सोमवार, 26 नवंबर 2012

महाप्रयोग के कुछ अनसुलझे सवाल

कॉमरेड विश्वनाथ मिश्रा का आज सुबह निधन हो गया। वे इतिहास, दर्शन, साहित्य-कला के मर्मज्ञ थे। विज्ञान के महाप्रयोग पर जनज्वार वेबसाइट के लिए कामरेड अजय के अनुरोध पर लिखा उन्होंने यह लेख लिखा था। उन्हीं की याद में उनका यह लेख यहां प्रकाशित किया जा रहा है।
                                                                  विश्वनाथ मिश्र

क्वाण्टम भौतिकी के स्टैण्डर्ड मॉडल सिद्धान्त के अनुसार विश्व के सारे प्रारम्भिक कण या तो फर्मिऑन या बोसॉन हैं .फर्मिऑन पदार्थ-कण हैं जो फर्मी-डिराक सांख्यिकी का अनुसरण करते हैं और पाउली के अपवर्जन सिद्धान्त के अनुसार दो फर्मिऑन एक ही क्वाण्टम अवस्था में नहीं रह सकते.फलतः ये पदार्थ-कणों में ‘‘दृढ़ता’’ और ‘‘कठोरता’’ प्रदान करते हैं.
god-particle-bkgrndइनके बगैर नक्षत्रों, ग्रहों, उपग्रहों आदि वैश्विक पिण्डों का विकास नहीं हो सकता था.इसके विपरीत, बोसॉन अ-पदार्थ हैं और बल-वाहक कण हैं जो बोस-आइन्स्टीन सांख्यिकी का अनुसरण करते हैं.ये फर्मिऑन के विपरीत, दो या अधिक की संख्या में एक ही क्वाण्टम अवस्था में रह सकते हैं.

अब स्टैण्डर्ड मॉडल सिद्धान्त के सामने सबसे बड़ा सवाल यह था कि फर्मिऑन कणों से पदार्थ का विकास होने के बावजूद उसमें द्रव्यमान कहाँ से आता है.अगर भौतिक जगत के पदार्थ-कणों में द्रव्यमान नहीं होता तो वे द्रव्यमानरहित प्रकाश कणों अर्थात फोटानों की भाँति प्रकाश के तीन लाख किलो मीटर प्रति सेकेण्ड के वेग से निरन्तर गति करते रहते, और तब तो इस परस्पर सम्बद्ध भौतिक जगत का विकास ही नहीं हुआ होता.

पदार्थ और उसके कणों में द्रव्यमान कहाँ से आता है - इस सवाल पर लम्बे अर्से से वैज्ञानिक मन्थन करते आ रहे थे, परन्तु कोई भी संतोषजनक समाधान प्राप्त नहीं हो पा रहा था.

इस सवाल का सैद्धान्तिक समाधान 1964 में ब्रिटिश भौतिकविद् पीटर हिग्स ने प्रस्तुत किया.उन्होंने हिग्स-बोसॉन ऊर्जा-क्षेत्र की अवधारणा प्रस्तुत की.इस अवधारणा के अनुसार समूचे ब्रह्माण्ड में ‘‘कुहासे’’ या ‘‘चिपचिपे “शीरे’’ की भाँति बोसॉन कणों का एक ऊर्जा-क्षेत्र व्याप्त है, जिनसे होकर गुजरने वाला कोई भी कण इस ऊर्जा-क्षेत्र में ‘‘भींगकर’’ द्रव्यमान ग्रहण कर लेता है, ठीक वैसे ही जैसे एक तैराक वाटरपूल में तैरते हुए भींग जाता है.

यहीं पर एक अहम् सवाल उठता है कि प्रकाश -कण या फोटान इस क्षेत्र से गुजरने के बावजूद द्रव्यमान क्यों नहीं ग्रहण कर पाते.इसके जवाब में वैज्ञानिकों का उत्तर यह है कि फोटान कण हिग्स-बोसॉन के ‘‘कुहासे’’ या ‘‘शीरे’’ के प्रति अभेद्य होते हैं, और इसी लिए द्रव्यमान नहीं ग्रहण कर पाते.

पीटर हिग्स द्वारा प्रस्तावित हिग्स-बोसाॅन क्षेत्र की सैद्धान्तिक अवधारणा से वैज्ञानिकों की सहमति के बावजूद सबसे बड़ा सवाल यह था कि क्या हिग्स-बोसॉन कणों का वास्तव में अस्तित्व है? एक लम्बे समय तक प्रयोगों द्वारा इन कणों का भौतिक अस्तित्व सिद्ध न हो सकने के चलते एक नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक लिओन लेडरमैन ने 1993 में एक पुस्तक लिखी जिसका शीर्षक दिया - ‘‘गाॅड डैम पार्टिकल’’ - अर्थात जैसे ईश्वर भ्रान्तिजनक और अबोधगम्य है, ठीक वैसे ही हिग्स-बोसॉन कण भी भ्रान्तिजनक और अबोधगम्य है.

परन्तु पुस्तक के प्रकाशक ने ‘‘डैम’’ “शब्द हटाकर सीधे ‘‘गाॅड पार्टिकल’’ छाप दिया.वैज्ञानिक विरादरी को यह परिवर्तन बहुत नागवार लगा, क्योंकि हिग्स-बोसॉन कण का ईश्वर या धर्मशास्त्र से कुछ लेना-देना नहीं था.फिर भी गैर-वैज्ञानिक मीडिया और समाज में यह ‘‘गाॅड पार्टिकल’’ “शब्द इतना लोकप्रिय हो गया कि अब ‘‘गाॅड पार्टिकल’’ “शब्द ‘‘हिग्स-बोसॉन’’ कण का पर्यायवाची ही बन गया है.

फिर भी सबसे बड़ा सवाल तो अपनी जगह पर बना ही हुआ था कि क्या ‘‘हिग्स-बोसॉन’’ का सचमुच अस्तित्व है भी या नहीं .

अन्य कई सवालों के साथ-साथ इस अहम् सवाल का उत्तर खोजने के लिए जेनेवा स्थित यूरोपियन आर्गेनाइजेशन फार न्यूक्लियर रिसर्च ( CERN) ने विज्ञान के इतिहास में अब तक के सबसे बड़े महाप्रयोग का आयोजन किया.स्वीट्जरलैण्ड और फ्रांस की सीमा पर पृथ्वी की सतह से 50 से 175 मीटर नीचे 27 किलो मीटर लम्बी और 3.8 मीटर चक्करदार सुरंग में एक महामशीन को स्थापित किया जो वास्तव में एक विशालतम् कण वेग (पार्टिकल एक्सीलरेटर) है, जिसमें हैड्रान अर्थात प्रोट्रान पुंजों की आपस में टक्कर करायी गयी.प्रोट्रान-पुंजों की टक्कर कराने वाली इस महामशीन को लार्ज हैड्रान कोलाइडर कहा गया.

अत्यन्त दुःसाध्य और जटिल प्र्रयोग और उससे प्राप्त आकड़ों के विश्लेषण के बाद विगत 4 जुलाई, 2012 को यह वैज्ञानिक घोषणा कर दी गयी कि हिग्स-बोसॉन कणों के भौतिक अस्तित्व का पता लग गया.इस प्रकार महान वैज्ञानिक पीटर हिग्स की हिग्स-बोसॉन ऊर्जा क्षेत्र के वास्तविक अस्तित्व की पुष्टि में वैज्ञानिक मुहर लग गयी.

