बुधवार, 26 जून 2013

कात्यायनी ने भेजा मानहानि का नोटिस

                                                      (नोटिस का सारसंक्षेप)
प्रति,
1. अजय प्रकाश, नई दिल्ली, 2. सत्येन्द्र कुमार, लखनऊ, 3. ओम प्रकाश सिन्हा, लखनऊ, 4. मुकुल श्रीवास्तव, गोरखपुर, 5. देवेन्द्र प्रताप, मेरठ (प्रतिवादीगण)


द्वारा,
1.    जन चेतना पुस्तक प्रतिष्ठान, सचिव, राम बाबू पाल, डी-68 निराला नगर, लखनऊ
2.    राहुल फाउण्डेशन, अध्यक्ष कात्यायनी, एमआईजी-135, राप्ती नगर गोरखपुर
3.    अरविन्द मेमोरियल ट्रस्ट, ट्रस्टी सत्यम वर्मा, 69 A -1 बाबा का पुरवा, लखनऊ
4.    कात्यायनी, पत्नी एसपी सिन्हा (शशि प्रकाश सिन्हा), 69 A -1 बाबा का पुरवा, लखनऊ
5.    राम बाबू पाल, पुत्र श्री बालगोविन्द पाल, 69 बाबा का पुरवा लखनऊ।
6.    सत्यम वर्मा पुत्र डॉ. एलबी वर्मा (लाल बहादुर वर्मा), c/o डी-68 निराला नगर, लखनऊ (वादीगण)

1.    मुवक्किल नं0-1, प्रगतिशील पुस्तक सोसाइटी, प्रगतिशील विचारों के प्रचार हेतु एवं पूंजीवादी स्वार्थ, लालच की विचारधारा के विरोध में पुस्तकों का प्रचार-प्रसार।
2.    मुवक्किल नं0-2, राहुल सांकृत्यायन से प्रेरित कार्यो को आगे बढ़ाने की संस्था एवं प्रकाशन कार्य।
3.    मुवक्किल नं0-3, अरविन्द सिंह के विचारों के लिये ट्रस्ट एवं अरविन्द मार्क्सवादी  अध्ययन संस्थान के द्वारा बौद्धिक कार्य।
4.    मुवक्किल नं0-4, बड़ी कवियत्री, बड़ी पत्रकार एवं चर्चित कार्यकर्ता
5.    मुवक्किल नं0-5, महान कलाकार, बड़े पत्रकार, अनुराग बाल ट्रस्ट के अध्यक्ष
6.    मुवक्किल नं0-6, वरिष्ठ पत्रकार, महान अनुवादक, अध्यक्ष, जनचेतना सोसाइटी
उपरोक्त तीनों व्यक्ति निःस्वार्थ भाव से समाज सेवा के काम में लगे हैं, अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ एवं सम्मानित बुद्धिजीवी है और समाज में उन्हें बहुत सम्मान प्राप्त है।
प्रतिवादी 1,2,3,4, 5 भी पहले हमारे साथ जुड़े थे लेकिन उनकी विश्वसनीयता सामान्य से भी नीचे थी। 2,3,4 को उनके नकारात्मक सोच एवं र्काो के कारण संस्था से निकाल दिया गया और 2 नं0 खुद ही निकल गये।
इन चारों लोगों ने मिलकर हमारे खिलाफ योजनाबद्ध तरीके से कुत्सा प्रचार करना शुरू किया, इसमें जन ज्वार डाट काम जो 1 नं0 के द्वारा संचालित किया जाता है, उसकी सहयोगी भूमिका थी। इससे हमारे मुवक्किलों के सम्मान की अपूर्णीय क्षति हुयी। कुत्सा प्रचार की झूठी आरोप निम्न हैः-
1.    कि हमारे मुवक्किल समाज कार्य के नाम पर धंधा करते हैं।
2.    कार्यकर्ताओं को बंधुआ मजदूर की तरह शोषण करते हैं।
3.    हमारे मुवक्कित 4,5,6 इस धंधे में मुख्य मुनाफा कमाते हैं।
4.    हमारे मुवक्किलों ने अरविन्द सिंह की हत्या की, जबकि उनकी मृत्यु बीमारी से हुयी।
5.    मुवक्किलों की संस्था को एक अंजाने/काल्पनिक संगठन क्रांतिकारी कम्युनिष्ट लोग से जोड़ा।
6.    हमारे मुवक्किलों को आपराधिक गिरोह कहा, जनता की सम्पत्ति लूटने का आरोप लगाया और एक युवा व्यक्ति को अपने पिता से धन उगाही करवाया ताकि ये लोग ऐश का जीवन जी सकें।
7.    परिवारवाद का आरोप लगाया।
8.    अपने से अलग विचार वाले कार्यकर्ताओं के खिलाफ झूठे पुलिस केस कराये।
9.    आम जनता की सम्पति लूटने, धोखाधड़ी करने का आरोप लगाया।
10.    पैसा इकट्ठा करने के उद्देश्य से कार्यकर्ताओं के साथ झूठ बोला गया, धोखाधड़ी की गयी और विश्वासघात किया।
11.    धन उगाही के लिये युवाओं को उनके माता पिता के खिलाफ उकसाया गया। एन0जी0ओ0, सरकारी संस्थाओं और पूंजीपतियों से भारी पैमाने पर पैसा लिया गया।
12.    कार्य कर्ताओं को नौकर समझा गया और उन्हें सेल्समैन बनाया गया।
13.    संस्थाओं को बदनाम करने के उद्देश्य से उन्हें एक काल्पनिक संगठन ‘क्रांतिकारी कम्यूनिष्ट लीग’ से जुड़ा बताया।
14.    कार्यकर्ताओं को दम घोंटू माहौल में अवसादग्रस्त बनाने का आरोप।
15.    अवैतनिक कर्मचारियों द्वारा धनउगाही करने का आरोप।
16.    अरविन्द सिंह के नाम पर धन उगाही का आरोप।
17.    लोगों के घर और संपत्ति हड़पने का आरोप।
18.    अरविन्द सिंह, शालिनी, कमला पाण्डे, विश्वनाथ मिश्र की मृत्यु के जिम्मेदार इन लोगों को बताया।
19.    आपराधिक गिरोह संचालित करने का आरोप।
(¬ये आरोप जनज्वार डाट काम, भंडास 4 मीडिया डाट काम, 100फ्लावर.काम और क्रांति की नटवर गीरी पुस्तिका से लिये गये)
    उक्त ब्लागों के सावधानी पूर्ण अध्ययन से यह स्पष्ट है कि हमारे मुवक्किलों 4,5,6 को निजी तौर पर और 1,2,3 सामाजिक संस्थाओं को जानबूझकर क्षति पहुंचाने के ध्येय से झूठी, अनर्गल बातें लिखी गई है। हमारे मुवक्किल जिनकी बहुत अच्छी सामाजिक छवि है, उसे बहुत नुकसान पहुंचा और उन्हें विकास करने और आगे बढ़ने में रूकावट आयी।
प्रतिवादी नं0-1, जो जनज्वार का संपादन करते हैं, चाहते तो इस कुत्सा प्रचार को नियंत्रित कर सकते थे, लेकिन जानबूझकर इस झूठे अनर्गल बातों को प्रचारित किया। हालाकि हमारे मुवक्किलयों की सामाजिक हैसियत बेहिसाब हे, फिर भी यदि बहुत उदारता पूर्वक मूल्यांकन किया जाय तो यह प्रति मुवक्किल 25 लाख रूपये होती है। प्रतिवादी नं0 1 से 4 तक इस कुत्सा प्रचार में शामिल है, वे इस नोटिस को पाने के एक सप्ताह के भीतर इस रकम का भुगतान करें, नहीं तो कोर्ट के माध्यम से वसूली की जायेगी, और उन्हें उचित सजा दिलवाया जायेगा।
    इस रकम के भुगतान के साथ प्रतिवादीगण कुत्सा प्रचार का काम तुरन्त बंद करें और हमारे मुवक्किलों से क्षमा याचना करें, और उसे समाचार पत्रों में प्रकाशित करवायें, नहीं तो हम न्यायालय में इस क्षतिपूर्ति के लिये जायेंगे और प्रतिवादियों को दण्डित करवायेंगे।
भवदीय
(अनूप गुरूनानी)
एडवोकेट,लखनऊ

महान कवियित्री कात्यायनी का यह नोटिस यहाँ भी प्रकाशित है-
http://www.bahujanindia.in/index.php?option=com_content&view=article&id=14928:2013-06-27-03-15-00&catid=138:2011-11-30-09-53-31&Itemid=543 

http://trends.raftaar.in/Katyayani/Religion/Hinduism/Search

बादाम मज़दूरों ने निकाली ‘मज़दूर संघर्ष रैली’

