एक नया सवाल उभर कर आया है। क्या मैं एक मिथ्याभिमान के कारण सर्वशक्तिमान, विश्वव्यापी, त्रिकालदर्शी ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता? मैं ने कभी यह कल्पना तक नहीं की थी कि मेरा सामना ऐसे किसी प्रश्न से होगा। लेकिन कुछ मित्रों के साथ बातचीत के दौरान मुझे यह संकेत मिला कि मेरे कुछ साथी, जिनके बारे में मैं ज्यादा समझने का दावा नहीं करता और जिनसे कि मेरा बहुत कम सम्पर्क रहा था, वो यह सोचने पर विवश थे कि मेरे द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को नकार देना मेरे द्वारा की गई एक ज्यादती थी तथा साथ ही कुछ अंश मिथ्याभिमान का भी था जिसने मुझे अविश्वास की ओर प्रवृत्त किया है। खैरसमस्या थोडी ग़म्भीर है। मैं यह भी नहीं कहता कि मैं इन सब मानवीय गुणों से परे हूं। मैं एक पुरुष हूं, उससे अधिक कुछ नहीं। उससे अधिक होने का कोई भी दावा नहीं कर सकता। मेरे अन्दर भी यह कमजोरी है। मिथ्याभिमान भी मेरे स्वभाव का एक छोटा सा हिस्सा है। मैं अपने कॉमरेड्स के बीच तानाशाह के नाम से जाना जाता था। यहां तक कि मेरे मित्र श्री बी के दत्त ने भी कभी कभी मुझे ऐसा कहा। कुछ अवसरों पर मैं एक आततायी के रूप में भी कोसा गया। मेरे कुछ मित्र बडी ग़ंभीरता से शिकायत करते थे कि मैं उनकी इच्छा के विरुध्द उन पर अपनी राय थोपता था और अपने प्रस्ताव स्वीकार करा लेता था। हालांकि कुछ अंश तक यह सच भी है, मैं इस बात से इनकार नहीं करता। यह अहम का भाव भी हो सकता था। मेरे अन्दर मिथ्याभिमान है वैसा ही जैसे कि हमारे क्रान्तिकारी समुदाय में है जो कि दूसरे लोकप्रिय मतानुयायियों में नहीं है। किन्तु यह व्यक्तिगत अहम् नहीं है। शायद यह हमारे क्रान्तिकारी समुदाय का वैधानिक गर्व है जो कि मिथ्याभिमान कदापि नहीं हो सकता।
मिथ्याभिमान और अगर ज्यादा सटीक होकर कहें तो अहंकार स्वयं में व्यर्थ गर्व की अत्याधिक भावना को कहते हैं। या तो यह व्यर्थ अभिमान का ही भाव है जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया या फिर यह इस विषय पर किया गया गहन अध्ययन व चिन्तन मुझे ईश्वर में अविश्वास के निष्कर्ष पर लेकर आया है, यही एक प्रश्न है, जिसकी मैं यहां पर चर्चा करना चाहता हूं। सर्वप्रथम मुझे यह स्पष्ट करने दें कि स्वाभिमान और मिथ्याभिमान दो अलग अलग चीजें हैं।
सबसे पहले, मैं यह समझने में असफल रहा हूं कि व्यर्थ का अभिमान और व्यर्थ की भव्यता भी कभी ईश्वर को मानने की राह में आडे अा सकती है। मैं किसी महान आदमी की महानता को पहचानने से इनकार कर सकता हूं अगर मैंने भी बिना किसी योग्यता के, बिना उन गुणों को प्राप्त किये जो कि इस उद्देश्य के लिये अति आवश्यक हैं, कुछ हद तक लोकप्रियता हासिल की हो। इतना तो सोचा जा सकता है। लेकिन किस प्रकार एक भगवान में विश्वास करने वाला व्यक्ति, अपने मिथ्याभिमान के कारण विश्वास करना बन्द कर सकता है? इसके दो ही कारण हैं। या तो व्यक्ति स्वयं को भगवान का प्रतिद्वन्द्वी समझने लगे या फिर स्वयं को ही भगवान मान ले। इन दोनों ही स्थितियों में वह एक सच्चा नास्तिक नहीं हो सकता। पहले मामले में वह भगवान के