शुक्रवार, 27 सितंबर 2024

जम्मू-कश्मीर में जनता के पीछे चुनाव मैदान में विपक्ष

इस समय जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव चल रहा है। यहां तीन चरणों में हो रहे विधानसभा चुनाव में से दो चरण संपन्न हो गए हैं, जबकि तीसरे और अंतिम चरण के लिए एक अक्टूबर को मतदान होगा। इस चुनाव में जो प्रत्याशी जीतेंगे वे विधायक बनकर विधानसभा में पहुंचेंगे, लेकिन यहां की विधानसभा उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हिमाचल प्रदेश या अन्य किसी पूर्ण राज्य जैसी नहीं होगी, बल्कि दिल्ली की तरह होगी। वहां केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की सरकार के साथ क्या-क्या हुआ और अभी भी जनता द्वारा चुनी गई सरकार की क्या हालत है, यह पूरा देश देख रहा है। सरकार के सकारात्मक-नकारात्मक पक्ष तो हर राज्य में हैं, लेकिन यहां केंद्रीय सत्ता के हस्तक्षेप की बात हो रही है। यह हस्तक्षेप चाहे उपराज्यपाल के माध्यम से हो या केंद्रीय जांच एजेंसियों के। विरोधी

राजनीतिक पार्टी और मीडिया के हस्तक्षेप की भी बात हो सकती है, क्योंकि वह सत्तापक्ष के प्रति एक प्रतिकूल जनमानस तैयार करता है, लेकिन यहां हम केंद्रीय सत्ता के हस्तक्षेप तक ही खुद को सीमित रखेंगे। पुनः मुख्य प्रश्न पर लौटते हैं। जम्मू-कश्मीर में दस साल से विधानसभा चुनाव नहीं हुए थे। ऐसे में लोगों में चुनी हुई सरकार को लेकर उत्साह तो है, लेकिन उपरोक्त कारणों से यहां बड़ी संख्या में लोग चाहते हैं कि जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य  का दर्जा मिले। पूरे जम्मू-कश्मीर में इस समय यही सबसे बड़ा मुद्दा है।
भाजपा-पीडीपी का गठबंधन टूटने के बाद सारी ताकत राज्यपाल के पास चली गई थी। उसके बाद पांच अगस्त 2019 को केंद्र सरकार ने यहां से अनुच्छेद 370 और  35-ए को खत्म कर जम्मू-कश्मीर के दो टुकड़े कर दिए। जम्मू संभाग और कश्मीर संभाग को मिलाकर केंद्रशासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर और दूसरा कारगिल और लेह जिले वाला हिस्सा केंद्रशासित प्रदेश लद्दाख बना। 
यह चुनाव सत्तापक्ष के लिए यह अवसर है कि वह जनता के पास जाए और उसने जो कार्य किए हैं, उसे जनता के सामने रखे। वहीं, विपक्ष के पास भी यही सबसे बड़ा मौका है कि वह जनता जनार्दन को बताए कि वह सत्तापक्ष के पिछले कार्यकाल में जो-जो कार्य हुए, जो निर्णय लिए गए, जो कानून बने उसके बारे में उसकी क्या राय है। सत्तापक्ष की आलोचना के साथ उसके पास क्या बेहतर विकल्प है, इसके बारे में भी बताना विपक्ष का दायित्व होता है। विपक्ष को यह भी बताना होता है कि जब जनता सड़कों पर थी, तो वह कहां था। देखा जाए तो इस समय भले ही विपक्ष सत्तापक्ष पर कितने ही आरोप क्यों न लगाए, लेकिन यह सच्चाई है कि पिछले दस वर्षों में जितना भी स्पेस मिला जनता अपनी सामूहिक ताकत के बल पर सड़कों पर उतरी और उसका नेतृत्व करने के लिए अधिकांश बार राजनीतिक ताकत के रूप में विपक्ष की गैरमौजूदगी ही रही। यानी इस दौरान जनता नेतृत्व विहीनता की शिकार रही, जिसकी वजह से उसे अक्सर हारना भी पड़ा। इस समय विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा जम्मू और कश्मीर दोनों संभागों में पूर्ण राज्य की बहाली है। अनुच्छेद 370 की बहाली का मुद्दा खासकर कश्मीर तक ही सीमित है। दोनों संभागों में इन मुद्दों को लेकर विपक्ष आक्रामक दिख रहा है, लेकिन यह