सोमवार, 19 अगस्त 2013

मिस्र में नरसंहार : एक आशा का अन्त

जैसी कि उम्मीद थी मामला उसी तरह खत्म हुआ और विगत माह मिस्र में राष्ट्रपति मुर्सी को अपदस्थ किये जाने के बाद सत्ता पर बैठे सैन्य शासकों ने अपना असली रंग दिखा दिया। बुधवार, 14 की रात को उन्होंने एक ऐसे बर्बर कत्लेआम को अंजाम दिया, देश के इतिहास पर जिसकी छाप को सुदूर भविष्य में भी मिटा पाना बहुत मुश्किल होगा। अपने इस कुकृत्य के द्वारा उन्होंने न केवल मिस्र को एक सुनिश्चित गृहयुद्ध की ओर धकेल दिया बल्कि वहाँ जारी परिवर्तन की प्रक्रिया को जिसे उन्होंने पहले ही अगवा कर लिया था, अपने ही देशवासीयों के खून के समुंदर में डुबो दिया।
   अपदस्थ राष्ट्रपति मुर्सी के समर्थकों द्वारा दिए जा रहे धरनों को उखाड़ने के लिए सेना, पुलिस और उनके गुर्गों द्वारा पिछले पाँच दिनों से जारी कार्रवाइयों में सरकारी सूत्रों से ही अब तक 800 से अधिक लोगों के मारे जाने की पुष्टि हो चुकी है, जबकि असली संख्या हजार से भी अधिक है। इसके अलावा अन्य हजारों घायल हैं। हालाँकि यह सब आतंकवाद को शिकस्त देने और व्यवस्था बहाल करने के नाम पर हो रहा है लेकिन इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं कि इसका असल उद्देश्य नागरिक शासन की किसी भी सम्भावना को सदा के लिए समाप्त कर पुनः सैनिक शासन बहाल करना है।
    सिर्फ दो वर्ष पहले जिस काहिरा के तहरीर चौक ने विश्वव्यापी आशा का संचार किया था वही काहिरा अब उसके कब्रगाह में तब्दील हो गया है। लेकिन इसके लिए जिम्मेदार कौन है? मुबारक को अपदस्थ किये जाने के बाद से जब भी बदलाव की प्रक्रिया को आघात लगा है मिस्र के तथाकथित क्रान्तिकारियों ने एक ही मन्त्र दुहराया है कि ‘‘क्रान्ति एक प्रकिया है’’ और उन्हें यह मुगालता रहा है कि वे ही इस प्रक्रिया को संचालित कर रहे है।
   लेकिन सच्चाई यह है कि प्रतिक्रान्ति भी एक प्रक्रिया है और आने वाले लम्बे समय के लिए उसने जड़ जमा लिया है। और ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं हुआ है कि उसे संचालित करने वाली ताकतें, सेना और ‘फेलौल (पुरानी सत्ता के गुर्गे)  अधिक साधन सपन्न हैं बल्कि इसलिए हुआ है कि वे संगठित हैं और अपने हितों की रक्षा करने का उनका लक्ष्य सामान है जो उनके एकजुट करता है। जबकि नेतृत्वविहीन इन तथाकथित क्रान्तिकारियों में इन गुणों का नितान्त अभाव है। पुरानी व्यवस्था अंगों-उपांगो में सेना ही सबसे मजबूत होती है और उसको और एवं उसके समस्त ढाँचे को विखण्डित किये बिना किसी व्यवस्था में बुनियादी बदलाव नहीं लाया जा सकता है। पिछली शताब्दी के क्रान्तिकारियों के अलावा इस बात को खुमैनी भी जनता था जिसने सत्ता पर कब्ज़ा करने के बाद पहला काम शाह की सेना को विखण्डित करने का किया। लेकिन मिस्र के इन तथाकथित क्रान्तिकारियों के मुगालतों का कोई अन्त नहीं था। मुबारक को सत्ताच्युत किये जाने के तुरन्त बाद जब उसको अपदस्थ करने के लिए एक मंच पर आयी विभिन्न शक्तियाँ अलग-अलग रास्तों पर चल दीं तो उनके दोनों प्रमुख धड़े उदारवादियों और इस्लामियों ने विभिन्न मौकों पर अलग-अलग सेना से तालमेल स्थापित करने का प्रयास किया, मानों सेना कोई निष्पक्ष खिलाड़ी हो।
   वह भी एक ऐसी देश में जहाँ दशकों से सेना ही सत्ता का प्रमुख आधार रही है और  स्वतन्त्र रूप से व्यवसाय, संस्थानों और संसाधनों की मालिक है। यह वही सेना है जिसे अमेरिका ने खड़ा किया है और दशकों से वित्त, अस्त्र-शास्त्रों और अन्य संसाधनों द्वारा पाला-पोसा है जिससे कि वह अरब-इसराइल विवाद से अलग रहे और इस तरह पश्चिमी एशिया में उसकी चौकी की हिफाजत करे।
   जिस समय पुरानी सत्ता अपने को पुनः एकजुट कर रही थी मिस्र के ये गगनबिहारी क्रान्तिकारी अपने मुगालतों का में ही व्यस्त रहे और 3 जुलाई को जब अब्दुल फतह अल-सीसी ने सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया तो मिस्र में परिवर्तन की प्रक्रिया का, जिसे वे क्रान्ति कहते फूले नहीं समाते थे, या अन्ततः उसके मौजूदा चरण का, अन्त हो चुका था। अब क्रान्ति सिर्फ उनकी कल्पना में रह गयी थी, लेकिन वे तब भी उसे वास्तविक समझते रहे और उनमें से तो कुछ तो इस क्रान्ति की रक्षा करने की मजबूरी के नाम पर सेना के कुकृत्यों में शरीक हो गए।
   अल-सीसी को उनके इस मुगालते को हवा देने में कोई परेशानी नहीं थी बल्कि उसने खुद भी क्रान्तिकारी का बाना ओढ़ लिया। सेना के प्रचार के मुताबिक अल-सीसी और उसके सहकर्मियों ने दो वर्ष पहले मिस्र को न केवल मुबारक से छुटकारा दिलाया बल्कि उत्तराधिकारी के रूप में तैयार किये जा रहे उसके पुत्र गमाल से भी रक्षा की जो नवउदारवादी ‘सुधार’ का समर्थक था और जिससे सेना के आर्थिक हितों पर आँच आ सकती थी। और अब वह देश की ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ और उसके विदेशी समर्थकों से रक्षा कर रहा है, जिसमें वे हमास से लेकर अमेरिकी राजदूत अन्ने पैटरसन तक सबका नाम शामिल करते हैं।
  इन तथाकथित क्रान्तिकारियों के मुगालतों ने सेना के इस प्रचार को हवा दी और आज की विडम्बनात्मक स्थिति पैदा की कि जिसमें एकओर नरसंहार जारी है, वही, दूसरी ओर, इस कुकृत्य को, लगता है, भारी जनसमर्थन हासिल है। सेना द्वारा गाया जा रहा क्रान्ति का गीत आज मिस्र में बहुतों को, सम्भवतः बहुसंख्यक आबादी को भा रहा है क्योंकि इसनें अंधराष्ट्रवाद के सभी तत्व हैं। इसमें शायद ही किसी को शक हो कि मौजूदा अन्तरिम सरकार के पीछे अल-सीसी और सेना की ताकत है लेकिन इसमें आश्चर्य की कोई गुञ्जाइश नहीं है यदि निकट भविष्य में ही उसका नाम राष्ट्रपति के रूप में सामने आये। ऐसी स्थिति में अल-सीसी की सरकार खुले तौर पर एक अंधराष्ट्रवादी फासिस्ट सरकार होगी।
  मौजूदा सरकार इस बात का प्रचार कर रही है कि ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ आतंकवादी है, इसमें  निश्चित तौर पर संदेह की अपार गुञ्जाइश है लेकिन इसमें संदेह की कोई गुञ्जाइश नहीं कि वह प्रतिक्रियावादी है। लेकिन उस पर कहर बरसा रही सेना भी प्रतिक्रियावादी है और वह एक संस्थाबद्ध और मजबूत प्रतिक्रियावादी है जो दूसरे प्रतिक्रियादी शक्ति को या कम से कम उसके एक हिस्से आतंकवादी बनाने की दिशा में धकेल रही है। यदि देश संकीर्णतावादी हिंसा की चपेट में आ जाये, जिसकी शुरुआत ढेर सारी क्रोप्टिक गिरजाघरों को आगजनी का निशाना बनाने के माध्यम से सामने आ चुकी है, तो इसका सबसे अधिक फायदा सेना को ही होनेवाला है। यहाँ वही कुछ हो रहा है जो 1900 में अल्जीरिया में हो चुका है और फ़िलहाल सीरिया में जारी है। मिस्र की इस घटनाक्रम का दुनियाभर की परिवर्तन चाहने वाली जनता के लिए महत्व है। ठीक उसी प्रकार जैसे 2011 की घटनाक्रम का था। वह जनता की पहलकदमी का ऐसा प्रस्फोट था जिसकी ओर सभी ने उम्मीद से देखा और उसका स्वागत किया। नयी शताब्दी की वह पहली घटना थी जिसमें इतिहास निर्माण में जनता की भूमिका को रेखांकित किया था। लेकिन वहाँ घटनाक्रम में आये मौजूदा मोड़ ने बदलाव की प्रक्रिया के एक दूसरे लेकिन उतने ही महत्वपूर्ण पहलू को रेखांकित कर दिया है। वह है इसमें विचारधारा और संगठन की भूमिका। जनता की पहलकदमी को यदि जनता के एक बेहतर भविष्य की विचारधारा और उस अनुरूप नेतृत्व की संरचनाओं के साथ नहीं मिलाया जाय तो वही परिणाम सामने आयेगा जो आज मिस्र और पश्चिम एशिया के अन्य देशों में सामने आ रहा है। एक ऐसी दुनिया में, जो सभी किस्म के प्रतिक्रियावादियों के आपसी मेलमिलाप व सामंजस्य और उनपर एक महाशक्ति के सर्वस्वीकृत प्रभुत्व के आधार पर चल रही है, यदि जनता की पहलकदमी को सही विचारधारा और सांगठनिक रूपों से मिलान नहीं किया जाय, तो अन्तिम योगफल में उनका फायदा उसी महाशक्ति को मिलेगा। सेना के मौजूदा ताण्डव और विचारधारा और सांगठनिक रूपों के आभाव में मिस्र का भविष्य अंधकारमय ही दिखायी देता है।
साभार-

शनिवार, 10 अगस्त 2013

चिताओं पर मेले नहीं लगते

                                                       अशफाक की कविता से छेड़छाड़

                     डॉ. महर उद्दीन खां
शहीदों की मजारों पर जुड़ेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।
शहीद अशफाक उल्लाह खां की एक कविता की ये पंक्तियां काफी प्रसिद्ध हैं। जब भी शहीदों की चर्चा होती है, ये पंक्तियां लोगों की जुबां पर बरबस ही आ जाती हैं। अफसोस कि इन पंक्तियों को दोहराते समय ‘मजारों’ की जगह ‘चिता’ कर दिया जाता है और ‘जुड़ेंगे’ की जगह ‘लगेंगे’ कर दिया जाता है। क्रांतिकारी अशफाक उल्लाह खां को 19 दिसंबर 1927 को फैजाबाद जेल में फांसी हुई थी। कम लोग जानते हैं कि अशफाक अपने अजीज मित्र रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ की तरह ही बहुत अच्छे शायर भी थे। 16 दिसंबर 1927 को उन्होंने देशवासियों के नाम एक खत लिखा था, जिसमें उन्होंने अपने विचार व्यक्त किए थे। बाद में पता नहीं कब और किसने इस कविता में संशोधन कर दिया। पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी द्वारा संपादित अशफाक उल्लाह खां की जीवनी में उन्होंने लिखा है-‘किसी मनचले हिन्दी प्रेमी ने ‘मजार’ की जगह ‘चिता’ बना दी। बिना यह ख्याल किए कि चिताओं पर मेले नहीं जुड़ा करते।’
एक सोची-समझी साजिश
जब ध्यान देते हैं, तो यह किसी मनचले हिन्दी पे्रमी की हरकत नहीं लगती, बल्कि एक सोची समझी योजना के चलते ‘मजार’ के स्थान पर ‘चिता’ किया गया है। अगर किसी एक की हरकत होती, तो इसका सरकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर इतने व्यापक पैमाने पर प्रचार नहीं होता कि हर व्यक्ति की जबान पर ‘चिता’ शब्द चढ़ जाता। हद तो यह है कि कई सरकारी अभिलेखों में भी ‘चिता’ लिखा जा रहा है। इतना ही नहीं विभिन्न शहरों में लगी शहीदों की प्रतिमाओं पर भी ‘चिता’ ही लिखा जा रहा है। गाजियाबाद में घंटाघर पर शहीद भगत सिंह की प्रतिमा लगी है, उस पर भी ‘चिता’ शब्द ही लिखा है। यह सब देखकर कहा जा सकता है कि इस कविता में ‘मजार’ के स्थान पर ‘चिता’ शब्द का प्रयोग संगठित तरीके से किया गया है। हमारे देश में एक वर्ग ऐसा है, जो हर मामले को हिंदू-मुस्लिम के चश्मे से देखता है। ‘मजार‘ के स्थान पर ‘चिता’ करना भी इसी वर्ग की कारस्तानी लगती है। चूंकि, ‘मजार’ शब्द से शहीद के मुसलमान होने का आभास होता है और ‘चिता’ से हिंदू होने का, इसलिए इस वर्ग ने अपनी अलगाववादी मानसिकता के चलते शहीदों को हिंदू-मुसलमान बना दिया। चिता के बारे में हम सभी जानते हैं कि उस पर अंतिम संस्कार के बाद अस्थियां चुनने की एक क्रिया होती है। उस के बाद चिता स्थल पर कोई नहीं जाता।
‘चिता पर नहीं मजार पर मेले’
हिंदी में मजार के लिए समाधि का प्रयोग किया जा सकता है, स्मारक भी चल सकता है, मगर स्मारक और समाधि से हिंदू-मुसलमान दोनों शहीदों का आभास होता है। इसलिए ऐसा लगता है कि एक सोची-समझी योजनानुसार और जानबूझ कर अशफाक की शायरी में ‘मजार’ की जगह पर ‘चिता’ शब्द का प्रयोग किया। चिता का संबंध केवल हिंदू से है, हिंदू के अलावा अन्य किसी भी धर्म में चिता पर अंतिम संस्कार नहीं किया जाता। ऐसा भी होता है कि जहां चिता जलती है, उसी के आसपास समाधि भी बना दी जाती है। राजघाट, शांतिवन, किसान घाट आदि ऐसे ही स्थल हैं, लेकिन यह जरूरी नहीं। कई मामलों में ऐसा भी होता है कि चिता कहीं और जलती है और समाधि या स्मारक कहीं और बनाया जाता है। जगजीवन राम की चिता सासाराम, बिहार में जली, लेकिन उनका स्मारक दिल्ली में बनाया गया है। उनके चिता स्थल पर अंतिम संस्कार के बाद कोई नहीं गया होगा, लेकिन उनकी जन्म तिथि और पुण्य तिथि पर हर साल लोग उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करने समता स्थल पर जाते हैं। इस प्रकार ‘मेले’ ‘चिता’ पर नहीं समाधि पर ही लगते हंै।
शहीद अशफाक का अपमान
आज अनेक बुद्धिजीवी भी ‘मजार’ के स्थान पर बिना सोचे-समझे ‘चिता’ का ही प्रयाग करते हैं। क्या यह शहीद अशफाक उल्ला खां का अपमान नहीं है? ऐसे लोगों को एक शहीद की कविता में व्यक्त की गई भावनाओं में संशोधन का अधिकार किसने दिया? बहरहाल भले ही वे ‘मजार’ के स्थान पर ‘चिता’ लिखकर प्रसन्न होते रहें, मगर मेले तो मजारों पर ही जुटते रहे हैं और हमेशा जुटते भी रहेंगे। अब करना यह चाहिए कि हमें जहां भी किसी शहीद स्मारक पर ‘चिता’ लिखा हो, वहां स्थानीय प्रशासन से यह आग्रह किया जाए कि वे इस गलती को सुधारें। यही शहीद अशफाक उल्लाह खां को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
शहीद अशफाक उल्ला खां की पूरी कविता-
उरुजे कामयाबी पर कभी हिंदोस्तां होगा
रिहा सैयाद के हाथों अपना आशियां होगा।
चखाएंगे मजा बरबादी-ए-गुलशन का गुलचीं को,
बहार आएगी उस दिन जब अपना बागबां होगा।
जुदा मत हो मिरे पहलू से ये दर्दे वतन हरगिज,
न जाने बादे मुरदन मैं कहां और तू कहां होगा?
वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है?
सुना है आज मकतल में हमारा इम्तेहां होगा।
ये आए दिन की छेड़ अच्छी नहीं ये खंजरे कातिल,
बता कब फैसला उनके हमारे दरमियां होगा।
शहीदों की मजारों पर जुड़ेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