नई दिल्ली, 23 जून,2013। करावल नगर में बादाम मज़दूरों ने हड़ताल के पाँचवे दिन रविवार को करावल नगर मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में ‘मज़दूर संघर्ष रैली’ निकाली। रैली में बादाम मज़दूरों के साथ अन्य पेशों के मज़दूर भी बड़ी संख्या में थे। करीब हज़ार की संख्या में मज़दूर हड़ताल स्थल से क्षेत्रिय विधायक मोहनसिंह बिष्ट के कार्यालय पर गये। कार्यालय पर न तो विधायक मिले और न ही मज़दूरों का माँगपत्रक लेने वाला कोई अन्य था। जबकि विधयक को इस सम्बन्ध् में तीन दिन पहले ही सूचित कर दिया गया था। मज़दूरों ने कार्यालय के सामने ही अपनी सभा की। करावल नगर मज़दूर यूनियन के नवीन ने बताया कि करावल नगर क्षेत्र के बादाम उद्योग में काम करने वाले मज़दूरों के हालात बेहद दयनीय है। अध्कितर महिला मज़दूर ही मशीन द्वारा बादाम का छिलका टूटने के बाद इसकी सपफाई का काम करती है। मज़दूरों को न तो न्यूनतम मज़दूरी मिलती है और न ही काम के घण्टों की कोई सीमा होती है। स्वास्थ्य और सुरक्षा की बात ही क्या की जाये। इन सभी सवालों के लेकर ही बादाम मज़दूरों ने 19 जून से हड़ताल की शुरुआत की थी। किन्तु अभी तक उनकी जायज माँगों पर कोई सुनवाई नहीं हुई है। स्त्री मज़दूर संगठन की बेबी ने कहा कि यह बादाम उद्योग कई करोड़ रुपयों की आमदनी वाला उद्योग है। बादाम का यह कारोबार वैश्विक असेम्बली लाइन का एक प्रत्यक्ष उदाहरण है। जिसका एक तार कैलिफोर्निया, आस्टेलिया से लेकर खारी बावली के व्यापारियों तक जुड़ा है जहाँ से ये मुम्बई और अहमदाबाद के तटों पर जहाजों से आता है, और दूसरा तार खारी बावली से होता हुआ, करावल नगर की संकरी-अंधेरी गलियों तक पहुँचता है जहां 60 से ज्यादा बादाम फैक्टरियों में इसे छिलका तोड़ने, साफ करने और पुनः पैक किये जाने के बाद घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय दोनों ही बाज़ारों में बिक्री के लिए भेज दिया जाता है। केएमयू के सनी ने बताया कि यहाँ हजारों की संख्या में स्त्री मजदूर भंयकर शोषण का शिकार हो रही हैं। बादाम पफैक्टरी बिना किसी पंजीकरण के चलती हैं जिनमें न तो मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी तय है, न ही कोई पहचान कार्ड और न ही कोई सुरक्षा उपकरण। करावल नगर मजदूर यूनियन कई बार उप-श्रमआयुक्त के पास फैक्टरी एक्ट लागू करने की लिखित शिकायत दर्ज करा चुकी। लेकिन श्रम कार्यालय द्वारा कोई सुनवाई न होने पर ही मज़दूरों ने संघर्ष की शुरुआत की है। हड़ताल के पाँचवे दिन मज़दूर संघर्ष पर डटे हुए है।
नवीन, सचिव, करावल नगर मज़दूर यूनियन

