शनिवार, 10 दिसंबर 2016

यदि नरेंद्र मोदी ने 55 करोड़ की रिश्वत नहीं ली तो दस्तावेजों की और भी सख्त जांच होनी चाहिए

आठ नवंबर, 2016 को शाम आठ बजे जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 500 और 1000 रुपये के नोटों को बंद करने की घोषणा दूरदर्शन पर कर रहे थे, उस समय नई दिल्ली में कम से कम पांच संस्थाओं के पास ऐसे दस्तावेज थे जिनमें यह दर्ज है कि नरेंद्र मोदी ने कथित तौर पर 55 करोड़ रुपये की रिश्वत ली है. उन दस्तावेजों से यह साफ नहीं है कि 13 अलग-अलग लेन-देन में मोदी को कथित तौर पर 55.2 करोड़ रुपये मिले या फिर नौ लेन-देन में 40.1 करोड़ रुपये. ऐसा लगता है कि इन दस्तावेजों में 30 अक्टूबर, 2013 से 29 नवंबर, 2013 के बीच के चार लेन-देन दो बार दर्ज हैं. ये दस्तावेज पिछले कुछ महीनों से दिल्ली में घूम रहे थे. इन दस्तावेजों में यह दर्ज है कि सहारा प्रमुख सुब्रत रॉय से जुड़े लोगों ने कथित तौर पर नरेंद्र मोदी को तब रिश्वत दी जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे. रिश्वत लेने वालों में सिर्फ मोदी का ही नाम नहीं है बल्कि कथित तौर पर इस सूची में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह, भारतीय जनता पार्टी की महाराष्ट्र इकाई की कोषाध्यक्ष शायना एनसी और दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के नाम भी शामिल हैं. 17 नवंबर को इकनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली ने इन दस्तावेजों पर जवाब जानने के लिए इन सभी को पत्र लिखे. लेकिन इस खबर के लिखे जाने तक ईपीडब्ल्यू को किसी का जवाब नहीं मिला. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सहारा समूह के विभिन्न कार्यालयों पर छापेमारी के दौरान आयकर विभाग ने इन दस्तावेजों को जब्त किया था. यह बात है 22 नवंबर, 2014 की. आयकर विभाग में डिप्टी डायरेक्टर (इन्वेस्टिगेशन) अंकिता पांडे ने इन जब्त दस्तावेजों पर अपनी मोहर के साथ दस्तखत किए हैं. उनके अलावा विभाग के कुछ अन्य अधिकारियों और सहारा इंडिया समूह के एक प्रतिनिधि के दस्तखत भी इन दस्तावेजों पर हैं. जब मैंने इस बारे में तीन नवंबर को अंकिता पांडे से बात की तो उन्होंने बताया कि वे लंबी छुट्टी पर हैं. उन्होंने यह भी कहा कि वे इस बारे में मीडिया से बातचीत करने के लिए अधिकृत नहीं हैं इसलिए इन दस्तावेजों की सत्यता को न तो खारिज और न ही स्वीकार कर सकती हैं. इन दस्तावेजों की फोटो कॉपी कम से कम दर्जन भर पत्रकारों और करीब इतने ही सरकारी अधिकारियों के पास है. इन दस्तावेजों को उस याचिका से जुड़े एक अंतरिम प्रार्थना पत्र में भी शामिल किया गया है जो मुख्य सतर्कता आयुक्त के पद पर केवी चौधरी की नियुक्ति को चुनौती देते हुए कॉमन कॉज ने सुप्रीम कोर्ट में दर्ज कराई थी. कॉमन कॉज ने इस एप्लीकेशन को 15 नवंबर, 2016 को सुप्रीम कोर्ट में फाइल किया है. इस एनजीओ के वकील प्रशांत भूषण हैं. भूषण ने इससे पहले नौ लोगों को इस बारे में पत्र लिखा था और ये सारे दस्तावेज उन्हें भी भेजे थे. यह बात बीते अक्टूबर के आखिरी हफ्ते की है. भूषण ने जिन लोगों को ये दस्तावेज भेजे उनमें सर्वोच्च न्यायालय के दो सेवानिवृत्त जज - जस्टिस एमबी शाह और अरिजीत पसायत - भी शामिल हैं. ये दोनों सेवानिवृत्त जज उच्चतम न्यायालय द्वारा काले धन पर गठित एसआईटी के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष हैं. ये दस्तावेज भूषण ने सीबीआई के निदेशक, प्रवर्तन निदेशालय के निदेशक, केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड के निदेशक और केंद्रीय सतर्कता आयुक्त को भी भेजे. इनके अलावा उन्होंने सतर्कता आयुक्त तेजेंदर मोहन भसीन और श्री राजीव को भी ये दस्तावेज भेजे थे. यह एक संयोग है कि मौजूदा सीवीसी केवी चौधरी उस वक्त केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड और राजस्व विभाग में अहम पदों पर थे जब आदित्य बिड़ला समूह के कार्यालयों पर अक्टूबर, 2013 और सहारा समूह के कार्यालयों पर नवंबर, 2014 में छापामारी की जा रही थी. सीवीसी के पद पर पहुंचने वाले वे भारतीय राजस्व सेवा के पहले अधिकारी हैं. आम तौर पर इस पद पर भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों की ही नियुक्ति होती आई है. भूषण ने इन जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को जो पत्र लिखे उनमें पूछा गया है कि सरकार अपनी विभिन्न एजेंसियों के द्वारा जब्त दस्तावेजों से उभर रहे आरोपों की जांच क्यों नहीं करा रही है? उन्होंने सवाल उठाया है कि आखिर क्यों सरकार के विभिन्न विभाग इन दस्तावेजों पर चुप्पी मारकर बैठे हुए हैं? जैन हवाला डायरी की यादें ताजा ये दस्तावेज तकरीबन दो दशक पहले आए जैन हवाला कांड की डायरी की याद दिलाते हैं. ये डायरी 1996 में सीबीआई के हाथ लगी थी. इसमें यह दर्ज था कि कारोबारी सुरेंद्र कुमार जैन से जुड़े लोगों ने कई नेताओं के पास पैसे पहुंचाए हैं. इनमें भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी, कांग्रेस नेता माधवराव सिंधिया, बलराम जाखड़, विद्याचरण शुक्ल, मदन लाल खुराना, पी शिव शंकर और आरिफ मोहम्मद खान के अलावा और भी कई लोगों के नाम दर्ज थे. निचली अदालत ने सीबीआई को इन नेताओं पर आरोप तय करने को कहा. लेकिन उच्च न्यायालय ने यह माना कि डायरी में दर्ज इन जानकारियों को सबूत नहीं माना जा सकता. इसके बाद मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा. इस मामले में तब देश की सबसे बड़ी अदालत का कहना था कि अगर कोई ऐसे दस्तावेज किसी सरकारी एजेंसी से मिलते हैं जिनमें किसी गैरकानूनी लेन-देन का जिक्र है तो उसकी पूरी और निष्पक्ष जांच की जानी चाहिए. कानूनी तौर पर देखा जाए तो आदित्य बिड़ला समूह और सहारा समूह के दफ्तरों से मिले दस्तावेजों पर जांच न करवाकर सीबीआई और आयकर विभाग ने सर्वोच्च न्यायालय के दिशानिर्देशों की अवहेलना की है. हालांकि, कॉमन कॉज की शिकायत पर होने वाली जांच का भी हवाला डायरी की जांच वाला ही हश्र हो सकता है लेकिन, दोनों मामलों में कुछ अहम अंतर भी हैं. इस बार जो दस्तावेज मिले हैं, उनमें सिर्फ नाम दर्ज नहीं हैं बल्कि हर नाम के सामने हिंदी और अंग्रेजी में यह स्पष्ट तौर पर लिखा है कि किसे कितने पैसे दिए गए. इसके अलावा इन दस्तावेजों में बाकायदा तारीख भी दर्ज है और यह भी कि पैसे किसके जरिए भेजे गए. 