रविवार, 26 मई 2013

त्रासदी की आउटसोर्सिंग बनाम सौ साल पुराना पूँजीवाद

संदीप राउजी
                24 नवम्बर 2012 को जब बांग्लादेश की राजधानी ढाका के बाहरी इलाके में ताजरीन फैशंस की फैक्टरी में आग लगी और 112 मजदूर बेमौत मारे गए तो उस समय इसे बांग्लादेश के कपड़ा उद्योग के इतिहास की सबसे भीषण दुर्घटना कहा गया। महज छह महीने के भीतर 24 अप्रैल 2013 को इससे भी भीषण दुर्घटना घटी, जिसे बांग्लादेश के ही नहीं बल्कि दुनिया के वस्त्र उद्योग के इतिहास की सबसे भयावह दुर्घटना कहा जा रहा है। ढाका के बाहरी क्षेत्र साभर में एक आठ मंजिली इमारत भरभराकर ढह गई और उसमें सैंकड़ों कपड़ा मजदूर दब गए। अबतक 1,115 शव बरामद होने की पुष्टि हो चुकी है और 2500 लोगों को बचा लिया गया है। यह संख्या 13 मई को बचाव कार्य की समाप्ति के औपचारिक घोषणा के समय की है, जबकि अभी भी बड़ी संख्या में लोग लापता बताये जा रहे हैं। इमारत की पांच फैक्टरियों में लगभग 4000 मजदूर कार्यरत थे। इससे एक दिन पहले इमारत में दरार का पता चल चुका था और इसे खाली कर देने का आदेश दिया जा चुका था। पहली मंजिल में स्थित दुकानों और एक निजी बैंक ने ऐसा कर भी दिया था और बांग्लादेश गारमेण्ट मैनुफक्चरर्स एसोशियेशन ने इमारत के पांचों फैक्टरी मालिकों से इन्हें बन्द कर देने का सुझाव दिया था। मजदूरों से भी चले जाने को कहा गया था लेकिन 24 अप्रैल को मालिकों द्वारा उन्हें पगार काट लेने और नौकरी से निकालने के धमकी देकर वापस बुला लिया गया। घटना को दो हफ्ते से ज्यादा होने को हैं और अभी मलबे से आखिरी शव निकाला जाना बाकी है, इसी बीच बृहस्पतिवार को ढाका के ही उत्तरी इलाके में एक स्वेटर फैक्टरी तुंग हाई  में आग के कारण आठ लोग मारे गए। मरने वालों में फैक्टरी का मालिक एवं बांग्लादेश गारमेंट मैन्युफैक्चरर्स एण्ड एक्सपोर्टर एसोसिएशन के निदेशक मंडल का सदस्य, एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी और  सत्ताधारी पार्टी का एक युवा नेता शामिल हैं।
            24 अप्रैल की घटना पर बांग्लादेश के सूचना मंत्री हसनउल हक की तत्कालीन प्रतिक्रिया थी, “मैं इसे दुर्घटना नहीं कहूंगा, यह कत्लेआम है। लेकिन हक साहब इस कत्लेआम के लिए जिसे जिम्मेदार ठहराने की कोशिश कर रहे हैं असल में वे प्यादे से ज्यादा कुछ नहीं हैं यानी बिल्डर, फैक्टरी मालिक, नगरपालिका अभियंता आदि। जो वह नहीं बताना चाह रहे हैं, वह है, इस त्रासदी के असली जिम्मेदार पश्चिमी वस्त्र विक्रेता कम्पनियों की कारगुजारियां। इसीलिए इस बात पर ताज्जुब नहीं है कि इस त्रासद घटना के बाद अमेरिका और यूरोप में उपभोक्ताओं के एक वर्ग ने उन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया, जिनके कपड़े इन फैक्टरियों में बन रहे थे। काम की भयावह परिस्थितियों के कारण तीसरी दुनिया में बनने वाले कपड़ों के बहिष्कार की पश्चिमी देशों में पहले से ही आवाज उठ रही है। ध्यान देने वाली बात यह है कि उपरोक्त घटनाओं की शिकार कम्पनियों में बने कपड़े यूरोप और अमेरिका के सुपर मार्केटों और उनकी शृंखलाओं में मशहूर ब्राण्ड नामों से बिकते हैं। हालिया घटना में अमेरिकी खुदरा कम्पनियां चिल्ड्रेन्स प्लेस एवं ड्रेस बार्न, ब्रिटेन की प्राइमार्क, स्पेन की मांगो, इटली की बेनेटन, वालमार्ट और लोबलॉ  आदि के ब्रांड नाम से पांचों फैक्टरियों में वस्त्र तैयार किये जा रहे थे। कहना न होगा कि टके के भाव से बने कपड़ों को ऊँचे मुनाफे में बेचने की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की हवस, दुनिया के इस कोने में एक ऐसे पूजीवाद को अस्तित्वमान रखने में एक बड़ा कारक बन कर उभरा है, जो उन देशों में सौ साल पहले विद्यमान था। इसी के चलते बांग्लादेश के मजदूर आज दुनिया में सबसे कम वेतन पर और सबसे बुरी कार्य परिस्थितियों में काम करने को मजबूर हैं।
            इस दुर्घटना ने और ऐसी तमाम दुर्घटनाओं ने, जो निश्चित तौर पर मानव-निर्मित है, एक बार फिर इस बात को सामने ला दिया है कि गारमेण्ट एक्सपोर्ट के क्षेत्र में किन अमानवीय परिस्थितियों में काम होता है और विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और उनके स्थानीय एजेण्टों के मुनाफे की अन्धी दौड़ के सामने मजदूरों के जान की कीमत कितनी कम है। यह बात सिर्फ बांग्लादेश के लिए ही सही नहीं है बल्कि भारत और तीसरी दुनिया के अन्य गरीब मुल्कों के बारे में भी सही है जहाँ गारमेण्ट एक्सपोर्ट उद्योग पश्चिमी देशों के उपभोक्ताओं के लिए प्रमुख आपूर्तिकर्ता बना हुआ है।
            बांग्लादेश में कपड़ा उद्योग के मजदूरों की त्रासदियों की यह शृंखला, असल में, वैश्विक खुदरा उद्योग की सस्ते से सस्ता उत्पादन हासिल करने की चाहत का नतीजा है। इसके अलावा अपने यहां मांग के आधार पर यूरोप और अमेरिका तीसरी दुनिया में वस्त्र निर्माण का कोटा निर्धारित करते रहे हैं। निर्माण क्षेत्र में अग्रणी होने के बावजूद चीन और भारत को बांग्लादेश से कम कोटा जारी होता रहा है। यही कारण है कि बांग्लादेश में 1970 से पहले जो वस्त्र उद्योग परिदृश्य में ही नहीं था उसका व्यापार, वाणिज्य मंत्रालय के अनुसार, आज 15.6 अरब डॉलर तक पहुंच चुका है और देश के कुल निर्यात में इसकी हिस्सेदारी 80 फीसदी हो गई है। बांग्लादेश के वस्त्र निर्यात का 60 फीसदी यूरोप को, 23 फीसदी अमेरिका को आर 5 फीसदी कनाडा को जाता है। देश में मौजूद 5000 फैक्टरियों में करीब 35 लाख बांग्लादेशी मजदूर लगे हुए हैं जिनका बहुलांश महिलाएं हैं, जो सिर्फ जीवन-यापन भर की दिहाड़ी पर काम करती हैं।
            भारत की कहानी भी बांग्लादेश से कुछ इतर नहीं है। भारत के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (गुडगाँव व नोएडा), पश्चिमी तमिलनाडु का तिरुपुर और कर्नाटक का बेंगलुरु देश के कुल वस्त्र निर्यात में 60 फीसदी तक योगदान करते हैं। केंद्रीय कपड़ा मंत्रालय की एक रपट के मुताबिक भारत के कपड़ा उद्योग का आकार 55 अरब डॉलर है। विश्व व्यापर संगठन के अनुसार भारत दुनिया के तीसरे नंबर का कपड़ा निर्यातक देश है और रेडीमेड वस्त्र निर्यात के मामले में छठे पायदान पर आता है (बांग्लादेश चौथे पायदान पर)। यहां भी गारमेंट मजदूरों की स्थिति दयनीय है। इस उद्योग में लगी अधिकांश श्रम शक्ति असंगठित है। घोषित-अघोषित तौर पर विशेष औद्योगिक क्षेत्र के दर्जा होने के चलते इन इलाकों में उनके पास न कोई संगठन है न ही श्रम कानूनों का वजूद। आम तौर पर काम के घण्टे 12 हो चले हैं और मजदूरी में मोलभाव का अधिकार बीते जमाने की बात हो गई है। प्रशासन और फैक्टरी मालिकों की मिली भगत से अघोषित तौर पर यूनियन बनाने, चलाने पर पाबंदी लग चुकी है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की गारमेण्ट एक्सपोर्ट की सैकड़ों छोटी बड़ी इकाइयों में काम की जिन परिस्थितियों से हम वाकिफ हैं वे बांग्लादेश की इस ध्वस्त इमारत से निकल कर आ रही हृदय विदारक कहानियों से कुछ अलग नहीं हैं।
            वॉलमार्ट  जैसी कम्पनियों का गंतव्य बांग्लादेश जैसे छोटे और गरीब मुल्क, जहां सुरक्षा के नियम और आधारभूत संरचनाएं तक ढंग की नहीं हैं, कैसे बने यह 19वीं शताब्दी के निर्मम पूँजीवादी तौर तरीकों से अर्जित व्यवसाय कौशल को वर्तमान में तीसरी दुनिया के मुल्कों में लागू करने की एक षणयंत्रकारी कहानी है।
            25 मार्च 1911 को अमेरिका के ट्रायंगल शर्टवेस्ट फैक्टरी में हुए एक अग्निकाण्ड में 146 मजदूर मारे गये थे। कम्पनी ने निकलने के रास्तों और सीढिय़ों को बन्द कर रखा था जिससे कि मजदूर काम छोड़ कर बाहर न निकल सकें। जब आग लगी तो मजदूर उसमें फँस गए और निकलने का एक मात्र रास्ता दसवीं मंजिल से मौत की छलांग लगाना था। इस घटना के लगभग सौ साल बाद 24 नवंबर 2012 को बांग्लादेश में इसी तरह की आगजनी की घटना हूबहू उसी अंदाज में दोबारा घटित हुई। इस फैक्टरी में भी वालमार्ट के एक ब्रांड के लिए वस्त्र तैयार हो रहा था। इस घटना के बाद वालमार्ट के निदेशक मण्डल में एक प्रस्ताव लाया गया जिसमें आपूर्तिकर्ताओं को सुरक्षा संबंधी मामलों पर वार्षिक रपट देने को बाध्य किया जाना था। लेकिन यह प्रस्ताव गिर गया, जिसमें सिर्फ एक मत प्रस्ताव के पक्ष में पड़ा था। इस प्रस्ताव के खिलाफ खड़े होने का कारण बताते हुए प्रबंधन ने दावा किया कि आपूर्तिकर्ताओं से इस तरह की वार्षिक रपट देने को बाध्य करने का मतलब अंतत: उत्पादन लागत में बढ़ोतरी का होना है। इससे न केवल इसके उपभोक्ताओं पर भार पड़ेगा बल्कि इसका असर कम्पनी के शेयरधारकों पर भी होगा और बाकी कम्पनियों से होड़ में इसे नुकसान पहुंचेगा। शायद ऐसे तर्कों के आधार पर ही यूरोप की एक अग्रणी फैक्टरी नियामक समूह बिजिनेस सोशल कम्लायंस ग्रुप के द्वारा राणा प्लाजा में चल रही फैक्टरियों को सुरक्षा मानकों की जांच में क्लीन चिट दे दी गई थी। तुंग हाई  को भी इमारत के सुरक्षा मानकों से हरी झण्डी मिली हुई थी। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की इन्हीं कारगुजारियों ने पिछले सात वर्षों में बांग्लादेश की गारमेंट फैक्टरियों में आगजनी के कारण 700 (यदि ताजा जनहानि को शामिल किया जाए तो यह संख्या 1200 के पार पहुंचेगी) से अधिक मजदूरों को जिंदा जलकर मर जाने दिया। जाहिर है दुनिया के एक कोने में सस्ती जिंदगियों का मोल बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए उनके जींस या टीशर्ट पर कुछ टका ज्यादा खर्च करने से भी ज्यादा सस्ता है।
            यह खेल बांग्लादेश में इतना आम हो चुका है कि इसमें षणयंत्र की तस्दीक, सामने आने वाली हर नई त्रासदी करती है। ताजा घटना में बिल्डर सोहेल राणा ने आठ मंजिल की राणा प्लाजा नामक इमारत खींच दी थी, जबकि इजाजत सिर्फ पांच माले तक की ही थी। मई 2010 में खुली ताजरीन फैशंस के मामले में भी ऐसा ही कुछ था। ठेका मिलते ही कम्पनी ने 1,500 मजदूरों को काम पर रखा, बिना सुरक्षा के उपाय और कार्य की परिस्थितियों के बारे में सोचे। जबतक सुरक्षा आदि की फिक्र आती तबतक दो साल के अंदर उसका व्यापार सालाना साढ़े तीन करोड़ डॉलर के पार हो चुका था। तुंग हाई ग्रुप  की ही दो फैक्टरियों में 7,000 मजदूर काम करते हैं और हर महीने 60 लाख स्वेटर, टीशर्ट, पैंट, पायजामा बनाते हैं। यानी एक मजदूर एक दिन में औसतन 28 वस्त्रों को बनाता है। इस हिसाब से एक मजदूर एक वस्त्र 20 मिनट में तैयार करता है। उत्पादन की इतनी अमानवीय परिस्थिति ने मजदूरों का जीवन नारकीय बना डाला है। पश्चिमी देशों से भारी मांग के चलते यहां एक ऐसी अंधी दौड़ चल रही है जहां रातों रात कोई कम्पनी खड़ी कर दी जाती है, चंद दिनों में इमारत बन जाती है, मजदूर रख लिए जाते हैं, शिपमेंट की तारीख तय कर जाती है और समय पर आपूर्ति करने के लिए रातों दिन मजदूरों को खटाया जाता है। जबतक कोई दुर्घटना घहराती है तबतक एजेंट पैसा बना चुकते हैं, बहुराष्ट्रीय कम्पनियां मुनाफा निचोड़ चुकती हैं और स्थानीय प्रशासन के मत्थे ठीकरा फोडक़र यह खेल फिर नए सिरे से शुरू हो जाता है।
            हाल के दिनों में बांग्लादेशी वस्त्र उद्योग के मजदूर न्यूनतम वेतन में वृद्धि और कार्य परिस्थितियों में बेहतरी की मांग कर रहे हैं और इसकी वजह से मजदूरों, फैक्टरी मालिकों और सरकार के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है। इन्हें सरकार द्वारा निर्धारित न्यूतन वेतन 37 डॉलर प्रति माह या इससे कुछ ही ज्यादा मिलता है। इसीलिए यहां हर एक दुर्घटना के बाद मजदूरों का गुस्सा फूट पड़ता है और हिंसक प्रदर्शन में तब्दील होता रहता है। 26 अप्रैल को अमेरिका के मजदूर समूहों ने राणा प्लाजा के मलबे से पाए गए स्पैनिश खुदरा कम्पनी के जे.सी. पेन्नी और एल कोर्टे इंग्लिश ब्रांडों के लेबल लगे वस्त्रों की तस्वीरों को दिखाते हुए अमेरिकी खुदरा कम्पनियों पर सुरक्षा मानक में सुधार करने की मांग की। इसके एक दिन पहले सैकड़ों मजदूरों ने सैन फ्रांसिस्को स्थित गैप के मुख्यालय और रेंटन में स्थित वालमार्ट स्टोर के सामने प्रदर्शन किया। अमेरिका और यूरोप के मजदूर समूहों एवं मनवाधिकार संगठनों ने मांग की है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को 60 करोड़ डॉलर का एक कोष बनाना चाहिए जो बांग्लादेश में फैक्टरी सुरक्षा उपायों पर पांच वर्ष के समयांतराल में खर्च हो। इसके लिए उन्होंने सुझाव दिया है कि प्रतिवर्ष निर्यात होने वाले छ अरब वस्त्रों पर कम्पनियों द्वारा प्रति वस्त्र 10 सेंट अतिरिक्त अदा कर ऐसे कोष की स्थापना की जा सकती है। हालांकि इन कम्पनियों को यह भी मंजूर नहीं है। लेकिन क्या यह समस्या का असली समाधान है, जबकि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के येन केन प्रकारेण पैसा बनाने को नैतिक और वैध बना दिया गया हो?
            19वीं शताब्दी में अधिशेष की उगाही और पूँजी संचय की धुरी पूर्वी यूरोप के अप्रवासी और यहूदी मजदूर और औपनिवेशिक देशों के अप्रवासी मजदूर थे। 20वीं शताब्दी के मध्य तक दुनिया तस्वीर बदली, पश्चिमी पूँजीवादी देशों में नियम कानून सख्त बन चुके थे और तीसरी दुनिया के तमाम देश आजाद हो गए थे। फलस्वरूप अधिकाधिक पूँजी संचय का एकमात्र तरीका गरीब मुल्क के सस्ते मजदूरों के श्रम की लूट बन गया। एशिया नया ठाँव बन गया। भूमंडलीकरण के बाद तो पूँजी सस्ते श्रम की खोज में इस ग्रह के एक कोने से दूसरे कोने तक जाने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हो गई। बांग्लादेश इसी खोज का नतीजा है। और यह मुमकिन है कि पूँजी का अगला पड़ाव अफ्रीका के युद्ध से बेहाल गरीब मुल्क हों, जहां अभी प्राकृतिक संसाधनों की बड़े पैमाने पर लूट चल रही है। जब ये देश बर्बाद हो जाएंगे, लोग दाने दाने को मोहताज हो जाएंगे, तारणहार बहुराष्ट्रीय कम्पनियां उनके श्रम को निचोडऩे पहुंच जाएंगी और 'कत्लेआम' का यह सिलसिला आगे बढ़ जाएगा।

