रविवार, 5 नवंबर 2017

शिखु लाः अंजान लोगों का साथ और पदयात्रा

                     सुरेंद्र विश्वकर्मा
इस बार श्रीनगर कुछ बदला-बदला सा लग रहा था। कश्मीर घाटी में सुन्नी लोगों की बहुलता है, लेकिन नये श्रीनगर में महिलाओं से बुरका गायब था। सटीक
Glacier at penjila pass
कारण किसी ने नहीं बताया, लेकिन श्रीनगर से बाहर या घाटी के बाकी हिस्सों में हिजाब दिखने लगता है। सेना और पुलिस को
zanskar river
देखकर लगता है,
Same way I pass river
जैसे इन्हें खुद ही सुरक्षा की जरूरत है।
घाटी में लोग मिलनसार लगे, चाहे वे स्‍थानीय बस के सहयोगी हों, बगीचों के माली या पैदल चल रहे राहगीर। केंद्र सरकार और मीडिया ने देश के बाकी हिस्सों में एक अघोषित मायाजाल फैला रखा है। फिर भी डल झील के किनारे जितने भी लाई चने बेचने वाले हैं सभी पूर्वी बिहार के हैं। पूरी यात्रा में जितने भी निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले कामगार मिले, अधिकतर बिहार, बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश के हैं।
 शाहजहां का बनवाया निशात बाग धरती के सबसे खूबसूरत जगहों में से एक है, हालांकि इसकी देखभाल करने वाले मालियों की हालत उतनी ही दयनीय है। कुल मालियों में से महज 3-4 माली ही परमानेंट हैं, बाकी सभी 3000-4000 रुपये के ठेके पर लगाए गए हैं। वे 15-20 सालों से काम कर रहे हैं, लेकिन उनको स्‍थायी नहीं किया गया है। अन्य विभागों में भी अस्‍थायी मुलाजिमों का यही हाल है। सरकार कहती है कि सात साल तक यदि कोई लगातार काम कर रहा है तो उसे स्‍थायी किया जाएगा, लेकिन वह अपने ही बनाए नियम को तोड़ रही है।
मुगलों को चाहे जितना कोस लें, लेकिन चिनार के वृक्षों के लिए उनका शुक्रगुजार तो होना ही चाहिए। वहां लगाए गए कई वृक्ष आज 400-500 साल पुराने हो गए हैं, लेकिन जो वृक्ष जितना पुराना है, उतना ही विशाल और आलीशान है। क्या अमर होना इसी को कहते हैं।
तीन दिनों के श्रीनगर प्रवास के बाद कारगिल पहुंचा। यहां की 80 प्रतिशत आबादी शिया है। द्रास से पहले कारगिल की चोटियां पर 1999 का युद्ध लड़ा गया था। बस आधे घंटे के लिए रुकी। यहां पुरबिया सेना के एक जवान ने पूरी रामायण बड़े विस्तार से दिखाया और बताया।
रविवार की दोपहर सुरू घाटी की यात्रा शुरू की। सुरू घाटी के लोग गेहूं और जौ की खेती करते हैं, जबकि कश्मीर घाटी की मुख्य फसल धान है। सुरू घाटी कुन और नून नामक दो चोटियों के नीचे आबाद है। थोड़ी दूर चलने के बाद बस में पांव रखने की क्या छत पर भी बैठने के लिए जगह नहीं बची। शाम पांच बजे इस घाटी के आखिरी गांव प्रकाचिक पहुंचा। कारगिल से प्रकाचिक तक की आबादी शिया बहुल है। वहां कोई भी काला लबादा नहीं पहनता है। रात रुकने की व्यवस्‍था पीडब्‍ल्यूडी के बंगले में हुई।
अगले दिन सुबह 8 बजे सेना के ट्रक में पदुम की यात्रा शुरू हुई। कच्चे ऊबड़-खाबड़, पथरीले रास्तों पर आर्मी की नई गाड़ी वह भी ट्रक में आगे बैठने को मिल जाना खुदा के मिल जाने के समान है। दोपहर में पेंजिला पास के करीब भूरे रंग के करीब 15- 20 किलोग्राम वजन के हिमालयी चूहों के दर्शन हुए। इसके बाद जंस्कार घाटी शुरू होती है। शाम साढ़े चार बजे पदुम पहुंच गया। 3657 मीटर की ऊंचाई पर बसा पदुम जंस्कार घाटी का केंद्र है। जाड़े के समय लोग जमी हुई जंस्कार नदी पर चलकर लेह जाते हैं। 2500 की बौद्ध धर्मावलंबी आबादी में 100 घर मुस्लिमों के भी हैं। दोनों समुदायों में आबादी बढ़ाने की होड़ दिखी। यहां चार-छह बच्चे होना आम बात है। सबसे अच्छी बात यह लगी कि बच्चे स्कूल जाते हैं। जंस्कार घाटी के स्कूलों को विदेशी चंदा खूब मिलता है। यहां एक राजा का महल भी था, जो अब खंडहर बन गया है।
सुबह के नौ बजे तक घूमता रहा। इसलिए अब अमू गांव तक के लिए एक टैक्सी लेना पड़ा। अमू तक बीआरओ ने पहाड़ काटकर सड़क बना दी है।
 12 सितंबर दिन मंगलवार दोपहर दो बजे से पदयात्रा शुरू हुई। रस्सी  पकड़कर नदी पार किया। साधारणतया यात्री फुगतल गोम्पा तक ही जाते हैं। ठंड बढ़ जाने के कारण यात्रियों की संख्या न के बराबर दिखी। गांवों के लोग पशुओं के छह माह तक खाने लिए घास काटने में लगे थे।
शाम पांच बजे चाह नाम के एक गांव में पहुंचा। मुख्य गांव नदी के दूसरी तरफ स्थित है। घर के बुजुर्ग ने रुकने और खाने का अच्छा इंतजाम कर दिया। प्रातः आठ बजे यहां से निकल लिया। रास्ते में एक सरकारी स्कूल के महाबातूनी मास्टर जी मिल गए। दो घंटे में साहब ने जंस्कार घाटी के बारे में इतना अधिक बताया कि साथ छोड़ना ही मुनासिब लगा। दोपहर में एक दूसरे व्यक्ति मिले। उनके घर दही रोटी खाया। शाम चार बजे नदी को पार किया और शाम सात बजे जंस्कार घाटी का आखिरी गांव कारयोक आ गया। गांव के एक घर में रुकने का इंतजाम हो गया। सुरू और जंस्कार घाटी कारगिल  जिले में आते हैं। सरकार ने लगता है पूरे जिले के लोगों को आदिवासी जनजाति की श्रेणी में डाल रखा है। इससे अधिकतर घरों के लोग सरकारी नौकरी पा गए हैं। जबकि कश्मीर घाटी में हालात ऐसे नहीं हैं। 2004-2005 तक पाकिस्तानी हुक्मरानों ने कश्मीर के अवाम को अपनी तरफ मिलाने के लिए पैसा बांटा। यही काम भारतीय शासकों ने भी किया। शायद सरकारें सोचती हैं कि केवल खाने को दे देने से उनकी जिम्मदारी खत्म हो जाती है, लेकिन यह पैसा भी कुछ लोगों तक ही पहुंचा। भारत की सरकार ने आजादी के बाद से शिक्षा स्वास्‍थ्य और रोजगार के लिए कुछ खास नहीं किया। ले दे के रेशन उद्योग वह भी सरकारी नीतियों के कारण चौपट हो गया।
जिले के सुरू घाटी तक की आबादी शिया मतावलंबी है और इनके धार्मिक गुरु इरान के अयातुल्ला खुमैनी हैं। थोड़े संपन्न घरों के लड़के धार्मिक शिक्षा के लिए यहां से इरान जाते हैं और वहीं शादी करके वापस आते हैं। कारगिल के हुसैनी पार्क में सिर पर सफेद पगड़ी वाले कई लोग मिले। इस्लाम को चाहे जितना भी हिंदू गरिया लें, लेकिन पेन्जिला पास तक एक भी नशेड़ी व्यक्ति नहीं मिला। इतनी ऊंचाई (3000-3900मीटर) पर बसे होने के बावजूद जंस्कार घाटी के लोग जौ, गेहूं और आलू, प्याज आदि उगा लेते हैं। गुरुवार (14 सितंबर) की सुबह साढ़े आठ बजे जंस्कार घाटी के आखिरी गांव बगरयोक को सलाम किया। आज ज्यादा चलना नहीं था। इसलिए गांव की सीमा से निकलकर बैठा था तभी चार विदेशी यात्रियों का दल और उनका लाव लश्कर आता दिखा। ये सभी अलग-अलग देशों के थे, जिन्हें टूर आपरेटर ने मिलाकर एक ग्रुप बना दिया था। इनके गुजरने के बाद मैं फिर से चूहों की तलाश में लग गया।
जंस्कार नदी में पानी के दो मुख्य स्रोत हैं। एक स्रोत फुतकल गोम्पा की तरफ से आता है, जिसका रंग एमदम हरा है और जिसके किनारे मैं चल रहा था वो मटमैला। मटमैली नदी का आखिरी पड़ाव अब आ गया था। गांव की सीमा से तीन किमी चलने के बाद, गायों के बड़े-बड़ गोट मिले। एक जगह गरम पानी और दूध पिया। दो नालों को पार कर लखनपुर के होटल या झोपड़ी में शाम चार बजे पहुंचा। इस झोपड़ी के लिए सरकार बोली लगाती है। ठंड बढ़ जाने के कारण इस होटल को भी एक हफ्ते में समेटने की तैयारी चल रही थी।
इस होटल में दो विदेशी यात्री पहले से मौजूद थे। फ्रांस के ये दोनों व्यक्ति स्की सेंटर में गार्ड की नौकरी करते थे। एक महीने की छुट्टी लेकर वे भारत घूमने आए थे। क्या अपने देश में ऐसी आशा की जा सकती है?
बहरहाल शुक्रवार की सुबह दो रोटी नमक तेल लगाकर खा लिया और 6:20 पर शिखु ला की तरफ प्रस्थान किया। डेढ़ घंटे की खड़ी चढ़ाई के बाद एकदम समतल मैदान आ गया। इस समतल मैदान के बाद नदी और ग्लैशियर से सटे रास्ते पर मैं भटक गया। गुजरा हुआ इंसान अपना निशान छोड़ जाता है। इन्हीं निशानों ने फिर से रास्ते पर ला दिया। 40 मिनट की चढ़ाई के बाद जीप चलने लायक कच्चा रास्ता बना दिया गया है। अगले मोड़ पर एक जीप दो विदेशी सैलानियों को लेकर नीचे जाती दिखी। 2019 तक दारचा को पदुम के कच्चे रास्ते से जोड़ने का लक्ष्य है। 80 प्रतिशत काम पूरा हो गया है।
साढ़े दस बजे 5098 मीटर की ऊंचाई पर स्थित शिखु ला पहुंच गया। ऊपर तूफान की तरह ठंडी हवा चल रही थी। पास के दूसरी तरफ एक शानदार झील है और इससे निकली नदी दारचा चली गई है। दारचा यहां से 42 किलोमीटर दूर है, लेकिन बीच में कोई गांव नहीं है। पास के दोनों तरफ 600-700 मीटर ऊंची कई बर्फीली चोटियां हैं।
शिखु ला जितना बड़ा और सुनसान था, उससे भी कहीं अधिक खूबसूरत।
कारयोक गांव के बाहर मिले विदेशी यात्रियों को लेकर वही जीप वापस आ गई। उसमें बैठकर दोपहर में दारचा पहुंच गया। गांव के नीचे एक होलिडे कैंप में ठहर गया। दारचा लेह-मनाली मार्ग पर हिमाचल प्रदेश का एक छोटा सा आखिरी गांव है। अगले दिन केलंग, मलाली होते हुए 23 घंटे की यात्रा के बाद रविवार सुबह पौने सात बजे दिल्ली वापस आ गया।
इस यात्रा वृत्तांत को लिखने का मकसद यही है कि प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया कश्मीर के बारे में जो बताता है, हकीकत उससे अलग है। मैं तो जन्नत का सफर कर खुशी-खुशी लौटा हूं। आप भी एक बार वहां जरूर जाएं।

शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

हिमाचल प्रदेश के चुनाव में भी आम जनता के बीच से कोई उम्मीदवार नहीं, सभी करोड़पति

          देवेंद्र प्रताप।     

हिमाचल प्रदेश इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स ने हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव 2017 में चुनाव लड़ने वाले सभी 338 उम्मीदवारों के शपथ पत्रों का विश्लेषण किया है। चुनाव मैदान में उतरे कुल उम्मीदवारों में से 61 यानी 18 प्रतिशत प्रत्याशियों ने अपने ऊपर आपराधिक मामले दर्ज होने के बारे में चुनाव आयोग के बारे में हलफनामा दिया है। 31 उम्मीदवारों यानी 9 प्रतिशत पर गंभीर आपराधिक मामलों से संबंधित केस दर्ज हैं। कुल उम्मीदवारों में से 158 उम्मीदवार यानी लगभग 47 प्रतिशत करोड़पति हैं। अन्य राज्यों की तरह हिमाचल विधानसभा चुनाव में भी करोड़पति उम्मीदवारों की कमी नहीं है। हिमाचल विधानसभा का चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों की औसत संपत्ति चार करोड़ से ज्यादा है। यानी यहां भी सही मायने में आम जनता के बीच का कोई आदमी नहीं है, जो विधानसभा में जाकर उसके दुख-दर्द को कम करने के काम करेंगे। इस बार के हिमाचल विधानसभा चुनाव में उतर रहे कांग्रेस के 68 उम्मीदवारों की औसत संपत्ति 8 करोड़ से ज्यादा, जबकि भाजपा के 68 उम्मीदवारों की औसत संपत्ति 5 करोड़ से ज्यादा है। बसपा के 42 उम्मीदवारों की औसत संपत्ति 46 लाख से ज्यादा है, जबकि सीपीएम के 14 उम्मीदवारों की औसत संपत्ति 2 करोड़ से ज्यादा है। अन्य स्‍थानीय दलों की भी औसत संपत्ति एक करोड़ से कुछ ही कम है। आज तो आम मतदाता भी समझता है कि चुनाव आयोग को बताई जाने वाली संपत्ति और वास्तविक संपत्ति में जमीन आसमान का अंतर होता है। बहरहाल कयास लगाने के बजाय यदि इन उम्मदवारों के हलफनामे पर ही भरोसा किया जाए, तो एक बार फिर से हिमाचल प्रदेश की जनता को करोड़पति उम्मीवारों में से किसी को अपना वोट देना होगा।
हिमाचल विधानसभा का चुनाव लड़ने के लिए मैदान में उतरे 338 उम्मीदवारों में से 61 (18 प्रतिशत) ने अपने ऊपर आपराधिक मामले घोषित किए हैं। इनमें से 31 यानी 9 प्रतिशत उम्मीदवारों ने अपने ऊपर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज होने के बारे में जानकारी दी है।
चुनाव में उतरी बड़ी पार्टियों में से सभी पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। कांग्रेस के 68 में से 6 यानी 9 प्रतिशत, भाजपा के 68 में से 23 यानी 34 प्रतिशत, बसपा के 42 में से 3 यानी 7 प्रतिशत, सीपीएम के 14 में से 10 यानी 71 प्रतिशत जबकि 112 में से 16 यानी 14 प्रतिशत निर्दलीय उम्मीदवारों ने भी अपने ऊपर आपराधिक मामले घोषित किए हैं। जहां तक गंभीर आपराधिक मामलों की बात है कांग्रेस के 68 में से 3 यानी 4 प्रतिशत, भाजपा के 68 में से 9 यानी 13 प्रतिशत, बसपा के 42 में से 2 यानी 5 प्रतिशत, सीपीएम के 14 में से 9 यानी 64 प्रतिशत और 112 निर्दलीय उम्मीदवारों में से 6 यानी 5 प्रतिशत ने अपने ऊपर गंभीर आपराधिक मामले घोषित किए हैं। इनमें हत्या, हत्या के प्रयास और अपहरण जैसे मामले शामिल हैं।
यदि लोकतंत्र में करोड़पति व्यक्ति चुनाव लड़कर विधानसभा में बैठेगा तो वह आम आदमी की बात कैसे करेगा। क्या उसका महात्मा बुद्ध की तरह लोगों की गरीबी देखकर दिल बदल जाएगा। फिलहाल हमारे देश में संसद और विधानसभा चुनावों का इतिहास तो ऐसा नहीं बताता है। जहां तक हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव की बात है तो इस बार (2017) चुनाव लड़ने उतर रहे 338 में से 158 यानी 47 प्रतिशत करोड़पति उम्मीदवार हैं। बाकी जो बचे हैं, उनमें से भी ज्यादातर करोड़पति बनने के करीब हैं। कुछ हजार में संपत्ति के मालिक बहुत कम हैं। इस बार के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के 68 में से 59 (87 प्रतिशत), भाजपा के 68 में से 47 (69 प्रतिशत), बसपा के 42 में से 6 (14 प्रतिशत), सीपीएम के 14 में से 3 (21 प्रतिशत), सीपीआई के 3 में से 1 (33 प्रतिशत) और 112 में से 36 (32 प्रतिशत) उम्मीदवार करोड़पति हैं। इनकी घोषित संपत्ति 1 करोड़ से ज़्यादा है। वहीं, हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर से सभी पार्टियों ने महिलाओं को अपना उम्मीदवार बनाने से परहेज की किया है। यही वजह है कि इस बार के प्रदेश विधानसभा चुनाव में कुल 19 यानी महज 6 प्रतिशत महिला उम्मीदवार ही चुनाव लड़ रही हैं।

25 करोड़ से ज्यादा संपत्ति वाले शीर्ष 10 उम्मीदवार, सबसे शीर्ष पर (+90 करोड़) भाजपा के वीरभद्र सिंह

इस बार के हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में शिमला के रहने वाले भाजपा प्रत्याशी बरवीर सिंह वर्मा जो चोपाल विधानसभा सीट से मैदान में उतर रहे हैं, उन्होंने चुनाव आयोग में दाखिल हलफनामे में अपनी संपत्ति 90 करोड़ से ज्यादा बताई है। इसके बाद दूसरे नंबर पर शिमला के ही कांग्रेस प्रत्याशी विक्रमादित्य सिंह हैं, जिनकी संपत्ति +84 करोड़ है। वे शिमला ग्रामीण सीट से ताल ठोकेंगे। तीसरे नंबर पर कांगड़ा के रहने वाले आईएलडी प्रत्याशी डॉ. राजेश शर्मा हैं, जिनकी संपत्ति +74 करोड़ है। शिमला के ही रहने वाले आईएनडी प्रत्याशी देवराज भारद्वाज जो कसुमपति से चुनाव लड़ रहे हैं, उन्होंने अपनी संपत्ति +65 करोड़ बताई है। इसी तरह कांगड़ा निवासी जीएस बाली जो कांग्रेस की तरफ से नगरोटा सीट से चुनाव मैदान में हैं, उनकी संपत्ति +44 करोड़ है। हमीरपुर के रहने वाले आईएनडी के प्रत्याशी लेखराज जो नादौन सीट से चुनाव मैदान में हैं, उनकी संपत्ति +40 करोड़ है। सोलन के रहने वाले रामकुमार कांग्रेस के प्रत्याशी हैं, जिनकी संपत्ति +40 करोड़ है। भंडी के रहने वाले अनिल शर्मा बीजेपी की तरफ से मंडी विधानसभा सीट पर ताल ठोकेंगे, जिनकी संपत्ति +30 करोड़ है। सोलन के रहने वाले कांग्रेस के प्रत्याशी अर्की विधानसभा सीट से चुनाव लड़ेंगे, जिन्होंने चुनाव आयोग को अपनी कुल संपत्ति +30 करोड़ बताई है। शिमला के रहने वाले कांग्रेस के प्रत्याशी रोहित ठाकुर इस बार जुब्बलकोट खाई से चुनाव मैदान में हैं। इन्होंने चुनाव आयोग में दाखिल हलफनामें में अपनी कुल संपत्ति +27 करोड़ बताई है। 

शुक्रवार, 27 अक्तूबर 2017

क्षेत्रीय दलों की आय-व्यय का विश्लेषण (वित्त वर्ष 2015-16)

2015-16 में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव आयोग को दिए गए अपने आय-व्यय के व्योरे का एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने विश्लेषण किया है। सभी राजनीतिक दलों को 31 अक्तूबर तक अपने आय-व्यय के व्योरे का हिसाब चुनाव आयोग को देना था। सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा ने सबसे पहले 11 जून 2016 को अपने आय-व्यय का हिसाब -किताब चुनाव आयोग को सौंप दिया। वहीं, राजनीति में सुचिता का दम भरने वाली आम आदमी पार्टी ने सबसे बाद में 13 जुलाई 2017 को अपना हिसाब जमा करवाया। इस साल 47 क्षेत्रीय दलों में से केवल एक तिहाई दलों ने ही अपना आडिट रिकार्ड तय समय सीमा के अंतर्गत चुनाव आयोग में जमा करवाया है। 16 क्षेत्रीय दलों ने अपनी आडिट रिपोर्ट तय समय सीमा से 22 दिनों से लेकर 8 माह के विलंब से जमा किया। इसमें से 15 क्षेत्रीय दलों ने अभी तक अपनी आडिट रिपोर्ट नहीं जमा की है। इनमें से कुछ प्रमुख दल भी हैं-एसपी, जेकेएनसी, आरजेडी, आईएनएलडी, एआईएनआरसी, एआईयूडीएफ, एजेएसयू और एमजीपी।
2015-16 में 32 क्षेत्रीय दलों ने अपनी कुल आय रु 221.48 करोड़ घोषित की है। इस दौरान उन्होंने अपना कुल खर्च रु 111.48 करोड़ दर्शाया है। इस आय का 49.67 प्रतिशत यानी रु 110 करोड़ रुपये इन दलों द्वारा खर्च नहीं किया गया है। इसमें 14 क्षेत्रीय दलों ने अपना खर्च अपनी कुल आय से अधिक दर्शाया है। इनमें से 3 दलों (जेडीएम-पी, जेडीयू और आरएलडी ने अपना खर्च आय से 200 प्रतिशत अधिक बताया है। डीएमके, एआईडीएमके और एआईएमआईएम ने अपनी आय का 80 प्रतिशत खर्च नहीं किया है। सभी क्षेत्रीय दलों में से सबसे अधिक आय डीएमके ने रु 77.63 करोड़, इसके बाद एआईएडीएमके ने 54.938 करोड़ रुपये और टीडीपी ने 15.978 करोड़ घोषित किया है। शीर्ष तीन दलों की सम्मिलत आय 32 क्षेत्रीय दलों की कुल आय से 67 प्रतिशत अधिक है। 

शनिवार, 7 अक्तूबर 2017

बुजुर्ग होता, सिमटता ‘लोकतंत्र’

