रविवार, 28 जुलाई 2019

जलते मजदूर, सोती सरकार

शनिवार को सुबह रोज की तरह फ्रेंडस कॉलोनी गली नं. 4 में चहल-पहल थी। इसी गली में कॉरस बाथ नामक फैक्ट्री है, जो कि पीतल और प्लास्टिक की टूटी बनाने का काम करती है। फैक्ट्री के गेट पर न तो नम्बर लिखा है और ना ही कोई नाम, यानी कोई अनजान व्यक्ति वहां नहीं पहुंच सकता। यही हाल उसी गली के सभी फैक्ट्रियों का है, या यों कहा जाये कि यह सुरते हाल पूरी दिल्ली का है-जहां पर मजदूर को पता नहीं होता कि वह किस कम्पनी में काम करता है और कम्पनी का नम्बर क्या है। वह पहचान के लिए लाल, काला या पीला गेट बताता है। मजदूरों को यह भी जानने का हक नहीं होता है कि वे किस कम्पनी के लिए मॉल तैयार करते हैं। इसकी चिंता न तो श्रम मंत्री को है और न ही श्रम अधिकारियों को, जिसके लिए उन्हें हर महीने मोटी रकम मिलती है।
कॉरस फैक्ट्री में रोजना की तरह 13 जुलाई, 2019 (शनिवार) को भी मजदूर भागते हुए फैक्ट्री पहुंच रहे थे। कुछ मजदूर पहुंच चुके थे और अपनी काम करने की तैयारी में थे। इन्हीं मजदूरों में संगीता, मंजू और सुहेल भी थे, जो रोज की तरह अपने घरों से निकले थे कि शाम को वे फिर वापस घर आ जाएंगे। मंजू, लोनी (एकता बिहार) में रहती है और ट्रेन से ड्युटी पर आती थी। लेकिन उस दिन ट्रेन देर होने के कारण वह बेटे के साथ बाईक से आ गई। उनको मालूम था कि आधे घंटे की देर भी महीने में मिलने वाली पगार में कमी ला सकता है, जिससे परिवार चलाने में मुश्किल हो सकती है। संगीता बिहार के नालन्दा जिले से है और अपने पति के साथ वह कृष्णा बिहार (जिला गाजियाबाद) में किराये के मकान में रहती थी। संगीता के तीन बच्चे हैं, जिनको वह गांव पर ही रख कर पढ़ाती थी। वह 9-10 साल से कॉरस फैक्ट्री में काम करती थी। संगीता रोजाना दो टैम्पू बदल कर फैक्ट्री पहुंचती थी, जिसके बदले उसे 8,500 रू. महीने की पगार मिलती थी। संगीता टाइफाइड बुखार से पीड़ित थी तो कुछ दिन तक वह 1 घंटा देर से फैक्ट्री पहुंच रही थी, लेकिन उस दिन बच्चों को पैसा भेजने के लिए जल्दी ही फैक्ट्री पहुंच गई थी।
संगीता के साथ 10 साल से काम करने वाली कुसुम पटना जिले से हैं और कृष्णा बिहार में ही रहती हैं। वह बताती है कि सन् 2010 से वह इस कम्पनी में 2,400 रू. पर काम पर लगी थी जो अभी जून 2019 में 6,100 रू. बढ़कर 8500 रू. हो गई थी। इसी फैक्ट्री में संगीता, कुसुम से एक माह पहले से इस फैक्ट्री में काम करती थी। ये लोग पहले कृष्णा बिहार के गली नं. 12 में ही काम करते थे जहां पर कॉरस फैक्ट्री की एक और यूनिट चलती है। 2015 से यहां से कुछ लोगों को झिलमिल की फ्रेंडस कॉलोनी गली नं. 4 की दूसरी यूनिट में शिफ्ट कर दिया गया, जहां पर भट्ठी से लेकर मॉल तैयार करने और पैकिंग तक काम होता है। कृष्णा बिहार से झिलमिल पहुंचने में करीब इनको एक घंटा लग जाता था और 40 रू. रोज का खर्च होता था। कुसुम बताती हैं कि इस फैक्ट्री में करीब 300 मजदूर काम करते थे, जिनमें से 50-60 महिला मजदूर थी। इनमें से 3-4 महिला के पास ही ईएसआई कार्ड और पीएफ कार्ड है और पैकिंग डिर्पाटमेंट में एक ही महिला का ईएसआई कार्ड था, जो कि 2003 से काम करती हैं। फैक्ट्री में सप्ताहिक छुट्टी और कुछ सरकारी छुट्टी ही मिलती थी। इसके अलावा कोई भी छुट्टी करने से पैसा कट जाता था। फैक्ट्री का समय सुबह 9 से शाम 5.30 बजे तक है। सुबह 9.15 से लेट होने पर पैसे कटते थे। कुसुम बताती हैं कि मालिक अच्छा था और वह 10 तारीख को तनख्वाह और 25 को एडवांस दे देता था। महिलाएं अगर खड़ी होती थीं तो उनको पहले पैसा देता था। संगीता, कुसुम जैसे दिल्ली के लाखों मजदूरों के लिए अच्छा मालिक होने का मतलब है कि समय से पैसा दे देना, यानी दिल्ली में मजदूरों को अपना पैसा भी समय से नहीं मिलता है।