बुधवार, 22 मई 2013

मारुति के मज़दूरों का दमन हुआ तेज, 111 गिरफ्तार दमन के बावजूद संघर्ष तेज करने का ऐलान

                         मारुति के मज़दूरों का दमन हुआ तेज, 111 गिरफ्तार18-19 मई को हरियाणा के कैंथल जिले में मज़दूरों पर पुलिसिया ताण्डव का जो खेल रचा गया, उसने राज्य सरकार के मज़दूर विरोधी चेहरे को और बेनकाब कर दिया है। मारुति-सुजुकी के संघर्षरत मज़दूरों, उनके परिजनो और समर्थकों के भारी दमन के साथ पुलिस ने 111 लोगों पर संगीन धाराएं थोप दीं। इसके विरोध में दिल्ली सहित देश के विभिन्न हिस्सों में विरोध का सिलसिला तेज होने लगा है। मानवाधिकार संगठन पीयूडीआर की टीम ने मौके का मुआइना करके राज्य सरकार से दमन बन्द करने, गिरफ्तार लोगों की तत्काल रिहाई और पूरी घटना की उच्च स्तरीय जांच, बर्खास्त मज़दूरों की बहाली व 10 माह से जेल में बन्द मज़दूरों की जमानत का विरोध न करने की माँग की है।
उल्लेखनीय है कि विगत दस महीने से न्याय के लिए संघर्षरत मारुति-सुजुकी के मज़दूर आन्दोलन की राह पर हैं। पिछले वर्ष 18 जुलाई को एक सुनीयोजित घटना के बहाने यूनियन बनने से बौखलाए मारुति प्रबन्धन ने 546 स्थाई सहित लगभग दो हजार मज़दूरों को बर्खास्त कर दिया था और 147 मज़दूरों को संगीन धाराओं में जेल में ठूंस दिया। 66 अन्य मज़दूरों पर भी गैर जमानती वारण्ट जारी है। तब से मारुति के मज़दूर संघर्ष की राह पर हैं। और सरकार आन्दोलन को कुचलने के हर प्रयास में लगी है।
आन्दोलन के इसी क्रम में मारुति मज़दूर 24 मार्च से कैंथल जिला मुख्यालय पर भूख हड़ताल सहित शांतिपूर्ण धरना चला रहे थे। कोई हल न निकालता देख मज़दूरों ने 19 मई को राज्य के उद्योग मंत्री राजदीप सिंह सूरजवाले के आवास पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन की घोषणा की थी। इससे सरकार की बौखलाहट और बढ़ गयी और उसने 19 मई को पूर्व घोषित रैली को रोकने के लिए पूरे कैथल शहर में 18 मई की शाम 5.30 से धारा 144 व कफर््यू लगाकर पूरे शहर की बैरीकेटिंग कर दी और इलाके में भारी पुलिस बल तैनात कर दिया।
फिर शुरू हुआ दमन का एक और दौर। 18 मई की अर्धरात्रि में धरनारत 96 मज़दूरों और समर्थकों को पुलिस उठा ले गई। सुबह चार और मज़दूरों को उठा लिया। इन सभी 100 मज़दूरों और समर्थकों पर धारा 188, 341, 506 व 511 थोप कर प्रशासन ने जेल भेज दिया। गिरफ्तार लोगों में मारुति मज़दूरों के अलावा सहयोग में गये मज़दूर कार्यकर्ता जेएनयू के शोध छात्र और क्रान्तिकारी नौजवान सभा के अमित और इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र के श्यामवीर व यूनियन कमेटी के योगेश भी शामिल हैं।
19 मई को रैली रोकने के तमाम प्रयास विफल करते हुए जब औरतों, बच्चों, बुजुर्गों सहित लगभग डेढ़ हजार का कारवां आगे बढ़ा तो पुलिस उनपर हमलावर हो गयी। औरतों बच्चों बूढ़ों तक पर पानी के बौछार, आंसू गैस के गोले, लाठियों और गोलियों के साथ खाकी वर्दीधारी टूट पड़े। इस पुलिसिया हमले से 100 से ज्यादा लोग गम्भीर रूप से घायल हो गये।
यह सिलसिला यहीं नहीं रुका। हरियाणा पुलिस ने यूनियन के एक प्रमुख साथी राम निवास, यूनियन सलाहकार व हिन्दुस्तान मोटर्स संग्रामी श्रमिक कर्मचारी यूनियन कोलकता के दीपक बक्शी, मज़दूर अखबार श्रमिक शक्ति के संवाददाता सोमनाथ, हिसार के एक पंचायत नेता सुरेश कोथ सहित 11 लोगों को गिरफ्तार करके उनपर आईपीसी की धारा 148, 149, 188, 283, 332, 353, 186, 341 के साथ हत्या के प्रयास (307), आर्म्स ऐक्ट (25), सार्वजनिक सम्पत्ति की क्षति (पीडीपीपी ऐक्ट-3) जैसी गम्भीर व गैर जमानती धाराएं थोप दी हैं।
इस सरकारी तानाशाही के विरोध में राजधानी दिल्ली में 19 मई से ही हरियाणा भवन पर विरोध प्रदर्शनो का सिलसिला जारी है। दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षकों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, छात्रों और तमाम संगठनों ने रोष प्रकट किया है। मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा से दिल्ली में उनके बेटे के निवास पर कुछ संगठनों ने मुलाकात कर विरोध जताया और न्याय की मांग की। देश के अन्य हिस्सों से भी विरोध प्रदर्शनों की खबरें मिल रही हैं। उत्तराखण्ड के रुद्रपुर में विभिन्न यूनियनों-संगठनों ने जिलाधिकारी के माध्यम से हरियाणा सरकार को ज्ञापन भेजा है। इस बीच मारुति-सुजुकी वर्कर्स यूनियन की प्रोविजनल कमेटी ने ऐलान किया है कि जबतक न्याय नहीं मिलता, उनका संघर्ष जारी रहेगा। कोई भी सरकारी दमन उनके हौसले पस्त नहीं कर सकती।