मंगलवार, 18 जून 2013

शोषण का पहिया

दिल्ली: गाँति शांति प्रतिष्ठान,दिल्ली में मारूति सुजुकी इंडिया लिमिटेड में मज़दूर संघर्ष और उनके दमन पर जारी पीयूडीआर की रिपोर्ट 'शोषण का पहिया:मारूति सुजुकी इंडिया लिमिटेड में मज़दूर संघर्ष और अधिकारों का हनन (जून 2013)' पर 17 जून को एक सार्वजनिक बैठक आयोजित की गयी।
यह रिपोर्ट 'शोषण का पहिया:मारूति सुजुकी इंडिया लिमिटेड में मज़दूर संघर्ष और अधिकारों का हनन' मानेसर में स्थित मारूति यूनिट में 18 जुलाई 2012 को हुई हिंसा की घटना के बाद पीयूडीआर द्वारा की गई जाँच-पड़ताल का नतीजा है। इस घटना को हुए तकरीबन एक साल बीत चुका है, जिसमें एक एचआर मैनेजर की मौत हो गई थी और कुछ अन्य मैनेजर और मज़दूर घायल हो गए थे। बाद के महीनों में पुलिस ने इस घटना की काफी गलत तरीके से जाँच-पड़ताल करते हुए बड़ी संख्या में मजदूरों और उनके परिवारों के सदस्यों को प्र्रताड़ित किया। इस जाँच के कारण मजदूरों को गिरफ़्तार करके जेलों में बंद कर दिया गया और आज तक बहुत से मजदूरों को जमानत भी नहीं मिली है। पुलिस की जाँच के पूरा होने के पहले ही कंपनी ने सैकड़ों मजूदरों पर 18 जुलाई की घटना में शामिल होने का आरोप लगाते हुए उन्हें नौकरी से बर्खास्त कर दिया। पंजीकृत यूनियन को यूनिट के भीतर काम करने की इजाज़त नहीं दी गई है और यूनिट के बाहर पुलिस और राज्य के अधिकारियों द्वारा लगातर इसकी गतिविधियों को दबाया जा रहा है। इसी पृष्ठभूमि में हम इस घटना से जुड़े तथ्यों की व्यापक जाँच-पड़ताल करने के बाद, घटना और इसके गहरे संदर्भ और प्रभावों के बारे में यह रिपोर्ट जारी कर रहे हैं। इसके पहले पीयूडीआर ने मारूति में मजदूरों के संघर्ष के बारे में दो अन्य रिपोर्ट भी प्रकाशित किया था, जिनके शीर्षक थे: पूँजी का पहिया (2001) और बेकाबू सरमायादार (2007)। इन दोनों रिपोर्टो मारूति संघर्ष के महत्त्वपूर्ण घटनाक्रमों का विश्लेषण दर्ज किया गया है। इस रिपार्ट पर जाँच के दौरान हम मज़दूरों (ठेका, स्थाई और बर्खास्त), यूनियन के नेताओं और उनके वकील से मिले। हमने गुड़गाँव के श्रम विभाग के अधिकारियों और विभिन्न पुलिस अधिकारियां से भी बातचीत की। अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद हम प्रबंधन से नहीं मिल पाये।
पीयूडीआर की रिपोर्ट में दर्ज जांच के नतीजे इस प्रकार हैं:
 1.स्वतंत्र जाँच का तमाशा
18 जुलाई 2012 को मारूति के मानेसर यूनिट में हुए घटनाक्रम के बारे मंे अभी बहुत ज्यादा भ्रम और विरोधभासक की स्थिति है। इस घटना के असल गुनाहगार तभी पकड़े जा सकते हैं, जब एक ऐसी एजंसी से जाँच कराई जाए जो प्रबंधन से प्रभावित न हो। हरियाणा पुलिस घटना के बाद से ही लगातार प्रबंधन के पक्ष में काम कर रही है। इसलिए इस काम के लिए उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। इस घटना के स्वतंत्र जाँच न होने के कारण न्याय की पूरी तरह उपेक्षा हुई है। पीयूडीआर इस बात पर ज़ोर देना चाहते हैं कि वैज्ञानिक आधार पर जुटाए गए प्रमाणों की बजाय पूर्व-निर्धारित अवधरणाओं के आधार पर जाँच और मुकदमा चलाने का अर्थ यह होगा कि अवनीश देव की हत्या के लिए जिम्मेदार लोग आराम से बच जाएँगे और निर्दोष लोगों का सजा मिलेगी। पुलिस द्वारा दायर आरोप-पत्र और गिरफ़्तार मजूदरों की ज़मानत नकारने से यह बात स्पष्ट होती है कि यह मुकदमा इसी दिशा में जा रहा है। यह असल में न्याय के साथ खिलवाड़ होगा और इससे मजूदरों और अवनीश देव- दोनों को ही न्याय नहीं मिलेगा।
2. मजदूरों को प्रताड़ित करने में प्रबंधन, प्रशासन और पुलिस की मिलीभगत
कानून के शासन की उपेक्षा करते हुए, जाँच के खत्म होने के बहुत पहले ही इस घटना की पूरी जिम्मेदारी मज़दूरों पर डाल दी गई। सिर्फ प्रबंधन ने ही घटना के लिए मजदूरों को जिम्मेदार नहीं ठहराया, बल्कि पुलिस और प्रशासन ने भी यही किया। 18 जुलाई की घटना के बाद पुलिस और प्रबंधन के गठजोड़ का पूरी तरह से पर्दाफाश हो गया। यह कोई संयोग नहीं हो सकता है कि पुलिस द्वारा 500-600 ‘अज्ञात आरोपियों’ के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज़ की गई और कंपनी द्वारा 546 मजदूरों को 18 जुलाई की हिंसक घटना के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए बर्खास्त कर दिया गया। इससे यह पता चलता है कि पुलिस कितने ध्यान से कपंनी के हितों की सुरक्षा कर रही है।
पुलिस ने पहले से ही यह सोच बना लिया कि दोषी कौन है, और घटना के बाद इसी सोच के आधार पर कार्यवाई की। पुलिस ने मनमाने तरीके से, बगैर किसी जाँच के सैकड़ों मज़दूरों को गिरफ़्तार कर लिया। उसने प्रबंधन द्वारा दी गई सूची के आधार पर यह गिरफ़्तारी की। प्रबंधन ने अपनी सूची में उन मजदूरों को निशाना बनाया, जो ज़्यादा मुखर थे और यूनियन में सक्रिय थे। गिरफ़्तार मजदूरों को क्रूर यातना दी गई। इसमंे हिरासत और गिरफ़्तारी से संबंधित सभी संवैधानिक मानकों का उल्लंघन किया गया और मजदूरांे के परिवार के सदस्यों को प्रताड़ित किया गया। सिर्फ़ इतना ही नहीं हुआ, बल्कि पुलिस लगातार मजदूरों को धमकी देती रही और बर्खास्त तथा अन्य मजूदरों के संघर्ष को निशाना बनाती रही है। पुलिस अपनी इन कार्रवाईयों द्वारा मजदूरों के वैध विरोध को खामोश करने और उसे जुर्म मंें बदलने की कोशिश की है (देखें अध्याय 4)। ऐसा लगता है कि इस मकसद से इतने बड़े पैमाने पर पुलिस ने कार्रवाई की ताकि भविष्य में ये मजदूर और मानेसर और गुड़गाँव इंडस्ट्रियल एरिया के दूसरे मजदूर आंदोलन करने की हिम्मत न जुटा पाएँ। हाल में, 18 मई 2013 को हरियाणा सरकार ने कैथल में सीआरपीसी की धारा 144 लगा दी और शांतिपूर्ण तरीक से विरोध कर रहे 150 मजदूरों को गिरफ़्तार कर लिया। ये मजदूर पिछले 24 मार्च से शांतिपूर्ण विरोध कर रहे थे और उनकी यह माँग थी कि गिरफ़्तार मजूदरों को रिहा किया जाए और बर्खास्त मजदूरों को फिर से काम पर बहाल किया जाए।
पुलिस के प्रबंधन के साथ मिलीभगत का एक अन्य उदाहरण यह है कि जाँच-पड़ताल के दौरान इसने प्रबंधन की लापरवाहियों की तरफ बिल्कुल ही ध्यान नहीं दिया। प्रबंधन ने कई तथ्यों को नज़रअंदाज़ किया -जैसे कि 18 जुलाई की हिंसक घटना में मजदूर भी घायल हुए थे, यूनिट के भीतर बाउंसर मौजूद थे, या फिर यह महŸवपूर्ण तथ्य कि मजदूर हमेशा कि अवनीश देव अपना हमदर्द मानते थें। असल में, मजदूर ही घटना के स्वतंत्र जाँच की माँग करते रहे हैं और राज्य तथा केन्द्र सरकार ने इस माँग की उपेक्षा की है। 
3. मारूति में अनुचित श्रम व्यवहारों और मजदूरों के संघर्ष का इतिहास
इस घटना को इसके पहले हुई घटनाओं की लंबी श्रृंखला के संदर्भ में देखने की आवश्यकता है। मानेसर यूनिट के भीतर प्रबंधन और मजदूरों के बीच लगातार तनाव और टकराव की स्थिति रही है। मजदूर अपना यूनियन पंजीकृत कराने और काम की अमानवीय स्थितियों पर ध्यान दिलाने की भी लगातार संघर्ष करते रहे हैं। सितम्बर 2011 को मानेसर यूनिट में मारूति प्रबंधन ने यह शर्त रखी कि ‘अच्छे आचरण’ के एक शपथ पत्र (अंडरटेकिंग) पर हस्ताक्षर करने के बाद ही मजदूर प्लांट में काम करने के लिए आ सकते हैं। इस अंडरटेकिंग ने मजदूरों के कानूनी हड़ताल करने का अधिकार छीन लिया। इंडस्ट्रियल डिस्प्युट एक्ट (25टी, 25यू, पाँचवी अनुसूची से जोड़कर पढ़ने पर) से उन्हें इस अधिकार की गारंटी मिली है। इसका अर्थ यह भी है कि इंडस्ट्रियल डिस्प्युट ऐक्ट की पाँचवी अनुसूची के सेक्शन 8 के मुताबिक मजदूरों के साथ गलत बरताव हो रहा है (देखें अध्याय 3)।
अन्य कारपोरेटों की तरह ही मारूति ने भी उत्पादन लागत को घटाने और मुनाफ़े को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने तथा दूसरी कंपनियों से होड़ करने पर ज्यादा जोर दिया है। पर यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि लगभग अन्य सभी आटोमोबाइल कंपनियों की तुलना में मारूति अपने मजूदरों पर सबसे कम खर्च करती है। इसके अलावा, अपने मजदूरों से ज्यादा-से-ज्यादा काम लेने के लिए कंपनी ने कई तरीके भी ईजाद किए हैं। इसलिए मारूति में इसकी क्षमता से बहुत ज्यादा उत्पादन सामथ्र्य (प्रोडक्शन कैपेबिलिटी) और लक्ष्य तय किए जाते हैं। अर्थात् कंपनी की उत्पादन सामथ्र्य 15.5 लाख यूनिट प्रति वर्ष है, जबकि इसमें 12.6 लाख यूनिट प्रति वर्ष उत्पादन करने का सामथ्र्य ही है (एनुअल रिपोर्ट, मारूति सुजुकी इंडिया लिमिटेड, 2011-12)। यहाँ मजदूरों को रोबोट की तरह साढ़े आठ घंटे काम करना पड़ता है। उन्हें खाना खाने के लिए 30 मिनट का अवकाश मिलता है और चाय पीने के लिए दो बार 7-7 मिनट का अवकाश मिलता है। पिछले कई वर्षों से मजदूरों को अपना शिफ्ट शुरू होने के 15 मिनट पहले रिपोर्ट करना होता है और उन्हें हर रोज अपना शिफ्ट खत्म होने के 15 मिनट बाद भी काम करना होता है। इस काम के लिए उन्हंे कोई अतिरिक्त पैसा नहीं मिलता है। इसके अलावा, यह छुट्टी लेने का नियम भी काफ़ी सख्त है और इसका पूरा रेकार्ड वेतन से जुड़ा हुआ है। छुट्टी लेने पर मजदूरों के वेतन में कटौती होती है। इससे मारूति का काम लगातार चलता रहता है, लेकिन इससे मारूति के मजदूरों पर दबाव बहुत ज्यादा बढ़ गया है।
छुट्टी लेने के कारण वेतन में होने वाले कटौती मारूति मज़दूरों के वेतन के इंसेंटिव से जुड़े भाग से की जाती है, जो ‘प्रोडक्शन-परफार्मेंस-रिवार्ड स्कीम’ से जुड़ा हुआ है। एक स्थायी मजदूर द्वारा, अपने सुपरवाइजर की इजाजत से ली जाने वाली एकमात्र छुट्टी से भी उसे 1200 रूपये से 1500 रूपये तक का नुकसान हो सकता है। 18 जुलाई 2012 की घटना से पहले और उसके बाद भी वेतन का एक हिस्सा फ़िक्स रहा है और इंसेंटिव वेतन के रूप में दिया जाने वाला एक प्रमुख घटक उत्पादन, मुनाफा और छुट्टी के रेकार्ड से जुड़ा होता है, जिससे मजदूरों को हर महीने एक सी तनख्वाह नहीं मिलती, बल्कि उसमें अंतर होता है। इंसेंटिव से जुड़े वेतन के मानक मनमाने तरीके से तय किए गए  और मारूति के मानेसर प्लांट के प्रबंधन ने इसमें मनमाने तरीके से बदलाव भी किया है (देखें अध्याय 2 और 3)।
मारूति प्रबंधन, ख़ास तौर पर मानेसर प्लांट के प्रबंधन ने नियमित काम के लिए भी अस्थायी और ठेका मजदूरों के उपयोग को एक नियम जैसा बना लिया है। श्रम विभाग के आँकड़ों के अनुसार जुलाई 2012 में मानेसर में 25 प्रतिशत से भी कम मजदूर स्थायी थे। इन मजदूरों को सिर्फ़ उसी दिन के लिए पैसा दिया जाता है, जिस दिन वे काम करते हैं (अर्थात् हर महीने 26 दिन) और उन्हें स्थायी मजदूरों जितना काम करने के बावजूद उनसे कम पैसा दिया जाता है। इससे सिर्फ़ कंपनी के खर्च में ही कटौती नहीं होती है, बल्कि इस नीति से कंपनी प्रबंधन को ऐसे मज़दूर मिल जाते हैं जो प्रबंधन के सामने बहुत कमजोर, अयुाक्षित और बेआवाज होते हैं। इस बात की बहुत कम संभावना होती है कि वे मुखर होकर अपने अधिकारों की माँग करेंगे। 18 जुलाई की घटना के बाद कंपनी ने यह घोषणा की कि वह अपने मजदूरों का नियमितिकरण (रेगुरलराइजेशन) करेगी। लेकिन अभी यह घोषणा लागू नहीं हुई है (देखें अध्याय 2)।
मारूति प्रबंधन ने मजदूरों को संगठित होने से भी रोकने की पुरजोर कोशिश की है और इस तरह उसने उनके अधिकारों का उल्लंघन किया है। मारूति प्रबंधन द्वारा मजदूरों को अपना यूनियन बनाने की इजाज़त न देना इंडियन ट्रेड यूनियन ऐक्ट (1926) का उल्लंघन है। 2011 के मध्य से मज़दूरों का संघर्ष बहुत ज्यादा बढ़ जाने से सक्रिय मज़दूरों को अपना निशाना बनाया है। उसने उन्हें निलंबित करने, बर्खास्त करने और उनके खिलाफ झूठे मुकदमे दायर करने की रणनीति अपनाई है। एक बार यूनियन के रजिस्टर हो जाने के बाद इसके सदस्यों और समन्वयकों को भी इसी तरह की या इससे भी बुरी प्रताड़ना का सामना करना पड़ा। यूनियन के सभी नेताओं और इसके सक्रिय सदस्यों को 18 जुलाई की घटना में फँसा दिया गया है इससे यूनियन पूरी तरह से ठप्प पड़ गया है। इससे मज़दूरों की स्थिति काफ़ी कमजोर हो गई है और उनके पास प्रबंधन से समझौता-वार्ता करने का कोई रास्ता नहीं बचा है। बाद में, जैसा कि उल्लेख किया जा चुका है, कंपनी ने बहुत से सक्रिय मजदूरों को नौकरी से निकाल दिया क्योंकि कंपनी इन्हें 18 जुलाई की घटना के लिए जिम्मेदार मानती है। यूनिट से यूनियन को ज़बर्दस्ती निकालने के बाद कंपनी अब मजदूरों के मुद्दों पर ध्यान देने का दिखावा कर रही है। इसके लिए इसने एक ‘शिकायत समिति’ (ग्रिवांस कमिटी) का गठन किया है और मजदूरों को इसका भाग बनने के लिए मजबूर किया है।कानूनी रूप से पंजीकृत यूनियन (एम.एस.डब्लू.यू) को, जिसके सदस्य लगातार मजदूरों के मुद्दों को उठा रहे हैं, यूनिट के भीतर काम करने की इजाजत नहीं दी गई है।
मजदूरों को यूनियन बनाने के अधिकार से वंचित रखने के लिए हरियाणा के श्रम विभाग ने प्रबंधन के मिलीभगत करके काम किया है। अगस्त 2011 में इसने मजदूरों के रजिस्ट्रेशन के आवेदन को तकनीकी आधारों का हवाला देकर लटका कर रखा। देखा जाए तो, मजदूरों द्वारा 3 जून 2011 को पंजीकरण के लिए दिए गए आवेदन पत्र के बाद उनको लगातार संघर्ष करना पड़ा और इसके कारण 1 मार्च 2012 को यूनियन का पंजीकरण हुआ। इसके अलावा, ऐसा लगता है कि श्रम विभाग ने कभी भी मारूति के श्रम संबंधी विवादों में मजदूरों की मदद के लिए हस्तक्षेप नहीं किया। जब 2011 के तालाबंदी को हड़ताल घोषित करते हुए प्रबंधन ने मजदूरों के वेतन में कटौती करने की घोषणा की थी, या फिर जब प्रबंधन ने मजदूरों की माँग-पत्र पर कार्रवाई नहीं की तो श्रम विभाग ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया। इसने प्रबंधन के दोहरे और गलत श्रम व्यवहारों पर या स्थायी कामों के लिए ठेका मजदूरों के उपयोग पर सवाल खड़े नहीं किए (देखें अध्याय तीन)।
मारूति के मानेसर यूनिट में मजूदरों द्वारा हाल में किए संघर्ष की एक प्रमुख विशेषता यह रही है कि इसमें स्थायी और ठेका मजदूरों के बीच अभूतपूर्व एकता रही है। संघर्ष की शुरूआत से ही ठेका मजदूरों का नियमितिकरण एक प्रमुख मुद्दा रहा है। एम.एस.डब्लू.यू. के बैनर तले फिर से संगठित हुए संघर्ष में शामिल मजदूरों में स्थायी और ठेका मजदूर दोनों ही हैं। 18 जुलाई की घटना के लिए दोषी ठहाराये गए और जेल में बंद मजदूरों में ठेका मजदूर भी शामिल हैं।
मारूति कंपनी या इसकी कार मारूति की कहानी को असाधारण नहीं बनाती है। असल में, प्रबंधन और पुलिस के क्रूर दमन और हर स्तर पर श्रम विभाग तथा न्यायपालिका द्वारा इन्हें राहत देने में नाकामी के बावजूद मजदूरों का असाधारण संघर्ष इसे एक असाधारण कहानी बनाती है। सबसे बड़ी बात यह है कि मजदूरों ने अपना यूनियन बनाने के राजनीतिक अधिकार के लिए लगातार लड़ाई लड़ी है। उन्होने अपने संघर्ष में यूनियन के भीतर लोकतांत्रिक संरचनाएँ बनाने पर भी ध्यान दिया है और इन संरचनाओं के माध्यम से इस अत्यंत शोषणकारी श्रम व्यवस्था के खिलाफ अपनी शिकायतें अभिव्यक्त करने का तरीका खोजा है।
 पीयूडीआर माँग
उस घटना की एक निष्पक्ष और स्वतंत्र न्यायिक जाँच की जाए जिसके परिणाम स्वरूप अवनीश देव की जान गई। जाँच के लिए दोनों पक्षों की सहमति से जज की नियुक्ति हो।18 जुलाई की घटना के संबंध हरियाणा की पुलिस द्वारा की गई तहकीकात को न मान कर, फिर से तहकीकात के लिए एसआईटी नियुक्त की जाए, जिसमें राज्य के बाहर की पुलिस रखी जाए।18 जुलाई की घटना मंे वहाँ उपस्थित बांउसरों की भूमिका की जाँच की जाए और उनके नामों की सूची उजागर की जाए।गिरफ्तारियों, हिरासत में यातनाएं देने और अभियुक्तों के परिवारों को परेशान करने के संबंध में कानूनी दिशानिर्देशों के उल्लंघन के लिए ज़िम्मेदार हरियाणा पुलिसकर्मियों की पहचान की जाए और उनके खिलाफ आपराधिक कार्यवाही की जाए।
-घटना के बाद, घटना में शामिल होने के ठोस सबूतों के न होने पर भी काम से निकाले गए सभी मज़दूरों को काम पर वापस लिया जाए।श्रम विभाग की भूमिका की जाँच हो और उन अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही की जाए जिन्होंने श्रम कानूनों से संबंधित अपनी ज़िम्मेदारियाँ पूरी नहीं की हैं।
18 जुलाई की घटना के संबंध में गिरफ़्तार सभी मज़दूरों को तुरंत ज़मानत दी जाए। घटना की जाँच जल्दी पूरी की जाए और उसके लिए ज़िम्मेदार लोगों को न छोड़ा जाए।
-अपनी स्वतंत्र यूनियन बनाने के मज़ूदरों के अधिकार को मारूति में पुनःस्थापित किया जाए। एम.एस.डब्लू.यू को, जो कि मानेसर यूनिट की कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त यूनियन है, फैक्टरी के अंदर काम करने दिया जाए।
- मारूति की गुड़गाँव और मानेसर यूनिटों में काम कर रहे सभी ठेका मज़दूरों को नियमित किया जाए और नियमित काम के लिए ठेके पर मज़दूर रखे जाने की गैरकानूनी प्रथा पर रोक लगाई जाए।
-कानून में निहित मज़दूरों के अधिकारों को मारूति में तुरंत सुनिश्चित किया जाए।
डी. मंजीत
आशीष गुप्ता
सचिव, पीयूडीआर