मंगलवार, 6 अगस्त 2013

अयोध्या के गम

                     
          कृष्ण प्रताप सिंह
पिछले दिनों भाजपा के नए उत्तर प्रदेश प्रभारी अमित शाह का अयोध्या आकर वहां भव्य राममंदिर के निर्माण का एलान करना इतनी बड़ी खबर बना कि उस पर हफ्तों चर्चाएं हुईं। उसी अयोध्या के कड़ी सुरक्षा वाले येलोजोन में बीते हफ्ते संतों-महंतों के खुद को सेकुलर व समाजवादी कहने वाले गुटों के बीच दिनदहाड़े हुई गोलीबारी में एक व्यक्ति की जान चली गई और कई अन्य घायल हो गए, लेकिन किसी ने इतना भी नोटिस नहीं लिया कि उसको लेकर प्रदेश की कानून-व्यवस्था पर सवाल खड़ा करता। सो भी जब इनमें एक गुट के नेता समाजवादी संत सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बाबा भवनाथदास और दूसरे के हिन्द केशरी हरिशंकरदास हंै। दोनों का ताल्लुक अयोध्या के सौहार्द की सबसे बड़ी प्रतीक हनुमान गढ़ी से है। अलबत्ता, हरद्वारी व सागरिया नाम की अलग-अलग पट्टियों से। 
पार्टियों में बंटे संत
यदि इस घटना की चर्चा होती तो आप जानते कि रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद अयोध्या का इकलौता या सबसे बड़ा गम नहीं है। धर्म की राजनीति ने उसके साधु-संतों व महंतों तक को न सिर्फ सपाई, भाजपाई, कांगे्रसी व बसपाई संतों के रूप में ही नहीं, बल्कि जातियों के आधार पर भी बांट रखा है। हाईकोर्ट ने प्रदेश के राजनीतिक दलों को जातियों की रैलियां करने से रोक रखा है, लेकिन अयोध्या में प्राय: हर जाति के अलग-अलग मंदिर हैं। यों, कहा जाता है कि अयोध्या का हर घर एक मंदिर है, जिसका पूरा सच यह है कि हर मंदिर एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान है, जिनकी परिसम्पत्तियों के विवाद संतों-महंतों को प्राय: अदालतों में खड़ा रखते हैं। न्यायिक सूत्र कहते हैं कि स्थानीय अदालतों को संतों के विवादों से मुक्त कर दिया जाए, तो उनका काम काफी हल्का हो जाए।
संपत्ति विवाद में गिरती हैं लाशें
सरकारी व निजी सुरक्षा अमले से घिरे रहने और प्राय: लग्जरी कारों में नजर आने वाले संत-महंत यजमानों को भले ही लोभ-मोह व माया से परे रहने का उपदेश देते हैं, मंदिरों की परिसंपत्तियों के विवादों में प्राय: लाशें गिराते या गिरवाते रहते हंै। क्योंकि, अदालती फैसले की लंबी प्रतीक्षा उनसे की नहीं जाती और बमों व गोलियों से तुरत-फुरत फैसला बहुत लुभाता है। घातक आग्नेयास्त्र उन्हें इतने पसंद हैं कि लाइसेंस पाने के लिए उनके सैकड़ों आवेदन फैजाबाद के जिलाधिकारी के कार्यालय में धूल फांक रहे हैं। कई साल पहले हुई रामजन्मभूमि के मुख्य पुजारी लालदास की नृशंस हत्या के बाद से संतों की चरण दाबकर चेला बनने और गला दबाकर महंत बन बैठने की परंपरा का बोझ ढोते-ढोते अयोध्या अपनी ऐसी छवि की बंदिनी हो गई है कि याद नहीं कर पाती कि कितने समय पहले यथार्थ की जमीन पर सहज होकर चली थी।
मैली हो गई राम की सरयू
वरिष्ठ कथाकार दूधनाथ सिंह ने अपने ‘आखिरी कलाम’ में अयोध्या को धर्म की मंडी के अतिरिक्त शहर का उच्छिष्ट और गांवों का वमन कहा था। इस उच्छिष्ट और वमन के चलते अयोध्या को छूकर बहने वाली सरयू नदी का वह पानी बुरी तरह प्रदूषित है, जिससे भगवान के भोग के सारे व्यंजन बनते हैं। फिर भी शराब फैक्टरियों व उद्योगों के सरयू में आने वाले प्रदूषण के ट्रीटमेंट के लिए कुछ नहीं किया जा रहा।
नशा, गंदगी और अश्लीलता
अयोध्या की गलियों के बारे में कहा जाता है कि वे दुनिया की सबसे सुंदर पर सबसे गंदी गलियां हैं। इस नगरी के सुंदरीकरण व पर्यटन के अंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर लाने के कई प्रयास पिछले दशकों में दम तोड़ चुके हैं। एक समय अयोध्या पैकेज की बड़ी चर्चा थी, लेकिन यह ठंडे बस्ते में चले गई। इसके प्राचीन वैभव, संस्कृति व वास्तुकला का गौरवगान तो बहुत होता है, लेकिन समझा नहीं जाता कि पर्यटक किसी भी शहर की आत्मा से साक्षात्कार करने आते हैं और इस दृष्टि से उसका वर्तमान भी समृद्ध होना चाहिए। अयोध्या में सुरक्षा व्यवस्था को छोड़ दीजिए तो कुछ भी ठीक नहीं है। राम की पैड़ी, रामकथा पार्क और चौधरी चरणसिंह घाट जैसे पर्यटकों के आकर्षण के गिनती के स्थल हैं भी, तो उपयुक्त देखरेख के अभाव में गन्धाते रहते हंै। दूसरी ओर जनरुचियां इतनी बिगाड़ दी गई हैं कि धार्मिक फिल्मों के आवरण में अश्लील सीडियां तक बिकती पाई जाती हैं। धर्म की यह नगरी नशे की गिरफ्त से भी नहीं बच पा रही।
न दिखे कोई गरीब...
जिस फैजाबाद जिले में अयोध्या है, पिछली जनगणना के अनुसार उसकी कुल जनसंख्या 20,88,929 है। इनमें 2,81,273 लोग नगरों या कस्बों में रहते हैं और शेष गांवों में। सिर्फ अयोध्या नगर की बात करें तो उसकी जनसंख्या 50 हजार से थोड़ी ही ज्यादा है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के दूसरे हिस्सों की तरह गरीबी यहां भी राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा है। लेकिन गरीबों की कितनी फिक्र की जाती है, इसे समझना हो तो जानना चाहिए कि अभी गरीबों की पहचान का काम भी पूरा नहीं हो पाया है। लेखपालों को अलिखित निर्देंश हैं कि वे किसी की आय भी इतनी कम होने का प्रमाणपत्र जारी न कराएं जिससे वह अपने को गरीब प्रमाणित कर सके।
सरयू में सक्रिय खनन माफिया
पूरे फैजाबाद जिले में हाथ कागज, दफ्ती बनाने, दस्तकारी हैंडलूूम और जूते बनाने के छिटपुट उद्योगों के अलावा उद्योग के नाम पर कुछ भी नहीं है। शायद इसका कारण क्षेत्र में किसी भी तरह के कच्चे माल की अनुपलब्धता है। बस सरयू में बालू पाई जाती है, माफिया जिसका अवैध खनन करके कमाई करते हैं। एक बार बालू से शीशा बनाने के उद्योग की स्थापना की बात चली थी, लेकिन वह भी आई गई हो गई। 
राम भरोसे श्रीराम अस्पताल
यहां अनेक लोग खडाऊं, मूर्तियों, कंठियों, फूलमालाओं व सौंदर्य प्रसाधनों आदि की बिक्री से जीविका अर्जित करते हैं, लेकिन चिकित्सा और स्वास्थ्य की सुविधाओं की दृष्टि से किसी का कोई पुरसाहाल नहीं है। भगवान श्रीराम के नाम पर जो अस्पताल है, वह भी भगवान भरोसे ही है।
कहने भर को विश्वविद्यालय
यहां गरीबी के मुख्य दो कारण बताए जाते हैं। पहला यह कि भूमि उपजाऊ होने के बावजूद खेती किसानी पिछड़ी हुई है। दूसरा यह कि नवयुवकों को उपयुक्त शिक्षा व रोजगार नहीं मिल पा रहे। खेती किसानी की हालत सुधारने और उससे संबंधित शोधों को बढ़ावा देने के लिए आचार्य नरेंद्रदेव के नाम पर जो कृषि विश्वविद्यालय खोला गया, भ्रष्टाचार, राजनीति व काहिली ने उसकी जड़ें खोखली कर दी हंै। डॉ. राममनोहर लोहिया के नाम पर जो अवध विश्वविद्यालय है, उसमें अभी तक भाषाओं का विभाग ही नहीं है। इस विश्वविद्यालय में ऐसा कुछ भी नहीं होता जिससे, उसके नाम की थोड़ी बहुत भी प्रासंगिकता सिद्ध हो। कहने को उसमें एक श्रीराम शोधपीठ भी है, लेकिन उसका पिछले बीस-पचीस वर्ष में अयोध्या को लेकर हुए महत्व के शोधों में कोई हिस्सा नहीं है। यही हाल महत्त्वाकांक्षी अयोध्या शोधसंस्थान का भी है। फिलहाल, कोई नहीं जानता कि अयोध्या को इन गमों से निजात कब मिलेगी।

दुनिया की सबसे बड़ी जन गोलबन्दी का भविष्य

विगत एक माह के मिस्र के घटनाक्रम ने दुनिया के प्रेक्षकों को हैरान कर दिया है। वह देश, ऐसा प्रतीत होता है, कि एक गृहयुद्ध की ओर अग्रसर है। एक ऐसे देश में, जिसने सिर्फ दो वर्ष पहले एक अभूतपूर्व जनउभार के


माध्यम से तीस वर्षों से सत्ता पर काबिज तानाशाह होस्नी मुबारक को हटाया गया था और इस मामले में वह दुनिया भर में मिसाल बन गया था, घटनाक्रम ने ऐसा मोड़ ले लिया है कि किसी के लिए भी पक्ष चुनना आसान नहीं है। पिछले माह के शुरू के जिस घटनाक्रम ने राष्ट्रपति मुर्सी को अपदस्थ किया उसके पीछे जिस जन गोलबन्दी का हाथ था उसे मिस्र के इतिहास का नहीं बल्कि दुनिया के इतिहास की सबसे बड़ी जन गोलबन्दी माना जा रहा है। 
  लेकिन इस घटनाक्रम की विडम्बना देखिये, एक चुने हुये राष्ट्रपति को हटा कर, अस्थायी तौर पर ही सही, जो शासन व्यवस्था कायम की गयी वह सैन्य व्यवस्था ही है। मुबारक और उसके बाद मुर्सी के खिलाफ जनता के आक्रोश और व्यापक गोलबन्दी के बावजूद, वस्तुतः दोनों राष्ट्रपतियों को सेना ने ही पदच्युत किया और ढाई वर्षों की प्रक्रिया के बावजूद जो सैन्य ढाँचा मुबारक शासन की रीढ़ था, वह न केवल अपनी जगह मौजूद है बल्कि हाल के घटनाक्रम से और मजबूत ही हुआ है। यह वही सेना है जिसे अमेरिका ने खड़ा किया है और दशकों से वित्त, अस्त्र-शास्त्रों और अन्य संसाधनों द्वारा पाला-पोसा है। इस विरोधाभास का क्या मतलब निकला जाय? क्या जनता के विद्रोहों का निष्फल होना तय है या फिर कोई और बात है? वह कौन सी चीज है जिसकी अनुपस्थिति में जनता के स्वतःस्फूर्त विद्रोहों, आन्दोलनों और कुर्बानियों का निष्फल होना निश्चित सा हो गया है। यह बात सिर्फ मिस्र के घटनाक्रम से नहीं पूरी दुनिया के अनेकों जगहों पर स्वतःस्फूर्त ढंग से फूट पड़ रहे जनता के आक्रोश से सामने आ रही है। 
  वस्तुत 2011 में जनता के विद्रोहों का जो नया सिलसिला आरम्भ हुआ था वह अभी थमा नहीं है। एक ओर तो पश्चिमी एशिया के उन देशों में जहाँ इस प्रक्रिया का आरम्भ हुआ था, यह अमेरिकी साम्राज्यवादी आकाओं और इलाके के भांति-भांति के प्रतिक्रियावादी शासकों की दखलंदाजी से विकृत से विकृततम रूप ग्रहण कर रहा है वहीँ दूसरी ओर दुनिया के पैमाने पर इसका फैलाव जारी है। खास कर संघर्ष के जिन रूपों को 2011 ने जन्म दिया था उन्हें दुनिया के हर नये देश में फूट पड़ रहे आन्दोलन ने अपनाया है। स्वतःस्फूर्त आन्दोलनों की नवीनतम कड़ी में ब्राजील और तुर्की का नाम शामिल हो गया है। जून 2013 में आरम्भ हुए ब्राजील के जनान्दोलन ने उस देश में इस पीढ़ी के विशालतम और सबसे महत्वपूर्ण विरोध प्रदर्शनों को अंजाम दिया है और देश की राजनीतिक व्यवस्था को हिला कर रख दिया है। इसके विस्फोटक फैलाव, आकार और पहुँच ने सरकार सहित पूरे राजनीतिक हलके को आश्चर्यचकित कर दिया। यह आन्दोलन किसी तानाशाह या निरंकुश सरकार के खिलाफ नहीं हुआ बल्कि ऐसे सरकार के खिलाफ हुआ है जो संविधानसम्मत तरीके से चुनी गयी है और एक सुधारवादी पार्टी ‘वर्कर्स पार्टी’ के नेतृत्व में 2003 से कायम है।
   इसी तरह जून के महीने में ही हुआ तुर्की के गेज़ी पार्क का आन्दोलन भी एक चुनी हुई सरकार के के खिलाफ था और अपने तौर-तरीकों और रूप के चुनाव में 2011 के पूर्ववर्ती आन्दोलनों से सादृश्य रखता था। लेकिन इन सभी आन्दोलनों की, यहाँ हमारा अभिप्राय 2011 से शुरू हुए स्वतःस्फूर्त आन्दोलनों की प्रक्रिया से है, एक और समानता उनके अन्तर्निहित कारणों की है। तुर्की, यूनान, ब्राजील, मिस्र और यूरोप के अन्य देशों में जिन आर्थिक कारणों ने व्यापक असंतोष को जन्म दिया और आन्दोलनों की जमीन तैयार की है उनका सीधा सम्बन्ध नव-उदारवादी नीतियों से है। एक तरह के ही जन असंतोष और स्वतःस्फूर्त आंदोलनों के रूप में उनके विस्फोट की विश्वव्यापी फैलाव का कारण समरूप आर्थिक नीतियों की विश्वव्यापी परिघटना में निहित है।
  निश्चित तौर पर जनता के ये विद्रोह सफलता और असफलताओं के थपेड़ों से शिक्षा ग्रहण करेंगे और कालान्तर में और परिपक्व होने की दिशा में बढ़ेंगे। हमें ऐसी ही उम्मीद करनी चाहिए। लेकिन हमें इस कड़वी हकीकत से भी मुँह नहीं मोड़ना चाहिए कि इन आन्दोलनों को अपने नेतृत्व के रूपों का विकास करना होगा। इसके लिए इन आन्दोलन के मौजूदा तदर्थ (या इण्टरनेट की भाषा में आभासी’) नेतृत्व को खुद को ‘‘सड़क की लड़ाई से सब कुछ तय होने’’ के मुगालते से बाहर निकालना होगा, आन्दोलन के दूरगामी लक्ष्यों के बारे में स्पष्टता हासिल करनी होगी और दूर दृष्टिसम्पन्न वास्तविक नेतृत्व के रूप में खुद को संगठित करना होगा। इसके लिए उन्हें विगत शताब्दी के क्रान्तियों के तौर तरीकों और नेतृत्व के रूपों से सकारात्मक-नकारात्मक शिक्षा ग्रहण करनी होगी।    
  सामाजिक माध्यम अच्छा है। उसकी आभासी दुनिया रमणीक है। यह भी सत्य है कि प्रचार और जन-गोलबन्दी में इसके इस्तेमाल में सावधानी की जरूरत तो है पर परहेज की गुञ्जाइश नहीं। लेकिन यह वास्तविक गोलबन्दी का और उसके वास्तविक नेतृत्व का विकल्प नहीं हो सकता है। जैसे राज्य और उसके अंग-उपांग—सेना, पुलिस, अदालत वगैरह आभासी नहीं है, उसी तरह उससे टकराने वाली संरचनाओं को भी वास्तविक होना होगा, और आने वाले समय के प्रतिनिधि के रूप में कहें तो, पतनोन्मुखी मौजूदा संरचनाओं से अधिक वास्तविक होना होगा।
 जनता की पहलकदमी का प्रस्फोट निश्चित तौर पर और हर स्थिति में स्वागतयोग्य है और नयी शताब्दी ने एक दशक बीतते न बीतते उसका शंखनाद कर दिया है। लेकिन जनता की पहलकदमी को यदि जनता के एक बेहतर भविष्य की विचारधारा और उस अनुरूप नेतृत्व की संरचनाओं के साथ नहीं मिलाया जाय तो वही परिणाम सामने आयेगा जो मिस्र और पश्चिम एशिया के अन्य देशों में सामने आ रहा है। एक ऐसी दुनिया जो सभी किस्म के प्रतिक्रियावादियों के आपसी मेलमिलाप व सामंजस्य और उनपर एक महाशक्ति के सर्वस्वीकृत प्रभुत्व के आधार पर चल रही है, यदि जनता की पहलकदमी को सही विचारधारा और सांगठनिक रूपों से मिलान नहीं किया जाय, तो अन्तिम योगफल में उनका फायदा उसी महाशक्ति को मिलेगा।
 (note: yah lekh 'red tulip' se sabhar prakashit hai. Devbrat sen ka nam galti se prakashi ho gaya hai.)