(सुनील कुमार)। दिल्ली का दिल कहे जाने वाले कनाट प्लेस के पास जंतर-मंतर स्थित है जिसका निर्माण जयपुर के राजा जय सिंह द्वितीय ने 1724 में वेधशाला के रूप में करवाया था। कहा जाता है कि इस वेधशाला के यंत्रों के माध्यम से ग्रहों की स्थिति, खगोलीय पिंडो की गति, वर्ष के सबसे छोटे और बड़े दिन को मापा जा सकता है। समय के साथ-साथ जंतर-मंतर के आस-पास ऊंचे-ऊंचे भवन बन गये जिसमें सरकारी और कारपोरेट दफ्तर है। इन ऊंचे-ऊंचे भवनों के कारण ये सभी यंत्र बेकार हो गये क्योंकि वह सही माप नहीं ले सकते हैं। इसका प्रयोग केवल टूरिज्म के लिए होने लगा। पहले इसके अन्दर जाने के लिए कोई फीस नही ली जाती थी लेकिन 21वीं सदी के आगमन के साथ ही फीस वसूली जाने लगी।
समय के साथ-साथ जन्तर-मन्तर का महत्व बदला और 90 के दशक में यह जगह धरना-प्रदर्शन के रूप में जाना जाने लगा। राजैनतिक-सामाजिक, एनजीओ कार्यकर्ताओं के लिए जंतर-मंतर का नाम आते ही लगता है कि कोई धरना-प्रदर्शन होगा। भारत के विभिन्न राज्यों, शहरों , गांवों से लोग अपनी समस्याओं को लेकर जंतर-मंतर पर इक्ट्ठा होते हैं और दुनिया के सबसे बड़े ‘लोकतांत्रिक’ देश में 100 मीटर की जगह में दर्जनों कार्यक्रम चलते रहते हैं। लोगों को आशा होती है कि यहां से भारत के ‘रहनुमा’ चंद दूरी पर बैठते हैं तो उनकी बात सुनी जायेगी और सरकार उनकी समस्याओं का हल निकालेगी। यहां लोग न्याय के आस में एक दिन, दो दिन, महीना, दो महीना, सालों तक अपना घर बार काम-काज छोड़ कर धरने-अनशन पर बैठे रहते हैं। मुझे मालूम नहीं कि उनको न्याय मिल पाता है या नहीं,  लेकिन कभी कभार जरूर हम उनको पुलिस के डंडों से पिटाई खाते, उन पर वाटर कैनन का इस्तेमाल होते देखते हैं।
ऐसा नहीं है कि जन्तर-मन्तर हमेशा से ऐसा ही था। पहले लोग अपनी शिकायतों को लेकर वोट क्लब पर इक्ट्ठा हुआ करते थे जो कि संसद के और पास था, यहां तक कि सांसदों, मंत्रियों के आते-जाते उन पर नजर भी पड़ती थी। जन्तर-मन्तर का यह धरना स्थल एक कोने में पड़ जाता है। इस रोड पर कोई आता जाता भी नहीं केवल धरने-प्रदर्शन वाले ही लोग होते हैं। इस रोड पर तो आम पब्लिक भी नहीं आती संसद और मंत्री तो दूर की बात है। दिसम्बर 1979 में किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत ने किसानों की मांगों को लेकर प्रदर्शन किया। अपनी समस्याओं से दुखी किसानों को सहारा मिला और दिल्ली के आस-पास के राज्य से लाखों किसान वोट क्लब पर कई दिन तक जुटे रहे। किसानों का यह जुटान सरकार को नागवार गुजरा, किसानों के पसीने की ‘बदबू’ इन बाबूओ (सांसद, मंत्री, नौकरशाह) को नागवार गुजरी और उन्होंने वोट क्लब के प्रर्दशनों पर पाबन्दी लगा दी।  इसके बाद प्रदर्शनो का शरण स्थली बना जन्तर-मन्तर।
जन्तर-मन्तर के आस-पास दफ्तर है जो कि शाम को 5 बजे के बाद बंद हो जाते हैं। जन्तर-मन्तर पर प्रदर्शन भी 5-6 बजे शाम तक बंद हो जाते हैं उसके बाद वहां कोई लाउडस्पीकर नहीं बजता है और न ही किसी तरह की नारेबाजी या भाषण होता है। यह इलाका रिहाईशी इलाकों मंे नहीं आता है लेकिन वरूण सेठ नामक व्यक्ति को किसान, मजदूर, कर्मचारी, महिला, दलित, आदिवासी की न्याययोचित मांग उनकी जिन्दगी में खलल डालने लगी। वरूण सेठ ने राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) में केस डाला (7 याचिका कार्यकर्ताओं में से 6 याचिका कार्यकर्ता दो परिवार से हैं जिसमें से सेठ परिवार से 3 लोग हैं)। जिसका फैसला 5 तारीख को आया। एनजीटी के ‘न्यायमूर्ति’ आर एस राठौर ने याचिका पर फैसला देते हुए जन्तर-मन्तर पर धरना-प्रदर्शन को प्रतिबंधित कर दिया, साथ ही कनाट प्लेस में लगे रेहड़ियों और अस्थायी ढांचे को भी हटाने को कहा है। कोर्ट ने कहा है कि सामाजिक संगठनों, राजनैतिक समूहों व एनजीओ द्वारा किये जाने वाले आंदोलन और जुलूस क्षेत्र में ध्वनि प्रदूषण का एक बड़ा स्रोत है। कोर्ट ने कहा है कि वायु प्रदूषण एवं नियंत्रण अधिनियम, 1981 समेत पर्यावरणी कानूनों का उल्लंघन है। आर एस राठौर ने कहा है कि आस-पास के क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को  शांतिपूर्ण व अरामदायक ढंग से रहने का अधिकार है। साथ ही कोर्ट ने दिल्ली सरकार, नई दिल्ली नगर निगम और दिल्ली पुलिस आयुक्त को निर्देश दिया है कि जंतर-मंतर पर धरना-प्रदर्शन, लोगों को इक्ट्ठा होने और लाउडस्पीकर का इस्तेमाल तुरंत रोके। एनजीटी ने अधिकारियों से कहा है कि धरना-प्रदर्शन कर रहे लोगों को तुरंत अजमेरी गेट के रामलीला मैदान में शिफ्ट कर दिया जाए।

एनजीटी के फैसले से उपजे कुछ सवाल

1. एनजीटी ने अपने फैसले में कहा है कि लोगों को अपने घरों में शांतिपूर्ण व आरामदायक ढंग से रहने का अधिकार है। जन्तर-मन्तर जहां पर रिहाईशी इलाका नहीं है तब भी वहां के लोगों की जिन्दगी में धरना-प्रदर्शन से परेशानी हो रही है तो क्या रामलीला मैदान के आस-पास सघन आबादी को इससे परेशानी नहीं होगी?
2. रामलीला मैदान के पास जाकीर हुसैन कॉलेज और चंद दूरी पर ही दो बड़े अस्पताल हैं, जहां पर देश भर से मरीज आते हैं। क्या रामलीला मैदान का शोर इन विद्यार्थियों और पहले से परेशान मरीजों को प्रभावित नहीं करेगी?
3. जन्तर-मन्तर पर रात के समय जब कोई लाउडस्पीकर नहीं बजता, किसी तरह की नारेबाजी या भाषणबाजी नहीं होती तो लोगों की जिन्दगी में खलल कैसे पड़ सकता है?
4. जन्तर-मन्तर पर ध्वनि रहित जनरेटर का ही उपयोग होता है और लाउडस्पीकर की आवाज भी बहुत तेज नहीं रहती है तो लोगों कि जिन्दगी में किसी तरह की खलल पड़ सकती है?
5. क्या लोगों को अपनी न्यायोचित मांग को उठाना छोड़ देना चाहिए?
6. रामलीला नगर निगम द्वारा पैसा देकर बुक कराना होता है तो क्या अब लोगों को अपनी मांग को उठाने के लिए पैसे देने होंगे?
7. प्रदर्शन के बहाने ही रेहड़ी, पटरी दुकानदरों को हटाने की बात क्यों कही गई है? रेहड़ी वालों से  कौन सा प्रदूषण फैलता है?
8. एनजीटी क्यों नहीं ऊंची ऊंची बिल्डिंगों पर प्रतिबंध लगा रही है, जिन्होंने जन्तर-मन्तर के अस्तित्व को ही खत्म कर दिया है।
9. क्या एनजीटी का यह फैसला गरीब, मेहनतकश जनता विरोधी नहीं है? क्या यह स्वच्छ दिल्ली के नाम पर गरीबों, मेहतनकशों की आवाज दबाने की साजिश नहीं है?

सिमटता ‘लोकतंत्र

कहा जाता है कि भारत का ‘लोकतंत्र’ 70 साल का हो गया है। हम 70 साल में ‘लोकतंत्र’ को अपने से दूर जाते हुए देख रहे हैं। यह भारत में कोई पहला मामला नहीं है कि लोगों को ‘लोकतंत्र के मंदिर’ कहे जाने वाले संसद और विधान सभाओं से दूर किया जा रहा है। इसी दिल्ली में न्यायोचित मांग करने वाले लोगों को पहले वोट क्लब से भगा कर संसद से थोड़ा और दूर किया गया, अब एनजीटी के बहाने और दूर किया जा रहा है। इससे पहले इसी साल तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में ‘धरना चौक’ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। जब सभी सामाजिक-राजैनीतिक संगठनों ने मिल कर इस मुद्दे को उठाया तो तेलंगाना के मंत्री कहते हैं कि पुलिस को इस तरह का कोई निर्देश नहीं दिया गया है। इससे पहले बिहार की राजधानी पटना में सचिवालय के पास हड़ताली चौक पर लोग धरना-प्रदर्शन कर अपनी समस्या सुनाते थे उस हड़ताली चौक को कुछ दूर गर्दनीबाग में शिफ्ट कर दिया गया। चंडीगढ़ में तीन सरकारें चलती हैं, हरियाणा, पंजाब और केन्द्रशासित प्रदेश की, लेकिन तीन सरकरों की जनता अपनी सरकार के पास जाकर अपनी बात नहीं कह सकती। चंडीगढ़ में पहले सचिवालय के पास प्रदर्शन होते थे उसके बाद उसको थोड़ी दूर मटका चौक पर शिफ्ट कर दिया गया और अब उसे और अधिक दूर सेक्टर 25 के पास शिफ्ट कर दिया गया है। लोकतंत्र जितना अधिक समय का होता है उतना परिपक्व होता है उतना ही उसे जनता के नजदीक होता है। क्या भारत का ‘लोकतंत्र’ परिपक्व होने की जगह बूढ़ा होता जा रहा है? जिसे कमजोर ताकत के कारण अपनी जनता से ही डर लगने लगा है जिससे वह जनता को और दूर और दूर करता जा रहा है? ‘लोकतंत्र’ के 70 साल में वोट क्लब से रामलीला मैदान पहुंचा दिये गये तो क्या 100 वर्ष मनाते मनाते इससे इतना दूर चले जायेंगे जिसका दूर से दर्शन करना भी मुश्किल हो जायेगा? हमें एनजीटी के फैसले का विरोध करना चाहिए और अपने अधिकारों को मांगते हुए वोट क्लब लेना चाहिए।