'हंगामाखेज दस्तावेज' मुझे इन दस्तावेजों के बारे में सबसे पहले 28 जुलाई 2016 को पता चला. उस दिन इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में एक कार्यक्रम के बाद हुई अनौपचारिक बातचीत में मशहूर वकील राम जेठमलानी ने इन दस्तावेजों का जिक्र किया था. भाजपा के एक राज्यसभा सांसद समेत लगभग आधा दर्जन लोग वहां मौजूद थे. राम जेठमलानी ने मुझसे कहा कि जो दस्तावेज आयकर विभाग के अधिकारियों ने सहारा इंडिया ग्रुप के दफ्तरों से जब्त किये हैं, वे हंगामा मचा सकते हैं क्योंकि उनमें यह जिक्र है कि नरेंद्र मोदी ने सहारा से मोटी रकम नकद ली है. इसके बाद मैंने कई बार राम जेठमलानी से पूछा कि क्या वे मुझे ये दस्तावेज दिखा सकते हैं, लेकिन वे मुझे टालते रहे. इस मुलाकात के बाद मैंने कई हफ़्तों तक राम जेठमलानी को फोन भी किये लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. इस घटना के लगभग दो महीने बाद एक राजनेता से जुड़े व्यक्ति ने मुझे एक लिफाफा दिया. इसमें इन तमाम दस्तावेजों की प्रतियां मौजूद थीं. मैंने तुरंत ही सरकार में अपने सूत्रों और कुछ पत्रकार मित्रों से इस बारे में बात की तो मालूम हुआ कि मेरी पहचान वाले कम-से-कम 20 अन्य लोगों के पास ये दस्तावेज पहले से ही थे. इनमें से कुछ ने मुझसे कहा कि वे मुझे कुछ और ऐसे दस्तावेज भी दे सकते हैं जो तब तक मेरे पास नहीं पहुंचे थे.मैंने उन लोगों से पूछा कि इन दस्तावेजों से जुड़ी ख़बरें उन्होंने अब तक क्यों नहीं छापीं? उनमें से कुछ ने जवाब दिया कि वे इन दस्तावेजों की प्रमाणिकता को लेकर संशय में थे. फिर जब मैंने पूछा कि दस्तावेजों की सच्चाई जानने के लिए क्या उन्होंने उन लोगों से संपर्क किया जिनका नाम दस्तावेजों में था, उन्होंने जवाब दिया कि वे ऐसा करने वाले हैं. एक वरिष्ठ पत्रकार का आरोप है कि सरकार ने एक ‘कवर-अप’ योजना भी तैयार कर ली है. इस योजना के अनुसार सरकार यह दावा करेगी कि ये दस्तावेज सहारा इंडिया ग्रुप के एक असंतुष्ट कर्मचारी ने अपने मालिक सुब्रत राय को ब्लैकमेल करने के लिए तैयार किये थे. सुब्रत राय को एक अन्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद दो साल तिहाड़ जेल में गुजारने पड़े थे. इधर, इस बीच मेरे पास मौजूद इन दस्तावेजों की संख्या लगातार बढ़ रही थी. इसी दौरान मुझे मालूम हुआ कि 28 जून को राम जेठमलानी ने दिल्ली सरकार के मंत्री सत्येंद्र जैन को एक पत्र लिखा था. पत्र के साथ ही जेठमलानी ने आयकर विभाग द्वारा रेड में जब्त किये गए ये तमाम दस्तावेज और एक ऐसे आधिकारिक पत्र की कॉपी भेजी थी जिसपर आयकर अधिकारी अंकिता पांडेय के हस्ताक्षर थे. उन्होंने सत्येंद्र जैन से इस बात की जांच करवाने का निवेदन किया था कि क्या सहारा इंडिया समूह से कथित तौर पर जब्त किये गये दस्तावेज और आधिकारिक पत्र पर किये गये हस्ताक्षर एक ही व्यक्ति के हैं. एक जुलाई को दिल्ली सरकार की ‘क्षेत्रीय फॉरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला’ के सहायक निदेशक अनुराग शर्मा ने सत्येंद्र जैन के सचिव जी सुधाकर को पत्र लिखकर बताया कि दोनों दस्तावेजों के हस्ताक्षर एक ही व्यक्ति द्वारा किये गए प्रतीत होते हैं. जब भी आयकर विभाग के अधिकारी छापे के दौरान कोई दस्तावेज जब्त करते हैं तो उन दस्तावेजों की जांच और मूल्यांकन किसी अन्य अधिकारी द्वारा किया जाता है. यह अधिकारी फिर एक विस्तृत ‘असेसमेंट रिपोर्ट’ तैयार करता है जिसमें आगे की कार्रवाई की रूपरेखा होती है. 16 नवंबर को द इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, सहारा से संबंधित कागजात पर हजारों पन्नों की एक भारी-भरकम रिपोर्ट तैयार की गई है जिसे इन दिनों एक असेसमेंट ऑफिसर देख रहे हैं. दस्तावेजों के मुताबिक किसको कितना दिया गया? अभी 15 नवंबर को ही ‘द हिंदू’ में जोसी जोसफ की एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी जिसका शीर्षक था कि ‘प्रशांत भूषण ने राजनेताओं को रिश्वत देने की जांच की मांग की’. यह रिपोर्ट प्रधानमंत्री मोदी और अन्य बड़े नेताओं के नाम का जिक्र किए बिना ही छापी गई थी. इसके बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा में कुछ जानकारियां सार्वजनिक करके तहलका मचा दिया. उन्होंने उस दस्तावेज का खुलासा किया जो आयकर विभाग ने 15 अक्टूबर 2013 को आदित्य बिरला ग्रुप की कंपनी के परिसर से रेड के दौरान जब्त किया था. इस दस्तावेज में एक जगह लिखा था - ‘गुजरात सीएम - 25 करोड़ (12 डन - रेस्ट?)‘ हालांकि भाजपा प्रवक्ताओं ने तुरंत ही इस दस्तावेज में लिखी बातों को सिरे से नकार दिया लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने अब तक भी इस पर कोई औपचारिक बयान नहीं दिया है. ‘कॉमन कॉज’ ने अपनी जनहित याचिका के साथ जो दस्तावेज कोर्ट में जमा किये हैं उनमें एवी बिरला समूह के एग्जीक्यूटिव शुभेंदु अमिताभ से हुई पूछताछ का लिखित ब्यौरा भी शामिल है. इस पूछताछ में उन्होंने बताया था कि दस्तावेजों में लिखा गया ‘गुजरात सीएम’ उन्होंने ‘व्यक्तिगत नोट’ के तौर पर लिखा था. ये तीन एक्सेल शीट्स - जो जब्त किये गए दस्तावेजों का बेहद छोटा सा हिस्सा हो सकती हैं - कथित तौर पर क्या संकेत देती हैं? ये लॉग शीट्स दस महीनों में कुल 115 करोड़ रूपये के भुगतान दर्शाती हैं. ये दस महीने थे मई 2013 से मार्च 2014 तक. यानी 2014 के लोकसभा चुनावों से ठीक पहले तक. शाइना एनसी को कथित तौर पर कुल पांच करोड़ का भुगतान हुआ. यह भुगतान 10 सितंबर 2013 से 28 जनवरी 2014 के बीच किसी ‘उदय जी’ द्वारा किया गया. एक अन्य कागज़ पर एक गुप्त सी प्रविष्टि भी दर्ज है जिसके अनुसार शाइना एनसी से ‘मदद’ मांगी जा रही थी कि वे ‘ए जनरल को बॉम्बे केस वापस लेने (समाप्त करने) के लिए’ कहें. दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने कथित तौर पर एक करोड़ रुपये लिए जो किसी ‘जायसवाल’ ने 23 सितंबर 2013 को उन्हें दिए. मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कथित तौर पर 29 सितंबर 2013 और एक अक्टूबर 2013 के बीच कुल दस करोड़ रुपये लिए. ये रुपये उन्हें दो किस्तों में किसी ‘नीरज वशिष्ठ’ द्वारा पहुंचाए गए. जबकि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने कथित तौर पर चार करोड़ रुपये लिए जो उन्हें किसी ‘नंद जी’ ने एक अक्टूबर को दिए थे. ‘सीएम गुजरात’ को 15.1 करोड़ रुपये का कथित भुगतान 30 अक्टूबर 2013 और 29 नवंबर 2013 के बीच कुल चार किस्तों में किसी ‘जायसवाल जी’ द्वारा किया गया. इसके अलावा 30 अक्टूबर 2013 और 22 फरवरी 2014 के बीच आठ भुगतान अहमदाबाद में हुए. ये भुगतान ‘अहमदाबाद मोदी जी’ को ‘जायसवाल जी’ द्वारा ही किये गए और इनकी कुल रकम 35.1 करोड़ रुपये थी. साथ ही 28 जनवरी 2014 को भी ‘अहमदाबाद मोदी’ को पांच करोड़ रुपये का भुगतान किया गया. यानी ‘सीएम गुजरात’, ‘अहमदाबाद मोदी जी’ और ‘अहमदाबाद मोदी’ को कथित तौर पर कुल 55.2 करोड़ रुपये का भुगतान हुआ. क्या आयकर विभाग द्वारा जब्त किए गए इन दस्तावेजों की प्रमाणिकता सुनिश्चित करने और इनमें जिन भुगतानों का जिक्र है, उनकी हकीकत का पता लगाने के लिए एक स्वतंत्र जांच बैठाई जाएगी? यह इस कहानी का अंत नहीं है. देंख्‍ाें सहारा समूह से जब्त दस्तावेज-1, सहारा समूह से जब्त दस्तावेज - 2, सहारा समूह से जब्त दस्तावेज - 3 सभ्‍ाी दस्‍तवेज http://satyagrah.scroll.in/article/103382/if-modi-didn-t-receive-rs-55-crore-bribe-as-gujarat-cm-then-these-documents-should-be-investigated-more-rigourously?utm_source=rss&utm_medium=public पर प्रका‌शित साभ्‍ाारः सत्याग्रहडॉटस्क्रोलडॉटइन, writer- परंजॉय गुहा ठाकुरता