कुसुम बताती हैं कि वह चौथी मंजिल पर काम करती थी और संगीता तीसरी मंजिल पर। सुबह हमलोग अपने काम पर लगे ही थे कि धुंआ ऊपर आने लगा। संगीता मेरे पास आई और कही कि पता नहीं धुंआ कहां से आ रहा है और हमें लेकर वह नीचे वाली फ्लोर पर आ गई। हम चार महिलाएं दूसरी मंजिल के फ्लोर पर आकर ऑफिस वाले केबिन में चले गये कि यहां ए.सी. चलता है तो धुंआ नहीं लगेगा। लेकिन ए.सी भी बंद थी और दफ्तर में धुंआ भरने लगा। कुसुम चिल्लाने लगी - ‘‘हमारा प्राण चला जायेगा, मेरा बच्चा का क्या होगा’’? संगीता, कुसुम को हिम्मत दे रही थी और अपनी भाषा में बोल रही थी कि ‘‘बहिनी का करीयो, जो लिखल होई वहीं होई, निकल जाओ’’ (बहन क्या कर सकती हो जो लिखा होगा वो होगा, हम लोग निकलते हैं)। चारं महिलाएं नीचे आ रही थी, एक दूसरे को पकड़े हुए। उसमें संगीता की बहन की बेटी भी थी। कुसुम बताती है कि संगीता को कुछ याद आया और वह ऊपर चली गई। हम किसी तरह बाहर निकले, संगीता बाहर नहीं आ पाई। इस हादसे में संगीता, मंजू और सुहेल की दम घुटने से जान चली गई। कुसुम अभी सदमे है और वह संगीता की लाश को भी नहीं देखना चाहती। बस वह याद कर रही है कि किस तरह संगीता उसको हिम्मत देते हुए बाहर निकलने के लिए कह रही थी।
संगीता के रिश्तेदार बताते हैं कि संगीता का पति शराबी था और वह अपनी कमाई पूरा खर्च कर जाता था। संगीता ही बच्चों की देख-भाल के लिए पैसा जुटा कर गांव भेजती थी और वह बहुत ही मिलनसार स्वभाव की थी। पोस्टमार्टम होने के बाद लाश जब एम्बुलेन्स में रखी गई तो मालिक की तरफ से संगीता के परिवार को 10 हजार, मंजू के परिवार को 7 हजार और सुहेल के परिवार को 5 हजार रू. अंतिम संस्कार के लिये दिये गये और किसी तरह का आश्वासन नहीं दिया गया। कुसुम कहती हैं कि मालिक पैसा नहीं देगा, वह छुट्टी का भी पैसा नहीं देगा। कुसुम कहती हैं -‘‘उस फैक्ट्री में दुबारा जाने का दिल नहीं करता है, लेकिन बच्चे पालने हैं -जब मालिक बुलायेगा तो जाना ही पड़ेगा, क्योंकि दूसरी जगह काम करने पर 4-5 हजार रू. ही मिलेंगे। मेरी हाथ एक्सीडेंट में कमजोर हो गयी है तो दूसरे जगह काम मिलने में भी मुश्किल होगी। वहां पुरानी थी तो हमें काम का आइडिया है तो मैं काम कर लेती हूं‘‘।
दिल्ली में आग लगने और मजदूरों की जान जाने की न तो यह पहली घटना है और ना ही आखिरी। इससे पहले कुछ ही सालों में आग लगने के कई बड़े-बड़े हादसे हो चुके हैं, जिसमें सैकड़ों मजदूरां की जानें जा चुकीं हैं। बवाना, नरेला, पीरागढ़ी, शादीपुर, सुल्तानपुरी, मुंडका आदि जगहों पर आग लगने से मजदूरों की जानें जा चुकीं हैं और प्रशासन लाशें गिनने और अवैध वसूली करने में लगा हुआ है। फ्रेंड्स कॉलोनी गली नं. 1 में 14 जुलाई को आग लगने की घटना हुई थी। इससे दो माह पहले इसी गली में आग लगी थी। दिल्ली के आधुनिक कहे जाने वाले इंडिस्ट्रयल एरिया बवाना, नरेला और भोरगढ़ में औसतन प्रतिदिन एक से दो फैक्ट्री में आग लगती है, जैसे कि बवाना में 2017 अप्रैल से 2018 मार्च तक 465 फैक्ट्रियों में आग लगी, उसी तरह नरेला में यह संख्या 600 से अधिक है। बवाना में अक्टूबर, 2017 में लगी आग में 17 मजदूरों की जानें चली गईं थीं, उसके बाद भी दर्जनों मजदूर आग लगने से मर चुके हैं।
मंडोली के उस श्मसान घाट, जहां पर संगीता का पार्थिव शरीर को लिटाया गया था, एक श्लोक लिखा हुआ था -
‘‘मानुष तन दुर्लभ है, होय ना दूजी बार।।
पक्का फल जो गिर पड़े, बहूरी ना लगे डारि।।’’
यह श्लोक जहां इंगित करता है कि मनुष्य का शरीर दुबारा नहीं मिलता है वहीं पर मुनाफाखोरों के लिए इस शरीर की कोई कीमत नहीं है। एक शरीर खत्म होते ही दूसरा शरीर के शोषण के लिए मुनाफाखोर तैयार रहता है। जहां इस अमानवीय बर्ताव के लिए मुनाफाखोर पूंजीपतियों पर कड़े कानून लाकर शिकंजा कसने की जरूरत थी वहीं पर सरकार श्रम कानूनों में बदलाव कर और भी अमानवीय तरीके से मजदूरों के शोषण की  छूट दे रही है। शासन-प्रशासन मजदूरों की लाशों पर पैसा उगाही का काम करते हैं। अगर हम देखें तो हालिया घटना में किसी भी मालिक को कोई सजा नहीं हुई है। एक दिखावटी कानूनी खाना-पूर्ति करने के बाद उनको छोड़ दिया जाता है और वे दुबारा से मजदूरों के खून पीने के लिए तैयार रहते हैं। उनकी लूट का एक हिस्सा शासन-प्रशासन और सरकार में बैठे लोगों तक पहुंचता है। आखिर हम कब तक इस तरह के अमानवीय शोषण को बर्दाश्त करते रहेंगे? क्या हमारे पास इससे छुटकारा पाने के लिए कोई हथियार नहीं हैं? कब तक सरकार सोती रहेगी और मजदूरों को लूटने वालों को संरक्षण देती रहेगी? मंजू, संगीता और सुहेल की मौत की जिम्मेवारी किसकी है, इसके लिए किसको सजा मिलेगी?