मंगलवार, 29 अगस्त 2017

गरीबों की झुग्गी पर चलता है बुलडोजर, हमें फर्क क्यों नहीं पड़ता

(सुनील कुमार)। दिल्ली का पूर्वी इलाका शहादरा एक समय में सबसे लम्बे फ्लाईओवर के लिए जाना जाता था। फ्लाईओवर के ऊपर सरपट दौड़ती हुई गाड़ियां दिल्ली से यूपी और यूपी से दिल्ली में -जाती हैं। दिल्ली के लोगों ने सबसे पहला मेट्रो का सफर शहादरा से कश्मीरी गेट और कश्मीरी गेट से शहादरा तक किया था। दिल्ली के इस पूर्वी इलाके की गिनती रईस इलाके में नहीं होती है। इस इलाके को दिल्ली की मेहनतकश आबादी के रिहाइशी इलाके के रूप में जाना जाता है। लेकिन अब यहां मध्य वर्ग का कुछ इलाका भी विकसित हो चुका है।
शहादरा फ्लाईओवर और शहादरा से वेलकम मेट्रो लाईन के नीचे एक बस्ती हैजिसे जे.जे. कलस्टरश्रीराम नगरलाल बाग कहा जाता है। लेकिन इस बस्ती को दिल्ली की बहुत कम जनता ही जानती है। इस बस्ती से चंद दूरी पर ही एक मध्य वर्गीय इलाका दिलशाद गार्डन हैजहां के लोगों को इस बस्ती के बारे में जानकारी नहीं है। लोगों को पता भी कैसे होक्योंकि वे तो गाड़ियों और मेट्रो से इस बस्ती के ऊपर से गुजर जाते हैं।
श्रीराम नगरलाल बाग की बस्ती दो भागों में बटी है। एक भाग मेट्रो लाईन के नीचे हैजहां ज्यादा तौर पर बिहार और यूपी के लोग रहते हैं। इस बस्ती का कुछ हिस्सा दिलशाद गार्डन मेट्रो के विस्तार के लिए तोड़ा गया तो उन लोगों को सवादा घेरा में पुर्नवास दिया गया। इसी बस्ती का दूसरा हिस्सा शहादरा फ्लाईओवर के नीचे हैजहां राजस्थान के चित्तौरगढ़ से आये लोग रहते हैं। वे अपने को महाराणा प्रताप के वंशज मानते हैं। ये लोग पूरे परिवार के साथ लोहे का काम करते हैं। इनके समुदाय के लोग दिल्ली की सड़कों के किनारे छोटी-छोटी झोपड़ियों में दिख जाते हैंजो लोहे को गरम कर हथौड़े की चोट से लोहे को अलग-अलग आकार देते हैं और हमारे लिए सस्ते में तावाहथौड़ा सरसी जैसी सामग्री उपलब्ध कराते हैं। इन्हीं की बस्ती के 65 घरों को 22 अगस्त, 2017को दिल्ली प्रशासन द्वारा बिना किसी पूर्व सूचना या नोटिस दिये बुलडोजर चला कर तोड़ दिया गया।
अब ये लोग अपनी टूटी-फूटी झोपड़ी के सामने चरपाई डाल कर बैठे हुए हैं। 22 अगस्त के बाद से इनके काम-काज भी बंद हैं। इन्हें अपने रहने की जगह के अलावा अपनी जीविका के लिए भी सोचना पड़ रहा है। इनके पास न रहने का जगह बची हैन काम करने की। ये खुले में अपने बच्चों के साथ खाना-पीनारहना-सोना कर रहे हैं। खुले में शौच करने पर हर्जाना लगाने वाली सरकार को खुले में महिलाओंबच्चोंबुजुर्गोंं को रहनासोनाखाना-पीना कोई समस्या नहीं दिख रही है। क्यों नहीं उन आधिकारियों पर कार्रवाई की जा रही हैजिन्होंने इनके पुनर्वास किये बिना इनकी बस्ती को तोड़ दिया?
इस समुदाय के लोगों का मानना है कि उन्हें अपने लिए स्थायी घर नहीं बनाना है। लेकिन उनकी जो नई पीढ़ी  है वह इस मान्यता को नहीं मान रही है। इस पीढ़ी के लोग पढ़ना चाहते हैंअपने लिए स्थायी ठिकाना चाहते हैं और   घुमंतू जीवन-यापन नहीं करना चाहते हैं। यही कारण है कि इस बस्ती का हरेक बच्चा (या बच्ची) अब स्कूल जाता है। अभी इस बस्ती से तीन छात्राएं और एक छात्र कॉलेज में पढाई कर रहे हैं। नेहा (19 वर्ष) ने बगल के सर्वोदय कन्या विद्यालय से इण्टरमीडिएट की परीक्षा 72 प्रतिशत अंकों के साथ पास की। वह दिल्ली विश्वविद्यालय के पत्राचार कोर्स से बीए द्वितीय वर्ष में पढ़ाई कर रही है। नेहा बताती है कि वह घर के कामों में हाथ बंटाती थीछोटे बच्चों को पढ़ाती थी और साथ में ही तीन घंटे स्वयं पढ़ती थी। लेकिन जिस दिन से उनकी बस्ती टूटी है वह पढ़ नहीं पा रही हैक्योंकि घर तोड़ दिये गये और लाईट का कनेक्शन काट दिया गया। क्या बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ’ का नारा लगाने वाली सरकार को नेहा जैसी लड़कियों के लिए चिंता नहीं हैनेहा आगे बताती है कि उसके साथ कॉलेजों में भी भेदभाव होता हैजिसके कारण उसके एक भी दोस्त कॉलेज में नहीं है। नेहा का सपना है कि वह अध्यापक बने और बच्चों को पढ़ाये। अभी तक उसका समुदाय शिक्षा के स्तर में काफी पीछे है।
राजकुमार (पुत्र नौरंगउम्र 42 साल) बताते हैं कि उनका जन्म मॉडल टाउन का है लेकिन वे बचपन से ही शहादरा में रहते हैं। इंदिरा गांधी हत्याकांड के समय उनकी उम्र करीब 9 वर्ष की थीउससे पहले से वे इस जगह पर रहते आ रहे हैं। वे जब यहां आये थे तो फ्लाईओवर नहीं था। वे लोग सड़क के किनारे रहते थे। फ्लाईओवर बनने के बाद वे फ्लाइओवर के नीचे रहने लगे। राजकुमार बताते हैं कि उनके पास वी पी सिंह के समय का सिल्वर वाला टोकन नहीं है। लेकिन जब वी पी सिहं प्रधानमंत्री के पद से हटने के बाद आये थे तो काले रंग के टोकन बांटे थेवह टोकन उनके पास है। उनके पास 1996 से मतदाता पहचान पत्र है जो यहीं के निवास पते से बना हुआ है। लेकिन अब उन्हें यहां से भी तोड़ कर भगाया जा रहा है। राजकुमार महाराणा प्रताप का जिक्र करते हुए कहते हैं कि हमने ‘‘पहले भी अपना राज हारा और अब भी हार रहे हैं।’’ वे कहते हैं कि हम तो हिन्दुस्तानी हैंकोई विदेशी तो नहीं हैं जो हमें भगाया जा रहा है। राजकुमार की पत्नी सुमन बताती हैं कि हमने अपनी जिन्दगी को बदलने के लिए अपने चूल्हे को बंद कर अपने बच्चों को पढ़ाया है। सुमन के चार बच्चे हैंजिसमें से एक बेटा और एक बेटी कॉलेज की पढ़ाई कर रहे हैं और दो बच्चे स्कूलों में हैं। सुमन बताती हैं कि हम जो भी बनाते थे उसे बाजारों में ले जाकर बेचा करते थे। लेकिन अब घर टूट जाने से हम कुछ भी बना नहीं पा रहे हैंजिसके कारण बाजार में भी नहीं जा पा रहे हैं। सुमन बताती हैं कि बाजारों में भी हमको बैठने नहींं दिया जाता है-कहा जाता है कि यह तुम्हारा ठेहा (बाजार में एक निश्चित बैठने की जगह) नहीं हैतुम यहां से जाओ। सुमन कहती हैं - ‘‘बच्चे हमसे कहते हैं कि हमें भी स्थायी रहने की जगह चाहिएलेकिन हमारे पास कहां पैसा है कि हम घर बना पायेंहम इनको पढ़ा दे रहे हैं वही बहुत है।’’ सुमन की मांग है - ‘‘सरकार हमें यहां रहने दे या हमको स्थायी जगह दे।’’
कालीचरण (66 साल)  बताते हैं कि हम यहां पर अपनी जवानी के दिनों में करीब 40 साल पहले आये थेउस समय फ्लाईओवर नहीं बना था। हमारे बच्चों का जन्म यहीं का हैलेकिन सरकार हमें यहां से भगा रही है। हमारे बच्चों की शादी हो चुकी हैउनके भी बच्चे हो गये हैं। उनका सवाल है कि हम कहां जायेंहमारे पास तो चित्तौरगढ़ में भी कुछ नहीं है। कालीचरण के बेटे कर्मवीर ने बताया कि यहां पर वे दो भाई और मां-पिता रहते हैं। उनकी दो झुग्गियों को तोड़ दिया गयाजिसके कारण उनको60 हजार रू. का नुकसान हुआ है। कर्मवीर ने अपने आटे के टूटे हुए कनस्तर को दिखाते हुए बताया कि इसमें रखा बीस किलो आटा भी खराब हो गया। उनके बेड और बर्तन भी टूटे हुए पड़े थे। कालीचरण जन प्रतिनिधियों से बहुत निराश हैं। उनका कहना है कि कोई भी सांसदविधायकनिगम पार्षद ने उनकी सहायता नहीं की। यहां तक कि वे लोग दिल्ली के मुख्यमंत्री से मिले। मुख्यमंत्री ने कहा कि तुम लोगों के साथ गलत हुआ हैतुम लोग जाआ,े दो घंटें में टेन्ट और पानी के टैंकर पहुंच जायेंगे। लेकिन तीन दिन बाद भी उनके पास किसी तरह की सुविधा नहीं पहुंच पाई है।
इसी तरह अपने घर के आगे सफाई कर रहे राहुल ने बताया कि उनके घर को बिना किसी सूचना के तोड़ दिया गयाजिसके कारण समानों का बहुत नुकसान हुआ है। वे अपनी पुरानी बैलगाड़ी को दिखाते हुए कहते हैं कि यह मेरे बाबा-दादा की निशानी थी जिसको वर्षों से मैंने सम्भाल कर रखा थाउसको भी तोड़ दिया गया।
दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड द्वारा यहां चलायमान दो टॉयलेट की गाड़ियां रखी गई हैंजिसमें दोनों बस्ती के लोग जाते हैं और एक रू. प्रति व्यक्ति इसका प्रयोग करने के लिए देना पड़ता है। इस टॉयलेट के रख-रखाव करने वाले मिथलेस बताते हैं कि लोगों की संख्या के हिसाब से पर्याप्त टायलेट नहीं हैजिसके कारण यहां सुबह के समय काफी भीड़ लगती है और टॉयलेट भी गंदे होते हैं। मिथलेस ने बताया कि पहले लोग बाहर रेलवे पटरियों पर पखाना के लिए चले जाते थेजिसके कारण भीड़ कम होती थी। लेकिन अब बाहर पखाना करने पर जुर्माना लगाते हैंजिससे  लोग बाहर नहीं जा पा रहे हैं और सुबह के समय यहां स्थिति काफी खराब हो जाती है। मिथलेस का कहना था कि पहले पर्याप्त संख्या में लोगों के लिए टायलेट उपलब्ध होफिर कोई बाहर जाता है तो आप जुर्माना लगाईये। लेकिन सरकार उनकी इस बात को नहीं सुनती है।
लोगों ने बताया कि उनकी बस्ती पार्किंग बनाने के लिए उजाड़ी जा रही है। कुछ लोग बता रहे थे कि बस्ती तोड़ने में एमसीडी और पीडब्ल्यूडी दोनों के कर्मचारी थे और साथ में एसडीएम और दौ सौ की संख्या में पुलिस बल भी थी।
बस्ती के लोग एक एनजीओ की मद्द से कोर्ट में केस डालाने की तैयारी में लगे हैं। सवाल है कि जनप्रतिनिधि उनकी समस्याओं का समाधान क्यों नहीं कर रहे हैंसरकार द्वारा क्या बेटी बचाओबेटी पढ़ाओ’, ‘जहां झुग्गी वहां मकान’ जैसे नारे केवल लोगों को बरगलाने के लिए उछाले गए हैं। सरकार की सीटू पुनर्वास योजना का क्या यह मतलब है कि लोगों को उनकी बस्तियों को तोड़ कर भागाया जाय? क्या बिना पूर्व सूचना के झुग्गी बस्ती तोड़ना अपराध नहीं। लोगों की जीविका के साधन पर हमले करनाउनके बिजली और पानी के कनेक्शन को काट देना किस इंसानियत का परिचायक है।