शनिवार, 3 अगस्त 2013

अयोध्या : तीन पीढ़ियां तीन दृष्टिकोण

                                               के पी सिंह, फैजाबाद 

हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सदियों से चला आता आपसी भरोसा, अवध की अपनी तरह की अनूठी गंगा-जमुनी संस्कृति की देन है। इसमें मंदिर-मस्जिद विवाद के चलते आई दरारों को प्राय: उस शांति के मुलम्मे से ढक दिया जाता है, जो 2010 में आये हाईकोर्ट के फैसले के बाद भी भंग नहीं हुई। लेकिन, सांप्रदायिकता व कट्टरता के पैरोकार अब इस शांति के तिलिस्म को तोड़ने से भी बाज नहीं आ रहे। गत दशहरे पर अयोध्या के जुड़वां शहर व जिला मुख्यालय फैजाबाद के शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में कथित छेड़छाड़ की एक मामूली सी घटना के बहाने भड़काए गए उपद्रव और अभी 21 अपै्रल, 2013 को कचेहरी में अल्पसंख्यक वकीलों पर हमले इसकी मिसाल हैं। वैसे भी शांति तभी लंबी उम्र पाती है, जब उसे लोगों के दिल व दिमाग में स्वत:स्फूर्त ढंग से प्रवाहित होने दिया जाए और उसकी स्थापना भय, अविश्वास अथवा जोर-जबरदस्ती की बिना पर न की जाए!
...जब धुटने टेकेगा अन्याय: लाल मोहम्मद
जाने क्या बात है कि अयोध्या के कोटिया मोहल्ले के निवासी वयोवृद्ध लाल मुहम्मद की बूढ़ी आखों ने अभी भी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा है। भले ही मूर्तियां रखे जाने के बाद विवादित मस्जिद में बंद तालों को एक फरवरी, 1986 को मुसलमानों का पक्ष सुने बिना खोल दिया गया, ध्वंस के बाद विवादित ढांचे को उसकी जगह पर जस का जस खड़ा करने का प्रधानमंत्री का वादा पूरा नहीं हुआ और हाईकोर्ट का फैसला भी किसी परिणति तक नहीं पहुंच सका!
जन्नतनशीन रहीमुल्ला के एक दिसम्बर, 1936 को पैदा हुए बेटे लाल मोहम्मद 22-23 दिसम्बर, 1949 की उस रात के गिने-चुने प्रत्यक्षदर्शियों में से हैं, जब बाबरी मस्जिद में साजिशन मूर्तियां रखी गईं या रखने वालों की भाषा में कहें तो वहां भगवान राम का ‘प्राकट्य’ हो गया! लाल मोहम्मद बताते हैं कि तब वे होश संभाल रहे थे। 23 दिसंबर, 1949 की सुबह वे आम शुक्रवारों की तरह, अलबत्ता, थोड़े अंदेशे के साथ, खुद से 20-22 साल बड़े अपने मामू  मुन्नू के साथ मस्जिद में नमाज के लिए पहुंचे, तो पाया कि मूर्तियां रखने के लिए मस्जिद के मुअज्जिन मुहम्मद इस्माइल को रात में ही मारपीट कर भगा दिया गया, फिर निषेधाज्ञा लगा दी गई और सुबह होते-होते वहां तैनात पुलिस नमाजियों को अंदर जाने से रोकने लगी।
    इस पर एतराज करने वाले नमाजियों के साथ मुन्नू व लाल मोहम्मद को भी पुलिस ने बेरहमी से पीटा और गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। फैजाबाद जेल में हुई सुनवाई में मजिस्ट्रेट द्वारा उन सबको महीने भर की कैद की सजा सुना दी गई और अलग-अलग जेलों में भेज दिया गया। लाल मोहम्मद की अवयस्कता पर भी रहम नहीं किया गया और उनको गोंडा जेल में यातनाओं के बीच बिना कसूर की सजा काटनी पड़ी। लाल मोहम्मद के लिए उस ‘रात’ की सुबह अभी तक नहीं हुई। 1949 में वे दर्जन भर रिक्शों के मालिक थे, जिनको चलवाने से इतनी आय हो जाती थी कि आराम से गुजारा हो सके, लेकिन अब उनके कुल मिलाकर सात बेटे-बेटियां मजदूरी करते हैं और उनके सिर पर छत के नाम पर बस एक झोपड़ी है। इस सबके लिए वे आम हिंदुओं को दोष नहीं देते। 1986, 1990 और 1992 के लिए भी नहीं। कहते हैं कि यह सब हिंदुओं को भरमाने व भटकाने का ‘अहलेदानिश’ का खेल है, जिसे सत्ताधीश, धर्माधीश व राजनीतिबाज मिलकर खेलते रहते हैं। 1949 में यह खेल इसलिए सफल हुआ कि मुसलमान देश का विभाजन कराने की तोहमत के बोझ से दबे हुए थे। 1986, 1990 व 1992 में इसलिए कि शौर्य दिवस, विजय दिवस मनाने वाले हिंदुओं को मालूम नहीं था कि उनके अपने ही नेता उन्हें ठग रहे हैं। लाल मुहम्मद के अनुसार ‘मुसलमानों को अभी भी दबाकर ही रखा जा रहा है! लेकिन बढ़ती चेतना के बीच बहुत दिनों तक उनकी हकतलफी संभव नहीं होगी। एक दिन ऐसा जरूर आयेगा, जब हक बात होगी और अन्याय हार मानने को मजबूर हो जाएगा।’
और भी गम हैं, जमाने में: अनुराग शर्मा
अयोध्या के जुड़वां शहर फैजाबाद में 6 जनवरी, 1971 को जनमे और वकालत व कंप्यूटर तक की पढ़ाई कर चुके युवा उद्यमी अनुराग वर्मा की उम्र 1986 में ताले खोले जाने के वक्त कमोबेश उतनी ही थी, जितनी 1949 में लाल मुहम्मद की। लेकिन उनका विद्रोही मन मंदिर-मस्जिद आंदोलन से जुड़ी कोई भी तारीख याद नहीं रखना चाहता। ताले खुले तो अनुराग हाईस्कूल में पढ़ते थे और समझ नहीं पा रहे थे कि जिस फैसले से दिलों की दूरियां बढ़ रही हैं और भाई-भाई के बीच दीवार खड़ी हो रही है, उसे लेकर दीपावली मनाने के पागलपन का हासिल क्या है? लेकिन 90-92 की हिंसा व हड़बोंग ने उनको विधिवत समझा दिया कि हमने देश बंटने के समय हुई भयावह हिंसा से भी कोई सबक नहीं सीखा। सीखते तो जान जाते कि मंदिर-मस्जिद के अलावा भी दुनिया में कई गम हैं और हिंसा या जोर-जबरदस्ती से विवाद हल नहीं होते, बल्कि और जटिल हो जाते हैं। अनुराग ने कहा, ‘मैं भूलूंगा नहीं, 92 में ध्वंस के बाद के कारसेवकराज में सूनी सड़क पर अपने बीमार दुधमुंहे भतीजे को अस्पताल से घर लाने के लिए विश्व हिंदू परिषद के स्वयंसेवकों से उनकी वैन में लिफ्ट मांगी तो उन्होंने मना कर दिया था। हिंदू होने का हवाला देने पर भी नहीं पसीजे थे, क्योंकि मैं दूसरी जाति से था! पिछले बीस वर्षों में अयोध्या में वह पीढ़ी भी जवान हो गई है, जिसने बाबरी मस्जिद में मूर्तियां रखी जाने से लेकर 1992 में उसके ध्वंस तक कुछ भी अपनी आंखों से नहीं देखा। इस पीढ़ी का आसमान तो पिछली पीढ़ी से अलग है ही, सपने, मंसूबे, विचार, नैतिकताएं, मान्यताएं और मूल्य आदि भी अलग हैं। अच्छे हैं या बुरे, इस पर अलग से बहस की जा सकती है। दुर्भाग्य से जीवनस्थितियों की जटिलताएं व अनिश्चितताएं इस पीढ़ी को आत्ममुग्धता, स्वार्थपरता, कुटिलता व मूल्यहीनता जैसी तोहमतों के हवाले करती जा रही हंै और वह न अपने पर्यावरण को दूषित होने से बचा पा रही है और न चेतनाओं को। इससे वह उम्मीद भी धुंधला रही है कि यह पीढ़ी उसे विरासत में मिले इस विवाद को सौमनस्य के किसी तार्किक बिंदु तक ले जाएगी।
पहचानती नहीं अभी राहवर को: भूमिका
 बीते दशहरे पर फैजाबाद में जो दंगे हुए, उनमें यही पीढ़ी ‘यूपी भी गुजरात बनेगा, फैजाबाद शुरुआत करेगा’ जैसे नारे लगाती और आगजनी व लूटपाट में सबसे अग्रणी भूमिका निभाती दिखी। इससे उन्हीं लोगों की बांछें खिलीं, जो उसके रूप में एक और पीढ़ी को सांप्रदायिक कट्टरताआें व जुनूनों के हवाले करना व लाभ उठाना चाहते हैं। संतोष की बात इतनी ही है कि इस पीढ़ी के भीतर से भी इसकी आलोचना के कुछ स्वर मुखर हैं।
    पूर्वी उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े साकेत पीजी कालेज से ड्राइंग-पेंटिंग से एमए कर रही छात्रा भूमिका शायद इसीलिए सांप्रदायिक हिंदू-मुसलमानों को कबीर के शब्दों में लताड़ती हुई हैं-इन दोउन राह न पाई! तो अपनी पीढ़ी से इसलिए नाराज हैं कि वह इनसे पूछती नहीं है कि रास्ता पाने में अभी ये और कितना समय लेंगे? फिर कहती हैं कि शायद इसलिए नहीं पूछ पाती क्योंकि पुरानी पहचानों से विलग हो गई है, लेकिन अपनी कोई नयी पहचान बना नहीं पाई है। सो पहचान के संकट से जूझती हुई खुद भी रास्ता ही तलाश रही है, संक्रमणकाल में जा फंसी है और-चलती है थोड़ी दूर हर इक तेज रौ के साथ, पहचानती नहीं है अभी राहवर को यह!
   भूमिका सवाल उठाती हैं कि इस बात का क्या तुक है कि छ:दिसम्बर को ढहा दिए गए पूजास्थल की तो बीसवीं बरसी मनाई जाए, लेकिन यह तथ्य किसी को याद न आए कि उस दिन अयोध्या में सोलह ‘बाबर की संतानों’ को मार डाला गया था और उनके कई सौ घर जला दिए गए थे? उनके अनुसार यह पूजास्थल से बड़ा नुकसान था, पर इसकी न कोई एफआईआर दर्ज हुई और न कोई जांच हुई। किसी ने इसके लिए आवाज भी नहीं उठाई। वे पूछती हैं कि क्या धर्मों-संप्रदायों के विवाद में आदमियों की जानें इतनी फालतू हो जाती हंै कि उनके जाने का कोई नोटिस ही न लिया जाए? उनके प्रश्नों से उम्मीद बंधती है कि नई पीढ़ी किसी न किसी दिन इस विवाद को अवश्य ही उसकी व्यर्थता का अहसास करा देगी।

यह लेख मेरे ब्लॉग से उठाकर यहाँ भी प्रकाशित किया गया है-
http://www.janadesh.in/InnerPage.aspx?Story_ID=5921%20&Category_ID=16&Title=%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%A8%20%E0%A4%AA%E0%A5%80%E0%A4%A2%E0%A4%BC%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%82%20%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%A8%20%E0%A4%A6%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%A3

http://dainiktribuneonline.com/2012/12/%E0%A4%85%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6-%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%A8-%E0%A4%AA%E0%A5%80%E0%A4%A2%E0%A4%BF%E0%A5%9F%E0%A4%BE/

नोट : अयोध्या का पूर्वनियोजित था. जानने के लिए पढ़ें-http://www.thehindu.com/news/states/other-states/faizabad-violence-was-wellplanned-and-targets-had-been-selected/article4053796.ece