रविवार, 16 जून 2013

बौखलाई उत्तराखण्ड सरकार ने लगाया धारा 144

                                     उत्तराखण्ड श्रममंत्री आवास पर मज़दूर पंचायत
ऊधम सिंह नगर : 16 जून की मज़दूर पंचायत से बौखलाई उत्तराखण्ड सरकार के निर्देश पर ऊधम सिंह नगर जिला प्रशासन ने डीएम कार्यालय सहित पूरे शहर में धारा 144 लगा दिया और जिला मुख्यालय पर मज़दूरों के क्रमिक अनशन व धरने पर रोक लगा दी। यही नहीं, पुलिस ने पूर्व घोषित मोचें की बैठक भी नहीं होने दी। इससे पूर्व कल महापंचायत के दौरान प्रदेश के श्रममंत्री ने मोर्चे के प्रतिनिधिमण्डल को धमकियां दी थीं और उसी वक्त रुद्रपुर के उपजिलाधिकारी को फोन करके कड़ी कार्रवाई के निर्देश दिए थे। इस बीच, “सिडकुल मज़दूर संयुक्त मोर्चा” ने सरकार की इस कार्यवाही पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए ताजा हालात में नयी रणनीत के तहत आन्दोलन को आगे बढ़ाने की तैयारी में लग गया है। उल्लेखनिय है कि 16 जून को पुलिस की बेरीकेटिंग पर तीखे झडप और बारिश के बौछारों को झेलते हुए पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के तहत हल्दूचैड़ (नैनीताल) स्थित प्रदेश के श्रम मंत्री हरीश दुर्गापाल के आवास के निकट मज़दूर पंचायत सपन्न हुआ। इसमें ‘‘सिडकुल मज़दूर संयुक्त मोर्चा’’ के बैनर तले विभिन्न यूनियनों-संगठनों के लगभग चार-पाँच सौ मज़दूरों ने पूरे जोश-खरोश के साथ भागेदारी निभाई थी। पंचायत का आह्वान असाल फैक्ट्री, पंतनगर  के मज़दूरों को न्याय दिलाने और औद्योगिक क्षेत्र सिडकुल में श्रमकानूनों को लागू करने, यूनियन बनाने के ‘‘अपराध’’ में मज़दूरों का दमन रोकने, कारखानो में बढ़ती दुर्घटनों में अंगभंग व मौतों पर रोक लगाने आदि माँगों को लेकर किया गया था। यह फैसला 11 जून को ऊधमसिंह नगर जिला मुख्यालय पर सम्पन्न मज़दूर पंचायत में लिया गया था।
दरअसल, सिडकुल, पन्तनगर स्थित टाटा वेण्डर आटोमोटिव स्टंपिंग एण्ड असेम्बलिंग लिमिटेड (असाल) के मज़दूर टेªनी का अवैध धंधा खत्म करने की माँग के साथ विगत 7 माह से संघर्षरत हैं। यूनियन बनाने के प्रयास के बाद प्रबन्धन ने पाँच स्थाई श्रमिकों के निलम्बन के साथ ट्रेनी सहित समस्त मज़दूरों को बाहर कर दिया था। संघर्षरत 98 मज़दूरों को 6-7 जून की आधी रात पुलिसिया दमन के साथ गिरफ्तार करके हल्द्वानी, नैनीताल व अल्मोड़ा की जेलों में बन्द कर दिया गया था। उनपर शांतिभंग की आशंका (धारा 151) थोपा गया। इस बर्बर घटना के बाद संघर्ष नये चरण में चला गया और विभिन्न यूनियनों और मज़दूर संगठनों के प्रयास से ‘‘सिडकुल मज़दूर संयुक्त मोर्चा’’ बना।
गौरतलब है कि उत्तराखण्ड का सिडकुल क्षेत्र मज़दूर दमन का पर्याय बन गया है। हालात ये हैं कि पिछले महज डेढ़ माह के भीतर विभिन्न कारखानों में 6 मज़दूरों की दर्दनाक मौत की खबरें सामने आ चुकी हैं। श्रमकानूनों के खुले उल्लंघन के साथ ही जहाँ भी यूनियन बनाने का प्रयास होता है, मज़दूर व प्रतिनिधि कोपभाजन बनते हैं। चैतरफा गैरकानूनी ठेका प्रथा और ट्रेनिंग के बहाने मज़दूरों का शोषण जारी है।
इसीलिए नवगठित मोर्चे ने असाल मज़दूरों के मुद्दे के साथ यूनियन बनाने के दंश का कहर झेल रहे ब्होराॅक, बीसीएच, एलजीबी, पारले, एएलपी भाष्कर, डाबर, टीबिएस चक्रा, मंत्री मेटेलिक्स आदि के संघर्षरत मज़दूरों, दमन, श्रमकानूनो की बहाली, कारखानों में सुरक्षा और मृतकों-घायलों को मुआवजे, ठेकाप्रथा के खात्में, महिलाकर्मियों की सुरक्षा आदि मुद्दों को लेकर जिला कलक्ट्रेट पर क्रमिक अनशन भी शुरू कर दिया है।
संयुक्त मोर्चे में इलाके की ब्रिटानिया श्रमिक संघ, नेस्ले कर्मचारी संगठन, नेस्ले मज़दूर संघ, पारले मज़दूर संघ, एस्काॅर्ट श्रमिक संघ, बीसीएच मज़दूर संघ, थाईसुमित नील आॅटो कामगार संघ, वोल्टास श्रमिक संगठन, सिरडी श्रमिक संगठन, एलजीबी वर्कर्स यूनियन, व्होराॅक वर्कर्स यूनियन, इण्डोरेन्स वर्कर्स यूनियन, असाल कामगार संगठन, टाटा मोटर्स श्रमिक संगठन, बडवे वर्कर्स यूनियन, परफेटी श्रमिक संगठन, आनन्द निशिकावा इम्पलाइज यूनियन, रिद्धी सिद्धी कर्मचारी संघ, मज़दूर सहयोग केन्द्र, इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र, एक्टू, सीटू, एटक, बीएमएस, उत्त्राखण्ड परिवर्तन पार्टी, आम आदमी पार्टी शामिल हैं।