हिग्स-बोसॉन नहीं पाया जा सकता - इस दावे के गलत सिद्ध हो जाने पर अपनी बाजी हार जाने के बावजूद महान भौतिकविद् और वैज्ञानिक चिन्तक स्टीफन हाकिन्स ने अत्यन्त उत्साहित होकर पीटर हिग्स के लिए नोबेल पुरस्कार दिये जाने की माँग कर डाली है.

हिग्स-बोसॉन के अस्तित्व का पता लग गया.क्वाण्टम भौतिकी के स्टैण्डर्ड माॅडल सिद्धान्त की एक अहम् समस्या का समाधान हो गया.फिर भी अनुत्तरित सवाल और भी हैं जिनका उत्तर स्टैण्डर्ड मॉडल सिद्धान्त को खोजना ही होगा, जैसे -
  • द्रव्यमानरहित फोटान हिग्स-बोसॉन क्षेत्र के लिए अभेद्य क्यों है ?
  • इलेक्ट्रान द्रव्यमानयुक्त होते हुए भी आकारहीन यानी व्यासहीन बिन्दु-कण यानी प्वाइण्ट पार्टिकल क्यों हैं ?
  • हिग्स-बोसॉन क्षेत्र के ‘‘कुहासे’’ या ‘‘चिपचिपे “शीरे’’ में कुछ कण कम और कुछ कण अधिक द्रव्यमान क्यों ग्रहण करते हैं ?
  • स्टैण्डर्ड मॉडल सिद्धान्त गुरूत्व की व्याख्या कैसे करेगा ? 
  • स्टैण्डर्ड मॉडल सिद्धान्त ‘‘डार्क मैटर’’ की व्याख्या कैसे करेगा, जो ब्रह्माण्ड का 5 /6 भाग ग्रहण किये हुए हैं ? स्टैण्डर्ड मॉडल क्वार्कों, इलेक्ट्रानों और अन्य कणों के अलग-अलग द्रव्यमानों की व्याख्या कैसे करेगा ? 
ऐसे अनेकानेक सवाल हैं जो स्टैण्डर्ड मॉडल की पूर्णता के लिए व्याख्या की अपेक्षा करते हैं.
वस्तुतः विज्ञान जब तक एक समस्या का समाधान करता है तब तक कई सवाल मुँह बाये खड़े हो जाते हैं.शायद इसी से ज्यार्ज बर्नार्ड शा ने झल्लाकर कह दिया था - ‘‘विज्ञान झूठा है, यह एक समस्या हल करता है, और दस नयी समस्याएँ पैदा कर देता है.’’
परन्तु विज्ञान की महायात्रा झल्लाहट की नहीं, बल्कि निरन्तर आगे बढ़ने की है.

शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

नौसेना विद्रोह-हंगल साहब-गांधी जी

सुरेन्द्र मनन का यह स्मृतिरेख कथन पत्रिका में छपा है. इसमें ए के हंगल ने नौसेना विद्रोह के दौर के राजनीतिक-सामाजिक माहौल पर विस्तार से और बहुत रोचक तरीके से बात की है. यहाँ यह लेख पत्रिका की सम्पादक की अनुमति से साभार...




वह विद्रोह एक वर्ग-संघर्ष था
ए. के. हंगल
प्रस्तुति: सुरेंद्र मनन
ए. के. हंगल (पूरा नाम अवतार कृष्ण हंगल) थिएटर को समर्पित एक कलाकार, इप्टा के सक्रिय सदस्य, सुपरहिट फिल्मों के सफल चरित्र अभिनेता और अपने सरल-सौम्य व्यक्तित्व के कारण फिल्म इंडस्ट्री में ‘हंबल साहब’ के तौर पर जाने जाते थे। लेकिन उनके व्यक्तित्व का एक अन्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण पक्ष भी था, जिसके बारे में कम लोग जानते हैं। वह पक्ष है उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता। आजादी से पहले अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी के वे कर्मठ सदस्य थे और जन-आंदोलनों में उनकी सक्रिय भागीदारी रही। भारत विभाजन के बाद कराची से वे बंबई आ गये और इप्टा आंदोलन को पुनर्जीवित करने में उन्होंने प्रमुख भूमिका निभायी। फिल्म जगत में इतने वर्ष बिताने के बाद भी उनकी प्रतिबद्धता कायम रही। 

रायल इंडियन नेवी में 1946 में हुआ विद्रोह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का ऐसा विस्फोटक अध्याय है, जिसे अंग्रेजी हुकूमत ने दबाने, गलत ढंग से व्याख्यायित करने और नष्ट कर देने का हर संभव प्रयास किया। स्वतंत्र भारत में भी विभिन्न कारणों से यह अध्याय अनछुआ ही रहा और इतिहास में इस विद्रोह का सरसरी तौर पर ही वर्णन मिलता है, जबकि नौसैनिकों के इस क्रांतिकारी संघर्ष के बाद ही अंग्रेज यह समझ पाये कि उनके साम्राज्य की नींव हिल चुकी है और अब हिंदुस्तान में उनका और अधिक टिके रह पाना संभव नहीं।

इस विषय पर केंद्रित फिल्म बनाने के सिलसिले में मैं कुछ ऐसे व्यक्तियों की तलाश में था, जो नौसेना विद्रोह के चश्मदीद गवाह रहे हों। विद्रोह के समय हंगल साहब कराची में थे और न केवल उन घटनाओं को उन्होंने करीब से देखा था, बल्कि नौसेना के उस क्रांतिकारी कदम का खुलकर समर्थन भी किया था। मैंने उनसे संपर्क किया, तो अत्यंत व्यस्त होने के बावजूद फिल्म के लिए इंटरव्यू देने को वे तुरंत राजी हो गये। साक्षात्कार का समय एक घंटा तय हुआ था, लेकिन उस समय और उस दौर को याद करते हुए हंगल साहब स्मृतियों में इतने खो गये कि बातचीत तीन घंटे तक खिंच गयी। यहाँ उस साक्षात्कार में हंगल साहब द्वारा कही गयी बातों को उनके संक्षिप्त वक्तव्य के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। उनका यह वक्तव्य भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में नौसेना विद्रोह के महत्त्व और तात्कालिक राजनीतिक परिस्थितियों के बारे में हंगल साहब की सोच और समझ को रेखांकित करता है।--सुरेंद्र मनन