बुधवार, 31 जुलाई 2013

शब्द शिल्पियों, तय करो किस ओर हो तुम

                         डॉ. देवेन्द्र चौधरी
                           (अंतिम किस्त)
समकालीन साहित्य के सामने मौजूद चुनौतियों का सामना करने के नाम पर बड़े से बड़े साहित्यकार भी कन्नी काटते हैं। खासकर ऐसे लोग जो एसी कमरों में बैठकर जनता के दुख-दर्द पर आंसू बहाते हैं या फिर वे लोग जिनकी सारी क्रांति आज भी काफी हाउसों में होती है। इससे कतराने के बजाय आज जरूरत है इनका सामना करने की, इनसे रूबरू होने की। समकालीन साहित्य के सामने मौजूद, जो गंभीर चुनौतियां हैं, उसको संबोधित करने के लिए हमें तीन मुख्य कामों को अपने हाथ में लेना ही होगा।
सर्वोपरि है जनता से जुड़ाव
पहला काम तो यह है कि हम सभी साहित्यकारों, कलाकारों और संस्कृति-क र्मियों को व्यक्तिगत जिंदगी के सीमित दायरे से निकल कर शोषित-पीड़ित आवाम के कष्टों, समस्याआें और संघर्षों में अधिकाधिक भागीदारी करनी होगी और एक बेहतर मनुष्य भी बनना होगा।
जरूरी है संवाद
दूसरा काम है, साहित्यकारों व संस्कृतिकर्मियों के ऐसे संगठनों को निर्मित करना, जो उनके बीच गंभीर संवाद की क्रिया को अधिकाधिक व्यापक बना सकें। जहां बिना पक्षपात या पूर्वाग्रह के  खुली बहस हो और एक खुले वैचारिक संघर्ष का वातावरण बने। आज हमारे बीच स्वस्थ संवाद का कितना बड़ा अभाव है, इस बात को हम सभी बखूबी जानते हैं। जो बहसें हो भी रही हैं उनमें अगंभीरता, औपचारिकता, पूर्वाग्रह, हठधर्मिता, गुटबंदी आदि प्रवृतियों का बोलबाला है। ऐसे में गंभीर दायत्विपूर्ण विचारमंथन और सत्यानुसंधान की गुजांइश कम ही होती है। इसलिए आज ऐसी साहित्यक सांस्कृतिक संस्थाओं और मंचों की महती आवश्यकता है, जहां दायित्वबोध हो, गंभीरता हो, खुलापन हो और सभी लोकतांत्रिक, प्रगतिशील व वामपंथ में विश्वास करने वाली विचारधाराओं को समान अवसर मिलें तथा उनमें खुली अंतर्कि्रया हो। आज के बिखराव, दावेदारों के अपने आग्रहों, व्याख्याओं तथा समाज और साहित्य में व्यापक विभ्रम और अनिश्चय के दौर में सत्य को पहचानने व उसे सामने लाने का यही तरीका है।
परंपरा का पुनर्मूल्यांकन
तीसरा काम, जो हमें अपने समय को समझने में बहुत मददगार हो सकता है, वह है अपनी परंपरा के पुनर्मूल्यांकन का काम। इसके लिए यह अपेक्षित होगा कि हम एक बार नए सिरे से आधुनिक भारत के इतिहास तथा आधुनिक भारतीय साहित्य के इतिहास पर दृष्टिपात करें। विशेष रूप से उसके भारतीय नवजागरण तथा स्वाधीनता आंदोलन के अध्यायों का। क्योंकि, आधुनिक भारत के निर्माण के इतिहास में, ये दो अध्याय सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। इन अध्यायों में, एक ओर यदि हमारे देश की जनता की गौरवशाली परंपरा, उसके सघर्ष, उसकी अद्भुत शक्ति, उसकी मेघा, वीरता, त्याग, बलिदान, जुझारूपन आदि महान उपलब्ध्यिां और संभावनाएं निहित हैं, तो दूसरी ओर उसकी बाधाएं, त्रुटियां, भूलें, भटकाव, त्रासदियां और विफलताएं भी। यदि आज इस परंपरा के भीतर मौजूद अंतरविरोध, स्वार्थों के टकराव, रणनीतियों, साजिशों, विभ्रमों और विफलताओं की संजीदगी के साथ पड़ताल करें, तो निश्चय ही इससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि इस संबंध में अब तक जो कार्य हुआ है और उसकी जो समझदारी निर्मित और प्रचारित हुई है, वह न केवल बहुत ही अपर्याप्त है, अपितु बहुत त्रुटिपूर्ण और भ्रामक भी है। भारतीय नवजागरण और स्वाधीनता आंदोलन के विकास की धारा के भीतर के अतरविरोधों के संदर्भ में शरतचंद्र, पे्रमचंद, निराला, नजरूल, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस आदि साहित्यकारों और क्रांतिकारियों का सही मूल्यांकन आज तक भी नहीं हो पाया है। यहां पर विस्तार में जाने की गुंजाइश न होने के कारण, हम इतना ही कहेंगे कि इस धारा के चिंतन में उस युग का सबसे सही, प्रगतिशील और क्रांतिकारी दृष्टिकोण प्रतिफलित हुआ और भारत के भविष्य के खतरों के बारे में उनकी समझदारी और चेतावनी बहुत दूर तक खरी और सटीक साबित हुई। आज भी उसे देख कर हमें चकित रह जाना पड़ता है। अत: अपनी परंपरा के इन गौरवशाली तत्वों को रेखांकित और प्रकाशित करना तथा उनसे अपना सही रिश्ता बनाना, आज अपने दायित्व को पूरा करने के काम के लिए अपरिहार्य है। अपने जीवन और साहित्य-सृजन के लिए नए आदर्शों-मूल्यों के निर्धारण का कार्य भी इस काम के बिना संभव नहीं।
पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन
साहित्यिक संस्थाओं के अलावा एक और चीज जो हमारी बहुत मद्दगार हो सकती है। वह है इन उद्देश्यों के अनुरूप संचालित होने वाली पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन। ऐसी पत्र-पत्रिकाएं संवाद को और भी व्यापक धरातल पर लाने का काम कर सकती हैं। आज साहित्यिक पत्रिकाएं तो बहुत सी प्रकाशित हो रही हैं, लेकिन उनके पीछे जो समझदारी और अपने परिवेश का आकलन है, वह समय की मांग की दृष्टि से अपर्याप्त और वांछित स्तर का नहीं है। उनके पीछे जो उद्देश्य हैं, वे अत्यंत सीमित या संकीर्ण हैं। व्यक्तिगत साहित्यिक प्रतिष्ठान की आकांक्षा, अपने समय की रचनाशीलता को प्रोत्साहित व प्रकाशित करना, विद्या-विशेष की निजी रुचि, सांगठनिक प्रेरणाएं या आवश्यकताएं आदि को छोड़ इनके पीछे कोई व्यापक उद्देश्य या कोई बड़ी प्रेरणा नहीं है।
         अंत में, हम यही कहना चाहेंगे कि आज के अभूतपूर्व संकट और दिग्भ्रम के कठिन समय में साहित्यकारों को अपने दायित्व निर्वाह करने के लिए इन कार्यों के बारे में व्यापक स्तर पर चर्चा चलानी होगी। इसी चर्चा के बीच से इन कार्यों को करने की जिम्मेदारी उठाने वाले लोगों का दल और उसका रास्ता निकलेगा। आज के सृजन-विरोधी, उसे दिग्भ्रमित और भ्रष्ट करने वाले वातावरण से टकराने का यही उपाय है। एक नई, शक्तिशाली और जुझारू रचनाशीलता को जन्म देने के लिए नए उच्चतर मूल्यों और आदर्शों को प्रतिबिम्बित करने वाली रचनाशीलता को जन्म देने के लिए, निश्चय ही ये कार्य उसकी पूर्व शर्त हैं। इन्हीं कार्यों के द्वारा एक नए सांस्कृतिक आंदोलन को जन्म देने में सहायक होने वाली-नए उच्चतर मूल्यों व आदर्शों को प्रतिबिम्बित करने वाली रचनाशीलता को जन्म देने के लिए, निश्चय ही ये कार्य उसकी पूर्व शर्त हैं। इन्हीं कार्यों के द्वारा एक नई सांस्कृतिक जागृति का उदय हो सकता है। 

सोमवार, 29 जुलाई 2013

शब्द शिल्पियों, तय करो किस ओर हो तुम

                                                                                   डॉ. देवेन्द्र चौधरी
                           (दूसरी क़िस्त)
हमारे समकालीन साहित्य में, जो चिंता और सामाजिक  सरोकार, जो  वेदना और विक्षोभ, जो प्रतिरोध और विरोध, जो मूल्यबोध व आदर्श और निष्ठा अभिव्यक्त हो भी रही है, उसके पीछे वह ऊर्जा, आवेग, जोश, रागात्मकता और गंभीरता नहीं है, जो कि पाठक और समाज को आंदोलित, उद्वेलित करने वाले एक शक्तिशाली और महान रचना के लिए अपेक्षित होते हैं। जाहिर है, ऐसी दशा में हमारा साहित्य-आज मूल्यों, विचारों, संवेदना, सौंदर्यबोध और सांस्कृतिक चेतना के विघटन और क्षय तथा उसकी कारक शक्तियों के विरुद्ध उस लडाÞई को लड़ सकने में समर्थ नहीं हो सकता, जो कि आज के समय में, इस कठिन चुनौती के बरअक्स साहित्य की भूमिका उसकी क्रिया-क्षमता, प्रहारकता, चोट और प्रभाव निस्तेज, निष्प्राण और कोई असर डालने में कारगर नहीं रही है। शासक वर्ग, न केवल राजनीति, अर्थव्यवस्था, सामाजिक जीवन आदि क्षेत्रों में, अपितु साहित्य, कला, रंगमंच, संचार माध्यमों आदि संस्कृति के क्षेत्रों में भी, लगभग अबोध रूप से अपनी योजनाएं, चालें और मंसूबे कार्यान्वित करने में कामयाब होता गया है। पिछले पचास सालों में भारतीय समाज के चिंतन, रीति-नीति, मूल्यों, आचार-व्यवहार आदि में भारी परिवर्तन आया है और वह सब शासक वर्गों के अपने हितों, चिंताओं, उद्ेश्यों और आकांक्षाओं के अनुरूप आया है। इन स्थितियों पर दृष्टिपात करने के बाद यह समझने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती कि वर्तमान समय में, समाज के अन्य क्षेत्रों के लोगों के साथ ही साहित्यकार का भी, अपने स्तर पर कितना बड़ा दायित्व है। अत: सवाल यह है कि आज साहित्यकार अपने इस दायित्व का निर्वाह किस प्रकार करें। इस संबंध में, हम जो अरसे में महसूस करते रहे हैं और सोचते-समझते रहे हैं उसे आपके सामने विनम्रतापूर्वक, बहस और संवाद की पूरी गुंजाइश के साथ, अत: किया के उद्देश्य से रख रखे हैं।
सबसे बुनियादी काम है मध्यवर्गीय मानसिकता से संघर्ष
हमारे विचार से, वर्तमान समय में साहित्यकारों का सबसे बड़ा व सबसे बुनियादी महत्व का कार्य है मध्यवर्गीय मानसिकता, चिंतन प्रणाली और उसके संस्कारों से पूरी सजगता और शक्ति के साथ संघर्ष करने का कार्य। आप सभी इस बात से अच्छी तरह से अवगत होंगे कि यह कोई नया सवाल नहीं है। इसे भारत में प्रगतिशील आंदोलन के उदय के साथ ही काफी जोर-शोर के साथ उठाया गया था। यह कभी तीव्र, कभी मद्धिम पड़ते हुए किसी न किसी रूप में आज तक चला आ रहा है, लेकिन दुर्भाग्यवश आज यह साहित्य की मुख्यधारा से कट कर लगभग विलीन-सा हो चला है। इसका परिणाम यह हुआ कि 1930-1936 से शुरू होकर आज तक रचे गए साहित्य का बड़ा भाग मध्यवर्गीय दृष्टिकोण, उसकी जिंदगी के सुख-दुख व अंतर्वस्तु में उसी की समस्याओं व अनुभव की चौहद्दी के भीतर रहकर ही रचा जाता रहा है। साहित्यकारों के एक व्यापक हिस्से का आज भी जनता और जन-आंदोलनों से कोई जुड़ाव नहीं है। वे जनता-जनार्दन के साथ आज तक प्रगाढ़ संबंध बनाने में नाकाम रहे हैं। साहित्यकारों के दृष्टिकोण में, देश की बहुसंख्यक शोषित पीड़ित जनता का दृष्टिकोण शामिल नहीं है।
व्यक्तिवाद से मुक्ति का सवाल अहम
मध्यवर्गीय मानसिकता से मुक्ति का मतलब है व्यक्तिवादी चिंतन से मुक्ति। निजी सुख-दुख, हित-अहित के अनुभवों के कोण से देखने के बजाय, शोषित-पीड़ित जनता के विशाल समाज के सुख-दुख और उनके हित के कोण देखना। अपने व्यक्तिगत, वर्गगत स्वार्थी-सुविधाओं को हल करने के सीमित दायरे को तोड़कर समष्टिगत स्वार्थ के दृष्टिकोण से प्रत्येक वस्तु या घटना के उचित-अनुचित, नैतिक, अनैतिक, न्याय-अन्याय, सुंदर-असुंदर, ग्राहृा-त्याज्य का विवेचन करना। अर्थात् हम एक ऐसे जीवनबोध और मूल्यबोध को अर्जित करें, जो अपनी नीति-नैतिकता, आचरण विधि और सांस्कृतिक चेतना में शोषित-पीड़ित मानवता की विस्तृत दुनिया के हितों पर आधारित हो। 
भूल-गलती
वास्तव में, यह एक सच्चाई है कि मध्यवर्गीय दृष्टिकोण और चिंतन-धारा के प्रवाह से मुक्त हुए बिना शासक-वर्गो के स्वार्थों, चिंतन, उसकी रीतियों-नीतियों, नारों और कार्यों की असलियत को उसके पूरे खतरे, धोखाधड़ी, साजिशों और उसके उद्देश्यों को समझना और समझाना संभव नहीं है। इसलिए अपने समय के व्यापक सामाजिक यथार्थ सामाजिक यथार्थ को भी जैसा कि वह वास्तव में है-उसकी पूरी गंभीरता और असीम अविराम त्रासदी के साथ समझ और महसूस कर सकना संभव नहीं है। तब यह भी तय है कि हमारे जीवन-क्रम, चिंतन और सृजन में विभ्रम, गंभीर त्रुटियां करने के खतरे और भटकाव भी हर कदम पर होंगे, जैसा कि भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन और हिंदी साहित्य के पिछले 60-65 वर्षों के इतिहास में अनेक बार होता रहा है। सन् 1942 में, प्रगतिशील साहित्यकारों के द्वारा साम्राज्यवाद विरोध की लाइन बनाकर चलना और जनांदोलन के उभार से कट जाना, सन् 1947 में भारत की सत्ता-हस्तांतरण के चरित्र के बारे में विभ्रम, अनिश्चय के बाद नेहरू के पूंजीवादी नेतृत्व को समर्थन देना, सन् 1947 में संपूर्ण क्र ांति के जन-आंदोलन से सीपीएम का हाथ खींचना तथा आपातकाल के दौरान सीपीआई के द्वारा कांग्रेस (ई) को समर्थन देने की हद तक जाना-कुछ एक ऐसे ही दृष्टांत हैं। इन भटकावों का साहित्य-सृजन की दिशा पर कितना घातक प्रभाव पड़ा, अभी भी एक अनुशीलन व मूल्यांकन का विषय है। मंदिर-मस्जिद के विवाद के प्रसंग में ‘सहमत’संस्था के राज्य सत्ता के सहयोग से किए गए सांस्कृतिक कर्म इसकी ताजा मिशाल थे।
जानें कि जोर-जुल्म, बेकारी क्यों है?
आज जब हम अपने समय के साहित्य को देखते हैं, तो यह बात शिद्दत के साथ महसूस होती है कि हमारे स्वाधीनता आंदोलन के समय के तमाम साहित्यकारों-विशेष रूप से प्रेमचंद, निराला, शरतचंद्र चट्टोध्याय, नजरुल इस्लाम आदि ने अपने समय के समाज और उसकी नियामक शक्तियों को जिस पैनेपन, मर्मज्ञता और महारत के साथ समझा था, वह उसके बाद के साहित्यकारों मेें दूर-दूर तक नहीं नजर आता। इसलिए वर्तमान समय में साहित्यकारों का एक दूसरा सबसे बड़ा काम है राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक स्तरों पर अपने समय के समाज की सही और विभ्रममुक्त समझदारी अर्जित करना। इस संबंध में, आज हमारे समय का मुख्य द्वंद्व क्या है? हमारे देश की जनता का मुख्य शत्रु कौन है? विभिन्न वामपंथी और गैर वामपंथी दलों की वास्तविकता भूमिका क्या है? उनका चरित्र क्या है? देश में आज विभिन्न क्षेत्रों में जनांदोलनों की बुरी दशा क्यों है? विभिन्न क्षेत्रों में एक के बाद एक शासक वर्गों की जनविरोधी नीतियां क्यों सफलतापूर्र्वक लागू होती जा रही हैं? देश की शोषित पीड़ित जनता का जीवन अपने संघर्षों से अर्जित अधिकारों, सुविधाओं से लगातार वंचित होता हुआ अधिकाधिक बदहाली की ओर क्यों जा रहा है? खाद्य, शिक्षा, बिजली-पानी, स्वास्थ्य, रोजगार आदि जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के सभी क्षेत्रों में संकट और अभाव क्यों गहराता जा रहा है? हर क्षेत्र में रुकावट या गतिरोध क्यों है? जनता के जीवन में क्षेत्रवाद, सांप्रदायिकता और जातिवाद का जहर क्यों और कैसे फैलता जा रहा है? अपने समय की इस परिस्थिति और इसके मुख्य कारण की अच्छी तरह से और गहरी समझदारी हासिल किए बिना आज के समय की चुनौती से टकराने वाले साहित्य की रचना हो ही नहीं सकती। निश्चय ही यह कार्य बहुत कठिन, भारी और श्रमसाध्य है, लेकिन इसके बिना कुछ किया भी नही जा सकता। पाश की कविता याद आ रही है, ‘बीच का कोई रास्ता नहीं होता।’ इसलिए जैसे भी हो, इसे करना ही होगा।
                                                                                                     (अंतिम किस्त आगामी पोस्ट में )