सोमवार, 20 मई 2013

राष्ट्रपिता का वह जुझारू संपादक

के रामाराव
                         कृष्ण प्रताप सिंह
 नौ नवम्बर, 1896 को आंध्र प्रदेश के चीराला में जन्मे और नौ मार्च, 1961 को बिहार के पटना में अंतिम सांस लेने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के उस ‘जुझारू संपादक’ की अब किसी को भी याद नहीं आती! उनकी जयंती और पुण्यतिथि पर भी नहीं! इस तथ्य के बावजूद कि उन्होंने दो दर्जन से ज्यादा लब्धप्रतिष्ठ दैनिक और साढ़े चार दशकों में फैले अपने लंबे पत्रकारीय जीवन में जैसे उच्च नैतिक मानदंडों की स्थापना की, उनकी स्मृतियां साख के गंभीर संकट के सामने खड़ी भारतीय पत्रकारिता को दिशा दे सकती हैं।
हर समय रहता था जेब में इस्तीफा
पत्रकारीय आग्रहों, सिद्धांतों व नैतिकताओं को बचाए रखने के लिए इस्तीफा जेब में लिए घूमने वाले इस मनीषी संपादक का नाम था-के रामाराव। इन्होंने 1919 में मद्रास विश्वविद्यालय की प्रवक्ता की नौकरी छोड़कर पत्रकारिता का वरण किया और कराची के दैनिक ‘सिंध आब्जर्वर’ में सह-संपादक बनते ही उसकी कीमत चुकानी शुरू कर दी, जबकि उनके बड़े भाई के. पुन्नैया उसके संपादक थे। मालिकों ने शिकायत की कि प्रिंस आॅफ वेल्स के भारत दौरे का जो वृत्तांत रामाराव ने लिखा है, वह बेहद शुष्क है। रामाराव का उत्तर था, ‘है क्योंकि शाही रक्त देखकर मैं प्रफुल्लित होकर काव्य रचना नहीं कर सकता!’ इस उत्तर के बाद तो उन्हें नौकरी से जाना ही था।
संपादक-दर-संपादक
प्रख्यात संपादक सी. वाई. चिंतामणि के निमंत्रण पर रामाराव इलाहाबाद के दैनिक ‘लीडर’ में आए तो भी चिंतामणि का ‘बौद्धिक-आधिपत्य’ स्वीकार नहीं कर सके। तब ‘पायनियर’ में यूरोपीय संपादक एफ डब्ल्यू विल्सन से ही कैसे निभा पाते?    मुंबई के ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ में गए, तो उसकी रीति-नीति से भी तालमेल नहीं बैठा पाए। अंगे्रज संपादक को  इस्तीफा देते समय उसने कारण पूछा तो उत्तर प्रश्न में दिया-‘क्या कोई भारतीय कभी ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ का संपादक हो सकता है?’ फिर तो बारी-बारी से ‘एडवोकेट आॅफ इंडिया’, ‘बॉम्बे क्रानिकल’ और ‘इंडियन डेली मेल’ दैनिकों में काम करने और कहीं भी टिक न पाने के बाद वे मुंम्बई में ही ‘फ्री प्रेस जर्नल’ के संपादक नियुक्त हुए। आगे चलकर उन्होंने कुछ दिनों तक कोलकाता से निकलने वाले दैनिक ‘फ्री इंडिया’ का संपादन किया। वहीं के ‘ईस्टर्न एक्सप्रेस’ में कुछ और दिन गुजारने के बाद वे दिल्ली लौट आए और 1937 में ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में समाचार संपादक बने।
जब एक संपादक के समर्थन में उमड़ पड़ी जनता
मद्रास, कराची, मुंबई और दिल्ली की इस भागमभाग में मुंबई के ‘डॉन’ और मद्रास के ‘स्वराज्य’ से भी उनका जुड़ाव हुआ। लेकिन, उनके संपादकीय जीवन में सबसे बड़ा मोड़ 1938 में आया, जब वे पंडित जवाहरलाल नेहरू के कहने पर उत्तर प्रदेश आए और लखनऊ से प्रकाशित राष्ट्रवादियों के प्रमुख पत्र ‘नेशनल हेराल्ड’ के संस्थापक-संपादक का पदभार संभाला। यही वह पत्र था, जिसमें वे सबसे लंबी अवधि तक, कुल मिलाकर आठ वर्ष रहे। इस दौरान उन्होंने ‘नेशनल हेराल्ड’ को न सिर्फ अंगे्रज गवर्नर सर मारिस हैलेट, बल्कि समूची ब्रिटिश सत्ता का सिरदर्द बनाए रखा। लखनऊ में बंद व्यक्तिगत सत्याग्रहियों पर अत्याचारों के विरुद्ध ऐतिहासिक संपादकीय ‘जेल या जंगल’ लिखा तो अंगे्रज जेलर सी.एम. लेडली की कथित मानहानि करने के आरोप में अगस्त, 1942 में उन्हें छ: महीने की सजा हुई। 15 अगस्त, 1942 को ‘वंदेमातरम’ शीर्षक से उन्होंने हेराल्ड का अपना आखिरी संपादकीय लिखा तो अंगे्रजों को वह भी सहन नहीं हुआ। गवर्नर हैलेट ने हेराल्ड पर छ: हजार रुपयों का जुर्माना ठोंक कर रामाराव को जेल में डाल दिया। महात्मा गांधी ने इस कार्रवाई को ‘ट्रेजेडी फॉर नेशनल मूवमेंट’ कहा और उत्तर प्रदेश की जनता अपने प्यारे संपादक के समर्थन में उमड़ पड़ी। वह उसको जेल जाने से तो नहीं रोक पाई, लेकिन हेराल्ड के लिए इतना धन इकट्ठा कर दिया कि उसके जुर्माने को आठ बार चुकाया जा सके।
‘मैं एक सैनिक हूं...’
हेराल्ड बंद होने के बाद ‘पायनियर’ के अंगे्रज संपादक ने उनसे पूछा कि अब उनकी पत्नी और आठ बच्चों का गुजर-बसर कैसे होगा? खासकर इसलिए कि उनके पास न कोई बड़ी जायदाद है, न बैंक बैलेंस? अंदाज सहानुभूति जताने से ज्यादा खिल्ली उड़ाने वाला था। रामाराव ने उत्तर दिया-‘मैं सैनिक हूं और संघर्ष करना जानता हूं। आपको मेरी चिंता में दुबले होने की जरूरत नहीं है।’ जेल से छूटकर रामाराव गांधी जी के पास चले गए और सेवाग्राम में रहकर कुछ दैनिकों के लिए स्पेशल रिपोर्टिंग करते रहे। 1945 में हेराल्ड फिर शुरू हुआ, तो उसके पहले पृष्ठ पर बाक्स था-‘गुडमार्निंग सर मारिस हैलेट’। इसका अर्थ था- ‘हम फिर आपको चुनौती देने आ पहुंचे हैं, गवर्नर साहब!’
नेहरू से मतभेद के चलते दिया इस्तीफा
सर स्ट्रेफोर्ड क्रिप्स के भारत आने और ‘बातें बनाने’ के मुद्दे पर एक आक्रामक संपादकीय को लेकर हेराल्ड प्रकाशन समूह के अध्यक्ष पंडित जवाहरलाल नेहरू से उनके मतभेद इतने गहरे हो गए कि उन्होंने अपने शिष्य एम. चेलपतिराव को पदभार सौंपकर त्यागपत्र दे दिया! दरअसल पंडित नेहरू क्रिप्स मिशन के प्रति नरम रुख के पक्षधर थे और चाहते थे कि रामाराव भी उनका अनुकरण करें, लेकिन रामाराव के लिए ऐसा करना संभव नहीं था। उनका स्पष्ट मत था कि पत्रकारों को हमेशा सरकार के विरोध में रहना साहिए। हां, सरकार विदेशी है तो विरोध शत्रुवत और स्वदेशी है तो मित्रवत होना चाहिए। मद्रास का ‘इंडियन रिपब्लिक’ हो या पटना का ‘सर्चलाइट’, उनकी संपादकीय नीति इसी सिद्धांत की अनुगामिनी रही। नेपाल के 1949 के जनवादी आंदोलन के समर्थन के सवाल पर ‘सर्चलाइट’ के राणाओं के समर्थक मालिकों से भी उनका टकराव हुआ। रामनाथ गोयनका, विश्वबंधु गुप्त और आचार्य जेबी. कृपलानी के आमंत्रण पर वे दिल्ली जाकर ‘इंडियन न्यूज क्रानिकल’ के संपादक बने, पर राजनीतिक मतभेदों ने उनको वहां भी टिकने नहीं दिया। श्रमजीवी पत्रकारों के हितों की सुरक्षा के लिए उन्होंने ‘इंडियन फेडरेशन आॅफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स’ के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तो 1954 के विश्व पत्रकार सम्मेलन में भाग लेने ब्राजील गए।
 संपर्क : 5/18/35, बछड़ा सुल्तानपुर, फैजाबाद, मो. 09838950948

सोमवार, 13 मई 2013

आज भी अभिशप्त है दक्खिन टोला

                                                                 

                                                                 केपी सिंह
दलितों पर अत्याचारों का सिलसिला सदियों से चला आ रहा है। आज उनकी स्थिति में कुछ परिवर्तन तो हुए हैं, खासकर आजादी के बाद आरक्षण मिलने से दलितों के एक छोटे हिस्से में जागृति की लहर आई है। कुछ प्रतिरोध होना शुरू हुआ है, लेकिन जब भी दलितों ने अपने जमीन के हकों को लेकर आवाज उठाई उनका उत्पीड़न बहुत भयानक रूप से हुआ। कई घटनाओं में सैकडों की संख्या में दलितों को जिन्दा जला दिया गया।
इसके बावजूद आज भी जब गांव में काम करने वाले खेतिहर दलित मजदूर मजदूरी बढ़ाने की बात करते हैं, अपने अधिकारों के लिए संगठित होते हैं, यहां तक कि यदि कोई दलित मोटर साइकिल से ऊंची जाति वालों के घर के सामने से गुजरता है या गांव में दलित अपना घर ऊंचा बना लेता है, तो गांव की दबंग जातियों का क्रोध बढ़ जाता है और उनकी बेचैनी बढ़ जाती है।