गुरुवार, 13 जून 2013

दमन के बाद और मजबूत हुआ असाल आन्दोलन

30 मई को ‘असाल’ कम्पनी के प्रबंधकों, ठेकेदारों ने ठेका मजदूर सुशील् कुमार की हत्या कर दी और इस हत्याकांड में उत्तराखंड सरकार, प्रशासन,श्रम विभाग बराबर के भागीदार हैं। 28 मई को कंपनी प्रबंधन द्वारा 170 प्रशिक्षित ट्रेनी मजदूरों को कंपनी से निकाल दिया और पूरी कंपनी को अप्रशिक्षित ठेका मजदूरों से चलाया गया। 28 मई को मजदूरों ने जिलाधिकारी,श्रम विभाग एवं एस.एस.पी. को अपनी लिखित शिकायत दी और कहा कि असाल कंपनी इंजीनियरिंग उद्योगों के अन्तर्गत भारी उद्योगों के तहत आती है। ऐसे उद्योगों में अप्रशिक्षित ठेका मजदूरों से कार्य करवाना मजदूरों को मौत के मुंह में धकेलने के समान है, कंपनी में मजदूरों को जान माल से खतरा है। मजदूरों की शिकायत पर कार्यवाही के नाम पर अपर जिलाधिकारी ने ए.एल.सी. पंतनगर को लिखकर अपना पल्ला झाड़ लिया और लेबर इंसपेक्टर ने 29 मई को कंपनी के प्रबंधकों के साथ में कंपनी का एक राउण्ड लगाकर, ज्यादातर समय प्रबंधकों के केबिन में बिताकर खानापूरी कर दी। जांच के समय कंपनी में कार्यरत स्थाई मजदूरों ने केबिन में घुसकर लेबर इंसपेक्टर को ललकारा कि जांच करनी है तो हमसे पूछो, हम बताते हैं कि सभी मजदूर ठेके के हैं। परन्तु लेबर इंसपेक्टर पर इसका कोई असर न हुआ और जांच पूरी हो गयी। 30 मई को प्रातः 7 बजे प्रेस मशीन पर कार्य करते समय ‘फोर्क लिफट’से कुचलकर/कटकर ठेका मजदूर सुशील कुमार की मौत हो गयी। सुशील कुमार को कंपनी में कार्य करते हुए महज 2 दिन हुए थे, उसके बावजूद उससे खतरनाक प्रेस मशीन चलवायी जा रही थी और फोर्क लिफट का चालक भी ठेके के तहत ही  कार्यरत था। हादसा इतना खतरनाक था कि सुशील कुमार के मस्तिष्क का गुदा 3-4 फिट की दूरी पर पड़ा था और शरीर गाड़ी के भीतर धंसा पड़ा था। कंपनी प्रबंधकों ने लाश को ठिकाने लगाने के लिए स्वीपरों को बुलाया तो स्थायी मजदूरों ने हाथ में डंडे थाम लिये और प्रबंधकों व ठेकेदारों को लाश को हाथ न लगाने को कहा। उस समय शिफट में महज 5 स्थायी मजदूर ही कार्यरत थे। स्थायी मजदूरों ने फोन से अपने मजदूर साथियों को घटना की सूचना दी। तुरंत ही कंपनी में आंदोलनरत 200 मजदूर एवं इंकलाबी मजदूर केन्द्र, नील ऑटो , वेरोक , सिरडी, बड़वे, ब्रिटानिया, इंपीरियल आटो, पारले, इंडोरेन्स आदि कंपनियों के मजदूर भारी संख्या में पहुंच गये और कंपनी का गेट जाम कर दिया। कुछ ही समय पश्चात एस.डी.एम., सी.ओ. भारी पुलिस फोर्स के साथ में कंपनी पहुंचे और मजदूरों को कंपनी गेट से लाश को निकलने देने को धमकाने लगे। मजदूरों ने एस.डी.एम. की धमकी की तनिक भी परवाह नहीं की और कंपनी प्रबंधकों एवं ठेकेदार के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज कर तुरंत गिरफतारी की मांग की। कुछ ही समय बाद भाजपा के क्षेत्रीय विधायक भी कंपनी पहुंच गये। एस.डी.एम., सी.ओ. व क्षेत्रीय विधायक प्रबंधकों को बचाने का खेल खेलने लगे। एस.डी.एम., क्षेत्रीय विधायक ने एक समझौता पत्र बनाया जिसमें मृतक की पत्नी को साढ़े पांच लाख मुआवजा, कंपनी में नौकरी, मृतक की पुत्री की पढ़ाई एवं शादी की जिम्मेदारी कंपनी की ओर से उठाने की बात दर्ज थी। मजदूरों ने इंकलाबी मजदूर केन्द्र के कार्यकर्ताओं को पत्र दिखाया तो उन्होंने उसे खारिज कर दिया और प्रंबधकों की गिरफ्तारी की मांग की। इस पर पर एस.डी.एम. ने मौखिक आश्वासन दिया कि सायं 4:00 बजे तक गिरफ्तारी हो जायेगी। इसके बाद एस.डी.एम. ने लाश को जाने देने के लिए कहा परंतु मजदूरों द्वारा इसका विरोध किया गया। इंकलाबी मजदूर केन्द्र के कार्यकताओं ने एस.डी.एम. से पूछा कि समझौते में यह बात दर्ज नहीं है कि कल से कंपनी अप्रशिक्षित मजदूरों से चलायी जायेगी या नहीं ? इस पर एस.डी.एम ने कहा कि हां कंपनी चलेगी। इंकलाबी मजदूर केन्द्र के कार्यकर्ताओं ने एस.डी.एम. से लिखित में देने को कहा कि यदि कंपनी में मजदूरों को जान माल से नुकसान होगा तो इसकी जिम्मदारी स्वयं एस.डी.एम. की होगी। एस.डी.एम. इससे मुकर गयीं और मृतक की लाश पर राजनीति करने का आरोप लगाने लगीं। मजदूरों ने कहा कि राजनीति तो आप कर रही हैं, हम अपने मजदूर साथियों की सुरक्षा चाहते हैं। अंत में शाम लगभग 3:00 बजे कंपनी प्रबंधकों, एस.डी.एम एवं क्षेत्रीय विधायक द्वारा लिखित में दिया गया कि समस्या का समाधान होने तक कंपनी बंद रहेगी, मृतक की पत्नी को 10 लाख रु. मुआवजा एवं कंपनी में स्थायी नौकरी, मृतक की पुत्री की पढ़ाई की जिम्मेदारी कंपनी की होगी। मजदूरों ने गेट खोल दिया और लाश जाने दी। मजदूरों ने कंपनी गेट पर शिफ्ट  लगाकर मजदूरों को तैनात कर दिया कि कंपनी चल रही है अथवा नहीं। पहली जून को एस.डी.एम. की मध्यस्थता में वार्ता हुई। कंपनी प्रबंधन निकाले गये ट्रेनी मजदूरों को वापस लेने एवं स्थायीकरण के लिए पालिसी  बनाने को कुछ हद तक तैयार हुआ। कंपनी प्रबंधन सस्पेंड किये गये 5 स्थाई मजदूरों को घरेलू जांच में परिणाम के आधार पर ही फैसला लेने पर अड़ गया, एस.डी.एम. पांचो सस्पेंड किये गये मजदूर नेताओं की 200 मजदूरों की खातिर कुर्बानी देने का पाठ पढ़ाने लगा। असाल कंपनी में उत्पादन बंद होने से टाटा मोटर्स भी बंद हो गयी और साथ ही टाटा मोटर्स द्वारा अपनी 72 वेंडर कंपनियों का माल भी उत्पादन बंद होने के कारण वासप लौटाया गया। पांच-छः दिनों तक टाटा मोटर्स में उत्पादन ठप्प होने के बाद टाटा मोटर्स ने सरकार एवं प्रशासन पर दबाव बनाने  के लिए 10 जून तक कंपनी को बंद करने की घोषणा कर दी। टाटा मोटर्स का जी.एम. ‘असाल’ कंपनी के टॉप  मैनेजमेंट के साथ में देहरादून में मुख्यमंत्री से मिले। इसका तुरंत असर देखने को मिला। सिडकुल कें प्रबंधकों की एशोसिएशन तुरंत सक्रिय हो गयी  और अपनी-अपनी  कंपनी के मजदूरों को ‘असाल’ मजदूरों के आन्दोलन में शामिल न होने के लिए दबाव बनाने लगे। 4 जून को अपर जिलाधिकारी ने मजदूरों को समझौता न करने पर कंपनी को चालू करवाने की धमकी दी और कहा कि देखता हूं कि कौन कंपनी को चलाने रोकता है ? मजदूर नेताओं ने अपर जिलाधिकारी की घुड़की के आगे झुकने से इंकार कर दिया और कहा कि जिला प्रशासन यदि अपने लिखित वादे से मुकरता है तो इसके गंभीर परिणाम होगें। 4 जून की  रात में एस.डी.एम. भारी पुलिस फोर्स के साथ कंपनी पहुंच गये और मजदूरों को माल डिस्पेच करने देने के लिए कहने लगे। तुरंत ही कई कंपनियों से ट्रेड यूनियन पदाधिकारी मौके पर पहुंच गये। ‘असाल’ के मजदूर गाडि़यों के आगे लेट गये। 2 घंटे से भी अधिक समय की कसरत के बाद एस.डी.एम. को कंपनी से दबे पांव वापस लौटना पड़ा। 6 जून को रात में पुनः एस.डी.एम. भारी पुलिस एवं पी.ए.सी. के साथ मजदूरों को हटाने लगे। मजदूरों पर लाठी चार्ज किया गया और उनके कपड़े तक फाड़ दिये गये परंतु मजदूरों ने गेट नहीं छोड़ा। रात 8 बजे  डी.एम. ने अपने आवास पर वार्ता के लिए बुलाया, वार्ता विफल हो गयी। डी.एम. ने मजदूरों को धमकाया कि यह तुम्हारे लिये आखिरी मौका है, शासन ने आदेश दिया है, मै कुछ नहीं कर सकता। वार्ता के बाद मजदूर नेता कंपनी गेट पहुंचे और गेट पर डट गये। रात्रि 12 बजे लगभग 43 मजदूरों को गिरफतार कर लिया। बचे हुए मजदूरों ने अगली सुबह पुनः गेट जाम कर दिया और पुलिस ने पुनः 55 मजदूरों को गिरफतार कर लिया। सरकार और प्रशासन को उम्मीद थी कि मजदूरों को लाठी-जेल के भय से खामोश कर दिया जायेगा। परंतु ‘असाल’ मजदूरों ने सिडकुल में अपने जुलुसों एवं कंपनी प्रबंधन की शवयात्रा निकालकर काफी हद तक मजदूरों की सहानुभूति हासिल कर ली थी। 
जिस समय प्रशासन द्वारा 98 मजदूरों को हल्द्वानी, नैनीताल एवं अल्मोड़ा भेजने की तैयारी की जा रही थी, ठीक इसी समय जे.बी.एम., इन्डोरेन्स, वेरोक , सिरडी आदि कंपनियों की पूरी शिफ्टों  से सैकड़ों मजदूर डी.एम. कोर्ट पहुंच गये। मजदूरों ने हत्यारे असाल के प्रबंधकों को बचाने एवं निर्दोष मजदूरों को जेल भेजने के विरोध में डी.एम. कोर्ट में जुलुस निकाला। 9 जून को मुख्यमंत्री विजय बहुगुंणा के हल्दूचैड़ यात्रा पर सभा में मजदूरों ने पर्चे बांटे और दूसरी ओर डी.एम के आवास पर प्रदर्शन किया। शासन-प्रशासन पूरी निर्लज्जता के साथ में हत्यारे असाल प्रबंधन को बचा रहे हैं और मजदूरों के बर्बर दमन पर उतारू हैं। असाल प्रबंधन शासन-प्रशासन के सहयोग से पुनः अप्रशिक्षित ठेका मजदूरों से कंपनी चलवाकर खून की होली खेलने पर आमादा है। वहीं दूसरी तरफ मजदूर नवंबर 2012 से असंवैधानिक ट्रेनी के धंधे के खिलाफ अपनी यूनियन पंजीकृत करवाने के लिए संघर्षरत हैं।
 असाल के मजदूरों का संघर्ष दमन के बाद और मजबूत हुआ। 11 जून की महापंचायत में सिडकुल की सभी ट्रेड यूनियनों भागेदारी की और आगे की रणनीति बनाई। सुबह से हो रही बरसात  में भीगते हुए लगभग 400 मजदूरों ने अपनी शिफ्टों के हिसाब से भागेदारी की। इस बीच जेल से छूटकर आये मजदूरों ने भी नारेबाजी करते हुए अपने उत्साह को जाहिर किया। 
14 जून के  मुख्यमंत्री के गदरपुर आगमन पर ट्रेड यूनियनों द्वारा पर्चा व काले झंडे लेकर  प्रदर्शन करने की योजना बनाई गयी। असाल के मजदूरों सहित अन्य फैक्टरियों में हो रहे अन्याय के खिलाफ डी.एम. कोर्ट  पर क्रमिक अनशन शुरु करने की घोषणा की गयी जिसमें सभी ट्रेड यूनियनों ने सिडकुल मजदूर यूनियन संघर्ष मोर्चा के नेतृत्व में भागेदारी करने की घोषणा की। यूनियनों द्वारा आर्थिक सहयोग भी किया गया। 16 जून को होने वाली  हल्दूचौड़  की महापंचायत को और अधिक भागेदारी के साथ  सिडकुल में आम हड़ताल की घोषणा पर विचार चल रहा है।
महापंचायत में, ब्रिटानिया श्रमिक संघ, नेस्ले कर्मचारी संगठन, पारले मजदूर संघ, वोल्टाज श्रमिक संगठन, सिरडी श्रमिक संगठन, थाई सुमित नील आटो कामगार संगठन, भूमिहीन मजदूर किसान संघर्ष समिति,सी.पी.एम.,एक्टू, वेरोक वर्कर्स यूनियन, इन्डोरेन्स वर्कर्स यूनियन, टाटा मोटर्स मजदूर संगठन, आनन्द निशिकावा क. इम्पलाइज यूनियन, क्रांतिकारी जनवादी मोर्चा, संयुक्त रोडवेज परिषद शामिल थे।
      रुद्रपुर में हुए  असाल के मजदूरों के दमन के खिलाफ इंकलाबी मजदूर केन्द्र ने दिल्ली में उत्तराखंड निवास पर विरोध प्रदर्शन किया व रेजिडेंस कमिश्नर के द्वारा ज्ञापन मुख्यमंत्री को भेजा ।