अस्तित्व को नकार नहीं रहा और दूसरे मामले में भी वह यह स्वीकार करता है कि कोई तो चैतन्य अस्तित्व है जो परदे के पीछे से प्रकृति के सारे क्रियाकलापों को नियन्त्रित करता है। यहां यह महत्वहीन है कि या तो वह स्वयं को परमात्मा समझे या वह यह सोचे कि परमात्मा कोई है जो उससे भिन्न है। यहां उसका मूल उपस्थित है। यहां उसका विश्वास है। वह किसी भी अर्थ में नास्तिक नहीं। और मैं दोनों में से किसी वर्ग से ताल्लुक नहीं रखता।
मैं परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास को ही अस्वीकार करता हूं। मैं यह क्यों अस्वीकार करता हूं, इस बारे में बाद में चर्चा करेंगे। यहां मैं एक चीज स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि यह मिथ्याभिमान कतई नहीं है जिसने कि मुझे नास्तिकता के मत की ओर प्रेरित किया। न तो मैं उस परमात्मा का प्रतिद्वन्द्वी हूं, न ही कोई उसका अवतार और न ही स्वयं परमात्मा हूं। यहां यह बिन्दु स्पष्ट हो चुका है कि किसी अभिमान की वजह ने मुझे इस सोचने के तरीके की ओर नहीं ढकेला है। मुझे सत्यों की जांच कर लेने दें ताकि मैं अपने ऊपर लगे इन आरोपों को गलत सिध्द कर सकूं। मेरे इन मित्रों के अनुसार मैं वृथाभिमान के साथ बडा हुआ हूं शायद अनापेक्षित लोकिप्रियता प्राप्त करने की वजह से जो कि मुकदमों के दौरान दोनों केसों, दिल्ली बम काण्ड तथा लाहौर काण्ड के बाद मिली थी। ठीक है चलिये देखते हैं कि क्या उनके वक्तव्य सही है!
मेरी नास्तिकता अभी हाल ही में नहीं आरंभ हुई है। मैंने ईश्वर में विश्वास करना तभी छोड दिया था जब मैं एक अप्रसिध्द युवक था, जिसके अस्तित्व के बारे में मेरे उल्लेखित मित्रों को कुछ पता भी नहीं था। कम से कम एक कॉलेज का सामान्य छात्र तो अनपेक्षित अहंकार को पोषित नहीं कर सकता जो कि उसे नास्तिकता की ओर ले जाये। हालांकि कुछ प्रोफेसर्स का मैं प्रिय छात्र था और कुछ मुझे नापसन्द करते थे, मैं कभी एक परिश्रमी तथा पढाकू लडक़ा नहीं रहा। मुझे ऐसा कोई मौका ही नहीं मिला कि मैं वृथाभिमान जैसी किसी भावना में डूबता। बल्कि मैं तो एक शर्मीले स्वभाव का लडक़ा था, जिसका भविष्य को लेकर कोई आशाजनक प्रबन्ध नहीं था। और उन दिनों मैं एक पूर्ण नास्तिक भी नहीं था। मेरे दादा जी जिनके प्रभाव में पला बढा वे घोर आर्यसमाजी थे। और एक आर्यसमाजी कुछ भी हो सकता है पर नास्तिक नहीं। अपनी प्राथमिक शिक्षा पूर्ण करने के बाद मैं पूरा एक साल लाहौर के डी ए वी स्कूल में पढा और हॉस्टल में रहा, वहां सुबह से लेकर शाम की प्रार्थना तक मैं गायत्री मंत्र'' का जाप किया करता था घण्टों तक। तब मैं पूरी तरह श्रध्दालू था। बाद में मैं अपने पिता के साथ रहने लगा। जहां तक धार्मिक रूढिवादिता का सम्बन्ध है वे थोडे स्वतन्त्र विचारों के हैें। यह उनकी ही शिक्षा थी कि मैंने अपना जीवन स्वतन्त्रता प्राप्ति की महत्वाकांक्षा में लगा दिया। पर वे नास्तिक नहीं हैं। वे दृढ विश्वासी हैं। वे मुझे प्रेरित करते थे कि मैं रोज प्रार्थना किया करुं। तो, इस तरह मैं पला बढा। असहयोग आन्दोलन के समय मैंने नेशनल कॉलेज में दाखिला लिया। यह तभी कि बात है कि मैंने स्वतन्त्र तौर पर सोचना और सभी धार्मिक समस्याओं तथा ईश्वर के बारे में चर्चा और आलोचना करना शुरु किया था। पर तब तक भी मैं धर्मविश्वासी था। तब तक मैं ने अपने अपने लम्बे केशों को बांधना शुरु कर दिया था पर मैं कभी पौराणिक गाथाओं तथा सिख धर्म या अन्य धर्म के मतों में विश्वास नहीं कर सका। पर मेरा दृढ विश्वास था कि ईश्वर का अस्तित्व तो है।
