डॉ. देवेन्द्र चौधरी
(अंतिम किस्त)
समकालीन साहित्य के सामने मौजूद चुनौतियों का सामना करने के नाम पर बड़े से बड़े साहित्यकार भी कन्नी काटते हैं। खासकर ऐसे लोग जो एसी कमरों में बैठकर जनता के दुख-दर्द पर आंसू बहाते हैं या फिर वे लोग जिनकी सारी क्रांति आज भी काफी हाउसों में होती है। इससे कतराने के बजाय आज जरूरत है इनका सामना करने की, इनसे रूबरू होने की। समकालीन साहित्य के सामने मौजूद, जो गंभीर चुनौतियां हैं, उसको संबोधित करने के लिए हमें तीन मुख्य कामों को अपने हाथ में लेना ही होगा।
सर्वोपरि है जनता से जुड़ाव
पहला काम तो यह है कि हम सभी साहित्यकारों, कलाकारों और संस्कृति-क र्मियों को व्यक्तिगत जिंदगी के सीमित दायरे से निकल कर शोषित-पीड़ित आवाम के कष्टों, समस्याआें और संघर्षों में अधिकाधिक भागीदारी करनी होगी और एक बेहतर मनुष्य भी बनना होगा।
जरूरी है संवाद
दूसरा काम है, साहित्यकारों व संस्कृतिकर्मियों के ऐसे संगठनों को निर्मित करना, जो उनके बीच गंभीर संवाद की क्रिया को अधिकाधिक व्यापक बना सकें। जहां बिना पक्षपात या पूर्वाग्रह के खुली बहस हो और एक खुले वैचारिक संघर्ष का वातावरण बने। आज हमारे बीच स्वस्थ संवाद का कितना बड़ा अभाव है, इस बात को हम सभी बखूबी जानते हैं। जो बहसें हो भी रही हैं उनमें अगंभीरता, औपचारिकता, पूर्वाग्रह, हठधर्मिता, गुटबंदी आदि प्रवृतियों का बोलबाला है। ऐसे में गंभीर दायत्विपूर्ण विचारमंथन और सत्यानुसंधान की गुजांइश कम ही होती है। इसलिए आज ऐसी साहित्यक सांस्कृतिक संस्थाओं और मंचों की महती आवश्यकता है, जहां दायित्वबोध हो, गंभीरता हो, खुलापन हो और सभी लोकतांत्रिक, प्रगतिशील व वामपंथ में विश्वास करने वाली विचारधाराओं को समान अवसर मिलें तथा उनमें खुली अंतर्कि्रया हो। आज के बिखराव, दावेदारों के अपने आग्रहों, व्याख्याओं तथा समाज और साहित्य में व्यापक विभ्रम और अनिश्चय के दौर में सत्य को पहचानने व उसे सामने लाने का यही तरीका है।
परंपरा का पुनर्मूल्यांकन
तीसरा काम, जो हमें अपने समय को समझने में बहुत मददगार हो सकता है, वह है अपनी परंपरा के पुनर्मूल्यांकन का काम। इसके लिए यह अपेक्षित होगा कि हम एक बार नए सिरे से आधुनिक भारत के इतिहास तथा आधुनिक भारतीय साहित्य के इतिहास पर दृष्टिपात करें। विशेष रूप से उसके भारतीय नवजागरण तथा स्वाधीनता आंदोलन के अध्यायों का। क्योंकि, आधुनिक भारत के निर्माण के इतिहास में, ये दो अध्याय सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। इन अध्यायों में, एक ओर यदि हमारे देश की जनता की गौरवशाली परंपरा, उसके सघर्ष, उसकी अद्भुत शक्ति, उसकी मेघा, वीरता, त्याग, बलिदान, जुझारूपन आदि महान उपलब्ध्यिां और संभावनाएं निहित हैं, तो दूसरी ओर उसकी बाधाएं, त्रुटियां, भूलें, भटकाव, त्रासदियां और विफलताएं भी। यदि आज इस परंपरा के भीतर मौजूद अंतरविरोध, स्वार्थों के टकराव, रणनीतियों, साजिशों, विभ्रमों और विफलताओं की संजीदगी के साथ पड़ताल करें, तो निश्चय ही इससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि इस संबंध में अब तक जो कार्य हुआ है और उसकी जो समझदारी निर्मित और प्रचारित हुई है, वह न केवल बहुत ही अपर्याप्त है, अपितु बहुत त्रुटिपूर्ण और भ्रामक भी है। भारतीय नवजागरण और स्वाधीनता आंदोलन के विकास की धारा के भीतर के अतरविरोधों के संदर्भ में शरतचंद्र, पे्रमचंद, निराला, नजरूल, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस आदि साहित्यकारों और क्रांतिकारियों का सही मूल्यांकन आज तक भी नहीं हो पाया है। यहां पर विस्तार में जाने की गुंजाइश न होने के कारण, हम इतना ही कहेंगे कि इस धारा के चिंतन में उस युग का सबसे सही, प्रगतिशील और क्रांतिकारी दृष्टिकोण प्रतिफलित हुआ और भारत के भविष्य के खतरों के बारे में उनकी समझदारी और चेतावनी बहुत दूर तक खरी और सटीक साबित हुई। आज भी उसे देख कर हमें चकित रह जाना पड़ता है। अत: अपनी परंपरा के इन गौरवशाली तत्वों को रेखांकित और प्रकाशित करना तथा उनसे अपना सही रिश्ता बनाना, आज अपने दायित्व को पूरा करने के काम के लिए अपरिहार्य है। अपने जीवन और साहित्य-सृजन के लिए नए आदर्शों-मूल्यों के निर्धारण का कार्य भी इस काम के बिना संभव नहीं।
पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन
साहित्यिक संस्थाओं के अलावा एक और चीज जो हमारी बहुत मद्दगार हो सकती है। वह है इन उद्देश्यों के अनुरूप संचालित होने वाली पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन। ऐसी पत्र-पत्रिकाएं संवाद को और भी व्यापक धरातल पर लाने का काम कर सकती हैं। आज साहित्यिक पत्रिकाएं तो बहुत सी प्रकाशित हो रही हैं, लेकिन उनके पीछे जो समझदारी और अपने परिवेश का आकलन है, वह समय की मांग की दृष्टि से अपर्याप्त और वांछित स्तर का नहीं है। उनके पीछे जो उद्देश्य हैं, वे अत्यंत सीमित या संकीर्ण हैं। व्यक्तिगत साहित्यिक प्रतिष्ठान की आकांक्षा, अपने समय की रचनाशीलता को प्रोत्साहित व प्रकाशित करना, विद्या-विशेष की निजी रुचि, सांगठनिक प्रेरणाएं या आवश्यकताएं आदि को छोड़ इनके पीछे कोई व्यापक उद्देश्य या कोई बड़ी प्रेरणा नहीं है।
अंत में, हम यही कहना चाहेंगे कि आज के अभूतपूर्व संकट और दिग्भ्रम के कठिन समय में साहित्यकारों को अपने दायित्व निर्वाह करने के लिए इन कार्यों के बारे में व्यापक स्तर पर चर्चा चलानी होगी। इसी चर्चा के बीच से इन कार्यों को करने की जिम्मेदारी उठाने वाले लोगों का दल और उसका रास्ता निकलेगा। आज के सृजन-विरोधी, उसे दिग्भ्रमित और भ्रष्ट करने वाले वातावरण से टकराने का यही उपाय है। एक नई, शक्तिशाली और जुझारू रचनाशीलता को जन्म देने के लिए नए उच्चतर मूल्यों और आदर्शों को प्रतिबिम्बित करने वाली रचनाशीलता को जन्म देने के लिए, निश्चय ही ये कार्य उसकी पूर्व शर्त हैं। इन्हीं कार्यों के द्वारा एक नए सांस्कृतिक आंदोलन को जन्म देने में सहायक होने वाली-नए उच्चतर मूल्यों व आदर्शों को प्रतिबिम्बित करने वाली रचनाशीलता को जन्म देने के लिए, निश्चय ही ये कार्य उसकी पूर्व शर्त हैं। इन्हीं कार्यों के द्वारा एक नई सांस्कृतिक जागृति का उदय हो सकता है।