पबनावा की हालिया घटना
सवर्णों के अंदर दबा गुस्सा मौका मिलते ही फूट पड़ता है। कई बार यही गुस्सा सामूहिक रूप धारण कर लेता है और फिर पूरे दक्खिन टोले को उसका दंड भुगतना पड़ता है। अभी पिछले दिनों 13 अप्रैल 2013 को हरियाणा राज्य के कैथल जिले के गांव पबनावा में एक दलित युवक के उच्च जाति की युवती से प्रेम विवाह कर लेने पर उच्च जाति के दबंगों ने पुलिस की मौजूदगी में दलितों की बस्ती पर हमला बोल दिया। पुलिस की मौजूदगी के बावजूद दबंगों के डर के कारण पबनावा गांव के 200 से ज्यादा परिवार गांव से पलायन कर चुके हैं।
हिंसा के लिए उकसाती है जातिगत चेतना
पिछले दिनों अंतजार्तीय विवाहों पर तरह-तरह से हमले ही नहीं हुए, बल्कि जातिगत चेतना को और गहरा करने की तमाम कोशिशें की गर्इं। अंतजार्तीय विवाह के समर्थन में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, ‘ऐसे विवाहों को पुलिस सुरक्षा दी जाए'। मगर ढाक के वही तीन-पात। पुलिस की चेतना भी तो अधिकांश मामले में जातिगत चेतना को ही उजागर करती है। जैसा कि हाल ही में उत्तरप्रदेश के अलीगढ़ में 18 अप्रैल की सुबह नवरात्र की अष्टमी को जहां कन्याओं को पूजने की तैयारी हो रही थी, वहीं एक दलित कन्या दरिंदगी का शिकार हो गई। इस घटना का विरोध करने वाले लोगों पर पुलिस नें लाठियां भांजकर अपनी बहादुरी दिखाई। उसे सुप्रीम कोर्ट के आदेश की जरा भी परवाह नहीं थी। यहां तक कि विलाप कर रही महिलाओं, बच्चों एवं बच्ची के मां-बाप को भी पुलिस ने लाठियों से पीटा। यह जातिगत चेतना है, जो जातीय हिंसा के लिए उकसाती है।
कानून को लागू करने का सवाल
सभी जानते है कि वर्ष 1955 में बने ‘प्रोटेक्शन आॅफ सिविल राइटस एक्ट’ की सीमाओं के मददेनजर नया कानून (अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम-1989) बनाया गया। इसमे कई अहम प्रावधान किए गए। इनमें से ज्यादा प्रावधान इतने कड़े हंै कि एक बार इनके तहत गिरफ्तारी होने पर जमानत भी नहीं हो पाती। लेकिन, विडंबना यह है कि इस कानून की मूल भावना के हिसाब से कभी इस पर अमल ही नहीं होने दिया गया।
शहरों में भी फैला है जाति का जहर
अगर हम वर्ष 2004-05 की अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति आयोग की वगीर्कृत रिपोर्टों को देखें तो स्पष्ट होता है कि जातिवाद का जहर गांवों में ही नहीं, शहरी इलाकों में भी घुला हुआ है। आंकडेÞ बताते हंै कि हर सप्ताह औसतन 11 दलितों की हत्या कर दी जाती है, जबकि 21 दलित महिलाए बलात्कार का शिकार होती हैं। अनुसूचित जाति के महज 30 प्रतिशत घरों में बिजली का कनेक्शन है, तो महज 9 प्रतिशत घरों में साफ-सफाई की व्यवस्था है।
आठवीं भी नहीं पढ़ पाते बच्चे
आधे से ज्यादा दलित परिवारों के बच्चे आठवीं कक्षा के पहले ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। अनुसूचित जाति के छात्रावासों में रहने वाले तमाम बच्चे आज भी नहीं जानते कि दूध का स्वाद कैसा होता है। अनुसूचित जाति की 40 प्रतिशत आबादी खेत मजदूरी में लगी है और उनके पास दो कट्ठा जमीन भी नहीं है। मुल्क की लगभग 20 करोड़ से अधिक आबादी के बहुलांश की आज भी दोयम दर्जे की स्थिति दुनिया के सबसे बडेÞ जनतंत्र में क्या संकेत देती है?
डॉ. अंबेडकर की चिंता
संविधान सभा की आखिरी बैठक में बैठक में बोलते हुए डॉ. अंबेडकर ने समय की इसी स्थिति की भविष्यवाणी की थी। उन्होंने कहा था कि ‘हम लोग अंतर्विरोधों की दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं। राजनीति में हम एक व्यक्ति-एक वोट को स्वीकार करेंगे, लेकिन हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन में हमारे मौजूदा सामाजिक आर्थिक ढांचे के चलते हम लोग इस सिद्धांत को हमेशा खारिज करेंगे।  कितने दिनों तक हम अंतर्विरोधों का यह जीवन जी सकते हंै? कितने दिनों तक हम सामाजिक आर्थिक जीवन में बराबरी से इंकार करते रहेंगे?’ आज अंबेडकर का यह सवाल भारत में हर इंसाफ पसंद आदमी के सामने खड़ा है।
(लेखक सामाजिक विषयों के जानकार हैं)

डर के आगे जीत है

                                           पूनम राणा ‘मनु’
मैं जब भी कोई अखबार या पत्र-पत्रिका का महिला अंक पढ़ती हूं, तो वहां सिर्फ महिला जागरण की ही बात होती है। नारी जागरण पर आयोजित सम्मलेनों में भी जाती हूं। हर तरफ से बस एक ही आवाज आती है, ‘स्त्रियों जागो!’ तुम्हें अपना हक लेने के लिए अब आगे आना ही होगा। समाज का संपूर्ण दायित्व तुम्हारे उपर है, ‘जागो!’ मैं सोचती हूं कि नारी सोई है, तो भला सृष्टि कैसे गतिमान है? दूसरे आजकल स्त्रियों के प्रति जिस तरह अपराधों में इजाफा हुआ है, उसका कौन उत्तरदायी है? क्या स्वयं नारी? इसका जवाब नहीं मिलता। पर नारी के प्रति सभी अपराधों में बढ़ोत्तरी के खासकर बलात्कार के मामले में आंकड़े चौंकाने वाले हैं। हां, फर्क बस इतना है कि आज कुछेक घटनाएं अखबार की सुर्खियां बन जाती हैं। यह सब एकदम नहीं हुआ कि बहुत सारे वहशी-दरिंदे किसी दूसरे गृह से आ टपके हों और ऐसी अमानुषिक कृत्यों को अंजाम दे रहे हों। ऐसा बिल्कुल नहीं है। यह पहले भी होता आया है और होता रहेगा, जब तक नारी को केवल एक भोग की वस्तु समझा जाता रहेगा। पहले चाचा ,ताऊ, मामा आदि घर के अंदर ऐसे कृत्यों का अंजाम देते थे, अब यह तो होता ही है, बाहर भी खुलेआम होने लगा है। आज के मौजूदा दौर में स्त्रियों के प्रति होने वाले गंभीर अपराधों से पूरी स्त्री-जाति भयभीत है। हालत यह पैदा हो गई है कि आज महिलाएं अब अपनी बहन-बेटियों के लिए इतनी चिंतित हैं कि वह परिवार के किसी भी पुरुष पर यह भरोसा नहीं कर पा रही हैं कि उनकी मौजूदगी में उनकी बच्चियां सुरक्षित हैं।  
राजनीति की भेंट चढ़ गया विरोध का स्वर
कुछ दिनों पहले दिल्ली में हुए रेप कांड के बाद लोग सड़कों पर उतर आए। हर कोई इंसाफ चाहता था। आंदोलन में महिलाओं के साथ इंसाफ पसंद युवा भी शामिल थे। लेकिन, दामिनी के मरते ही एकाएक सब ठंडे बस्ते में गया। इंडिया गेट पर जली मोमबत्तियां कब बुझ मिट्टी में मिल गईं पता भी न चला। सब कुछ राजनीति की भेंट चढ़ गया। इस घटना के बाद कहां बलात्कार की घटनाओं को रुकना चाहिए था, अब तो देश के कोने-कोने से बलात्कार से जुड़ी खबरों की बाढ़ सी आ गई है। पिछले सप्ताह पाच वर्षीय बालिका के साथ दिल्ली में जो दरिंदगी हुई, उससे मानवता शर्मसार हो गई। इसके बाद तो हर महिला के चेहरे पर एक डर, एक दहशत को देखा जा सकता है।
काफी नहीं कानून का डर
यह सही है कि आज इन घटनाओं से हर जाति-धर्म की महिला पीड़ित है। पर इसे हौव्वा मानकर इससे डरने से भी काम नहीं चलेगा। हमें एकजुट होकर इससे लड़ने की जरूरत है। कानून कितने भी बना दिए जाएं, सजाएं कितनी भी तय हो जाएं, पर जिन्हें अपराध करना है वह करेगा ही। हमारे कानून में कत्ल के बदले अपराध साबित होने पर फांसी या उम्रकैद की सजा का प्रावधान है। लेकिन क्या इस डर से हत्याएं नहीं होतीं?
न बुझने पाए उम्मीद का दीपक
इतना सब घट जाने पर भी किसी की समूची दुनिया खत्म नहीं होती। एक उम्मीद एक आशा हमें बनाई रखनी है। सवाल सिर्फ कानून को सख्त बना देने का नहीं है। वह तो होना ही चाहिए और जो भी कानून है वह लागू भी होना जरूरी है, लेकिन कानून और उसकी सख्ती का सवाल तो घटना घटने के बाद आता है। इससे पहले बचाव के उपाय होते हैं।  अब एक ऐसी अलख जगानी होगी हमें, एक ऐसा समाज तैयार करना होगा, जहां स्त्री को एक भोग्या नहीं, वरन अपने जैसा एक हाड़-मांस का इंसान समझ, मान-सम्मान दिया जाए। आखिर जब वह सृष्टि  की धाय है, तो उसे उचित सम्मान मिलना ही चाहिए।
ताकि न हो अपराध की पुनरावृत्त
सरकार को चाहिए कि वह हर जिले की पुलिस को सख्त आदेश दे कि उनके अधिकार क्षेत्र में बलात्कार जैसा घृणित अपराध होने पर अपराधी किसी भी हालत में न बख्शा जाए। बिना देरी किए निर्दोष व्यक्ति को तो न्याय मिले ही, अपितु इस तरह के अपराध की उसके क्षेत्र में पुनरावृति नहीं होनी चाहिए।
पुलिस और न्याय तंत्र में भ्रष्टाचार की पैठ
हालांकि, इसके बावजूद सभी लोग जानते हैं कि पैसे और पहुंच के बल पर ऐसे अपराधी छूट जाते हैं। आमतौर पर तो आज कोई इस बात पर भरोसा ही नहीं करता कि वह अपना काम ईमानदारी से निभाएगी। लेकिन सच्चाई यह भी है कि यदि पुलिस ईमानदारी से कोई अपराधी पकड़ कर अदालत तक पहुंचा भी दे, तो ऐसी घटनाएं भी हमारे सामने हैं, जब अपराधी अदालत से बाइज्जत रिहा कर दिए गए। वजह साफ है। आज पुलिस और न्याय तंत्र में भ्रष्टाचार अपनी पैठ जमा चुका है।
देश हित में आएं आगे
आज हर देशवासी को चाहिए कि वे घर में,  दफ्तर में,  दोस्तों में, परिचितों में, अपनों में, बेगानों में, रिश्तेदारी में... जहां कहीं भी किसी नारी का मानसिक-शारीरिक शोषण होते देखें, आवाज उठाएं। बलात्कार जैसी घटनाओं को रोकने के लिए यही अंतिम विकल्प है। आज जरूरत इस बात है कि हर बहन का भाई, हर बेटी का पिता और हर महिला का पति ऐसी घटनाओं के खिलाफ आवाज उठाए। आज जरूरत इस बात की है कि यदि आपका अपना पुत्र भी ऐसी घटनाओं में शामिल है, तो देश हित में आप ममता में अंधे न बनें, उसे अपराधी मान उसके इस घृणित कार्य की सजा दिलवाने में आगे आएं।
दोषी का करें सामाजिक बहिष्कार
ऐसे हर शख्स का सामाजिक बहिष्कार करें, जो बलात्कार जैसे जघन्य कृत्य का दोषी है। ऐसे लोग मानवता के मुजरिम हैं। पुलिस या सरकार हमारे घरों में झांकने नहीं आ सकती। ऐसे में हर स्त्री को स्त्री होने के नाते पीड़ित स्त्री का साथ देना चाहिए। वहीं एक पुरुष को एक नारी का पिता, भाई, पति या पुत्र होने के नाते हर उस दरिंदे को दंड देना चाहिए, जो नारी का मानसिक या शारीरिक शोषण करने का इरादा रखता हो या
करता हो।