शनिवार, 8 जून 2013

राहुल फाउंडेशन ने लौटाया ‘जनचेतना’ वाहन, सत्येन्द्र कुमार को दी धमकी


(लखनऊ के प्रतिबद्ध वामपंथी सामाजिक कार्यकर्ता सत्येन्द्र कुमार और कई अन्य साथियों ने राहुल फाउंडेशन का कच्चा चिट्ठा जनता के बीच लाने के लिए पिछले करीब एक दशक से बहुत मेहनत की है। सत्येन्द्र जी ने इनका पर्दाफाश करने लिए एक पुस्तिका भी लिखी है। इस संगठन पर अब तक इससे निकले या निकाले गए साथियों ने क्या-क्या सवाल उठाए हैं, इसे जानने और लिखित दस्तावेज के लिए इच्छुक लोग साथी सत्येन्द्र कुमार से (satyendrabhiruchi@yahoo.com) संपर्क कर सकते
हैं। अब इनकी यह मेहनत रंग लाने लगी है। यही वजह है कि राहुल फाउंडेशन इनके ऊपर बौखलाया हुआ है। इसी बौखलाहट में उसने सत्येन्द्र कुमार से निपट लेने की धमकी दी है। पेश है सत्येन्द्र कुमार का पत्र)
31 मई सुबह 6 बजे का वक्त था। लखनऊ की राहुल फाउंडेशन नामक संस्था और इसके मालिक-मालिकिन शशि-कात्यायनी गैंग से जुड़ा एक आदमी रामबाबू जनचेतना वैन, टाटा 709/ लेकर आया और हमारे दरवाजे पर खड़ी कर गया! जाते-जाते उसने मुझे धमकी दी-‘सत्येन्द्र कुमार तुमने आज तक जो कुछ भी हम लोगों (राहुल फाउंडेशन) के खिलाफ किया है, उसका फल भुगतने के लिये तैयार रहो। देखते हैं कौन तुम्हारा साथ देता है!’
     इस जनचेतना वैन को हमने ही अपने पैसों से खरीदा था और सोचा था कि इससे सामाजिक बदलाव का काम आगे बढेगा! इससे पहले भी हम अपनी काफी संपत्ति इस काम के लिए दे चुके थे और अब बचा-खुचा 11.50 लाख रुपया इस वैन में लगा दिया था। हमने तो यही सोचा था कि हमारी इस कुबार्नी से समाजिक परिवर्तन के काम को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी। हमने कभी नहीं सोचा था कि इससे एक अपराधिक गैंग खड़ा हो जाएगा। इस आपराधिक गिरोह द्वारा इस तरह अचानक वैन वापस करना हैरानी में डालने वाली बात है। आखिर उसने क्यों मुझे इस वैन को वापस कर दिया। वह भी मेरी उस बेटी शालिनी की मौत के तुरंत बाद, जिसे इमोशनल ब्लैकमेल करके इस गिरोह ने अपने गैंग में शामिल कर रखा था और मेरे खिलाफ उसे भड़का रखा था। हमने तो वैन वापस भी नहीं मांगी थी! आखिर ऐसा क्या हो गया कि इस गैंग को यह कदम उठाना पड़ा। फिर याद आया-अपराधी हमेशा कायर होते हैं। वैन अभी भी हमारे नाम पर ही है। अब बेटी की मौत के बाद कायरों ने सोचा कि वैन को पचा जाना मुश्किल होगा, तो चुपचाप उसे वापस कर देने में ही भलाई समझी। लेकिन, चोर और अपराधी अपनी आदत भला कैसे छोड़ सकते हैं! वैन तो वापस कर दी, लेकिन उसमें लगा लाखों का कीमती सामान उड़ा लिया! हाल यह है कि बस ढांचा ही ढांचा बचा है। वैन से होंडा कंपनी का जनरेटर, प्रकाश उपकरण, किताबों की रैक, गाड़ी के पीछे वाले दोनों पहिए, लोहे का काफी सामान आदि गाड़ी से गाड़ी से गायब है। वैसे इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इन क्रांतिकारी नामधारी नटवर लालों ने क्रांति को कितना बदनाम किया, अपने ही साथियों को कितने जख्म दिए, जनता को किस कदर लूटा, इसका अंदाजा दो तथ्यों से ही लगाया जा सकता है। एक-इन पर जबरन संपत्ति कब्जा करने के आपराधिक मामले चल रहे हैं; दो-इन्होंने क्रांति का बाना ओढ़कर अपने ऐशोआराम के लिए पैसा बटोरा; वह भी कार्यकतार्ओं को इस भ्रम में रखकर कि वे क्रांति कर रहे हैं। संगठन ऐसा है कि एक तरफ बदहाल खटने वाले अधिकार रहित कार्यकर्ता हैं और दूसरी तरफ अधिकार और सुविधा संपन्न एक खास परिवार के लोग जो नेतृत्व करते हैं! सामाजिक बदलाव के काम के भ्रम में इस गिरोह ने कितनी जिन्दगियां बर्बाद कर दीं! आखिर यह कब तक चलता रहेगा! क्या वे यह सोचते हैं कि उन्हें समाज हमेशा बर्दाश्त करता रहेगा! नहीं। ऐसा नहीं होगा। लखनऊ से इनके खिलाफ बिगुल बज चुका है। 