(अंतिम किस्त)
समकालीन साहित्य के सामने मौजूद चुनौतियों का सामना करने के नाम पर बड़े से बड़े साहित्यकार भी कन्नी काटते हैं। खासकर ऐसे लोग जो एसी कमरों में बैठकर जनता के दुख-दर्द पर आंसू बहाते हैं या फिर वे लोग जिनकी सारी क्रांति आज भी काफी हाउसों में होती है। इससे कतराने के बजाय आज जरूरत है इनका सामना करने की, इनसे रूबरू होने की। समकालीन साहित्य के सामने मौजूद, जो गंभीर चुनौतियां हैं, उसको संबोधित करने के लिए हमें तीन मुख्य कामों को अपने हाथ में लेना ही होगा।
सर्वोपरि है जनता से जुड़ाव
पहला काम तो यह है कि हम सभी साहित्यकारों, कलाकारों और संस्कृति-क र्मियों को व्यक्तिगत जिंदगी के सीमित दायरे से निकल कर शोषित-पीड़ित आवाम के कष्टों, समस्याआें और संघर्षों में अधिकाधिक भागीदारी करनी होगी और एक बेहतर मनुष्य भी बनना होगा।
जरूरी है संवाद
दूसरा काम है, साहित्यकारों व संस्कृतिकर्मियों के ऐसे संगठनों को निर्मित करना, जो उनके बीच गंभीर संवाद की क्रिया को अधिकाधिक व्यापक बना सकें। जहां बिना पक्षपात या पूर्वाग्रह के खुली बहस हो और एक खुले वैचारिक संघर्ष का वातावरण बने। आज हमारे बीच स्वस्थ संवाद का कितना बड़ा अभाव है, इस बात को हम सभी बखूबी जानते हैं। जो बहसें हो भी रही हैं उनमें अगंभीरता, औपचारिकता, पूर्वाग्रह, हठधर्मिता, गुटबंदी आदि प्रवृतियों का बोलबाला है। ऐसे में गंभीर दायत्विपूर्ण विचारमंथन और सत्यानुसंधान की गुजांइश कम ही होती है। इसलिए आज ऐसी साहित्यक सांस्कृतिक संस्थाओं और मंचों की महती आवश्यकता है, जहां दायित्वबोध हो, गंभीरता हो, खुलापन हो और सभी लोकतांत्रिक, प्रगतिशील व वामपंथ में विश्वास करने वाली विचारधाराओं को समान अवसर मिलें तथा उनमें खुली अंतर्कि्रया हो। आज के बिखराव, दावेदारों के अपने आग्रहों, व्याख्याओं तथा समाज और साहित्य में व्यापक विभ्रम और अनिश्चय के दौर में सत्य को पहचानने व उसे सामने लाने का यही तरीका है।
परंपरा का पुनर्मूल्यांकन
तीसरा काम, जो हमें अपने समय को समझने में बहुत मददगार हो सकता है, वह है अपनी परंपरा के पुनर्मूल्यांकन का काम। इसके लिए यह अपेक्षित होगा कि हम एक बार नए सिरे से आधुनिक भारत के इतिहास तथा आधुनिक भारतीय साहित्य के इतिहास पर दृष्टिपात करें। विशेष रूप से उसके भारतीय नवजागरण तथा स्वाधीनता आंदोलन के अध्यायों का। क्योंकि, आधुनिक भारत के निर्माण के इतिहास में, ये दो अध्याय सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। इन अध्यायों में, एक ओर यदि हमारे देश की जनता की गौरवशाली परंपरा, उसके सघर्ष, उसकी अद्भुत शक्ति, उसकी मेघा, वीरता, त्याग, बलिदान, जुझारूपन आदि महान उपलब्ध्यिां और संभावनाएं निहित हैं, तो दूसरी ओर उसकी बाधाएं, त्रुटियां, भूलें, भटकाव, त्रासदियां और विफलताएं भी। यदि आज इस परंपरा के भीतर मौजूद अंतरविरोध, स्वार्थों के टकराव, रणनीतियों, साजिशों, विभ्रमों और विफलताओं की संजीदगी के साथ पड़ताल करें, तो निश्चय ही इससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि इस