शनिवार, 16 मार्च 2019

धनंजय शुक्ल की कहानी *ढाबा *

नगीना में रेलवे क्रासिंग से थोड़ा पहले एक ढाबा है, जिस पर ढाबा जैसा कुछ नही लिखा है, उसकी पहचान भी ढाबे जैसी नही है। उस पर दो बूढ़े सरदार रहते हैं। दोनों भाई हैं। दोनों हर दिन एक ही तरह के कपड़े पहनते हैं। ढाबा धुंआ से बिल्कुल काला हो गया है। वे साफ सुथरे सरदारों की तुलना में गंदे दिखते हैं, लेकिन हैं नही। उस पर खाना देने वाले या बर्तन धुलने वाले लड़के कभी लड़के रहे होंगे, लेकिन अब सब अधेड़ हैं। असल में ढाबे के बगल में ही, एक हर तरह की गाड़ियों के पंचर जोड़ने वाला बिहारी भी दुकान खोले हुए है, बाद में पता चला कि उसका असली मिस्त्री एक बंगाली है। अंदर बैठने की जगह पर उसने लोहे की कुर्सियां, और चारपाइयाँ डाल रखी हैं, अजीब एंटीक टाइप का माहौल रहता है। एक भूत टाइप का आदमी टहलता हुआ आया, उसने जब सलाद और चटनी सामने रखी तो वह चटनी को देखता ही रह गया, अभी दाल रोटी आने में देर थी तो उसने चटनी को मूली में लगा के चखा। तभी बेवजह ही उसके दिमाग में एक बूढ़ी सरदारनी का चेहरा घूम गया जो किसी बच्चे को चटनी रोटी खिला रही थी। जबकि वह पूर्वजन्म को नही मानता, कल्पना को कल्पना की तरह देख लेता है, अनुभव में उसने किसी सरदारनी को देखा नही। उसे लगा दिमाग के पर्दे पर उस चटनी के माध्यम से कोई उतरा था। कारण कुछ भी हो ! बाद में उस बूढ़े सरदार से बात करते हुए पता चला कि यह चटनी उसकी नानी ने उसे बनाना सिखाया था। उसकी नानी, लाहौर के पास के एक गांव की थीं,और बाबा, गुरुदास पुर में रहते थे।उसको अपना बचपन याद आ गया था। आजादी के पहले का गुरुदास पुर , यह उसकी आँखों में तैर रहा था। किसी बूढ़े की आँख में उसके बचपन की स्मृतियों से पैदा हुए भाव को तैरते हुए देखना, एक बहुत अलग अनुभव है ! असल में उसे सरदारों को देखने पर जो चीजें याद आती थीं, उनमें पाकिस्तान और भारत का बंटवारा तो आता ही था उसके अलावा गुरुनानक के साथ बाकी सभी गुरुओं का नाम भी ख्याल में आ जाता था। उसने अपने कस्बे में सरदार की कैसेट की दुकान पर सबसे पहले किसी सरदार को देखा था, उसे उस दौर के तमाम गानों की याद आयी, वह लिस्ट भी, जिसे कैसेट में भरने के लिए सरदार को दी थी। उसे अजीब लगता है वो जिस भी चीज को देखता है उससे उसका इतिहास झांकने लगता है। वह उन सरदारों को देखता है बड़ा भाई ज्यादा शांत है, उसके दुख के अनुभव ज्यादा लगते हैं, वो सीधा भी है। सीधा तो दूसरा भी है लेकिन वो थोड़ा बेहतर हिसाब किताब कर लेता है। दोनों बचपन के खेल की तरह ढाबा चलाते हैं। दोनों की पत्नियां खत्म हो गयी हैं। लड़के और नाती पोते बड़े महानगरों में बस गए हैं, एक तो विदेश चला गया है। वे गरीब नही हैं,लेकिन गरीबों के साथ रहते हैं। उनके पास लकधक देखकर आने वालों की संख्या नगण्य है, जो उसके स्वाद को जानते हैं वे ही उसके पास आते हैं। वे बताते हुए यह भी बताते हैं कि शुरुवात में उन्होंने अपना ढाबा कलकत्ता में खोला था, यह आजादी के तुरंत बाद की बात है। वह बंगलादेश बनने तक वहाँ थे। उसके बाद वे हरिद्वार चले आये थे। उन लोगों ने बताया कि वे लोग कई बार उजड़े और बसे हैं ! और यह ढाबा तो उन्होंने पचीस साल पहले इस क्रासिंग पर खोला था, तब यहां कोई नही रहता था, अब तो यह शहर के बीच में आ गया। उसे वे दोनों आदमी से ज्यादा किसी बड़े पेड़ की तरह लग रहे थे, जो ठूंठ में बदलते जा रहे थे, लेकिन आपस में बहुत बढ़िया संवाद की वजह से बीच-बीच में हरे भी हो जाते थे।