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2016

अयोध्या एक तहज़ीब के मर जाने की कहानी है

कहते हैं अयोध्या में राम जन्मे, वहीं खेले कूदे बड़े हुए, बनवास भेजे गए, लौट कर आए तो वहां राज भी किया, उनकी जिंदगी के हर पल को याद करने के लिए एक मंदिर बनाया गया, जहां खेले, वहां गुलेला मंदिर है, जहां पढ़ाई की वहां वशिष्ठ मंदिर हैं. जहां बैठकर राज किया वहां मंदिर है. जहां खाना खाया वहां सीता रसोई है. जहां भरत रहे वहां मंदिर है. हनुमान मंदिर है. कोप भवन है. सुमित्रा मंदिर है. दशरथ भवन है. ऐसे बीसीयों मंदिर हैं. और इन सबकी उम्र 400-500 साल है. यानी ये मंदिर तब बने जब हिंदुस्तान पर मुगल या मुसलमानों का राज रहा. अजीब है न! कैसे बनने दिए होंगे मुसलमानों ने ये मंदिर! उन्हें तो मंदिर तोड़ने के लिए याद किया जाता है. उनके रहते एक पूरा शहर मंदिरों में तब्दील होता रहा और उन्होंने कुछ नहीं किया! कैसे अताताई थे वे, जो मंदिरों के लिए जमीन दे रहे थे. शायद वे लोग झूठे होंगे जो बताते हैं कि जहां गुलेला मंदिर बनना था उसके लिए जमीन मुसलमान शासकों ने ही दी. दिगंबर अखाड़े में रखा वह दस्तावेज भी गलत ही होगा जिसमें लिखा है कि मुसलमान राजाओं ने मंदिरों के बनाने के लिए 500 बीघा जमीन दी. निर्मोही अखाड़े के लिए नवाब सिराजुदौला के जमीन देने की बात भी सच नहीं ही होगी, सच तो बस बाबर है और उसकी बनवाई बाबरी मस्जिद! अब तो तुलसी भी गलत लगने लगे हैं जो 1528 के आसपास ही जन्मे थे. लोग कहते हैं कि 1528 में ही बाबर ने राम मंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनवाई. तुलसी ने तो देखा या सुना होगा उस बात को. बाबर राम के जन्म स्थल को तोड़ रहा था और तुलसी लिख रहे थे मांग के खाइबो मसीत में सोइबो. और फिर उन्होंने रामायण लिखा डाली. राम मंदिर के टूटने का और बाबरी मस्जिद बनने क्या तुलसी को जरा भी अफसोस न रहा होगा! कहीं लिखा क्यों नहीं! अयोध्या में सच और झूठ अपने मायने खो चुके हैं. मुसलमान पांच पीढ़ी से वहां फूलों की खेती कर रहे हैं. उनके फूल सब मंदिरों पर उनमें बसे देवताओं पर.. राम पर चढ़ते रहे. मुसलमान वहां खड़ाऊं बनाने के पेशे में जाने कब से हैं. ऋषि मुनि, संन्यासी, राम भक्त सब मुसलमानों की बनाई खड़ाऊं पहनते रहे. सुंदर भवन मंदिर का सारा प्रबंध चार दशक तक एक मुसलमान के हाथों में रहा. 1949 में इसकी कमान संभालने वाले मुन्नू मियां 23 दिसंबर 1992 तक इसके मैनेजर रहे. जब कभी लोग कम होते और आरती के वक्त मुन्नू मियां खुद खड़ताल बजाने खड़े हो जाते तब क्या वह सोचते होंगे कि अयोध्या का सच क्या है और झूठ क्या? अग्रवालों के बनवाए एक मंदिर की हर ईंट पर 786 लिखा है. उसके लिए सारी ईंटें राजा हुसैन अली खां ने दीं. किसे सच मानें? क्या मंदिर बनवाने वाले वे अग्रवाल सनकी थे या दीवाना था वह हुसैन अली खां जो मंदिर के लिए ईंटें दे रहा था? इस मंदिर में दुआ के लिए उठने वाले हाथ हिंदू या मुसलमान किसके हों, पहचाना ही नहीं जाता. सब आते हैं. एक नंबर 786 ने इस मंदिर को सबका बना दिया. क्या बस छह दिसंबर 1992 ही सच है! जाने कौन. छह दिसंबर 1992 के बाद सरकार ने अयोध्या के ज्यादातर मंदिरों को अधिग्रहण में ले लिया. वहां ताले पड़ गए. आरती बंद हो गई. लोगों का आना जाना बंद हो गया. बंद दरवाजों के पीछे बैठे देवी देवता क्या कोसते होंगे कभी उन्हें जो एक गुंबद पर चढ़कर राम को छू लेने की कोशिश कर रहे थे? सूने पड़े हनुमान मंदिर या सीता रसोई में उस खून की गंध नहीं आती होगी जो राम के नाम पर अयोध्या और भारत में बहाया गया? अयोध्या एक शहर के मसले में बदल जाने की कहानी है. अयोध्या एक तहजीब के मर जाने की कहानी है. (Rajiv Tyagi with Wasim Akram Tyagi on facebook)

शनिवार, 26 नवंबर 2016

कालेधन के नाम पर छलावा और कब तक?

