मंगलवार, 13 जून 2017

कविता-गेहूं का उचित मूल्य/ अरुण देव

थाली में परसे गर्म रोटी को तोड़ते हुए
क्या तुम्हें उस किसान की याद आती है
जो इस उम्मीद में था कि इस वर्ष फसल अच्छी होगी

कौर और मुंह के बीच के अन्तराल में
क्या तुम्हें उस खेतिहर का जरा भी ख्याल आया
जो शीत में भीगते और धूप में जलते हुए दे रहा था जड़ों में पानी
उसके साथ ही मुरझाती हुई उसकी पत्नी
कुम्लाते हुए उसके बच्चे

वह पानी जिसे पहुंचना था खेत तक
पर जिसे वह किराये के पंपिंगसेट और डीजल की मदद से
ले आया है जड़ों तक
उगाता है फसलें, बालियों में उसका पसीना ही दूध बनता है

उसकी उनीदी रातें तुम्हारी नीद में तो नहीं ही टकराती होंगी कभी भी

बढ़ रहे हैं उदर
बढ़ रही है सेहत की बेशर्मी
स्वाद की निर्लज्जता के लिए बीमार हुए जमीन को चाहिए खाद, कीटनाशक

तुम्हारी रोटी के लिए बैंक के उस कर्ज़दार का क्या
कोई कर्ज़ नहीं है तुम पर

कभी सूखा, कभी बाढ़, कभी पाला
अभी भी वह आसमान के नीचे है अपनी फसलों के साथ
अपनी मवेशियों और अपने परिवार के साथ
कभी दह जाता है कभी बह जाता है

कभी टूट कर नगरों में बिखर जाता है

जितने में तुम पीते हो एक लीटर पानी
उतने में अब भी आ जाता है एक किलों गेहूं

पानी नहीं, फसलें उगायी जाती हैं
उन्हें महीनों पाल पोशकर बड़ा करता है उसका परिवार

अब कभी तोडना रोटी तो सोचना क्या तुमने  चुकाया
है गेहूं का उचित मूल्य

किसान चुकाता है इसका मूल्य
कभी सल्फास खाकर, कभी लटकर पेड़ से.