आपने फोन पर जब मुझसे रायल इंडियन नेवी में हुई बगावत के बारे में बात की, तो उस समय मैं शूटिंग पर जाने के लिए तैयार हो रहा था। मैं एकदम चैंका और मुझे हैरानी हुई कि यह कौन है, जो इतना अरसा गुजर जाने के बाद इस बगावत के बारे में न सिर्फ बात कर रहा है, बल्कि फिल्म भी बनाना चाहता है। मुझे हैरानी इसलिए हुई कि इस बगावत को तो चाहे अंग्रेजी सरकार हो या आजाद हिंदुस्तान की सरकार, एक साजिश कहकर उसे भुला देना चाहती थी। फिर इस पर फिल्म कैसे बन रही है? तो यूँ समझिए कि मैं खुद आपसे मिलना चाहता था। उस दिन शूटिंग करने के बाद जब मैं सेट पर बैठा आराम कर रहा था, तो वे सब बातें याद आने लगीं। उसके बाद हर रोज वही खयाल आने लगे। बहुत-से किस्से हैं उस बगावत से जुड़े। आप इस पर रिसर्च कर चुके हैं, तो जानते होंगे कि बगावत की शुरुआत यहीं बंबई से हुई थी। ‘तलवार’ से, जो रायल इंडियन नेवी का सिग्नल स्कूल था। उसके बाद बगावत एक जहाज से दूसरे जहाज और रायल इंडियन नेवी के एक बेस से दूसरे बेस तक आग की तरह फैल गयी।
रायल इंडियन नेवी में जो बगावत हुई, उसकी ऊपरी तौर पर और फौरी वजह यह थी कि हिंदुस्तानी जहाजियों की कुछ माँगें थीं--अच्छा खाना, बेहतर सर्विस कंडीशंस और अंग्रेज अफसरों की जो बदसुलूकी थी, उसकी मुखालफत। लेकिन असल वजह यह नहीं थी। असल कारण दूसरे थे, इससे बड़े थे।
उस समय की दुनिया का हम जायजा लें, तो देखेंगे कि बड़े उथल-पुथल का दौर था वह। दूसरे विश्व युद्ध के खत्म होने से फासिज्म का खात्मा हुआ और इस स्थिति ने समाजवादी ताकतों और पश्चिमी जनतांत्रिक ताकतों को विजय दिलवायी थी। सोवियत संघ ने गठबंधन के सामने यह बात रखी थी कि अगर हमारी जीत होती है, तो हमारा यह फर्ज बनता है कि गुलाम देशों को आजादी दिलवाने में मदद करें। जनतांत्रिक ताकतों को विश्व युद्ध में जब जीत हासिल हुई, तो दुनिया भर में उस जीत का असर यह हुआ कि जितने गुलाम देश थे, उन्हें यह उम्मीद बँधी कि अब वे भी आजाद हो जायेंगे। हम हिंदुस्तानियों को भी यह लगने लगा कि अब आजादी दूर नहीं और अंग्रेजों की गुलामी से जल्द ही हमें मुक्ति मिलने वाली है। अंग्रेजों के डेलिगेशन हिंदुस्तान आते, तो जनता को तरह-तरह की उम्मीदें बँधतीं। 
दूसरी बात, जिसे लोग भूल जाते हैं, या जान-बूझकर जिसका जिक्र नहीं करते, या नहीं करना चाहते, वह यह कि हिंदुस्तान में उस समय कामगार वर्ग का आंदोलन बहुत जोरों पर था। बंगाल में किसान आंदोलन, दक्षिण भारत में अनेक प्रगतिशील और सांस्कृतिक आंदोलन जोरों पर थे। जगह-जगह हड़तालों, जुलूस, बेचैनी और गुस्से का माहौल था। इस सबके अलावा आजाद हिंद फौज के बंदियों को छुड़वाने के लिए देश भर में जनता ने जिस तरह से प्रदर्शन किये, उससे अंग्रेज हुकूमत जहाँ एक ओर डरी हुई थी, वहीं वह बहुत हिंसक भी हो उठी थी। तो यह ऐसा समय था कि छोटी-सी चिंगारी से भी आग भड़क सकती थी। ऐसे माहौल में राॅयल इंडियन नेवी के हिंदुस्तानी जहाजियों ने बगावत कर दी। वह बगावत थी तो एक चिंगारी, लेकिन उसका नतीजा बहुत बड़ा था। 
यहाँ मैं एक और बात का जिक्र करना चाहता हूँ कि बदनसीबी से उस समय हिंदुस्तान की जनता तीन धाराओं में बँटी हुई थी। एक धारा थी कांग्रेस के पक्ष में, दूसरी मुस्लिम लीग, जो विभाजन चाहती थी, और चाहती थी कि पाकिस्तान बने, और तीसरी कामगार वर्ग की धारा--जो धर्मनिरपेक्ष ताकतों का आंदोलन था, कम्युनिस्ट आंदोलन था। लेकिन तीनों धाराओं की जनता अंग्रेजों के खिलाफ भड़की हुई थी। नेवी में जब बगावत हुई, तो जहाजियों ने हर बेस पर अपने जहाजों पर तीन झंडे फहराये--कांग्रेस, मुस्लिम लीग और कम्युनिस्ट पार्टी के। यूनियन जैक उन्होंने उतार फेंका था। उनका मकसद यह था कि देश की जनता जब ये तीनों झंडे देखेगी, तो उन्हें सब धाराओं का समर्थन हासिल होगा। और वे ठीक ही थे। क्योंकि ऐसा ही हुआ। देश भर की जनता आपसी भेदभाव भूलकर जहाजियों के समर्थन में सड़कों पर उतर आयी। फ्लोरा फाउंटेन पर जबर्दस्त प्रदर्शन हुए। सारा बंबई शहर बंद। सेना और जनता दोनों की यह एकता जो अंगे्रजों के खिलाफ इस बगावत में बनी, यह अभूतपूर्व वाकया था। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। हाँ, गदर के समय ऐसा हुआ था, लेकिन उसके बाद यह एकता अब बनी थी। उस समय बंबई में मेरे आर्टिस्ट मित्र थे चित्तो प्रसाद। उन्होंने इस बगावत को अपने रेखांकनों में उतारा कि कैसे नेवी के जवान जंजीरें तोड़कर अंग्रेजों के खिलाफ उठ खड़े हुए और अंग्रेज हुकूमत ने कैसे उन पर और हिंदुस्तानी जनता पर अत्याचार किये। 