केन्द्र सरकार द्वारा कालेधन पर हमले के नाम पर की गयी नोटबंदी की कार्रवाई ने मुसिबतों से जूझती आम जनता को भारी संकट में धकेल दिया है। उसकी गाढ़ी कमाई के रूपयों को एक ही झटके में रद्दी के टुकड़ों में बदल दिया गया। 8 नवम्बर की रात को प्रधानमंत्री की औचक घोषणा के बाद हालात लगातार बदतर होते चले गये। रूपये बदलवाने के लिए बैंकों में मारामारी ही नहीं मची, टीवी और अखबारों के जरिये एक से एक बुरी खबरें भी सामने आ रही हैं। मुम्बई में अस्पताल द्वारा 500 के नोट स्वीकार न किए जाने के कारण एक दुधमुँहे ने बिना इलाज दम तोड़ दिया। केरल में पैसा निकालने के दौरान हुई धक्का-मुक्की में चार लोगों की मौत हो गयी । एक आदमी बैंक की छत से तब कूद गया, जब उसे पता चला कि अपने पीएफ खाते से उधार ली गयी राशि को निकाल नहीं सकता । बैंक के बाहर धूप में लाइन लगाये खड़े दो बुजुर्ग व्यक्तियों की जान चली गयी। इस तरह नोट बदलवाने के चक्कर में 50 लोगों की जाने जा चुकी हैं। नकद के अभाव में कई घरों में शादियाँ रुक गयी, किसानों व छोटे व्यापारियों के काम-धंधे ठप पड़ गये और दिहाड़ी मजदूरों-मेहनतकशों को खाने के लाले पड़ गये। लोगों में अचानक फैली असुरक्षा और भय का फायदा उठाते हुए उत्तर प्रदेश में कई जगहों पर व्यापारियों ने नमक के अभाव की अफवाह फैलाकर लाखों कमा लिए। देश में कई जगहों पर हिंसा-झड़पें हुई और बदहवास जनता द्वारा दुकानों से आटा व नमक लूटे जाने की खबरें भी आयीं। सवाल है कि देश की आम जनता को इन मुसिबतों से आखिर क्यों गुजरना पड़ा? मोदी सरकार ने इस आपातकालीन कदम के लिए तीन कारण गिनाये हैं। पहला है नकली नोटों का चलन। सरकार के अनुसार पाकिस्तान बड़ी मात्रा में नकली नोटों को छापता है, जिसके बल पर वह भारत में आतंकवाद को बढ़ावा देता है। दूसरा है कालाधन। नरेन्द्र मोदी ने इस कदम को कालेधन के खिलाफ एक बहुत बड़ी लड़ाई बताया और जनता से आह्वान किया कि वे तकलीफ उठाकर भी इस महान लड़ाई में उनका साथ दें। तीसरा कारण है भ्रष्टाचार। सरकार का कहना है कि इस कार्रवाई से भ्रष्टाचार रुकेगा और कालेधन के बल पर चुनाव लड़ना अब किसी के लिए आसान नहीं होगा। सरकार के इन तर्कों में कितना दम है और ये कितने सच्चे हैं इस पर कोई सोच न सके इसलिए देशभक्ति का ज्वार पैदा करने की कोशिश की गयी । देश के करोड़ों लोगों की जिन्दगी को प्रभावित करने वाली नीतियों पर गम्भीर चर्चा करने की बजाय चुनावी भाषणों द्वारा जनता को भरमाने का खेल चल रहा है। देश के गृहमंत्री ने बोला कि इस कदम के बाद देश आर्थिक महाशक्ति बन जायेगा। हालांकि ऐसा दावा न तो कोई अर्थशास्त्री कर सकता है और न ही कोई जानकार व्यक्ति। प्रधानमंत्री ने इसे कालेधन के खिलाफ जिहाद कहा । उन्होंने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की भद्दी नकल करते हुए कह डाला कि तकलीफ के 50 दिन आप मुझे दे दो, आपको अपने सपनों का भारत मिल जायेगा। देश और राष्ट्रहित की दुहाई देकर हर नेता बार-बार जनता से ही कुर्बानी की माँग करता है लेकिन आखिर में भरता अपनी व अपने भाईबन्दों की जेब ही है। अब तो नरेन्द्र मोदी के कारनामे भी सामने आ गये हैं। उनके गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए आयकर विभाग की छुपायी गयी रिपोर्ट के हिस्से के खुलासे ने जाहिर कर दिया है कि मोदी जी का दामन भी दागदार है। इसलिए आज नेताओं व राजनीतिक पार्टियों के लच्छेदार भाषणों के बहाव में बिना बहे अगर हम सच्चाई को देंखने की कोशिश करें तो पता चलेगा कि नरेन्द्र मोदी की नोटबंदी की यह कार्रवाई कितना बड़ा फर्जीवाड़ा है और इसे लागू करने के पीछे असली मकसद कुछ और ही है। और तभी हम काले कारोबार की उस विराट तस्वीर को देख पायेंगे जहाँ से कालाधन पैदा हो रहा है। जहाँ तक जाली नोटों का मामला है भारतीय अर्थव्यवस्था में इसकी मौजूदगी एक वास्तविक समस्या हो सकती है । लेकिन खुद सरकार का कहना है कि इसकी मात्रा कुल नोटों के मुकाबले मामूली-सी है। उसके अनुसार 500 रूपये के 10 लाख नोटों में से मात्र 250 ही नकली है- यानी केवल .0025 प्रतिशत। इसलिए अगर इस कार्रवाई को करना ही था तो एक लम्बे समय के अन्तराल में इसे किया जा सकता था। इसके लिए देश को झकझोरने वाले और जनता को अपार मुसिबतों में डालने वाले कदम की कोई जरूरत नहीं थी। अव्वल तो नकली नोटों को बेकार साबित करने के लिए 15-20 हजार करोड़ में नये नोटों की छपाई और इसे लागू करने में कई हजार करोड़ अतिरिक्त फूंकना कोई अक्लमंदी का काम नहीं। क्योंकि कुछ समय बाद नकली नोट छापने वाले नये नोटों की नकल भी छापने लगेंगे । इसके अलावा यह बताना कि देश के किसी हिस्से में कोई आन्दोलन जाली या असली नोटों की सप्लाई बन्द होने से दम तोड़ देगा- सरासर बचकाना जुमला है । कश्मीर हो, पूर्वोत्तर राज्य हो या छत्तीसगढ़- लम्बे समय से चले आ रहे ऐसे सभी आन्दोलनों के अपने-अपने राजनीतिक मुद्दे हैं जो कि सालों से चले आ रहे हैं और इन मुद्दों का आज भी जिन्दा रहना भारत की राजनीतिक पार्टियों की चरम असफलता को दिखाता है । इसलिए बजाय कि अपनी अक्षमता की कीमत आम जनता से वसूली जाय, सत्ता में बैठे हुए लोगों को चाहिए कि वे इन मुद्दों का साहस के साथ सामना करें ताकि उनका समाधान हो । कालेधन का मुद्दा और भी छलावे वाला है। चूंकि हमारे देश की 80 फीसदी जनता खून-पसीना एक करके मामूली ही कमा पाती है और इनमें से करोड़ों कुछ भी नहीं कमा पाते, इसलिए काली कमाई या कालाधन जनता के लिए हमेशा ही एक संवेदनशील मुद्दा बना रहता है। लेकिन आम लोग यह नहीं जानते कि कालाधन किन-किन तरीकों से पैदा होता है और असली अपराधी कौन-कौन है ? राजनीतिक पार्टियाँ, पैसे वाले लोग और मीडिया इसकी असलियत को कभी भी जनता के सामने नहीं लाते, जिससे जनता बार-बार ठगी जाती है । हमें याद है कि मोदी जी ने 2014 के चुनाव को विदेशों में जमा कालेधन की वापसी के वायदे के साथ लड़ा था। उनका यह भी वादा था कि कालेधन की वापसी करवा कर हर नागरिक के बैंक खाते में वे 15 लाख रूपये डलवायेंगे। देश की जनता इंतजार करती रही पर 15 रूपये भी उनके खाते में नहीं आये । जबकि कालाधन बढ़ता ही जा रहा है । आज नोटबंदी कर देश के अन्दर के कालेधन को समाप्त करने की जो बात कही जा रही है, तय है यह भी एक जुमला ही साबित होगा। हकीकत है कि नरेन्द्र मोदी का यह आपातकालीन कदम कालेधन के एक मामूली हिस्से को ही जब्त कर सकता है। क्योंकि कालेधन का बड़ा हिस्सा विदेशों में चला जाता है और देश के अन्दर छोटा हिस्सा ही रह जाता है । इस छोटे से हिस्से का भी बहुत छोटा भाग नकद के रूप में मौजूद होता है। उदाहरण के लिए अंग्रेजी दैनिक हिन्दुस्तान टाइम्स के मुताबिक इस साल के 1 अप्रैल से लेकर 31 अक्टूबर के दौरान की आयकर विभाग की जाँच-पड़ताल में पाया गया कि 7700 करोड़ रूपये की टैक्स चोरी से कालाधन पैदा किया गया है । लेकिन इसमें नकद रूपये का हिस्सा 408 करोड़ यानी महज 5 प्रतिशत है। शेष बड़ा हिस्सा उद्योग-व्यापार में, स्टॉक मार्केट में, जमीन-जायदाद में लगाया गया है या बेनामी बैंक खाते में रखा गया है । इस 5 प्रतिशत में चूंकि आभूषणों की गिनती भी शामिल है इसलिए नकद की मात्रा 3 या 4 प्रतिशत ही होगी। जबकि उन अरबों रूपयों के कालेधन को जानबूझ कर अनदेखा कर दिया जाता है जो हर साल चुपके से बाहर चला जाता है। नेशनल इंस्टिच्यूट ऑफ पब्लिक फाइनैन्स एण्ड पॉलिशी ने आकलन किया कि हमारे देश में कालाधन सकल घरेलू उत्पाद, डेड़ लाख अरब रूपये (2.2 ट्रिलियन डालर), का 75 फीसदी है । कालाधन पैदा करने वालों में देश के पूँजीपति, विदेशी कम्पनियाँ, वित्तीय संस्थाएँ, निर्यातक, रियल एस्टेट, नौकरशाह, छोटे-मझोले कारोबारी और भ्रष्ट नेता आदि सफेदपोश लोग हैं । हर सरकार की जानकारी में यह काला धन्धा चलता रहता है । यही कम्पनियाँ या पूँजीपति-व्यापारी, राजनीतिक पार्टियों को चुनाव लडऩे के लिए भारी मात्रा में काला धन मुहैया कराते हैं । इसीलिए भारत की आजादी के बाद कालेधन पर बैठाये गये 40 जाँच कमीशनों व कमिटियों का कोई नतीजा नहीं निकला। काला कारोबार और कालेधन की मात्रा बढ़ती ही गयी । हालांकि 1990 तक कालेधन की मात्रा काफी सीमित थी। वोफोर्स तोप घोटाले जैसा इक्का-दुक्का कांड ही सामने आता रहा है । 