शनिवार, 12 अगस्त 2017

63 मासूमों की मौत का जिम्मेदार है यूपी का नीरो

                   (देवेंद्र प्रताप)।
गोरखपुर बीआरडी मेडिकल कालेज में एक हफ्ते में 63 बच्चों की मौत हो गयी है। जिस दिन मोदी और योगी देश-प्रदेश की जनता को गांधी जी के भारत छोडो आंदोलन के बारे में बताकर उसका लाभ लेने के लिए उनको बेवकूफ बनाने में मशगूल थे, उसी 9 अगस्त की आधी रात से 10 अगस्त की आधी रात तक 30बच्चों ने आक्सीजन नहीं मिलने से एक एक सांस के लिए घुट-घुट कर दम तोडा। बच्चे तडप तडप कर दम तोडते रहे पर योगी सरकार मदरसों में वंदेमातरम की वीडियोग्राफी करवाकर मुस्लिमों की देशभक्ति जुटाने में एडी चोटी का जोर लगाए हुए थी।  कुछ समय पहले इसी अस्पताल में योगी ने अपने प्रमुख सचिव समेत अपनी पसंद के उच्च अधिकारियों के साथ करीब पांच घंटे तक बैठक की थी। उस समय अस्पताल में आक्सीजन की कमी की बात सामने आ गयी थी। फिर भी योगी को पता नहीं चला। आखिर गेरुआ वस्त्र कितने पाखंड ढंकेगा। पाठकों के सामने उन तथ्यों को रखना जरुरी है जिससे यह पता चल जाएगा कि यह योगी नहीं बल्कि एक ढोंगी है। यह रांग नंबर है।
‌1 अगस्त को अस्पताल में आक्सीजन की सप्लाई करने वाली कंपनी के प्रमुख ने अस्पताल प्रशासन के साथ ही डीएम को भी यह बता दिया था कि उसका बीआरडी मेडिकल कालेज पर 63 लाख का बकाया है। इसलिए वह अब आक्सीजन की आपूर्ति जारी नहीं रख सकता है। इसके बाद भी उसे भुगतान नहीं किया गया। नतीजतन  उसकी तरफ से सप्लाई बंद र दिए जाने से आक्सीजन की कमी से मरने का सिलसिला शुरू हो गया। ऐसे में यह संभव ही नहीं है कि रोज ही एक अस्पताल में 5-6 बच्चे आक्सीजन की कमी से मरते रहे और सरकार को पता ही न चले। वह भी तब जबकि योगी ने सौ प्रतिशत अपनी पसंद के अधिकारियों को विभागों की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दी हैं। कुल मिलाकर यह 63 बच्चों की हत्या है।
 अंध भक्तों की शायद आज भी आंख नहीं खुले। लेकिन उन्हें भी यह समझना चाहिए कि इन बच्चों में यदि उनका भी कोई रिश्तेदार होता तो क्या वे इसी तरह अपने आका के पक्ष में खडे रह पाते?  क्या वे सबसे पहले एक इंसान नहीं हैं, पार्टी और विचारधारा तो बाद की बात है। गोदी में आक्सीजन की कमी से मरते बच्चों को देखकर क्या उनकी भी जीते जी मौत नहीं हो जाती। जरा कल्पना कीजिए अपने मर चुके बच्चे का शव लेकर अस्पताल में इधर उधर भागती मां के कलेजे पर उस समय क्या बीती होगी जब उसके मृत बच्चे के साथ उसे अस्पताल से भगा दिया जाए।
 सरकार इस मामले में कितना झूठ बोल रही है इसे समझना मुश्कल नहीं। जब सरकार से बच्चों की मौत के बारे में पूछा गया तो ट्वटर पर अपने पहले जवाब में योगी सरकार ने साफ मना कर दिया कि बच्चों की मौत आक्सीजन की कमी से हुई है। ट्विटर पर अपने दूसरे ट्वीट में सरकार ने मीडिया पर इस मुद्दे पर दुष्प्रचार करने का आरोप लगा दिया। आखिर यह कौन सी ईमानदारी की बात हुई। जब सरकार किसी कीमत पर अपनी गलती नहीं मानने पर अडी रही तो कुछ मीडिया कर्मियों ने पूरे अस्पताल में आक्सीजन को नियंत्रित करने वाने इंचार्ज कर्मी का वह पत्र सार्वजनिक कर दिया जो उसने करीब दो हफ्ते पहले लिखा था।  इस पत्र में उसने बताया था कि आक्सीजन की आपूर्ति जल्दी ही खत्म हो जाएगी इसलिए तुरंत इंतजाम किया जाए। फिर भी जब हफ्ता भर में कुछ नहीं किया गया तो कर्मचारी ने रिमाइंडर पर रमाइंडर लिखा। इसमें उसने यह भी जोड दिया कि अब रिजर्व आक्सीजन से ही काम चलेगा। जब इस पर भी सरकार के अधिकारी नहीं चेते तो वह सब शुरू हो गया जिसके चलते शनिवार की दोपहर तक 63 बच्चों की मौत हो गयी। इनमें 14 नवजातों की मौत भी शामिल है जिन्हें ढोंगी योगी की सरकार ने दुनिया में आने ही नहीं दिया। अब तो गैस सप्लायर का पत्र भी सार्वजनिक कर दिया गया है। इस पत्र में आक्सीजन गैस के सप्लायर ने काफी पहले साफ कर दिया था कि 60 लाख बकाया का भुगतान नहीं होने की स्थिति में उसके लिए सप्लाई जारी रख पाना मुश्किल होगा। फिर भी योगी सरकार नहीं जगी।
सरकार से यह भी पूछा जाना चाहिए कि यदि निको वार्ड में एडमिट 14 नवजातों  और अन्य बच्चों की मौत आक्सीजन की कमी से नहीं हुई तो योगी सरकार क्यों आक्सीजन की सप्लाई करने वाले व्यक्ति को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस से दबिश डलवा रही है। अब आक्सीजन गैस का सप्लायर पुलिस से बचने के लिए मारा मारा फिर रहा है। अपने अपराध को योगी सरकार दूसरों के गले बांध रही है।
फिर भी योगी सरकार यदि इस मामले में अपना अपराध नहीं स्वीकारती है तो वह बताए कि आखिर क्यों आनन फानन में बच्चों के शवों का बिना पोस्टमार्टम करवाए उनके परिजनों के हवाले कर उन्हें अस्पताल से जाने को कह दिया गया। अब वक्त आ गया है कि जनता समझे कि उन्होंने जिसे वोट देकर जिताया वह रांग नंबर है।

सोमवार, 7 अगस्त 2017

पूंजीपति वर्ग का पुराना चाकर क्यों बार-बार खा रहा शिकस्त

                     (देवेंद्र प्रताप)
आज हमारे देश में पूंजीवाद  है। सत्ता पूंजीपति वर्ग के हाथ में है। वर्तमान संसदीय ढांचे में हर पार्टी मूलतः इसी वर्ग की नुमाइंदगी करती है, इसलिए जनता की नुमाइंदगी की बात सिर्फ धोखा है। चूंकि पूंजीपति वर्ग आम जनता के शोषण के दम पर ही अपनी अट्टालिकाएं खडी करता है, इसलिए उसकी पूरी कोशिश होती है कि आम जनता बंटी रहे। इसके लिए सत्ता पर काबिज शासक वर्ग जाति धर्म का इस्तेमाल जनता को बांटने के लिए करता है। जाति धर्म के नाम पर दंगे करवाए जाते हैं। वैसे तो सत्ता में रहने वाली हर पार्टी पूंजीपति वर्ग की चाकरी करती है, लेकिन जो पार्टी जनता को बांटने का काम जितना बेहतर करेगी, उतनी ही वह पूंजीपति वर्ग की वफादार होगी। जाति- धर्म के नाम पर दंगे, झगडे, अंधविश्वास पैदा कर फूट डालने का सीधा फायदा पूंजीपति वर्ग को होता है। आज जब समाज में गैरबराबरी पहले से काफी ज्यादा बढ गई है तो पूंजीपति वर्ग ने भी अपने पुराने चाकर को बदल दिया है। भगवा रंग वाला चाकर लंबे समय से जूठन पर जिंदा था, लेकिन जूठन खाते खाते उसने पूंजीपति वर्ग के तलवे चाटने के सारे गुण सीख लिए हैं। सच कहा जाए तो उसने इस मामले में पुराने वफादार को भी काफी पीछे छोड दिया है। अब उसने बाकायदा पुराना चाकर मुक्त देश का नारा दिया है। इसमें वह सफल भी हो रहा है। नई चाकर पार्टी के मुखिया ने एक बात बहुत सही कही। वह यह कि पुराने चाकर को अपनी गलतियों से सबक लेना चाहिए। लेकिन पुराना चाकर लंबे समय से चाकरी करते करते घमंडी हो गया है इसलिए नए चाकर से बार बार शिकस्त खाने के बाद भी वह नहीं सबक ले रहा है। ऐसे में यदि नए चाकर की भविष्यवाणी सच हो गई तो इससे कोई आश्चर्य नहीं होगा। वैसे भी नए भगवा चाकर के पास हिंदू मुसलमान, मंदिर मसजिद, वेद पुराण, मनु-चाणक्य जैसे अनगिनत हथियार हैं जिनके सामने पुराने चाकर की तरह उसके अस्त्र शस्त्र भी पुराने पड गए हैं।

रविवार, 6 अगस्त 2017

उल्काओं की बारिश को भी बना दिया सनसनीखेज

                     (देवेंद्र प्रताप)
12 अगस्त को होने वाली खगोलीय घटना को इलेक्ट्रानिक मीडिया के एंकर और प्रिंट मीडिया के ज्ञानी अंधविश्वास और विज्ञान की मिली जुली चासनी में लपेटकर दर्शकों के दिमाग में ठूंसने में जुटे हुए हैं। कुछ बानगी देखिए- क्या नास छुपा रहा 2017 के सबसे बड़े विनाश का सच, 12 अगस्त को नहीं होगी रात, एंड ऑफ द वर्ल्ड जैसी डरावनी प्रस्तुतियों से उन्होंने लोगों के मन में जबरदस्त डर पैदा किया है।
 टेलीविजन पर यह सिलसिला जब शुरू हुआ तो काफी समय तक तक नाशा या किसी खगोलविद् का कोई वर्जन तक नहीं दिखाया गया। बाद में जब नाशा और खगोलविदों के बयानों को दिखाया भी गया तो उसे भी अपनी डरावनी प्रस्तुतियों के बीच में ऐसे पेश किया गया जिसमें वैज्ञानिकों के दावे भी संशय पैदा करने लगे। प्रसिद्ध खगोलविद गौहर रजा ने इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया व सोशल साइटों पर लगातार प्रसारित की जा रही ऐसी अंधविश्वासपूर्ण खबरों को बकवास करार दिया है। उनका कहना है कि उल्काओं का टूटना एक खगोलीय घटना है, इसे किसी भी तरह अंधविश्वास से जोड़ना ठीक नहीं है।
नाशा के वैज्ञानिकों ने लोगों से अपील की है कि वे इस तरह की झूठी अफवाहों पर ध्यान नहीं दें, लेकिन दिल है कि मानता नहीं। वैसे भी आजकल अंधविश्वास का बाजार खूब गर्म है। इसलिए भला इसे भुनाने में मीडिया क्यों पीछे रहेगा। सोशल मीडिया तो इस मामले में सबका चाचा है। इस समय यू ट्यूब पर 12 अगस्त की घटना से संबंधित दर्जनों वीडियो यू ट्यूब पर जारी कर दिए गए हैं, जो लोगों में इसके पीछे की वैज्ञानिक सच्चाई कम, डर ज्यादा पैदा कर रहे हैं। वैसे हमारे देश में टूटते तारे को देखना न सिर्फ शुभ माना जाता रहा है, बल्कि ऐसा लोगों में अंधविश्वास है कि तारे के टूटकर गिरते समय जो कुछ मांगा जाता है, वह जरूर पूरा होता है। फिर डर किस बात का भाई। इस बार तो उल्काओं की बारिश होगी। यानि लाभ ही लाभ। फिर डरने की क्या बात है? बहरहाल, नाशा ने सिर्फ इतना ही कहा है कि 12 अगस्त की रात में जब उल्कापात होगा तो कुछ उजाला होगा। हालांकि इससे पहले भी इतिहास में उल्कापात से इससे ज्यादा उजाले को देखा जा चुका है। इसलिए 12 अगस्त की रात को दिन जैसे उजाले और 24 घंटे के दिन की बात बकवास से ज्यादा कुछ नहीं है। उल्कापात तो हर साल होते हैं। एक बार नहीं तीन बार। जनवरी, अगस्त और दिसंबर में। इस बार का उल्कापात इस मायने में अलग है कि इसमें उल्काओं की संख्या ज्यादा होगी, जिससे जब वे धरती के वातावरण से टकराएंगी तो कुछ उजाला लगेगा। हालांकि चांद भी निकला होगा, इसलिए क्या पता उजाले का पता भी न चल पाए। 
जहां तक खगोल विज्ञान में दिलचस्पी लेने वालों की बात है तो उनके लिए 12 अगस्त की रात अद्भुत होगी। उल्काओं की बारिश का नजारा जबरदस्त होगा। इसलिए इसे देखने के लिए पहले से तैयारी कर लें, क्योंकि ऐसी घटना अब 92 साल बाद होगी। तब तक हम लोग मिट्टी में मिल गए होंगे। अपने कैमरे तैयार रखिए 12 अगस्त की रात को यादगार रात बनाने के लिए। 
आसमान में वैसे तो रोज ही आपने उल्का टूटकर गिरते देखे होंगे, लेकिन ये इतनी दूर होते हैं कि एक क्षण में गायब हो जाते हैं। इस बार जब 100-200 उल्काएं धरती के वातावरण से टकराएंगी तो बहुत ही सुंदर नजारा होगा। इससे डरने जैसी कोई बात नहीं है। ये उल्काएं जैसे ही धरती के वातावरण से टकराएंगीं, जलकर राख हो जाएंगी। 

शुक्रवार, 4 अगस्त 2017

यूरोप-अमेरिका दलदल में

संघर्षरत मेहनतकश के मई-अगस्त 2011 के अंक में साथी जितेंद्र का साम्राज्यवाद पर एक लेख प्रकाशित किया गया था। छह साल पहले लिखे इस लेख की प्रासंगिकता आज पहले से भी ज्यादा है। इसलिए 100 flowers इसे साभार अपने पाठकों के लिए प्रकाशित कर रहा है।