मैं उस समय कराची (अब पाकिस्तान) में था और छोटा-मोटा कम्युनिस्ट लीडर था। टेªड-यूनियन आंदोलन में सरगर्म था। हमने जब रेडियो पर इस बगावत की खबर सुनी, तो कराची बंद की काल दे दी। आप हैरान होंगे यह जानकर कि हम सिर्फ बीस-पच्चीस लड़के थे, लेकिन जब काॅल दी, तो सारा कराची शहर बंद! एक पान वाले तक की दुकान न खुली। शाम को हमने ईदगाह मैदान में मीटिंग रखी थी। हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी--सब ईदगाह मैदान पहुँचे। मुझे यह कहते हुए अफसोस हो रहा है कि मुख्यधारा की जो पार्टियाँ थीं, उनके लीडरान को यह बात पसंद न थी कि जाति-धर्म-पार्टी भुलाकर जनता इस तरह से एकजुट हो। कांग्रेस और लीग के नेता भी इस मीटिंग में आये। उन्होंने मीटिंग बर्खास्त करवाने की कोशिश की और कहा कि ऐसी मीटिंग करने से अंग्रेज हुकूमत तक गलत संदेश जायेगा। मुझे अच्छी तरह याद है कि पब्लिक ने हूट किया, गो बैक के नारे लगाये और उन लीडरों को वहाँ से चले जाने पर मजबूर कर दिया। बाद में धड़धड़ाती हुई पुलिस पहुँच गयी। उसने भीड़ पर गोली चला दी। हर तरफ अफरा-तफरी मच गयी। दर्जन भर लोग इस हादसे में मारे गये। मैं बाल-बाल बचा। 
ऐसा ही एक और वाकया मुझे याद है, जब पेशावर में गोली चली और खून से लथपथ मैं घर पहुँचा था। अब्दुल गफ्फार खान और गांधी की गिरफ्तारी के विरोध में तब एक जुलूस निकाला गया था। जुलूस में ज्यादातर पठान थे। माँग यह थी कि खान और गांधी को रिहा किया जाये। किस्साखानी बाजार में जब यह सब हो रहा था, तो पुलिस आ पहुँची। पुलिस हालात पर जब काबू न पा सकी, तो फौज को बुलाया गया। पहली ट्रक जो फौज की आयी, वह थी गढ़वाली रेजीमेंट। उसे गोली चलाने का हुक्म दिया गया। उन्होंने बंदूकें उठायीं, सामने देखा और बंदूकें नीचे रख दीं। कहा कि ये निहत्थे लोग हैं, हम इन पर गोली कैसे चला सकते हैं। इस रेजीमेंट का नेता था चंद्रसिंह गढ़वाली। उस समय यह बहुत बड़ी बात थी कि अंग्रेज अफसरों की कोई हुक्मउदूली करे, वह भी फौज में। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और कोर्टमार्शल के बाद 14-14 साल की सजा दी गयी। 
चंद्रसिंह गढ़वाली मेरा बहुत बड़ा प्रेरणास्रोत रहा कि उस समय वह इतनी हिम्मत कर सका। हमारे इतने राष्ट्रीय सम्मान हैं, पुरस्कार हैं--पद्म विभूषण, पद्म भूषण, पद्म श्री, रत्न और जाने क्या-क्या। लेकिन चंद्रसिंह गढ़वाली के नाम कोई सम्मान नहीं। बदनसीबी से हमारे नेताओं का इस तरफ ध्यान नहीं जाता। पेशावर में यह जो कांड हुआ, उस पर गांधी जी का इंटरव्यू लंदन के एक अखबार में छपा। जब उनसे पूछा गया कि चंद्रसिंह गढ़वाली ने गोली चलाने से जो इनकार किया, उस पर उनकी क्या राय है, तो आप हैरान होंगे यह जानकर कि गांधी जी का जवाब था कि उसे अपनी ड्यूटी करनी चाहिए थी। 
इन घटनाओं का जिक्र मैं आजादी के आंदोलन के दौरान हिंदुस्तानी जनता का जो जज्बा था और नेताओं का जो रवैया था, वह बताने के लिए कर रहा हूँ। 
रायल इंडियन नेवी में जो बगावत हुई, उसे भी कांग्रेस हो या मुस्लिम लीग, दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं ने, आम जनता ने, खुलकर समर्थन दिया, अपना खून बहाया, लेकिन नेताओं ने उस बगावत का समर्थन नहीं किया। सवाल उठता है कि ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि नेवी की बगावत हो या दूसरे आंदोलन--यह सब एक राष्ट्रीय संघर्ष तो था ही, लेकिन साथ-साथ वर्ग-संघर्ष भी था। दोनों का मिश्रण था हमारी आजादी की लड़ाई में। अलग-अलग जगहों पर हो रहे इन आंदोलनों की बागडोर कामगार वर्ग के हाथों में जा रही थी। कम्युनिस्ट ताकतों के हाथ में जा रही थी। और हो सकता था कि इंकलाब आ जाता। भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव की शहादत को जनता भूल नहीं सकती थी। मुझे याद है, जिस दिन भगत सिंह को फाँसी दी गयी, पेशावर में पठान फूट-फूटकर रो रहे थे और मैं बयान नहीं कर सकता कि कैसा रोष और गुस्सा था वह। 
तो मैं कह रहा था कि अगर बागडोर कामगार वर्ग के हाथों में आ जाती, तो इंकलाब हो जाता। उस इंकलाब में आजादी का मतलब था कामगार वर्ग की आजादी। तो जाहिर है, मुख्य पार्टियों की लीडरशिप तो कामगार वर्ग की थी नहीं। वह थी उच्च वर्ग और मध्य वर्ग की। इसलिए ऐसे आंदोलनों के लिए उनकी ‘लिप सिंपैथी’ तो थी, जो उनकी मजबूरी थी, लेकिन असल में समर्थन नहीं था। इस तरह उनका दोगला चरित्र था। नेवी में हिंदुस्तानी जहाजियों ने जो बगावत की, उसके साथ भी यही हुआ। न कांग्रेस, न लीग की लीडरशिप ने उसे समर्थन दिया। और अंग्रेजों ने बेरहमी से बगावत को कुचल दिया। 
हम जानते हैं कि आजादी के बाद भी उन जहाजियों को, जिन्होंने बगावत में हिस्सा लिया था, वापस नेवी में नहीं लिया गया। आजाद हिंद फौज के जवानों को भी भारतीय सेना में वापस नहीं लिया गया। विडंबना देखिए कि नेवी के सेलर्स को तो स्वतंत्रता सेनानियों का दरजा तक नहीं मिला, जबकि नेवी में हुई बगावत के कारण ही अंग्रेजों को लगा कि अब वे हिंदुस्तान में नहीं टिक पायेंगे और आजादी दिलवाने में इस बगावत का बहुत बड़ा योगदान रहा। 
साभार -
http://jantakapaksh.blogspot.in