1991 से देश की सम्पूर्ण जनता के लिए एक बिल्कुल अलग दौर की शुरुआत की गयी। क्योंकि इसी साल कांग्रेस की अल्पमत सरकार ने ‘उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण’ की नीतियों को एकमुश्त लागू किया था। इन नीतियों ने देशी-विदेशी पूँजीपतियों के लाभ कमाने की सारी बाधाओं को तोड़ दिया जिससे देश में काले कारोबार की बाढ़ आ गयी । ढेरों चीजें जो पहले गैर-कानूनी थी, अब कानूनी बना दी गयी। जैसे पहले किसानों और आदिवासियों की जमीनों को पूँजीपतियों के लिए खरीदना आसान नहीं था। आज उन्हीं जमीनों पर कब्जा जमाना और खरीद-फरोख्त किया जाना कालेधन का सबसे बड़ा कारण बन गया है। विदेशी मुद्रा नियमन कानून के दाँत तोड़ दिए गये, आयात व निर्यात कानून को बेहद लचीला कर दिया गया । जिससे आयात-निर्यात करने वाली कम्पनियों को ओवर-इन्वॉयसिंग, अन्डर-इन्वॉयसिंग के द्वारा हर बार करोड़ों की टैक्स चोरी करने का मौका मिल गया। फिर इसी कालेधन को वे विदेशी बैंकों में रखते हैं या डालर, सोना-आभूषण, रियल एस्टेट में निवेश करते हैं या शेल (कागजी या फर्जी) कम्पनियों में निवेश दिखाकर उसे सफेद कर लेते हैं। मशहूर विदेशी बैंक एचएसबीसी के मामले में यह पता चला कि सभी विदेशी बैंक कालेधन को सफेद बनाने में माहिर हैं । इसके अलावा, सभी विदेशी कम्पनियाँ अपनी भारतीय शाखाओं से गैर-कानूनी धन-प्रेषण (रेमिटेंस) हासिल कर हर साल करोड़ों डालर कालाधन कमाती हैं । ये सभी काले धन्धे सरकार की मूक सहमति से चलते रहते हैं । क्योंकि यही कम्पनियाँ चुनाव के लिए फंडिगं करती हैं। काले कारोबार का दायरा यही नहीं है, इसमें सरकारें भी शामिल होती हैं। देशी-विदेशी पूँजीपतियों के हित में सभी सरकारों ने गाँवों के विकास के बारे में सोचना और वहाँ पूँजी निवेश करना बन्द कर दिया है। जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था की कमर टूट गयी और लाखों किसान आत्महत्या करने को मजबूर हुए। यह सिलसिला आज भी जारी है। मजदूरी करने वाली जनता का हाल भी यही है। मजदूरों की सुरक्षा के लिए बनाये गये श्रम कानूनों को सरकारें 1991 से ही बदलने की जुगत में हैं, कांग्रेस और भाजपा इस मसले पर पूरी तरह सहमत भी हैं लेकिन भारत की संसद अपनी बदनामी के डर से अब तक इस पर मुहर नहीं लगा पायी । इसके बावजूद उद्योग जगत ने व्यवहार में श्रम कानूनों को लागू करना छोड़ दिया है। न्यूनतम मजदूरी अधिनियम अब लागू नहीं होता, स्थायी कामों के लिए बेहद सस्ते में ठेका मजदूर रखे जाते हैं, मजदूरों को यूनियन का संवैधानिक अधिकार नहीं दिया जाता और जब मर्जी तब किसी मजदूर को निकाल दिया जाता है। पूँजीपतियों की कोशिश होती है कि आधुनिक से आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया जाए ताकि अधिक से अधिक ठेका मजदूरों के बल पर बेहिसाब मुनाफा कमाया जा सके । इसलिए पढ़े-लिखे नौजवानों को सम्मानजनक नौकरी मिलना आज असम्भव-सा हो गया है। फिक्की, एसोचैम जैसे उद्योपतियों के संगठनों ने अपने कई अध्ययनों में पाया कि भारत में हर साल एक करोड़ बीस लाख लोग रोजगार के लिए आते हैं जिनमें से 75 प्रतिशत लोग उनके काम के नहीं हैं। इसी तरह इंजीनियरिंग संस्थानों के सर्वे में भी उन्होंने इतने ही प्रतिशत नौजवानों को अपने लिए बेकार पाया। जाहिर है कि उन्होंने अपने कल-कारखाने-संस्थाओं को सरकार की मदद से ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की मशीन बना लिया है जिनमें हमारे देश के पढ़े-लिखे युवा-युवतियों की अब कोई जरुरत नहीं रही। यही वह छल-प्रपंच है जिससे पूँजीपतियों ने पिछले 25 सालों में भारी मुनाफा कमाया। अम्बानी, टाटा-बिड़लाओं की आसमान छूती कमाई हो या देश के 111, डालर अरबपतियों की संख्या हो, सभी देश में पैर जमाये भारी-भरकम काले कारोबार की ओर ही इशारा करते हैं। इतना ही नहीं, विकास के नाम पर ये सभी पार्टियाँ देश के सारे संशाधनों को उन्हीं धनी लोगों पर लुटाती है । 2005-2006 से लेकर अब तक विभिन्न मदों में इन लोगों का 42 खरब रूपये का कर्जा माफ कर दिया गया है। इन कर्जों की माफी के चलते सरकारी बैंक हमेशा घाटे की स्थिति में बने रहते हैं । बैंकों को बचाने के लिए सरकार जनता की खून-पसीने के करोड़ों रूपये बार-बार उसमें झोंकती रहती है । यह सरकार की मिलीभगत से पूँजीपतियों द्वारा देश के अरबों-खरबों रूपये को डकार जाने के अलावा कुछ नहीं है । लेकिन सरकार ऐसी काली कमाई को कालाधन नहीं कहती, वह हाथियों को अनदेखा करती है जबकि चुहों को पकड़ कर वाह-वाही लूटना चाहती है। हालांकि ये सरकारें हाथियों को पकड़ भी नहीं सकती है । क्योंकि पूँजी के ये ताकतवर खिलाड़ी 1991 के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था पर अपनी मुकम्मल पकड़ बना चुके हैं । शेयर बाजार पर विदेशी वित्तीय संस्थाओं की ही पकड़ है जिससे वे देश की वित्तीय नीतियों को अपने हितों के अनुकूल बनाने में सक्षम हैं। संसद में मौजूद पार्टियाँ जो उन्हीं के चंदे पर पलती है, उनका बाल भी बाँका नहीं कर सकती हैं । पार्टियाँ, सरकारें और मंत्रीगण कैसे उनके हाथ के खिलौने हैं इसकी झलक चर्चित रहे राडिया टेप और एस्सार टेप कांड में साफ तौर पर देखी जा सकती है । 2010 में आउटलुक पत्रिका ने राडिया टेप का खुलासा इस शीर्षक के साथ किया- ‘भारतीय गणतंत्र अब बिकाऊ है। राडिया टेप कांग्रेस काल के भ्रष्टाचार को सामने लाता है जबकि 2016 में सामने आया एस्सार टेप कांड भाजपा और कांग्रेस दोनो को ही नंगा करता है । इन टेपों ने नेताओं-मंत्रियों-नौकरशाहों की टाटा-अम्बानियों से साठगाँठ को बहुत ही साफतौर से उजागर किया है । इस बीच, सत्ताधारी भाजपा जिस एकमात्र ‘ईमानदार’ व्यक्ति के सहारे अपनी नैया पार लगाने की कोशिश कर रही है, नये खुलासे से अब उसकी ईमानदारी भी संदेह के घेरे में आ गयी है । 2013 में आयकर विभाग ने आदित्य बिड़ला और सहारा कम्पनियों पर छापा मारा था और जिसकी एक भारी-भरकम रिपोर्ट विभाग ने सरकार को सौंपी थी । उस समय रिपोर्ट के उन हिस्सों को छुपा दिया गया था, जो अब सामने आ गये हैं, में साफ दर्ज है कि कम्पनियों ने गुजरात, दिल्ली, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों को और भाजपा व कांग्रेस के कई दिग्गज नेताओं को करोड़ों रूपयों की रिश्वत दी थी । भ्रष्टाचार की कीचड़ में डूबी ऐसी पार्टियाँ क्या कालेधन के खिलाफ कोई लड़ाई लड़ सकती है? सच्चाई यही है कि नरेन्द्र मोदी सरकार अपने ढाई साल के कार्यकाल के दौरान आम जनता को राहत के नाम पर वैसी कोई लॉलीपाप भी थमा नहीं पाई जैसा कि कांग्रेस की अत्यंत भ्रष्ट सरकार ने ‘मनरेगा’ के नाम पर थमाया था । अब जबकि कुछ ही महिनों बाद उत्तर प्रदेश, पंजाब समेत पाँच राज्यों में और 2019 में देश में आम चुनाव है, मोदी ऐसा कोई ‘महान’ काम करने पर आमादा है जो 2014 में बनायी गयी उनकी ईमानदार छवि की गिरती साख को बचा सके । मोदी का देश में फिर से डंका बजे यह पूँजीपति तबका, अमीर वर्ग और मध्य वर्ग का बड़ा हिस्सा अपने मतलब के कारण चाह रहा है । इसलिए वे सब नोटबंदी में पूरी तरह मोदी के साथ हैं । इतना ही नहीं, नोटबंदी से मोदी की कार्रवाई इन धन्ना सेठों को और भी बड़ा फायदा पहुँचाने जा रही है जो अभी आम जनता की आँखों से ओझल हैं । सरकार की यह तानाशाही वाली कार्रवाई आम लोगों को मजबूर कर रही है कि वे अपनी गाढ़ी कमाई के रूपयों को उन्हीं बैंकों में जमा करें जो एनपीए के नाम पर जनता के अरबों-खरबों रूपयों को धन्ना सेठों के हाथों सौंप देती है । रेहड़ी-खोके वालों तक को मजबूर किया जा रहा है कि वे सब वित्तीय कम्पनियों के माध्यम से ही अब लेन-देन करें। 5-10 हजार महिना कमाने वालों की आमदनी से भी ये रक्त-पिपासु कम्पनियाँ अब मुनाफा वसूलना चाहती है । आज यही वित्तीय तानाशाही आम जनता पर थोपी गयी है । देश के 80 प्रतिशत नागरिक आज अपार मुसिबतों का सामना कर रहे हैं । लेकिन यह तो महज शुरुआत है । अगर यह वित्तीय तानाशाही मजबूत हो गयी तो गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी, महँगाई आदि का नंगा नाच देखने को मिलेगा । कालाधन और भ्रष्टाचार पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का अभिन्न हिस्सा है। पूँजीवाद के बने रहते इससे मुक्ति पाने की झूठी उम्मीद पालने के बजाय हमें स्पष्ट तौर पर कहना चाहिए कि- बस ! अब हमें कोई और छलावा मंजूर नहीं । काम कर सकने वाले हर नागरिक को स्थायी रोजगार चाहिए, हर व्यक्ति को सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार मिलना चाहिए । साभारः रेड ट्यूलिप

