सोमवार, 28 मार्च 2011

आजादी

हम कितने आजाद है

अनिल चमड़िया

आजादी का कोई एक अर्थ नहीं होता।जितने हिस्सों में पूरी दुनिया में समाज बंटा है , उसमें सबके लिए फौरी तौर पर आजादी के मतलब अलग अलग होते हैं। अपने समाज में भी आजादी का अर्थ केवल अंग्रेजों के देश से भगाने से जुड़ा रहा है।यदि आजादी की एक परिभाषा पूछी जाए तो इसके जवाब में केवल यही कहा जा सकता है कि मानव समाज का हर सदस्य अपने तमाम तरह के बंधनों से मुक्ति चाहता है। बंधन राजनीतिक , आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक होते है , ये केवल बंधनों को समझने का एक आसान तरीका है। हम जिन अर्थों में आज इस विषय पर चर्चा कर रहे है वह 1947 तक अंग्रेज शासको के खिलाफ चले आंदोलन से जुड़ा हैं। 1947 से पहले का सैकड़ों वर्ष हमारी गुलामी में कटा है, ऐसा माना जाता है। यह गुलामी इन अर्थों में कि इस भूगोल में जो लोग राजकाज चलाते थे वे बाहर से आए थे और हमलों के जरिये यहां के शासन व्यवस्था पर काबिज हो गए। हम सभी उनके मताहत होकर रहने लगे। हमने ये नारा दिया कि यदि शासन व्यवस्था की कमान यहां के मूल बासिंदों हाथों में आ जाएगी तो हमारे समाज में जो गैर बराबरी है, जो अन्याय हैं वो सब खत्म हो जाएंगे। हमने 1947 में ये हासिल कर लिया ये दावा किया जाता है। लेकिन 1947 में जो स्थिति हमारे समाज की थी क्या उससे आजादी हमें मिल सकी है ? मोटेतौर पर देखें तो समाज का एक बड़ा हिस्सा अपने को आजादी की स्थिति में कतई महसूस नहीं करता है।वह बाहरी लोगों की गुलामी को ही बेहतर मानता है। इसीलिए अब भी लोग यह कहते हुए मिल सकते हैं कि अंग्रेज ही अच्छे थे।

1947 में देश के लोगों के बीच जो मिलजूलकर रहने का एक समझौता हुआ था वह समझौता कामयाब नहीं दिख रहा है। देश के एक बड़े हिस्से में इस शासन व्यवस्था को भी लोग पराये लोगों की शासन व्यवस्था के रूप में देखते हैं। उत्तर पूर्व का बड़ा हिस्सा मानता है कि उसके साथ जो अब तक व्यवहार किया गया है , वह पराये लोगों द्वारा किए जाने वाले व्यवहार से भी बदत्तर हैं। कश्मीर के लोग कहते है कि वे अपनी आजादी चाहते हैं। गरीब अमीर के मताहत है। छोटी जातियां बड़ी जातियों के मातहत है। औरतें पुरूषों की गुलामी में रहती है ऐसा उनका मानना है। मजदूर बड़े किसानों और सामंतों के मताहत गुलाम है। हमारे मूल्क में आजादी का प्रश्न समाजवादी व्यवस्था से जुड़ा है। संविधान में यह व्यवस्था की गई है कि जाति, धर्म, लिंग, भाषा किसी भी आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं होगा। केवल बराबरी का नारा ही आजादी के नारे का जवाब हो सकता है। लेकिन हकीकत है कि बराबरी का ये संकल्प हमने केवल संविधान की किताब के लिए किया है। देश में चंद अमीर है तो ढेरों गरीब है। 20 रूपये रोजाना पर सत्तहतर प्रतिशत से ज्यादा आबादी रहती है। आजादी की लड़ाई के वक्त गांधी ने बताया था कि एक अंग्रेज और एक आम हिन्दुस्तानी की कमाई में पांच हजार गुना का अंतर है। जबकि यह अंतर करोड़ों में पहुंच गया है।देश का धार्मिक अल्पसंख्यक अपने को बहुसंख्यकों के उन्माद के आगे असुरक्षित महसूस करता है। पंजाब की एक बड़ी आबादी अपने देश को छोड़कर जा चुकी है। मशहूर चित्रकार हुसैन ने तो भारत की नागरिकता तक छोड़ दी।ऐसे ढेरों उदाहरण है जिसके आधार पर हम कह सकते हैं कि 1947 में जिस तरह की आजादी के आने का दावा किया गया उस आजादी के कुछ बड़े हिस्सेदार है तो कुछ छोटे और बहुत सारे ऐसे है जिन्हें कोई हिस्सा नहीं मिला।संविधान आबादी की हर ईकाई को अपना नागरिक मानता है लेकिन जमीनी सच है कि आबादी का बड़ा हिस्सा नागरिक का दर्जा भी प्राप्त नहीं कर सका है।दरअसल आजादी का अर्थ यहां बुनियादी जरूरतों के पूरा करने से जुड़ा रहा है।यूरोप और अमीर देशों में आजादी के अर्थ बुनियादी जरूरतों की पूर्ति से आगे निकल गए हैं।अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की भी सबके लिए अलग अलग हदें हैं।

आंदोलनों की एक बड़ी भूमिका यह होती है कि आंदोलनों के बाद शासन व्यवस्था पर चाहें जिसका कब्जा हो जाए लेकिन आजादी का नारा हर उस व्यक्ति को एक बड़े हथियार के रूप में मिल जाता है जोकि खुद को गुलामी में महसूस करता है। अंग्रेजों के जाने के बाद आजादी के कई अर्थ सामने लाए गए। मसलन कहा गया कि राजनीतिक आजादी तो मिल गई लेकिन आर्थिक आजादी नहीं मिली। मसलन कहा गया कि दूसरी आजादी की जरूरत है। जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में जब जनता सरकार बन गई और विफल हो गई तो कहा जाने लगा कि तीसरी आजादी की जरूरत है। मसलन कहा गया कि 1947 की आजादी झुठी है। आजादी की पहली लड़ाई 1857 की है और उस लड़ाई को पूरी करके आजादी हासिल करनी है। कहने का मतलब है कि आजादी की भाषा में समाज के विभिन्न वर्ग व तबके अपनी अपनी आजादी की तलाश कर रहे हैं।

1947 के बाद कई अर्थों में आजादी की लड़ाई व्यापक हुई हैं। अपना देश बनाने की आजादी से लेकर घरों तक में वह पहुंची है।दरअसल आजादी के नारे का अब दो तरह से इस्तेमाल हो रहा है। समाज का बड़ा हिस्सा आजादी को सही अर्थों में अपने अपने तरीके से तलाश रहा है। लेकिन दूसरा हिस्सा जोकि बहुत छोटा है वह आजादी के हथियार को हमले के लिए इस्तेमाल कर रहा है।1947 के बाद के देश में जो वर्ग संपन्न हुआ है वह दुनिया में खुद के सबसे ज्यादा ताकतवरों की जमात में शामिल होना चाहता है। इसीलिए वह यह बात जोरशोर से कहता है कि वह राष्ट्र को सबसे ज्यादा ताकतवर बनाना चाहता है।इसके लिए वह देश के सबसे निर्धन और पिछड़े लोगों के घरों और पैरों के नीचे की जमीन को अपने कब्जे में करना चाहता है। आदिवासियों के जल जंगल जमीन को वह अपनी ताकत बढ़ाने के लिए हथियाना चाहता है। उनकी निर्ममता से पिटाई की जा रही है। जाहिर सी बात है कि जिस आजाद राष्ट्र को ताकतवर बनाने की बात यह वर्ग कर रहा है वह आदिवासियों को राष्ट्र का नागरिक नहीं मानता। राष्ट्र का मतलब संपन्न वर्ग की सत्ता के रूप में उभरकर सामने आता है। आजादी का मतलब इसी वर्ग की आजादी के रूप में उभरकर सामने आता है। हम आजाद है , यह मुख्यधारा के वर्ग का दावा है।