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

माननीयों को हथियारबंद कर रही सरकार

देवेन्द्र   प्रताप 
सांसदों को सरकार की ओर से बेचे गए जब्तशुदा हथियारों के बारे में आरटीआई कार्यकर्ता अमरीष पांडे द्वारा मांगी गई सूचना ने हर संवेदनशील और वतन से प्रेम करने वो व्यक्ति को अंदर से झकझोर कर रख दिया है। कस्टम की ओर से उपलब्ध कराई गई सूचना के अध्ययन से ऐसा लगता है कि माननीयों को या तो सरकार की ओर से दी जाने वाली सुरक्षा पर  भरोसा नहीं रह गया है या फिर सरकार माननीयों को हथियारबंद करने पर तुली हुई है। जो भी  हो हमारे देश के माननीयों में फिलहाल खुद को हथियारबंद करने की होड़ सी मची हुई है। वह भी ऐसे वैसे हथियारों से नहीं, बल्कि खतरनाक कोटि के हथियारों से। वर्ष 2002 में इन जब्तशुदा हथियारों के बारे में लिए गए एक नीतिगत निर्णय के अनुसार इन हथियारों को सिर्फ सांसदों को ही बेचा जा सकता है। सांसदों को बेचे जाने वाले इन हथियारों  में कुछ हथियार ऐसे हैं, जो ‘खतरनाक’ कोटि में रखे गए हैं। 
जनप्रतिनिधियों को लेकर मतदाताओं को जागरूक करने वाले संगठन एडीआर के अनुसार 1987 से 2012 के बीच वीआपी और सांसदों को कुल 756 ऐसे हथियार बेचे गए। इसी तरह 1987 से 2001 के बीच इन्हें 675 हथियार बेचे गए, इनमें से 39 हथियार 2001 से 2004 के बीच, जबकि 42 हथियार 2005 से 2012 के दरमियान बेचे गए। 2001 से 2012 के बीच 82 माननीयों ने सरकार से अपनी सुरक्षा के नाम पर हथियार खरीदे। इनमें से 18 ऐसे सांसद हैं, जिनके ऊपर हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण समेत विभिन्न आपराधिक धाराओं में मुकदमे दर्ज हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि जब ये सांसद का चुनाव लड़ रहे थे, तब भी  इनके ऊपर इस तरह के आपराधिक मुकदमे चल रहे थे, लेकिन मतदाताओं ने इन्हें अपना जनप्रतिनिधि चुना। सबसे ज्यादा आश्चर्य तो तब होता है, जबकि सरकार ने यह जानते हुए भी कि इन माननीयों के ऊपर आपराधिक श्रेणी के मुकदमे चल रहे हैं, लेकिन उसने इसकी परवाह किए बिना माननीयों को हथियार बेचा।
इन माननीयों में से उ.प्र. के सांसद अतीक अहमद के ऊपर आपराधिक धाराओं में तकरीबन 44 मुकदमे दर्ज हैं। इसी तरह महाराष्ट्र के अबू आजिम और उ.प्र. के राकेश सचान के ऊपर हत्या और अपहरण जैसे संगीन अपराधों के सात मुकदमे चल रहे हैं। इसके बावजूद सरकार ने इन माननीयों को हथियारों की बिक्री की। कस्टम विभाग  ने माननीयों को हथियारों की बिक्री ‘पहले आओ, पहले पाओ’ के आधार पर की। आश्चर्यजनक बात तो यह है कि शुरुआत में ये हथियार बाजार दर से भी बेहद कम कीमत पर बेचे गए। ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि आखिर सरकार अपने सांसदों के आचरण को ठीक करने के बजाय, कहीं उसे बढ़ावा तो नहीं दे रही है?
सांसदों को बेचे गए कुछ ‘खतरनाक’ कोटि के हथियारों की बिक्री वित्त मंत्रालय के आदेश के बिना नहीं की जा सकती। एक तरफ सांसदों को सरकार इस तरह हथियारबंद कर रही है, वहीं दूसरी ओर अगर जनता के पास हथियार रखने का लाइसेंस है भी, तब भी उसे आत्मरक्षा के लिए इन हथियारों को खरीदने का कोई अधिकार नहीं। भी ही उसका आचरण कितना भी साफ-सुथरा क्यों न हो। आखिर जनता द्वारा चुनी गई सरकार के इस दोहरे व्यवहार की वजह क्या है?
हथियारों की खरीद करने वाले जाने-माने सांसद
सय्यद शहाबुद्दीन, जयंती नटराजन, अकबर अहमद डंपी, मार्गरेट अल्वा,  विनय कटियार, उमा भारती, जगदीश टाइटलर, एसएस अहलूवालिया, विनय गोयल, बीरभद्र प्रताप सिंह, भूपिंदर सिंह हूडा, योगी आदित्यनाथ, केपी सिंह देव, स्वामी योगानंद, एमएस गिल (पूर्व सीईसी, ये उस समय सांसद नहीं थे), विनय कुमार मल्होत्रा, सतपाल सिंह यादव (दो से ज्यादा बंदूकें), विनोद खन्ना, अरुण सिंह, कल्याण सिंह, मदन लाल खुराना, सय्यद शाहनवाज हुसैन, वसुंधरा राजे सिंधिया, सीके जाफर शरीफ, जितेंद्र प्रसाद, कल्याण सिंह कल्वी, शिबू सोरेन, मो. शहाबुद्दीन, मायावती, माधवराव सिंधिया, राशिद अल्वी, दिग्विजय सिंह, कमल मोरारका, अबू आजमी, रेनुका चौधरी, भानु प्रताप सिंह, अतीक अहमद, तस्लीमुद्दीन, बाबूलाल मरांडी आदि।
कुछ गंभीर सवाल
माननीयों को सरकार की ओर से हथियारों की बिक्री करने पर कई महत्वपूर्ण सवाल खड़े होते हैं-
-जबकि सभी सांसदों को पहले ही सुरक्षा गार्ड उपलब्ध हैं, तो ऐसे में उन्हें जब्तशुदा हथियारों को बेचने का तुक क्या है?
-जबकि कई सांसदों, जिनमें से 13 के ऊपर गंभीर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं, तो ऐसे में उन्हें हथियार क्यों बेचे गए?
-हथियारों की बिक्री के मामले में एक सामान्य नागरिक के साथ भेदभाव क्यों, जबकि उसने अपनी सुरक्षा के लिए हथियार रखने का लाइसेंस भी ले रखा हो। वैसे भी उसे सरकार की ओर से कोई सुरक्षा भी नहीं उपलब्ध करवाई जाती।
-आखिर सांसदों और वीआईपी लोगों को ऐसे खतरनाक कोटि के (आटोमेटिक और सेमी आटोमेटिक) क्यों बेचे गए है? जबकि, सभी जानते हैं कि इस तरह के हथियार या तो सेना करती है या फिर आतंकवादी और अतिवादी संगठन।
सांसद/वीआईपी                                        हथियार                                                               खरीद तिथि                 कीमत
अतीक अहमद (सांसद, यूपी)               रगर राइफल, एम 77 मार्क 11, 30.06एमएम782-22893     08.12.2006                3,15,000
अबू असीम आजमी (सांसद, महाराष्ट्र)    9एमएम पिस्टल, पीपीके,380 बोर 156987                       03.10.2005               30,0000
राकेश सचान (सांसद, यूपी)                  पी बेरेट्टा पिस्टल                                                       04.06.2010              21,0000
अफजल अंसारी (सांसद, यूपी)             32 बोर पिस्टल                                                            14.12.2004               15,0000
ब्रिजेश पाठक (सांसद, यूपी)              7.65 एमएम सीजेच पिस्टल 047251                                 16.06.2005              80,000
कपिल स्वामी                                 रगर रिवाल्वर, .357 मैग्नम                                             12.04.2012               95,000
राजेश पांडे                                     एस एंड डब्ल्यू रिवाल्वर, कार्ल.-.44 एलआर                         28.11.2001                10,0000
आरके सिंह पटेल                             ब्राउनिंग पिस्टल, .32 बोर                                                21.03.2012                21,5000
धर्मराज सिंह                                  .32 रिवाल्वर                                                                    21.05.2002               23,800
एस. सैदुज्जमान                              7.65एमएम, वाल्टर पिस्टल                                             22.12.2003               10,0000
यशवीर सिंह                                    कार्ल वाल्दर पिस्टल 9 एमएम कुर्ज                                     24.05.2010              21,5000
बब्बन राज•ार                               30.6 राइफल                                                                 21.11.2001                56,392
प्यारेलाल शंखवार                            .22 बोर रिवाल्वर                                                            04.12.2002                7835
त्रि•ाुवन दत्त                                .32 बोर रिवाल्वर                                                            31.03.2003              70060
राशिद अल्वी                                 7.65 एमएम वाल्दर पिस्टल                                             28.11.2003              10,0000
श्रीप्रकाश जायसवाल                       7.65एमएम वाल्दर पिस्टल                                             16.07.2004                1,30,000
योगानंद शास्त्री                             .32 एस एंड डब्ल्यू रिवाल्वार, एस.नं. बीएमए 6714               15.04.2005                14,000
कीर्तिवर्धन सिंह                            कार्ल वाल्दर .380 बोर, पीपीके/एस, 9एमएम कुर्ज, 156949     19.04.2005                30,0000
जनार्दन द्विवेदी                             .32 एस एंड डब्ल्यू रिवाल्वर, एस. नं. एच 135724                  07.08.2005               145000
राजेश कुमार मिश्रा                       7.65 एमएम कार्ल वाल्दर पिस्टल, पीपीके 184004                   20.10.2005               175000
शैलेंद्र कुमार                               एस एंड डब्ल्यू रिवाल्वर                                                        07.02.2010             270000
टीआर प्रसाद                             7.65एमएम पिस्टल                                                              21.10.2002              62,445