  • (जितेंद्र)
भारत के पुराणों में एक कहानी है। एक था राजा ययाति। जीवन में भरपूर सुख और ऐश भोगने के बाद जब उसका बुढ़ापा आया तो उसने वृद्ध होना नहीं चाहा। उसे लगातार सुख भोगते जाने की लालसा थी। लेकिन बुढ़ापा उसकी लालसा में बाधक बन रहा था। उसने अपनी तीनों लड़कों को बुलाया और पूछा कि कौन अपने यौवन के बदले उसका बुढ़ापा ले सकता है। दो लड़कों ने तो इंकार कर दिया लेकिन तीसरा लड़का जो संवेदनशील था, अपना यौवन ययाति को देकर खुद बूढ़ा होकर जंगल चला गया। ययाति एक बार फिर युवा बनकर हजारों साल तक जीवन का सुख लेता रहा। धन की ऐसी महिमा है कि उसकी हवस कभी खत्‍म नहीं होती है।
आज की विश्‍व पूंजीवादी व्‍यवस्‍था धनी व्‍यक्तियों का ही तंत्र है जिसका यौवन खत्‍म हुए सौ साल से ज्‍़यादा का समय बीत चुका है। अब तक तो उसे इस धरती से विदा हो जाना चाहिए था। लेकिन वो दुनिया के मेहनतकश वर्ग के यौवन की कीमत पर न सिर्फ अभी तक कायम है बल्कि बहुत मजबूती के साथ कायम है। युद्ध, आतंकवाद और भुखमरी जैसी समस्‍याएं आज अगर पूरी मानवता को अभी भी रौंद रही है तो सिर्फ इसलिए कि यह धरती एक अस्‍वस्‍थ और अप्राकृतिक व्‍यवस्‍था की गिरफ्त में है। यूरोप, अमेरिका और दुनिया के अन्‍य देशों का ताजातरीन आर्थिक संकट इसी का एक लक्षण है।

यूरोप:
यूरोप की अर्थव्‍यवस्‍थाएं पिछले छह-सात साल से लगातार आर्थिक संकट को झेल रही है। ग्रीस, पुर्तगाल, स्‍पेन, इटली और फ्रांस की जनता ने भारी तादाद में सड़कों पर उतरकर आर्थिक नीतियों का विरोध किया। यूरोप के ये देश 2008-09 की आर्थिक मंदी से अभी उबर भी नहीं पाए थे कि वे एक बार फिर मंदी के दलदल में फंस गए। मौजूदा संकट भी इतना व्‍यापक और गहरा कि यूरो मुद्रा के अस्तित्‍व पर ही सवाल खड़ा हो गया और यूरोपीय संघ की सारी चमक फीकी पड़ गई। ग्रीस लगभग दिवालिया हो चुका था, स्‍पेन और इटली भी दिवालिया होने की कगार पर है हालांकि यूरोप के केंद्रीय बैंक ने धन उपलब्‍ध कराकर समस्‍या को फिलहाल टाल तो दिया लेकिन इसके एवज में इन देशों की जनता से इसकी भारी कीमत वसूली गई थी। अब इन देशों की सरकारों को खर्च में कटौती के नाम पर उन नीतियों को लागू करना पड़ेगा जो आम जनता के जीवन को और ज्‍यादा दूभर बनाती हैं। इन नीतियों के विरोध में स्‍पेन और ग्रीस में लाखों की तादाद में जनता सड़कों पर उतर आई। ग्रीस की जनता ने अपनी संसद के सामने हजारों की संख्‍या में इकट्ठा होकर चोर-चोर के नारे भी लगाए। जनता की राय बहुत स्‍पष्‍ट है कि जिस संकट के लिए पूंजीपति और राजनेता जिम्‍मेदार हैं उसकी कीमत आम जनता से क्‍यों वसूली जाए। इस बीच ग्रीस को दिवालिया होने से बचाने के लिए कर्ज दिया जाए या नहीं यह तय करने के लिए जर्मन अधिकारी ग्रीस आए और जांच-पड़ताल की। उन्‍होंने वहां के कर्मचारियों से भी सवालात किए। ग्रीस की जनता को यह बेहद अपमानजनक और नागवार गुजरा। अतीत में ग्रीस सभ्‍यता और संस्‍कृति का केंद्र रहा है। उसने साम्राज्‍य के उत्‍थान और पतन को भी देखा है। उन्‍हें ये बर्दाश्‍त करना कठिन होता है कि यूरोप के बड़े देश और थैलीशाह पहले तो उन्‍हें भिखमंगा साबित करें, फिर उन पर कर्ज और शर्तें थोपें।
बहरहाल, इस संकट ने एकबार फिर यह साबित कर दिया कि यूरोपीय संघ का बनना और यूरो मुद्रा की जरूरत यूरोप के पूंजीपति वर्ग और खासतौर जर्मनी और फ्रांस जैसे धनी देशों की आवश्‍यकता को पूरा करने के लिए थी। जबकि यूरोप की आम जनता खासतौर छोटे और कम धनी देशों को इसकी कीमत चुकानी थी।

अमेरिका:
अमेरिका भी ऐतिहासिक आर्थिक संकट के दलदल में फंस चुका है। दरअसल वह 2008-09 की भीषण आर्थिक मंदी के दौर से कभी उबर नहीं पाया। मंदी से उबरने की झूठी घोषणाएं होती रहीं जबकि उसकी आर्थिक विकास दर एक से डेढ़ प्रतिशत से अधिक कभी नहीं हो पाया। लेकिन कर्ज के संकट को हल करने के लिए 1 अगस्‍त के दिन सरकार और विपक्ष ने मिलकर जो समझौता किया उससे अमेरिकी समाज का संकट अधिक तीखा हो जाएगा इसमें और कोई संदेह नहीं रह गया है। इस समझौते की वजह से अमेरिकी सरकार को अगले दस साल के दौरान अपने खर्चों में 2.4 खरब डॉलर की कटौती करनी पड़ेगी। जाहिरा तौर पर ये कटौतियां आम जनता के लिए होने वाले सामाजिक सुरक्षा और मेडिकल खर्चों में ही की जाएगी। हालांकि कर्ज के संकट का समाधान अमीरों पर टैक्‍स लगाकर भी किया जा सकता था क्‍योंकि अमेरिका की कुल आमदनी का 83 प्रतिशत हिस्‍सा मात्र 20 प्रतिशत लोगों की जेब में जाता है। लेकिन सरकार और विपक्ष ने उस विकल्‍प को नहीं चुना। ऐसी आर्थिक नीतियों का मतलब बहुत साफ है कि मेहनतकश जनता की गाढ़ी कमाई को 1) टैक्‍स छूट के रास्‍ते अमीरजादों तक पहुंचाना तथा 2)  तीसरी दुनिया के देशों पर कब्‍जा जमाने और दुनिया में चौधराहट कायम रखने के लिए सैन्‍य खर्च की भरपाई करना। पिछले तीस सालों के दौरान अमेरिका में इस नीति को बार-बार अपनाया गया है लेकिन वर्ष 2000 से तो लगातार यही नीति लागू हो रही है। अभी चार साल पहले अमेरिकी जनता ने देखा कि किस तरह वहां की सरकार ने उन्‍हीं वित्तीय संस्‍थानों और बैंकों को सैकड़ों-अरबों डॉलर की मदद की जिनकी बेइंतहा मुनाफाखोरी ने आर्थिक मंदी को जन्‍म दिया था। जबकि पूरी दुनिया में उन पर नकेल कसने की आवाज उठी थी। जनता ने यह भी देखा बल्कि आज भी देख रही है कि किस तरह अमेरिका पूरी दुनिया पर अपना सैन्‍य प्रभुत्‍व कायम रखने के लिए इराक, अफगानिस्‍तान, पाकिस्‍तान, मिस्र और लीबिया में खरबों डॉलर लुटा रहा है। यह सारा का सारा धन अमेरिका के ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के मेहनतकशों के श्रम और उनकी प्राकृतिक संपदाओं की लूट से हासिल किया गया है। इन नीतियों ने अमेरिकी समाज में अमीर-गरीब की खाई को बहुत अधिक बढ़ा दिया है। अमेरिका में आज काम करने वाली कुल आबादी का 42 प्रतिशत हिस्‍सा बेरोजगार हो चुका है। ये आंकड़ा और भी बढ़ने वाला है। स्थितियां इतनी निराशाजनक हैं कि अमेरिका के भविष्‍य को लेकर कोई भी अच्‍छी उम्‍मीद नहीं बांध पा रहा है। वैश्‍वीकरण के झंडाबरदारों के मुंह से आज सिर्फ विलाप के शब्‍द ही फूट रहे हैं। न्‍यूयार्क टाइम्‍स का थॉमस फ्रीडमैन विलाप करते हुए कहता है ''हमने शीतयुद्ध की समाप्ति को एक ऐसी विजय मान लिया था जो हमारे लिए नई समृद्धि का रास्‍ता खोल देगी। लेकिन हम गलत थे। उसने वास्‍तव में हमारे सामने अब तक की सबसे भीषण चुनौतियां पेश कर दी हैं।'' इसी तरह लंदन का मशहूर अखबार टेलीग्राफ कहता है ''इस बार हम जल्‍दी ही दोबारा मंदी के खतरों से घिर गए हैं। लेकिन इस बार हमारा सहारा बनने वाला कोई नहीं है। चीन अपने सफल घरेलू उत्‍पाद का 200 प्रतिशत कर्ज के रूप में पहले ही झोंक चुका है।''

संकट के कारण:
यूं तो आर्थिक संकट का पूंजीवाद से नाता उसके जन्‍मकाल से ही है। पूंजीवादी अर्थव्‍यवस्‍था की मूल प्रेरक शक्ति मुनाफा होता है। इसलिए मुनाफे के लिए तीव्र होड़ करना, कुछ लोगों के हाथों पूंजी या संपति का इकट्ठा होते जाना व शेष आबादी का संपतिहीन होते जाना और इस कारण बीच-बीच में आर्थिक मंदी पैदा होते रहना पूंजीवादी अर्थव्‍यवस्‍था के लिए बड़ी आम सी बात है। लेकिन मौजूदा संकट कोई आम संकट नहीं है। पूंजीवाद का संकट और मुनाफे के लिए होड़ अब एक नई मंजिल तक पहुंच गई है। आज कुछ लोगों के हाथों में पूंजी या संपति इतनी इकट्ठा हो गई है कि उसकी कल्‍पना भी आम आदमी नहीं कर सकता है। इस पूंजी में वित्तीय और सट्टेबाजी की पूंजी की मात्रा सबसे ज्‍यादा है इसलिए मुनाफे के लिए होड़ भी उतनी ही तीखी हो चुकी है। इस होड़ में जो सबसे आगे और सबसे ताकतवर व प्रभावशाली होगा वही सबसे ज्‍यादा मुनाफे का भागीदार होगा। इसी कारण पूंजी को पैदा करने वाले मजदूर और मेहनतकश तबके का शोषण और उसकी तबाही भी उतनी ही तेज हो गई है। इसलिए आज का शासनतंत्र पूरी तरह एक परजीवी तंत्र में तब्‍दील हो चुका है। गरीब देशों की तीव्र लूट के बिना अमेरिकी-यूरोपीय तंत्र आज कायम नहीं रह सकता। ठीक इसी तरह मजदूरों और मेहनतकशों की तीव्र लूट के बिना आज पूंजीपति भी अपनी हैसियत नहीं बनाए रख सकता। भारत में भी इस परिघटना को देखा जा सकता है। उदारीकरण के जिस दौर में यहां पूंजीपतियों की संपतियों में तीन गुना की बढ़ोतरी हुई, उसी दौर में मजदूरों और मेहनतकशों का शोषण भी उसी मात्रा में बढ़ा। यह परजीवी तंत्र ही दुनिया के तमाम संकटों का मूल कारण है और इसका खात्‍मा इसका एकमात्र समाधान है।