भाषा

एक भाषा से दूसरे भाषा में अनुवाद की राजनीति

चमड़िया

हमने कई तर्कों से हिन्दी का विकास मान लिया है।हिन्दी के विकास के लिए मुंबईयां फिल्मों की उपलब्धि बतायी जाती है।फिल्मों को उसके पूरे सांस्कृतिक प्रभाव से अलगकर भाषा के विकास की उपलब्धि के तौर पर प्रस्तुत करने वाला यह वर्ग कौन है?हिन्दी का आधुनिककरण उसका हिंग्लिश होना माना जाने लगा हैं। यह वर्ग कौन है?जो जैसे चाहें हिन्दी का इस्तेमाल करें उसकी खुली छूट हैं।दिल्ली के मैट्रों स्टेशनों पर जाए और वहां रेड लाइन की जगह पर लाल लाइन लिखा मिलें तो उसका भी स्वागत है। भाषा का कोई मालिक होता नहीं है। इसीलिए कोई किसी तरह की टोका-टाकी नहीं कर सकता है।यदि मैट्रों को आधुनिकतम विकास का नमूना माना जाए तो हिन्दी इस विकास के साथ कैसी होगी ?यह मैट्रों ट्रेन की हिन्दी से जाना जा सकता है। मैट्रों के हर डिब्बे पर एक वाक्य चिपका है- कृपया खाली जगह का ध्यान रखें।यह अंग्रेजी के प्लीज माइंड द गैप का अनुवाद है।चलती मैट्रों में सूचनाएं और हिदायतें देती रेकॉर्डेड आवाज को सुना जाए तो इस वाक्य का मतलब समझ में आता है।हिन्दी में रेकॉर्डेड आवाज में तो यह वाक्य सुना जाता है कि कृपया सावधानी से उतरें।वास्तव में यह ट्रेन और प्लेटफॉर्म के बीच की खाली जगह का ध्यान रखने की चेतावनी है। यहां एक ही वाक्य के दो अनुवादक दिखाई देते हैं। एक लिखकर करने वाला है और दूसरा बोलकर करता है। जो लिखकर करता है उसे अर्थ बताने के लिए चित्र का इस्तेमाल करना पड़ता है। यह तलाश की जानी चाहिए कि ये दो तरह के अनुवादक कौन हैं?तकनीकी परिवर्तन के साथ स्क्रिप्ट में जो फर्क होता है उक्त वाक्य के अनुवाद में केवल वही फर्क दिखाई नहीं देता है।यहां साफतौर से अनुवादक के सरोकार और उद्देश्य का फर्क दिखता है।

भारत जैसे बहुभाषी देशों में अनुवाद का व्यापार काफी तेजी से बढ़ा है।सालाना टर्न ओवर करोडों का है।टेलीविजन के कार्यक्रमों और फिल्मों की निर्माता कंपनियां अपने उत्पाद को ज्यों का त्यों बेचने के लिए अनुवाद की आउटसोर्सिंग करा रही है।पिछले वर्ष 250 करोड़ का व्यापार विदेशी फिल्मों ने भारत में किया।पूंजी के कारखानों में बनें कार्यक्रमों में किसी देश या क्षेत्र की भाषा भर चस्पां की जा रही है।कार्यक्रम अपने पूरे सांस्कृतिक परिवेश और प्रभाव के साथ चाहें जिस भाषा में तैयार हो जाता है। भाषा सांस्कृतिक घटक का हिस्सा नहीं रहा।बाजार ने यह किया है। इस तरह भाषा का अनुवाद एक बड़े व्यापार के रूप में उभर रहा है।लेकिन अनुवाद महज व्यापार नहीं होता है।वह किसी भी समाज के लिए राजनौतिक हथियार होता है।

जब शिकायत करने वाला कोई नहीं है तो मैट्रों के प्रबंधन को डिब्बों पर चिपके इन अनुवादों को अपने स्थापना के दिन से ज्यों का त्यों बनाए रखने में क्या परेशानी हो सकती है।इस स्टीकर को तैयार करवाने में उसे खासा विनियोग करना पड़ा है।मैट्रो अपने खर्च को महज इसलिए नहीं बढाएगा कि वे यात्रियों के लिए अर्थपूर्ण नहीं है।उसे इस अनुवाद की वजह से रत्ती भर का आर्थिक नुकसान तो हो नहीं रहा।बाजार में भाषा के साथ बलात्कार करने वाले सर्वाधिक ताकतवर होते है। उनका कानून कुछ नहीं बिगाड़ सकता है।लेकिन हम अपने स्तर से यह शिनाख्त तो करें कि इस समय हिन्दी का अनुवादक कौन है?किसी वैसे समाज में अनुवाद बड़े सांस्कृतिक बदलाव का औजार होती है जहां किसी भाषा में ज्ञान कोश उपलब्ध ही नहीं हो। अपने समाज में ज्ञानकोश जिन भी भाषाओं में होने का दावा किया जाता है उस भाषा से ही बहुसंख्यक हिस्से को दूर रखा गया है। दूर रखने के कई तरीके रहे रहे हैं। कभी जाति कारण बनता है तो कभी आर्थिक सामर्थ बन जाता है।लेकिन यहां एक नया पहलू और जुड़ता है।भारतीय समाज में सत्ता वर्ग अपनी भाषा ही बदल देता है।वह नई भाषा के लिए नए आधार तैयार करता है और उसकी जरूरत को स्थापित करता है।यह उसका विशुद्ध राजनैतिक हथियार हैं। जो संस्कृत में आगे था।वहीं अंग्रेजी में आगे रहा।वहीं हिन्दी को राष्ट्रवाद से जोड़ा। वहीं हिन्दी से दूर निकलता रहा। वहीं हिंग्लिश को गढ़ता रहा।वहीं विकास में पीछे छूटने के बहाने अंग्रेजी के घोडे पर सवार हो गया।यह एक लंबी बहस की पूरी कड़ी है।लेकिन हमारा जोर यहां अनुवादक की भूमिका पर है और उसकी शिनाख्त करने की कोशिश करना चाहते है।

जिस समाज के बहुसंख्यक हिस्से की भाषा में ज्ञान कोश नहीं हो वहां अनुवाद स्वंय में एक भाषा का नाम हो जाता है।लेकिन यहां जिस तरह से सत्तावर्ग ने भाषा ही बदल ली उसने अनुवाद के अविष्कार को भी नहीं बख्शा।उसने दो स्तरों पर यह काम किया। पहले स्तर को देहली कॉलेज के उदाहरण से समझ सकते हैं।1830 के आसपास देलही कॉलेज में वार्नाकुलर ट्रांसलेशन सोसयटी बनी थी जिसने अपने बीस वर्ष के कार्यकाल में ग्रीक और फारसी भाषा से करीब 125 महत्पूर्ण ग्रंथों का उर्दू में अनुवाद किया,जिनमें से कई ग्रंथ वैज्ञानिक विषयों के थे।सोसयाटी के इन प्रयासों से शेरो शायरी की भाषा मानी जाने वाली उर्दू जल्द ही ज्ञान विज्ञान की भाषा में बदलने लगी। (यह तथ्य वीर भारत तलवार के एक लेख से उद्दृत किया गया है)लेकिन इसके बाद के वर्षो में खासतौर से 1857 के बाद ये स्थितियां लगभग समाप्त होती चली गई और इतने वर्षों में उर्दू कहां खड़ी है इसे बताने की जरूरत नहीं है।उसका दूसरा स्तर यह था कि उसने खुद ही अनुवाद की भाषा भी गढ़ी।यह उस तरह से गढ़ी गई जो बहुसंख्यक की भाषा के रूप में ठीक उसी तरह दिखती रही है जैसे मैट्रों में चिपका वाक्य हैं।यह एक अध्धयन किया जाए कि वास्तव में अनुवाद ने भारतीय समाज के उन हिस्सों में ज्ञान के रुाोत में रूप में कितनी कारगर भूमिका अदा की है जिस हिस्से को इसकी जरूरत थी?निवदेन है कि केवल स्कूली किताबों तक ही इसे सीमित नहीं रखा जाए। ज्ञान का रुाोत राजनैतिक विचारों , अर्थशास्त्र, इतिहास,विज्ञान आदि क्षेत्रों तक जाता है।वामपंथी पार्टियों पर यह आरोप लगता है कि उन्होने जाति प्रथा की स्थितियों को ठीक से संबोधित नहीं किया लगभग यही आरोप इस संदर्भ में भी लागू होता है।उन्होने राजनैतिक विचारों के सबसे ज्यादा अनुवाद प्रसारित किए।लेकिन वास्तव में विचार प्रसारित नहीं हो सकें।वामपंथी पार्टियों की यही विडम्मबना रही है। यदि उन्होने वर्ण व्यवस्था की गहरी जड़ों के यथार्थ को समझा होता तो वे अनुवाद के अविष्कार का भी कारगर इस्तेमाल कर पाते और उसमें सत्ता वर्ग की सांस्कृतिक घुसपैठ को भी समझ पाते।आखिर हथियार कब चूक जाते हैं?इस पूरे जंग के विस्तार को इस जानकारी के साथ समझने की कोशिश की जा सकती है कि समाज का बहुत बड़ा हिस्सा आज विश्वविद्यालयों और स्कूलों में हिन्दी की किताबों की मांग कर रहा है और उसे उपलब्ध नहीं हैं।साक्षारता के कथित विकास के बाद साक्षर होने की भाषा में किताबें ही नहीं है।