यह सूचना यहाँ भी प्रकाशित है-

'जनचेतना' वाहन, सत्येन्द्र कुमार को दी धमकी

 bhadas4media.com/vividh/12089-2013-06-08-11-49-33.html

शौक बहराइची: प्रतिरोध के गुमनाम शायर

शौक साहब का एकमात्र मौजूद फोटो
                              देवेन्द्र प्रताप
शौक बहराइची के बचपन का नाम रियासत हुसैन रिजवी था, शौक बहराइची नाम बाद में पड़ा। उन्होंने अपनी शायरी को अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध के तौर पर इस्तेमाल किया। ऊपर दिया गया उनका शेर भ्रष्ट नेताओं और भ्रष्टाचार में डूबे देश की कलई खोल देता है।
अयोध्या में पैदाइश बहराइच में शायरी
6 जून, 1884 को अयोध्या के सैयदवाड़ा मोहल्ले में जन्मे रियासत हुसैन रिजवी बाद में बहराइच में जा बसे। यहीं पर उन्होंने ‘शौक बहराइची’ के नाम से शायरी लिखना शुरू किया। शायरी की यह यात्रा उनकी मृत्यु (13 जनवरी, 1964) तक जारी रही। यह दुर्भाग्य ही है इतने बड़े शायर की मृत्यु के बाद एक तरह से उनको भुला ही दिया गया। यदि उनकी मौत के 50 साल बाद बहराइच के रहने वाले एक रिटायर्ड इंजीनियर ताहिर हुसैन नकवी ने उनकी शायरी पर काम न किया होता, तो शायद यह मशहूर शायर देश की वादियों में कहीं गुम हो गया होता। नकवी ने इनकी शायरी पर करीब नौ साल तक कड़ी मेहनत की, तब कहीं जाकर वे उनकी शायरी को ‘तूफान’ की शक्ल में लोगों के सामने लाने में सफल हुए।
गुर्बत में बीती जिंदगी
इस किताब की भूमिका में ताहिर नकवी ने लिखा है, ‘जितने मशहूर अंतरराष्ट्रीय शायर शौक साहब हुआ करते थे, उतनी ही मुश्किलें उनके शेरों को ढूंढ़ने में सामने आईं। उन्होंने निहायत ही गरीबी में जिन्दगी बिताई। शौक साहब की मौत के बाद उनकी पीढ़ियों ने उनके कलाम या शेरों को सहेजा नहीं। अपनी खोज के दौरान तमाम कबाड़ी की दुकानों से खुशामत करके और ढूंढ़-ढूंढ़कर उनके लिखे शेरों को खोजना पड़ा।’ आज शौक बहराइची की एकमात्र आॅयल पेंटिग ही हमारे बीच मौजूद है। ताहिर नकवी बताते हैं,‘यह फोटो भी हमें अचानक ही एक कबाड़ी की दुकान पर मिल गई, अन्यथा इनकी कोई भी फोटो मौजूद नहीं थी।’ शौक ‘तंज ओ मजाहिया’ विधा के शायर थे, जिसे हिन्दी में व्यंग्य कहा जाता है। आज हम उनके जिस शेर से परिचित हैं, उसे उन्होंने कैसरगंज विधानसभा से विधायक और 1957 में स्वास्थ मंत्री रहे हुकुम सिंह की एक सभा में पढ़ा था। बस यहीं से यह शेर मशहूर होता गया। वैसे जिस शेर को हम जानते हैं, वह काफी बदल चुका है। ताहिर नकवी के अनुसार यह शेर कुछ यूं है-
बर्बाद-ए-गुलशन की खातिर बस एक ही उल्लू काफी था/
हर शाख पर उल्लू बैठा है, अंजाम-ए-गुलशन क्या होगा।

क्यों हुए गुमनाम
इतने अच्छे शायर होने के बावजूद वे कैसे गुमनाम हो गए, इसे उनके ही एक शेर को पढ़कर समझा जा सकता है। वे लिखते हैं-
अल्लाहो गनी इस दुनिया में सरमाया परस्ती का आलम,
बेजर का कोई बहनोई नहीं, जरदार के लाखों साले हैं।

आज ऐसे साहित्यकारों की कमी नहीं है, जो चंद सिक्कों के लिए सत्ता की चाकरी करने लगते हैं। साहित्य अकादमियों की कुरसी आज ऐसे लोगों को खूब राश आती है। इसके उलट शौक ने भले ही बहुत गुर्बत में दिन काटे, लेकिन कभी समझौता नहीं किया। जब देश आजाद हुआ, तो सरकार ने उनकी पेंशन तो बांध दी, लेकिन यह नहीं पता किया कि उन्हें पेंशन मिल भी रही है कि नहीं। शौक जब बीमार थे, तो उन्हें पेंशन की सख्त दरकार थी। उन्होंने लिखा-
सांस फूलेगी खांसी सिवा आएगी,
लब पे जान हजी बराह आएगी।
दादे फानी से जब शौक उठ जाएगा
तब मसीहा के घर से दवा आएगी।।

आज एक शौक ही नहीं हैं, जो गुमनाम हैं। ऐसे कई रचनाकार हुए जिन्होंने जनता का पक्ष चुना और उसकी कीमत भी चुकाई। जहां तक सत्ता प्रतिष्ठान की ओर से ऐसे लोगों को सामने लाने के लिए किए जाने वाले प्रयास की बात है, तो वह भला ‘अपने पांव में कुल्हाड़ी क्यों मारेगा।’ वैसे वह एक बात भूल जाता है कि भले ही ऐसे लोग शरीर से हमसे विदा हो जाते हैं, लेकिन उनके विचार हर समय हमारे बीच जिंदा रहेंगे। भगत सिंह को जब फांसी होने वाली थी, तो उन्होंने एक शेर लिखा था, जो शौक जैसे लोगों के ऊपर एकदम फिट बैठता है-
हवा में रहेगी मेरे खयाल की बिजली,
ये मुश्त-ए-खाक है फानी रहे न रहे।
शौक आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी शायरी हमारे दिलों में सदा जिंदा रहेगी।

मारुति मजदूरों पर बर्बर दमन का विरोध करो!