शनिवार, 27 जुलाई 2013

शब्द शिल्पियों, तय करो किस ओर हो तुम

छायावादी युग के बाद हिंदी साहित्य में प्रसाद, पंत, निराला, प्रेमचंद जैसी महान विभूतियां नहीं पैदा हुर्इं। बाद की पीढ़ी में वह वैज्ञानिक प्रखरता, गहन चिंतन, दृष्टि की व्यापकता, संवेदना की गहराई, अनुभूति की तीव्रता, भावों-विचारों की ऊंचाई, जीवन-दृष्टि की उदारता और स्वप्नदर्शिता नहीं दिखाई देती। वर्तमान साहित्य ने कुछ नए प्रतिमान जरूर गढ़े हैं, लेकिन फिर भी बड़े फलक पर वह वर्तमान से मुंह चुराता नजर आता है। प्रस्तुत आलेख कुछ ऐसे ही सवालों को बड़ी शिद्दत से उठाता है।
                 डॉ. देवेन्द्र चौधरी
                 (पहली किस्त)
यह कटु सत्य है कि छायावादी युग के बाद से हिंदी साहित्य निरंतर उतार पर आता हुआ नजर आता है। 1936 के बाद हिंदी साहित्य में प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी वर्मा, पे्रमचंद, रामचंद्र शुक्ल जैसी महान प्रतिभाएं और साधक-तपस्वी व्यक्तित्व नहीं उत्पन्न हुए। बाद की पीढ़ी में वह वैज्ञानिक प्रखरता, गहन चिंतन, दृष्टि की व्यापकता, संवेदना की गहराई, अनुभूति की तीव्रता, भावों-विचारों की ऊंचाई, जीवन-दृष्टि की उदारता और स्वप्नदर्शिता नहीं दिखाई देती। ऐसा कहने का तात्पर्य, इस युग के बाद के समूचे साहित्य के महत्व, कथ्य, शिल्प, भाषा-शैली के स्तरों पर उसकी विविधता, प्रयोगों और नवीनताओं को नकारना कदापि नहीं है, केवल उनकी तुलनात्मक स्थिति की ओर ध्यान आकर्षित करना भर है। छायावादी युग के बाद लेखकों की एक लंबी कतार है, जिनका कृतित्व, निस्संदेह उनके अथक सृजनात्मक संघर्ष, सुदीर्घ रचना-यात्रा, मूल्यवान चिंताओं, वेदनाओं और निष्ठाओं का परिचायक है। इसके बावजूद यह तथ्य है कि 1930 के बाद से हिंदी साहित्य के क्षेत्र में, व्यापक पैमाने पर व्यक्तिवाद, भोगवाद, निराशावाद, पराजयवाद, रुग्ण रोमांस, कुंठा, आत्मपीड़न, अंतर्मुखता, अनास्था, नियतिवाद, हालावाद मौजूद रहा। प्रगतिशील आंदोलन अवश्य आया, लेकिन वह स्वयं व्यक्तिवाद, अहंवाद, फिलिस्तीनिज्म, संकीर्णतावाद, यांत्रिकता, कठमुल्लावाद, उग्रतावाद, उदारवाद जैसी अनेकों बीमारियों से ग्रस्त था। इनके कारण, अपनी अपार संभावनाओं और दीर्घकालिक प्रयत्नों के बावजूद उसको अधिक सफलता नहीं मिल सकी। इन पतनशील प्रवृतियों को काटकर, उस समय जो एक नया विकल्प, एक नया आदर्श, एक नयी आस्था, एक नयी सोच-नयी संस्कृ ति को निर्मित करने का कार्य अपेक्षित था, उसमें यह सफल नहीं हो सका। परिणामस्वरूप राष्ट्रीय काव्य-धारा, हालावाद, रोमांटिक गीत-कविता, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, मनोविश्लेषणवाद, नयी कविता, नयी कहानी की धाराओं के अंतर्गत जो साहित्य रचा गया, उसकी बृहत्तर सामाजिक यथार्थ पर से पकड़ ढीली पड़ती गयी। वह अधिकांश में मध्यवर्गीय मानसिकता और उसके अनुभव संसार के दायरे में परिमित होता गया। इसमें दृष्टि की व्यापकता, हदय की रागात्मकता और चिंता की गंभीरता का प्रचुर ह्रास हुआ।
काल से नहीं हुई मुठभेड़
1930-36 के बाद रचा जाने वाला हिंदी साहित्य उस चुनौती का कभी भी ठीक तरह से मुकाबला नहीं कर पाया,  जो उसके सामने उस समय मौजूद थीं। वह नया मनुष्य, नया साहित्य, नये युग, नयी चेतना के नारों के बावजूद एक ऐसी वास्तविक नींव और प्रगतिशील चेतना को जन्म नहीं दे पाया, जो कुंठा, अनास्था, रुग्ण्ता, निराशा, दिग्भ्रम और भटकाव का शिकार होते हुए तत्कालीन जन-जीवन और साहित्य को संबल और प्रेरणा देती और उन शक्तियों से टकराती, जिनके चलते जन आंदोलन गतिरोध को शिकार हो रहा था।
'47 की महान त्रासदी पर मूक शब्द शिल्पी
1947 में जब राष्ट्रीय मुक्ति का स्वप्न, सत्ता के हस्तांतरण के साथ ही छिन्न-भिन्न हो गया और प्रेमचंद व निराला की आशंका और चेतावनी आश्चर्यजनक रूप से सत्य साबित हुई, तब भी इसके भारी महत्व को नहीं समझा जा सका। सन् 47 के बाद के साहित्य में इस महान् त्रासदी की समझदारी और वेदना तथा इसके विरुद्ध गहरा विक्षोभ, टकराहट और विद्रोह नहीं मिलता। झूठा सच (यशपाल), बलचनमा (नागार्जुन) ‘यह पथ बंधु था’ (नरेश मेहता), केदार और नागार्जुन की कविताओं आदि कुछ रचनाओं में इसकी झलक अवश्य मिलती है, लेकिन ऐसी रचनाएं परिणाम में कम हैं तथा उनकी समझदारी बहुत साफ नहीं है। सन् 47 के बाद, जो सरकार, देश की जनता के हितों-सपनों की पीठ में छुरा मारकर सत्तासीन हुई, साहित्यकारों के दल, उससे संघर्ष करने के भावों-विचारों को विसर्जित करते हुए, सुविधा भोग के लिये सरकारी प्रतिष्ठानों में नौकरियों और पूंजीपतियों के संस्थानों की ओर उन्मुख होने लगे। राज्य-सत्ता और साहित्यकारों के बीच द्वंद्व, विरोध और टक राहट क्षीण पड़ने लगी। विरोध का स्वर अपनी तीक्ष्ण धार, कठोर आक्रामकता और प्रहारता से रिक्त और औपचारिक सा होने लगा।
सामाजिक मूल्यों में क्षरण का रचनाकर्म पर असर
'47 के बाद के कुछ वर्षों का समय हिंदी साहित्य के इतिहास का एक ऐसा बिंदु है, जहां से साहित्य के क्षेत्र में व्यक्तिवाद, अहंवाद, अनास्थावाद, सुविधावाद, समझौतावाद, अवसरवाद आदि प्रवृतियां तीव्र गति पकड़ती हैं। इसी के साथ हमें मध्यवर्गीय समाज के कांतिकारी चरित्र में होने वाला क्षय तेज रफ्तार पकड़ता हुआ नजर देता है। इस परिघटना ने लेखकों की चेतना को बहुत व्यापक स्तर पर प्रभावित किया। इसके परिणाम स्वरूप लेखकों में जुझारूपन, अनम्य प्रतिरोध, त्याग, साधना, आदर्शनिष्ठा, जोश, विद्रोह, साहस, गहन अनूभूति-प्रवणता, आत्मा की महाप्राणता और उदारता के उक्च कोटि के गुणों का ह्रास हुआ। इससे साहित्य-सृजन के स्तर में निरंतर गिरावट की प्रवृति पैदा हुई।
लेखक बढ़े, सृजनशीलता में कमी आई
चार-पांच दशकों के बाद स्थिति यह है कि एक ओर यदि लेखकों और पुस्तकों की संख्या बहुत बढ़ी है, तो दूसरी ओर लेखकों की सृजनशीलता की आयु असंदिग्ध रूप से बहुत घटी है। पाठकों का दायरा निरंतर छोटा हुआ है, पठनीयता कम हुई है, समाज में साहित्य का महत्व, उसकी हैसियत, उसकी अपील, उसका प्रभाव कमतर हुआ है। कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, रंगमंच की तो बहुत ही बुरी दशा है। स्थिति की इस तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है और वह भी दुखद ओर चिंतनीय है। आज जिस प्रकार साहित्य, कला और सांस्कृतिक कर्म के क्षेत्र में राज्याश्रय , यश-लिप्सा, सम्मान, पुरस्कार, खेमाबंदी, गुटबंदी, मठाधीशी, प्रतिष्ठा की महत्वाकांक्षा, मंडी में क्रय-विक्रय का आकर्षण आदि का रुझान प्रबल से प्रबलतर होता जा रहा है, उसने निर्भीक व स्वाधीन चिंतन, संवेदना की व्यापकता और गइराई को भारी क्षति पहंचाई है, जो कि सृजनशीलता के अबोध विकास के लिए मूलभूत और अनिवार्य महत्व की चीजें हैं।       
                                                                                                            अगले अंक में जारी...

भगवान राम का वह पहला इस्तेमाल!