विकल्पहीन नहीं है दुनिया

                                                   देवेन्द्र प्रताप
आज पूरी दुनिया में न सिर्फ अमेरिका के विरोध में, वरन उसकी दुनिया से इतर एक नई दुनिया का ख्वाब भी देखा जाने लगा है। हमारे देश में चला अन्ना आंदोलन हो या फिर ट्यूनीशिया और समूचे अरब में पैदा हुआ नया जनउभार, वॉल स्ट्रीट का आंदोलन हो या फिर स्पेन और यूनान में जबरदस्त जनसंघर्ष, सभी में एक नई दुनिया का ख्वाब लोगों को प्रेरणा दे रहा है। आर्थिक मंदी ने अमेरिका समेत कई मुल्कों की कमर तोड़ दी है। ऐसे में इन मुल्कों की संचालक विचारधारा पर भी सवाल उठने लगे हैं। वहीं, मंदी के माहौल में भी क्यूबा, बोलीबिया, वेनेजुएला जैसे देश पुरानी दुनिया के मिथ को तोड़कर विकास के नित-नए कीर्तिमान रच रहे हैं।
अमेरिका का आर्थिक संकट उसके द्वारा अपने फायदे के लिए गढ़े गए सिद्धांतों की ही देन है। वह अपने फायदे के लिए कुछ भी कर सकता है। जापान, इराक, अफगानिस्तान आदि देशों में नरसंहार, कई देशों में तख्तापलट कर अपनी पिटठू सरकारों को सत्ता पर बैठाना, कई देशों के राष्ट्राध्यक्षों को मरवाने की साजिश में उसका लिप्त होना आदि सभी कारनामों के केंद्र में उसका अपना लोभी और विकृत चरित्र ही रहा है। एक समय जिस अमेरिका को अब्राहम लिंकन, जार्ज वाशिंगटन जैसे महान लोगों का मुल्क कहा जाता था, आज वही हथियारों के सबसे बड़े सौदागर के रूप में कुख्यात हो चुका है। इसके बावजूद कई ऐसे मुल्क हैं, जिन्होंने कभी भी अमेरिका की नीतियों और उसकी दादागीरी के आगे सरेंडर नहीं किया। वियतनाम, फिलिस्तीन, वेनेजुएला, क्यूबा, बोलीविया, चिली, निकारागुआ, ग्वाटेमाला, पेरू आदि ऐसे मुल्क हैं, जहां की जनता लंबे समय से अमेरिका की साम्राज्यवादी नीतियों का विरोध करती रही है। इनमें से वेनेजुएला, क्यूबा, बोलीविया जैसे कुछेक देशों ने उसकी नीतियों का विरोध करने के साथ ही विकल्पहीन दुनिया के सामने एक बेहतर और मानवीय दुनिया का मॉडल भी प्रस्तुत किया है। आज जबकि अमेरिका आर्थिक मंदी की मार से कराह रहा है, ऐसे में इन मुल्कों की जनता विकास के नए कीर्तिमान रचने में लगी है। दुनिया को चवन्नी से ज्यादा अहमियत न देने वाले आधुनिक तानाशाह अमेरिका ने इन मुल्कों को नेस्तनाबूत करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, लेकिन वियतनाम की तरह ही उसे इन मुल्कों की जनता ने भी हमेशा ही घुटने टेकने को मजबूर किया। आज तीसरी दुनिया की जनता भी इन मुल्कों के मॉडल को अब पसंद करने लगी है।
शिक्षा में अव्वल क्यूबा
आज कमोवेश हर मुल्क में शोषणकारी सत्ताएं कायम हैं। वहीं, वेनेजुएला, क्यूबा और बोलीविया में इससे इतर भी एक दुनिया अस्तित्व में है। लैटिन अमेरिका में भले ही अमेरिका दादागीरी दिखाता हो, लेकिन क्यूबा के सामने उसकी एक नहीं चलती। इसकी एक बड़ी वजह है क्यूबा की जनपक्षधरता और वहां की शिक्षित जनता। आपको यह जानकार शायद आश्चर्य होगा कि क्यूबा के पूर्व राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो ने जब देश की जनता को शिक्षित करने का प्रण लिया, तो महज एक साल में 95 प्रतिशत जनता को शिक्षित कर डाला। अमेरिका इस रिकार्ड को तोड़ने की सपने में भी कल्पना नहीं कर सकता। इतना ही नहीं, मीडिया भले ही अमेरिका के सुर में सुर मिलाता हो, हकीकत यही है कि शिक्षा के अलावा स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी क्यूबा की स्थिति अमेरिका से बेहतर है। क्यूबा में प्रति हजार शिशु मृत्यु दर महज सात है, जो अमेरिका से काफी बेहतर है। वहीं, हमारे देश में प्रति हजार शिशु मृत्युदर 46 है। दुनिया को चवन्नी-अठन्नी समझने वालों की सोच से इतर भी एक बेहतर दुनिया न सिर्फ मौजूद है, वरन इसे और बेहतर बनाने का ख्वाब भी जिंदा है।
विकास पथ पर बोलीविया
वर्तमान समय में विकसित देशों में आर्थिक असमानता का उच्चतम स्तर अमेरिका में है। वहां 2006 के बाद से गरीबी की दर में 23 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 40 साल पहले वहां 61 प्रतिशत मध्यवर्ग था, अब वह 50 प्रतिशत से भी काफी नीचे आ गया है, यह अवसान अभी जारी है। यही अमेरिका की सबसे बड़ी चिंता भी है। इससे इतर वैश्विक आर्थिक संकट के बीच बोलीविया ने 2011 की तुलना में 2012 में 6 प्रतिशत की आर्थिक वृद्धि दर्ज की। चिली, पेरू, पनामा व वेनुजुएला को अगर छोड़ दिया जाए, तो यह लैटिन अमेरिका में सबसे बेहतर स्थिति है। 2006 में ईवो मोराल के राष्ट्रपति बनने के बाद बोलीविया का जीडीपी तीन गुना जबकि प्रति व्यक्ति आय दोगुने से भी ज्यादा हो गई। आज वहां के सबसे धनी लोगों की आय, वहां के सबसे निर्धनतम 10 प्रतिशत लोगों की आय से महज 36 गुना अधिक है, जबकि यही 1997 में 96 गुना अधिक थी। संयुक्त राष्ट्र आर्थिक आयोग के प्रमुख एलिसिआ बासेर्ना भी मानते हैं, ‘बोलीविया ऐसे कुछ देशों में शामिल है, जहां आर्थिक असमानता में बेहद कमी आई है। गरीबों और अमीरों के बीच की खाई में काफी कमी आई है।’ विश्व बैंक भी बोलीविया को ‘निम्न मध्य आय वाला देश’ मानता है। यह इस बात का प्रमाण है कि वहां गरीबों और अमीरों के बीच आर्थिक असमानता के स्तर में ज्यादा अंतर नहीं है। बोलीविया संभवत: दुनिया का ऐसा एकमात्र देश है, वहां 2005 के बाद से न्यूनतम मजदूरी में 127 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। वहीं अमेरिका में वेतन वृद्धि की बात कौन करे, जिनके पास पहले रोजगार था, वे अब बेरोजगार हो गए हैं। रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पुअर ने भी पिछले साल अक्टूबर माह में बोलीविया को ‘बहुत ही शानदार आर्थिक प्रगति करने वाला देश’ कहा था। वोलीविया निजीकरण के खात्मे की ओर तेजी से बढ़ रहा है। जिस गति से वह इस दिशा में बढ़ रहा है, उसी रफ्तार से वहां गरीबी, बेरोजगारी आदि समस्याएं भी कम हो रही हैं।
जनसेवा में अव्वल वेनेजुएला
संयुक्त राष्ट्र संघ के काराकस सम्मेलन में 20 सितंबर 2006 को वेनेजुएला के तत्कालीन राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज ने भाषण दिया था। उनका इस भाषण को तीसरी दुनिया की जनता ने (जहां अमेरिका का दबदबा है) काफी पसंद किया। उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत करते हुए कहा, ‘शैतान कल यहां भी आया था। (हंसी और तालियां) कल शैतान यहीं था। ठीक इसी जगह। यह टेबुल जहां से मैं बोल रहा हूं, वहां अभी भी सल्फर की बदबू आ रही है। कल, बहनो, भाइयो, ठीक इसी सभागार में संयुक्त राज्य अमरीका का राष्ट्रपति जिसे मैं शैतान कह रहा हूं, आया था और ऐसे बोल रहा था, जैसे वह दुनिया का मालिक हो। कल उसने जो भाषण दिया था, उसे समझने के लिए हमें किसी मनोचिकित्सक की मदद लेनी पड़ेगी।’ फिदेल कास्त्रो की तरह ही ह्यूगो शावेज भी अमेरिकी साम्राज्यवाद के कट्टर विरोधी थे। शावेज ने राष्ट्रपति बनते ही, वेनेजुएला की प्रमुख तेल कंपनी ‘पेट्रोलिओस दि वेनेजुएला’ का राष्ट्रीयकरण किया,  अमेरिकी और यूरोपीय तेल कंपनियों पर प्रतिबंध लगाया और वेनेजुएला की पूंजी को बाहर जाने से रोका। इसके बाद उन्होंने वेनेजुएला की गरीबी को दूर करने के लिए कमर कस ली। भ्रष्टाचार पर लगाम भी शावेज के सही समय में लग सकी। अगले दस साल में उन्होंने जनसेवा के लिए दी जाने वाली राशि को 61 प्रतिशत बढ़ाकर 772 बिलियन डॉलर कर दिया। अमीरों की अय्याशी पर पाबंदी लगा दी, नतीजतन 10 सालों में ही गरीब-अमीर की खाई में जबरदस्त कमी आई। गरीबी 71 प्रतिशत से 21 प्रतिशत, जबकि अत्यंत गरीबी, जो पहले 40 प्रतिशत थी वह 7.3 प्रतिशत हो गई। वहां लगभग सभी वृद्ध वृद्धा पेंशन पाते हैं। लगभग सभी को स्वच्छ  पेयजल मिलता है। वेनेजुएला क्यूबा के बाद संभवत: अकेला ऐसा देश है, जहां स्कूलों में छात्रों की 85 प्रतिशत उपस्थिति रहती है। करीब एक करोड़ वेनेजुएला के छात्रों को विश्वविद्यालय में मुफ्त शिक्षा मिलती है। भारत वेनेजुएला से न सिर्फ बहुत बड़ा है, बल्कि जनसंख्या भी ज्यादा है, लेकिन यहां के विश्वविद्यालयों में छात्रों की संख्या वेनेजुएला से काफी कम है। वेनेजुएला में शिक्षा, चिकित्सा और भोजन की व्यवस्था मुफ्त है। वहां गरीबों को मुफ्त आवास भी उपलब्ध करवाया जाता है। कुल मिलाकर जनसेवा में वेनेजुएला से अमेरिका का कोई मुकाबला नहीं है।
मंदी में ही डूबा था इंग्लैंड का सूरज
1930 की मंदी के समय इंग्लैंड का समूची दुनिया पर राज था, लेकिन जब महामंदी आई तो उसके सामने इंग्लैंड समेत तमाम शोषणकारी साम्राज्य पानी भरते नजर आए। इसी के बाद दुनियाभर में जनता के मुक्ति संघर्षों में तेजी आई और एक-एक कर दुनिया के कई मुल्कों ने खुद को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद कर लिया। आज एक बार फिर से दुनिया के सामने मंदी का खतरा है। हां, आज दुनिया का सरगना अमेरिका है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद इस मुल्क ने खुद को दुनिया को लूटने की दौड़ में शामिल किया और एक समय आया, जब वह दुनिया का सबसे ताकतवर मुल्क बन गया। अब इतिहास ने एक बार फिर से करवट ली है। इस बार उसके निशाने पर अमेरिका है। कमोवेश दुनिया के हर तानाशाह को इतिहास के कोड़े खाने पड़े हैं, सो अमेरिका को भी खाने पड़ रहे हैं। लेकिन, जैसाकि कहा जाता है कि आज तक किसी भी तानाशाह ने अपनी गलतियों से सबक नहीं लिया, यह बात अमेरिका के ऊपर भी लागू होती है। बल्कि, सच कहा जाए तो आज जो स्थिति बन रही है, उसमें एक तरफ तो उसकी ऐंठ है, जो उसे अपनी गलती स्वीकार करने की इजाजत नहीं देती, दूसरी, अगर वह अपने गलती दुरुस्त करना चाहे भी, तो अब ऐसा कर पाना उसके वश में नहीं है।
संपर्क : जनवाणी"हिंदी दैनिक " मेरठ
मोबाइल नंबर : 09719867313