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

मारुति, मानेसर के घटनाक्रम के बाबत कुछ सवाल


मारुति सुजुकी इण्डिया लिमिटेड के मानेसर स्थित संयंत्र में बुधवार को हिंसा भड़क जाने के अगले दिन यानी बृहस्पतिवार को सारे दिन पुलिस द्वारा एकतरफा तौर पर मजदूरों की गिरफ्तारियों का सिलसिला जारी रहा और 24 x 7 समाचार माध्यमों में हिंसा के लिए लगभग एकतरफा तौर पर मजदूरों को ही दोषी ठहराने का क्रम भी जारी रहा।
उस दिन देर शाम तक कुल 91 मजदूरों को हिरासत में लिया जा चुका था जिसमें यूनियन के निकाय के बहुत सारे सदस्य भी शामिल थे। इन पर हत्या की कोशिश और सम्पत्ति के नुकसान का आरोप लगाया गया है। मारुति सुजुकी इण्डिया लिमिटेड की और से 3,000 कामगारों के खिलाफ प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की गयी है जिसमें 55 लोगों को नामजद किया गया और उन सबके खिलाफ भारतीय दण्ड संहिता की 307, 302, 147 और 149 धाराओं के अन्तर्गत वारण्ट जारी किया गया है। पुलिस सभी 3,000 कामगारों की तालाश कर रही है। 
घटना के तीसरे दिन यानी आज शुक्रवार को नयी गिरफ्तारियाँ नहीं हुईं और गिरफ्तार मजदूरों को 14 दिनों के पुलिस हिरासत में भेज दिया गया। हरियाणा के मुख्य सचिव के आदेश से एक पुलिस उपायुक्त के नेतृत्व में कल एक विशेष जाँच दल का गठन किया गया था जिसने आज घटना की पुलिस जाँच का कम शुरू कर दिया है। 
चूँकि बुधवार की घटनाक्रम में मारुति सुजुकी इण्डिया लिमिटेड के एक महा प्रबन्धक (मानव संसाधन) की दुर्भाग्यजनक मृत्यु हो गयी है अतः पुलिस इस पूरे घटनाक्रम को एक द्विपक्षीय विवाद मान कर सिर्फ एक पक्ष द्वारा किये गए एक आपराधिक कृत्य के तौर पर ले रही है। यह बात हरियाणा के पुलिस महानिदेशक आर एस दलाल द्वारा कल घटना स्थल पर दिए गए इस बयान से भी सपष्ट है जिसमें उन्होंने दोषियों को बख्शे जाने और उनके खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई करने की बात कही है। 
लेकिन इस सरे हल्ले गुल्ले और मृत अधिकरी के प्रति उमड़े स्वाभाविक सहानभूति की लहर के बीच मजदूरों को ही सब कुछ के लिए दोषी तो ठहराया जा रहा है लेकिन कोई यह सवाल नहीं कर रहा कर रहा है कि बुधवार को संयंत्र परिसर में जो हिंसा का तांडव हुआ उसे शुरू किसने किया? यदि तनाव का कारण सुबह ही पैदा हो गया था तो कम्पनी प्रशासन में उसे तुरन्त ही क्यों रफा दफा नहीं किया और क्यों शाम तक उसे परवान चढ़ने दिया? किस वजह या किन वजहों से मामला इस हद तक पहुँच गया कि उसका यह भयंकर परिणाम सामने आया? यदि यह मान भी लिया जाय कि सारा कसूर मजदूरों का ही है तब भी यह सवाल बचा रह जाता है कि क्या कारण है कि वे मजदूर जो हाड़तोड़ मेहनत के बल पर अपनी रोजी रोटी कमाने के लिए फैक्टरी में आते है, अचानक इतने निराशोंमत्त और उग्र हो गए कि उन्होंने अपने रोजी-रोटी, घर-परिवार और भविष्य कि चिंताओं को ताख पर रख दिया और मरने मारने पर उतारू हो गए
यही मारुति सुजुकी इण्डिया लिमिटेड के मानेसर संयंत्र में बुधवार के दुर्भाग्यजनक घटनाक्रम से पैदा होने वाले ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब ढूँड़ कर ही हम ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोक सकते हैं। अन्यथा इस घटनाक्रम को एक आद्योगिक विवाद कि चरम परिणति समझ कर सिर्फ आपराधिक कृत्य समझने से दूसरों के निहित उद्देश्यों और कृत्यों के निमित्तमात्र बने कुछ मजदूरों को सजा तो दिलवाई जा सकती है लेकिन कोई वास्तविक लाभ नहीं हो सकता है। 