दोनों प्रमुख मुद्दे तो पिछले पांच साल से हैं, तो इन पांच वर्षों में विपक्ष ने इस पर कब बड़ा आंदोलन किया। कुछ प्रतीकात्मक धरना-प्रदर्शन को छोड़ दें तो आमतौर पर विपक्ष खामोश ही रहा। पाठकों को यह जानकार हास्यास्पद ही लगेगा कि कुछ विपक्षी दलों के प्रदर्शन भी अपने कार्यालय के सामने ही  होते थे। यहां तक कि महंगाई, बेरोजगारी, स्मार्ट मीटर, नहर के पानी, जलभराव, सड़कों की खस्ताहालत, अस्थायी सरकार कर्मचारियों को स्थायी करने की मांग जैसे तमाम मुद्दों पर जनता खामोश नहीं रही, लेकिन विपक्ष रस्मी विरोध से आगे बढ़कर किसी मुद्दे पर आंदोलन नहीं खड़ा कर पाया, जो उसके पक्ष में जनमानस का निर्माण करता। विपक्ष की कमजोरियां जनता को भी पता हैं। यह सब बताने का मकसद यही है कि जनता जिस तरह का विपक्ष चाहती है, वह उसके अनुरूप नहीं है। ऐसे में इस विधानसभा चुनाव में जनता का जो तबका विपक्ष के साथ दिख रहा है, उससे यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि वह विपक्ष के नेतृत्व को स्वीकार कर उसके पीछे चल रही है या उसका समर्थन कर रही है। हकीकत यह है कि विकल्पहीनता की वजह से ऐसा है। विपक्ष जनता के मुद्दों को हवा देकर उसका समर्थन हासिल करने का प्रयास कर रहा है। वहीं, सत्तापक्ष ने भी जनता से जो-जो वादे किए थे, उनमें से अधिकांश वादे पूरे करने में वह नाकाम साबित हुआ है। सीमावर्ती इलाकों में पाकिस्तानी गोलीबारी लगभग बंद हो गई है, यह उसके पक्ष में है, तो जम्मू संभाग में भी आतंकी गतिविधियां बढ़ना सवाल भी खड़े कर रहा है। अनुच्छेद 370 हटने से साठ के दशक में साफ-सफाई के लिए जम्मू-कश्मीर लाए गए वाल्मीकि समाज खुश हैं, क्योंकि अब वह यहां के स्थायी निवासी बन गए हैं। देश के विभाजन के समय पश्चिमी पाकिस्तान से जम्मू-कश्मीर आए लोगों में जो लोग कैंपों में रहे, वे अब उस समय उनको आवंटित जमीनों के मालिक बन गए हैं और चुनाव मतदान भी कर सकते हैं। इनमें बड़ी संख्या उनकी है, जो 1947 में शिविरों में नहीं ठहरे थे। अब वह भी जमीन की मांग कर रहे हैं। इसी तरह विभाजन के समय जब जम्मू-कश्मीर से पाकिस्तान गए लोगों की जिन मकानों में लोग कस्टोडियन विभाग के किरायेदार के रूप में रह रहे थे, अब केंद्र सरकार ने उन्हें मालिक बना दिया है। सत्तापक्ष को निश्चित ही इन सबका फायदा मिलेगा। स्मार्ट सिटी के नाम पर जम्मू और श्रीनगर में हुए विकास कार्य भी सत्तापक्ष गिना रहा है। कुलमिलाकर सत्तापक्ष के पास और भी बहुत से काम गिनाने के लिए हैं, लेकिन यह इतने नहीं हैं जो जनआकांक्षाओं की पूर्ति कर सकें। इसलिए विपक्ष के पास यहां मौका तो बहुत था, लेकिन हकीकत यही है कि वह जनता के पीछे रहकर चुनाव मैदान में है। उसकी भूमिका नेतृत्वकारी की नहीं है। ऐसे में कश्मीर संभाग और  उससे सटे इलाकों में जहां अनुच्छेद 370 और पूर्ण राज्य की बहाली का मुद्दा पांच साल से लगातार गर्म रहा, वहां तो विपक्ष को ज्यादा लाभ मिलना तय माना जा रहा है, लेकिन जम्मू संभाग में चिनाब बैली से आगे जम्मू तक, जहां जनता की चेतना के स्तर को अपने अनुकूल करने में विपक्ष ने खास काम नहीं किया, वहां वह जनता के पीछे रहने की रणनीति अपना रहा है। कश्मीर में इस बार निर्दलीय भी चालीस प्रतिशत से अधिक चुनाव मैदान में हैं। इसलिए सरकार किसकी बनेगी, इसके बारे में अभी कोई भी ठोस ढंग से कुछ नहीं कह सकता है। 

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