भारतीय मानस

भारतीयों का दोहरापन: गिरेबां में झांकने का वक्त़
- सुभाष गाताडे
मलेशिया में भारतीय मूल के निवासियों की गिरफ्तारी का मसला पिछले दिनों सूर्खियां बना था।
बताया गया कि हिन्ड्राफ नामक संगठन के कार्यकर्ता इस बात से नाराज थे कि मलेशिया के स्कूलों
में बच्चों के अध्ययन के लिए जो उपन्यास लगाया गया था, वह कथित तौर पर भारत की ‘छवि खराब’
करता है। आखिर उपरोक्त उपन्यास में ऐसी क्या बात लिखी गयी थी, जिससे वहां स्थित भारतवंशी
मूल के लोग अपनी ‘मातृभूमि’ की बदनामी के बारे में चिन्तित हो उठे। अगर हम बारीकी
से देखें तो इस उपन्यास में एक ऐसे शख्स की कहानी है जो तमिलनाडु से मलेशिया में किस्मत
आजमाने आया है और वह यह देख कर हैरान होता है कि अपनी मातृभूमि पर उसका जिन जातीय
अत्याचारों से साबिका पड़ता था, उसका नामोनिशान यहां नहीं है।
प्रश्न उठता है कि अपने यहां जिसे परम्परा के नाम पर महिमामण्डित करने में हम संकोच नहीं करते
हैं, उच्चनीचअनुक्रम पर टिकी इस प्रणाली को मिली दैवी स्वीकृति की बात करते हैं, आज भी
आबादी के बड़े हिस्से के साथ (जानकारों के मुताबिक) 164 अलग अलग ढंग से छूआछूत बरतते
हैं, वही बात अगर सरहद पार की किताब में उपन्यास में ही लिखी गयी तो वह हमें अपमान क्यों
मालूम पड़ता है।
अगर मलेशिया के भारतवंशियों को देखें तो उनका बड़ा हिस्सा तमिलनाडु से सम्बधित रहा
है। और बदनामी की बात अधिक सटिक लग सकती थी, अगर हिन्दोस्तां की सरजमीं पर नहीं कमसे कम
तमिलनाडु में जाति उन्मूलन के कार्यभार को हम लोगों ने पूरा किया होता। आखिर क्या है
तमिलनाडु में जातीय अत्याचारों की स्थिति ?
ध्यान रहे कि चन्द रोज पहले इण्डियन एक्स्प्रेस में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया था कि आज भी
वहां के 32 जिलों में से 28 जिले दलित एवं आदिवासियों पर अत्याचारों के मामलों में अग्रणी
हैं। ;ंजतवबपजल चतवदमद्ध विगत दो दशकों में वहां इन तबकों पर अत्याचारों के 6,668 मामले
दर्ज हुए हैं। (इण्डियन एक्स्प्रेस 25, फरवरी 2011) तमिलनाडु वही सूबा है जहां दलित जनसंहार
की आजाद हिन्दोस्तां की पहली घटना सामने आयी थी, जब 1969 में किझेवनमनी नामक स्थान
पर 42 दलितों को -जिनमें अधिकतर महिलाएं एवम बच्चे शामिल थे - दबंग जातियों ने जला कर मार
डाला था। भूस्वामी तबके से सम्बधित दबंग जातियों का गुस्सा इस बात पर था कि दलितों ने
अपने अधिकारों के लिए कम्युनिस्ट पार्टी की अगुआई में संघर्ष किया था। कुछ साल पहले जब
सुनामी की लहरों ने दक्षिण के तमाम सूबों में तबाही मचायी थी, तब वहां के राहत शिविरों
में दलितों के साथ होनेवाले भेदभाव की घटनाओं से राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय सूर्खियां
बनी थीं। कहने का तात्पर्य यही कि दलित-आदिवासियों पर अत्याचारों के मामले में शेष भारत
से वहां की स्थिति अलग नहीं है।
गौरतलब है कि अपने यहां की विशिष्ट गैरबराबरी का बाहर जिक्र होते देख आगबबूला होते देख
मलेशिया में स्थित भारतवंशी अनोखे नहीं हैं। अमेरिका एवम पश्चिम यूरोप के तमाम देशों
में यहां के तमाम लोग गए हैं। अमेरिका की सिलिकान वैली में तो कई भारतवंशियों
ने अपनी मेधा से काफी नाम कमाया है। मगर पिछले दिनों कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में
पाठयक्रमों की पुनर्रचना होने लगी, तब हिन्दु धर्म के बारे में एक ऐसी आदर्शीकृत छवि
किताबों में पेश की गयी, जिसका हकीकत से कोई वास्ता नहीं था। अगर इन किताबों को पढ़
कर कोई भारत आता तो उसके लिए न जाति अत्याचार कोई मायने रखता था, न स्त्रिायों के साथ
दोयम व्यवहार कोई मायने रखता था। जाहिर है हिन्दु धर्म की ऐसी आदर्शीकृत छवि पेश
करने में रूढिवादी किस्म की मानसिकता के लोगों का हाथ था, जिन्हें इसके वर्णनमात्रा से
भारत की बदनामी होने का डर सता रहा था। अन्ततः वहां सक्रिय सेक्युलर हिन्दोस्तानियों को,
अम्बेडकरवादी समूहों तथा अन्य मानवाधिकार समूहों के साथ मिल कर संघर्ष करना पड़ा
और तभी पाठयक्रमों में उचित परिवर्तन मुमकिन हो सका।
पिछले दिनों यह ख़बर भी आयी थी कि दक्षिण एशिया के मुल्कों से वहां ब्रिटेन में बसे
लोगों में अपनी सन्तानों की, खासकर बेटियों की जबरन शादी करने की या उन्होंने अगर अपने
हिसाब से शादी की तो ‘आनर किलिंग’ की घटनाएं भी सामने आ रही हैं। अभी ज्यादा दिन
नहीं बीता जब लन्दन, बर्मिगहैम तथा ब्रिटेन के कई अन्य शहरों में एक पंजाबी नाटक ‘बेहजती’
को लेकर वहां स्थित सिख समुदाय ने नाटकगृहों पर उग्र प्रदर्शन किए थे और नाटक की लेखिका
के नाम मौत का फतवा जारी किया था। नाटक में सिख प्रार्थनास्थल में किसी युवति के साथ हुए
अत्याचार का प्रसंग शामिल था, जिससे वह उद्वेलित हो उठे थे। प्रदर्शनकारियों का कहना था कि
इससे सिख धर्म की बदनामी होती है।
कोई कह सकता है कि यह कोई प्रातिनिधिक घटनाएं नहीं हैं और ऐसे उदाहरणों को
भी ढूंढा जा सकता है, जहां भारतीयों की अलग छवि सामने आती हो। मुझे लगता है कि यह
अपने आप को बहलाने की बात है। मलेशिया, अमेरिका एवं ब्रिटेन तीनों स्थानों पर जमे
हिन्दोस्तानिंयों का यह व्यवहार निश्चित ही हमें सोचने के लिए मजबूर करता है। आखिर अपनी
कमजोरियों को छिपाने से कोई कौम बड़ी हो सकती है कभी ?
कोईभी वास्तविक तौर पर आधुनिक व्यक्ति का व्यवहार पूर्वआधुनिकों की तुलना में किस
मायने में भिन्न कहा जा सकता है ? तर्कबुद्धि, वैज्ञानिक चिन्तन, व्यक्ति की आजादी, आत्मप्रश्नेयता
( अर्थात अपने आप से प्रश्न करना ) आदि विशिष्टताओं से लैस एक आधुनिक व्यक्ति के लिए अपनी
संस्कृतिगत कमजोरियांे से जूझना जहां स्वाभाविक समझा जा सकता है, वहीं एक पूर्वआधुनिक व्यक्ति
के लिए परम्परा की दुहाई देते हुए अपनी कमजोरियों का महिमामण्डन करना अधिक स्वाभाविक लग
सकता है। विदेशों में बसे और ऊपरी तौर पर आधुनिकता को पूरी तरह स्वीकार किए लोगों
को यह सोचना ही होगा कि वह इस द्वंद से कब उबरेंगे, जहां उन्हें अपनी सरजमीं पर कायम या घटित
होनेवाली सभी चीजें आकर्षित करेंगी और आदर्श लगेंगीं।
भारतीयों के मानस में व्याप्त यह दोहरापन ही है कि जहां वह आस्टेªलिया में भारतीय
छात्रों पर होनेवाली ज्यादतियों से उद्वेलित दिखते हैं, मगर अपने यहां के शिक्षा संस्थानों
में आए दिन दलित-आदिवासी या अल्पसंख्यक तबके के छात्रों के साथ होनेवाली ज्यादतियों को
सहजबोध का हिस्सा मान कर चलते रहते हैं।

यादें

संघर्ष की संस्कृति के कमांडर कमला प्रसाद


कमलाजी की प्रतिष्ठा आलोचक के रूप में, लेखक व संपादक के रूप में भी खूब रही है। लेकिन मेरा मानना है कि उन्होंने सांगठनिक कार्य का चयन अपनी प्राथमिकता के तौर पर कर लिया था...