साथियो,
            लगभग ढाई साल से गुड़गाँव मानेसर में स्थित मारुति कार फैक्टरी के कामगार आन्दोलन कर रहे हैं। मजदूर आन्दोलन को कमजोर करने के लिये फैक्टरी मालिक-मैनेजमेण्ट, लेबर-आफिस, पुलिस और सरकार ने सब तरह के हथकण्डे अपना लिये। मजदूर नेताओं को घूस देकर, डरा-धमका कर, परिवारों पर दबाव बना कर भी जब काम नहीं बना तो पिछले साल 18 जुलाई का मजदूर और मैनेजमेण्ट के गुण्डों (बाउनसरों) में झड़प करवाया गया और फैक्टरी में आग लगने और मारपीट के फलस्वरूप कई मजदूरों को चोट आई और इस अफरातफरी में मैनेजमेण्ट के एक आदमी की मौत भी हो गई। मैनेजमेण्ट ने शासन-प्रशासन से मिलकर इस घटना के बहाने 2500 मजदूरों को काम से बाहर निकाल दिया और पुलिस ने 147 मजदूरों को गिरफ्तार कर लिया। 9 महीने बाद भी जाँच और आरोप के सिद्ध हुए बिना ये मजदूर जेल में बन्द हैं। परिवार में किसी के मौत हो जाने पर भी उन्हें अन्तिम-दर्शन तक के लिये छोड़ा नहीं जाता है। जेल के अन्दर तरह-तरह की यातना देकर मजदूरों का साहस को तोड़ने की करने की पूरी कोशिश की जा रही है।
            मजदूरों की जायज माँगों और उनके गिरफ्तार साथियों की रिहाई के लिये मजदूरों और उनके समर्थकों ने दिल्ली, गुड़गाँव, कैथल, करनाल और देश-विदेश में भी धरना-प्रदर्शन किया है। मजदूरों के इस आन्दोलन को कमजोर करने के लिये कैथल में धरने पर बैठे 100 लोगों को पिछले 18 मई को गिरफ्तार कर लिया गया। अगले दिन उनके समर्थन में आये मजदूरों, परिवारजनों और कार्यकर्ताओं पर पानी की तेज धार, आँसु-गैस और बर्बर लाठी-चार्ज से दमन का ताण्डव किया गया। महिलाओं-बच्चों-बुढ़ों तक को नहीं छोड़ा गया और समर्थकों को हिरासत में लेकर उन पर झूठे केस ठोक दिये गये। चूँकि अखबार और टीवी चैनल कम्पनियों के प्रचार के पैसे से चलते हैं और इनमें इन्हीं पूँजीपतियों का ही पैसा लगा होता है, जाहिर सी बात है पूरे आन्दोलन और सरकारी दमन की खबर या तो दबा दी गई या आधी-अधूरी या गलत रूप में लोगों के बीच में बतायी गयी। शायद आप में से कुछ यह सोच रहे होंगे कि मारुति के मजदूरों और बेरोजगारों से हमें क्या? अखबारों से यह बात भी फैलाई गई कि मामले को तूल पकड़वाने के लिये मजदूर ही जिम्मेदार है। पर क्या यह सच है? मारुति के आन्दोलन में बहुत सारी बाते हैंजो हमारी जिंदगी से भी जुड़ी हुई है। आप लोगों की ही तरह मारुति के मजदूर भी एक लम्बे समय से महसूस कर रहे थे कि एक तरफ तो मजदूरों की मेहनत से मालिक का मुनाफा लगातार बढ़ रहा है वहीं उनका वेतन ज्यों का त्यों है। कई मजदूरों का वेतन दस-दस साल काम करने पर भी नहीं बढ़ता है और मालिक की जब चाहे निकाल दो की ही नीति कायम रहती है। ज्यादातर फैक्टरियों में कई सालों के बाद भी अप्रेण्टिस मजदूरों को नियमित नहीं किया जाता है और तो और वेतन इतना कम कि बताते हुए भी शर्म आये! नियमित कार्य के लिये भी ठेका मजदूरों से कम से कम दाम पर काम करवाया जाता है, जो न सिर्फ गैर-कानूनी है बल्कि इससे नियमित मजदूरों पर भी कम दाम पर काम करने का दबाव बनता है। मालिक और मैनेजरों से ऐसे व्यवहार करना पड़ता है जैसे वे धरती पर भगवान के अवतार हों और वहीं वे मजदूरों के साथ हमेशा बदतमीजी से व्यवहार करते हैं। एक तरफ तो मालिकों को सरकार, पुलिस, लेबर-अधिकारी सभी का संरक्षण प्राप्त होता है वहीं मजदूरों की जायज से जायज माँग और शिकायतों का भी कुछ नहीं होता है। कम्पनी या मालिक का नाम बदल दीजिए मजदूरों की यह हालात कमोबेश हर जगह है। क्या मजदूर चुपचाप सहते रहेंगे? आज देश के कोने-कोने में मजदूर अपने शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष करने को तैयार हो रहे हैं।  मारुति के मजदूरों ने भी अपने शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष करने के लिए सामूहिक रूप से संगठन का निर्माण किया। सभी ने बड़ी एकता के साथ, नियमित और ठेका, नये और पुराने सभी मजदूरों की सामूहिक माँगों को ही संगठन का आधार बनाया, जिससे एक मजबूत ताकत के तौर पर संगठन को सभी मजदूरों का साथ मिल पाया। बस, यही तो बात है जिससे मालिकों पर आसमान गिर जाता है। उन्हें लगने लग जाता है कि मजदूर संगठित हों जायेंगे तो उन्हें पहले की तरह दबाया और उत्पीड़ित नहीं किया जा सकता है। गुण्डे और पुलिस, कानूनी और गैर कानूनी सभी तरीके से आन्दोलन को कमजोर किया जाता हैं। जब कुछ भी नहीं चलता है तो सरकार अपनी पूरी ताकत मालिकों के हित बचाने के लिये मजदूरों पर दमन करने के लिये लगा देती है। ग्रेटर नोएडा के ग्रेजियानों और गाजियाबाद के एलाइड निप्पोन के संघर्षरत मजदूर इसी दमन के शिकार बन आज तक जेल में अन्दर हैं। 20 फरवरी के दिन मजदूरों के राष्ट्रव्यापी हड़ताल के दौरान नोएडा में 150 मजदूरों को जेल में ठूँस दिया गया।
            साथियो, सीधी-सी बात है हर आदमी अपनी-अपनी जिन्दगी अच्छा करना चाहता है और जब वह देखता है कि मालिक के खिलाफ अकेला नहीं लड़ा जा सकता तब ही वह संगठन बनाता है, आन्दोलन करता है। यह केवल नोएडा या गुड़गाँव की बात नहीं है, सभी जगह सही है। ठेकेदारी, छँटनी, कम वेतन, अपमान, दुर्घटना-चोट, ऊँचा किराया, दवाईयाँ, बच्चों की शिक्षा जैसी दिक्कतों से सभी परेशान हैं और गुस्से में हैं। पर इन परेशानियों और गुस्से का क्या करें? अकेला मजदूर कुछ नहीं कर सकता। फिर रास्ता बस एक ही है, मजदूरों को एक होकर, साझा मुद्दों के आधार पर संगठन बनाना होगा और संगठन के साथ जुड़ना होगा। नेता या यूनियन धोखा न दें इसके लिये मजदूरों को यूनियन अपने कंट्रोल में रखना होगा, और अपने पहलकदमी के आधार पर सभी श्रेणी और तरह के मजदूरों के सामूहिक माँगों और जरूरतों के आधार पर व्यापक एकता के लिये अपने फैक्टरी के यूनियनों के अलावा भी मंचों का निर्माण करना होगा।
            सभी मालिक, सरकार, पुलिस, मीडिया मजदूरों के खिलाफ एक हो जाते हैं उसी तरह सभी मजदूरों को, यूनियनों को मालिकों के खिलाफ एकजुटता दिखानी चाहिए, दिखानी होगी। मारुति, नोएडा, गाजियाबाद के संघर्षरत मजदूरों पर हो रहे दमन के खिलाफ हम सभी मजदूरों को एक साथ आना होगा। आज संघर्ष करने का समय है और इन संघर्षों को सामूहिक माँगों के आधार पर एक साथ जोड़कर आगे बढ़ाने का समय है। एक-दूसरे के संघर्ष में हिस्सा निभाना होगा, मदद करनी होगी तभी न केवल अपने-अपने हक के लिये अपने-अपने मालिकों से जीत पायेंगे पर ऐसी व्यवस्था बनाने में भी कामयाब रहेंगे जहाँ श्रम को अपनी इज्जत और न्याय मिल सके। इंकलाब जिन्दाबाद!

मारुति मजदूर संघर्ष एकजुटता मंच

आइसा, ए.आई.सी.सी.टी.यू., बिगुल मजदूर दस्ता, डी.एस.यू., आई.सी.टी.यू., इंकलाबी मजदूर केन्द्र, क्रान्तिकारी लोक अधिकार संगठन, क्रान्तिकारी नौजवान सभा, क्रान्तिकारी युवा संगठन, मजदूर एकता केन्द्र, मेहनतकश मजदूर मोर्चा, नौरोज, न्यू सोशलिस्ट इनीशियेटिव, प्रतिध्वनी, पी.यू.डी.आर., एस.एफ.आर., संहति दिल्ली, श्रमजीवी पहल, श्रमिक संग्राम कमेटी, टी.यू.सी.आई., विप्लव सांस्कृतिक मंच, पी.डी.एफ.आई.

टाटा असाल के 98 मज़दूरों को जेल

रुद्रपुर (उत्तराखण्ड)। सिडकुल, पन्तनगर स्थित टाटा वेण्डर आटोमोटिव स्टंपिंग एण्ड असेम्बलिंग लिमिटेड (असाल) के संघर्षरत  98 मज़दूरों को 6-7 जून की आधी रात पुलिसिया दमन के साथ गिरफ्तार करके हल्द्वानी, नैनीताल व अल्मोड़ा की जेलों में बन्द कर दिया गया है। उनपर शांतिभंग की आशंका  (धारा 151) थोपा गया है। इस बर्बर घटना के बाद स्थानीय मज़दूरों में बेहद रो’ा व्याप्त है और 11 जून को जिला मुख्यालय पर मज़दूर पंचायत का ऐलान कर दिया है। यह खुली चर्चा है कि मज़दूरों के दमन की यह पूरी कार्यवाही मुख्यमंत्री बहुगुणा की टाटा प्रबन्धन से डील का परिणाम है। हुआ यूं कि 28 मई को असाल प्रबन्धन ने पुराने बचे 170 ट्रेनी मज़दूरों को निकाल कर अनट्रेण्ड नए ठेका मज़दूरों से काम करवाना शुरू  कर दिया। 30 मई की सुबह फोर्कलिफ्ट की चपेट
में आने से श्याम  कुमार नामक मज़दूर की दर्दनाक मौत हो गयी। इसे काम का महज दूसरा दिन था। प्रबन्धन शव को गायब करने की फिराक में था कि मज़दूरों ने पूरे कारखाने में जबर्दश्त घिराव कर दिया। भारी पुलिस फोर्स के दबाव के बावजूद आक्रोशित मज़दूर डंटे रहे। लगभग 8 घण्टे के तनावपूर्ण महौल में, उपजिखर्च की घो’ाणा के बाद ही मज़दूरों का प्रदर्शन शांत  हुआ। इसी के साथ माहौल की नजाकत को देखते हुए प्रबन्धन ने लिखित तौरपर मौजूदा विवाद हल होने तक कारखाने को बन्द रखने का ऐलान किया, जिसपर उपजिलाधिकारी और स्थानीय विधायक के भी हस्ताक्षर थे। लेकिन प्रबनधन की
मंशा तो कुछ और थी। वह बगैरलाधिकारी की मध्यस्तता में मृतक के परिजन को 10 लाख मुआवजे, पत्नी को स्थाई नौकरी व बच्ची की पढ़ाई के पुराने मज़दूरों को लिए कम्पनी खोलना चाहता था। मज़दूर भी तेवर में थे। इससे असाल के साथ ही तीन दिनों से टाटा के मुख्य कारखाने में भी उत्पादन ठप हो गया। सो जिला प्रशासन भी अपने लिखित वायदे से मुकर गया और आधी रात में हमलाकर 42 मज़दूरों को उठा लिया। शेष मज़दूरों की गिरफ्तारी प्रातःकाल हुई। पता चला है कि प्रशासन की यह पूरी कार्यवाही मुख्यमंत्री के सीधे निर्देश पर हुई है। दरअसल, पूरे टाटा ग्रुप और यहाँ के अन्य इंजीनियरिंग उद्योगों में अवैध ट्रेनी के नाम पर मज़दूरों का जम कर शोषण होता है। असाल के मज़दूरों नें इसे चुनौती देते हुए विगत 6 माह से संघर्ष की राह पकड रखी है। मज़दूरों के विरोध पर 26 अप्रैल को उपश्रमायुक्त ने कम्पनी के प्रमाणित स्थाई आदेश से ट्रेनी को अवैध बताते हुए उसे हटाने और ट्रेनी के बहाने दो-तीन साल से कार्यरत मज़दूरों के स्थाईकरण की नीति बनाने का आदेश दे दिया था। इससे खफा प्रबन्धन ने फेसले के विपरीत 28 मई को 170 ट्रेनी मज़दूरों को ही निकाल दिया। असाल प्रबन्धन इससे पूर्व 5 स्थाई मज़दूरों के निलम्बन के साथ 23 पुराने ट्रेनी मज़दूरों को निकाल चुकी थी। गौरतलब है कि असाल में महज 21 स्थाई मज़दूर हैं। बाकी सारा काम ट्रेनी के नाम से भर्ती करके होता रहा है। आए दिन होने वाले हादसों में कितने मज़दूरों के अंग-भंग हो चुके हैं। मज़दूरों ने इसी शोषण  व अन्याय का विरोध किया था और संघर्ष की राह पकडी थी। फिलहाल, संयुक्त रूप से स्थानीय मज़दूर संगठनों-यूनियनों और जनपक्षधर शक्तियों ने लामबन्दी और विरोध का सिलसिला शुरू कर दिया है।