देवेन्द्र प्रताप
भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को लायलपुर जिले के बंगा नामक गांव में हुआ। इनके दादा अर्जुन सिंह पक्के आर्य समाजी थे। अर्जुन सिंह के तीन पुत्र-किशन सिंह, अजीत सिंह और स्वर्ण सिंह-भारत के स्वतंत्रता संग्राम से विभिन्न स्तरों पर जुड़े रहे। उनके चाचा अजीत सिंह पंजाब के सम्मानित किसान नेता थे तथा पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन के लिए विख्यात थे। इसी तरह भगत सिंह के दूसरे चाचा स्वर्ण सिंह भी अंग्रेजों की हुकूमत के कट्टर विरोधी थे। इसके चलते अंग्रेज सरकार ने इन्हें गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया था। भगत सिंह के क्रांतिकारी व्यक्तिव के निर्माण में उस समय की क्रांतिकारी परिस्थितियों के साथ ही उनके परिवार की क्रांतिकारी पृष्ठभूमि ने भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 23 मार्च 1931 को अंग्रेजों ने भगत सिंह और उनके साथी सुखदेव व राजगुरु को फांसी दे दी थी।
क्रांतिकारी आंदोलन में भगत सिंह का प्रवेश ऐसे समय हुआ, जब आंदोलन के कुछ नेता अराजकतावाद से मुक्त होने की दिशा में सोचने लगे थे। साथ ही उनमें से कुछ क्रांतिकारी ऐसे भी थे, जो 1917 में रूस में हुई समाजवादी क्रांति से बेहद प्रभावित थे। हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) के शीर्ष नेता शचीन्द्र नाथ सान्याल भी ऐसे ही नेताओं में थे। अध्यात्मवादी होने के बावजूद (1922 तक) उन पर समाजवादी विचारधारा का भी अच्छा खास प्रभाव था। इसे समझने के लिए उनकी दो पुस्तकें 'विचार विनिमय' और 'बंदी जीवन' विशेष तौर पर उल्लेखनीय हैं। हालांकि बाद के दिनों तक वे अध्यात्मवाद से अपना संबंध नहीं तोड़ पाए। इसी तरह दो सच्चे क्रांतिकारी मित्रों असफाक उल्ला खां और रामप्रसाद बिस्मिल (जिनमें से यदि एक सच्चा मुसलमान था, तो दूसरा पक्का आर्य समाजी) के ऊपर भी समाजवादी विचारधारा का अच्छा खासा असर था। असफाक और बिस्मिल की शहादत हिंदू-मुस्लिम एकता और दो क्रांतिकारियों की दोस्ती की एक शानदार मिशाल है। असफाक और बिस्मिल की ओर से जेल से लिखे गए पत्रों और खासकर ‘बिस्मिल की आत्मकथा’ पढ़कर से यह बात बिल्कुल साफ हो जाती है कि वे अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अपनी सशस्त्र एवं गुप्त गतिविधियों पर एकतरफा जोर के भटकाव को समझने लगे थे। 1925 में काकोरी की ट्रेन डकैती के बाद जब एचआरए के अधिकांश शीर्ष नेता गिरफ्तार कर लिए गए, तब पंजाब के क्रांतिकारियों ने असफाक और बिस्मिल के चिंतन के उसी सूत्र को पकड़ा और क्रांतिकारी कार्यों में जन संगठनात्मक कार्यों के महत्व को समझते हुए 1926 में नौजवान भारत सभा का गठन किया। संगठन की ओर से भगत सिंह को सचिव और भगवती चरण बोहरा को प्रचार सचिव चुना गया। संगठन के निर्माण और विकास में डॉ. सैफुद्दीन किचल, डॉ. सत्यपाल, केदारनाथ सहगल, लाला ंिपंडी दास और लाला लालचंद फलक जैसे वामपंथी नेताओं ने भी सहयोगी भूमिका निभाई। नौजवान भारत सभा देश में मौजूद जातीय और धार्मिक भेदभाव को जनता के संगठित होने के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा मानता था। इसलिए संगठन से जुड़ने वाले प्रत्येक व्यक्ति को एक फार्म भरवाया जाता था। इस फार्म में स्पष्ट तौर पर यह लिखा था कि ‘संबंधित सदस्य अपने समुदाय के बजाए देशहित को महत्व देगा।’ संगठन ने अपने राजनीतिक कार्यक्रम में घोषणा की कि उसका मकसद ‘देश में मजदूरों-किसानों के समाजवादी गणतंत्र की स्थापना करना है और इसके लिए वह बिना किसी जातीय और धार्मिक विभेद के मजदूरों और किसानों के बीच समाजवादी विचारों का प्रचार करेगा तथा उसकी आर्थिक और सामाजिक मांगों के आधार पर उनको संगठित करने का प्रयास करेगा।’ भगत सिंह इस बात को बखूबी जानते थे कि जब तक जनता जातिगत और धार्मिक संकीर्णता की गिरफ्त में रहेगी, तब तक उसकी सच्ची एकता संभव नहीं है। इसलिए उन्होंने ‘दो मोर्चों पर एक साथ काम करने की जरूरत’ पर बल दिया। यही वजह थी कि एक तरफ जहां उन्होंने विदेशी सरकार के खिलाफ सशस्त्र क्रांति की वकालत की, तो दूसरी ओर भारतीय समाज में मौजूद जातिगत और धार्मिक भेदभाव को पैदा करने वाले आर्थिक कारकों और उसके दर्शन पर तगड़ा हमला बोला।
जून 1928 में भगत सिंह ने ‘अछूत समस्या’ नामक लेख में अध्यात्मवादियों पर व्यंग्य कसते हुए लिखा, 'हमारा देश बहुत अध्यात्मवादी है। लेकिन, यही लोग दलितों को मनुष्य का दर्जा देते हुए भी झिझकते हैं तथा उन्हें पशुओं से भी गया बीता समझते हैं। ऐसे में वे (दलित) जरूर ही दूसरे धर्मो में शामिल होंगे, जहां उन्हें अधिक अधिकार मिलेंगे तथा उनसे इंसानों जैसा व्यवहार किया जाएगा। फिर यह कहना कि देखो जी इसाई और मुसलमान हिंदू कौम को नुकसान पहुंचा रहे हैं, व्यर्थ होगा।' दलितों के प्रति वर्णाश्रम व्यवस्था के दार्शनिकों ने जिस तरह का जहर समाज में डाला है, उसका असर भगत सिंह के समय बहुत ज्यादा था। ऐसे में यह जरूरी था कि उस जहर के असर को कम किया जाए और धीरे-धीरे उसे समाप्त किया जाए। दलितों के बारे में मनु मार्गियों ने यह प्रचार किया है कि वे गंदे रहते है, वे म्लेच्छ हैं आदि-आदि। भगत सिंह ने इसका तीखा प्रतिवाद करते हुए लिखा कि 'ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे गरीब हैं। गरीबी का इलाज करो। ऊंचे-ऊंचे कुलों के गरीब लोग भी कोई कम गंदे नहीं रहते। गंदे काम करने का बहाना भी नहीं चल सकता, क्योंकि मां बच्चों का मैला साफ करने से अछूत तो नहीं हो जाती।'
भगत सिंह को इस बात का भी गहरा एहसास था कि अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए लौह अनुशासन में ढली एक गुप्त क्रांतिकारी पार्टी होनी चाहिए। वे चाहते थे कि यह पार्टी आम जनता को सशस्त्र क्रांति के लिए न सिर्फ तैयार करे, बल्कि उसे नेतृत्व भी दे। उनकी दृढ़ मान्यता थी कि इस पार्टी का मकसद देश में समाजवाद की स्थापना होना चाहिए। इसीलिए काकोरी कांड के बाद जब एचआरए से जुड़े अधिकांश क्रांतिकारी गिरफ्तार कर लिए गए तो 8-9 सितंबर 1928 को संगठन को पुनर्गठित करने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों के क्रांतिकारियों ने दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में एक बैठक की। इस बैठक में पार्टी