आखिर ये वही मजदूर हैं जिन्होंने एक निहायत ही बुनियादी किस्म के संविधानसम्मत अधिकार की माँग के लिए पिछले वर्ष बहुत ही शान्तिपूर्ण और निहायत ही अनुशासित ढंग तीन चरणों में करीब पाँच महीनों तक आन्दोलन चलाया। उस दौरान उन्होंने बार बार निलम्बन, बर्खास्तगी और प्रबन्धन का अनेकों प्रकार का उत्पीड़न झेला लेकिन अपना धैर्य, एकता और अनुशासन नहीं खोया। क्या कारण है की वे ही मजदूर अब इतने निराशोंमत्त और उग्र हो कर आपा खो बैठे
जून 2011 के पहले चरण में वे 13 दिनों तक भूखे प्यासे फैक्टरी परिसर के अन्दर बैठे रहे और फैक्टरी प्रबन्धन ने पानी और पेशाबघर तक बन्द कर दिए थे लेकिन वे बिना किसी उत्तेजना के शान्तिपूर्ण धरना देते रहे। 
29 अगस्त को कम्पनी प्रबन्धन द्वारा बेवजह और एकतरफ़ा तौर परगुड कण्डक्ट बाण्डथोपे जाने के माध्यम से जो संकट खड़ा किया गया, उसके खिलाफ शुरू हुए आन्दोलन के अगले चरण में भी उन्होंने वैसे ही धैर्य और सहिष्णुता का परिचय दिया और रोज अपनी अपनी पाली के हिसाब से धरनास्थल पर उपस्थित होते रहे। लेकिन कम्पनी प्रबन्धन का रवैया इसके ठीक विपरीत था। हड़ताली मजदूरों से सम्मानपूर्वक उनकी समस्यायों पर बातचीत करने की जगह वह उनकी एकता को तोड़ने और उन्हें धोखा देने की कोशिश करता रहा। हालाँकि वे संघर्षरत मजदूरों की एकता को तो नहीं तोड़ सके लेकिन उन्हें थका जरूर दिया। थक हार कर आख़िरकार जब मजदूरों नेगुड कण्डक्ट बाण्डपर हस्ताक्षर करने की बात मान कर समझौता कर लिया तब भी कम्पनी प्रबन्धन ने उनकी समस्याओं को समझाने और उनसे सम्वाद कायम करने की जगह उनसे बदला लेने और उनकी लौह एकता को तोड़ने की कोशिश में लगा रहा। 
इसके चलते चाहते हुए भी मारुति सुजुकी इण्डिया लिमिटेड के मानेसर संयंत्र के मजदूर 3 अक्टूबर से 21 अक्टूबर तक संघर्ष के अन्तिम चरण में उतरे। लेकिन तब तक कम्पनी प्रबन्धन के कुटिल हथकण्डे पूरी तरह बेनकाब हो चुके थे। हड़ताल के इस अन्तिम चरण में प्रदर्शित एकजुटता और जुझारूपन की भावना ने केवल मानेसर में बल्कि गुडग़ाँव, धारुहेड़ा, बावल और रेवाड़ी के पूरे औद्योगिक क्षेत्र में संघर्ष और एकजुटता की एक नई चेतना का निर्माण कर दिया। इलाके की मजदूर आबादी के समर्थन और सुजुकी के स्वामित्व वाली तीन अन्य इकाइयों के मजदूरों के हड़ताल में शामिल होने के चलते जब मारुति सुजुकी में उत्पादन पूरी तरह ठप्प हो गया तभी जाकर कम्पनी प्रबन्धन हरियाणा सरकार की मध्यस्तता में समझोते के मेज पर पहुची। 
इसके पहले हुए दो समझौतों की तरह 21 अक्तूबर को हुए इस त्रिपक्षीय समझौते को भी कभी मारुति सुजुकी के प्रबन्धन ने उसके शब्दों या भावना, किसी भी रूप में, लागू करने की कोई कोशिश नहीं की। उस समझौते के कुछ ही दिनों बाद यह पता चला की इसके अन्तर्गत तत्कालीन यूनियन के नेतृत्व के जिन ३० लोगों को जाँच के लिए निलम्बित रखा गया था उन्हें प्रबन्धन नेफुल एंड फाइनल सेटलमेंटके नाम मोटी धनराशियाँ देकर कम्पनी से इस्तीफ़ा देने को मजबूर कर दिया है। 
इस तरह मारुति सुजुकी इण्डिया लिमिटेड के मानव संसाधन प्रबन्धन विशारदों ने यह सोचा कि उन्होंने मानेसर संयंत्र में श्रम विवाद के अन्तिम निपटारे का तुरुप का पत्ता चल दिया है। बुधवार के घटनाक्रम ने यह साबित कर दिया कि वे कितने घातक रूप से गलत थे। अपने इस अनुचित और अनैतिक कृत्य से उन्होंने, एक ओर तो, मजदूरों पास थोड़े बहुत अनुभवों वाला जो भी नेतृत्व था, उन्हें उससे वंचित कर दिया, वहीँ दूसरी ओर मजदूरों के साथ विश्वास का सम्बन्ध कायम करने का अन्तिम अवसर अपने हाथ से गवाँ दिया। 
लेकिन इस कृत्य से पिछले आन्दोलन द्वारा अर्जित एकता को तोड़ा नहीं जा सका हालाँकि उसमें थोड़ी अविश्वास की कालिमा जरूर घुल गयी। मारुति सुजुकी, मानेसर के मजदूर इस सदमें से उबर गए और उन्होंनेमारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियननाम से एक नए यूनियन का पंजीकरण करा लिया। पिछले आन्दोलन के मद्देनजर इस में अडंगा लगाना अब नामुमकिन था। इसी यूनियन ने अप्रैल 2012 को अपना माँग पत्रक कम्पनी प्रबन्धन को सौपा था और प्रबन्धन के साथ उस पर सम्मानजनक रूप से वार्ता करने को उत्सुक थी। और यही कम्पनी की ओर से उत्पीडन को तेज किये जाने का कारण था क्योंकि इस सम्भावना से बचने के लिए ही उसने पिछले वर्ष कड़ोड़ों रुपये (करीब 5,000 लाख डालर) का घाटा बर्दाश्त किया था। 
नवगठित यूनियन यह चाहती थी कि कम से कम वह एक बारवेज सेटलमेण्टवार्ता को सफलता पूर्वक अंजाम तक पहुँचाए जिससे कि कम्पनी के एक पंजीकृत यूनियन के बतौर प्रबन्धन के साथ मोलभाव करने के उसके क़ानूनी अधिकार पर मुहर लग जाये और निराश मजदूरों के दिमाग से संशय और अविश्वास की धुंध थोड़ी छंट जाये। इससे केवल नवगठित यूनियन की साख में इजाफा होता बल्कि कम्पनी का माहौल सुधरता और कामकाज आसान होता। आखिर इस यूनियन को उन्होंने अपना सब कुछ दाँव पर लगा कर हासिल किया था। 
लेकिन जैसा कि विभिन्न सूत्रों से पता चला है, कम्पनी एक इंच भी झुकने को तैयार नहीं थी और अभी भी वह नवगठित यूनियन को मजदूरों की नजर में गिराने की अपनी पुरानी यूनियन विरोधी योजना और अड़ियल रवैये पर ही कायम थी। दुनिया भर से अरबों डालर का मुनाफा कमाने वाली एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी जिसका 30 प्रतिशत वह इसी देश से कमाती है, मजदूरों के वेतन में कुछ सौ रुपये वृद्धि करने पर महीनों तक हीला हवाली करती रही और उसने मजदूरों और यूनियन नेताओं को आजिज कर दिया। इस घटना के तीन चार दिन पहले से ही आजिज आकर मजदूरों ने सुबह की बैठक का बहिष्कार कर रखा था। 
