सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

जीवनदायिनी नदियों का दर्द

जीवनदायिनी नदियों की उंगली थामकर ही मनुष्य ने विकास की इबारत लिखी। इन्हीं नदियों के किनारे मानव सभ्यता जवान हुई। सागर जब मनुष्य को डराता था, तब नदियों ने ही उसे हौंसला दिया और साथ में खाने को रोटी दी। डेन्यूब, वोल्गा, यांगत्सी, गंगा आदि महान नदियां आज भी दुनिया के अरबों लोगों का भरण-पोषण कर रही हैं। विडंबना देखिए कि जो मानव सर से पांव तक इन जीवनदायिनी नदियों का कर्ज के नीचे दबा है, वही आज उनका हंता बन गया है। इसमें में भी सबसे ज्यादा वे लोग दोषी हैं, जो अपने निजी फायदे के लिए नदियों को जहरीला बना रहे हैं।
                                देवेन्द्र प्रताप
भारत में अगर गंगा सबसे पवित्र नदी है, तो रूस में वोल्गा। महामानव राहुल सांकृत्यायन ने इन नदियों के किनारे जवान हुई मानव सभ्यता के ऊपर बाकायदा एक ऐतिहासिक उपन्यास लिखा है-वोल्गा से गंगा। इसमें उन्होंने दिखाया है कि इन नदियों के किनारे मानव सभ्यता कैसे पली-बढ़ी और जवान हुई। इन पवित्र नदियों में असीम श्रद्धा के बावजूद लोगों के भरण पोषण करने के मामले में मध्य यूरोप की डेन्यूब नदी दुनिया में पहले स्थान पर है। रोमानिया समेत 19 देशों के बीच 2780 किमी लंबे सफर के बाद काला साबर में गिरने वाली यह नदी करीब 81 करोड़ लोगों का भरण-पोषण करती है। इसी तरह 4600 किमी लंबी म्कांग लेनसंग नदी चीन, म्यामार, थाइलैंड और कंबोडिया के करीब 57 करोड़ लोगों के लिए रोजी-रोटी की व्यवस्था करती है। चीन की 6300 किमी लंबी यांग्त्से नदी 43 करोड़ लोगों का पेट पालती है। दुनिया की सबसे बड़ी नदी नील के बारे में तो आपने सुना ही होगा। 6650 किमी लंबी यह नदी सूडान, कांगो, इथियोपिया, रवांडा समेत 10 देशों के 36 करोड़ लोगों को जीवन देती है। हमारे देश की सबसे पवित्र नदी गंगा हिमालय से निकलने के बाद जब बंगाल की खाड़ी में गिरती है, तो वह 2510 किमी का सफर पूरा कर लेती है। इस यात्रा में वह अपनी संगिनी नदियों के साथ मिलकर बेहद विशाल करीब 10 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के अति उपजाऊ मैदानों की रचना करती है। गंगा के ये उपजाऊ मैदान करीब 20 करोड़ लोगों का भरण-पोषण करते हैं। इसी तरह नदियों के पिता कहे जाने वाले सिंधु भारत, चीन और पाकिस्तान के करीब 17 करोड़ लोगों का पेट भरते हैं। लेकिन इन जीवनदायिनीनदियों की अविरल धारा अब थमने लगी है और इनमें बहने वाला अमृत जैसा पानी अब जहरीला हो चुका है।
‘हमें मत मारो मेरे बच्चों!’
