधित मामले भी थे, इन मामलों की समीक्षा के लिए सहमत हुई थी। विवेचना/अभियोजन बंदी के निकट रिश्तेदार/परिवार के सदस्यों को लंबी दूरी के कारण जेल में उनसे मिलने में तकलीफ होती है। इसके लिए उच्चाधिकार प्राप्त स्थायी समिति का गठन किया गया समिति की अध्यक्ष श्रीमती निर्मला बुच थी। बाद में सरकार ने इस समिति की बात को अनसुना कर दिया जिस पर निर्मला बुच ने नराजगी भी प्रकट की थी।
समस्या का समाधान सैनिक हल नहीं है। अभी तक की सरकारी रिपोर्ट बताती है कि नक्सलवाद/माओवाद का कारण सामाजिक, आर्थिक समस्या है। इस समस्या को हल करने के लिए मृत जवान सौरभ के पिता की बातों पर ध्यान देना होगा जो सुझाव देते हैं कि ‘‘सरकार ठंडे दिमाग से बातचीत के जरिये इस मामले का हल निकाले। नक्सलियों को मुख्यधारा में लाये, उन्हें काम दे, उनके बाल-बच्चे को पढ़ाये। लोगों को काम मिलेगा तो नक्सली नहीं पैदा होंगे।’’ इसी तरह का सुझाव बीबीसी से बातचीत के दौरान चिंतागुफा कैम्प (इसी कैम्प के 26 जवान माओवादी हमले में मारे गये) के जवानों ने दिया ‘‘सरकार नक्सली समस्या का राजनैतिक तरीके से हल ढूंढे, ताकी इस पूरी समस्या को पुलिस जवानों पर ही न मढ़ दिया जाये। वो मानते हैं कि वर्दीधारी से ज्यादा जिम्मेवारी प्रशासन की है, वो सुकुमा के सुदुर इलाकों में सक्रिय आदिवासी नौजवानों को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए योजनाएं बनाएं।’’ एक जवान ने कहा ‘‘यहां कुछ भी नहीं है। एक सुनसान सड़क जो यहां तक आती है जिस पर कोई नहीं चलता और चारों तरफ घने जंगल जहां माओवादी छापामार जमे हुए हैं, हम कैंप तक सीमित रहते हैं, हर पल यहां रहना भारी गुजरता है।’’
क्या आप इन जवानों और उनके परिवार वालों के सुझाव पर ध्यान देंगे या अपने पूर्ववर्ती सरकार के ही नक्शे कदम पर चलेंगे जैसा कि गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे द्वारा 11 मार्च, 2014 को माओवादी हमले (झीरम घाटी में 11 सीआरपीएफ व 4 राज्य पुलिस बलों के जवानों समेत कुल 16 लोगों की मृत्यु हुई।) के बाद कहा गया था कि हम बदला लेंगे। बदला लेने से समस्या का हल नहीं होगा उससे धरती का गोद लाल ही होगी। सरकार को बदले की भावना जैसी मानसिकता से बचना चाहिये और समस्या के समाधान पर जोर देना चाहिये।
क्या सरकार सीबीआई द्वारा आरोपित अधिकारियों को सजा देंगे? क्या आप वर्षा डोंगरे की बातों पर अमल करेंगे उनके द्वारा कही गई बातों पर कार्रवाई करेंगे? क्या आप गागड़ू राम और मांगडू राम कि आत्मा की बात सुनेंगे जो अपने गांव लौट जाना चाहते हैं लेकिन उनको कैम्प में रखा गया है उनकी आजादी छीन कर उन्हें गुलाम की तरह जिन्दगी जीने के लिये विवश किया गया है। अगर आपको शांति लानी है तो इन सभी लोगों की बातों पर अमल करना होगा। मैं फिर से कहूंगा कि इस समस्या का हल दमन से नहीं राजनीतिक वार्ता से निकलेगी, नहीं तो धरती रक्तरंजित होती रहेगी देशवासी मरते रहेंगे, जेलों में लोग सड़ते रहेंगे और लोग गुलाम जैसी जिन्दगी जीने को विवश रहेंगे और यह जंग चलती रहेगी।
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