के नाम में 'समाजवाद' शब्द जोड़ा गया और इस तरह नए संगठन का नाम ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ पड़ा। एचएसआरए के गठन के बाद नौजवान भारत सभा पूरी तरह उसके यूथ विंग के तौर पर काम करने लगा। नौजवान भारत सभा की ओर से करतार सिंह सराभा, राम प्रसाद बिस्मिल, असफाक उल्ला खां और काकोरी के अन्य शहीदों के जीवन और उनके राजनीतिक उद्देश्य के बारे में मैजिक लैंटर्न के माध्यम से प्रचार किया जाता था। जल्दी ही प्रचार का यह माध्यम जनता के बीच काफी लोकप्रिय हो गया। सभा हर साल काकोरी दिवस, करतार सिंह सराभा दिवस, मई दिवस, जलियांवाला बाग दिवस जैसे आयोजन करती थी। इन कार्रवाइयों से बड़ी संख्या में लोग क्रांतिकारी पार्टी (एचएसआरए) से जुड़ने लगे।
भगत सिंह के सिद्धांतों के पेरियार भी समर्थक थे। जब 23 मार्च को भगत सिंह को फांसी पर चढ़ा दिया गया, तो वे बहुत दुखी हुए। 29 मार्च 1931 को भगत सिंह को याद करते हुए पेरियार ने लिखा, 'भगत सिंह को पक्का यकीन था कि उनके सिद्धांत सही थे। उन्होंने जिन तरीकों का इस्तेमाल किया, वे न्याय संगत थे, और उन्हें यही करना चाहिए था। उन्होंने ऐसा न किया होता, तो हम उन्हें ईमानदार नहीं कह सकते थे। इसलिए हम आज कह सकते हैं कि वह एक सच्चे इंसान थे। हमारा पक्का यकीन है कि भारत को केवल भगत सिंह के सिद्धांतों की जरूरत है'।
विचार करने पर हम पाते हैं कि पेरियार की बात बिल्कुल सही है। हमारे देश के नेता ‘पगड़ी’ पहनाने में माहिर हैं। जनता की बात कौन करे, वे शहीदे आजम को भी ‘पगड़ी’ पहनाने से बाज नहीं आए। जबकि, भगत सिंह ने समाजवादी विचारधारा को स्वीकार करने के बाद खुद ही अपनी पगड़ी और लंबे बाल त्याग दिए थे। वे मूर्तिपूजा के भी कट्टर विरोधी थे। इस बात की गवाही उनकी ‘जेल नोटबुक’ भी देती है। जेल नोटबुक में उन्होंने नोट्स लेते हुए लिखा, ‘मैं अपने दोस्तों से कहना चाहंूगा कि वे मेरे बारे में कम से कम चर्चा करेंगे या बिल्कुल ही नहीं चर्चा करेंगे, क्योंकि जब आदमी की ज्यादा तारीफ होने लगती है, तो उसे इंसान के बजाय देव प्रतिमा सा बना दिया जाता है। यह मानव जाति के भविष्य के लिए बहुत बुरी बात है। सिर्फ कर्मों पर ही गौर करना चाहिए, चाहे वे किसी के द्वारा किए गए हों। अगर लोगों को इनसे सार्वजनिक हित के लिए प्रेरणा मिलती दिखाई दे, तो वे इनकी तारीफ कर सकते हैं, ताकि इनका अनुसरण किया जा सके, लेकिन अगर वे सामान्य हित के लिए हानिकर लगें, तो इनकी निंदा कर सकते हैं, ताकि फिर इसकी पुनरावृत्ति न हो सके।' यह किसी और लेखक का बयान है, लेकिन भगत सिंह को यह अच्छा लगा, इसलिए इसे उन्होंने अपनी जेल नोटबुक में दर्ज कर लिया था। इसलिए सवाल उठता है कि हमारे देश के राजनेता उनके कर्माें और उनके अधूरे कार्यों को पूरा करने के बजाय, उनकी मूर्ति लगाकर और उसे पगड़ी पहनाकर आखिर उन्हें देव प्रतिमा क्यों बनाने पर तुले हैं? क्या जिन सवालों से भगत सिंह ने टकराने की कोशिश की थी, वे सवाल ही अब नहीं रहे? क्या उनका सपना पूरा हो गया? या फिर वे भगत सिंह को पगड़ी पहनाकर उनके सिद्धांतों पर ही धूल-राख डालने का काम कर रहे हैं?
भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को लायलपुर जिले के बंगा नामक गांव में हुआ। इनके दादा अर्जुन सिंह पक्के आर्य समाजी थे। अर्जुन सिंह के तीन पुत्र-किशन सिंह, अजीत सिंह और स्वर्ण सिंह-भारत के स्वतंत्रता संग्राम से विभिन्न स्तरों पर जुड़े रहे। उनके चाचा अजीत सिंह पंजाब के सम्मानित किसान नेता थे तथा पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन के लिए विख्यात थे। इसी तरह भगत सिंह के दूसरे चाचा स्वर्ण सिंह भी अंग्रेजों की हुकूमत के कट्टर विरोधी थे। इसके चलते अंग्रेज सरकार ने इन्हें गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया था। भगत सिंह के क्रांतिकारी व्यक्तिव के निर्माण में उस समय की क्रांतिकारी परिस्थितियों के साथ ही उनके परिवार की क्रांतिकारी पृष्ठभूमि ने भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 23 मार्च 1931 को अंग्रेजों ने भगत सिंह और उनके साथी सुखदेव व राजगुरु को फांसी दे दी थी।
क्रांतिकारी आंदोलन में भगत सिंह का प्रवेश ऐसे समय हुआ, जब आंदोलन के कुछ नेता अराजकतावाद से मुक्त होने की दिशा में सोचने लगे थे। साथ ही उनमें से कुछ क्रांतिकारी ऐसे भी थे, जो 1917 में रूस में हुई समाजवादी क्रांति से बेहद प्रभावित थे। हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) के शीर्ष नेता शचीन्द्र नाथ सान्याल भी ऐसे ही नेताओं में थे। अध्यात्मवादी होने के बावजूद (1922 तक) उन पर समाजवादी विचारधारा का भी अच्छा खास प्रभाव था। इसे समझने के लिए उनकी दो पुस्तकें 'विचार विनिमय' और 'बंदी जीवन' विशेष तौर पर उल्लेखनीय हैं। हालांकि बाद के दिनों तक वे अध्यात्मवाद से अपना संबंध नहीं तोड़ पाए। इसी तरह दो सच्चे क्रांतिकारी मित्रों असफाक उल्ला खां और रामप्रसाद बिस्मिल (जिनमें से यदि एक सच्चा मुसलमान था, तो दूसरा पक्का आर्य समाजी) के ऊपर भी समाजवादी विचारधारा का अच्छा खासा असर था। असफाक और बिस्मिल की शहादत हिंदू-मुस्लिम एकता और दो क्रांतिकारियों की दोस्ती की एक शानदार मिशाल है। असफाक और बिस्मिल की ओर से जेल से लिखे गए पत्रों और खासकर ‘बिस्मिल की आत्मकथा’ पढ़कर से यह बात बिल्कुल साफ हो जाती है कि वे अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अपनी सशस्त्र एवं गुप्त गतिविधियों पर एकतरफा जोर के भटकाव को समझने लगे थे। 1925 में काकोरी की ट्रेन डकैती के बाद जब एचआरए के अधिकांश शीर्ष नेता गिरफ्तार कर लिए गए, तब पंजाब के क्रांतिकारियों ने असफाक और बिस्मिल के चिंतन के उसी सूत्र को पकड़ा और क्रांतिकारी कार्यों में जन संगठनात्मक कार्यों के महत्व को समझते हुए 1926 में नौजवान भारत सभा का गठन किया। संगठन की ओर से भगत सिंह को सचिव और भगवती चरण बोहरा को प्रचार सचिव चुना गया। संगठन के निर्माण और विकास में डॉ. सैफुद्दीन किचल, डॉ. सत्यपाल, केदारनाथ सहगल, लाला ंिपंडी दास और लाला लालचंद फलक जैसे वामपंथी नेताओं ने भी सहयोगी भूमिका निभाई। नौजवान भारत सभा देश में मौजूद जातीय और धार्मिक भेदभाव को जनता के संगठित होने के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा मानता था। इसलिए संगठन से जुड़ने वाले प्रत्येक व्यक्ति को एक फार्म भरवाया जाता था। इस फार्म में स्पष्ट तौर पर यह लिखा था कि ‘संबंधित सदस्य अपने समुदाय के बजाए देशहित को महत्व देगा।’ संगठन ने अपने राजनीतिक कार्यक्रम में घोषणा की कि उसका मकसद ‘देश में मजदूरों-किसानों के समाजवादी गणतंत्र की स्थापना करना है और इसके लिए वह बिना किसी जातीय और धार्मिक विभेद के मजदूरों और किसानों के बीच समाजवादी विचारों का प्रचार करेगा तथा उसकी आर्थिक और सामाजिक मांगों के आधार पर उनको संगठित करने का प्रयास करेगा।’ भगत सिंह इस बात को बखूबी जानते थे कि जब तक जनता जातिगत और धार्मिक संकीर्णता की गिरफ्त में रहेगी, तब तक उसकी सच्ची एकता संभव नहीं है। इसलिए उन्होंने ‘दो मोर्चों पर एक साथ काम करने की जरूरत’ पर बल दिया। यही वजह थी कि एक तरफ जहां उन्होंने विदेशी सरकार के खिलाफ सशस्त्र क्रांति की वकालत की, तो दूसरी ओर भारतीय समाज में मौजूद जातिगत और धार्मिक भेदभाव को पैदा करने वाले आर्थिक कारकों और उसके दर्शन पर तगड़ा हमला बोला।
जून 1928 में भगत सिंह ने ‘अछूत समस्या’ नामक लेख में अध्यात्मवादियों पर व्यंग्य कसते हुए लिखा, 'हमारा देश बहुत अध्यात्मवादी है। लेकिन, यही लोग दलितों को मनुष्य का दर्जा देते हुए भी झिझकते हैं तथा उन्हें पशुओं से भी गया बीता समझते हैं। ऐसे में वे (दलित) जरूर ही दूसरे धर्मो में शामिल होंगे, जहां उन्हें अधिक अधिकार मिलेंगे तथा उनसे इंसानों जैसा व्यवहार किया जाएगा। फिर यह कहना कि देखो जी इसाई और मुसलमान हिंदू कौम को नुकसान पहुंचा रहे हैं, व्यर्थ होगा।' दलितों के प्रति वर्णाश्रम व्यवस्था के दार्शनिकों ने जिस तरह का जहर समाज में डाला है, उसका असर भगत सिंह के समय बहुत ज्यादा था। ऐसे में यह जरूरी था कि उस जहर के असर को कम किया जाए और धीरे-धीरे उसे समाप्त किया जाए। दलितों के बारे में मनु मार्गियों ने यह प्रचार किया है कि वे गंदे रहते है, वे म्लेच्छ हैं आदि-आदि। भगत सिंह ने इसका तीखा प्रतिवाद करते हुए लिखा कि 'ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे गरीब हैं। गरीबी का इलाज करो। ऊंचे-ऊंचे कुलों के गरीब लोग भी कोई कम गंदे नहीं रहते। गंदे काम करने का बहाना भी नहीं चल सकता, क्योंकि मां बच्चों का मैला साफ करने से अछूत तो नहीं हो जाती।'
भगत सिंह को इस बात का भी गहरा एहसास था कि अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए लौह अनुशासन में ढली एक गुप्त क्रांतिकारी पार्टी होनी चाहिए। वे चाहते थे कि यह पार्टी आम जनता को सशस्त्र क्रांति के लिए न सिर्फ तैयार करे, बल्कि उसे नेतृत्व भी दे। उनकी दृढ़ मान्यता थी कि इस पार्टी का मकसद देश में समाजवाद की स्थापना होना चाहिए। इसीलिए काकोरी कांड के बाद जब एचआरए से जुड़े अधिकांश क्रांतिकारी गिरफ्तार कर लिए गए तो 8-9 सितंबर 1928 को संगठन को पुनर्गठित करने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों के क्रांतिकारियों ने दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में एक बैठक की। इस बैठक में पार्टी के