जीवनदायिनी मां के समान दुनिया की तमाम नदियां आज हमसे अपने जीवन के लिए दया की भीख मांग रही हैं। दुनिया में सबसे ज्यादा लोगों का भरण-पोषण करने वाली डेन्यूब नदी में अकेले हंगरी से ही रोजाना 697 मिलियन लीटर आर्सेनिक और मर्करी मिला हुआ जहरीला पानी छोड़ा जाता है। बांध और ढांचागत निर्माण के चलते 19 देशों में इसके समूचे पारिस्थितिक तंत्र पर संकट पैदा हो गया है। अगर यह जारी रहता है, तो वह दिन दूर नहीं जब यह नदी पूरी तरह सूख जाएगी। हमारे देश में गंगा मैया का भी यही हाल है। गंगा की तरह ही नदियों के पिता सिंधु और अन्य हिमालयी नदियों के जीवन पर भी संकट पैदा कर दिया है। दुनिया की सबसे विशाल नदी नील आज अपने जीवन के लिए मनुष्य से दया की भीख मांग रही है। वहीं आज भले ही चीन महाशक्ति बन चुका हो, लेकिन वहां की यांग्त्से नदी आज दुनिया की सबसे प्रदूषित नदी बन चुकी है।
खतरे में आधी आबादी
नदियों में पानी की कमी और नदी के पानी में बढ़ते रसायनों की मात्रा के चलते इस पर निर्भर दुनिया की करीब 41 प्रतिशत आबादी का जीवन खतरे में है। पिछले 50 सालों में हुए तथाकथित वैज्ञानिक विकास और प्राकृतिक संसाधनों के निर्मम दोहन ने दुनिया की कई नदियों के अस्तित्व पर संकट पैदा कर दिया है। इसके चलते अभी तक इन नदियों के ताजे व मीठे पानी में पाए जाने वाले 10 हजार जीवों और नदियों के किनारे उगने वाली बनस्पतियों की 20 प्रतिशत प्रजातियां समाप्त हो चुकी हैं। हालत यह है कि दुनिया की सबसे बड़ी 177 नदियों में आज बढ़ते प्रदूषण और पानी की कमी से 21 नदियां ही समुद्र में गिरती हैं।
वैश्विक प्रयास की दरकार 
‘क्लाइमेट चेंज(2007): इंटरगवर्नमेंटल पैनन आॅन क्लाइमेट चेंज’, ‘क्लाइमेट चेंज-इंडियाज परसेप्शंस,पोजीशंस,पॉलिसीज एंड पॉसिबिलिटी’आदि रिपोर्टों में गंगा की बिगड़ती हालत के लिए विश्व स्तर पर निकलने वाली ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन और ग्लोबल वार्मिंग को जिम्मेदार बताया गया है। इन रिपोर्टों के अनुसार, ग्लोबल ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में वर्ष 1970 से 2004 के बीच 70 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। आज यह एक वैश्विक खतरा है। इसके चलते समूची दुनिया के तापमान में वृद्धि हुई है। हिमालय के ग्लैशियरों के तेजी से पिघलने की यही वजह है। दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने आशंका जताई है कि अगर हिमालय के ग्लैशियरों के पिघलने से समुद्रतल की ऊंचाई एक मीटर बढ़ती है, तो भारत में 70 लाख लोगों को अपनी मूल जगह से विस्थापित होना होगा। जाहिर है ग्लोबल वार्मिंग से आज समूची दुनिया प्रभावित हो रही है। इसलिए यह बात सिर्फ गंगा के लिए नहीं है। इसका असर समूची दुनिया की जीवनदायिनी नदियों पर पड़ रहा है। इसलिए इस संकट को रोकने के लिए वैश्विक स्तर पर प्रयास की दरकार है। 

भंग हुई गंगा की पवित्रता