बोतल का समाजवाद, मुस्तैद व्यवस्था

                                                                                        सलीम अख्तर सिद्दीकी
घटना है मेरे शहर के कैंट इलाके की। बात उस समय की है, जब सेना ने कैंट को आम नागरिकों के लिए एक तरह से प्रतिबंधित कर दिया था। हर किलोमीटर पर चेकिंग प्वाइंट बना दिए गए थे, जिनसे निकलने में काफी वक्त जाया हो जाता था। बहरहाल, मैं कैंट में था और उसकी एक नीम अंधेरी सड़क पर मेरी मोटर साइकिल का पेट्रोल खत्म हो गया था। पेट्रोल पंप काफी दूर था। ऐसे में मेरे पास यही विकल्प था कि मैं कैंट में रहने वाले अपने मित्र को फोन करके पेट्रोल लाने के लिए कहूं। मित्र को फोन करने के बाद मैं नीम अंधेरी सड़क से निकलकर एक पान-सिगरेट के खोखे के पास आकर इंतजार करने लगा। खोखे के सामने एक बिल्कुल नई लग्जरी गाड़ी आकर रुकी। उस पर नंबर प्लेट नहीं लगी थी, लेकिन उसके आगे समाजवादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाली सरकार का झंडा जरूर लगा हुआ था। गाड़ी में बैठे महाशय ने कुछ इशारा किया और खोखे वाले ने उनको गाड़ी में ही सामान दिया। अब गाड़ी थोड़ा आगे जाकर रुक गई थी। गाड़ी के अंदर की लाइट जली। उसमें दो आदमी झक सफेद कलफ लगे कपड़ों में बैठे हुए थे। उनके जूते भी शायद सफेद रंग के होंगे, क्योंकि आजकल नेताओं और माफियाओं का यह ड्रेस कोड बना हुआ है। दोनों के हाथों में बीयर की बोतलें थीं। एक आदमी की बोतल खत्म हुई, तो उसने उसे सड़क  पार उछाल दिया, जहां मिट्टी पड़ी हुई थी। धप की आवाज हुई और इतने में ही दो लड़के नीम अंधेरे से प्रकट हुए और बोतल पर झपट पड़े। दोनों में बोतल को हथियाने के लिए जद्दोजहद होने लगी। अंतत: बोतल लेने में वह लड़का कामयाब हो गया, जो दूसरे के मुकाबले थोड़ा ताकतवर था। उसने बोतल को अपनी उस छोटी बोरी के हवाले किया, जिसमें पहले से कई बोतलें भरी हुई लग रही थीं। दूसरे लड़के के पास भी ऐसी छोटी बोरी थी। थोड़ी देर बाद दूसरे आदमी ने अपनी बोतल खाली की। उस लड़के ने जो बोतल लेने में नाकाम रहा था, बड़ी आस से बोतल की ओर देखा। आदमी ने बोतल को इस तरह हवा में उछालने का अभिनय किया, जैसे उस लड़के पास ही उसे फेंकना चाहता हो, लेकिन ऐन वक्त पर उसने हाथ ढीला छोड़ दिया। बोतल पक्की सड़क के बीच में आकर गिरी और टूटकर ऐसे बिखर गई, जैसे समाजवाद के परखच्चे उड़ गए हों। लड़के के चेहरे पर मायूसी उभरी और गाड़ी से दोनों आदमियों का अट्टहास गूंजा। लड़के ने दोनों को भद्दी सी गाली दी और अंधेरे में गुम हो गया। हंसी की जगह अब उनके चेहरों पर गुस्सा उभर आया। उन्होंने तेजी के साथ गाड़ी आगे बढ़ाई। जहां यह सब हुआ, उससे चंद गज के फासले पर सेना के जवान बहुत मुस्तैदी से वाहनों की चेकिंग कर रहे थे।

मंगलवार, 7 मई 2013

उत्तराखण्ड में न्यूनतम मज़दूरी का मुखर विरोध

ऊधमसिंह नगर के विभिन्न यूनियनों व श्रम संगठनों ने राज्य सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम मज़दूरी को मज़दूरों के साथ धोखा बताया और उसके पुनरीक्षण की माँग करते हुए स्थानीय श्रमभवन पर प्रदर्शन कर राज्य सरकार को ज्ञापन भेजा। साथ ही, श्रम कानूनो के अनुपालन की भी माँग उठाई।
    राज्य के प्रमुख सचिव, श्रम एवं सोवायोजन को भेजे
गये ज्ञापन में कहा गया है कि यह शासन द्वारा प्रस्तावित न्यूनतम मजदूरी दरों से भी लगभग 10 फीसदी कम घोषित की गयी। सरकार ने विभिन्न श्रम संगठनों द्वारा शासन के न्यूनतम मजदूरी पुनरीक्षण प्रस्ताव पर भेजे गए उन सुझावों को दरकिनार कर दिया जिसमें अन्तर्राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन, माननीय सर्वोच्च न्यायालय व भारत के केन्द्र सरकार के मानकों के मद्देनजर न्यूनतम मजदूरी 10 से 15 हजार रूपए मासिक करने का सुझाव दिया गया था। यह माननीय उच्चतम न्यायालय के महत्वपूर्ण निर्णय (सिविल अपील सं0 4336 (एन.एल.) 1991) के विपरीत है, जिसमेें किसी भी परिस्थिति में न्यूनतम मजदूरी के लिए एक मानक निर्धारित किया गया था।
    उल्लेखनीय है कि सरकार का पूर्ववर्ती प्रस्ताव अकुशल, अर्धकुशल, कुशल व अतिकुशल के लिए क्रमशः 5500, 5800, 6400 व 7200 रुपए मासिक था, लेकिन घोषित हुआ 4980/5050, 5545/5330, 5915/5610 व शून्य/5730।
    सभा को सम्बोधित करते हुए वक्ताओं ने कहा कि मालिकों के हित में सरकार की यह पक्षधरता बेहद खतरनाक है। मजदूरों के हाड़ मांस तक को निचोड़ने वाले मालिकांे के शोषण और दमन पर यह एक और सरकारी ठप्पा है। वैसे भी गैरकानूनी ठेका प्रथा के जारी खेल में बहुलांश के लिए तो न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती। मामूली दिहाड़ी पर 12-12 घन्टे खटना तो आज परम्परा बन चुकी है। एक तो, सुरसा की मुंह की तरह लगातार बढ़ती मंहगाई ने आम मेहनतकश की कमर वैसे ही तोड़ रखी है। ऊपर से न्यूनतम मजदूरी के बहाने मजदूरों पर यह हमला जीने तक के अधिकार से वंचित करने का एक और रास्ता बनने जा रहा है। ऐसे में क्या एकजुट संघर्ष के अलावा क्या कोई रास्ता बचता है?
    आक्रोशित श्रमिकों ने कहा कि राज्य में सिडकुल के तहत लगे कारखानों में श्रम कानूनों का खुला उल्लंघन, गैरकानूनी ठेका प्रथा की बढ़ती जकड़बन्दी और दमन से श्रमिकों में रोष बढ़ता जा रहा है। स्थिति यह है कि वैधानिक रूप से यूनियन गठन के हर प्रयास पर मजदूरों का दमन एक परिपाटी बन गई है। सुरक्षा के तमाम मानदण्डों को ताक पर रखने के कारण कम्पनियों में हाथ-पाँव कटने से लेकर जान जाने तक की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं। इंजीनियरिंग उद्योगों में ट्रेनी के नाम पर अवैध शोषण खुले आम जारी है।
    प्रदर्शन के माध्यम से भेजे गए पहले ज्ञापन में माँग किया गया है कि न्यूनतम मजदूरी 12 हजार रुपये घोषित हो, वर्ष 2010 से एरियर का भुगतान हो और अगला वेतन पुनरीक्षण वर्ष 2015 में हो, न्यायपूर्ण वर्गीकरण के साथ प्रत्येक 3 वर्ष में मजदूरों की श्रेणियाँ उच्चीकृत हों, बोनस का भुगतान ग्रॉस सेलरी पर हो, वेतन पुनरीक्षण में राज्य की सभी यूनियनों को भागीदार बनाया जाय।
    श्रमकानूनो के अनुपालन वाले ज्ञापन द्वारा राज्य के श्रम कानुन के अनुरूप गैर कानूनी ठेका प्रथा खत्म करनेे, गैर कानूनी ट्रेनिंग प्रथा पर रोक लगाने व ‘‘स्थाई काम के लिए स्थाई रोजगार’’ देने, “समान काम के लिए समान वेतन” का प्रावधान लागू करने, यूनियन बनाने के अधिकार पर हमले बन्द करने, विभिन्न कारखानों में मॉडल स्टैण्डिंग ऑर्डर के विपरीत पारित पंजीकृत स्थाई आदेशों की जाँच और संशोधन की प्रक्रिया चलाने, असाल, पारले संहित विभिन्न कारखानों में जारी औद्योगिक विवादों का न्यायहित में तत्काल निस्तारण करने एवं सिडकुल में हालात की जाँच-पड़ताल हेतु श्रमिक प्रतिनिधियों से युक्त संयुक्त जाँच टीम गठित कर हर माह निरीक्षण की प्रक्रिया शुरू करने की माँग शामिल है।
    इस अवसर पर इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र के कैलाश भट्ट, मज़दूर सहयोग केन्द्र के मुकुल, सीटू के मणिन्द्र मण्डल, एटक के कैलाश नाथ, सीपीआई के जी.एस.चीमा, वोल्टास श्रमिक संगठन के कुन्दन सिंह, थाईसुमित नील ऑटो कामगार यूनियन के सर्वेश कुमार, ब्रिटानिया श्रमिक संघ के चंदन दानू, शिरडी श्रमिक संगठन के पंकज कोरंगा, एलजीबी बर्कर्स यूनियन के विरेन्द्र सिंह, आसाल कामगार संगठन के धर्मेन्द्र कुमार, बीसीएच मज़दूर संघ के बसंत भट्ट, बैरॉक मज़दूर वर्कर्स यूनियन के मुकेश बडोला आदि ने सभा को संबोधित किया। संचालन पारले मज़दूर संघ के लक्ष्मी दत्त भट्ट व नैस्ले कर्मचारी संगठन के राजदीप बाठला ने किया।