ज्ञातव्य है कि मारुति सुजूकी इण्डिया लि. को अपने मानेसर संयंत्र में एक साल से चले रहे मजदूर विवाद के बाद अब मजदूरों के साथ हुए समझौते का पालन नहीं करने के कारण हरियाणा सरकार के श्रम विभाग की तरफ से अभियोजन की कार्यवाही की नोटिस मिल चुकी थी। विगत २२ जून को हरियाणा श्रम विभाग के उप श्रमायुक्त जे पी मान ने कहा था किऔद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के मुताबिक 20 मजदूरों से ज्यादा वाली प्रत्येक कम्पनी में एक शिकायत निवारण प्रकोष्ठ होना जरूरी है। मारुति सुजूकी के प्रबन्धन ने समझौते के तहत अभी तक वेलफेयर कमेटी और शिकायत निवारण इकाई का गठन नहीं किया है। इसलिए हमने कम्पनी के खिलाफ कार्रवाई की पहल की है।” इस मामले में अगले महीने के मध्य में सुनवाई शुरू होने का अनुमान था।
यही है वह पृष्ठभूमि है जिसके मद्देनजर प्रबन्धन और मजदूरों के बीच अविश्वास और दूरी के शत्रुता के हद तक बढ़ जाने के कारणों को समझा जा सकता है। पिछले आन्दोलन के तीन चरणों का समाहार करते हुए हमने कहा थामारुति सुजुकी के मजदूरों का शानदार संघर्ष पस्तहिम्मती के एक अफसोसनाक वाकये से ख़त्म हुआ है जिसके लिए इस विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनी से कहीं ज्यादा इस देश और हरियाणा प्रदेश की सरकार जिम्मेदार है। लेकिन, ... सिर्फ मारुति सुजुकी या सुजुकी की अन्य कम्पनियों में ही नहीं बल्कि गुडगाँव, मानेसर, धारूहेड़ा, बावल और रेवाड़ी के पूरे आद्योगिक पट्टी में वे मुद्दे उसी प्रकार बने हुए हैं जिनके चलते यह आन्दोलन पैदा हुआ था। यूनियन बनाने देने की कारगुजारियाँ जारी हैं, श्रम कानूनों का एकमुश्त उल्लंघन जारी है, बड़े पैमाने पर ठेका मजदूरों का इस्तेमाल जारी है, खुलेआम ओवरटाइम की चोरी और अनिवार्य ओवरटाइम जारी है और वह निहायत ही गैर-जनतान्त्रिक 'गुड कण्डक्ट बाण्डभी जारी है जिसके चलते यह आन्दोलन दोबारा फूट पड़ा था। जाहिरा तौर पर पूरे औद्योगिक क्षेत्र में सतह के नीचे अभी भी वही आग सुलग रही है जो मारुति सुजुकी में फूट पड़ी थी और जिसने मानेसर के पूरे सुजुकी रियासत को अपनी चपेट में ले लिया था। सुजुकी साम्राज्य अपने पैसे की ताकत से उस पर कुछ समय के लिए ही मिट्टी डाल सकता है, सदा के लिए नहीं।” 
इन्ही आम कारणों के साथ सुजुकी प्रबन्धन के मजदूर और यूनियन विरोधी रवैये और रोज रोज के अपमान और उत्पीड़न घटनाओं ने मजदूरों के क्रोध के विस्फोट की जमीन तैयार की। उस दिन का विवाद का आरम्भ भी शॉप फ्लोर पर ही घटी अपमान की ऐसी घटना से ही हुआ था। कम्पनी के एक स्थाई दलित मजदूर को सुपरवाईजर के हाथों अपमान का सामना करना पड़ा था। मजदूरों द्वारा इसका विरोध करने पर उस सुपरवाईजर पर कार्रवाई करने के जगह उस मजदूर को ही निलम्बित कर दिया गया। 
भारतीय दण्ड विधान की मामूली जानकारी रखने वाला कोई व्यक्ति भी जानता है भारत में अनुसूचित जाति के अपमान के खिलाफ बेहद सख्त कानून है और ऐसे किसी अपराध के आरोप मात्र से ही गैर जमानती मामला बन जाता है। लेकिन जैसा कि विगत तेरह महीनों के अनुभव से स्पष्ट है कि सुजुकी मोटोकॉर्प के अधिकारीयों को तो भारतीय कानूनों जानकारी है और उनके प्रति इज्जत ही। मजदूरों को अधिक से अधिक निचोड़ने और उन्हें हर प्रकार के अधिकारों से वंचित रख कर बंधुआ गुलाम की दशा में धकेल देने की अंधी हवस में उस दिन भी वे यह देखने से चूक गए कि पानी नाक से ऊपर निकला जा रहा है। 
उन्होंने प्रताड़ित मजदूर को तत्काल निलम्बित करके मामले की जाँच करने और उसे पहले नियमानुसरकारण बताओदेने के यूनियन नेताओं के अनुरोध को सिरे से ख़ारिज कर दिया। मामले को रफा दफा करने की जगह वे उस पर दोपहर तक अड़े रहे। इस सरासर नाइंसाफी से खिलाफ जब मजदूरों ने काम रोक दिया और हड़ताल पर जाने की तैयारी करने लगे तो उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए भाड़े के बाउंसरों को बुला लिया गया। अनेक सूत्रों से इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि इन्ही बाउंसरों ने मजदूरों को खदेड़ने के लिए मारपीट की शुरुआत की। इस बीच अगली पाली के मजदूर भी संयंत्र में प्रवेश कर चुके थे और तनाव चरम पर पहुँच चूका था। तब भी यूनियन के पदाधिकारी अधिकारियों से बातचीत करने की कोशिश करते रहे। 
ऐसे ही माहौल में जब किसी मजदूर ने बाउंसरों के मारपीट का जबाब दे दिया होगा तो यह एक खुला खेल बन गया। उसके बाद क्या हुआ यह हम सबको पता है। लेकिन यह किस क्रम से हुआ और इसके पीछे ठीक ठीक कौन से कारण थे इसका पता तो एक निष्पक्ष जाँच से ही चल सकता है, किसी पुलिसिया ताफ्दीश से नहीं। गुडगाँव के विभिन्न ट्रेड यूनियन के नेताओं ने ऐसे ही निष्पक्ष जाँच की माँग की है। 
यह भी जाँच का विषय है कि किस प्रकार फैक्टरी परिसर में पाँच जगह आगजनी होने के बावजूद प्रोडक्शन लाइन को कोई क्षति नहीं पहुँची। इससे कुछ ट्रेड यूनियन संगठनों के इस आरोप को बल मिलता है कि मजदूरों और यूनियन को बदनाम करने के लिए यह सारा बवाल कम्पनी प्रबन्धन द्वारा पूर्व नियोजित था, हालाँकि मजदूरों के बेकाबू हो जाने यह उनके नियन्त्रण से बाहर चला गया। अगर ऐसा कुछ भी है तो यह बहुत ही गम्भीर बात है और यह वहाँ के प्रबन्धन के षड़न्त्रकारी तौर तरीकों और आम मजदूर विरोधी रवैये से जुड़ती है। 
बहरहाल, सच्चाई सिर्फ एक विश्वसनीय और निष्पक्ष जाँच से ही सामने सकती है। हिंसा का कत्तई समर्थन नहीं किया जा सकता है। लेकिन उन परिस्थितियों और कारणों का भी समर्थन नहीं किया जा सकता है जो कल तक शान्तिपूर्ण आन्दोलनरत रहे एक अनुशासित समूह को हिंसक भीड़ में तब्दील कर दे। 
फ़िलहाल जरूरी है कि मारुति सुजुकी इण्डिया लिमिटेड, मानेसर के उत्पीड़ित मजदूरों की हर सम्भव मदद की जाये और उनपर एकतरफा पुलिस कार्रवाई की पुरजोर मुखालफत की जाये। मानेसर में हुई बुधवार की हिंसा की घटना को एक द्विपक्षीय मामला मानने और उस दिन के घटनाक्रम और उसकी पृष्ठभूमि की एक विश्वसनीय और निष्पक्ष जाँच करवाने की माँग को भी हर सम्भव तरीके से उठाए जाने की भी जरूरत है। इस घटना ने नव उदारवाद के प्रवक्ताओं को संचार माध्यमों में निरन्तर मजदूर विरोधी प्रलाप करते जाने का का मौका दे दिया है। अतः उन थोथे तर्कों का खण्डन और मारुति के उत्पीडित मजदूरों के पक्ष में जनमत तैयार करना भी जरूरी है। 
        
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