गंगा उत्तर भारत की सभ्यता और संस्कृति का सबसे मजबूत स्तंभ है। एक समय इसका पानी इतना साफ होता था कि जब अंग्रेज इंग्लैंड वापस जाते थे, तो वे रास्ते में पीने के लिए गंगा का पानी ले जाते थे। इतना ही नहीं भारत के महान शासक अकबर को गंगा की पवित्रता पर नाज था। वे अपने दावतखाने में मेहमानों को गंगा नदी का पानी पिलाते थे। आज गंगा की यह पवित्रता भंग हो गई है। एक शोध के अनुसार किसी भी नदी के पानी में बायोलॉजिकल आॅक्सीजन डिमांड (बीओडी) की मात्रा एक अथवा दो मिलीग्राम से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। जबकि इस समय गंगा में जिस जगह नालों का पानी गिरता है, वहां बीओडी 80 मिलीग्राम प्रति लीटर हो गई है। वहीं गंगा के घाटों पर बीओडी की मात्रा 21 मिलीग्राम प्रति लीटर हो गई है। इन घाटों पर हर साल करीब 32 हजार शव जलाए जाते हैं। आज घाटों का पानी पीने का मतलब डायरिया जैसी तमाम बीमारियों को दावत देने जैसा हो गया है। ऋषिकेश से बंगाल की खाड़ी तक गंगा के किनारे लगे लाखों उद्योग सबसे ज्यादा प्रदूषण कर रहे हैं।
असफल हुआ ‘गंगा एक्शन प्लॉन’
1984 में मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित मशहूर वकील एमसी मेहता ने गंगा में कारखानों की गंदगी को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी। इसके बाद ही सरकार की ओर से ‘गंगा एक्शन प्लॉन’ अस्तित्व में आया। 1984 के बाद से अगले 20 सालों में गंगा एक्शन प्लॉन के तहत नदी की सफाई पर कुल 1200 करोड़ रुपये फूंके जा चुके हैं, लेकिन इसमें सुधार न के बराबर ही हुआ। गंगा की सफाई के लिए कुछ प्लांट जरूर लगाए गए, लेकिन गंगा की धारा बनाए रखने वाले ग्लैशियरों, पानी के प्राकृतिक स्रोतों और झरनों के जीवन को बचाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया। गंगा को जिंदा रखने वाले जंगलों के कटान में कोई कमी नहीं आई, अलबत्ता उसमें बढ़ोत्तरी ही हुई।  जब गंगा को जीवन देने वाले जंगल, ग्लैशियर और पानी के स्रोत ही नहीं होंगे, तो गंगा कैसे जिंदा रहेगी? हालत यह है कि गंगोत्री ग्लैशियर सालाना 30 मीटर की गति से सिकुड़ रहा है, लेकिन सरकार इस मामले में बस खानापूर्ति कर रही है। कुल मिलाकर गंगा एक्शन प्लॉन अब फेल हो चुका है। वर्ष 2008 में गंगा को राष्ट्रीय नदी तथा इलाहाबाद और हल्दिया के बीच करीब 1600 किलोमीटर गंगा के जलमार्ग को राष्ट्रीय जलमार्ग घोषित कर दिया गया है, लेकिन पांच साल बीतने के बाद भी गंगा की हालत जस की तस है।
खतरे में जीव-जंतु
गंगा में मछलियों की 140 प्रजातियां, 35 सरीसृप तथा इसके तट पर 42 स्तनधारी प्रजातियां पाई जाती हैं। इसके किनारे जंगलों में नीलगाय, सांभर, खरगोश, नेवला, चिंकारा, लंगूर, लाल बंदर, भूरे भालू, लोमड़ी, चीते, बफीर्ले चीते, हिरण, भौंकने वाले हिरण, सांभर, कस्तूरी मृग, बरड़ मृग, साही, तहर आदि जंगली जीव बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। नदियों के जीवन के ऊपर ‘विश्व प्रकृति निधि’ की ओर से अभी तक की सबसे बेहतर रिपोर्ट तैयार की गई है। यह रिपोर्ट आठ अंतरराष्ट्रीय सर्वेक्षणों के बाद तैयार की गई। इसे तैयार करने में 2000 से ज्यादा विषय विशेषज्ञों ने दुनिया की 225 नदियों के पारिस्थितिक तंत्र का अध्ययन किया। इस रिपोर्ट के अनुसार इस समय गंगा में पानी की कमी और जहरीले