विनीत तिवारी
उनसे आप लड़ सकते थे, नाराज हो सकते थे, लेकिन वो लड़ाई और नाराजगी कायम नहीं रह सकती थी। वो आलोचक थे इसलिए विश्लेषण उनका सहज स्वभाव था,और साथ ही वे संगठनकर्ता थे इसलिए अपनी आलोचना सुनने,काम करने के दौरान हुई खामियों को दुरुस्त करने और दूसरों को गलतियाँ सुधारने का भरपूर मौका देने का जबर्दस्त संयम उनके पास था।

कोई अगर एक अच्छे कार्यक्रम की अस्पष्ट सी आकांक्षा भी प्रकट कर दे तो वे उसके सामने ही संसाधनों के प्रबंध से लेकर वक्ता, विषय आदि सबका पूरा विस्तृत खाका खींच निश्चित कर देते थे कि कार्यक्रम हो। सक्रियता और गतिविधि में उनका गहरा यकीन था। वे कहते भी थे कि अगर कुछ हो रहा है तो उसमें कुछ गलत भी हो सकता है और उसे ठीक भी किया जा सकता है। पूरी तरह पवित्र और सही तो वही बने रह सकते हैं जो कुछ करते ही न हों।

मध्य प्रदेश के प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव होने के नाते मेरा अनेक इकाइयों में जाना हुआ और हर जगह कोने-कोने में छोटे-बड़े अनेक साहित्यकार कमलाजी के साथ अपने परिचय का जिक्र करते। ये देखने का तो मौका नहीं मुझे मिला लेकिन अंबुजजी, हरिओम, योगेश वगैरह से कितनी ही बार ये जाना कि कमलाजी ने एक संगठनकर्ता के नाते कितनी ही असुविधाजनक यात्राएँ कीं। कहीं से इकाई बनाने का संकेत मिलते ही शनिवार-रविवार की छुट्टी में चल देते थे। रिजर्वेशन तो दूर की बात, कभी-कभी सीट न मिलने पर भी घंटों खड़े रहकर संगठन के विस्तार की चाह में दूर-दूर दौड़े जाते थे।

वे अपने वैचारिक और सांगठनिक गुरू परसाईजी को कहा करते थे और कमलाजी ने अपने गुरू के नाम और काम को आगे ही बढ़ाया। नामवरजी से लेकर होशंगाबाद के गोपीकांत घोष तक उन्हें कमांडर कहते थे और कार्यक्रम व योजना वे कमांडर की ही तरह बनाते भी थे और फिर एक साधारण कार्यकर्ता की तरह काम में हिस्सा भी बँटाते थे,लेकिन कभी शायद ही किसी ने उन्हें आदेशात्मक भाषा में बात करते सुना हो।

उल्टे हम कुछ साथियों को तो कई बार कुछ अयोग्य व्यक्तियों के प्रति उनकी उतनी विनम्रता भी बर्दाश्त नहीं होती थी। लेकिन सांस्कृतिक संगठन बनाने का काम तुनकमिजाजी और अक्खड़पन से नहीं बल्कि तर्क, विनय और दृढ़ता के योग से बनता है - ये सीख हमने उनके काम को देखते-देखते हासिल की। उनको याद करते हुए राजेन्द्र शर्मा की याद न आये,ये मुमकिन ही नहीं। राजेन्द्रजी ने जैसे कमलाजी के काम के वजन में जितना हो सके उतना हिस्सा बँटाने को ही अपना मिशन बना लिया था।

कमलाजी की प्रतिष्ठा आलोचक के रूप में, लेखक व संपादक के रूप में भी खूब रही है। लेकिन मेरा मानना है कि उन्होंने सांगठनिक कार्य का चयन अपनी प्राथमिकता के तौर पर कर लिया था और इसलिए अपनी लेखकीय क्षमताओं के भरपूर दोहन के बारे में वे बहुत सजग कभी नहीं रहे। उनका अपना लेखन,किसी हद तक पठन-पाठन भी संगठन के रोज के कामों के चलते किसी न किसी तरह प्रभावित होता ही था। फिर भी उन्होंने खूब लिखा।

‘वसुधा’ में उनके संपादकीय तो अनेक रचनाकारों के लिए राजनीतिक व संस्कृतिकर्म के रिश्तों की बुनियादी शिक्षा और अनेक के लिए रचनात्मक असहमति व लेखन के लिए उकसावा भी हुआ करते थे। लेकिन वो ऐसे लोगों की बिरादरी में थे जिन्होंने संगठन के लिए,और नये रचनाकार तैयार करने के लिए अपने खुद के लेखक की महत्त्वाकांक्षा को कहीं पीछे छोड़ दिया था।

प्रगतिशील लेखक संगठन का देश भर में विस्तार। पहले हिन्दी क्षेत्र में संगठन को एक साथ सक्रिय करना, फिर उर्दू के लेखकों से संपर्क और हिन्दी-उर्दू की प्रगतिशील ताकतों को इकट्ठा करना, फिर कश्मीर में, उत्तर-पूर्व में, बंगाल में और दक्षिण भारत में संगठन का आधार तैयार करना, और फिर समान विचार वाले संगठनों से भी संवाद कायम करना, इस सबके साथ-साथ ‘वसुधा’ का संपादन - दरअसल इतना काम आदमी कर ही तब सकता है जब उसके सामने एक बड़ा लक्ष्य हो। ये एक बड़े विज़न वाले व्यक्ति की कार्यपद्धति थी।

करीब एक महीना पहले जब कालीकट, केरल में हम लोग राष्ट्रीय कार्य परिषद की बैठक में साथ में थे तभी देश भर से आये संगठन के प्रतिनिधियों ने बेहद प्यार और सम्मान के साथ उनका 75वाँ जन्मदिन वहीं सामूहिक रूप से मनाया था। कैंसर के उनके शरीर पर असर भले दिखने लगे थे लेकिन कैंसर उनके मन पर बिल्कुल बेअसर था। वहाँ बैठक में और बाद में केरल से भोपाल तक के सफर के दौरान उनके पास ढेर सारे सांगठनिक कामों की फेहरिस्त थी,ढेर सारी योजनाएँ थीं। साम्प्रदायिक और साम्राज्यवादी ताकतों से अपने सांस्कृतिक औजारों से किस तरह मुकाबला किया जाए,किस तरह हम समाजवादी दुनिया के निर्माण में एक ईंट लगाने की अपनी भूमिका ठीक से निभा सकें, ये सोचते उनका मन कभी थकता नहीं था।

उनके जाने से उस पूरी प्रक्रिया में ही एक अवरोध आएगा जो कमलाजी ने शुरू की थी लेकिन हम उम्मीद करें कि देश में उनके जोड़े इतने सारे लेखक मिलकर उसे रुकने नहीं देंगे, आगे बढ़ाएँगे, यही उनके जाने के बाद उन्हें उपने साथ बनाये रखने का तरीका है और यही उनके प्रति श्रद्धांजलि भी।



(लेखक प्रगतिशील लेखक संघ के मध्य प्रदेश इकाई के महासचिव हैं,उनसे comvineet@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

रविवार, 27 मार्च 2011

Interview of a Women Garment Worker of Surat


Gudia
She said: I am a permanent resident of a village in district Sultanpur (Uttar Pradesh). I came here in November 2009. I am living here with my husband. I have three daughters. Elder daughter is studying in class 5th while two others are studying in class 2nd and 3rd. My husband is working as a contract worker in a Printing and Dying factory. My husband’s monthly earning is near about Rs 4000. My husbands family is a poor peasant family so, my husband send an amount of Rs 500-800 pm to his parents. That’s why I decided to work in factory for some earning. I am working in Aditya textiles industries, Hira Modi Street, Surat.
She continued: When I came here my husband health was very bad. He is a very responsible person but not careful about his health. He always tried to make more money for his family. That’s why he worked overtime without any leave. At that time his monthly earning was around Rs 6000. All persons in family were very happy with him. But this fact was in my knowledge that he is loosing his health.
She said: Actually I have three daughters and no son. My family and also my husband don’t like it. I always feel a guilty in this case. After all I decided to come here and work in factory for some earning. Now my husband’s health is better than earlier. I am happy to see it. I also gained some confidence when I see that there are thousands of women worker’s working in different factories like me. I also know some widow women workers who are working here for their livelihood. Now I never feel alone. My husband is also happy with me. Now we are working for our children’s education and for their future.
Working hour and Salary
She said: Presently my husband has convinced with me to not work overtime so often. My earning is Rs 2500 for 8 hour duty. I am working here since one year. There is a difference between the salary of women worker and men worker. A contract men worker’s salary is around Rs 4000 who is working from one year. Contractor said that this is because men workers duty hour is 12. Actually contractor knows it that a women worker never protests against it so he is exploiting us.
Exploitation as a women worker
She said: Actually most of the persons working in my factory are male. So there is a male dominated environment in my factory. In some factories of Surat mainly in Dying factories where in total workers 40-50 percent workers are females, there you find less cases of women worker exploitation. Although, there is no union activity in printing and dyeing factories. Actually contractors are main exploiters. They are very decivilize person. She always nips girls. Many time he charged for defloration. But we do nothing because we are not organized.
She continued: Girl child workers are not safe here in factories. So, mostly girl child workers are working in same factories where their parents are working. Their salary is very low in comparison of male workers.
Maternity Leave
She said: I find no leave except weakly. There are more up to 500 male and female workers are in this factory. While are up to 50. There is no crèche facility in my factory. Women worker does not find the facility of the maternity leave. I have no proof of employment. Two register is maintained by the company. One register is maintained for workers and second one is for legal purposes. Actually labour department as well as Modi government as against the right of women workers. All are poppet of the industrialist. So they never take any action against such industries.
(Interview taken by Devendra Pratap, Mb: 09596833370, mail id: devhills@gmail.com)