                                                                                                       कृष्ण प्रताप सिंह
बीती शताब्दी के आखिरी डेढ़ दशकों में रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को उग्रता की चरम परिणति तक ले जाकर भारतीय जनता पार्टी ने कांगे्रस को शिकस्त देने में उसका भरपूर इस्तेमाल किया, लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि स्वतंत्र भारत में चुनावी जीत के लिए भगवान राम के राजनीतिक इस्तेमाल की शुरुआत सबसे पहले कांगे्रस ने ही की थी। सो भी आजादी के थोड़े ही दिनों बाद,1948 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के फैजाबाद में हुए पहले उपचुनाव में अपनी तरह के अनूठे समाजवादी नेता आचार्य नरेन्द्रदेव के विरुद्ध। तब, जब उसके रचनात्मक विपक्ष के निर्माण की कोशिश में आचार्य जी उससे अलग होने और विधानसभा से इस्तीफा देने के बाद फिर से मतदाताओं का सामना कर रहे थे।
नरेन्द्र देव ने छोड़ी कांग्रेस
उस उपचुनाव में आचार्य जी की हार की दास्तान बड़ी ही मार्मिक और दुखदायी है। स्वतंत्रता संघर्ष की धूप और धूल खाते हुए वे उन दिनों के पांच नगरपालिकाओं (जिसमें फैजाबाद और अयोध्या भी शामिल थीं) के क्षेत्र से 1946 में उत्तर प्रदेश (जिसे तब संयुक्त प्रांत कहते थे) विधानसभा के निर्विरोध सदस्य निर्वाचित हुए थे। इससे पहले 1937 में भी वे विधानसभा का चुनाव जीते थे और प्रदेश के प्रीमियर (मुख्यमंत्री) पद के लिए हर किसी की पहली पसंद माने जाते थे। उनके द्वारा यह पद संभालने की उत्सुकता न जताए जाने के बाद ही पंडित गोविन्द वल्लभ पंत को उस पर आसीन किया गया था। इतिहास गवाह है कि आजादी के बाद कांग्रेस द्वारा अपनाई जा रही रीति-नीति से तालमेल न बैठा पाने के कारण आचार्य जी ने 31 मार्च, 1948 को 11 अन्य विधायकों के साथ कांग्रेस छोड़ दी और राजनीतिक नैतिकता का उच्च मानदंड स्थापित करते हुए विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर  अलग पार्टी बना ली थी। इस्तीफे के वक्त सदन को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा था: जनतंत्र की सफलता के लिए एक विरोधी दल का होना आवश्यक है। एक ऐसा विरोधी दल जो जनतंत्र के सिद्धान्त में विश्वास रखता हो, जो राज्य को किसी धर्म विशेष से संबद्ध न करना चाहता हो, जो गवर्नमेंट की आलोचना केवल आलोचना की दृष्टि से न करे और जिसकी आलोचना रचना व निर्माण के हित में हो न कि ध्वंस के लिए। उन्होंने अंदेशा जताया था कि देश में सांप्रदायिकता का जैसा प्राधान्य है और देशवासी जिस तरह अभी जनतंत्र के अभ्यस्त नहीं हैं, उससे खतरा है कि रचनात्मक विरोध के अभाव में सत्तादल में अधिनायकत्ववादी मनोवृत्तियां पनप जाएं। वे ऐसा नहीं होने देना चाहते इसलिए अपना पक्ष बदल रहे हैं। उन्होंने यह भी साफ किया था कि ऐसे अवसरों पर प्राय: नेता त्याग-पत्र नहीं देते। ‘हम चाहते तो इधर से उठकर किसी दूसरी तरफ बैठ जाते। किन्तु हमने ऐसा करना उचित नहीं समझा। ऐसा हो सकता है कि आपके आशीर्वाद से निकट भविष्य में हम इस विशाल भवन के किसी कोने में अपनी कुटी का निर्माण कर सकें, किन्तु चाहे यह संकल्प पूरा हो या नहीं, हम अपने सिद्धान्तों से विचलित नहीं होंगे।’ अपने संबोधन के अन्त में आचार्य जी ने सदन के अध्यक्ष के साथ सदन के नेता गोविन्दवल्लभ पंत के प्रति भी कृतज्ञता जताई थी। लेकिन पंत जी इस कृतज्ञता का कोई भी प्रतिफल देने के मूड में नहीं थे। उनको लग रहा था कि आचार्य जी के रूप में उनका सबसे प्रबल प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस से बाहर हो गया और वे चाहते थे कि किसी भी कीमत पर वह दोबारा चुनकर न आए।
आचार्य के खिलाफ चक्रव्यूह
फैजाबाद में आचार्य जी की रिक्त सीट पर उपचुनाव हुआ तो कांग्रेस के पास उनको वैचारिक टक्कर देने वाला कोई प्रत्याशी नहीं था। पार्टी के भीतर एक विचार यह भी था कि कांग्रेस अपना उम्मीदवार उतारे ही नहीं और 1946 की ही तरह आचार्य जी के निर्विरोध विधानसभा प्रवेश का रास्ता साफ कर दे। लेकिन पंत जी ने इसका प्रबल विरोध किया और संभवत: उन्हीं के प्रभाव में बाबा राघवदास को कांग्रेस प्रत्याशी बनाया गया। राघवदास किसी भी तरह आचार्य जी के मुकाबले में ठहरते नहीं थे। न ज्ञान व गुण के मामले में और न गौरव व गरिमा के मद्देनजर। उनकी सिर्फ एक विशेषता थी कि वे देश के विभाजन के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराते हुए हिन्दू कट्टरपंथियों के घृणा अभियानों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया करते थे। परस्पर अविश्वास के उस माहौल में विवादित बाबरी मस्जिद पर जबरन कब्जे की जो साजिशें चल रहीं थीं, बाबा राघवदास की उनसे भी संबद्धता बताई जाती थी। इसके बावजूद उन्हें विश्वास न था कि वे आचार्य जी से मैदान मार लेंगे। मुकाबले के दौरान हालत पतली होने लगी, तो उन्होंने यह बात किसी तरह पंत जी तक पहुंचाई। तब तक की स्थापित परंपरा थी कि प्रीमियर पद पर आसीन व्यक्ति उपचुनावों में प्रचार के लिए नहीं जाता था। लेकिन, कहते हैं कि कांग्रेस की आसन्न हार से डरे गोविन्दवल्लभ पंत ने इस परंम्परा को तोड़ने में ही भलाई समझी।
व्यूह रचनाकार की भूमिका में गोविन्द बल्लभ पंत
प्रसिद्ध पत्रकार एम. चेलपति राव ने लिखा है कि उस उपचुनाव में कांग्रेस के टहलुओं ने पहले आचार्य जी पर खूब कीचड़ उछाला, फिर गोविन्दवल्लभ पंत बाबा राघवदास का प्रचार करने फैजाबाद आए। शहर के चौक में हुई सभा में वे बोलने खड़े हुए तो बाबा राघवदास का नाम लेने के बजाए आचार्य जी की तारीफों के पुल बांधने लगे। उन्होंने कहा- आचार्य जी हिन्दी-उर्दू पर असाधारण रखते हैं। कई अन्य भाषाओं के भी ज्ञाता हैं। धाराप्रवाह व प्रभावी व्याख्यान देने की उनमें नैसर्गिक क्षमता है। विचारशक्ति के तो वे धनी हैं ही, उनकी वाक्पटुता बुद्धिजीवियों और सुधीजनों को आकर्षित करने वाली है। वे अतिउत्साही शिक्षक हैं और थोड़े से वाक्यों व चुनिंदा शब्दों में संक्षिप्तता और संश्लेषण की प्रतिभा दिखाते हुए किसी मुद्दे की स्पष्ट व विशद व्याख्या कर सकते हैं। वे दुर्लभगुण संपन्न ऐसे श्रेष्ठ पुरुष हैं, जिसके पास दुर्लभ बुद्धि, दुर्लभ प्रतिभा और दुर्लभ सत्यनिष्ठा है। पंत जी की बातें सुनकर बाबा राघवदास बेचैन हो उठे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि पंत जी उनका प्रचार करने आए हैं या रहा-सहा भट्ठा बैठाने। यह बात उनकी मुख मुद्रा से भी छिपी नहीं। वे खीझते हुए से बैठे रहे तो उनकी मन:स्थिति भांपकर पंत जी ने एक शातिर करवट ली। बोले- इतने गुणों के बावजूद आचार्य जी में एक ऐब है और यह इतना बड़ा ऐब है कि इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। वे मार्क्सवादी हैं और साथ ही नास्तिक भी। ईश्वर को नहीं मानते, धर्म को नहीं मानते और राम को उनके मानने का तो सवाल ही नहीं। वे अयोध्या से जीतकर गए तो निश्चित ही वह धर्मध्वजा नीची हो जाएगी, जो अभी खूब ऊंची फहराती है। इसलिए मैं आप सारे लोगों से निवेदन करता हूं कि आप बाबा राघवदास को जिताइए और धर्म की ध्वजा को नीची होने से बचाइए।
...और हार गए आचार्य
उस माहौल में वोटों के ध्रुवीकरण के लिए इतना ही काफी था। आचार्य जी ने दिखावे के लिए आस्तिक होना स्वीकार नहीं किया और वे उपचुनाव हार गए। बाबा राघवदास जीते और उन्होंने अपनी कारगुजारियों से कांग्रेस या अपने क्षेत्र की जनता का कितना और कैसा भला किया, इसे इस तथ्य से समझा जा सकता है कि 22, 23 दिसंबर, 1949 की रात बाबरी मस्जिद में गुपचुप मूर्तियां रखी गईं तो इस ‘अभियान’ की सफलता से गदगद होकर उन्होंने वहां जाकर लोगों को संबोधित करते हुए कहा था-‘मैं देखता हूं कि यहां के लोग मस्जिद पसंद नहीं करते, अत: कोई उसे लौटा नहीं सकता। यदि सरकार ने इसमें कोई हस्तक्षेप किया तो मैं त्यागपत्र दे दूंगा। मैं सरकार की ओर से आया हूं और उत्तरदायित्व के साथ यह कह रहा हूं।’

शनिवार, 20 जुलाई 2013

कात्यायनी और उनके पति के नाम एक कार्यकर्ता का खुला खत


मैडम कात्यायनी जी और शशिप्रकाश जी!
एक समय था, जब हम लोग आपके सबसे प्यारे कार्यकर्ता थे। हम आपके हर हुक्म को मानते। हम आपके लिए खाना बनाते, कपड़े साफ करते, झाड़ू-पोंछा करते, किताबों की धूल साफ करते, लेकिन गलती से भी यदि दुकान में सजी किताबों को पढ़ने की कोशिश करते तो आप हम साथियों पर किताबी कीड़ा या बुद्धिजीवी बनने का लेबल चस्पा कर समूह से बहिष्कृत कर देते। हम चंदा इकट्ठा करते, अभियान चलाते, संगठन बनाते, प्रकाशन के कामों में जुटे रहते, चौबीस घंटे में से मुश्किल से पांच घंटे से ज्यादा कभी न सोते, क्रांति के लिए हम लोग हाड़तोड़ मेहनत करते। हम कहने को आपके संगठन के होलटाइमर थे, लेकिन हमें अपनी आजीविका के लिए छोटे-मोटे काम करके 1000-500 रुपये की कमाई भी करनी होती। आपने हममें से कइयों की पढ़ाई छुड़वा दी, हम अपनी पढ़ाई आगे जारी रखने की बात कहते, तो लताड़ मिलती कि ‘कॅरियरियरिस्ट’ हो गए हो! पूंजीवाद के सेवक बनोगे! वहीं जब हम क्रांति के लिए जरूरी मार्क्सवादी किताबों को पढ़ते, तब  भी डांट खानी पड़ती-‘किताबी कीड़े बनते जा रहे हो, तुम्हारे अंदर बुद्धिजीवी गं्रथि विकसित हो गई है...।’ वहीं आपने अपने बेटे को बाकायदा अंग्रेजी माध्यम स्कूल/कालेज में पढ़ाया, उसके पीएचडी तक करवा दी। वह जिम जाता, संगीत की शिक्षा लेता, रोज ही चिकन बिरियानी खाता और हम स्वादिष्ट शाकाहारी व्यंजन को भी तरसते। कुलमिलाकर आपने हममें से ज्यादातर साथियों की योग्यता और कुशलता को कुचल-कुचलकर खत्म कर डाला। हां मैं जानता हूं कि इन सबके पीछे आपके पति शशि प्रकाश का ही हाथ था। शशि प्रकाश जी एक तरफ हमें अनपढ़ और जाहिल बनाते वहीं, अक्सर ही यह रटा हुआ जुमला भी सुनाते- ‘हर व्यक्ति किसी न किसी एक कार्य में कुशल होता है।’ शशि प्रकाश जी के निर्देशन में एक साल, दो साल, साल दर साल काम के दबाव के कारण हम समाज से अलग और घर परिवार से दूर हो गए। दोस्तों-रिश्तेदारों से अलग-थलग पड़ गए। उनके ही निर्देशन में लक्ष्य बनाया एक बैग से ही पूरा जीवन काटने का  और यही किया भी। आपने जब जहां जाने को कहा, बिना विलंब हम ट्रेन के साधारण डिब्बे में बैठ कर चले गए। बात के दिनों में काम करते हुए प्रश्न भी उठने लगे। जब हमने अपना मुंह खोला तब आपने निष्कासन, निलंबन, बहिष्कार, सजा और मनगढ़ंत आरोप मढ़ कर हमें संगठन से बाहर कर दिया। जब तक हमने प्रश्न नहीं किया, आपके लिए अच्छे बने रहे। प्रश्न करते ही बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। आपके आरोप भी अबूझ व अजीब होते। कामचोर, गंवार, मउगा, नैतिक रूप से पतित, कमअक्ल, स्वार्थी, बेइमान, पेटू आदि-आदि। हालांकि, हमारे प्रश्न बहुत साधारण होते। आखिर आप तो दुनिया का सबसे बड़ा दिमाग रखने वाले मार्क्सवाद के शिक्षक हैं, हम जाहिलोें की इतनी औकात कहां कि हम मार्क्सवाद पर आपसे बहस कर पाते।
एक कम्यून में रहने के बावजूद आपके परिवार के एक सदस्य, आपके बेटे अभिनव को काजू और बादाम खिलाया जाता, जबकि दूसरे साथी मूंगफली को भी तरसते। हम क्रांति के लिए सुबह तीन बजे उठते और वह सुबह दस बजे तक सोता रहता। उसकी और आप दोनों के परिवार के किसी सदस्य की छींक का भी इलाज आपोलो और फोर्टिज में होता, जबकि हमें सरकारी अस्पताल भी जाने नहीं दिया जाता। हमसे कहा जाता-‘इच्छा शक्ति का अभाव है, बहुत कमजोर शरीर है, असली इंसान बनो, अलेक्सेई मेरेस्सेव बनो! पावेल ब्लासोव और पावेल कोर्चागिन से कुछ सीखो!’
वहीं दूसरी ओर, आपके कुनबे के सभी लोग मेहनत-मशक्कत के काम से दूर रहते। वे मौज मस्ती करते और थकावट दूर करने के नाम पर जमकर खाते-पीते। आप दोनों ने हम साथियों को मार्क्सवाद के नाम पर ठगा है। आपने अपने इकलौते बच्चे की शादी खूब धूमधाम से की, जबकि बाकी साथियों के प्रेम को भी आपने तोड़वा दिया....कई महिला साथियों से एबॉ... फिर कभी मुंह खोलूंगा...। आपके बेटे और बहू के पास ऐशोआराम के सारे सामान हैं, पूरा बंगला भरा हुआ है, जबकि हमारे तीन बच्चे के परिवार के पास एक अदद चारपाई तक नहीं है। आपके परिवार के किसी भी तथाकथित क्रांतिकारी रिश्तेदार के हाथ में बंधी एक अच्छी कलाई घड़ी देख कर पूछने पर बताया जाता कि यह घड़ी क्रांति का समय बताएगी। गोया, इतनी जरूरी घड़ी किसी दूसरे के हाथ में हो ही नहीं सकती।
आप एक -एक करके हमारी प्रतिभा को दबाते या मारते चले गए। वहीं आप लोगों की गुप्त या छिपी प्रतिभाएं भी उभरती और संवरती चली गईं। मलाल इस बात का नहीं है कि ऐसा हुआ। लेकिन, आक्रोश इस बात का है कि आपने हमें क्रांति के नाम पर ठगा। बेइमानी तो पूंजीवाद में हर कोई करता है। जानता भी है कि ठगने और ठगाने वाले सभी एक दूसरे के शिकार व शिकारी हैं, लेकिन, आप तो ईमानदारी का चोगा पहनकर ठगते रहे और अभी भी ठग रहे हैं।
इसलिए, हम आपको जनता की अदालत में ले जाना चाहते हैं-
-क्योंकि आपने जनता को धोखा दिया, उसको लूटा और बर्बाद किया।
-क्योंकि आपने हम कार्यकर्ताओं की बहुमूल्य जिंदगी को बर्बाद कर दिया। 
- क्योंकि आप जनता के माल पर मौज कर रहे हैं और उल्टे हम कार्यकर्ताओं और अपने विरोधियों को अपनी ‘हैसियत’ का रोब दिखा रहे हैं।
- क्योंकि एक तरफ आप हमें भगोड़ा कहते हैं, जबकि अपने संगठन से निकालने के बाद जब हम संकट में थे, हमें मरने के लिए बिल्कुल अकेला छोड़ दिया।
-क्योंकि हम साथियों पर आपकी ओर से लगाया गया ‘मानहानि’ का आरोप सरासर झूठा और मनगढंÞत है।
-क्योंकि आपने हममें से कई साथियों को निराशा और हताशा की अंधी गली में धकेलने का काम किया है। कई परिवारों को आपने उजाड़ दिया, उनके बच्चे सड़क पर आ गए, जबकि आपका परिवार दिन-रात तरक्की करता गया है।
- हम साथियों का आपके संगठन में किस तरह मजाक उड़ाया जाता था, क्या-क्या घटिया शब्द इस्तेमाल किए जाते थे, क्या उसका सबूत पेश करें? जनता की अदालत में जनता की मानहानि करने का केस तो आप पर बनता है।
-क्योंकि आप एक तरफ तो अपने साहित्य में ‘कोर्ट-कचहरी-न्यायालय-संविधान पर भरोसा न होने’ की बातें करते हैं और दूसरी ओर हमारे साथियों पर मानहानि का आरोप मढ़ कोर्ट में घसीटने की धमकी देते हैं।
                                                                                                                -पी. कुमार
नोट : माननीय कात्यायनी जी और शशि प्रकाश जी यदि आप चाहेंगे, तो और तथ्यों के साथ पुन: अपनी बात रखूंगा। उम्मीद है कि आप मेरे सवालों का जवाब जरूर देंगे।

शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

महान कवियित्री कात्यायनी के नोटिस का जवाब

                                   वाह! खूब...उल्टा चोर...