रसायनों की बढ़ती मात्रा के चलते इसमें पाई जानी वाली मछलियों की करीब 109 प्रजातियां खत्म होने के कगार पर हैं। नेशनल यूनिवर्सिटी आॅफ सिंगापुर, दिल्ली विश्वविद्यालय और कुनमिग इंस्टीट्यूट आॅफ बॉटनी आॅफ चाइनीज एकेडमी की ओर से किए गए एक अध्ययन के अनुसार हिमालय क्षेत्र में बांधों के निर्माण से करीब 90 प्रतिशत हिमालय घाटी प्रभावित होगी और 27 फीसदी बांध घने जंगलों को भी बुरी तरह प्रभावित करेंगे। रिपोर्ट के अनुसार हिमालय क्षेत्र में बांधों के निर्माण से इस क्षेत्र के एक लाख 70 हजार हेक्टे. क्षेत्रफल में फैले जंगल तथा 22 वनस्पतियों की प्रजातियां और वन्य जीवों की सात प्रजातियां विलुप्त हो सकती हैं।
बीमारियों की जननी बनी गंगा
गंगा में पाया जाना वाला बैक्टीरियोफेज नामक विषाणु गंगा की गंदगी को साफ करता है। यही विषाणु गंगा की शुद्धीकरण क्षमता के लिए जिम्मेदार है। लेकिन, अब स्थिति पहले जैसी नहीं रही। पहले जहां गंगा का पानी अमृत माना जाता था तथा इसे पीने से हैजा और पेचिश जैसी बीमारियां नहीं होती थीं, वहीं आज गंगा के किनारे लगी औद्योगिक इकाइयों द्वारा प्रतिदिन गिरने वाले दो करोड़ 90 लाख लीटर प्रदूषित कचरा, नगरों, शवाधान और पूजा की गंदगी ने गंगा के पानी को पीना तो दूर नहाने और सिंचाई के योग्य भी नहीं रहने दिया है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार इस समय गंगा यूपी की 12 प्रतिशत बीमारियों की जननी बन गई है।
निजी लाभ के लिए नदियां दंडित
औद्योगिक क्षेत्र की अर्थ दोहन नीति के चलते मध्यप्रदेश के मालवा में लगे स्टील संयंत्रों से 32 प्रतिशत सांद्रता वाले हाइड्रोक्लोरिक एसिड युक्त प्रतिदिन करीब 60 टन दूषित मलबा नदियों में बहाया जाता है। इससे आए दिन प्रभावित नदियों का पानी पीने से पशु मरते रहते हैं। इसी तरह छत्तीसगढ़ में कुख्यात लोहे की बेलाडीला खान ने शंखिनी नदी को लाल कर दिया है। शंखिनी नदी के प्रदूषण से 51 गांवों के करीब 50 हजार आदिवासी प्रभावित हुए हंै। यूपी की राजधानी लखनऊ के लिए गोमती नदी जीवन रेखा जैसी है, लेकिन आज यही नदी जीव विहीन होने के कगार पर है। हमारे देश की महान नदियों में से एक गंगा के पानी में संखिया (आर्सेनिक) की मात्रा ज्यादा होने से इसके किनारे रहने वाले लोगों के लीवर पर असर पड़ने लगा है। इसी तरह प.यूपी की कई नदियों का पानी आज कैंसर की वजह बन रहा है। सहारनपुर के ढायकी जैसे कई गांव कैंसर गांव कहे जाने लगे हैं। हिन्दुओं के लिए पवित्र नगरी हरिद्वार तक पहुंचते-पहुंचते गंगा में 12 नगरपालिका कस्बों के नालों का पानी मिल चुका होता है। इन नालों से लगभग आठ करोड़ 90 लाख लीटर मलजल प्रतिदिन गंगा में गिरता है। गंगा में प्रदूषण का यह स्तर चारधाम यात्रा के दौरान कई गुना बढ़ जाता है। ये कुछ ऐसे आंकड़े हैं, जो देश की जीवनदायिनी नदियों के प्रति घोर सरकारी उपेक्षा की चीख-चीख कर गवाही दे रहे हैं।


चौरी चौरा कांड : उपद्रव नहीं, किसान प्रतिरोध


चौरी चौरा कांड : उपद्रव नहीं, किसान प्रतिरोध