संबंध में अब तक जो कार्य हुआ है और उसकी जो समझदारी निर्मित और प्रचारित हुई है, वह न केवल बहुत ही अपर्याप्त है, अपितु बहुत त्रुटिपूर्ण और भ्रामक भी है। भारतीय नवजागरण और स्वाधीनता आंदोलन के विकास की धारा के भीतर के अतरविरोधों के संदर्भ में शरतचंद्र, पे्रमचंद, निराला, नजरूल, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस आदि साहित्यकारों और क्रांतिकारियों का सही मूल्यांकन आज तक भी नहीं हो पाया है। यहां पर विस्तार में जाने की गुंजाइश न होने के कारण, हम इतना ही कहेंगे कि इस धारा के चिंतन में उस युग का सबसे सही, प्रगतिशील और क्रांतिकारी दृष्टिकोण प्रतिफलित हुआ और भारत के भविष्य के खतरों के बारे में उनकी समझदारी और चेतावनी बहुत दूर तक खरी और सटीक साबित हुई। आज भी उसे देख कर हमें चकित रह जाना पड़ता है। अत: अपनी परंपरा के इन गौरवशाली तत्वों को रेखांकित और प्रकाशित करना तथा उनसे अपना सही रिश्ता बनाना, आज अपने दायित्व को पूरा करने के काम के लिए अपरिहार्य है। अपने जीवन और साहित्य-सृजन के लिए नए आदर्शों-मूल्यों के निर्धारण का कार्य भी इस काम के बिना संभव नहीं।
पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन
साहित्यिक संस्थाओं के अलावा एक और चीज जो हमारी बहुत मद्दगार हो सकती है। वह है इन उद्देश्यों के अनुरूप संचालित होने वाली पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन। ऐसी पत्र-पत्रिकाएं संवाद को और भी व्यापक धरातल पर लाने का काम कर सकती हैं। आज साहित्यिक पत्रिकाएं तो बहुत सी प्रकाशित हो रही हैं, लेकिन उनके पीछे जो समझदारी और अपने परिवेश का आकलन है, वह समय की मांग की दृष्टि से अपर्याप्त और वांछित स्तर का नहीं है। उनके पीछे जो उद्देश्य हैं, वे अत्यंत सीमित या संकीर्ण हैं। व्यक्तिगत साहित्यिक प्रतिष्ठान की आकांक्षा, अपने समय की रचनाशीलता को प्रोत्साहित व प्रकाशित करना, विद्या-विशेष की निजी रुचि, सांगठनिक प्रेरणाएं या आवश्यकताएं आदि को छोड़ इनके पीछे कोई व्यापक उद्देश्य या कोई बड़ी प्रेरणा नहीं है।
अंत में, हम यही कहना चाहेंगे कि आज के अभूतपूर्व संकट और दिग्भ्रम के कठिन समय में साहित्यकारों को अपने दायित्व निर्वाह करने के लिए इन कार्यों के बारे में व्यापक स्तर पर चर्चा चलानी होगी। इसी चर्चा के बीच से इन कार्यों को करने की जिम्मेदारी उठाने वाले लोगों का दल और उसका रास्ता निकलेगा। आज के सृजन-विरोधी, उसे दिग्भ्रमित और भ्रष्ट करने वाले वातावरण से टकराने का यही उपाय है। एक नई, शक्तिशाली और जुझारू रचनाशीलता को जन्म देने के लिए नए उच्चतर मूल्यों और आदर्शों को प्रतिबिम्बित करने वाली रचनाशीलता को जन्म देने के लिए, निश्चय ही ये कार्य उसकी पूर्व शर्त हैं। इन्हीं कार्यों के द्वारा एक नए सांस्कृतिक आंदोलन को जन्म देने में सहायक होने वाली-नए उच्चतर मूल्यों व आदर्शों को प्रतिबिम्बित करने वाली रचनाशीलता को जन्म देने के लिए, निश्चय ही ये कार्य उसकी पूर्व शर्त हैं। इन्हीं कार्यों के द्वारा एक नई सांस्कृतिक जागृति का उदय हो सकता है।