शुक्रवार, 8 मार्च 2019

'भारतीय चिंतन परंपरा' से गायब कर दिए गए हैं फुले, पेरियार और अंबेडकर

(युवा सामाजिक कार्यकर्ता नन्हेलाल द्वारा के. दामोदरन की पुस्तक 'भारतीय चिंतन परंपरा'
की संक्षिप्त आलोचना)

भारत के आधुनिक विचारकों में प्रमुख तीन शख्सियतों को हमें गिनाना हो तो ज्योतिबा फूले, रामासामी पेरियार और डॉक्टर भीमराव अंबेडकर होंगे । लेकिन आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि के. दामोदरन की किताब 'भारतीय चिंतन परंपरा' में उपरोक्त तीनों नायकों का कहीं भी चर्चा तक नहीं है । लेखक ने अपनी पुस्तक में जिन आधुनिक विचारकों की चर्चा की है वह निम्न है-
★ राजा राममोहन राय
★ स्वामी विवेकानंद
★ रविन्द्र नाथ ठाकुर
★ इकबाल
★ महात्मा गांधी
★ जवाहरलाल नेहरू

दुनिया में आधुनिक समाज का आगाज यूरोप में औद्योगिक क्रांति के साथ हुआ। इसकी वैचारिक पृष्ठभूमि यूरोप के पुनर्जागरण (1400-1650) ईसवी और प्रबोधन(ज्ञानोदय) 1650-1780 ईसवी में ही रख दी गई थी। इस दौर में यूरोप में इस कदर खलबली मची हुई थी कि पूरा समाज उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था। एक तरफ तो पुरानी सामंती व्यवस्था जो मुख्यतः कृषि अर्थव्यवस्था पर निर्भर थी और सामाजिक व्यवस्था पर राजे रजवाड़ों और धर्म की ताकत का बोलबाला था। इसी के गर्भ से जन्मा दस्तकारी और इसका हमसफर वैज्ञानिक चिंतन ने पुरानी व्यवस्था को ध्वस्त करने का आंदोलन तूल पकड़ लिया । धर्म की ईश्वरीय सत्ता को चुनौती दी जाने लगी और हर चीज को तर्क की कसौटी पर कसा जाने लगा। मानव मात्र को केंद्र में रखकर हर घटनाएं और इतिहास परखा जाने लगा। यूरोप ज्ञान के मामले में इतना अधैर्य था कि दुनिया के हर संभव कोनों से संपर्क स्थापित करने की कोशिश की और साथ ही अब तक के लिखित इतिहास को खंगालने में जाने में जुटा रहा। ठीक इसी वक्त दुनिया के तमाम देश धीरे-धीरे ब्रिटेन के उपनिवेश भी बने। पुनर्जागरण और प्रबोधन हर अतार्किक चीज को नकारा और इंसान केंद्रित स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व इसका प्रमुख नारा बन गया। ज्ञानोदय के इसी आभामंडल ने विज्ञान को कुलांचें भरने की जमीन मुहैया कराया।
जब एक तरफ यूरोप आगे बढ़ रहा था तब भारत जैसे तमाम देश यूरोपी देशो के उपनिवेश बन रहे थे और गुलाम देशों के शोषण से यूरोप को आगे बढ़ने का ईंधन मुहैया हो रहा था। यूरोप अपनी दासता के पुराने बेड़ियों को तोड़ रहा था जो कृषि आधारित सामाजिक संरचना से उपजे थे। दूसरी तरफ औधोगिक क्रांति मानवता की दासता की नई बेड़ियों को अपने साथ लिए हुए था । कहने का मतलब है कि औद्योगिक समाज को अपने नई दासता की बेड़ियों से अभी उसे कोई आभास नहीं था। लेकिन सामंती दासता को वह अब बर्दाश्त नहीं कर सकता था जो मानव समाज की स्वभाविक गति से उपजी थी।
 भारत में आधुनिक विचार ब्रिटेन के खिलाफ मुक्ति संघर्ष के दौरान ही अपना आकार ग्रहण किया। भारत ब्रिटेन का गुलाम बनने से पहले यूरोप और पश्चिम एशिया के आक्रमणकारियों से हर हमेशा तहस-नहस होता रहा ।भारतीय उपमहाद्वीप की स्वाभाविक सामाजिक संरचना को देखें तो यह अनेक रियासतों में बटा हुआ था और वर्ण  व्यवस्था की जकड़न कहीं अधिक तो कहीं कम थी जो कृषि अर्थव्यवस्था पर टिकी हुई थी। यदि भारतीय सामंती समाज को आधुनिक समाज में बदलना था तो उसे पुरानी वर्ण व्यवस्था की सामाजिक संरचना को ध्वस्त कर देना था और इसकी दासता से मुक्त होकर औद्योगीकरण में पदार्पण करना था किंतु ब्रिटेन के उपनिवेश हो जाने के कारण यह स्वाभाविक गति अवरूद्ध हो गई।