Interview of a Garment Muslim Worker of Surat


Puddan Ali

Social and economic background of the respondent

He said: I am a permanent resident of a village in Gorakhpur, Uttar Pradesh. I am a Muslim around 14 years of age. There are six members in my family. Two sisters are married. My two elder brothers are living separately while I and a brother are living with my parents. My father is a farmer and has 2 beegha of agricultural land. My brother is working as a weaver and has a small poultry. Most of the persons of my religion in my village are working as Moti sitara worker and as a weaver in Barely, Banaras and Delhi. A large number of people were working as labour in Surat before Gujarat riots. But after Gujarat communal incident more than 90 percent of the worker come back or have shifted in other Industrial cities. Now some of them have started going for the search of in Surat. I came here in December 2010 with a relative who is living there since10-15 years.
He continues: I am working as a daily wage Trainee in a grey cloth factory. The factory owner is a Muslim. He is a religious man. There are 20 adult worker and all are Muslim. While in total 4 child workers 2 child workers are Hindu and from scheduled cast (Chamar).
Wages
He said: My working hour is 12 as in other factories of Surat. I work here 15 days in day shift and 15 days in night shift. No night allowance is given to worker by factory owner. I find Rs 1600 for 12 hours duty. But including overtime work I earns around Rs 2000 in a month. I am living here in factory from the date of joining. I also work as a servant for factory owner. In the month of ‘Ramjan’ he gives gifts to every worker of his factory. Some time I also work for his family members. So some time I also find some gifts from his family members. He gives me Rs 40 per day for my food. I find my wages in first week of the month.
Working conditions
He said: There are four floors and total 60 machines in this factory. Factory premise is very noisy. This noisy atmosphere is very dangerous for those workers who are working more than 14-15 hours in peak season. Headache, Jaundice and fever are common in between workers. In peak season it affects workers on large scale. I have faces jaundice two times in four month. All four child workers stay in factory. On one hand, by staying in factory we are able to save some money but on the other hand we are bounded to work extra without any wage.
He continues: There is no facility of pure drinking water in this factory. No lunch or tea breaks is given by factory. Toilets are very dirty. All workers do their job in a standing position but factory has not provided a suitable sitting facilities. No canteen facility is here so normally we go out side for tea one by one.
He said: Overtime was not paid twice the salary. Workers are not allowed to organize themselves and to join labour unions. Although all labour unions of Surat are totally corrupt. I don’t believe in labour union activity. If I will do this type of activity I can not work here.
Monthly Income, Expenditure and savings
He said: My earning is in between Rs1600- 2000 pm. My expenditure on ration is around Rs 1000. Expenditure on remittance is in between Rs 300- 600. Expenditure on medicine, Surati, Beeri, Shop, tooth paste, Tea etc is around Rs 200-300. Normally my monthly saving is nil. 
interview taken by Devendra Pratap, mb: 09719867313 

(Interview taken by Devendra Pratap, Mb: 09719867313)

Working condition of a Scheduled Cast Garment Worker in Surat


Worker's Name- Kalu

Social and economic background of the respondent

He said: I am a permanent resident of a village in Sitapur, Uttar Pradesh. I am a Hindu and from scheduled cast. My village is Brahmin dominated. Most of the land is in the hand of the Brahmins. Most scheduled cast (Chamar) community is either agricultural worker or working in Industries in different parts of the country. Some of them are working in different industries of Surat.
He continues: There are five members in my family. Two elder brothers are living separately from my father. And now both are living in Noida. I my self, my sister and a brother are living with my father. My father is a shoe maker and has a very small shoe shop in the market of my village. But his earning is not sufficient for our family. He takes loan so often for food and other purposes of the family. My sister is around 13 years and my brother is around 10 years of age. My father has taken a loan of Rs 3000 at4 percent interest in January 2010 from a Brahmin of my village. My brother and sister are working now for that Brahmin because my father has no other source of income to return his dues.
Job Satisfaction
He said: I came here in the month of January of this year with a friend of my village. He is working in this factory since two year. Factory owner gives me a job of helper in his factory. Factory owner is a gentle person so most of the workers have no complaint against him. All workers say him Babu Saheb.
He continues: It is a grey cloth factory. Factory owner is Jain but I don’t know his name. There is no signboard so I don’t know the name of the factory. There are thousands of factories in this area. But none of them have any signboard by which you can know the name of the factory. There is an alliance between factory owners and labour Inspectors. Most of the factory owner gives a bribe to labour Inspectors. So, all factory owners are sure from any action taken by labour department.
He said: My normal working hour is 12. In April, May, June and December, January, February factory have more work. In peak season I work more than 14 hours daily. It is compulsory for any factory worker to work overtime. No worker can leave factory in peak season otherwise it is possible that he will loss his salary. Factory owner gives payment to every worker for extra hours (overtime work). But he does not give double rate payments for overtime work.
He said: In peak season not only helpers like me but most of the workers face the problem of sleeping disorders. T.B. and Asthma is a common disease in between grey cloth workers. Most of the worker also faces problem of headache and fever in this season. But factory owner never gives us any medical facility.
He said: I always feel a pain in my backbone. Doctor says that I should take a bed rest for minimum 15 days. But it is not possible for me to go on bed rest. My brother and sister are working as a bonded labour in my village. So I want to see them free from the trap of that Brahmin. That’s why I have taken a loan of Rs 4000 from my factory owner. I sent this money to my father. Now my brother and sister will be free from Brahmins loan. I am staying here in factory from the date of loan taken by me. It is not a pressure of factory owner. Actually I want to save some money so I am staying here. After 5-10 month I will pay all the dues of my factory owner.
Salary related problems
He said: I find Rs 1500 in a month from factory owner. He gives me this amount for 12 hour working. When I work overtime in peak season, I find some extra wages. I never find my salary in the first week of the month. Mostly I find my salary in second week of the month.
(interview taken by Devendra Pratap, mb: 09719867313)

Condition of a bonded labour of a garmen industry in Surat


Manish
Social background
He said: I am a permanent resident of a village in Kushi Nagar, Uttar Pradesh. I am a Hindu and from scheduled cast. My father is an agricultural labourer in my village. I have three brothers and two sisters. All are uneducated. My two elder brothers are living separately while I himself, one brother and two sisters are living jointly with our parents. He continues: My father is searching a suitable person for my sister’s marriage. He wants to do her marriage as earliest possible. My brother is a patient of polio so he can not work. His both legs are completely paralyzed. My father has taken a loan of Rs.5000 from a relative for my brother’s treatment. In these circumstances my father sends me here for some earning with a relative.
Forced to work in a Dying factory
He said: My relative is a contract worker in Luthara Dying, GIDC, Pandesara. He is working here since 5 years. This is a very big factory. More than 2000 workers are working here but except very few (10-20) of them are permanent. My first joining was in Luthara Dying. It was August or September 2009 when I join this factory as a helper. In February 2010 I was expelled by this factory. Now I am working in Creative processors Pvt Ltd. I also live in factory. There are 4 other child workers who are living in factory.
Salary
He said: I find Rs 40 for 12 hour duty. Contractor also gives Rs 25 per day for food. I am engaged here as a helper (trainee). I work all the day of the month. My duty is 8 am to 8 pm. But some time I also work without any wage for second shift. There are more than 20-30 child workers are working in different departments of the factory. Women workers working hour is 8 not 12. I have listened that some girls (child workers) find as daily payment Rs.30 for 8 hours. There is no difference between the work of a helper and a skilled worker. Although I accept it that child workers are not a trained worker but you can not justify the gap between a helper’s salary and a skilled workers salary. A skilled workers salary is Rs.4800 for 12 hours. It is six times greater than my salary. An adult women workers salary (for 8 hours) is Rs 3500.
Working environment
He said: Most of the members in management belong from Surat or from other places of Gujarat. Supervisor is also a Gujarati person. He uses child workers as a tool of production. But a child worker is not only exploited by factory Supervisors, Managers, and masters but also by skilled workers.
He said: Actually 12 hour duty is too tough for a child worker and also for an adult worker. This is why an adult worker wants to take more work from a child worker. Another factor is that managers of all departments maintain a pressure upon supervisors for completion of work in a definite time. This is why role of a supervisor being inhuman for workers.
He continues: I am not only aware of about my work but I always tried to complete my work best. But some time when Supervisor abuses and beats me and creates pressure upon me, I got confused. But he can not understand my problem. A ‘production fear’ has entered deeply in my heart. Child workers who are living in factory have no freedom. We are living in Jail. I take my food out side the factory. Workers have no extra time for lunch and tea.
He said: There is a lack of clean drinking water in factory. Most of the child workers living in factory are facing problem of dysentery. Typhoid Malaria and Dysentery are common problem in between us. Normally a child worker, who is living in factory, does not find any leave in case of illness. Supervisor never believes us that we are telling true. I never take my full diet because Rs 25 is not sufficient. I take lunch and dinner in Rs 25. I never take breakfast. At this time I am sending Rs 700 to my parents. If I live in slums I can not send this money.
(Interview taken by Devendra Pratap, mb: 9719867313)