पुलिस थाने हमेशा ही जनता के दमन की प्रतीक रहे हैं। भारत में फैले ब्रिटिश साम्राज्य के लिए अंग्रेजों द्वारा स्थापित थाने दमनकारी भूमिका निभाते थे। ये थाने ब्रिटिश सरकार की शोषणकारी और जनविरोधी नीतियों को जनता के ऊपर जोर-जबरदस्ती से लागू करवाने में बहुत ही अहम भूमिका निभाते थे। उन्हें ही सबसे पहले जनता के गुस्से का भी शिकार बनना पड़ता था। 4 फरवरी 1922 को गोरखपुर के चौरी चौरा में यही हुआ, जब अंग्रेजों के जुल्म से तंग आकर आक्रोशित किसानों ने ब्रिटिश साम्राज्य के लिए (दमन के प्रतीक) चौरी चौरा थाने को फूंक दिया, जिसमें 22 पुलिस कर्मी मारे गए।
                           देवेन्द्र प्रताप
चौरी चौरा की घटना को अंग्रेजों ने भले ही  एकउपद्रवमात्र कहा हो, लेकिन इस घटना का भविष्य में देश के क्रांतिकारी आंदोलन पर गहरा प्रभाव पड़ा। क्रांतिकारी कार्रवाइयों के लिएउपद्रवशब्द बड़ा भ्रामक है। यह देश की आजादी के लिए हुए क्रांतिकारी आंदोलनों, विद्रोहों आदि के प्रति हमारे नजरिए को अंग्रेजों के जाने के बाद आज भी प्रभावित कर रहा है।
गोरखपुर का चौरी चौरा कांड आज भी अपने सही मूल्यांकन की बाट जोह रहा है। किसी भी आंदोलन, विद्रोह या क्रांति में से अगरचेतनाको निकाल दिया जाए, तो हर घटना एकउपद्रवही लगेगी। विद्रोह जहां उपनिवेशवाद से विरोध के संदर्भ में अपेक्षाकृत ज्यादा सकारात्मक शब्द है, वहीं उपद्रव पूरी तरह नकारात्मक शब्द है। मनुष्य की क्रांतिकारी चेतना का सबसे बेहतर प्रदर्शन किसी देश में क्रांति के रूप में दिखाई देता है, क्योंकि इसमेंसचेतनताका अंश ज्यादा होता है। यह नहीं भूलना चाहिए किउपद्रवके लिए भी आदमी कीचेतनाही जिम्मेदार होती है। यदि मनुष्य की इसचेतनाका कोई मूल्य है, तो उसकेउपद्रवका भी मूल्य होना चाहिए। ऐसा नहीं हो सकता कि चौरी चौरा के किसानों की भीड़ ने बिना किसी वजह के और बिना सोचे-समझे ही चौरी चौरा थाने को फूंक दिया होगा। मनुष्य की स्वाभाविक प्रतिरोध की इस चेतना का मूल्य आंकने के चलते ही ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ हुए सन्यासी विद्रोह, मोपला विद्रोह और यहां तक कि 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम को भी एक विद्रोह कह दिया जाता है। इस चेतना का मूल्य आंकने के चलते कई इतिहासकार अपने विश्लेषण में इन विद्रोहों को लेकर ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की दार्शनिक भाषा बोलने लगते हैं। इस तरह वे ब्रिटिश भारत में किसान प्रतिरोध की वास्तविक चेतना का मूल्य आंकने में विफल हो जाते हैं। गांधी जी भी चौरी चौरा के मामले में किसान प्रतिरोध की इस चेतना के साथ सही न्याय नहीं कर पाए, क्योंकि उन्होंने भी इसेउपद्रवके तौर पर ही लिया। यही वजह रही कि उन्होंने इस घटना के बाद असहयोग आंदोलन को बंद कर दिया। यह गोरखपुर में चौरी चौरा के क्रांतिकारी किसानों के लिए किसी दंड से कम नहीं था। अगर गांधी जी ने यह कदम नहीं उठाया होता तो शायद क्रांतिकारियों की एक धारा उनसे छिटककरहिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशनके गठन की ओर नहीं जाती। क्योंकि, चौरी चौरा कांड के बाद ही विस्मिल और अन्य क्रांतिकारी विचारों वाले युवाओं का गांधीवाद से मोहभंग