बाद में मैं रिवोल्यूशनरी पार्टी में शामिल हुआ। पहले नेता जिनके सम्पर्क में मैं आया, उनके सामने हालांकि मैं पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पाया था किन्तु ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस भी मुझमें न था। मेरे ईश्वर को लेकर दुराग्रही पू छताछ के कारण वे कहा करते, '' जब चाहो प्रार्थना करो।'' अब यह नास्तिकता है, इस समुदाय के मत को स्वीकार करने लिये कम साहस की आवश्यकता होती है। दूसरे नेता जिनके सम्पर्क में मैं आया वे ईश्वर के प्रति दृढ विश्वासी थे। उनका नाम था - आदरणीय कामरेड सचिन्द्र नाथ सान्याल, जो कि आजकल कराची काण्ड के सन्दर्भ में कालापानी की सजा काट रहे हैं। उनकी एकमात्र प्रसिध्द पुस्तक बन्दी जीवन के प्रथम पृष्ठ से ही ईश्वर भव्यता की स्तुति का गुणगान बढाचढा कर किया गया है। इस पुस्तक के दूसरे भाग का आखिरी पृष्ठ वेदान्तिक प्रशंसा और ईश्वर की रहस्यवादिता से ओत प्रोत है जो कि उनके विचारों का एक बहुत ही पवित्र हिस्सा है।
' क्रान्तिकारी पर्चे जो कि 28 जनवरी 1925 को पूरे भारत में वितरित किये गये, अभियोजन पक्ष की कहानी के अनुसार ये उनकी बौध्दिक मेहनत का नतीजा थे, इस गुप्त कार्य में प्रमुख नेता ने ही अपने विचार व्यक्त किये हैं। ये विचार उनके स्वयं के व्यक्तित्व के बेहद करीब हैं और अब यह अपरिहार्य था कि बाकि के सभी कार्यकर्ताओं को उनसे मतभेद होते हुए भी इनसे साम्यता रखनी होगी। इन परचों में एक पूरा पैराग्राफ परमात्मा की प्रशंसा में समर्पित था। यह पूरा रहस्यवाद था। यहां मैं यह इंगित करना चाहता था कि ईश्वर में अविश्वास का विचार क्रान्तिकारी पार्टी में अभी अंकुरित तक न हुआ था। काकोरी के प्रसिध्द शहीद - चारों ने अपने अंतिम दिन प्रार्थना करते हुए बिताए। रामप्रसाद बिस्मिल एक रूढिवादी आर्यसमाजी थे, समाजवाद और कम्यूनिज्म के बारे में व्यापक अध्ययन किये हुए होने के बावजूद भी। राजन लाहिडी भी उपनिषदों तथा गीता के श्लोकों के वाचन की अपनी इच्छा को न दबा सके। मैंने उन सब में सिर्फ एक व्यक्ति को देखा जिसने कभी प्रार्थना नहीं की, वे कहा करते थे, '' दर्शनशास्त्र मानवीय कमजाेरियों और ज्ञान की सीमाओं का ही परिणाम है।'' वे भी कालापानी की सजा काट रहे हैं। किन्तु वे भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस नहीं कर सके।