                                              सत्येन्द्र कुमार, लखनऊ
हमें जानकारी मिली है कि सुश्री कात्यायनी, सत्यम एवं रामबाबू जो एक व्यक्ति भी है एवं कुछ संस्थाओं के अधिकारी भी, ये लोग संस्थाओं के माध्यम से हमारे ऊपर 25 लाख की मानहानि का वकालतन नोटिस भेज रखा है। उस नोटिस में मानहानि का आधार पुस्तक 'क्रान्ति की नटवरगिरी' के आलेखों को बनाया गया है।
मेरा कहना है कि उस पुस्तिका में मैंने नटवरगिरी का आरोप सुश्री कात्यायनी के पतिदेव शशिप्रकाश पर ही लगाया है, जिसका उन्होंने अपनी निकृष्ट भाषा का इस्तेमाल करते हुये मेरी बेटी शालिनी के नाम से जबाब दिया है। जो कि उसी पुस्तिका में छपा भी है। उस पुस्तिका में तो सारी बहस शशि प्रकाश से है तो इसमें सुश्री कात्यायनी अपनी क्यों नाक घुसा रही है। शशि प्रकाश का कोई मान नहीं है क्या? वो तो सामने आयें। कभी मेरी बेटी शालिनी, कभी अपनी पत्नी कात्यायनी के कन्धे का इस्तेमाल बार-2 क्यों करते है। जैसे डा0 दूधनाथ की  बेटी समीक्षा ने स्वीकार किया कि साथी देवेन्द्र को जलील करने के लिए नोएडा में उसका इस्तेमाल किया गया और मामला पुलिस तक पहुँच गया था। इसकी सारी फर्जी योजना शशि प्रकाश ने ही बनाई थी।
     मेरे स्पष्ट कहना है कि महान माओवादी-क्रान्तिकारी शशि प्रकाश बार-बार पुलिस-अदालत महिलाओं आदि का सहारा क्यों लेते है। आखिर खुलकर सामने आने में हिचकते क्यों है। जब उनकी सारी क्रान्तिकारिता बुर्जुवा व्यवस्था की पुलिस-अदालत पर ही निर्भर है तो उस संगठन से सब कुछ लुटाने के बाद बाहर आये सारे लोग अदालतों तक पहुँच कर अपना गवाही देने को मजबूर होंगे। अदालतों को सबूत चाहिये और उसे सबूत मिलेगा। पहले जनाब अदालत में जाकर शुरूआत तो करें।
    मेरी बेटी शालिनी कैन्सर की बीमारी से 29 मार्च 2013 को चली गयी। जब से 15 जनवरी 2013 को हम लोगों को (मां-बाप-बहनों) को मालूम हुआ, उसके बाद से लखनऊ में जो-जो झूठ का ड्रामा खेला गया उसमें गवाह लखनऊ के बहुत जिम्मेदार वरिष्ठ क्रान्तिकारी साथी भी है। बाद में काफी दबाव में आने के बाद केवल मां को ही मिलने की इजाजत मिली। शशि प्रकाश पता नहीं कौन से मार्क्स-माओं का सिद्धान्त पढ़े है। सारी संवेदनायें सूख गयी है या कम्युनिजम का नाटक करते है। जिसकी बेटी कैन्सर से मरने वाली हो, उस मां को महीनों बाद जानकारी मिलती है और केवल अकेले मिलने की इजाजत मिलती है। कारण यह कि वह भी शशि प्रकाश के साथ विवाद में अपने पति यानी मेरे साथ खड़ी थी वगैरह-वगैरह ...एक मां की पीड़ा को शशि प्रकाश समझ ही नहीं सकते है। वैसे भी यह सब तो वास्तव में एक संवेदनशील इन्सान ही समझ सकता है। 15 जनवरी के बाद से हमें अपनी पत्नी से आंख मिलाते हुये हिचक हो रही थी कि मेरे ही कारण मेरे ही साथ मेरी-बेटी शशि प्रकाश के संगठन उर्फ गैंग में गयी थी। मैंने कुछ बुनियादी सवाल खड़ा किया तो बाहर कर दिया और मेरे खिलाफ बेटी का इस्तेमाल किया गया। एक माह जिसकी संतान मृत्युशैय्या पर हो, उसको मिलने न दिया जाय और उस पर राजनीति खेला जाय, वह समझ नहीं पा रही थी और मैं अपने आप को अपराधी महसूस कर रहा था। क्या मेरी सोच गलत थी? अपने बच्चों को सामाजिक परिवर्तन की राह पर भेजना एक अपराधिक कृत्य था। बाद में मिलने को इजाजत मिली भी तो बहुत शर्तों के साथ। यहाँ तक कि मां ने अपनी दुकान की कमाई का दस हजार रूपया शालिनी को दिया इलाज के लिए, तो पहले उसने रख लिया फिर शशि प्रकाश का फोन आने पर लौटा दिया। पाठक खुद महसूस करें कि उस मां पर क्या बीता होगा। दो दिन बाद ही मां से कहा गया कि अब आप जाइये और कभी-भी यहाँ आ सकती है, जबकि वो तो अपने जिगर के टुकड़े के साथ ही रहना चाहती थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उनकी इस इच्छा को खारिज कर दिया गया।
    अन्तिम बार मरने के 25-26 दिन पहले कुछ मिन्टों के लिए धर्मशिला अस्पताल में माँ मिली और जाते समय बेटी की आँखें मां का पीछा करती रही...जिसको याद करके मां आज भी रोते-2 बेहाल हो जाती है। उस समय मै अपने आप को अपराधी महसूस करने लगता हूँ। मेरा अपराध केवल यही था कि सामाजिक परिवर्तन की राह पर मैं तन मन धन से अपने परिवार और बच्चों के साथ निकल पड़ा और आज भी वही कार्य कर रहा हूँ। तो गलती कहाँ हुई? क्या मेरी कहानी के बाद कोई बाप अपने बेटे-बेटियों को इस राह में भेजना चाहेगा? आखिर कारवां  बनेगा कैसे? दुनिया बदलेगी कैसे?
    अपने कार्यकर्ताओं को क्रान्ति के नाम पर तरंगित करने के लिए शशि प्रकाश ने बेटी शालिनी के नाम से एक कवितारूपी वसीयतनामा भी जारी किया। उसी समय तुरंत, बेटी के नाम से ब्लाग बनाकर जिसमें मुझे गाली देने के साथ मृत्यु के बाद शरीर दान का जिक्र था। परन्तु उसकी भावनाओं की अवहेलना करते हुये महान क्रान्तिकारी शशि प्रकाश एक तो उसके अन्तिम क्रिया में भी नहीं गये और उसे शवदाह गृह में जलाया गया। जबकि मैं खुद बेटी की वसीयत का सम्मान करते हुये उसके शरीर के पास तक नहीं गया जैसा कि उसने वसीयत कर रखा था। एक पिता की पीड़ा शशि प्रकाश नहीं समझ सकते। वो तो डर के मारे वहाँ पहुँचा ही नहीं। माओ ने तो कहा है कि एक सच्चा क्रान्तिकारी किसी से नहीं डरता, फिर शशि प्रकाश ?
    शालिनी के शरीर को जलाकर शशि प्रकाश मात्र सबूत नष्ट करना चाहते थे, ताकि कल यह न पता चल पाये कि शालिनी को विगत दो-तीन वर्षों से बच्चेदानी में ट्यूमर था, जिसके ही कारण-कैंसर फैला। लड़की इलाज के अभाव में गयी। ऐसा ही साथी अरविन्द्र के साथ भी हुआ था। शशि प्रकाश जी आप आइये मैदान में...बात निकलेगी तो बहुत दूर तलक जायेगी।

शनिवार, 6 जुलाई 2013

कभी शशि प्रकाश मेरे आदर्श थे, आज क्रांति का भगोड़ा, थू ...

  मैं शशि प्रकाश को ही आदर्श मानता था। मुझे यह शिक्षा दी गयी थी कि ' भाईसाहब' यानी शशि प्रकाश दुनिया में 'चौथी खोपड़ी' हैं। मेरे अंदर यह सवाल कई बार उठा कि जब यह ' चौथी खोपड़ी' हैं तो प्रथम, दूसरी और तीसरी खोपड़ी कौन है? बाद में पता चला कि पहली खोपड़ी मार्क्स थे, दूसरी लेनिन, तीसरी खोपड़ी माओ थे। अब माओ के बाद तो कोई हुआ नहीं। इसलिए चौथी खोपड़ी भाई साहब हुए न। हमने बाद में महसूस किया कि शशि प्रकाश का शातिर दिमाग पुनर्जागरण-प्रबोधन की बात करते हुए प्रकाशन और संस्थानों के मालिक बनने की होड़ में लग गया और हम लोग उसके पुर्जे होते गए. मेरा साफ मानना है कि शशि प्रकाश को हीरो बनाने में कुछ हद तक कमेटी के वे साथी भी जिम्मेदार रहे हैं जिन्होंने सब कुछ समझते हुए भी इतने दिनों तक एक क्रांति विरोधी आदमी का साथ दिया.
                                                                जय प्रताप सिंह
  रिवोल्यूशनरी कम्युनिस्ट लीग ऑफ इंडिया एक कम्पनी है जो शहीदे आजम भगत सिंह के नाम पर युवाओं को भर्ती करती है. इसके लिए कई तरह के अभियानों का नाम भी दिया जाता है. उदाहरण के लिए 'क्रांतिकारी लोग स्वराज अभियान. कार्यकर्ता चार पेज का एक पर्चा लेकर सुबह पांच बजे से लेकर रात 8 बजे तक कालोनियों, मोहल्लों, ट्रेनों, बसों आदि में घर-घर जाकर कम्पनी के मालिक माननीय श्री श्री शशि प्रकाश जी महाराज द्वारा रटाए गये चंद शब्दों को लोगों के सामने उगल देते हैं। लोग भगत सिंह के नाम पर काफी पैसा भी देते हैं। पैसा कहां जाता था यह सब तो ईमानदार कार्यकर्ताओं के लिए कोई मायने नहीं रखता था, लेकिन इतना तो साफ था कि पारिवारिक मंडली ऐशो आराम की चीजों का उपभोग करती थी। उदाहरण के लिए लखनऊ और दिल्ली के पाश इलाके में रहने और उनके बेटे जिन्हें भविष्य के 'लेनिन' के नाम से नवाजा जाता था, उसके लिए महंगा से महंगा म्यूजिक सिस्टम, गिटार आदि उपलब्ध कराया जाता था।
      इसी संगठन के एक हिस्सा थे कामरेड अरविन्द जो अब नहीं रहे। अरविंद एक अच्च्छे मार्क्सवादी थे, लेकिन सब कुछ जानते हुए भी संगठन का मुखर विरोध नहीं करते थे। यह उनकी सबसे बड़ी कमजोरी थी। अरविंद चूंकि जन संगठनों से जुड़े हुए थे और जनसंघर्षों का नेतृत्व भी करते थे, इसलिए कार्यकर्ताओं के दिल की बात को बखूबी समझते थे। कभी-कभी शशि प्रकाश से हिम्मत करके चर्चा भी करते थे। लेकिन, शशि प्रकाश के पास से लौटने के बाद अरविंद उन्हीं सवालों को जायज कहते जिन पर हम लोग सवाल उठाये होते. हालाँकि वह बातें उनके दिल से नहीं निकलती थी, क्योंकि ऐसे समय में वह आंख मिलाकर बात नहीं करते थे और फिर लोगों से उनके घर परिवार और ब्यक्तिगत संबंधों की बातें करने लग जाते।
     बाद में पता चला कि शशि प्रकाश और कात्यायनी के सामने अरविंद जब संगठन की गलत लाइन पर सवाल उठाते हुए कार्यकर्ताओं के सवालों को अक्षरश:रखते थे, तो शशि प्रकाश इसे आदर्शवाद का नाम देकर उनकी जमकर आलोचना करते। उसके ठीक बाद अरविन्द को बिगुल, दायित्ववोध पत्रिकाओं के लिए लेख आदि का काम करने में शशि प्रकाश लगा देते.
     वैसे एक बात बताते चलें कि इस दुकान रूपी संगठन में जब भी कोई साथी अपना स्वास्थ्य खराब होने की बात करता, तो उसकी ऐसे खिल्ली उड़ाई जाती कि वह दोबारा चाहे जितना भी बीमार हो, बीमारी का जिक्र नहीं करता था। इस संगठन में आम घरों से आये हुए कार्यकर्ताओं के लिए आराम हराम था। शायद यह भी एक कारण रहा होगा कि दिन रात काम करते रहने के कारण साथी अरविंद का शरीर भी रोगग्रस्त हो गया। दवा के नाम पर मात्र कुछ मामूली दवाएं ही उनके पास होती थीं। इससे अधिक के बारे में वे सोच भी नहीं सकते थे, क्योंकि महंगे अस्पतालों में जाकर इलाज कराने का अधिकार तो श्री श्री शशि प्रकाश एंड कुनबे को ही था।
    शशि प्रकाश के आंख का इलाज अमेरिका में करवाने की बात होती, लेकिन साथी अरविन्द का अपने ही देश में ठीक से इलाज नहीं हो पाया और उनकी अल्सर फटने से मौत हो गयी। सबसे दु:ख की बात तो यह थी कि इस क्रांति विरोधी आदमी (शशि प्रकाश) के इलाज में जो पैसा खर्च होता था, वह उन मजदूरों और आम लोगों का होता था जो अपनी रोटी के एक टुकड़ों में से अपनी मुक्ति के लिए लड़े जा रहे आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए सहयोग करते थे।
     जहां-जहां अरविंद ने नेत्रृत्वकारी व्यक्ति के रूप में काम किया, वहां से उन्हें 'मोर्चे पर फेल' बताकर हटा दिया जाता। अंत में उन्हें गोरखपुर के सांस्कृतिक कुटीर में अकेले सोचने के लिए पटक दिया गया। यहां तक कि उस खतरनाक बीमारी के दौरान जब पास में किसी अपने की जरूरत सबसे ज्यादा होती है, उस समय साथी अरविंद अकेले उस मकान में अनुवाद का काम कर रहे थे। दायित्वबोध और बिगुल के लिए लेख लिख रहे थे। उधर उनकी पत्नी मीनाक्षी दिल्ली के एक फ्लैट में रहकर 'युद्ध' चला रही थीं। उन्होंने दिल्ली का फ्लैट छोड़कर अरविन्द के पास आना गवारा नहीं समझा या फिर शशि प्रकाश ने उन्हें अरविन्द के पास जाने नहीं दिया? यहां तक कि किसी अन्य वरिष्ठ साथी तक को साथी अरविन्द के पास नहीं भेजा। जिस समय हमारा साथी अल्सर के दर्द से तड़प-तड़प कर दम तोड़ रहा था, उस समय उनके पास एक-दो नये साथी ही थे। इन सब चीजों पर अगर गौर करें, तो शशि प्रकाश को अरविन्द का हत्यारा नहीं तो और क्या कहा जाएगा?
     मेरा मानना है है कि शशि प्रकाश ने बहुत सोच-समझकर अरविन्द को धीमी मौत के हवाले किया था, क्योंकि वरिष्ठ साथियों और संगठनकर्ता में वही अब अकेले बचे थे। और सही मायने में उनके पास ही मजदूर वर्ग के बीच कामों का ज्यादा अनुभव था। शशि प्रकाश तो इस मामले में बिलकुल जीरो है।
      मैं भी इस संगठन में 1998 से लेकर 2006 तक बतौर होलटाइमर के रूप में काम किया हूं। इस दौरान संगठन की पूरी राजनीति को जाना और समझा भी। हमने महसूस किया कि शशि प्रकाश का शातिर दिमाग पुनर्जागरण-प्रबोधन की बात करते हुए प्रकाशन और संस्थानों के मालिक बनने की होड़ में लग गया था और हम लोग उसके पुर्जे होते गए. मेरा साफ मानना है कि शशि प्रकाश को हीरो बनाने में कुछ हद तक कमेटी के वे साथी भी जिम्मेदार रहे हैं, जिन्होंने सब कुछ समझते हुए भी इतने दिनों तक एक क्रांति विरोधी आदमी का साथ दिया.
ऐसे साथियों का इतने दिनों तक जुडऩे का एक कारण यह भी हो सकता है कि वे जिस मध्यवर्गीय परिवेश से आये थे, वह परिवेश ही रोके रहा हो. शशि प्रकाश के शब्दों में-'हमें सर्वहारा के बीच रह कर सर्वहारा नहीं बन जाना चाहिए, बल्कि हम उन्हे उन्नत संस्कृति की ओर ले जाएंगे।' इसके लिए कमेटी व उच्च घराने से आये हुए लोगों को ब्रांडेड जींस और टीशर्ट तक पहनने के लिए प्रेरित किया जाता रहा है। ऐसा इसलिए कि शशि प्रकाश और कात्यायनी भी उच्च मध्यवर्गीय जीवन जी रहे थे। कोई उन पर सवाल न उठाए इसलिए कमेटी के अन्य साथियों के आगे भी थोड़ा सा जूठन फेंक दिया जाता। कई कमेटी के साथी शशि प्रकाश और उनके कुनबे के उतारे कपड़े पहनकर धन्य हो जाते थे। यह रोग आगे चल कर ईमानदार साथियों में भी घर कर गया और वे सुविधाभोगी होते गये।
      यह भी एक सच्चाई है कि किसी को अंधेरे में रखकर गलत रास्ते पर नहीं चला जा सकता। यही कारण रहा कि शशि प्रकाश को जब भी लगा कि अब तो फलां कार्यकर्ता या कमेटी सदस्य भी सयाना हो गया और हमारे ऊपर सवाल उठाएगा, तो उन सबको किनारे लगाने का तरीका अख्तियार किया। इतना तो वह समझ ही गए थे कि इन लोगों को इस कदर सुविधाभोगी बना दिया है कि अपनी सुविधाओं को ही जुटाने में लगे रहेंगे.
     शशि प्रकाश इस बात को जनता है कि कि समाज के बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों में ख्याति तो हो ही गयी है, लोग दुकान पर आते ही रहेंगे। रही बात कार्यकर्ताओं की, तो वे चाहे ज्यादा दिनों तक रुकें या न रुकें फिर भी जितना दिन रुकेंगे भीख मांग कर लाएंगे ही और उसकी झोली भरकर चले जाएंगे। कुल मिलाकर शशि प्रकाश एंड कंपनी अपनी सोच में कामयाब हो गयी है।
      इसमें मैं भी अपने आप को साफ सुथरा नहीं मानता, क्योंकि जब यह संगठन इतना ही मानवद्रोही था, तो इतने दिनों तक मैंने काम ही क्यों किया? मैं भी सिद्धार्थनगर जिले के ग्रामीण परिवेश से आया और भगत सिंह की सोच को आगे बढ़ाने के नाम पर देश में एक क्रांतिकारी आंदोलन खड़ा करने के लिए काम में जुट गया। इसके लिए मैंने ज्यादा पढऩा लिखना उचित नहीं समझा। मुझे यह शिक्षा भी मिली कि पढऩा लिखना तो बुद्धिजीवियों का काम है। हमें संगठन के लिए अधिक से अधिक पैसा जुटाना और युवाओं को संगठन से जोडऩा है। और मैं इसी काम में लग गया। मुझे संगठन की ओर से घर भी छोडवा़ दिया गया और मर्यादपुर में तीन सालों तक रहकर देहाती मजदूर किसान यूनियन, नारी सभा और नौजवान भारत सभा के नाम पर काम करने के लिए लगा दिया गया। पीछे के सारे रिश्ते नाते एवं घर परिवार से संगठन ने विरोध करवा दिया, जिससे कि हम बहुत जल्द वापस न जा पाएं। यही नहीं अपना घर और जमीन बेचने के लिए, अपने ही पिता के खिलाफ कोर्ट में केस भी लगभग करवा ही दिया गया था, लेकिन पता नहीं क्यों (शायद मैं अभी पूरी तरह उसकी गिरफ्त में नहीं आया था), मेरा मन ऐसा करने को तैयार नहीं हुआ।
     मैं शशि प्रकाश को ही आदर्श मानता था। मुझे यह शिक्षा दी गयी थी कि ' भाईसाहब' दुनिया में 'चौथी खोपड़ी' हैं। मेरे अंदर यह सवाल कई बार उठा कि जब यह ' चौथी खोपड़ी' हैं तो प्रथम, दूसरी और तीसरी खोपड़ी कौन है? बाद में पता चला कि पहली खोपड़ी मार्क्स थे, दूसरी लेनिन, तीसरी खोपड़ी माओ थे। अब माओ के बाद तो कोई हुआ नहीं। इसलिए चौथी खोपड़ी भाई साहब हुए न।
   भाईसाहब कहते थे कि उनका संगठन ही भारत में इकलौता क्रांतिकारी संगठन है। बाकी तो दुस्साहसवादी और संशोधनवादी पार्टियां हैं। लेकिन, सब्र का बांध तो एक दिन टूटना ही था। जो आप के सामने है। यदि इन सबके बावजूद कहीं कोने में भी इस मानव विरोधी संगठन को सहयोग देने के बारे में आप में से कोई सोच रहा है तो उसे बर्बाद होने से कौन रोक सकता है?

शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

मैडम की जूती, साहब के सर

(कात्यायनी और अन्य लोगों की ओर से भेजे गए नोटिस पर राहुल फाउण्डेशन के संस्थापक सचिव मुकुल जी ने एक पत्र भेज है। पाठकों की जानकारी के लिए बता दें कि साथी मुकुल जनचेतना के निदेशक भी रह चुके हैं। मुकुल जी का आरोप है कि अब रामबाबू पाल नमक एक व्यक्ति ने इस संस्था पर कब्जा जमाकर सरकार से पंजीकरण हासिल कर लिया है। पत्र  को पढ़कर पाठक खुद फैसला करें क्या सही है और क्या गलत है .... )  
    मुझे पता चला है कि कात्यायनी एंड कंपनी ने 'मानहानि' का नोटिस भेजवाया है। आधिकारिक रूप से तो मुझे अभी यह मिला नहीं है, लेकिन जनज्वार व 100 फ्लावर्स से जो बातें सामने आई हैं, वे इस काकश की धोखाधड़ी, कब्जा और फ्राड का एक और बड़ा मामला है। मुझे किसी कोर्ट के वकील की ज़रूरत नहीं, क्योंकि मैं तो इसे जनता की अदालत में ही ले जाना मुनासिब समझता हूँ।
      इस सम्बन्ध में जनज्वार पर किन्हीं विवेक कुमार द्वारा उठाए गए कई मुद्दे तो अनधिकृत, अनावश्यक और किसी खुन्दक में उठाए लगते हैं। इस बारे में राकेश सिंह की टिप्पणी उचित हस्तक्षेप है।
      बहरहाल आइए, मूल मुद्दे की बात करें। क्या खूबसूरत अदाएं हैं इन सम्मानियों के! हमारी संस्थाओं के कब्जाधारी हमें ही मानहानि का खौफ दिखाकर ताल ठोंक रहे हैं। गौर करें इनके 'मान' की कुछ बानगी पर।
       पहली बात यह कि जिन संस्थाओं की ओर से कथित नोटिस भेजा गया है उनमें प्रथम, जनचेतना, एक पुस्तक विक्रय केन्द्र के रूप में 26 नवम्बर, 1986 को गोरखपुर में हमने खोला था और मैं उसका निदेशक रहा। बिजया बैंक गोरखपुर के चालू खाता संख्या 848/932 और देश भर के तमाम प्रकाशकों व लघु पत्रिकाओं से खतो-किताबत इसके कुछ उदाहरण मात्र हैं। तब रामबाबू पाल का इससे कोई वास्ता ही नहीं था। लखनऊ में जनचेतना का काम आगे बढ़ाते हुए 1997 में अपंजीकृत संस्था, के रूप में नैनीताल बैंक में बचत खाता खोला गया था। इसके सदस्य मेरे साथ ओ.पी. सिन्हा, सत्येन्द्र कुमार और डी.सी.वर्मा एडवोकेट भी थे। आज भी रुद्रपुर (उत्तराखण्ड) में जनचेतना का संचालन जारी है। कथित नोटिस से पता चला कि सन 2011 में रामबाबू पाल ने हमारी इस संस्था पर भी कब्जा जमाकर सरकार से पंजीकरण हासिल कर लिया है।
      कथित नोटिस जारीकर्ता दूसरी संस्था, राहुल फाउण्डेशन का गठन राहुल सांकृत्यायन जन्मशती आयोजन समिति द्वारा 1993 में हुआ। मैं इसका संस्थापक सचिव हूँ। डा. एम.पी.सिंह, संस्थापक अध्यक्ष थे व विश्वनाथ मिश्र, ओ.पी. सिन्हा, आदेश सिंह, सत्यम वर्मा व मीनाक्षी (सहकोषाध्यक्ष) प्रबन्धकारिणी समिति में थे। डा. एम.पी. सिंह के निधन के बाद विश्वनाथ मिश्र वरिष्ठता के आधार पर इस संस्था के कार्यवाहक अध्यक्ष बने। लेकिन बैक डोर से कात्यायनी, जो कि प्रबन्धकारिणी में भी नहीं थीं, राहुल फाउण्डेशन की अध्यक्ष बन बैठीं (इस प्रक्रिया, मुझसे हुए विवाद और धीरे-धीरे पूरे फाउण्डेशन पर कब्जे की कहानी फिर कभी)। स्थिति यह है कि संस्था के कागजात छलकपट से हासिल कर जालसाजी रच कागजों में आज पूरी संस्था के 60 फीसदी से ज्यादा साधारण सदस्य और प्रबन्धकारिणी के दो तिहाई से अधिक सदस्यों को बदला जा चुका है।
      इन 'मान'धारियों की महानता देखिए। लगातार बीमार चल रहे हमारे संस्थापक अध्यक्ष डा. एम.पी. सिंह की खबर, लखनऊ में रहकर भी इन्हें हफ्तों बाद लगी। बाद में लाज बचाने की गरज से उनकी स्मृति में ब्याख्यानमाला आयोजन की घोषणा हुई, लेकिन 'लाभकारी' न होने के कारण अघोषित रूप से यह डब्बाबन्द हो गयी। वैसे भी नयी 'फलदाई स्मृतियाँ' ज्यादा महफूज थीं। यही नहीं, 1994 के राहुल फाउण्डेशन-सहारा विवाद के चल रहे मुक़दमें से भी यह बहादुर वीरांगना फरार चल रही हैं।
      अब आगे देखिए। कोई कहाँ तक निगले खड़ी मक्खी।
      कथित नोटिस में मुझे प्रतिवादी नं.-4 बताया गया है, जिसमें मेरा इन संस्थाओं से जुड़ाव 1994 बताया गया है। जबकि मेरा उपरोक्त बयान ही मेरी इन संस्थाओं से जुड़ाव की तवारीख खुद बयां कर देती है। इसी तरह प्रतिवादी नं.-2 सत्येन्द्र कुमार को 1998 से जुड़ा बताते हैं 'मान'धारी। जबकि राहुल फाउण्डेशन के स्थापना वर्ष 1993 से ही वे इसके संस्थापक सदस्य रहे हैं। यहाँ तक कि 1994 में सहारा समूह से विवाद के समय इनकी पत्नी शिवकुमारी जी न केवल जेल गईं, अपितु गम्भीर रूप से घायल भी रहीं। 1994 में जब फाउण्डेशन का काम लखनऊ शिफ्ट हुआ तो कार्यालय भी सत्येन्द्र जी के तात्कालिक आवास 3/274 विश्वास खण्ड में साझातौर पर चल रहा था। 1995 में इन्होंने राहुल फाउण्डेशन के सहयाग हेतु अनुबन्ध पर परिकल्पना प्रकाशन शुरू किया था। आज उस पर भी ये 'माननीय' काबिज हैं। यही नहीं, इस काकस ने फाउण्डेशन से कथित तौर मुझे 24-4-06 को निकाला गया बताया है, जबकि मैं सप्रमाण (फिलहाल जिसकी ज़रूरत मुझे नहीं है) 11 से 14 मई, 2006 और उसके बाद की कई महत्वपूर्ण सामग्री जनता को उपलब्ध करा सकता हूँ।
      ध्यानतलब है कि इन संस्थाओं को हम तमाम साथियों ने अपना खून-पसीना और बहुत कुछ न्योछावर कर खड़ा किया था। इसलिए इसकी बारीकियाँ और इनके कई तकनीकी गूढ़ रहस्य हम ही जानते हैं। हमने तो अपना जीवन शोषण मुक्त समाज की जद्दोजहद के लिए समर्पित किया है और यथासंभव उसी उद्यम में हम लगे भी हैं। जब हमारी कोशिशें इन संस्थाओं को दलदल में जाने से रोकने में कामयाब न होती दिखीं और हमने सही राह पर आगे बढ़ने की कोशिष की तो ये 'मान'धारी हमारी संस्थाओं पर कब्जा कर बैठे और अब कथित तौर पर नोटिस भेजने का दुस्साहस कर दिया। इससे पूर्व मुझे पीटने की नाकामयाब कोशिशें भी करने से ये बाज नहीं आए थे। देवेन्द्र प्रताप पर नोएडा में साजिश रचकर हमले भी करवाया, लेकिन बेचारे कई कार्यकर्ता ही हवालात की खाक छान बैठे।
      'मान'धारियों के तौरतरीकों की फेहरिश्त बड़ी लम्बी है। जब 1996 में गोरखपुर आह्वान अखबार, (जिसका तब मैं सम्पादक था) के कार्यालाय के बहाने एक ग़रीब दलित परिवार को बेदखल करने के लिए हमें हमलावर होना पड़ा, 2002 में रुद्रपुर (उत्तराखण्ड) के होण्डा आन्दोलन के विकट दौर में संगठन द्वारा सहयोग के आश्वासन के बावजूद राहुल फाउण्डेशन-जनचेतना विश्वपुस्तक मेला में मशगूल रहा, 2004 में हमारे 1986 से समर्थक रहे बी.डी. सक्सेना के लखनऊ आवास पर 'माननीयों' द्वारा कब्जा हुआ, समाजिक परिवर्तन के नाम पर धनउगाही और संगठन-संघर्ष के घोषित लक्ष्य की जगह प्रकाशन और पुस्तक बिक्री मुख्य पेशा बन गया (और भी वे बेपनाह बातें, जो वक्त-ज़रूरत पर खोली जाएंगी) तो हमारे लिए उस पाप का भागीदार बनना संभव न था।
      फिर तो नाराजगी होनी ही थी। अब कुछ नहीं मिला तो डेढ़ करोड़ वसूलने का एक नया तीर छोड़ दिया। हलांकि मुझे अपने सकारात्मक कामों से इतनी फुर्सत ही नहीं है कि मैं ऊल-जुलूल हरकतों में उलझूं। लेकिन जब कोई आ बैल मुझे मार की ही हैसियत में हो तो फिर गैर ज़रूरी समय निकालना ही विवशता है। मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालेंगे तो.....
      दरअसल, स्वंभू विद्वानों की चालाकियाँ ही प्रायः उसके विध्वंस का कारण बन जाती हैं। डरा-धमकाकर छा जाने की आदत से मजबूर जो ठहरे! कात्यायनी एंड कंपनी नोटिस भेजकर हम साथियों को डराना चाहती थी। इसके पीछे भी उनके 'माननीय' का ही हाथ रहा होगा। पर हुआ उल्टा, मैडम की जूती साहब के सर पर ही जा गिरी। 'माननीय' साहब झल्लाए तो खूब, लेकिन करें क्या? वैसे अब माननीय को इसकी आदत डाल लेनी चाहिए!