सोमवार, 31 जुलाई 2017

सरकार का झुग्गी तोड़ो अभियान : किसके हित में, किसके खिलाफ

 (सुनील कुमार)।
पश्चिमी जिले के बलजीत नगर इलाके के पहाड़ियों पर बसी झुग्गी बस्ती जुलाई, 2017 को सुर्खियों में आई। इस इलाके के एक तरफ आनन्द पर्वत है जहां तमाम छोटी-छोटी फैक्ट्रियां हैंदूसरी तरफ पटेल नगर स्थित है। यह इलाका जनसंख्या घनत्व के हिसाब से काफी सघन है। अगर इस इलाके में नया कुछ भी निर्माण करना है तो बिना पुरानी बसावट तोड़े नहीं हो सकता। यह इलाका सेंट्रलदिल्ली के करीब है जहां से नई दिल्ली रेलवे स्टेशनकनाट प्लेस कुछ कि.मी. दूरी पर है। इसलिए इस जमीन पर अब बड़े-बड़े पूंजीपतियों की गिद्ध नजर भी है। इससे कुछ ही दूरी पर कठपुतली कॉलोनी है जहां पर दिल्ली की पहली गगनचुम्बी ईमारतरहेजा फोनिक्स’ बनाने की योजना हैजिसको लेकर कठपुतली कॉलोनी निवासियों और सरकार के बीच कई वर्षों से तना-तनी का महौल है। कहीं बलजीत नगर की झुग्गियां तोड़ना किसी ऐसी परियोजना का ही हिस्सा तो नहीं है?
कठपुतली कॉलोनी में सरकार ने पहले घोषणा कर दी कि लोगों को फ्लैट बनाकर दिये जायेंगेफिर उन्हें हटाना शुरू किया। इसके बाद कॉलोनी निवासियों ने प्रतिवाद शुरू कर दिया। उन्होंने कम्पनी से यह गारंटी मांगी कि यहां पर बसे सभी लोगों को फ्लैट देना सुनिश्चित किया जाये। और यह गांरटी कोर्ट में लिखित हो। इस मांग को डेवलपर्सने मानने से इनकार कर दिया जिसके कारण लोगअस्थायी बने कैम्पों में नहीं गये। क्या कठपुतुली कॉलोनी से यह सीख लेकर बलजीत नगर की कॉलोनी तोड़ी गई है कि पहले तोड़ दोफिर घोषित करो कि यह जमीन फलां पूंजीपति को दे दी गई है फलां काम के लिये ताकि लोग प्रश्न खड़ा नहीं करें।
बलजीत नगर में मजदूर वर्गनिम्न मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग के लोग रहते हैं जिनमें से बहुसंख्यक जनता प्राइवेट सेक्टर में छोटे-मोटे काम करती है तो कुछ के पास छोटी दुकानें हैं। बलजीत नगर का एक क्षेत्र पहाड़ी है जिस पर वर्षों पहले (करीब 50-60 साल) से लोग रह रहे हैं। इस भाग में कई सालों की कड़ी मेहनत के बाद वे अपने लिए घर बना लिये हैं। इस पहाड़ी के पास आनन्द पर्वतनेहरू बिहार से लगा हुआ भाग गड्ढ़े में थाजहां पर पानी इक्ट्ठा होता था और दिल्ली के दूसरे इलाके के मलवे इत्यादि लाकर वहां फेंके जाते थे। इसी भाग में दिल्ली में बाद में आये लोग अपने लिए रिहाईश बना कर 10-15 साल पहले से रहने लगे और धीरे-धीरे जमीन को ऊंचा करते रहे। जो भी मेहनत-मजदूरी करते और परिवार चलाने से पैसे बचाते उसको इकट्ठा करके अपने रहने की जगह ठीक करते। उसी पैसे में से या ब्याज पर लेकर घर ठीक करने के लिए पुलिस और डीडीए वाले को पैसे देते थे।  
सुनीता प्रजापतिपत्नी रामबचन प्रजापति उत्तर प्रदेश की आजमगढ़ की रहने वाली है। वह करीब7-8 सालों से इस बस्ती में रह रही थी। सोनू (12 साल) और काजल (साल) नामक उनके दो बच्चे हैं। सोनू पटेल नगर में सातवीं कक्षा का छात्र है और काजल प्रेम नगर में चौथी की छात्रा है। सुनीता के पति रामबचन दिहाड़ी मजदूरी करते हैं औरसुनीता घरेलू सहायिका (डोमेस्टिक वर्कर) का काम करती है। पति को कभी काम मिलती हैकभी नहीं मिलती हैकभी मिलती भी है तो बिमारी के कारण नहीं जा पाते हैं। रामबचन का ईलाज बीपीएल कार्ड पर गंगाराम अस्पताल में चल रहा है।रामबचन को ज्यादातर दवाई बाहर से ही खरीदनी पड़ती है। सुनीता बताती हैं कि जुलाई, 2017 को उनकी बस्ती तोड़ दी गई जिससे उनको कोई सामान निकालने का मौका नहीं मिला। पति के ईलाज का पेपर भी गिराये गये घर में दब गया। सुनीता रोते हुए बताती है कि अभी कुछ समय पहले ही वह साठ हजार रू. पुलिस और चालीसहजार रू. डीडीए को देकर घर बनाई थी। वह अपनी हाथ के छाले को दिखाती हुए बताती हैं कि बदरपुर खरीदना नहीं पड़े इसके लिए पत्थर लाकर पानी में भिगोती थी और हथौड़े से तोड़ती थी। सुनीता ने सत्तर हजार रू. प्रतिशत ब्याज परलेकर घर बनाई थी। उनका कहना है कि वह हमसे पैसे भी ले गये और हमारे घर को भी तोड़ दिये।
इसी तरह की बात बर्फी देवीपत्नी कल्याण शाह जयपुर की रहने वाली है और 13-14 साल से इस बस्ती में रहती हैं। बर्फी भी घरेलू सहायिका का काम करती है और पति मजदूरी करते हैं। बर्फी बताती हैं कि पुलिस तीस हजार रू. तथा डीडीए बीस हजार रू. घर बनाते समय लेकर गई थी। इसी तरह की बातें पुनमपत्नी गुरूरचरण निवासी गौंडा और गीतापत्नी संतोष निवासी आजमगढ़ बताती हैं कि उनके घर बनने पर पुलिस और डीडीए ने उनसे पैसे लेकर गये। गीता अपने तीन बच्चे सुमीत (11 साल)खुशी (साल)हर्षित (साल) और पति के साथ यहां रहती हैं। उनके बच्चों का जन्म यहीं का है। गीता कहती हैं कि उनके बच्चे पांचवीचौथी और दूसरी कक्षा में प्रेम नगर सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं। उनको चार तारीख को किताबें स्कूल से मिली थीं लेकिन पांच तारीख को झुग्गी टूटी तो किताबें उसी में दब गईं। बच्चे स्कूल गये हैं दुबाराकिताबें लाने के लिए (बातचीत के दौरान ही उनका बच्चा स्कूल से कुछ किताबें लेकर आता है और बताता है कि और दूसरी विषय का किताब नहीं मिलाखत्म हो गया है)। वह कहती हैं कि राशन मिल रहा है- लेकिन हमारा राशन कार्ड दब गया हैइसलिए हम लोग राशन लाने नहीं जा रहे हैं।
सूरजा देवीपत्नी श्री तेज सिंह अलीगढ़ की रहने वाली हैं। वह बताती हैं कि सोलह साल से यहां रह रही हैं। इस जगह पर किकड़ के पेड़ हुआ करते थे और पानी जमा रहता था। यह जगह चार माले के बराबर गड्ढे में थीइसको हम लोग धीरे-धीरे मलवे भड़कर ऊंचा किये हैं। पास में एक पहाड़ी को दिखाते हुए कहती हैं कि यह ऐसा लगता था कि कितना ऊंचा है। हम लोग यहां मिट्टी तेल से दिये जलाते थे और पानी दूर-दूर से लाते थे। अब पानी का टैंकर आता है लेकिन पानी पूरा नहीं मिलता तो हम लोग अभी भी दूसरी जगह जाकर पानी लाते हैं। यहां पर लोगों के घर बनने पर पुलिस औरडीडीए ने पैसा लिया है जबकि इस जमीन को हमने रहने योग्य बनाया है। आज बोल रहे हैं कि यह जमीन हमारा है।
इसी तरह की शिकायत दूसरे परिवार वाले कर रहे थे कि झुग्गी तोड़ने से पहले उनको किसी भी तरह की चेतावनी नहीं दी गई कि वे अपने समान को बचा पायें। वे लोग शाम पांच बजे तक जितनी झुग्गी तोड़ सकते थे तोड़े। अब उस इलाके को कंटीले तार से सरकार द्वारा घेरा जा रहा है। लोगों का कहना था कि पुलिस और डीडीए वालों ने उनसे पैसे ले लिये हैंअब बिना किसी पूर्व सूचना की उनकी झुग्गी तोड़ रहे हैं। वोट मांगने आते हैं तोकहते हैं कि हम झुग्गी पक्का करा देंगेआपको सभी व्यवस्था करा देंगेवोट हमको दो। जीतने के बाद कहते हैं कि वह हमारा इलाका ही नहीं हैइसी तरह का आरोप वह निगम पार्षद आदेश गुप्ता व विधायक हजारी लाल पर लगाये।
कुछ लोगों का कहना है कि यहां पर कुछ अपराधिक तत्वों ने रोड के किनारे कब्जा करके घर बना रहे थे और डीडीएपुलिस को पैसे नहीं दिये इसलिए टूटा। कुछ का मत था कि अपराधिक तत्वों की आपसी रंजिश में राजनीतिक पार्टी के लोगों केहित का भी टकराव थाजिसके कारण 25 जून को उसे तोड़ दिया गया और बाद में जुलाई को इस बस्ती को भी तोड़ दिया गया। 
प्रमोद बताते हैं कि 25 जून को जब सामने की कुछ झुग्गियां तोड़ी गईं तो हम लोग दो टाटा 407, दौ चैम्पीयन और दो बोलेरो गाड़ी से इस इलाके के सांसद मीनक्षी लेखी के घर गये थे। घर पर मीनाक्षी लेखी नहीं मिलीहमलोगों को अपने दफ्तर बुलाई। जब हमलोग वहां पहुंचे तो हम से अधिक संख्या में वहां पुलिस मौजूद थी और सांसद महोदया ने कहा कि ‘‘तुम लोगों की हिम्मत कैसे हुई हमारे घर पर जाने कीयहां क्यों नहीं आये?’’ पुलिस वालों से बोली कि सभी को बंद कर दो एक भी नहीं बचे।  सांसद महोदया के इस रूख से लोग डर गये और माफी मांगे। मीनक्षी लेखी ने कहा कि वह सरकारी जमीन है तुम लोग अवैध कब्जे किये हो और वह जगह तुम को छोड़नी होगी। 
लोग झुग्गी टूटने के बाद दिल्ली सरकार के पास भी गये थे जहां से उनसे कहा गया की हम इसमें कुछ नहीं कर सकते हमारे पास कोई पावर नहीं हैआप हमें प्रूफ दोहम कोर्ट में केस कर सकते हैं।’ कुछ दिन पहले ही दिल्ली सरकार ने कहा था कि हमने कानून पास कर दिया है कि अब कोई झुग्गी नहीं तोड़ी जायेगी। 11 जुलाई को झुग्गी वाले दो-दो सौ रू. प्रति झुग्गी इक्ट्ठा कर डीडीए दफ्तर (आईटीओ) गये थे। लेकिन वहां भी उनकी बात नहीं सुनी गई और उनसे 2005 का दस्तावेज मांगा गयालेकिन उन लोगों के पास 2008-09 के दस्तावेज मौजूद हैं।
झुग्गी-बस्ती को लेकर सभी पार्टियां कहती हैं कि जहां झुग्गी वहां मकान देंगे। लेकिन सरकार बनते ही वह अपने वायदों से मुकर जाती है और उसकी जगह इन बस्तियों को तोड़ना शुरू कर देती हैं।1989 में सरकार ने बस्तियों की बेहतरी के लियेसीटू अपग्रेडेशन’ को अच्छा माना और कहा किआमतौर पर बस्तियों को पुर्नवासित करने की बजाय सीटू अपग्रेडेशन पर ध्यान देना चाहिए। इसमें स्पष्ट कहा गया है कि जिस विभाग की जमीन है अगर उसको फिलहाल में उस जमीन की आवश्यकता नहीं है तो उसी जगह पर बस्ती वालों को बसाना चाहिए। सरकार के इतने स्पष्ट निर्देश के बाद भी बस्तियों को क्यों तोड़ा जा रहा हैबलजीत नगर में डीडीए कौन सी परियोजना ला रही है या किसको यह जमीन दी गई हैउसका खुलासा डीडीए को करना चाहिए। भारत के प्रधानमंत्रीबोलते हैं कि 2021 तक सभी लोगों को मकान दे दिया जायेगातो क्या सरकार की यह योजना है कि2021 से पहले-पहले सभी बस्ती को तोड़ कर लोगों को बेदखल कर दिया जायेप्रधानमंत्री जीक्या बिना पूर्व सूचना व बिना पुनर्वासबस्तियों को तोड़ना उचित है?