Interview of a child labour in Garment Industry of Surat


Surender kumar
Surrender is a boy of 13 years of age and is working in Niharika Mills pvt ltd, since one year. He is Hindu and from the scheduled cast. He went to school up to 5th standered and dropped out after that, because his mother wanted him to work. This meant that his school days were over as he was compelled to work in Dying and Printng Factory in Surat. He can not play around any more. His work consists of assisting the skilled worker and all kinds of other small jobs in this factory.
He said: The factory together with hundreds of other factories is located in the slum area of Pandesara, Surat. I am living in this slum with my parents. My parents are also working in the same factory and carry out the process of dyeing. My parents are illiterate. My monthly earning is Rs.800 while my father earns Rs 5000 and my mothers earning is Rs 2500 per month. Our average daily working hour is 12. But this work is not a regular source our income. When factory owner have less orders, he compelled out most of the workers of his factory.
He said: I give my monthly Income to my father. I get some pocket money from my mother. I spend that money on Pan- Beeri and Gutkha. Some time I work in the night shifts also. But my wages are same as in day shifts. Supervisor scolds me always because I do not work hard according to his expectations.
He said: There are 13 more children (9 boys and 4 girls) working in the same factory. We all are friends. When I started working in this factory I got a bad typhoid. But now I don’t care all of these.
He said: Our work place is full of dust and fumes. There is always a possibility of injuries to workers. Factory owner has not made effective arrangements for the disposal of the industrial waste. Factory owner sells most of the industrial waste to sub-contractors and Kabaries. Till the selling, all waste is dumped in the compound of the factory or at work place.
He said: Most of the workers families are facing burden of debts. Some of them take loan on some Interests from money lenders. Some time a factory worker also gives loan to their colleagues for earning some profit in the form of Interests. This is a common tendency in factory workers of Surat.
He said: Many families need money for costs of an illness, to provide a dowry to marry off another child, or simply to put food on the table.
He said: My grandfather and grandmother are living in my village. Both are old and helpless. So my father always tried to send them some money (around Rs1000) every month. My uncle is living with him but we have no source of income except a very small piece of land.
He said: My factory find work from some big merchants of Surat. Merchant find orders from byers and agents of different export Garment companies. I do not know the name of company for which I am working.
He said: There are more than 1000 workers in this factory. Most of them are belongs from Uttar Pradesh and Bihar. Except 10-12 workers all are engaged by factory through contractor. Permanent workers have some rights (PF, ESI etc.) but contract workers have no right in this factory. None of us find ESI, PF and other benefits.
(Interview taken by Devendra Pratap, mb: 09719867313, mail id: devhills@gmail.com)

Interview of a Bonded Labour in Garment Industry of Surat


Mukesh (14 years)
Social Background
Mukesh said: I am a permanent resident of a village in Jaunpur, Uttarpradesh.My father is not alive. My elder brother is living with my mother and a sister. We have no land in my village. In Jan.2009 my brother has taken an amount of Rs.4000 at 4% interest from a Brahmin for my mother’s medical treatment. So he is working now as a bonded labour (Bandhua) for that Brahmin family. My mother also works in the houses of Brahmins and Thakurs. My sister is not more than five years but she works with my mother for some earning. Except it, my family always lives in a very bad condition. My cast is Harijan so we are hated persons in the society of our village. All lands of my village are in the hand of Sawarna people. So people of our cast are always lives in a brutish manner. Most of the young boys of my cast are working as a factory labour in Surat and Bombay. Only old people are staying there.
How you converted into a bonded labour
He said: In theses circumstances I came here with my neighbor in Sept. 2009. He is working here since 2003. He is married and living here with his wife. He is working in Manila Processors Pvt. Ltd, as a contract labour. He introduced me with a contractor of dyeing department of this factory. He gave me work in dyeing department as a helper. There are 10 other child worker in this department. Four of them lives at work place. My income is Rs 1300 pm. is very low in comparison to expenditure. So normally I am forced to take some advance from contractor.
Working condition
He said: All child workers have been forced to work because our parents are not in a condition to bear alone the expenditure of our family. So we want to support our family by doing this job. Our work is very dangerous and unhealthy but we have no option. We always play with chemicals but no safety equipment is given to us by contractor. Printing and dyeing work is very dangerous for us because we are not experts.
He said: Our normal working hour is 12. But some time in peak season it is 15-16 hours. There is no provision of double rate payment for overtime work. We work here day and night. After every 15 days my shift is changed. No night allowance is given to any worker. Majority of the workers in Majority of the workers in factory, who are contracted to work here on monthly basis are forced to finish their targets on time otherwise they will loose their job.
He said: Workers who work for daily wages as a regularly hired worker complain that they are forced to work in extra overtime period and even during weekly day off in peak season. October, November, December, May, June and July are peak season months. Most of the workers are working more than 90 hours per week in peak production season and some times peak production session may last even after December. Workers are approximately working more than 72 hours in Semi peak season. Attendance registers do exist but are often not signed. The company fills it in. Time records keeping are maintained separately.
He said: I find salary for 12 hour working but record maitaind by company shows it for 8 hour. We find single rate of payment for overtime work but company shows it on double rate. Permanent worker of company finds Rs 8000 finds for 26 days working although their working hour is similar to us. They find PF, ESI and other benefits. I am working here since September 2009 but I never find any Increment and other benefits given by company.
He said: Factory owner gives us medical help in case of any accident at work place. Company cuts Rs 100pm from our salary in for medical treatment but we never find ESI card.
In come and Expenditure of the respondent
Income:
Salary: Rs.1300pm for 12 hour working
Expenditure:
Room rent: Rs 900/3= Rs.300
Ration: Rs600-700
Remittance: 200-300
(Interview taken by Devendra Pratap, Mb: 09719867313)
धर्म का अन्त ! धर्मगुरूओं की बल्ले बल्ले?
- सुभाष गाताडे

