Saturday, 15 May 2010 18:39 अजय प्रकाश
गौर से देखिये मिस्टर सी : यह बंदूकों वाले बच्चे कभी बीजापुर ब्लाक के आश्रम में पढ़ने वाले छात्र थे. माओवादियों पर सरकारी कार्रवाई की बौद्धिक स्वीकृति लेने जेएनयू गये चिदंबरम को 5 मई की रात काफी तेज झटका लगा जब छात्रों ने सरकार विरोधी नारे लगाये और भाषण देकर जाते गृहमंत्री की सफेद गाड़ी पर काला झंडा फेंक असहमति को तिखाई से स्पष्ट कर दिया। सफेदी पहनने-ओढ़ने के आदी हमारे गृहमंत्री काले झंडे को देख ऐसे खुन्नस में आये कि अगले ही दिन आव देखा न ताव, देश के सजग नागरिकों पर आतंकी कानून लागू किये जाने का फतवा सुना दिया। गृह मंत्रालय से जारी बयान में कहा गया कि ‘बहुतेरे ऐसे बुद्धिजीवी,एनजीओ या संगठन हैं जो माओवादियों के सीधे प्रचारतंत्र का काम कर रहे हैं। वैसे लोगों और संस्थानों के खिलाफ आतंकवादी संगठनों के खिलाफ बनाये गये ‘आतंकवाद निरोधक गतिविधि कानून (यूएपीए 1967)’के तहत दस साल की कैद और आर्थिक दंड की सजा हो सकती है।’
इस कानून का प्रोमो करते हुए कर्नाटक पुलिस ने कन्नड़ अखबार ‘प्रजा वाणी’ में काम करने वाले राहुल बेलागली को एक माओवादी नेता के साक्षात्कार लिये जाने के अपराध में आरोपित किया है। शिमोगा जिले की पुलिस बेलागली को धमका रही है कि अगर उन्होंने स्रोत का खुलासा नहीं किया तो उनके खिलाफ यूएपीए के तहत कार्यवाही की जायेगी। पुलिस ने बेलागली के अलावा अखबार के एसोसिएट संपादक पदमराज को भी नोटिस जारी कर कहा है कि ‘अगर पुलिसिया जांच में सहयोग नहीं दिया तो इंडियन आम्र्स एक्ट,राष्ट्रीय संपंत्ति की क्षति समेत यूएपीए के तहत मुकदमा दर्ज किया जायेगा।’
बहरहाल, यह तो प्रोमो के दौरान का क्लाइमेक्स भर है। नहीं तो माओवाद प्रभावित राज्यों में लंबे समय से यही हालात बने हुए हैं। ऐसे राज्यों में वकीलों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, डॉक्टरों, ट्रेड यूनियन नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी से लेकर जिला बदर किये जाने वालों की एक लंबी फेहरिस्त है। इससे जाहिर होता है कि सरकार बिना बोले ही संविधान के उन तमाम बुनियादी सिद्धांतों को लंगोटी बना चुकी है जो हमारे अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए भारतीय कानून संहिता के उपबंधों में दर्ज हैं। इसलिए सरकार का नया शिकार क्षेत्र मेट्रो शहर हैं,जहां माओवाद का कोई असर तो नहीं है,मगर उसे जानने-समझने वालों की एक तादाद है। इस दृष्टि से गृह मंत्रालय का यह हालिया बयान एकदम से कहीं दूसरी ओर इशारा करता है जिसका अंदाजा लगाने में हम चूक रहे हैं।
इसे साजिश न कहा जाये तो और क्या है कि जाने-माने पत्रकार और पीयूडीआर से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता गौतम नवलखा का नाम पहले दिल्ली से गिरफ्तार माओवादी नेता की चार्जशीट में दाखिल किया जाता है,फिर गृह मंत्रालय खबर देता है कि माओवादी क्षेत्रों में प्रसिद्ध विदेशी पत्रकार जॉन म्रिडल के साथ 15दिनी दौरे पर बस्तर के रास्ते दंतेवाड़ा के जंगलों में गये गौतम नवलखा एक पत्रकार की हैसियत से नहीं,बल्कि विदेशी पत्रकार के कूरियर के तौर पर गये थे। अगर सरकार साबित करने में सफल होती है कि गौतम कूरियर बनकर गये थे,तो उन पर उसी आतंकी कानूनी दायरे में कार्यवाही होगी जो पोटा को हटाये जाने के बाद यूपीए सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में बनाया था। दूसरी घटना लेखिका अरूंधति राय को लेकर हुई। आतंकवाद के खिलाफ छत्तीसगढ़ राज्य के बनाये गये कानून ‘छत्तीसगढ़ जनसुरक्षा अधिनियम’के तहत राज्य ने प्रायोजित ढंग से छत्तीसगढ़ में अरूंधति पर मुकदमा दायर कराया। इसकी प्रतिक्रिया में अरूंधति ने कहा कि ‘वे हमें गिरफ्तार कर सकते हैं,लेकिन मैं देश छोड़कर नहीं जाऊंगी।’
