रविवार, 24 जुलाई 2011

जिस खेत से दहकां को मयस्सर न हो रोटी उस खेत के हर खोश-ए-गंदुम को जला दो : अल्लामा इकबाल


इस समय समूची दुनिया में मेहनतकशों के ऊपर पूजीपति वर्ग एकजुट होकर हमले कर रहा हैलेकिन अब जनता उसका प्रतिकार भी करने लगी है. जनता कि तरफ से किया जाने वाला यह प्रतिकार कहीं कमजोर है तो कहीं बहुत मजबूत. इस लेख में मैंने पाकिस्तान और ब्राजील कि जनता की ओर से किये जाने वाले प्रतिकार के रूप में वहां के किसान आन्दोलन पर कुछ बातें कि है.
देवेन्द्र प्रताप
आज तरह का माहौल है उसमें पाकिस्तान का नाम आते ही लोग तालिबान और आतंकवाद के बारे में सोचने लगते हैं। यह ध्यान में ही नहीं आता कि वहां की जनता की भी रोजी-रोटी की समस्याएं हैं। किसान आंदोलन की अगर बात करें, तो वहां का अन्नदाता भी देश के अन्नदाता की तरह ही परेशान है। तीन महीन पहले अप्रैल में पाक अधिकृत पंजाब में 15 हजार से ज्यादा किसान जुटे। ध्यान देने की बात यह है कि किसानों के इस आंदोलन में करीब 5000 किसान महिलाएं भी थीं। यह समूचा क्षेत्र फौज के कंट्रोल में है। इसलिए जब-जब किसानों ने आंदोलन किया उसके ऊपर सत्ता का दमन का पाटा चला दिया गया। पचास सालों में इस क्षेत्र के किसानों ने कई पार्टियों का रंग देखा, लेकिन किसी को भी अपना हमदर्द नहीं पाया। पाकिस्तान की सबसे बड़ी पार्टियों पीपीपी और पीएमएल तक से किसानों का मायूसी मिली। किसान आंदोलन का राष्ट्रीय नेतृत्व न होने के बावजूद सामान्य किसान नेताओं ने अपने आंदोलन का राष्ट्रीय स्तर पर फैलाने में कोई कोर कसर नहीं बाकी रखी। पाकिस्तान के वर्तमान किसान आंदोलन ने इस साल जनवरी से अप्रैल माह के बीच सबसे ज्यादा उग्र रहा। हालांकि मीडिया के कमोवेश बहिष्कार के चलते इसे ज्यादा बड़े पैमाने पर प्रचार नहीं मिल सका। कुल्याना मिलिट्री फार्म में किसानों के ऊपर फायरिंग में कई किसान मारे गए और आंदोलन का दबा दिया गया, लेकिन अभी भी वहां राख के नीचे जो आग जिंदा है वह कब दावानल बन जाएगी, कुछ कहा नहीं जा सकता। इस समय पाकिस्तान में बड़े पैमाने पर कारपोरेट फार्मिंग का भी चलन शुरू हुआ है। जिस समय उपरोक्त आंदोलन शुरू हुआ उसी दौरान वहां की सरकार करीब 10 लाख हेक्टेयर जमीन को अरब मुल्कों की कई निजी कंपनियों को फार्मिंग के लिए देने का मन बना रही थी। एक आंकलन के अनुसार सरकार के इस कदम से कृषि क्षेत्र में 400 मिलियन से ज्यादा का पंूजीनिवेश होने की उम्मीद है। पाक सरकार पहले ही आठ लाख करोड़ एकड़ जमीन इस तरह की निजी कंपनियों के हवाले कर चुकी है। वहां की सरकार यह सब काम फूड सिक्योरिटी के नाम पर कर रही है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिस देश की 16 करोड़ की आबादी का करीब 45 प्रतिशत खेती से जुड़ा हो, जहां सकल घरेलू उत्पाद का करीब 21 प्रतिशत खेती से प्राप्त होता हो, वहां कारपोरेट फार्मिंग से किसानों का कितना •ाला होगा यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।
अमेरिका की अगर प्रेत छाया देखना हो तो लैटिन अमेरिका से बेहतर शायद ही कोई जगह होगी। वहां साम्राज्यवाद का शोषण भी चरम पर है, तो उसका प्रतिरोध भी। जब से वहां कारपोरेट फार्मिंग ने गति पकड़ी वहां भी मिहीन किसानों की तादाद भी उसी अनुपात में बढ़ती गई। आज वहां भूमिहीन किसानों का आंदोलन व्यापक सामाजिक आंदोलन की शक्ल ले चुका है। इस समय वहां के 26 में से 23 राज्यों के 475,000 परिवारों के करीब 10.5 लाख भूमिहीन किसान इस आंदोलन से जुड़ चुके हैं। ब्राजील की हालत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वहां की बमुश्किल 3-4 प्रतिशत आबादी देश की कुल कृषि योग्य भूमि के करीब तीन चौथाई हिस्से पर काबिज है। ब्राजील में 60 के दशक में शुरू हुई कारपोरेट फार्मिंग ने 1980 तक आते-आते अपने हाथ-पांव काफी पसार लिया। हालत यह हो गई कि 1980 में वहां के करीब 30.7 करोड़ में होने वाली कारपोरेट खेती का करीब 77 प्रतिशत यानी लग•ाग 28.5 करोड़ हेक्टेयर लैटिफुंडिया के पास चला गया। यह एक तरह की कारपोरेट फार्मिंग का ही रूप था, जिस पर भूमिहीन किसान गुलामों की तरह खटने का मजबूर थे। इन्हीं स्थितियों में वहां का किसान आंदोलन पैदा हुआ। इस आंदोलन का संक्षेप में एमएसटी कहा जाता है। इसने लैटिन अमेरिका की समाजवादी देश क्यूबा से प्रेरणा ली और देखते ही देखते सत्ता और पूंजीवादी समाज के खिलाफ वर्गीय रूप अख्तियार कर लिया। यह आंदोलन पचासों साल बाद आज भी जारी है। इस दरम्यान इसने करीब 50 हजार से ज्यादा किसानों का पढ़ना-लिखना सिखाया, ताकि वे इस आंदोलन का गति दे सकें। वैसे तो ब्राजील में 60 के दशक से ही भूमिहीन के आंदोलन ने गति पकड़ी, लेकिन 80 के दशक तक आते-आते यह व्यापक आधार बना चुका था। इससे घबराकर वहां की तानाशाह सरकार ने किसानों के आंदोलन का •ायंकर दमन किया। यह सरकार द्वारा समूचे ब्राजील के पैमाने पर किया गया किसानों का एक नेशनल इनकाउंटर था। इन्हीं परिस्थितियों में किसानों का संगठन एमएसटी बना। यह कोई केंद्रीकृत संगठन न होकर देश भर के किसान संगठनों की समन्वय समिति जैसा है। इस समय ब्राजील के 20 राज्यों से एमएसटी के कुल 400 सक्रिय राष्ट्रीय नेता हैं। इनमें से 60 सदस्य उसकी केंद्रीय राष्ट्रीय संयोजन समिति से जुड़े हैं। राष्ट्रीय स्तर पर नेत्त्व देने वाले एमएसटी के 15 सदस्य अलग-अलग संगठनों से जुड़े हैं और सभी गुप्त तौर पर ही काम करते हैं। इसकी वजह सरकारी दमन है। इस समय न सिर्फ लैटिन अमेरिका में वरन एक हद तक समूची दुनिया में एमएसटी जितने बड़े व्यापक आधार वाला कोई दूसरा किसानों का संगठन नहीं है। यह, धर्म, क्षेत्र और लैंगिक असमानताओं में विश्वास न करके वर्गीय विभेद को ही महत्व देती है। इसका मानना है कि समाज में मौजूद वर्गीय विभेद ही किसानों की गरीबी की मुख्य वजह हैं। यही इस संगठन कि सबसे बड़ी खूबी है। भारत के किसानों को ब्राजील के किसानों से बहुत कुछ सीखने को मिल सकता है।