आनेवाले समयों में धर्म का नामोनिशान मिट जाने की खबर निश्चित ही विस्मित करनेवाली लग
सकती है। मालूम हो कि अमेरिकन फिजिकल सोसायटी मने नौ देशों के अध्ययन पर यह निष्कर्ष
निकाला है। ये देश हैं आस्टेªलिया, कनाडा, चेक गणराज्य, फिनलैण्ड, आयरलैण्ड, नीदरलैण्डस,
न्यूजीलेण्ड और स्विट्जरलेंड। ‘रिसर्च कारपोरेशन फार साइन्स एडवासमेंट’ के डाक्टर रिचर्ड
वीनर के मुताबिक बहुत से आधुनिक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्रों में लोग खुद को धर्म से अलग
करते जा रहे हैं। नीदरलेण्ड में जहां ऐसे लोगों की संख्या 40 फीसदी है तो चेक गणराज्य में
60 फीसदी लोगों ने किसी धर्म के प्रति प्रतिबद्धता नहीं दिखाई है।
प्रश्न उठता है कि धर्म की जकड़ कम होने की इन ख़बरों के बीच ऐसी ख़बरें भी आती
रहती है कि किस तरह आबादी का एक हिस्सा धर्मगुरूओं के शरण में है, फिर वह बौद्ध मत का प्रचार
करनेवाला कोई साधु हो या हिन्दु आस्था का प्रचारक कोई साधु हो। अमेरिका के टेक्सास
प्रांत के आस्टिन में दो सौ एकड़ में फैले अयोध्या में जन्मे ‘बरसाना धाम’ के संचालक
प्रकाशानन्द सरस्वती, अपने भक्तों के बीच श्री स्वामीजी के नाम से जाने जाते, ऐसी ही शख्सियत
रहे हैं। यह अलग बात है कि इन दिनों वह फरार चल रहे हैं। दरअसल अदालत ने 82 वर्षीय
प्रकाशानन्द सरस्वती पर लगे बाल यौन अत्याचार के सभी बीसों आरोपों को सही पाया और सज़ा
सुना दी।
श्यामा रोज उम्र 30 वर्ष, वेसला टोनेसेन काझिमेर उम्र 27 वर्ष हेज काउण्टी कोर्ट के
सामने अपने आंसुओं को रोक नहीं सकीं, जब अदालत ने अपना फैसला सुनाया। गौरतलब था कि
दोनों महिलाओं के परिवार आश्रम में ही रहते थे, और आज भी वहीं रहते हैं। इन दो
किशोरियों के साथ यौन अत्याचार का सिलसिला तब शुरू हुआ जब वे 12 साल की थीं। प्रकाशानन्द
के भक्त उनके माता पिताओं ने इन किशोरियों की शिकायतों पर गौर करने के बजाय उन्हें यह
समझाने की कोशिश की एक तरह उन्हें गुरू का आशीर्वाद मिल रहा है। बहरहाल, अदालत ने सारे
प्रमाणों को देखते हुए स्वामीजी के खिलाफ फैसला दिया। किशोरियों के साथ यौन अत्याचार
जैसी जघन्य घटनाओं के लिए सरकारी वकील ने उन्हें हर अपराध के लिए बीस साल अर्थात चार सौ साल
सज़ा सुनाने की अपील की थी।
निश्चित ही अध्यात्म के नाम पर यौन अपराधों तथा अन्य किस्म के दुराचरणों में लिप्त प्रकाशानन्द
कोई पहले शख्स नहीं हैं। उल्टे अपने भक्तजनों को इहलोक की चिन्ताओं को
छोड़ परलोक की चिन्ता करने का उपदेश देनेवाले आध्यात्मिक गुरू इन दिनों ऐसे ही बेहद
गैरआध्यात्मिक कारणों से सूर्खियों में रहते हैं। अभी ज्यादा दिन नहीं बीता जब अख़बार
में एक अन्य स्वामी प्रेमानन्द की मृत्यु का समाचार छपा था। यह जनाब 90 के दशक में तब पहली
दफा सूर्खियों में आए जब तिरूचिरापल्ली, तमिलनाडु स्थित इनके आश्रम में अपनी 13 शिष्याओं के
साथ यौन अत्याचार की ख़बर बनी, और बाद में अपने एक सहयोगी की हत्या का आरोप भी इन पर
लगा। इनके खिलाफ इतने पोख्ता सबूत थे कि सुप्रीम कोर्ट ने भी इन पर दो बार उम्र कैद की
सज़ा सुनायी थी।
वैसे चाहे प्रकाशानन्द या प्रेमानन्द को, जो ‘गौरव’ हासिल नहीं हो सका, वह दक्षिण के एक
सूफी सन्त का अपने आप को अवतार बतानेवाले बेहद चर्चित अन्य बाबा को हासिल हुआ। कुछ समय
पहले बीबीसी ने इन पर केन्द्रित अपनी एक डाक्युमेंटरी में उन तमाम लोगों को पेश किया
जिनके साथ उन्होंने कथित तौर पर यौन अत्याचार किया था। लन्दन के ‘डेली टेलिग्राफ’ ने
भी अपनी एक कवर स्टोरी में उनके कथित अपराधों की सूची जारी की थी जिसके केन्द्र में 20
साला अमेरिकी युवा सैम यंग की दास्तां भी शामिल थी जो बाबा के दो भक्तों का बेटा था
जो लम्बे समय से उपरोक्त बाबा के दर्शन के लिये आते थे। 16 साल की उम्र में डरा धमकाकर
उसके साथ यौन क्रीडाओं का जो सिलसिला बाबा ने शुरू किया उस पर तभी परदा हट सका जब उसने
20 साल की उम्र में अपने माता पिता को सबकुछ बता दिया। कुछ साल पहले इकानामिक पोलिटिकल
वीकली के 27 मार्च 2004 के लेख में ‘रिलीजन अण्डर ग्लोबलायजेशन’ में पी. राधाकृष्णन ने
लिखा था कि एक बार जब खुद को भगवान घोषित करनेवाले इस बाबा के करतूतों पर से परदा हटा
तब सैकड़ांे ऐसे मामले सामने आये। फिर विदेशों में चल रहे इनके तमाम केन्द्र बन्द भी
हो गये। अगर आप आस्टेªलिया की यात्रा पर जाएं तो वहां हवाई अड्डों पर ही इस बाल यौन
अत्याचारी सन्त से बचने की सलाह देते पोस्टर मिल जाएंगे।
अपराध एवम अध्यात्म का संगम सिर्फ खास धर्मों तक सीमित नहीं हैं। सूचना के अधिकार के तहत
केरल पुलिस ने पिछले दिनों जारी किए आंकड़ें बताते हैं कि सूबे के 63 ईसाई धर्मगुरूओं
के खिलाफ फिलवक्त आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। भारत की दण्ड विधान संहिता के अन्तर्गत
आनेवाले सभी किस्म के अपराधों में - हत्या, हत्या की कोशिश, बलात्कार, हमला, अपहरण,
चोरी, धोखाधड़ी -पादरी लोगों की संलिप्तता पायी गयी है। विगत सात साल के अपराध के
आंकड़ों को देखें तो दो पादरी हत्या के आरोपी हैं जबकि दस पादरियों पर हत्या की
कोशिश का इल्जाम लगा है। एक अन्य जनाब हत्या में मदद पहुंचाने के जुर्म में सलाखों के
पीछे हैं। पांच लोग बलात्कार के आरोपी हैं जबकि कोल्लम के फादर जोसेफ अनैतिक व्यापार
में अभियुक्त हैं, पांच पादरियों पर चोरी और मकानों में सेन्ध लगाने के इल्जाम लगे
हैं।
रोमन कैथोलिक चर्च के अन्दर बच्चों के साथ चल रहे यौन अत्याचार की घटनाओं से
पिछले कुछ सालों से लगातार परदा उठ रहा है और जिसके लिए चर्च को आधिकारिक तौर पर माफी
भी मांगनी पड़ी है। वैसे चर्च के अगुआओं पर इस बात का भी दोषारोपण किया जा रहा
है कि उन्होंने यौन अत्याचारी पादरियों के खिलाफ मिली शिकायतों के बावजूद उनके
खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की और ऐसे अपराधियों को बचाने का ही काम किया। यहां तक
कि वर्तमान पोप की लन्दन यात्रा को लेकर भी संशय बना हुआ था कि उन दिनों इस मामले में
उनकी भूमिका भी सन्देह के घेरे में थी। वैसे हिन्दोस्तां के समाज सियासी हालात पर एक सरसरी
निगाह डालने से भी अन्दाज़ा लगेगा कि यहां साधओं के प्रति प्रेम कुछ ज्यादा ही है। अगर ऐसा नहीं होता तो एक अनुमान के मुताबिक ‘ पूरे
मुल्क में 80 लाख से ज्यादा ऐसे छोटे-बड़े साधु ’ नहीं दिखाई देते।; डंेे म्कनबंजपवद
थ्तवउ त्मसपहपवने च्संजवितउए टवस 36ए ॅमइेपजमए म्च्ॅए डंतबी 27ए 2004द्ध आप पाएंगेे कि एक लम्बा
चौड़ा दायरा है जिसके एक छोर पर जादू टोना, प्रेतबाधा से मुक्ति की गारंटी देनेवाले या
सन्तानप्राप्ति को सुनिश्चित करनेवाले तांत्रिकों-जैसे ‘सबआल्टर्न’ साधुओं से लेकर ज्यादा से
ज्यादा समय विदेशों में रहनेवाले और कभी कभार इस शहर या उस शहर धार्मिक प्रवचनों को
सम्बोधित करनेवाले बापुओं, आचार्यो ंकी मेला लगा है। आजादी के बाद भारत के प्रथम प्रध्
ाानमंत्राी जवाहरलाल नेहरू ने उद्योगों को ‘आधुनिक भारत के मंदिर’ कहा था और आज जब
हम गणतंत्रा की इकसठवीं सालगिरह मना चुके हैं तब हम पा रहे हैं आध्यात्मिकता के प्रति आकर्षण
गोया आज एक ‘नये उद्योग’ में रूपांतरित हो गया हैं।
और आध्यात्मिकता की हमारी प्यास की सबसे बड़ी कीमत बच्चे चुका रहे हैं, जो कहीं इस आश्रम में
तो किसी अन्य पैरिश/चर्च में यौन अत्याचारों के शिकार बन रहे हैं।