शुक्रवार, 3 मई 2013

जनता से माफी मांगे राहुल फाउंडेशन

समाजिक कामों का दावा करने वाली एक संस्था के खिलाफ नागरिकों की गंभीर शिकायतों पर लखनऊ में 21 अप्रैल, 2013 को एक सभा एवं जन सुनवाई आयोजित की गयी। इस सभा में उक्त संस्था के उत्पीड़न के शिकार कई नागरिकों ने सबके सामने प्रमाण सहित अपनी व्यथा रखी। इन नागरिकों की बातों में मुख्य रूप से शशि प्रकाश, कात्यायनी, राम बाबू और सत्यम का नाम लिया गया। यह भी तथ्य सामने आया कि ये लोग जनचेतना, राहुल फाउंडेशन तथा कई अन्य नामों से ट्रस्ट एवं सोसाइटी चलाते हैं। इन पर नागरिकों के मकानों पर अवैध कब्जा करने, लोगों को झूठे मुकदमों में फंसाने, सामाजिक कामों में लगे लोगों की एकता तोड़ने और सामाजिक कामों को व्यवसाय बना देने के बारे में लोगों ने बाते कहीं।
     सभा में उपस्थित सामाजिक कार्यकताओं ने नागरिकों की इन बातों को बहुत गंभीरता से लिया। इन कार्यकताओं ने अपनी बातों में कहा कि इनके गलत कामों से सामाजिक कार्यो में लगे सभी लोगों की छवि को नुकसान पहुंचा है और समाज में उनकी विश्वसनीयता पर प्रश्न पैदा हो रहा है। यह प्रवृत्ति सामाजिक कार्यों के लिए बेहद नुकसानदेह है और इससे समाज विरोधी शक्तियों को ताकत मिल रही है। यह काम शहीद भगत सिंह, शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी, प्रेमचंद, गोर्की, टाल्सटाय, बालजाक, राहुल सांकृत्यायन, निराला आदि के नाम पर किया जा रहा है, इसलिए यह और भी खतरनाक मामला है। मानव जाति के इन महान व्यक्तियों के नाम पर गलत काम करना एक समाज-विरोधी कार्य है। बैठक में उपस्थित लोगों ने इसका पुरजोर विरोध किया।
सभा ने आम सहमति से निम्नलिखित प्रस्ताव लिए-
1. उक्त लोगों ने आम नागरिकों के खिलाफ जो पुलिस केस और मुकदमे कर रखे हैं, उन्हे वापस लें।
2. दिवंगत शालिनी, जो इनकी संस्था में काम करती थी, जिनकी समय पर इलाज न होने के कारण असामयिक मृत्यु हो गयी, उनकी पिछले दो वर्षों की मेडिकल रिपोर्ट उनके माता-पिता को उपलब्ध कराएं।
3. अंजुलिका, मधुलिका (डी-68, निराजा नगर, लखनऊ), अर्चना, अंजना (515/69, बाबा का पुरवा, पेपर मिल रोड, लखनऊ), अंजू (69ए, बाबा का पुरवा, पेपर मिल रोड लखनऊ), प्रीति (69बी, बाबा का पुरवा, पेपर मिल रोड, लखनऊ) के मकानों पर से ये अपना अवैध कब्जा तुरंत हटाएं और इससे संबंधित मुकदमों को वापस लें।
4. इनके विश्वासघात से दिवंगत कमला पांडेय, दिवंगत बीडी सक्सेना, दिवंगत शालिनी, दिवंगत विश्वनाथ मिश्र को जो तकलीफ पहुंची है, उसके लिए ये सार्वजनिक तौर पर माफी मांगें।
5. दिवंगत शालिनी के नाम से जारी तथा अन्य द्वारा लिखित वसीयतनामा, इनका बेहद संवेदनहीन एवं अमानवीय कुकृत्य है। यह एक समर्पित कार्यकर्ता की मृत्यु पर की जाने वाली कुटिल राजनीति है और सभी संवेदनशील नागरिकों का अपमान है। इसके लिए ये सार्वजनिक तौर पर माफी मांगें। 
द्वारा- 
सत्येन्द्र कुमार, मृदुल कुमार सिंह, बीएस कटियार, अरुणा सिंह, विनोद कुमार उपाध्याय, नवीन सिंह, राम अवतार सिंह खंगार, पुरुषोत्तम शुक्ल, मनोज जोशी, केके शुक्ल, अनमोल, आदियोग, संगीता शर्मा, अंशुमाली शर्मा, राम किशोर, शिवानी, एके सक्सेना, अर्चना सक्सेना, प्रीति सिंह, अंजू खरे, मो. अजीज, विमलेश कुमार शुक्ल, देवी दत्त पांडेय, मो. मसूद, मो. मशहूद, समृद्धि, शिव कुमारी, शैब्या शुक्ला, राजीव कुमार पांडेय, रितेश, राजकुमार दीक्षित, डी.एस. रावल, संजय शर्मा, उर्वशी शर्मा, लता राय, महेश देवा, श्वेता, होमेन्द्र कुमार मिश्रा, ओ.पी. सिन्हा, डॉ. डीबी लाल, ताहिरा हसन, एएच परवेज, एसएस वर्मा, राम कृष्ण, डॉ. नरेश कुमार, केएन शुक्ला, सीएम शुक्ला, केएच सिद्दीकी, श्याम अंकुरम, कौशल किशोर, ब्रह्म नारायण गौड़ आदि।
संपर्क:
सत्येन्द्र कुमार
एस-12, नीलगिरी काम्प्लेक्स
फैजाबाद रोड, इंदिरा नगर,
लखनऊ-226016
मो.नं. 09415319070