नाम में 'समाजवाद' शब्द जोड़ा गया और इस तरह नए संगठन का नाम ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ पड़ा। एचएसआरए के गठन के बाद नौजवान भारत सभा पूरी तरह उसके यूथ विंग के तौर पर काम करने लगा। नौजवान भारत सभा की ओर से करतार सिंह सराभा, राम प्रसाद बिस्मिल, असफाक उल्ला खां और काकोरी के अन्य शहीदों के जीवन और उनके राजनीतिक उद्देश्य के बारे में मैजिक लैंटर्न के माध्यम से प्रचार किया जाता था। जल्दी ही प्रचार का यह माध्यम जनता के बीच काफी लोकप्रिय हो गया। सभा हर साल काकोरी दिवस, करतार सिंह सराभा दिवस, मई दिवस, जलियांवाला बाग दिवस जैसे आयोजन करती थी। इन कार्रवाइयों से बड़ी संख्या में लोग क्रांतिकारी पार्टी (एचएसआरए) से जुड़ने लगे।
भगत सिंह के सिद्धांतों के पेरियार भी समर्थक थे। जब 23 मार्च को भगत सिंह को फांसी पर चढ़ा दिया गया, तो वे बहुत दुखी हुए। 29 मार्च 1931 को भगत सिंह को याद करते हुए पेरियार ने लिखा, 'भगत सिंह को पक्का यकीन था कि उनके सिद्धांत सही थे। उन्होंने जिन तरीकों का इस्तेमाल किया, वे न्याय संगत थे, और उन्हें यही करना चाहिए था। उन्होंने ऐसा न किया होता, तो हम उन्हें ईमानदार नहीं कह सकते थे। इसलिए हम आज कह सकते हैं कि वह एक सच्चे इंसान थे। हमारा पक्का यकीन है कि भारत को केवल भगत सिंह के सिद्धांतों की जरूरत है'।
विचार करने पर हम पाते हैं कि पेरियार की बात बिल्कुल सही है। हमारे देश के नेता ‘पगड़ी’ पहनाने में माहिर हैं। जनता की बात कौन करे, वे शहीदे आजम को भी ‘पगड़ी’ पहनाने से बाज नहीं आए। जबकि, भगत सिंह ने समाजवादी विचारधारा को स्वीकार करने के बाद खुद ही अपनी पगड़ी और लंबे बाल त्याग दिए थे। वे मूर्तिपूजा के भी कट्टर विरोधी थे। इस बात की गवाही उनकी ‘जेल नोटबुक’ भी देती है। जेल नोटबुक में उन्होंने नोट्स लेते हुए लिखा, ‘मैं अपने दोस्तों से कहना चाहंूगा कि वे मेरे बारे में कम से कम चर्चा करेंगे या बिल्कुल ही नहीं चर्चा करेंगे, क्योंकि जब आदमी की ज्यादा तारीफ होने लगती है, तो उसे इंसान के बजाय देव प्रतिमा सा बना दिया जाता है। यह मानव जाति के भविष्य के लिए बहुत बुरी बात है। सिर्फ कर्मों पर ही गौर करना चाहिए, चाहे वे किसी के द्वारा किए गए हों। अगर लोगों को इनसे सार्वजनिक हित के लिए प्रेरणा मिलती दिखाई दे, तो वे इनकी तारीफ कर सकते हैं, ताकि इनका अनुसरण किया जा सके, लेकिन अगर वे सामान्य हित के लिए हानिकर लगें, तो इनकी निंदा कर सकते हैं, ताकि फिर इसकी पुनरावृत्ति न हो सके।' यह किसी और लेखक का बयान है, लेकिन भगत सिंह को यह अच्छा लगा, इसलिए इसे उन्होंने अपनी जेल नोटबुक में दर्ज कर लिया था। इसलिए सवाल उठता है कि हमारे देश के राजनेता उनके कर्माें और उनके अधूरे कार्यों को पूरा करने के बजाय, उनकी मूर्ति लगाकर और उसे पगड़ी पहनाकर आखिर उन्हें देव प्रतिमा क्यों बनाने पर तुले हैं? क्या जिन सवालों से भगत सिंह ने टकराने की कोशिश की थी, वे सवाल ही अब नहीं रहे? क्या उनका सपना पूरा हो गया? या फिर वे भगत सिंह को पगड़ी पहनाकर उनके सिद्धांतों पर ही धूल-राख डालने का काम कर रहे हैं?