नई दिल्ली: अखबारी कर्मचारियों के वेतनमान में संशोधन के लिए संघर्ष कर रहे कन्फेडरेशन आफ न्यूजपेपर्स एंड न्यूज एजेंसी एम्प्लाइज आर्गेनाजेशन्स ने मजीठिया वेतनबोर्ड की सिफारिशों के खिलाफ अखबार मालिकों के दुष्प्रचार पर आज तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है कि कर्मचारियों के वेतनमान में संशोधन की प्रक्रिया को पलीता लगाने की कोशिश जारी रही, तो कन्फेडरेशन के सामने प्रबंधन से सीधी टक्कर लेने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचेगा।
कन्फेडरेशन के महासचिव एमएस यादव ने वेतनबोर्ड के खिलाफ एक प्रमुख समाचार पत्र समूह के मुख्य कार्याधिकारी के हाल के लेख को अखबारी कर्मचारियों के वेतनमान में संशोधन की प्रक्रिया में विघ्न डालने का ओछा प्रयास बताया। यादव ने कहा कि 12 साल के लंबे अंतराल के बाद अखबारी उद्योग के कर्मचरियों की जायज मांगों को पूरा करने के लिए चल रही प्रक्रिया में ऐसे समय में पलीता लगाने का प्रयास किया जा रहा है, जब सरकार मजीठिया बोर्ड की सिफारिशों पर अधिसूचना जारी करने की तैयारी में है।
उल्लेखनीय है कि कन्फेडरेशन में कर्मचारियों के शीर्ष संगठन, आईएफडब्ल्यूजे, एनयूजे, आईजेयू, एआईएनईएफ, फेडरेशन आफ पीटीआई एम्प्लाइज यूनियन्स और यूएनआई वर्कर्स यूनियन शामिल हैं। कन्फेडरेशन ने हाल में संप्रग की अध्यक्ष सोनिया गांधी के कार्यालय पर रैली आयोजित कर उन्हें अपनी जायज मांगों के संदर्भ में ज्ञापन सौंपा था। श्रममंत्री मल्लिकार्जुन खडगे ने भी हाल में कहा था कि वह मजीठिया वेतनबोर्ड की सिफारिशों की अधिसूचना का प्रस्ताव मंत्रिमंडल के सामने प्रस्तुत करने की तैयारी कर रहे हैं। कन्फेडरेशन महासचिव ने कहा कि अखबारी मालिकों का यह कहना मजाक है कि वेतनबोर्ड के माध्यम से सरकार अखबार के गर्दन पर हाथ डाल रही है। यादव ने इस संबंध में 1975 में वेतनबोर्ड को बीच में ही भंग किये जाने की घटना का हवाला दिया और कहा कि जब जब सरकारों को प्रेस पर नियंत्रण करना होता है, तो वह वेतनबोर्ड भंग करती हैं न कि उसे लागू करवाती हैं। उन्होंने सवाल किया है कि क्या अब तक वेतनबोर्ड के कारण सभी अखबारों के पत्रकार सरकार का गुणगान करते आये हैं।
उन्होंने कहा कि अखबारी उद्योग में कर्मचारियों के शोषण को रोकने का कानून न्यायमूर्ति राजाध्यक्ष की अध्यक्षता वाले पहले प्रेस आयोग की सिफारिशों के आधार पर बनाया गया था। यादव ने कहा, मैं यहां प्रथम प्रेस आयोग की रिपोर्ट की उन बातों का उल्लेख नहीं करना चाहता, जो उस समय अखबार मालिकों के बारे में कही गई थीं। यादव ने कहा कि यह सही है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया के कर्मचारियों के लिए सरकार वेतनबोर्ड नहीं बनाती, लेकिन देश में इलेक्ट्रानिक मीडिया अभी नया मीडिया है तथा हमारे संगठन इस कानून का विस्तार उस क्षेत्र तक करने की मांग करते आ रहे हैं। यादव ने कहा, उच्चतम न्यायालय ने श्रमजीवी पत्रकार कानून को बार बार संवैधानिक करार दिया है और बार-बार मालिकों की इस दलील को खारिज कर चुका है कि इसके कारण प्रेस की स्वतंत्रता प्रभावित होती है।
कन्फेडरेशन ने अखबार मालिकों के इस तर्क को भी खारिज किया कि कर्मचारियों को तथाकथित उंचा वेतन देने से अखबारी प्रतिष्ठानों पर असहनीय वित्तीय बोझ बढ़ता है। यादव ने कहा कि सचाई इसके विपरीत है क्योंकि श्रमजीवी पत्रकार कानून के लागू होने के बाद पिछले 50 वर्षो में भारत में अखबारी उद्योग ने दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की की है। यादव ने मजीठिया वेतनबोर्ड की सिफारिशों का हवाला देते हुए कहा है कि 1998-99 से 2007-08 के दौरान भारत में समाचार पत्र उद्योग के राजस्व में संचयी वार्षिक वृद्धि (सीजेईआर) 7.2 प्रतिशत रही। यह वह दौर रहा है जब मणिसाना वेतनबोर्ड की सिफारिशें प्रभावी थीं। इन्हीं 10 वर्षो में अखबारों की सकल बिक्री 36,625.2 करोड़ रुपये बढ़कर 68,853.2 करोड़ रुपये हो गयी। उन्होंने यह भी याद दिलाया कि देश के 16 बड़े अखबारों की तीन चौथाई आय सरकारी विज्ञापनों से आती है। उन्होंने आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा है कि वेतनबोर्डो के इसी दौर में टाइम्स आफ इंडिया की आय 785 करोड़ रुपये से बढ़कर 3,500 करोड़ रुपये से अधिक हो गयी। अगर उंचे वेतन के बोझ से अखबार मर रहे होते, तो छोटे से लेकर बड़े अखबारों की आय में इस तरह बेतहाशा बढ़ोतरी नहीं होती।