के. दामोदरन ने जिन भारतीय आधुनिक विचारों का नाम गिनाया है वह भारत के वर्ण व्यवस्था में ही पले बढ़े थे और उन्हीं पुरानी मूल्यों मान्यताओं के साथ खड़े थे। एशियाई महाद्वीप में यूरोप जैसा पुनर्जागरण और प्रबोधन का सामाजिक उथल पुथल नहीं हुआ जो इस पूरे महाद्वीप को अपने आगोश में ले सकें और औद्योगिक समाज के नए मुल्यों से मानव समाज को सराबोर कर दे। लेकिन इस तथ्य से कौन इनकार कर सकता है कि इस जमीन पर अलग-अलग काल खंडों में वर्ण व्यवस्था को जबरदस्त चुनौती मिली थी। बौद्ध धर्म तो ब्राह्मणवाद के खिलाफ ही संघर्ष करते हुए खड़ा हुआ था। लेकिन वर्ण व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष इस पूरे उपमहाद्वीप को एक सूत्र में नहीं पिरो पाया। वर्ण व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष की निरंतरता अंग्रेजी शासन के खिलाफ संघर्षों के दौरान ज्योतिबा फुले,  पेरियार और अंबेडकर में दिखाई देती है। चिन्हित करना कठिन नहीं है कि राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानंद, रविंद्र नाथ ठाकुर, इकबाल, महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू भारत के आधुनिक विचारों की श्रेणी में नहीं आ सकते जो किसी न किसी रूप में सामंती समाज की सामाजिक संरचना वर्ण व्यवस्था की आलोचना तो करते हैं किंतु इसके पूर्ण खात्मे की बात कतई नहीं करते।
अब हम आते हैं 'भारतीय चिंतन परंपरा' के लेखक के. दामोदरन के दृष्टि भ्रम पर। इस बात से इनकार करना बेमानी होगी कि लेखक मार्क्सवादी विज्ञान से परिचित नहीं है जो दुनिया के पैमाने पर अब तक उपलब्ध मानव समाज के विश्लेषण का अचूक हथियार साबित हो चुका है। आखिर लेखक ने आधुनिक विचारक के लिए क्या मानदंड बनाया है?
क्या आधुनिक विचारक उन्हें मान लिया जाए जो पुराने मूल्यों मान्यताओं या मूल रूप से कृषि अर्थव्यवस्था पर टिकी सामाजिक संरचना वर्ण व्यवस्था के पैरोकार होते हुए भी औद्योगिक समाज के मूल नारे स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को भी स्वीकार कर ले?
यदि भारतीय समाज का स्वाभाविक विकास होता और वर्ण व्यवस्था के खिलाफ निर्णायक संघर्ष अपने मुकाम को हासिल करता तो क्या ये तथाकथित आधुनिक विचारक सभ्यता के दोनों नावों पर सवार रहते?
मेरा मानना है कि ऐसा नहीं होता तो फिर इन्हें आधुनिक विचारक कैसे मान लिया जाए?