दहंका
- किसान, खोश गंदुम- गेहूं कि बाली

6 टिप्‍पणियां:

  1. एक बार फिर नई दुनिया बनाने वाले मेहनतकश लोग नई दिशा दिखा रहे हैं। पश्चिम एशिया के ज्वार में ट्रेडयूनियनें रीढ़ बन गईं। किसानों का दमन वे कर सकते हैं, सामाजिक कार्यकर्ताओं को सलाखों के पीछे ठूंसा जा सकता है मगर देश की मजदूर आबादी सड़क पर आ जाए तो हुकूमत के दम भी फूल जाते हैं।
    पाकिस्तान की ट्रेड यूनियनों के कृया कलापों की खबर खबर भी डालें तो अच्छा।

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  2. किसान, मजदूर, आन्दोलन, संघर्ष
    अजीब भी लगता है और वाहियात भी
    की अपने ही हक़ के लिए यूँ हाहाकार करनी पड़ती है
    अपने ही देश में अपने ही रहनुमाओं से जैसे किसी
    गैर के देश में हम दफ़न हो


    भारत से इतर दूसरे देशों में इस स्थिति से अवगत करता लेख , आन्दोलन के इतिहाद को कलामबध करने की दिशा में अच्छा प्रयास है

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  3. देव सर वर्ड verification हटा लो कमेन्ट की प्रोसेस से

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  4. Khet wala sher, alama iqbal ka hai dost, faiz ka nahi

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