रविवार, 23 जुलाई 2017

निजी सुरक्षा कर्मियों के जीवन से खिलवाड़

             संजय उपाघ्याय, देवेन्द्र प्रताप
कोठी की सुरक्षा  में तैनात एक सुरक्षाकर्मी
सेवा क्षेत्र किसी देश अथवा समाज के आर्थिक और सामाजिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। 1991 के बाद से विश्व अर्थव्यवस्था में रोजगार सृजन की दृष्टि से इस क्षेत्र ने महत्वपूर्ण स्थान हासिल किया है। हाल के कुछ वर्षों में इसकी विकास दर कृषि और विनिर्माण क्षेत्रों के मुकाबले काफी ऊंची रही है। इस समय सेवा क्षेत्र कारपोरेट जगत के लिए बेहद आकर्षक निवेश का विकल्प बन चुका है। इसने आधारभूत संरचना सुविधाओं के सृजन को सुलभ  बनाया है और विभि न्न उद्योगों की उत्पादकता में वृद्धि की है। सेवा क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण घटक निजी सुरक्षा क्षेत्र है। सामान्य अनुमानों के अनुसार विश्व के  विभि न्न देशों में सुरक्षा एवं गुप्तचर सेवा एजेंसियों की संख्या लगभग एक लाख है।  विभि न्न स्रोतों के अनुसार इन सुरक्षा एजेंसियों के माध्यम से लगभग 2 करोड़ निजी सुरक्षा कार्मिक दुनिया भर में नियोजित हैं। उपलब्ध स्रोतों के अनुसार विश्व के केवल आठ देशों (भारतजर्मनीचीनकनाडारूसयूनाइटेड किंगडमआस्ट्रेलिया तथा नाइजीरियामें ही 60 हजार से अधिक निजी सुरक्षा सेवा एजेंसियां हैंजिन्होंने लगभग 1.2 करोड़ निजी सुरक्षा कर्मियों को रोजगार प्रदान किया हुआ है। ये कार्मिक सुरक्षा गार्डसशस्त्र सुरक्षा गार्ड तथा सुरक्षा पर्यवेक्षक आदि के रूप में कार्यरत हैं।
      तथ्य यह है कि वैश्विक स्तर पर निजी सुरक्षागार्ड की संख्या दुनिया में मौजूद पुलिस बल से काफी ज्यादा है और ये अपराधों की रोकथाम में भी  महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैंलेकिन इसके बावजूद इस क्षेत्र में कहां-कहां कितनी सुरक्षा फर्में काम कर रही हैंउन्होंने कितने कर्मियों को काम पर रखा हुआ हैआदि से संबंधित प्रामाणिक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। इसी प्रकार इस क्षेत्र के श्रमरोजगार और सामाजिक सुरक्षा से जुड़े मुद्दे क्या हैंजिनका सामना निजी सुरक्षा एजेंसियों द्वारा रखे गए सुरक्षा कर्मियों को अक्सर करना पड़ता हैकी तरफ कम से कम भारत के अध्येताओं और नीति निमार्ताओं ने पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है। इसी कमी को पूरा करने के उद्देश्य से दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की  विभि न्न स्तरों की 40 सुरक्षा एजेंसियों को आधार बना कर वीवीगिरि राष्ट्रीय श्रम संस्थान द्वारा हाल ही में एक अध्ययन किया गया।
जहां तक निजी सुरक्षा एजेंसियों की किस्मोंश्रेणियों और उनके द्वारा काम पर रखे गए सुरक्षा कर्मियों की दशाओं और कार्य स्थितियों आदि का संबंध हैदेश का राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र इस संबंध में देश के लगाग सभी मुख्य महानगरों की विशेषताओं को अपने में समेटे हुए है। दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में  विभि न्न श्रेणियों की लगभग 500 सुरक्षा फर्मों ने 1.5 लाख के आसपास सुरक्षा कर्मियों को रोजगार प्रदान किया हुआ है। इन निजी सुरक्षा फर्मों में स्थानीयराष्ट्रीयतथा अंतर्राष्ट्रीय सभी  स्तरों पर काम करने वाली सुरक्षा एजेंसियां शामिल हैं।
     इन फर्मों द्वारा नियोजित सुरक्षाकर्मी सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानोंकाल सेंटर्सनिजी कंपनियों के निगमित कार्यालयोंराज्य सरकारोंस्थानीय स्वशासन के नियंत्रणाधीन कार्यालयोंअस्पतालोंआवासीय सोसाइटियों/अपार्टमेंटोंनिजी घरोंकोठियोंबैंकोंबीमा कंपनियों के कार्यालयोंमीडिया कार्यालयोंनिर्माण स्थलोंधार्मिक स्थानोंपेट्रोल पंपों आदि पर अपनी सेवाएं प्रदान करते हैं। शोधकर्ताओं ने इन सभी स्थानों पर कार्यरत निजी सुरक्षा कर्मियों से बातचीत की। अध्ययन में मुख्य तौर पर सुरक्षाकर्मियों के काम के घंटोंपारिश्रमिक,  विभि न्न प्रकार के भत्तोंछुट्टियोंरोजगार सुरक्षाउन पर लागू मुख्य श्रम कानूनों के उपबंधों के कार्यान्वयन तथा  विभि न्न श्रम कानूनों के तहत अधिकारों की दृष्टि से सुरक्षा कर्मियों के बीच जागरूकता के स्तर पर आदि पर ध्यान केंद्रित किया गया। एक मोटे अनुमान के अनुसार भारत में इस समय तकरीबन 15 हजार से अधिक सुरक्षा एजेंसी फर्मों में करीब 55 लाख से 60 लाख के बीच सुरक्षाकर्मी कार्यरत हैं।  विभिन्न अनुमानों के अनुसार भारत में निजी सुरक्षा सेवा उद्योग प्रतिवर्ष 25-35 प्रतिशत की  वार्षिक दर से बढ़ रहा है।
       इस उद्योग का कारोबार लगाग 25 हजार से 30 हजार करोड़ रुपये के आसपास है। आकलनों से यह पता चलता है कि निजी कूरियर सेवा के साथ मिल कर निजी सेवा सुरक्षा उद्योग देश में सबसे बड़ा करदाता है। इन निजी सुरक्षा सेवा एजेंसियों द्वारा काम पर लगाए गए सुरक्षा कार्मिक (सुरक्षा गार्डसशस्त्र सुरक्षा गार्ड तथा सुरक्षा पर्यवेक्षक आदिइन सुरक्षा सेवा एजेंसियों की कार्य प्रणाली में सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन अध्ययन में पाया गया कि इन सुरक्षा कर्मियों को अपने सेवा काल के दौरान जीवन जोखिमोंसामाजिक सुरक्षा के अभाव और निम्न कार्यदशाओं आदि की दृष्टि से अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। भारत के अतिरिक्त कुछ अन्य देशों मेंजहां पिछले कुछ दशकों से यह उद्योग लगातार फल फूल रहा है उनमेंजर्मनीचीनकनाडारूसयूनाइटेड किंगडमआस्ट्रेलिया तथा नाइजीरिया आदि देश शामिल हैं। अधिकांश देशों में निजी सुरक्षा कार्मिकपुलिस बल से संख्या में अधिक हैं और कानून और व्यवस्था लगभग  ऐसी भूमिका और कर्तव्य निभाने की आशा की जाती हैजो पुलिस की भूमिका और कर्तव्यों के समान हैं। भारत समेत अन्य देशों में निजी सुरक्षाकर्मी अपने जीवन में कमोवेश उसी प्रकार की चुनौतियों और खतरों का सामना करते हैंजिनका सामना पुलिस को करना पड़ता है।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में कार्यरत अधिकांश निजी सुरक्षा कार्मिक प्रवासी युवा (19 से 40 वर्ष आयु समूह के बीचशिक्षित, (हाई स्कूल तथा इससे उच्च स्तर की शैक्षिक योग्यता रखने वालेतथा विवाहित हंै। अध्ययन में पाया गया कि आमतौर पर एक सुरक्षाकर्मी के ऊपर 4-5 लोग निर्भर होते हैं। इसके बावजूद अधिकांश सुरक्षा कर्मियो का वेतन और कुल पारिवारिक आय बहुत ही मामूली है। शोधकर्ताओं ने पाया कि उनकी वेतन की आय को मिला कर 5000-6000 रुपये प्रतिमास ही बैठती है। जाहिर है मंहगाई के इस जमाने में उनकी बचत  के बराबर होती है। बहुत कोशिश करने के बाद ही वे प्रतिमाह 500 रुपये से लेकर 1500 रुपया बचा पाते हैं। ज्यादातर सुरक्षाकर्मी हमेशा ही कर्ज के बोझ तले दबे रहते हैं। और यह भी तब है जबकि वे 12 घंटे की सामान्य ड्यूटी करते हैं और महीने में 8-10 ओवरटाइम करते हैं। 
      इन कार्यस्थितियों के बावजूद यह पाया गया कि अधिकांश सुरक्षा कर्मियों को निजी कंपनियां कोई नियुक्ति पत्र तक नहीं जारी करतीं। यह भी  पता चला कि  उनके पास निजी सुरक्षा एजेंसियों के किसी जिम्मेदार अधिकारी के हस्ताक्षर युक्त पहचान पत्र तक नहीं होता। कंपनी उनके लिए आमतौर पर कार्यस्थल पर शौचालय और पीने के पानी जैसी मूलभूत सुविधाएं तक मुहैया नहीं करवाती। ज्यादातर सुरक्षा कर्मी इन सुरक्षा कंपनियों में इस उम्मीद से नौकरी की शुरुआत करते हैं कि उनकी जिन्दगी में सुधार आएगालेकिन होता यह है कि वे एक एजेंसी से दूसरी एजेंसी को अपनी बेहतरी की उम्मीद के साथ बदलते रहते हैंलेकिन उनकी आशाएं कभी-कभी फलीभूत नहीं हो पातीं। उनमें से अधिकांश सुरक्षा कर्मियों को  तो न्यूनतम मजदूरी मिलती है और  किए गए ओवर टाइम के लिए ओवर टाइम दर से वेतन। इतना ही नहींउन्हें इतनी लम्बी ड्यूटी अवधि के दौरान खाने का •ाी समय नहीं मिलता। कई-कई सालों तक उनका वेतन पहले के समान बना रहता है और उनको पदोन्नति (तरक्कीका मौका नहीं मिलता। अधिकांश निजी सुरक्षा कार्मियों को साल में पूरे 365 दिनों तक काम करना पड़ता है और इस दौरान उन्हें आकस्मिक अवकाश जैसी कोई छुट्टी तक नहीं मिलती। इनमें से बहुतों को होलीदीवालीईद या क्रिसमस आदि महत्वपूर्ण त्योहारों और राष्ट्रीय अवकाश के दिन भी छुट्टी नहीं मिलती। इतना ही नहीं अधिकांश सुरक्षा कर्मियों को संबंधित एजेंसी द्वारा भर्ती के समय और बाद में भी उनको दी जाने वाली वर्दी के लिए अपने वेतन से भुगतान करना पड़ता है।
       बहुत से सुरक्षा कर्मियों को भविष्य निधि(पी.एफ.) और कर्मचारी राज्य बीमा (.एस.आईके लिए अपने हिस्से के अभिदाय का भुगतान करने के साथ-साथ इस मद में नियोजकों के हिस्से का भुगतान भी करना पड़ता है। इस तरह अधिकांश निजी सुरक्षा एजेंसियां  विभि न्न गैर कानूनी तरीकों का इस्तेमाल करके इन सुरक्षाकर्मियों की बदौलत भारी मुनाफा कमाती हैं। शोधकर्ताओं ने इस मामले में सरकार को सुझाव दिया है कि वे सुरक्षाकर्मियों को नियुक्ति पत्र दिलवानेन्यूनतम मजदूरी अधिनियम और मजदूरी भुगतान अधिनियम से संबंधित कानूनों के प्रावधानों को लागू करवानेओवर टाइम कार्य और ओवर टाइम की दरों के मामले को सख्ती से लागू किए जाने जैसे कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए हैं।  अगर सरकार इन सुझावों पर गौर करती हैतो पूरी संभावना है कि इन सुरक्षाकर्मियों को भी संविधान प्रदत्त वे बुनियादी अधिकार हासिल हो सकेंगेजो कि किसी भी मेहनतकश को मिलना ही चाहिए।
(संजय उपाध्याय  वीवीगिरि राष्ट्रीय श्रम संस्थान में फैलो हैंजबकि देवेन्द्र प्रताप अमर उजाला जम्मू  में वरिष्ठ उपसंपादक हैंवी वी गिरी से इस शोध को संजय उपाध्याय के निर्देशन और देवेन्द्र प्रताप के सहयोग से  २००९ में किया गया. संपर्क: देवेंद्र प्रताप 8717079765,  devhills@gmail.com)