कन्फेडरेशन के महासचिव एमएस यादव ने वेतनबोर्ड के खिलाफ एक प्रमुख समाचार पत्र समूह के मुख्य कार्याधिकारी के हाल के लेख को अखबारी कर्मचारियों के वेतनमान में संशोधन की प्रक्रिया में विघ्न डालने का ओछा प्रयास बताया। यादव ने कहा कि 12 साल के लंबे अंतराल के बाद अखबारी उद्योग के कर्मचरियों की जायज मांगों को पूरा करने के लिए चल रही प्रक्रिया में ऐसे समय में पलीता लगाने का प्रयास किया जा रहा है, जब सरकार मजीठिया बोर्ड की सिफारिशों पर अधिसूचना जारी करने की तैयारी में है।
उल्लेखनीय है कि कन्फेडरेशन में कर्मचारियों के शीर्ष संगठन, आईएफडब्ल्यूजे, एनयूजे, आईजेयू, एआईएनईएफ, फेडरेशन आफ पीटीआई एम्प्लाइज यूनियन्स और यूएनआई वर्कर्स यूनियन शामिल हैं। कन्फेडरेशन ने हाल में संप्रग की अध्यक्ष सोनिया गांधी के कार्यालय पर रैली आयोजित कर उन्हें अपनी जायज मांगों के संदर्भ में ज्ञापन सौंपा था। श्रममंत्री मल्लिकार्जुन खडगे ने भी हाल में कहा था कि वह मजीठिया वेतनबोर्ड की सिफारिशों की अधिसूचना का प्रस्ताव मंत्रिमंडल के सामने प्रस्तुत करने की तैयारी कर रहे हैं। कन्फेडरेशन महासचिव ने कहा कि अखबारी मालिकों का यह कहना मजाक है कि वेतनबोर्ड के माध्यम से सरकार अखबार के गर्दन पर हाथ डाल रही है। यादव ने इस संबंध में 1975 में वेतनबोर्ड को बीच में ही भंग किये जाने की घटना का हवाला दिया और कहा कि जब जब सरकारों को प्रेस पर नियंत्रण करना होता है, तो वह वेतनबोर्ड भंग करती हैं न कि उसे लागू करवाती हैं। उन्होंने सवाल किया है कि क्या अब तक वेतनबोर्ड के कारण सभी अखबारों के पत्रकार सरकार का गुणगान करते आये हैं।
उन्होंने कहा कि अखबारी उद्योग में कर्मचारियों के शोषण को रोकने का कानून न्यायमूर्ति राजाध्यक्ष की अध्यक्षता वाले पहले प्रेस आयोग की सिफारिशों के आधार पर बनाया गया था। यादव ने कहा, मैं यहां प्रथम प्रेस आयोग की रिपोर्ट की उन बातों का उल्लेख नहीं करना चाहता, जो उस समय अखबार मालिकों के बारे में कही गई थीं। यादव ने कहा कि यह सही है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया के कर्मचारियों के लिए सरकार वेतनबोर्ड नहीं बनाती, लेकिन देश में इलेक्ट्रानिक मीडिया अभी नया मीडिया है तथा हमारे संगठन इस कानून का विस्तार उस क्षेत्र तक करने की मांग करते आ रहे हैं। यादव ने कहा, उच्चतम न्यायालय ने श्रमजीवी पत्रकार कानून को बार बार संवैधानिक करार दिया है और बार-बार मालिकों की इस दलील को खारिज कर चुका है कि इसके कारण प्रेस की स्वतंत्रता प्रभावित होती है।
कन्फेडरेशन ने अखबार मालिकों के इस तर्क को भी खारिज किया कि कर्मचारियों को तथाकथित उंचा वेतन देने से अखबारी प्रतिष्ठानों पर असहनीय वित्तीय बोझ बढ़ता है। यादव ने कहा कि सचाई इसके विपरीत है क्योंकि श्रमजीवी पत्रकार कानून के लागू होने के बाद पिछले 50 वर्षो में भारत में अखबारी उद्योग ने दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की की है। यादव ने मजीठिया वेतनबोर्ड की सिफारिशों का हवाला देते हुए कहा है कि 1998-99 से 2007-08 के दौरान भारत में समाचार पत्र उद्योग के राजस्व में संचयी वार्षिक वृद्धि (सीजेईआर) 7.2 प्रतिशत रही। यह वह दौर रहा है जब मणिसाना वेतनबोर्ड की सिफारिशें प्रभावी थीं। इन्हीं 10 वर्षो में अखबारों की सकल बिक्री 36,625.2 करोड़ रुपये बढ़कर 68,853.2 करोड़ रुपये हो गयी। उन्होंने यह भी याद दिलाया कि देश के 16 बड़े अखबारों की तीन चौथाई आय सरकारी विज्ञापनों से आती है। उन्होंने आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा है कि वेतनबोर्डो के इसी दौर में टाइम्स आफ इंडिया की आय 785 करोड़ रुपये से बढ़कर 3,500 करोड़ रुपये से अधिक हो गयी। अगर उंचे वेतन के बोझ से अखबार मर रहे होते, तो छोटे से लेकर बड़े अखबारों की आय में इस तरह बेतहाशा बढ़ोतरी नहीं होती।
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