हुआ। इसलिए भले ही उस समय ये क्रांतिकारी युवा गांधी से बहुत ही कम उम्र के थे या उन्होंने दुनिया कम देखी थी, लेकिन उन्होंने चौरी चौरा के किसान प्रतिरोध की चेतना को समझने में कोई भूल नहीं की। वे अपनी इस समझ को कहां तक विकसित कर पाए, यह अलग बात है, लेकिन उनका प्रस्थान बिंदु सही था। क्रांतिकारी चेतना का यह प्रस्थान बिंदुकाकोरी कांडके रूप में सामने आता है। इस तरह चौरी चौरा कांड ने काकोरी कांड के लिए वैचारिक धरातल पर धाय का काम किया। यह चौरी चौरा के बाद गांधीवाद से वैचारिक धरातल पर अलग हुए क्रांतिकारियों का सचेतन व्यवहार था। दूसरी ओर क्रांतिकारियों का यह कदम चौरी चौरा से एक कदम आगे था। चेतना समय सापेक्ष होती है। चौरी चौरा के समय किसानों की जो चेतना थी, काकोरी कांड के क्रांतिकारियों की चेतना उससे एक कदम आगे थी, जबकि एचएसआरए में यह अपने सर्वोत्कृष्ट रूप में प्रदर्शित होती है। जिस चौरा चौरी के क्रांतिकारी चेतना को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है, यह नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस को दो फाड़ करने में इसका बहुत बड़ा योगदान था।
इतिहास के आइने में चौरी चौरा
गांधी जी के असहयोग आंदोलन के दौरान कार्यकर्ता शांतिपूर्वक जनता को जागरूक कर रहे थे। इस दरमियान 1 फरवरी, 1922 को चौरीचौरा थाने के एक दारोगा ने असहयोग आंदोलन के कार्यकर्ताओं की जमकर पिटाई कर दी। इस घटना पर अपना विरोध दर्ज करवाने के लिए लोगों का एक जुलूस चौरी चौरा थाने पहुंचा। इसी दरमियान पीछे से पुलिस कर्मियों ने सत्याग्रहियों पर लाठीचार्ज तथा गोलियां चलाई। जिसमें 260 व्यक्तियों की मौत हो गई। हर तरफ खून से सने शव बिखरे पड़े थे। इसी के बाद क्रांतिकारी किसानों ने वह किया, जिसे इतिहास में चौरी चौरा कांड के नाम से जाना जाता है।
मालवीय जी ने लड़ा ऐतिहासिक मुकदमा
चौरी चौरा कांड में कुल 172 व्यक्तियों को फांसी की हुई। अदालत के इस निर्णय के विरुद्ध पंडित मदनमोहन मालवीय और पंडित मोती लाल नेहरू ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील की। मालवीय जी की जोरदार अपीलों के चलते 38 व्यक्ति  बरी हुए, 14 को फांसी की जगह आजीवन कारावास हुआ, जबकि 19 व्यक्तियों की फांसी बरकरार रही। बाकी सत्याग्रहियों को तीन से लेकर आठ साल की सजा मिली। कुल मिलाकर मालवीय जी फांसी के सजा पाए 170 लोगों में से 151 को छुड़ाने में सफल रहे।
चौरी चौरा के शहीद
2 जुलाई 1923 को फांसी पर लटकाए गए क्रांतिकारियों में अब्दुल्ला उर्फ सुकई, भगवान, विकरम, दुधई, कालीचरण, लाल मुहम्मद, लौटू, महादेव, लाल बिहारी, नजर अली, सीताराम, श्यामसुंदर, संपत रामपुर वाले, सहदेव , संपत चौरावाले, रुदल, रामरूप, रघुबीर और रामलगन के नाम शामिल हैं।
शहीदों की याद में डाक विभाग की मुहर
चौरी चौरा कांड के शहीदों की याद में गोरखपुर के चौरीचौरा डाकघर ने एक विशेष प्रकार की विशेष मुहर जारी की है। मोहर के बीचोंबीच लिखा है- ‘असहयोग आंदोलन चौरी-चौरा कांड 4 फरवरी 1922 मोहर के किनारे लिखा है-‘ब्रिटिश साम्राज्य भयभीत, क्रांतिकारी आंदोलन की शुरुआत, वंदे मातरम।