उस समय तक मैं भी एक उदात्त, आदर्शवादी क्रान्तिकारी था। तब तक हमें महज अनुसरण ही करना होता था। अब वह समय आया जबकि जब कन्धों पर पूरी जिम्मेदारी का बोझ उठाना था। कुछ अपरिहार्य प्रतिक्रियाओं के फलस्वरूप पार्टी का अस्तित्व असंभव सा प्रतीत होने लगा था। उत्साही कामरेडों - विरोधी नेताओं ने हमारा उपहास उडाना शुरु कर दिया था। कुछ समय के लिये मैं भी डर गया था कि कहीं एक दिन मैं भी अपने कार्यक्रमों की निरर्थकता में विश्वास न करने लगूं। यह मेरे क्रान्तिकारी जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड था। ''अध्ययन'' मेरे दिमाग के गलियारोें में यही आवाज गूंज रही थी। अपने आपको अपने विरोधियों के द्वारा दिये हुए तर्कों का मुकाबला करने के लिये अध्ययन करो। अपने समुदाय के पक्ष में तर्क करने के लिये अपने आपको समर्थ करने के लिये मैं ने पढना शुरु किया। मेरे पिछले विश्वास और सही गलत समझने की क्षमता में एक गज़ब का बदलाव आया। हमारी पिछली पीढी क़े क्रान्तिकारियों में हिंसा के मार्ग के प्रति एकमात्र लगाव जो प्रमुख था, अब गंभीर विचारों में बदलने लगा था। अब कोई रहस्यवाद न था, न ही अंधविश्वास! यथार्थ ही अब हमारा मत था।
बल का प्रयोग तभी न्यायोचित है जब वह अत्यन्त आवश्यक हो। अहिंसा की नीति सभी जनआन्दोलनों के लिये अपरिहार्य है। तरीकों के बारे में काफी कह चुका।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह आदर्श जिसके लिये कि हम लड रहे हैं उसकी साफ तसवीर हमारे जहन में हो। जबकि लडाई में कोई महत्वपूर्ण गतिविधि में नहीं हो रही थी, मुझे विभिन्न विश्व क्रान्तियों के प्रणेताओं के बारे में पढने का काफी अवसर मिले। मैं ने बेकनिन को पढा, एक अराजकतावादी नेता, कुछ मार्क्स के बारे में जो कि कम्यूनिज्म के पितामह हैं और काफी सारा लेनिन, ट्रोट्स्की और अन्य क्रान्तिकारी जिन्होंने सफलता पूर्वक अपने अपने देशों में क्रान्ति का संचालन किया था। ये सभी नास्तिक थे। बेकनिन की '' गॉड एण्ड स्टेट '' जो कि खण्डों में है, और इस विषय के बारे एक रोचक अध्ययन प्रस्तुत करती है। बाद में मैं ने एक किताब देखी जिसका शीर्षक था कॉमन सेन्स जो कि निर्लम्बा स्वामी द्वारा लिखी गई थी। यह एक प्रकार की रहस्यवादी नास्तिकता के विषय में थी। यह विषय मेरे लिये सर्वथा रुचिकर हो चला था। 1926 के अन्त तक मुझे इस बात की आधारहीनता पर पूर्ण विश्वास हो गया था कि किसी परमात्मा जिसने कि सबको बनाया और जो समस्त ब्रह्माण्ड का नियंत्रक और मार्गदर्शक है, उसका कोई अस्तित्व नहीं है। मैं ने अपने इस ईश्वर में अविश्वास को उजागर करना आरंभ किया और मैं ने इस विषय पर अपने मित्रों से चर्चा करना शुरु कर दिया था। अब मैं गंभीर नास्तिक घोषित हो चुका था। लेकिन इसका क्या औचित्य था इस पर मैं अब चर्चा करुंगा।
मई 1927 में लाहौर में गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी मेरे लिये आश्चर्यजनक थी। मैं इस बात से अनभिज्ञ था कि पुलिस मेरी तलाश में थी। अचानक एक बाग से गुजरते हुए मैंने अपने आपको पुलिस के बीच घिरा पाया। मैं स्वयं आश्चर्य में था कि उस वक्त मैं इतना शांत था। मुझे कोई संवेदन महसूस नहीं हो रहे थे ना ही मैं ने किसी उत्तेजना का अनुभव किया। मुझे पुलिस की हिरासत में ले लिया गया। अगले दिन मुझे रेल्वे पुलिस के लॉकअप में ले जाया गया जहां कि मुझे पूरा एक महीना काटना था। पुलिस अफसरों के साथ कई दिनों की बातचीत के बाद मैं ने अनुमान लगाया कि उनके पास कोई सूचना थी जिससे