शनिवार, 6 अगस्त 2016

कौम के नाम सन्देशः भगतसिंह

‘कौम के नाम सन्देश’ और ‘नवयुवक राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र ‘ शीर्षक के साथ मिले इस दस्तावेज के कई प्रारूप और हिन्दी अनुवाद उपलब्ध हैं, यह एक संक्षिप्त रूप है। लाहौर के पीपुल्ज़ में 29 जुलाई, 1931 और इलाहाबाद के अभ्युदय में 8 मई, 1931 के अंक में इसके कुछ अंश प्रकाशित हुए थे। यह दस्तावेज अंग्रेज सरकार की एक गुप्त पुस्तक ‘बंगाल में संयुक्त मोर्चा आंदोलन की प्रगति पर नोट’ से प्राप्त हुआ, जिसका लेखक सी आई डी अधिकारी सी ई एस फेयरवेदर था और जो उसने 1936 में लिखी थी। उसके अनुसार यह लेख भगतसिंह ने लिखा था और 3 अक्तूबर, 1931 को श्रीमती विमला प्रभा देवी के घर से तलाशी में हासिल हुआ था। सम्भवत: 2 फरवरी, 1931 को यह दस्तावेज लिखा गया। नवयुवक राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र प्रिय साथियो इस समय हमारा आन्दोलन अत्यन्त महत्वपूर्ण परिस्थितियों में से गुज़र रहा है। एक साल के कठोर संग्राम के बाद गोलमेज़ कान्फ्रेन्स ने हमारे सामने शासन-विधान में परिवर्तन के सम्बन्ध में कुछ निश्चित बातें पेश की हैं और कांग्रेस के नेताओं को निमन्त्रण दिया है कि वे आकर शासन-विधान तैयार करने के कामों में मदद दें। कांग्रेस के नेता इस हालत में आन्दोलन को स्थगित कर देने के लिए तैयार दिखायी देते हैं। वे लोग आन्दोलन स्थगित करने के हक़ में फैसला करेंगे या खि़लाफ़, यह बात हमारे लिये बहुत महत्व नहीं रखती। यह बात निश्चित है कि वर्तमान आन्दोलन का अन्त किसी न किसी प्रकार के समझौते के रूप में होना लाज़िमी है। यह दूसरी बात है कि समझौता ज़ल्दी हो जाये या देरी हो। वस्तुतः समझौता कोई हेय और निन्दा-योग्य वस्तु नहीं, जैसा कि साधारणतः हम लोग समझते हैं, बल्कि समझौता राजनैतिक संग्रामों का एक अत्यावश्यक अंग है। कोई भी कौम, जो किसी अत्याचारी शासन के विरुद्ध खड़ी होती है, ज़रूरी है कि वह प्रारम्भ में असफल हो और अपनी लम्बी ज़द्दोज़हद के मध्यकाल में इस प्रकार के समझौते के ज़रिये कुछ राजनैतिक सुधार हासिल करती जाये, परन्तु वह अपनी लड़ाई की आख़िरी मंज़िल तक पहुँचते-पहुँचते अपनी ताक़तों को इतना दृढ़ और संगठित कर लेती है और उसका दुश्मन पर आख़िरी हमला ऐसा ज़ोरदार होता है कि शासक लोगों की ताक़तें उस वक्त तक भी यह चाहती हैं कि उसे दुश्मन के साथ कोई समझौता कर लेना पड़े। यह बात रूस के उदाहरण से भली-भाँति स्पष्ट की जा सकती है। 1905 में रूस में क्रान्ति की लहर उठी। क्रान्तिकारी नेताओं को बड़ी भारी आशाएँ थीं, लेनिन उसी समय विदेश से लौट कर आये थे, जहाँ वह पहले चले गये थे। वे सारे आन्दोलन को चला रहे थे। लोगों ने कोई दर्ज़न भर भूस्वामियों को मार डाला और कुछ मकानों को जला डाला, परन्तु वह क्रान्ति सफल न हुई। उसका इतना परिणाम अवश्य हुआ कि सरकार कुछ सुधार करने के लिये बाध्य हुई और द्यूमा (पार्लियामेन्ट) की रचना की गयी। उस समय लेनिन ने द्यूमा में जाने का समर्थन किया, मगर 1906 में उसी का उन्होंने विरोध शुरू कर दिया और 1907 में उन्होंने दूसरी द्यूमा में जाने का समर्थन किया, जिसके अधिकार बहुत कम कर दिये गये थे। इसका कारण था कि वह द्यूमा को अपने आन्दोलन का एक मंच (प्लेटफ़ार्म) बनाना चाहते थे। इसी प्रकार 1917 के बाद जब जर्मनी के साथ रूस की सन्धि का प्रश्न चला, तो लेनिन के सिवाय बाकी सभी लोग उस सन्धि के ख़िलाफ़ थे। परन्तु लेनिन ने कहा, ‘'शान्ति, शान्ति और फिर शान्ति – किसी भी कीमत पर हो, शान्ति। यहाँ तक कि यदि हमें रूस के कुछ प्रान्त भी जर्मनी के ‘वारलार्ड’ को सौंप देने पड़ें, तो भी शान्ति प्राप्त कर लेनी चाहिए।'’ जब कुछ बोल्शेविक नेताओं ने भी उनकी इस नीति का विरोध किया, तो उन्होंने साफ़ कहा कि ‘'इस समय बोल्शेविक सरकार को मज़बूत करना है।'’ जिस बात को मैं बताना चाहता हूँ वह यह है कि समझौता भी एक ऐसा हथियार है, जिसे राजनैतिक ज़द्दोज़हद के बीच में पग-पग पर इस्तेमाल करना आवश्यक हो जाता है, जिससे एक कठिन लड़ाई से थकी हुई कौम को थोड़ी देर के लिये आराम मिल सके और वह आगे युद्ध के लिये अधिक ताक़त के साथ तैयार हो सके। परन्तु इन सारे समझौतों के बावज़ूद जिस चीज़ को हमें भूलना नहीं चाहिए, वह हमारा आदर्श है जो हमेशा हमारे सामने रहना चाहिए। जिस लक्ष्य के लिये हम लड़ रहे हैं, उसके सम्बन्ध में हमारे विचार बिलकुल स्पष्ट और दृढ़ होने चाहिए। यदि आप सोलह आने के लिये लड़ रहे हैं और एक आना मिल जाता है, तो वह एक आना ज़ेब में डाल कर बाकी पन्द्रह आने के लिये फिर जंग छेड़ दीजिए। हिन्दुस्तान के माडरेटों की जिस बात से हमें नफ़रत है वह यही है कि उनका आदर्श कुछ नहीं है। वे एक आने के लिये ही लड़ते हैं और उन्हें मिलता कुछ भी नहीं। भारत की वर्तमान लड़ाई ज़्यादातर मध्य वर्ग के लोगों के बलबूते पर लड़ी जा रही है, जिसका लक्ष्य बहुत सीमित है। कांग्रेस दूकानदारों और पूँजीपतियों के ज़रिये इंग्लैण्ड पर आर्थिक दबाव डाल कर कुछ अधिकार ले लेना चाहती है। परन्तु जहाँ तक देश की करोड़ों मज़दूर और किसान जनता का ताल्लुक है, उनका उद्धार इतने से नहीं हो सकता। यदि देश की लड़ाई लड़नी हो, तो मज़दूरों, किसानों और सामान्य जनता को आगे लाना होगा, उन्हें लड़ाई के लिये संगठित करना होगा। नेता उन्हें आगे लाने के लिये अभी तक कुछ नहीं करते, न कर ही सकते हैं। इन किसानों को विदेशी हुकूमत के साथ-साथ भूमिपतियों और पूँजीपतियों के जुए से भी उद्धार पाना है, परन्तु कांग्रेस का उद्देश्य यह नहीं है। इसलिये मैं कहता हूँ कि कांग्रेस के लोग सम्पूर्ण क्रान्ति नहीं चाहते। सरकार पर आर्थिक दबाव डाल कर वे कुछ सुधार और लेना चाहते हैं। भारत के धनी वर्ग के लिये कुछ रियायतें और चाहते हैं और इसलिये मैं यह भी कहता हूँ कि कांग्रेस का आन्दोलन किसी न किसी समझौते या असफलता में ख़त्म हो जायेगा। इस हालत में नौजवानों को समझ लेना चाहिए कि उनके लिये वक्त और भी सख़्त आ रहा है। उन्हें सतर्क हो जाना चाहिए कि कहीं उनकी बुद्धि चकरा न जाये या वे हताश न हो बैठें। महात्मा गाँधी की दो लड़ाइयों का अनुभव प्राप्त कर लेने के बाद वर्तमान परिस्थितियों और अपने भविष्य के प्रोग्राम के सम्बन्ध में साफ़-साफ़ नीति निर्धारित करना हमारे लिये अब ज़्यादा ज़रूरी हो गया है। इतना विचार कर चुकने के बाद मैं अपनी बात अत्यन्त सादे शब्दों में कहना चाहता हूँ। आप लोग इंकलाब-ज़िन्दाबाद (long live revolution) का नारा लगाते हैं। यह नारा हमारे लिये बहुत पवित्र है और इसका इस्तेमाल हमें बहुत ही सोच-समझ कर करना चाहिए। जब आप नारे लगाते हैं, तो मैं समझता हूँ कि आप लोग वस्तुतः जो पुकारते हैं वही करना भी चाहते हैं। असेम्बली बम केस के समय हमने क्रान्ति शब्द की यह व्याख्या की थी – क्रान्ति से हमारा अभिप्राय समाज की वर्तमान प्रणाली और वर्तमान संगठन को पूरी तरह उखाड़ फेंकना है। इस उद्देश्य के लिये हम पहले सरकार की ताक़त को अपने हाथ में लेना चाहते हैं। इस समय शासन की मशीन अमीरों के हाथ में है। सामान्य जनता के हितों की रक्षा के लिये तथा अपने आदर्शों को क्रियात्मक रूप देने के लिये – अर्थात् समाज का नये सिरे से संगठन कार्ल माक्र्स के सिद्धान्तों के अनुसार करने के लिये – हम सरकार की मशीन को अपने हाथ में लेना चाहते हैं। हम इस उद्देश्य के लिये लड़ रहे हैं। परन्तु इसके लिये साधारण जनता को शिक्षित करना चाहिए। जिन लोगों के सामने इस महान क्रान्ति का लक्ष्य है, उनके लिये नये शासन-सुधारों की कसौटी क्या होनी चाहिए? हमारे लिये निम्नलिखित तीन बातों पर ध्यान रखना किसी भी शासन-विधान की परख के लिये ज़रूरी है - शासन की ज़िम्मेदारी कहाँ तक भारतीयों को सौंपी जाती है? शासन-विधान को चलाने के लिये किस प्रकार की सरकार बनायी जाती है और उसमें हिस्सा लेने का आम जनता को कहाँ तक मौका मिलता है? भविष्य में उससे क्या आशाएँ की जा सकती हैं? उस पर कहाँ तक प्रतिबन्ध लगाये जाते हैं? सर्व-साधारण को वोट देने का हक़ दिया जाता है या नहीं? भारत की पार्लियामेन्ट का क्या स्वरूप हो, यह प्रश्न भी महत्वपूर्ण है। भारत सरकार की कौंसिल आफ़ स्टेट सिर्फ अमीरों का जमघट है और लोगों को फाँसने का एक पिंजरा है, इसलिये उसे हटा कर एक ही सभा, जिसमें जनता के प्रतिनिधि हों, रखनी चाहिए। प्रान्तीय स्वराज्य का जो निश्चय गोलमेज़ कान्फ्रेन्स में हुआ, उसके सम्बन्ध में मेरी राय है कि जिस प्रकार के लोगों को सारी ताकतें दी जा रही हैं, उससे तो यह ‘प्रान्तीय स्वराज्य’ न होकर ‘प्रान्तीय जु़ल्म’ हो जायेगा। इन सब अवस्थाओं पर विचार करके हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि सबसे पहले हमें सारी अवस्थाओं का चित्र साफ़ तौर पर अपने सामने अंकित कर लेना चाहिए। यद्यपि हम यह मानते हैं कि समझौते का अर्थ कभी भी आत्मसमर्पण या पराजय स्वीकार करना नहीं, किन्तु एक कदम आगे और फिर कुछ आराम है, परन्तु हमें साथ ही यह भी समझ लेना कि समझौता इससे अधिक भी और कुछ नहीं। वह अन्तिम लक्ष्य और हमारे लिये अन्तिम विश्राम का स्थान नहीं। हमारे दल का अन्तिम लक्ष्य क्या है और उसके साधन क्या हैं – यह भी विचारणीय है। दल का नाम ‘सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी’ है और इसलिए इसका लक्ष्य एक सोशलिस्ट समाज की स्थापना है। कांग्रेस और इस दल के लक्ष्य में यही भेद है कि राजनैतिक क्रान्ति से शासन-शक्ति अंग्रेज़ों के हाथ से निकल हिन्दुस्तानियों के हाथों में आ जायेगी। हमारा लक्ष्य शासन-शक्ति को उन हाथों के सुपुर्द करना है, जिनका लक्ष्य समाजवाद हो। इसके लिये मज़दूरों और किसानों केा संगठित करना आवश्यक होगा, क्योंकि उन लोगों के लिये लार्ड रीडिंग या इरविन की जगह तेजबहादुर या पुरुषोत्तम दास ठाकुर दास के आ जाने से कोई भारी फ़र्क न पड़ सकेगा। पूर्ण स्वाधीनता से भी इस दल का यही अभिप्राय है। जब लाहौर कांग्रेस ने पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पास किया, तो हम लोग पूरे दिल से इसे चाहते थे, परन्तु कांग्रेस के उसी अधिवेशन में महात्मा जी ने कहा कि ‘'समझौते का दरवाज़ा अभी खुला है।'’ इसका अर्थ यह था कि वह पहले ही जानते थे कि उनकी लड़ाई का अन्त इसी प्रकार के किसी समझौते में होगा और वे पूरे दिल से स्वाधीनता की घोषणा न कर रहे थे। हम लोग इस बेदिली से घृणा करते हैं। इस उद्देश्य के लिये नौजवानों को कार्यकर्ता बन कर मैदान में निकलना चाहिए, नेता बनने वाले तो पहले ही बहुत हैं। हमारे दल को नेताओं की आवश्यकता नहीं। अगर आप दुनियादार हैं, बाल-बच्चों और गृहस्थी में फँसे हैं, तो हमारे मार्ग पर मत आइए। आप हमारे उद्देश्य से सहानुभूति रखते हैं, तो और तरीकों से हमें सहायता दीजिए। सख़्त नियन्त्रण में रह सकने वाले कार्यकर्ता ही इस आन्दोलन को आगे ले जा सकते हैं। ज़रूरी नहीं कि दल इस उद्देश्य के लिये छिप कर ही काम करे। हमें युवकों के लिये स्वाध्याय-मण्डल (study circle) खोलने चाहिए। पैम्फ़लेटों और लीफ़लेटों, छोटी पुस्तकों, छोटे-छोटे पुस्तकालयों और लेक्चरों, बातचीत आदि से हमें अपने विचारों का सर्वत्र प्रचार करना चाहिए। हमारे दल का सैनिक विभाग भी संगठित होना चाहिए। कभी-कभी उसकी बड़ी ज़रूरत पड़ जाती है। इस सम्बन्ध में मैं अपनी स्थिति बिलकुल साफ़ कर देना चाहता हूँ। मैं जो कुछ कहना चाहता हूँ, उसमें गलतफ़हमी की सम्भावना है, पर आप लोग मेरे शब्दों और वाक्यों का कोई गूढ़ अभिप्राय न गढ़ें। यह बात प्रसिद्ध ही है कि मैं आतंकवादी (terrorist) रहा हूँ, परन्तु मैं आतंकवादी नहीं हूँ। मैं एक क्रान्तिकारी हूँ, जिसके कुछ निश्चित विचार और निश्चित आदर्श हैं और जिसके सामने एक लम्बा कार्यक्रम है। मुझे यह दोष दिया जायेगा, जैसा कि लोग राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ को भी देते थे कि फाँसी की काल-कोठरी में पड़े रहने से मेरे विचारों में भी कोई परिवर्तन आ गया है। परन्तु ऐसी बात नहीं है। मेरे विचार अब भी वही हैं। मेरे हृदय में अब भी उतना ही और वैसा ही उत्साह है और वही लक्ष्य है जो जेल के बाहर था। पर मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि हम बम से कोई लाभ प्राप्त नहीं कर सकते। यह बात हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी के इतिहास से बहुत आसानी से मालूम हो जाती है। केवल बम फेंकना न सिर्फ़ व्यर्थ है, अपितु बहुत बार हानिकारक भी है। उसकी आवश्यकता किन्हीं ख़ास अवस्थाओं में ही पड़ा करती है। हमारा मुख्य लक्ष्य मज़दूरों और किसानों का संगठन होना चाहिए। सैनिक विभाग युद्ध-सामग्री को किसी ख़ास मौके के लिये केवल संग्रह करता रहे। यदि हमारे नौजवान इसी प्रकार प्रयत्न करते जायेंगे, तब जाकर एक साल में स्वराज्य तो नहीं, किन्तु भारी कुर्बानी और त्याग की कठिन परीक्षा में से गुज़रने के बाद वे अवश्य ही विजयी होंगे। इंकलाब-ज़िन्दाबाद! (2 फरवरी,1931)