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि के. दामोदरन ने भारतीय समाज को समझने के लिए ऐतिहासिक भौतिकवाद का इस्तेमाल करने में चूक की है । मार्क्स के शब्दों में 'अब तक का ज्ञात (लिखित) मानव इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास है', तो भारत में भी सनातन परंपरा के खिलाफ  भौतिकवादी परंपरा हर हमेशा मौजूद रही होगी; जो लोकायत/ श्रमण परंपरा थी। भारत में प्राचीन काल से ही हर दौर में सनातनी परंपरा के खिलाफ लोकायत/ श्रमण परंपरा हमेशा चुनौती के रूप में खड़ी रही है । इसे मुखर रूप से चिन्हित करने और तथ्यों को सामने लाने में श्रेय बहुजन चिंतकों और लेखकों को दिया जाना चाहिए जिन्होंने धर्म ग्रंथों से भी इस संघर्ष परंपरा के सार को अपनी लेखनी के माध्यम से जनता तक पहुंचा रहे हैं। लेखक के पक्ष में यदि हम यह मान भी लें कि ब्राह्मणवादी बहुत ही आक्रामक थे और श्रमण परंपरा के नायकों और उनके लिखित दस्तावेजों को नष्ट कर देते थे तो भी ऐतिहासिक भौतिकवाद पर पकड़ रखने वाले चिंतक का दृष्टि भ्रम स्वाभाविक नहीं लगता। वह इसके साक्ष्यों को अन्य स्रोतों में भी तलाश करेगा , वह दुश्मन के साहित्य में भी ढूंढने की कोशिश करेगा।
मेरा मानना है लेखक ने यूरोप के सामाजिक संरचना को भारतीय समाज पर आरोपित करने का प्रयास किया है और जाति व्यवस्था के प्रश्न से बचने की कोशिश की है । जाति व्यवस्था ऐसा जटिल सा दिखता है जिसमें श्रमिक वर्ग का भी कई संस्तरों पर विभाजन सा प्रतीत होता है। किंतु यह स्थिति बाद की है जबकि प्राचीन और मध्य काल तक तो शुद्र और अछूत जातियां ही सर्वहारा वर्ग के रूप में मौजूद रही होंगी।  लेकिन यह प्रश्न चाहे जितना भी जटिल हो इससे किनाराकशी करने पर सनातन परंपरा के खिलाफ श्रमण परंपरा की पूरी क्रांतिकारी विरासत ही आंखों से ओझल हो जाती है और क्रांतिकारी विरासत के रूप में हम हंसिया हथौड़ा लेकर शून्य में टटोलते नजर आते हैं । इस दृष्टि भ्रम का ही नतीजा है कि ब्राह्मणवाद का ही मानवीय चेहरा के रूप में निकला आर्य समाज, ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज इत्यादि को मानने वाले जो जाति व्यवस्था में थोड़ा सुधार तो चाहते हैं पर उसका विनाश कतई नहीं चाहते और उन्हें ही हम आधुनिक विचारक घोषित करने में लगे हुए हैं।

सोमवार, 4 मार्च 2019

जंग नहीं अमन चाहिए, मज़दूरों को अधिकार चाहिए

 दिल्ली, 3 मार्च। मज़दूर वर्ग पर बढ़ते हमलों के खिलाफ देश के विभिन्न हिस्सों से पहुँचे हजारों मजदूरों ने राजधानी दिल्ली के संसद मार्ग पर अपनी आवाज़ बुलंद की।











मजदूर अधिकार संघर्ष रैली  के तहत  दिल्ली के रामलीला मैदान में एकत्रित हुए मजदूरों का यह कारवां संसद भवन के लिए कूच किया। अपनी मांगों को बुलंद करते हुए संसद भवन के पास जोरदार  सभा की। 17 सूत्री मांगों को लेकर मजदूर अधिकार संघर्ष अभियान (मासा) के आह्वान पर आज  देश के विभिन्न हिस्सों से मजदूर जुटे थे। मोदी सरकार द्वारा श्रम कानूनों में किए जा रहे बदलाव के खिलाफ,  25000 रुपए मासिक न्यूनतम मजदूरी करने, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के हक हकूक, महिलाओं के अधिकार, फिक्सड टर्म, नीम ट्रेनी के नाम पर मजदूरों की नौकरियों की प्रकृति में हो रहे परिवर्तन, स्थाई रोजगार खत्म करने के खिलाफ,  सम्मानजनक रोजगार और रोजगार नहीं मिलने तक ₹15000 बेरोजगारी भत्ता देने, समान काम का समान वेतन देने, मनरेगा मजदूरों  और अलग-अलग सेक्टर के मजदूरों के हक के लिए, अन्यायपूर्ण सजा झेलते मारुति, प्रिकाल, गर्जियानो के मज़दूरों की रिहाई व दमन सहित 17 सूत्री मांग पत्र पर आवाज़ बुलंदी हुई। इसके साथ ही धर्म, जाति व राष्ट्रीयता के नाम पर बढ़ते उन्माद पर भी जबरदस्त हमला बोला गया।

रैली में भाग लेने के लिए आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटका, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, उड़ीसा, बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, केरल, असम, दिल्ली-एनसीआर आदि राज्यों सहित देश के विभिन्न संघर्षशील मजदूर संगठनों के नेतृत्व में मजदूरों का कारवां दिल्ली पहुंचा था।