Interview of child labour in garment industry of Surat


Mohit (13 years)
Social Background
Mohit said: I am around 13 years of age. I belong from a Hindu Yadav (OBC) family of Motihari, Bihar. My father is a very small farmer and have ½ acre a small piece of agricultural land in my village. My mother, father two sisters and brother is dependent on this land. My father also works on other farmers land because our lands productivity is not sufficient for my family. Total earning of my father is not more than Rs 800-1000 pm. Now my father wants to marriage my elder sister. He is a chain smoker. Beeri is very dangerous for his health because he is a patient of Asthma. But no one can discuss with him at this topic. My grandfather was in same condition as my father is. My grandmother told me that my father was very antic in his childhood. At that time my grand father was a milk man. But now my family is too big in comparison of my grandfather’s family. My father has done very hard work for our study and food. But he never came out from the trap of moneylenders.
Forced to earn some money
He continues: When I was around 5 years, I started working with my father for other farmers. Some time my mother was also go with us. Our earning was not more than Rs 40 per day. You can understand it that this money was not sufficient for my family. So my father sent me here last year in September month with my cousin for some earning.
Working Condition
He said: Contractor of washing department of this company (Gulshan Prints Pvt. ltd ) knows my cousin. He is also a permanent resident of Motihari. So I got the job as a apprentice labour in this company. Presently my salary is Rs1000 pm. Contractor gives me Rs20 per day for food. There are also some unpaid apprentice workers (for approximately six month to one year). Their monthly salary is Rs.800-900. These children are living here in Surat with their parents. Some of such parents are also working in this factory. I am living with my cousin but some (5-6) migrant children lives at work place in factory. All migrant child workers wages are equal.
He said: I work 12 hours daily. But those child worker who are living in factory, works 12 hours to 15 hours daily. Their sleeping place is a corner of top floor of the factory. Actually this place is used for the dumping of the waste material. Except for taking food, normally these child workers never go outside of the factory. Basic amenities, such as light, ventilation, pure water etc is totally absent at their sleeping place. Toilets are very smelly and dirty. So they are living like slaves. Normally three- four Chapatis (Roti), onions, and salt are their food. They also suffer health-related problems. Cuts and injuries are very common in this factory, but contractor normally never provide us any medical treatment. Normally we use urine and kerosene in case of cuts. All of us are suffering from swelling of lower limbs and severe pain in the joints. Skin troubles including scabies and respiratory ailments are very common in between us.
He said: Some of my friends who are living in factory were many times beaten by some other contractors. Actually it is a normal routine behavior of contractors. Many of child workers have taken some loan of Rs. 500-1000, so they always feel fear from the side of contractor. These children suffer from psychological distress and are beaten and even tortured if they attempt to escape from the factory.
He continues: You can see bonded child labor practice in the carpet industry of Surat on large scale. A large number of children work as bonded laborers in the carpet industry. The vast majority come from the poorest part of Bihar, which is poorest state in India. In the bonded labor system, contractors give parents a cash advance or loan. The child is often taken far away to weave carpets in order to work off the family debt. The debt is rarely paid off and indebtedness may carry on for generations. The child is, in effect, an indentured servant with virtually no rights and no protections.
Medical treatment
He said: The factory places first aid kit on every factory floor. The factory has procedures for dealing with serious injuries that require medical treatment outside the factory. A register of accidents is kept and available. There are more than 500 contract worker and 20-30 child worker in this company. But all this facility is available only for very few 8-10 permanent workers. No ambulance room and medical and nursing staff are engaged by the factory. Many adult contract worker of my company are forced to work overtime during peak season. In this situation they work 36 hour. But they find O.T at single rate. Except permanent workers, all workers have no proof of employment. So we have no proof in case of death or any accident for complaints in labour department.
Always in dept
He said: We are searching water in desert. But it is totally depend on your luck that you will find water to save your life or will die. I came here to earn some money. But after every two –three month I become helpless to take some loan from contractor or from some other person. If I do not take loan, my father will force for it. So how you can imagine coming out from the trap of loan?
He continues: My cousin is very helping person. He always suggests me that I should not take loan from contractor. But it is not possible for him to help me every month. He is a contract worker in the same factory. His salary is Rs 5000 for 12 hours. I am working here because contractor has told me that after one or two year my salary will be doubled.
He said: Contractor had suggested to all child workers that we never tell about child worker practice in this factory to any one or any labour department official, otherwise you will not only loss your job but also salary. 
(Interview taken by Devendra Pratap mb: 09596833370, mail: devhills@gmail.com)

Interview of Trade Union leaders in Surat Mohan M. Dhabuwala


Ph no.(Off) 2426017
(R)2773045, Mb:9825150024
(Seccretary: Dimond & Cotton Textile Labour Union
Ex President: South Gujrat Productivity Council
Vice President: Dimond Ind. & Cotton Textile Credit Co-op. Society
M.D. : Yarn Ind Co- Op. Society
Director: Himalaya Cotton Yarn)
An overview of Surat city
He said: The city has a network of traders and agents dealing with yarns, processed and finished textile goods, petty manufacturers of looms and lathes, entrepreneurs dealing with production, processing, repairs and services of a variety of associated as well as diverse products. A large volume of the workforce, especially the ones toiling with machines, looms and lathes is from the city slums.
He said: Not only within the state of Gujarat but also at the all India level Surat has recorded
an impressive growth in its population especially during the last two and a half decades. Presently population of Surat is more than 50 lac.
He said: A large proportion of these workers are migrants located mainly in the slum pockets of the city's eastern half. More than 30 per cent of the city population lived in its slums.
He said: Hindus constituting 81 per cent followed by 18 per cent Muslims. Among others, a prominent group is that of the neo Buddhists migrated mainly from the neighboring regions in
Maharashtra. While 9 per cent of the households belong to Scheduled tribes and are migrants from specific districts in the eastern tribal belt of Gujarat, among the Hindus around 38 per cent belongs to lower and another 30 per cent to Scheduled caste groups. The Muslim population too is divided in terms of specific sects and orders among whom a large section has come from the adjoining district of Bharuch in Gujarat and the districts of Jalgaon and Dhule in Maharashtra.
Problem of Child labour and Bonded labour in Surat
He Said: Constitution of India strictly prohibits employment of children under the age of 14 years in factories or in other hazardous employment. We have a number of laws which prohibits employment of child labor for more than 100 yrs. In 1986, the Child Labor (Prohibition & Regulation) Act was formed. This act prohibits child labour activity in carpet weaving, cloth printing, dyeing, weaving, manufacture of matches, fireworks, explosives. These are hazardous occupations. The 1986 Act also limits child work for six hours between 8 a.m. and 7 p.m. with one day of rest per week, and provides penalties of imprisonment and fine up to 10,000 rupees for violations. For repeated offenses, imprisonment can be up to three years. But here in Surat you can see it very easily that most of such factories have employed a large number of children in their factories. This type of inhuman activity decreases the life of a child worker. I think it is a matter of state government but here state government is a not a responsible government. He said: The implementation of child labor legislation in India is ensured by labor inspectors. At the district level Labor inspectors are responsible for ensuring that no child below the stipulated age is employed. But now a day’s because of corruption, most of the Labour Inspectors have converted himself as a agent of factory owners. He said: The employer wants to make more profits with less labour cost, whereas the Worker wants to gain more wages. But the child worker does not know about the laws. Poor children work here because their parents are not in a condition to afford expenditure of their families. Greedy factory owners employ them because of cheap labour. He said: it is unfortunate that the problem of child labour exists to a large extent in our country. Surat is not an exception. In fact, child labour is the result of various ills in the society. Poverty and illiteracy are basic factors which are responsible for child labour practice in our country. He said: Most of the Children come here from the economically backward areas mostly from Bihar, UP, West Bengal Orissa and other States. These children are working in most pitiable conditions. Some of them are living in their work places, as they have no regular shelter. They work for long hours and are provided very low wages. Child workers who are working in Printing and dyeing factories never find Rs 2000-2500 pm for more than 12 hour duty. These children have no security in terms of their family or community and are therefore in a highly vulnerable position for exploitation. Those children, who have migrated here without their parents are living in factories in a very worst condition.
He said: The exact number of child workers in Surat's export industry is not known. Major export industries utilize child labor but it is very difficult to find them. Children are also exploited as bonded laborers, particularly in the carpet industry.
About the organization Shramjivi sevalaya
He said: You might have seen many poor street children, pale wearing dirty- half torn clothes, begging, searching the garbage, sleeping under street lights, eating the leftovers, running across the railway tracks or roads and dying. These children are huge social problem and they all preyto bad habits like smoking, intoxication and also tosex abuse and antim social activities. They are orphans but not all of them. Shramjivi has adopted 2900 such children from all over surat. We co- ordinate with government institutes, other organizations, schools and donorsworking for child welfare to provided these helpless children food, medicine, education and vocational training.Shramjivi stands for total abolition of child labour & is thriviling hard for rehabilation of child labour & street children through JIGAR CHILD WELFARE TRUST.
(Interview taken by Devendra Pratap 9719867313)