तबाही-बर्बादी के 25 साल

1990 में देश के तत्कालीन प्रधनमंत्राी चंद्रशेखर ने देश का सोना गिरवी रख था। तब उन्होंने पफरमाया था कि ‘देश के विकास के लिए जनता को पेट पर पट्ट्टी बांध्नी होगी।’ यह वह संकेत था, जिस सिलसिले की शुरुआत 1991 में नर्सिंहाराव-मनमोहन सिंह की सरकार ने की, जो आज एक भयावह रूप ले चुका है। आइए इस विकास यात्रा को देखें। जमीन 1980 से तैयैयार हुई निजीकरण, छंटनी, बेरोजगारी, महंगाई व लम्बे संघर्षों के दौरान मिले श्रम कानूनी अधिकारों को किश्तों में छीनने का सिलसिला तो 1980 के दशक से ही शुरू हो गया था, जबसे देश में विदेशी पूँजी की घुसपैठ बढ़नी शुरू हुई है। सार्वजनिक कम्पनियों को खत्म करने के लिए 1981-82 में वित्तीय एवं औद्योगिक पुनर्गठन बोर्ड ;बीएपफआईआरद्ध का गठन और सार्वजनिक क्षेत्रा के 58 उद्योगों ;लगभग साढ़े तीन सौ कारखानोंद्ध को फ्बीमारय् घोषित करने का काम शुरू हुआ। इसी के साथ उद्योगों में 49 फीसदी तक विदेशी पूँजी लगाने का सिलसिला शुरू हुआ। मारुति सुजुकी, हीरोहोण्डा, कावासाकी बजाज, इण्ड सुजुकी, श्री राम होण्डा जनरेटर, बिरला यामहा आदि देशी-विदेशी उद्यम संयुक्त भागेदारी के साथ लगने शुरू हुए। और यहाँ से शुरू हुआ सार्वजनिक कम्पनियों को बेचने, छंटनी-तालाबन्दी, श्रम अध्किारों में कटौती का सिलसिला। हलांकि तब मज़दूर आन्दोलन का दबाव होने के कारण यह गति धीमी थी। 25 साल पहले, 1991 में नर्सिंहा राव व मनमोहन सिंह की जोड़ी ने देश की मेहनतकश जनता के ऊपर एक नया हमला बोला था। उदारीकरण, वैश्वीकरण, निजीकरण का जो सिलसिला शुरू किया उससे ऊपर के 10 पफीसदी अमीरजादों के लिए खुशहाली बढ़ती गयी। अरबपति खरबपति होते गये और मेहनतकश जनताकी बदहाली और बढ़ती गयी। 1991 में नर्सिंहा राव-मनमहोन सिंह की सरकार ने देश को वैश्विक बाजार की शक्तियों के हवाले करते हुए जनता के खून-पसीने से खड़े सार्वजनिक उपक्रम को बेचने के साथ मज़दूर अध्किारों को छीनने का काम तेज किया। गैट समझौते के बाद 1995 में विश्व व्यापार संगठन ;डब्लूटीओ का हिस्सा बनकर देश की आम जनता की गुलामी का एक नया दौर शुरू हुआ। 25 साल पूर्व नयी नीतियों पर भाजपा का विरोध् सबसे तेज था। स्वदेशी और मंदिर-मस्जिद की राजनीति ने भाजपा को केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया। गांव गांव में यह संदेश दिया जाने लगा कि राव सरकार देश को दूसरी गुलामी की ओर ले जा रहे हैं। परिणाम ये हुआ कि 1995 के चुनाव में कांग्रेस की हार हुई और गुजराल व देवेगौड़ा की वामपंथियों से युक्त संयुक्त मोर्चे की सरकारें बनी। ‌बाजपेयी के नेतृत्व में कई दलों को मिलाकर एनडीए की सरकार बनी, लेकिन विरोध् की राजनीति पर चुनाव जीती भाजपा सरकार ने आते ही पिछली सरकार की नीतियों को ही आगे बढ़ाया। करीब 7 साल तक भाजपा नीत एनडीए की सरकार रही और बीमा क्षेत्रा में निजीकरण के साथ उदारीकरण ने गति पकड़ी। बाजपेयी की भाजपा नीत सरकार के दौर में सबसे खतरनाक मज़दूर विरोध्‍ाी द्वितीय श्रम आयोग की रिपोर्ट आई। ‘हायर एण्ड फायर’ उसी की देन है। जहाँ कोई श्रम कानून लागू न हो, ऐसे ‘विशेष आर्थिक क्षेत्रा’ ;सेज परियोजनाओं ने गति पकड़ी। 2005 में मनमोहनी सरकार ने मालिकों के हित में श्रम कानूनों को बदलने की कोशिश की लेकिन व्यापक विरोध में तब वह पारित नहीं हो सका था। लेकिन बैक डोर से मालिकों को खुली छूट दी जाती रही। निजीकरण, छंटनी, बन्दी का सिलसिला आगे बढ़ता रहा। खाद्य पदार्थों को भी वायदा करोबार के नाम पर सट्टा बाजार के हवाले करना शुरू हुआ। मोदेदी और ‘सुधार’ का दूसरा दौर 2014 के चुनाव में मोदी की रणनीति के सामने कांग्रेस धराशायी हो गई। मोदी के सत्तासीन होने के बाद उदारीकरण के दूसरे दौर की शुरुआत हो गयी। मनमोहन सिंह की नीति उनके लिए आज मील का पत्थर है। ‘मेक इन इण्डिया’, डिजिटल इण्डिया’, ‘स्किल इण्डिया’, ‘स्टार्टअप इण्डिया’ जैसे नारों के बीच देशी-विदेशी लूट का सिलसिला गति पकड़ रहा है। कुल मिलाकर मालिक पक्षीय श्रमसुधारों की आंधी पूँजीपतियों की आक्रामकता की पटकथा लिख रही है। यूनियन बनाने में बाधा खड़ा करने, गैरकानूनी ठेकेदारी में सारे कामों को झोंकने, मज़दूरों की मनमानी छंटनी, सुविधाओं में कटौती और बगैर सुरक्षा खतारनाक परिस्थितियों में खटाने का सिलसिला आगे बढ़ता रहा। निजीकरण ने तेज रफ्रतार पकड़ी। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की घुसपैठ और तेज हुई। पेट्रोल, डीजल खुले बाजार के हवाले हो गया। खुदरा बाजार में विदेशी घुसपैठ के लिए एपफडीआई पारित हो गया। दनादन पफैसलों की कड़ी में सार्वजनिक क्षेत्रा की कम्पनियों में विनिवेश ;निजी हाथों में बेंचनेद्ध की मंजूरी शामिल है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाकर विदेशी पूँजी की घुसपैठ और लूट तेज होती गयी। ठेकाकरण, अनौपचारीकरण, सामाजिक-आर्थिक-रोजगार में कटौती का दौर पिछले ढ़ाई दशक से लगातार जारी है और तेज होता जा रहा है। मज़दूरों पर पूँजीपतियों तथा केन्द्र व राज्य सरकारों और उसके सभी अंगों का दमन लगातार बढ़ता जा रहा है। विरोध के हर स्वर को कुचलने के लिए श्‍ाासन-प्रशासन -श्रम विभाग-पुलिस-न्यायपालिका एक टांग पर मालिकों के हित में खड़ी हैं। 25 साल पहले तत्कालीन वित्तमंत्राी मनमोहन सिंह ने कहा था कि सुधरों का यह सिलसिला एक ऐसी धारा है, जिसके प्रवाह को मोड़ा नहीं जा सकता। तबसे अब तक लगभग सभी पार्टियाँ मनमोहन सिंह की इस बात को ही सही साबित करने में जुटी रही हैं। नरेन्द्र मोदी इस सिलसिले के सबसे नये अवतार हैं। मुकुल, संपादक मेहनतकश्‍ा

बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

युग-पलटने में मशरूफ़ लोग कैसे मरते हैं? - दलजीत अमी

रोहित वेमुला के बाद नवकरन की आत्महत्या दुखद है। नवकरन की आत्महत्या एक तरफ़ तो आत्महत्याओं के रुझान की एक कड़ी है पर दूसरी तरफ़ उसकी पहचान के साथ जुड़ कर आत्महत्याओं के जटिल पहलू को उजागर करती है। नवकरन एक कम्युनिस्ट धड़े (रिवोल्यूशनरी कम्युनिस्ट लीग आफ इंडिया या आरसीएलआई) का पूर्णकालिक कार्यकर्ता था। उसकी उम्र 22 साल की थी। रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद पंजाब यूनिवर्सिटी में हुए रोष प्रदर्शन की तस्वीरें फेसबुक पर नवकरन की आ‌खिरी पोस्ट थी। जब रोहित वेमुला के आखिरी खत की चर्चा चल रही है तो इसी दौरान नवकरण ने अपनी जिन्दगी का आखिरी खत लिखा है। रोहित वेमुला की तरह नककरन भी अपने खत में किसी को मुखातिब नहीं और और अन्त में उसने अपना नाम नहीं लिखा। यह खत पढ़ना दर्दनाक है पर यह हमारे समय के युग पलटने निकले नौजवान ने लिखा है इसलिए पढ़ना ज़रूरी है। टुकड़ों में लिखे इस खत की नकल इस तरह है। शायद मैं ऐसा फैसला बहुत पहले ले चुका होता लेकिन जो चीज़ मुझे यह करने से रोक रही थी वह मेरी कायरता थी . . . और वह पल आ गया जिस पल की अटलता के बारे में मुझे शुरू से ही भरोसा था पक्का और दृढ़ भरोसा। लेकिन अपने भीतर दो चीजों को सम्भालते हुए अब मैं थक चुका हूँ। जिन लोगों के साथ मैं चला था मुझमें उन जैसी अच्छाई नहीं शायद इसीलिए मैं उनका साथ नहीं निभा पाया। दोस्तो मुझे माफ कर देना और एक छोटी सी प्यारी सी रूह से भी मैं माफ़ी माँगता हूँ... मुझे माफ कर देना मेरी प्यारी . . . . . मैं भगोड़ा हूँ लेकिन गद्दार नहीं. . .अलविदा. मैं यह फैसला अपनी खुद की कमज़ोरी की वजह से ले रहा हूँ। मेरे लिए अब करने के लिए इससे बेहतर काम नहीं है। हो सके तो मेरे बारे में सोचना तो जरा रियायत से इस खत के शब्दों में बहुत स्पेस है जो पाठक को परेशान करती है। कुछ शब्दों के अर्थ तो उससे रोज़ाना संपर्क में रहने वालों की समझ में आ सकते हैं। खत बताता है कि वह अपने साथियों जैसी ‘अच्छाई’ न होने के कारण उनसे ‘निभा नहीं पाया’ और ‘थक’ जाने के कारण इस फैसले को टालता रहा पर आखिर वह ‘अटल’ पल आ गया, जब उसने अपनी ‘कायरता और कमज़ोरी’ की जगह मौत को तवज्जो दी। खत के शब्दों के बीच में स्पेस के अलावा इस में नवकरन के व्यक्तित्व का एक पहलू बहुत साफ़ झलकता है। वह बहुत संभल-संभल के लिख रहा है। एक सवाल तो सपष्ट ही उठता है कि वह जिस माहौल में जी रहा है, उसमें उसको ‘भगोड़ा’ और ‘गद्दार’ शब्दों का इस्तेमाल कैसे होता है? रोहित वेमुला के खत पर बहुत चर्चा हो रही है। नवकरन का खत रोहित वेमुला के ही खत की एक और रीडिंग से पर्दा उठाता है। दरअसल इन दोनों खतों की सांझी तार इन दोनों का सक्रिय कार्यकर्ता होना है। रोहित ‘अपने अम्बेडकर स्टूडेंट एसोसिएसन के परिवार को निराश करने के लिए माफी मांगता’ है और नवकरन अपने साथियों से मौत के बाद ‘ज़रा रियायत से सोचने’ की मांग करता है। रोहित लिखता है “लोग मुझे डरपोक करार दे सकते हैं। मेरे जाने के बाद मुझे खुदगर्ज़ या मूर्ख करार दिया जा सकता है। मैंने इस बात की परवाह नहीं की कि कोई बाद में मुझे क्या कहेगा”। नवकरन लिखता है “मैं भगोड़ा हूं गद्दार नहीं”। रोहित अपनी हालत बयां करता है “मैं दुखी नहीं हूं। मैं उदास नहीं हूं। मैं खाली हूं। बिलकुल खाली अपने-आप से बेख़बर। यहीं दुःख है। इसी वजह से मैं विदा होता हूं”। नवकरन इसी राइट अप का अगला वाक्य लिखता मालूम पड़ता है, “मैं ऐसा फैसला बहुत पहले ले चुका होता लेकिन जो चीज़ मुझे यह करने से रोक रही थी वह मेरी कायरता थी . . . और वह पल आ गया जिस पल की अटलता के बारे में मुझे शुरू से ही भरोसा था पक्का और दृढ़ भरोसा”। इन दोनों खतों को एक ही दौर के सक्रिय कार्यकर्ताओं ने लिखा है। दोनों अंतिम समय तक अपने संगठनों के सक्रिय कार्यकर्ता थे। दोनों युग बदलने में मशरूफ़ थे। युग पलटने से बेहतर सपना या जीने का कारण और क्या हो सकता है? युग पलटने का सपना प्यार से लबरेज़ व्यक्तियों को ही आता है। उनमें से ज्यादा हिम्मत वाले पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनते हैं। यह बात तो व्यवस्था विरुद्ध चलने वाले, युग पलटने वाले सारे आंदोलनों के बाबत मानी जाती है कि पूर्णकालिक कार्यकर्ता समाज की मलाई होते हैं। यह सवाल अपनी जगह है कि इस धारणा को पेश करने की राजनीति क्या है? जब कोई संगठन या कोई आंदोलन युग पलटने या व्यवस्था परिवर्तन का दावा करता है तो उसकी एक सीमा होती है। उस संगठन या आंदोलन को भले ही समूची व्यवस्था को बदलने में कामयाबी न मिले, पर उसका सिक्का कहीं तो चलता है। पूर्णकालिक कार्यकर्ता पर तो उनका सिक्का चलता है। अगर पूर्णकालिक कार्यकर्ता पर मौजूदा व्यवस्था का असर मायने रखता है, तो संगठनों की हुकूमत भी मायने रखती है। नए समाज के सृजन का सपना एक सोच के व्यक्तियों के आपसी व्यवहार में से नक्श निखारता है। यह सवाल मायने रखता है कि युग पलटने का सपना मौजूदा व्यवस्था के पतन के शिकार हुए इंसान का इलाज कैसे करता है? युग पलटने की हामी भरने वाले संगठनों और आंदोलनों की यह खांटी दलील है कि इंसान को ज़लालत के रास्ते पर चलने की बजाए बगावत के रास्ते पर चलना चाहिए। पिछले सालों में यह दलील लगातार दी गयी है कि बदहाली के कारण आत्महत्याओं की बजाय लोगों को लामबंद होना चाहिए, संगठित होना चाहिए और संघर्ष करना चाहिए। लामबंदी इंसान को संवेदना से सौन्दर्य के रास्ते पर ले जाती है। यह इंसान को अहसास करवाती है कि उसकी दुश्‍वारियों का कारण व्यक्तिगत नाकामयाबियों या माथे पर लिखी तकदीर नहीं बल्कि व्यवस्था है। यह सोच इंसान की इंसान के साथ सांझ पैदा करती है। व्यक्ति को प्यार से लबरेज़ करती है और सयुक्त प्रयासों को अहमियत देती है। यह मनुष्य को सामाजिक दुश्‍वारियों को शर्म, सलीके या पर्दे में ढक के रखने की जगह उसको एक सामाजिक जीव की तरह व्यवहार करने की सूझ देती है। यह सवाल अपनी जगह पर अहम है कि इन वादों/दावों और कारगुज़ारियों में कितना फासला है? रोहित और नवकरण की आत्महत्याएं इन दावों के निरीक्षण की मांग करती है। अगर रोहित धरने से जाकर आत्महत्या करता है तो यह सवाल तो उसके साथियों के दिलो-दिमाग में आना चाहिए कि व्यवस्था के शून्य किये गये में ‘युग पलटने का सपना’ ज़रूरी गर्मी भरने में नाकामयाब क्यों रहा? युग पलटने के लिए मशरूफ़ संगठन ‘खाली हो कर चल दिये साथी’ के शोक में अपनी नाकामयाबी को क्यों नहीं पहचानते? अगर व्यवस्था ‘युग पलटने के सपने लेने वालो व्यक्तियों’ का दम घोंटने पर उतारू है, तो ‘युग पलटने में मशरूफ़ लोग’ अपने साथियों के दिलों की धड़कन सुनने के समय मशीनें क्यों बन जाते हैं। मौजूदा व्यवस्था की दलील रहती है कि इन आत्महत्याओं के कारण निज़ी हैं। व्यवस्था खुद-ब-खुद हत्यारे को परिधि में से निकालने का यत्न इसी दलील के सहारे करती है। दूसरी तरफ़ ‘युग पलटने का दावा/वादा करने वाले संगठनों और लोग’ हर सवाल को गद्दारी और कुत्सा प्रचार या प्रतिक्रांतिकारी करार देते हैं। इसी के परिणामस्वरूप जब ‘युग पलटने में मशरूफ़ लोगों’ का मोहभंग होता है तो वह ‘युग पलटने के हर यत्न’ से मुंह फेर लेते हैं। वह अपने अनुभवों के हवाले से इन यत्नों के बेमायने होने के प्रचारक तक बन जाते हैं। अगर रोहित बाबत सवाल पूछने पर मौजूदा व्यवस्था देशद्रोही या नक्सलवादी या हिंदू विरोधी करार देती है, तो सवाल वाज़िब है। अगर रोहित और नवकरन बाबत पुछे गए सवालों को ‘युग पलटने में मशरूफ़ लोग कुत्सा प्रचार या गद्दारी करार देते हैं तो यह सवाल बार-बार पूछे जाने बनते हैं। अगर ‘युग पलटने में मशरूफ़ लोग’ बुखार से नहीं मरते तो निरीक्षण से भी नहीं मरने लगे। संघर्षत रहे रोहित वेमुला को अपने साथियों को अपने साथियों के संग अपना जीवन क्यों खाली लगता था/है? नवकरन को आत्महत्या के मामले में पक्का और दृड़ भरोसा क्यों था/है? (दलजीत अमी डाट काम से अनुवादित) सबंधित लिंक-http://daljitami.com/2016/02/09/suicide-by-a-communist-whole-timer-daljit-ami/