सभा मे वक्ताओं ने कहा कि मोदी सरकार आने के बाद मजदूर मेहनतकशों पर हमले और तेज हुए हैं। पूंजीपतियों के हित में श्रम कानून में परिवर्तन किया जा रहा है। नई उदारवादी आर्थिक नीतियों के चलते हर क्षेत्र में स्थाई नौकरी की जगह पर ठेका प्रथा अपरेंटिस, ट्रेनी का दबदबा बढ़ा है। मजदूरों को ट्रेड यूनियन का और सामूहिक मांग पत्र पर सम्मानजनक समझौता करने के अधिकार का हनन हो रहा है। मजदूरों पर काम का बोझ बढ़ता जा रहा है। पूंजीपतियों द्वारा श्रम कानूनों का खुला उल्लंघन किया जा रहा है । गैरकानूनी तालाबन्दी, क्लोज़र, ले-ऑफ, छंटनी व मनरेगा में वार्षिक बजट कम कर मजदूरों को बेरोजगार किया जा रहा है। मजदूरों के हर अधिकार को कुचलने के लिए सरकारें दमन तेज कर रही हैं। इससे भटकाने के लिए साम्प्रदायिक व जातिवादी हमले बढ़े हैं। अंध राष्ट्रवाद का जुनूनी माहौल भयावह रूप ले रहा है। इनके खिलाफ एक जुझारू आंदोलन खड़ा करना आज मज़दूर वर्ग का प्रमुख कार्यभार बन गया है।

ज्ञात हो कि केंद्र तथा विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा लागू किए जा रहे नव उदारवादी नई आर्थिक नीतियों के साथ समझौताहीन जुझारू संघर्ष व देश में मजदूर आंदोलन का एक वैकल्पिक ताकत खड़ा करने की जरूरत के लिए मजदूर अधिकार संघर्ष अभियान (मासा) का गठन हुआ था, जिसमें देश के अलग-अलग राज्यों से 15 से ज्यादा घटक संगठन शामिल हैं।
ट्रेड यूनियन सेंटर ऑफ इंडिया (TUCI) से संजय सिंघवी, स्ट्रगलिंग वर्कर्स कोआर्डिनेशन कमेटी, वेस्ट बंगाल (SWCC) से कुशल देवनाथ, ग्रामीण मजदूर यूनियन, बिहार से अशोक कुमार, इंडियन सेंटर ऑफ ट्रेड यूनियन्स (ICTU) से नरेंद्र, इंडियन फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियन्स ( IFTU) से एस बी रॉव, आईएफटीयू (सर्वहारा) से अजय कुमार, इंकलाबी केंद्र पंजाब से सुरिंदर, इंकलाबी मजदूर केंद्र (IMK) से श्यामबीर, जन संघर्ष मंच हरियाणा से फूल सिंह, मजदूर सहयोग केंद्र, गुड़गांव से राम निवास, मजदूर सहयोग केंद्र, उत्तराखंड से मुकुल, श्रमिक शक्ति, कर्नाटका से वरदा राजेन्द्र, सोशलिस्ट वर्कर्स सेंटर, तमिलनाडु से सतीश, ऑल इंडिया वर्कर्स काउंसिल(AIWC) से शिवजी राय के अलावा मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन से अजमेर, डाइकिन एयरकंडीशनिंग से मनमोहन, चायबागान संग्राम समिति दार्जलिंग से आशा प्रधान, भगवती प्रोडक्ट्स माइक्रोमैक्स से सूरज ने बातें रखीं। संचालन अमिताभ, स्वदेश कुमारी, आर मन्सिया, अजित और एम श्रीनिवास ने किया।