जाहिर है सरकार की इन गीदड़ भभकियों का न सिर्फ अरूंधति,बल्कि माओवादियों को लेकर सरकार की सैन्य और रणनीतिक गलतियों पर बिना रुके लगातार लिखने वालों पर कोई असर नहीं होना है। लेकिन हमारी चिंता पत्रकारिता के व्यावसायिक दायरे पर चिदंबरम के सीधे शुरू किये गये निर्देशों को लेकर है। पत्रकारिता के व्यावसायिक मानदंडों को तार-तार करने वाली पुलिसिया दबिश का लगातार बढ़ता यह तरीका साफ कर देता है कि गृह मंत्रालय अब हमें एक व्यावसायिक पत्रकार भी नहीं बने रहने देना चाहता, जो कि चैथे स्तंभ का बुनियादी मूल्य है। बेलागली का ताजा मामला समझने के लिए काफी है कि इन प्रत्यक्ष-परोक्ष धमकियों के जरिये हमें भविष्य में मजबूर किया जायेगा कि माओवाद को लेकर गृह मंत्रालय से जारी सरकारी विज्ञप्तियों और बयानों से लेकर मंत्रालय के बाबुओं और अधिकारियों की कानाफूसी को ही हम पत्रकारिता मानें।
वैसे तो पहले से ही जनविरोधी सरकारी नीतियों के खिलाफ आलोचनात्मक रवैया रखने वाले पत्रकारों-लेखकों को पुलिस और खुफिया ने रडार पर लगा रखा है। मगर मुंह पर जाबी लगाने की हिदायत देता यह बयान तो अब उस व्यापक मीडिया दायरे को अपने चपेट में लेने की फिराक में है,जो सिर्फ अपनी रोटी के लिए खबरों को हासिल करता है। कौन नहीं जानता कि जो भी पत्रकार जिस पार्टी या मसले को कवर करता है वह उससे जुड़े लोगों से बेहतरीन खबरें पाने की चाह में (जो मूलतः व्यावसायिक तरीका है), थोड़ा नजदीक होता है। क्या चिदंबरम यह नहीं जानते कि जिस पार्टी से वह ताल्लुक रखते हैं, वहां जाने वाले कई पत्रकार आज कांग्रेस के नेता हो गये। इससे बड़ी तादात ऐसे पत्रकारों की है जो अघोषित कांग्रेसी हैं। कांग्रेस से उन पत्रकारों का रिश्ता बड़ा साफ है कि उसको माहौल बनाने के लिए अपने पत्रकार चाहिए और उन पत्रकारों को अपने संस्थान में जमे रहने के लिए मालिक और संपादक की निगाह में जरूरत।
माओवाद से जुड़े मुद्दों पर लिखने वाले ज्यादातर पत्रकारों का भी यही रवैया और नजरिया है। दूसरी तरफ मैं यह भी मानता हूं समाज में जो कुछ भी घट रहा है उसके बारे में लिखने, सोचने और करने के बारे में पत्रकार खुद ही सोचता है,जो उसकी वैयक्तिक आजादी भी है। रही बात लिखने और छपने के दौरान उसके माओवाद के प्रति झुकाव, लगाव या जुड़ाव की तो अगर उसे प्रतिबंधित करने की कोई सोच चिदंबरम रखते हैं तो इस मुगालते से बाहर आ जायें। फिर भी अगर सरकार इस मसले पर धमकियों, गिरफ्तारियों, फॉलोअप आदि के रास्ते डंडे के जोर पर निपट लेने के मूड में है, तो करके देख ले।
चिदंबरम साहब आपको बता दें कि हम इस देश की आजीवन जनता हैं और आप पांच साल के मंत्री। हमारे साहस और आपकी ताकत में यही बुनियादी फर्क है। आपको ताकत कॉरपोरेट घराने देते हैं और हमें साहस संघर्षों की उस लंबी परंपरा से मिलती है जहां अन्याय के खिलाफ विद्रोह न्यायसंगत है,का इस्तेमाल मुहावरे जैसा होता है। हमारे बाबा सुनाया करते थे-‘अपराधी से बड़ा गुनहगार अपराध देखने वाला,उससे बड़ा गुनहगार देखकर नजरें हटा लेने वाला और सबसे बड़ा गुनहगार देखकर चुप्पी साध लेने वाला होता है।’ गृहमंत्री, आप चुप्पी साधने के लिए कह रहे हैं जो हो नहीं सकता।
आपको पता नहीं, तब मैं दसवीं का छात्र था जब बाबरी मस्जिद ढहने के जश्न की खुशी को अपने गांव में देखा। पूरा गांव अयोध्या की मस्जिद से उखाड़कर लायी गयी एक ईंट के पीछे पागल हुआ जा रहा था और मैं कुछ न कर सका। उसके बाद जब विश्वविद्यालय आया तो गोधरा-गुजरात होते सुना और नहीं सह पाने की स्थिति में उन खबरों से नजरें हटा लीं। दसवीं में पूरी एक इमारत ढही,विश्वविद्यालय के दौरान पूरा एक समुदाय छिन्न-भिन्न हुआ और अब जबकि मैं समाज को समझने लगा हूं तो आप पूरा एक देश तबाह करने पर आमादा हैं और चाहते हैं कि हम बोलें भी नहीं। यह कैसे संभव हैं!
इससे भी महत्वपूर्ण यह कि आज आप मंत्री बने हैं, कल पता नहीं आपका क्या होगा। लेकिन संघर्षों की कथाएं सुनाने वाले, जीवन में यह बातें लागू कराने वाले लोग तो हमारे घर, स्कूल और समाज के हैं जहां मैंने उंगली थामकर ककहरा सीखा है और आपकी भी जमीन वहीं से देखी है। सच बताऊ गृहमंत्री, हम इन सब जीवन मूल्यों को अगर आपके बूटों-संगिनों के डर से छोड़ भी दें, तो भी नहीं जी पायेंगे। हम जिस समाज में रहते हैं वह इतनी समस्याओं और मजबूरियों से त्रस्त है कि हम किसी एक ऐसे व्यक्ति की बात मान ही नहीं सकते जिसे एक लोकसभा क्षेत्र जीतने के लिए दो बार गणना करानी पड़ती है और तबाही का फैसला देने में चंद सेकेंड।
लेखक अजय प्रकाश हिंदी ब्लाग जनज्वार के माडरेटर हैं.
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