गुरुवार, 2 मई 2013

हरियाणा के पबनावा गांव की दलित बस्ती में दबंगों द्वारा हमले की तथ्यात्मक रिपोर्ट

हरियाणा प्रदेश के कैथल जिले के गांव पबनावा की  दलित बस्ती पर गांव के ही दबंगों द्वारा हमले की खबर के आधार पर दिल्ली के विभिन्न प्रगतिशील, जनवादी एवं क्रान्तिकारी संगठनों की दिनांक 22 अप्रैल को एक बैठक हुई। बैठक में पबनावा गांव की दलित बस्ती पर हुए  हमले का सच जानने के लिए एक फैक्ट फाइंडिंग टीम का गठन किया गया! 25 अप्रैल 2013, को तीन सदस्यीय टीम दिल्ली से प्रातः सवा छह बजे पबनावा गांव के लिए रवाना हुई। टीम में जाति उन्मूलन आन्दोलन के संयोजक जे.पी. नरेला,ए न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी आफ इंडिया के महासचिव अरूण मांझी और मजदूर नेता के.के. नियोगी शामिल थे ।
दलित बस्ती पर हमले के विरोध में हरियाणा के विभिन्न संगठनों द्वारा प्रदर्शन एवं रैली
 टीम के सदस्यों को यह सूचना थी कि  इस दलित उत्पीडन की घटना के विरोध में आज 25 अप्रैल 2013 को हरियाणा प्रदेश के विभिन्न संगठन इकट्ठे होकर कैथल में डी सी आफिस पर प्रदर्शन करने जा रहे है। इसके लिए सभी संगठनों को कैथल के जवाहर पार्क में इकट्ठा होना है। इसलिए टीम, विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के लिए करीब चार घण्टे के सफर के बाद सवा दस बजे पहले कैथल के जवाहर पार्क पहुंची । सभा के आयोजकों ने टीम के सदस्यों से सभा के समक्ष अपनी बात रखने का आग्रह करने पर टीम के सदस्य जे.पी. नरेला ने सभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि पहले तो हम टीम की ओर से आपके इस आन्दोलन का समर्थन करते हैं । दूसरा, हरियाणा में दलित उत्पीड़न की घटनाओं के विरोध में चल रहा यह आन्दोलन एक सकारात्मक कदम है। तीसरी बात, हरियाणा के सभी संगठनों को मिलाकर इससे भी बड़ा एक आन्दोलन खड़ा करने का प्रयास साथ-साथ चलना चाहिए । चौथा, भारत की राजधानी दिल्ली में भी हरियाणा के विभिन्न संगठनों की तरफ से दस्तक दी जानी चाहिए और एक बड़ा विरोध प्रदर्शन किया जाना चाहिए, ताकि केन्द्र सरकार की तरफ से हरियाणा की राज्य सरकार पर एक दबाव बनाया जा सके ।
     घटना के फलस्वरूप विभिन्न संगठनों द्वारा दिनांक 25 अप्रैल 2013 को डी.सी. कार्यालय पर प्रदर्शन के दौरान मुख्यमंत्री को दिए गए ज्ञापन में दर्जनों संगठनों की तरफ से मांग की गई है कि 1) एफ.आई.आर. में दर्ज सभी दोषी व्यक्तियों को तुरंत गिरफ्तार किया जाए; 2) इस घटना की पूर्व आशंका एवं डी.सी.पी. कार्यालय को ठोस सूचना दिए जाने के उपरान्त सुरक्षा एवं पुख्ता प्रबंध न करने के दोषी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की जाए; 3) दलित बस्ती में की गई तोड़फोड़, लुटपाट व आगजनी में हुई नुकसान की तुरन्त भरपाई करवाई जाए तथा अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 के नियमानुसार मुआवजा दिलाया जाए; 4) घटना से मौसमी कार्य में हुई क्षति की पूर्ति के लिए प्रति परिवार दस क्विंटल अनाज एवं वैकल्पिक रोजगार की तुरन्त व्यवस्था की जाए; 5) घटना में घायल व्यक्तियों की निशुल्क चिकित्सा की व्यवस्था की जाए; 6) घटना में उत्पीड़ित परिवारों की सुरक्षा की स्थाई व्यवस्था की जाए; 7) अन्तर्जातीय विवाह करने वाले दम्पत्ति को प्रोत्साहन राशि तुरन्त मुहैय्या कराई जाए; 8) अनुसूचित जाति उत्पीड़न रोकने के लिए उत्पीड़न विरोध निवारण कमेटी का जिला स्तर पर गठन किया जाए; 9) गांव के पीड़ित परिवरों से सभी दलित परिवारों के लिए शौचालय बनवाया जाए ।
इस विरोध प्रदर्शन के बाद जिलाधीश कार्यालय से टीम के सभी सदस्य करीब दोपहर डेढ़ बजे पबनावा गांव की ओर रवाना हुए । हम सभी टीम के सदस्य  दोपहर दो बजे पबनावा की दलित बस्ती के गेट के पास पहुंचे !    हमने देखा कि करीब 15-20 पुलिस वाले दलित बस्ती के प्रवेश द्वार पर मौजूद हैं, कई तो चारपाई पर लेटे आराम फरमा रहे हैं, कई अलसाए ढंग से बैठे हैं । यह तो लग ही नहीं रहा था कि इतनी बड़ी घटना के बाद ये पुलिस कर्मी दलित बस्ती की सुरक्षा के लिए अपनी ड्यूटी मुस्तैदी के साथ निभा रहे हैं । बहुत ही अनमने, अनचाहे ढंग से, जैसे कि केवल अपनी ड्यूटी निभाने के लिए यहां बैठें हैं, और वह भी एक दलित बस्ती की सुरक्षा का कार्य जैसे उनकी मजबूरी बन गया है । जब हम गेट पर पहुंचे थे तो अलसाई आँखों से उनमें से कई बैठे हुए सिपाहियों ने हमारी ओर देखा और हमने भी उनकी ऑर देखा,! जायजा लिया और आगे निकल गए । उन्होंने हमसे यह भी नहीं पूछा कि आप कौन हो और कहां से आए हो । इसलिए हमने भी जबरदस्ती बताने की कोई आवश्यकता नहीं समझी ।
  हमले की शिकार दलित बस्ती के लगभग हर घर का टीम ने मुआयना किया और बस्ती में ज्यादातर मकान खाली पड़े थे । चन्द मकानों में इक्का-दुक्का पुरुष व महिला मौजूद थे । मुआवने के साथ-साथ टीम ने जो भी लोग दलित बस्ती में मौजूद थे उनसे घटना के सम्बन्ध में पूछताछ की और जानकारी ली । करीब दस लोगों का साक्षात्कार लिया ।
घटना और उसकी पृष्ठभूमि
इस पबनावा गांव के सूर्यकान्त नामक 21 वर्षीय युवक ने, जो पास के ही एक शहर में छोटी-मोटी नौकरी करता है और चमार जाति से सम्बन्धित है, इनके पिताश्री महेन्द्रपाल जो कि एक ईंट भट्ठा मजदूर है और गरीबी रेखा के नीचे (बी.पी.एल.) के दायरे में आते हैं, ने मीना नामक 19 वर्षीय युवती, सुपुत्री श्री पृथ्वीसिंह, जो कि रोड़ जाति से सम्बन्धित है, और गरीब किसान की श्रेणी में आते हैं,ए से 8 अप्रैल 2013 को चंडीगढ़ हाई कोर्ट में विवाह कर लिया । हाई कोर्ट में इसलिए कि डिस्ट्रीक्ट कोर्ट में उनको अपनी जान का खतरा था । इस अंतर्जातिय विवाह के बदले 13 अप्रैल 2013, शनिवार, रात करीब नौ बजे रोड़ जाति के करीब 600 लोगों ने चमार समुदाय की बस्ती पर लाठी, कुल्हाड़ी, बन्दूक, देशी कट्टा इत्यादि हथियारों के साथ हमला बोल दिया । करीब 125 मकानों के दरवाजे तोड़े, घरों का सामान तोड़फोड़ डाला, कई घरों के टेलिवीजन, फ्रिज तोड़ डाले, लगभग 10 मोटरसाइकलें तोड़ दी । नरेश कुमार, सुपुत्र श्री कलीराम, ने बताया कि उनके घर का टेलीविजन व डेªसिंग टेबल तो तोड़ा ही, साथ ही करीब 29000 रुपए भी लूट कर ले गए । दर्शनसिंह ने बताया कि उनके गैस सिलेन्डर में आग लगाकर उनके मकान में विस्फोट करने का प्रयास किया, ताकि विस्फोट के बाद घर का कोई भी सदस्य बच न पाए । घरों में लगी पानी की टंकियां तोड़ डाली, नल तोड़ दिए गए, बस्ती में कई परचून की दुकानदारी कर रहे लोगों के दुकानों का सामान उठा ले गए और बाकी सामान तोड़फोड़ दिया गया ।  हमले के दौरान तीन लोगों को गंभीर चोटें आई और रोहतक के सिविल अस्पताल में उनको भर्ती कराया गया ।
पुलिस प्रशासन की भूमिका
दलित बस्ती में मौजूद दर्शन सिंह नामक युवक से हमने पूछा कि क्या घटना की आशंका की जानकारी आपको थी । जवाब में उन्होंने बताया कि दिनांक 13 अप्रैल 2013 को रोड़ जाति के समुदाय की दिन (दोपहर) में एक पंचायत हुई थी, जिसमें करबी 500 लोग मौजूद थे । उसी में दलित बस्ती पर हमले का निर्णय लिया गया था ।
मैने करीब ढाई बजे दोपहर ढ़ाड़ां गांव के थाना प्रभारी एवं डी.एस.पी. कार्यालय में फोन कर हमले की आशंका की सूचना दी । दूसरी बार मैने करीब सायं छह बजे पुनः फोन किया । उधर से जवाब मिला कि हम पुलिस कर्मी सुरक्षा हेतु भेज रहे हैं । तीसरी बार करीब साढ़े आठ बजे रात को मैने थाना प्रभारी, ढ़ाड़ां एवं डी.एस.पी. कार्यालय को फोन किया । दिनांक 13 अप्रैल 2013 को ही फोन पर पुलिस वालों ने बताया ए कि दलित बस्ती के ही एक व्यक्ति बलवंत सिंह का भी इस सम्बन्ध में फोन आया था । उसके बाद करीब 15-20 पुलिस कर्मी दलित बस्ती से दूर घूमते दिखाई दिए । जैसे वे दलित बस्ती की सुरक्षा के लिए नहीं, कोई सैर-सपाटा करने आए थे । फिर रात नौ बजे पुलिस की मौजूगदी में ही दलित बस्ती पर हमला शुरू हुआ । दर्शनपाल ने बताया कि घटना पुलिस प्रशासन, स्थानीय राजनीतिज्ञ के गठजोड़ की शह पर ही घटित हुई है ।
इस घटना के बाद गांव ढ़ाड़ां के थाना प्रभारी ने अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 के तहत मामला दर्ज कर करीब 22 लोगों को गिरफ्तार किया । प्राथमिक रिपोर्ट में कुल 52 व्यक्ति नामजद हैं । 30 व्यक्ति अभी फरार हैं । एफ.आई.आर. में धारा 148/149/333/452/427/307/395/332/353/186/120बी लगाई गई है । एफ.आई.आर. नम्बर 39, दिनांक 14 अप्रैल 2013, पी.एस. ढ़ाड़ां, जिला कैथल, थाना प्रभारी विक्रम सिंह ने मामला दर्ज किया ।
एफ.आई.आर. में बताया गया है कि चंदगीराम, पुत्र श्री छज्जूराम, जाति चमार, गांव पबनावा, उम्र करीब 65 साल ने रिपोर्ट दर्ज की है ए कि इस अन्तर्जातीय विवाह की सूचना के बाद रोड़ जाति के करीब 500-600 लोगों की 13 अप्रैल 2013 को पबनावा गांव में एक पंचायत हुई । पंचायत मंे निर्णय लिया गया कि रोड़ बिरादरी की लड़की को चमार जाति का लड़का भगाकर ले गया है, जिसमें हमारी बिरादरी की नाक कट गई है । इसी रंजिश के कारण सारी पंचायत ने फैसला कर योजनाबद्ध तरीके से हमारे मकानों पर ताबड़तोड़ हमला कर दिया और हमारे को ढे़ड, चमार, जल्लाद, कह रहे थे । हमला देशी कट्टे से लेकर लाठियों, डंडों, कुल्हाड़ियों, तलवारों से किया गया है । उपरोक्त घटना और एफ.आई.आर. के बाद युवक एवं युवती दोनों हरियाणा पुलिस के सेफ हाउस में हैं ।
इसके बाद दलित समुदाय एवं युवक के परिवार पर दबाव डाला जा रहा है कि वे इन दोनों की शादी तुड़वाकर उनकी लड़की को उनके हवाले कर दें । किन्तु चमार समुदाय ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया । श्रीमति गीता, शिक्षामंत्री, हरियाणा सरकार ने दलित परिवारों पर समझौते का भी दबाव डाला और कहा कि एक ही गांव में शादी करना ठीक नहीं होता है । घटना के पहले ही सुरक्षा कारणों की वजह से दलित परिवारों की ज्यादातर महिलाएं और बच्चे पबनावा गांव से हटाकर दूसरी जगह भेज दिए गए थे । फिलहाल पबनावा गांव में दलित परिवारों में ज्यादातर पुरुष ही मौजूद हैं । घटना के बाद दलित बस्ती के गेट पर लगभग 15-16 निहत्थे पुलिस कर्मी सुरक्षा के लिए मौजूद हैं । पबनावा गांव में गये जांच दल के एक सदस्य ने गांव के दलित समुदाय के एक व्यक्ति लक्ष्मीचंद से पूछा ए कि हरियाणा में दलित उत्पीड़न की घटनाएं निरंतर क्यों हो रही है घ् इस पर लक्ष्मीचंद का कहना है कि दबंग जातियों को कानून व्यवस्था का डर नहीं है और सरकार भी उन्हीं की है ।
घटनाक्रम के बाद दलितों को कुछ राहत सामग्री, राशन इत्यादि सरकार की ओर से भेजी गई, लेकिन दलितों ने मांग की है कि जब तक सभी आरोपी गिरफ्तार नहीं कर लिए जाते हैं, हम लोग सरकार की कोई भी राहत मंजूर नहीं करेंगे । टीम जब तथ्यों की जानकारी जुटा रही थी, तभी सरकार की तरफ से दलितों के टूटे घरों के दरवाजे बनाने के लिए दरवाजे की नाम लेते हुए कई कर्मचारी घर-घर जा रहे थे । दलित बस्ती के ही एक व्यक्ति दर्शनसिंह ने टीम को बताया कि रोड़ जाति की खेतों में मजदूरी करके गेहूं की फसल काटकर साल भर का अनाज जमा कर लेते हैं । वह हमारा नुकसान हो गया है । अब धान की खेती का समय आ रहा है । अब रोड़ जाति के लोगों के खेतों में और काम नहीं कर पाएंगे, इसलिए भविष्य में खाने के भी लाले पड़ने वाले हैं । अभी कुछ आने-जाने वाले संगठन, व एन.जी.ओ. वगैरह हम लोगों के खाने के लिए कुछ आर्थिक सहायता दे जा रहे हैं। इसलिए अभी भुखे मरने की नौबत नहीं आई है ।