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2019

बर्फबारी में फंसी गर्भवती महिला की जान


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पुंछ जिले की मंडी तहसील के डन्ना गांव की रहने वाली महिला को प्रसव पीड़ा होने पर उसके परिवार के लोग पांच फुट बर्फबारी में पांच किलोमीटर तक महिला को कंधे पर बैठा कर लोरन स्थित स्वास्थ्य केंद्र पहुंचे थे। जिन लोगों के पास हमारे प्रधानमंत्री की तरह का 56 इंच का सीना नहीं है, उनको शायद पता न हो कि एलओसी से सटे इलाकों में डॉक्टर नदारद हैं। हमारे प्रधानमंत्री का दिमाग तो शायद उनके 56 इंच के सीने में ही है, इसीलिए उनको सब पता रहता है। उनकी बुद्धि जीएसटी, फसल बीमा योजना, राफेल डील के साथ पाकिस्तान को सबक सिखाने में भी नजर आती है। उनकी बुद्धि का ही कमाल है कि बार्डर से सटे इलाके कमोवेश डॉक्टर विहीन हो गए हैं। शायद उनको लगता है कि यहां के लोग इतने मजबूत हैं कि उनका पाकिस्तान या कोई बीमारी कुछ नहीं बिगाड़ सकती है। शायद वे महिलाओं को भी इतना मजबूत मानते हैं कि वे प्रसव पीड़ा को झेल कर बहुत आसानी से बच्चे को जन्म दे सकती हैं। वैसे आपको दाद देनी होगी कि भले ही उन्होंने शादी न की हो लेकिन वे इस विषय पर भी कमाल की बुद्धि रखते हैं।
बहरहाल, वापस विषय पर आते हैं। जब गर्भवती महिला को अस्पताल पहुंचाया गया तो वहां डॉक्टर तो था नहीं। एक अदद स्टाफ ही था। उसने महिला के परिवार वालों को नेक सलाह दी कि वे बिना देर किए उसे मंडी उपजिला अस्पताल ले जाएं, जो वहां से करीब 15 किलोमीटर पड़ता है। अब सोचिए उस परिवार पर क्या बीती होगी, जो पांच फुट बर्फ में पांच किलोमीटर तक गर्भवती महिला को कंधे पर बैठा कर और उसे ठंड से बचाते हुए अस्पताल पहुंचा था। आखिरकार उन्होंने पुलिस को फोन किया और समस्या बताई। पुलिस ने तुरंत मंडी में पीडब्ल्यूडी मेकेनिकल विंग के कार्यपालक इंजीनियर कमल ज्योति शर्मा को फोन कर मदद करने की अपील की। इंजीनियर तुरंत अपना वाहन निकाला और एक स्नोकटर मशीन को अपने वाहन के आगे लगाया। आगे-आगे मशीन बर्फ हटाते हुए आगे बढ़ रही थी और पीछे-पीछे इंजीनियर शर्मा चल रहे थे। दरअसल सारी बर्फ हटाने वाली सारी मशीनें दूरदराज के इलाकों में बर्फ हटाने के काम में लगाई गई थीं। ऐसे में इंजीनियर को एक स्नोकटर मशीन मिली। उन्होंने पहले सोचा कि मंडी से वे बर्फ हटवाते हुए लोरन पहुंचेंगे और उसे अपनी गाड़ी में बैठा कर मंडी उपजिला अस्पताल लेकर आएंगे। इसी बीच उन्हें ध्यान आया कि एक स्नोफ्लोवर मशीन लोरन में भी तैनात की गई है। उन्होंने आगे बढ़ते हुए स्नोफ्लोवर मशीन के चालक को फोन लगाया। फोन नहीं मिला। फिर मिलाया और मिलाते रहे। क्योंकि उनको लग रहा था कि महिला को प्रसव पीड़ा हो रही है, ऐसे में कहीं ज्यादा समय न लग जाए। आखिरकार फोन चालक को लग गया। उन्होंने चालक को महिला को लेकर मंडी की तरफ रवाना होने को कहा और खुद भी उधर बढ़ते रहे। चालक ने स्नोफ्लोवर मशीन की केबिन में गर्भवती महिला और उसके परिवार के सदस्यों को बैठाया और आगे की 15 किलोमीटर की यात्रा पर निकल पड़ा। पूरे रास्ते पांच फुट बर्फ जमा थी, ऐसे में वह मशीन से बर्फ हटाते हुए आगे बढ़ रहा था। उधर इंजीनियर साहब भी लोरन की तरफ बर्फ हटाते हुए बढ़ रहे थे। आखिरकार स्नोफ्लोवर मशीन का चालक ने गर्भवती महिला और पूरी सलामती के साथ अस्पताल पहुंचाने में सफल रहा। इस तरह उसने बड़ी विकट परिस्थिति में गर्भवती महिला और उसके बच्चे की जान बचाई। यदि इसी तरह से सभी विभागों के कर्मचारी और अधिकारी काम करें तो जनता की कितनी समस्या हल हो सकती है। इसके लिए इंजीनियर और स्नोफ्लोवर मशीन के जज्बे और नेक इरादे को सलाम।

सोमवार, 28 जनवरी 2019

बर्फबारी में काम करते बिजली कर्मियों को देखें

इस समय जम्मू के कठुआ जिले की बनी तहसील के उच्च पर्वतीय इलाकों में पिछले तीन-चार दिन में पांच छह फुट बर्फबारी हो गई है। पांंच-छह फुट बर्फबारी में बिना जरूरी सुविधाओं के काम करने को मजबूर जम्मू कश्मीर के बिजली कर्मी। खंभे टूट गये हैं। पेड़ तार पर गिरने से तार टूट गये हैं। सड़कें बंद हैं।

देखें: वीडियो-1

जम्मू कश्मीर के हिम्मती, मेहनती बिजली वर्कर

देखें: वीडियो-2

बिजली बहाली में जुटे बिजली कर्मचारी

देखें: वीडियो-3
ढाई फुट बर्फबारी में बिना गंबूट टूटे तार ढूंढते बिजली कर्मी


ऐसे में दुर्गम इलाकों में बिना गंबूट, दस्ताने आदि दिए राष्ट्रपति शासन में बिजली कर्मियों से बिजली बहाली का काम करवाया जा रहा है। वीडियो देखें और देश के हर नागरिक तक कर्मचारियों की परेशानी पहुंचाने में अपना योगदान भी दें। यदि आपको सही लगे तो चैनल को सब्सक्राइब भी करें।