मेरा काकोरी काण्ड के लोगों से और अन्य क्रान्तिकारी गतिविधियों से सम्बन्ध जोडा जा सकता था। उन्होंने मुझे कहा कि जब काकोरी काण्ड का मुकदमा चल रहा था तब मैं लखनऊ गया था और मैं उनके भाग जाने की खास योजना के बारे में व्यवस्था कर रहा था। उनकी अनुमति मिलने के बाद हमने कुछ बम जमा किये और प्रयोग करने की खातिर उनमें से एक बम हमने 1926 के दशहरा के अवसर पर भीड में फेंका था। उन्होंने आगे बताया कि, अगर मैं उन्हें क्रान्तिकारी पार्टी की गतिविधियों पर प्रकाश डालने वाला बयान दे दूं तो इसीमें मेरी भलाई है। तब मुझे जेल में नहीं रखा जायेगा और छोड दिया जायेगा और इनाम भी मिलेगा, कोर्ट में वायदामाफ गवाह की तरह भी पेश नहीं किया जायेगा। उनके प्रस्ताव पर मुझे हंसी आ गई। यह पूर्णत: छल कपट था।
हमारे जैसे आदर्शों को मानने वाले लोग अपने ही निर्दोष लोगों पर बम नहीं फेंका करते। एक दिन सुबह मि न्यूमेन जो कि तब सीआईडी सीनीयर सुपरिटेन्डेन्ट थे, मेरे पास आए। और काफी सहानुभूति पूर्ण बातचीत के बाद उन्होंने मुझे यह खेदजनक समाचार बताया कि अगर मैं ने कोई बयान नहीं दिया, जैसा कि वे चाहते थे, तो वे मुझ पर काकोरी काण्ड के सन्दर्भ में राज्य के साथ युध्द करने के षडयन्त्र में और दशहरा बम काण्ड में निर्दोष लोगों की हत्या के सम्बन्ध में मुकदमे दायर करेंगे। और उन्होंने आगे यह भी बताया कि उनके पास इस बात के काफी सबूत हैं जिनकी बिना पर मुझे दोषी ठहरा कर फांसी दी जा सकती है।
उन दिनों मुझे विश्वास था - हालांकि मैं पूर्णत: निर्दोष था - कि पुलिस चाहे तो ऐसा भी कर सकती है। उसी दिन कुछ पुलिस अधिकारियों ने मुझसे आग्रह करना शुरु किया कि मैं भगवान की दोनों वक्त नियमित रूप से प्रार्थना किया करुं। अब मैं एक नास्तिक था। मैं अपने लिये निर्णय करना चाहता था कि मैं शान्ति और खुशहाली के दिनों में नास्तिक होने का दंभ भरता था या ऐसे कठिन समय में भी मैं अपने उन्हीं सिध्दान्तों से भी जुडा रह सकता था। काफी सोच समझ के बाद मैं ने फैसला किया कि मैं भगवान में विश्वास करने तथा उसकी प्रार्थना के लिये स्वयं को प्रेरित नहीं कर सकता। नहीं, कदापि नहीं। यही मेरी असली परीक्षा थी और मैं इसमें सफल रहा। एक पल के लिये भी मैं ने दूसरी कुछ चीज़ों की कीमत पर भी कभी अपनी गर्दन नहीं बचानी चाही। इस प्रकार मैं एक कट्टर नास्तिक था: और उसके बाद हमेशा रहा। इस परीक्षा में खरा उतरना आसान काम न था।
यह विश्वास कठिनाई के दौर को कोमल बना देता है, यहां तक कि कठिनाईयों को खुशगवार बना सकता है। भगवान में आदमी एक मजबूत सहारा व सांत्वना पा सकता है, लेकिन बिना उसके आदमी को स्वयं पर निर्भर रहना होता है। तेज तूफानों और चक्रवातों के बीच किसी का स्वयं अपने पैरों पर खडे रहना कोई बच्चों का खेल नहीं है। ऐसी परीक्षा की घडियों में, मिथ्याभिमान अगर कोई होता भी है तो काफूर हो जाता है, और इन्सान आम विश्वासों को चुनौती देने का साहस नहीं कर सकता, अगर वह करता है तो हमें यही निष्कर्ष निकालना चाहिये कि, मात्र मिथ्याभिमान के अलावा उसके पास कोई विशेष शक्ति अवश्य है। अब बिलकुल यही परिस्थिति है मेरे सम्मुख।