शनिवार, 20 अप्रैल 2013

किसे मानें अपनी तस्वीर


                   सीमा श्रीवास्तव
आज सबसे सशक्त मीडिया है टेलीविजन। यह दृश्य-श्रव्य माध्यम है और इसकी पहुंच दूर-दूर तक है। टेलीविजन का बटन दबाते ही कैटवाक करती कोई माडल, या अगले ही ही क्षण साड़ी में सलीके से लिपटी पतिव्रता स्त्री की तस्वीर नजर आती है। कभी ऐश्वर्या राय और प्रियंका की खूबसूरती के राज बताए जाएंगे, तो कभी किसी देवी की औरत धर्म निभाने की कहानी का गुणगान किया जाएगा।
टेलीविजन पर कभी पूरे घर को खुश रखने के लिए अपनी इच्छाओं का गला घोंट देने वाली आदर्श गृहणी की कहानी दिखाई जाती है, तो कभी अराजकता की हद तक अपनी मर्जी से जीती, भोग-विलास में लीन किसी स्वार्थी लड़की का चित्र। एक तीसरी तस्वीर भी है जिसमें औरत अपनी पहचान और आजीविका के लिए नौकरी करती है, पर घर की खुशी या शादी में बाधा आने पर नौकरी  छोड़ देती है। चाहे वह बहुत बड़े पद पर ही क्यों न हो, सास ससुर, पति की सेवा वह अपना प्रमुख धर्म समझती है। उस औरत की समाज में काफी प्रतिष्ठा है, पर घर में वह अपने पति की आज्ञाकारी पत्नी होती है। आजकल मीडिया औरतों की इस तस्वीर को खूब सजा संवार कर परोस रहा है। टेलीविजन में औरतों की ये तीनों तस्वीरें एक साथ ही पेश की जा रही हैं। ऐसे में औरतें दुविधा में हैं कि वास्तव में कौन सी तस्वीर उनकी अपनी है या कौन सी तस्वीर उनकी होनी चाहिए।
कैटवॉट करती मॉडल
पहली तस्वीर जो कि कोई उत्पाद बेचती या कैटवॉक करती किसी मॉडल की है, जिसे देखकर लगता ही नहीं कि वह हमारे समाज की लड़की है। उसके लिए छेड़छाड़, बलात्कार जैसी समस्या है ही नहीं, क्योंकि उसकी सुरक्षा की दीवार बहुत मजबूत है। उसकी मुख्य समस्या है कि कैसे वह खुद को ज्यादा से ज्यादा खूबसूरत बनाकर लोगों के सामने प्रस्तुत करे। उसकी और हमारी समस्या में कोई तालमेल ही नहीं है। उसे देखकर ऐसा लगता है जैसे वह किसी दूसरी दुनिया की प्राणी हो। इसलिए यह तस्वीर हमारी नहीं हो सकती।
आज्ञाकारी स्त्री की तस्वीर
दूसरी तस्वीर जो कई सदी पीछे की है, पर जिसे आजकल खूब चमकाकर पेश किया जा रहा है, वह एक पतिव्रता स्त्री, आज्ञाकारी बहू-बेटी और त्यागमयी मां की तस्वीर है। धार्मिक-पारिवारिक धारावाहिकों के माध्यम से औरतों के सामने यह तस्वीर भी पेश की जा रही है। इन औरतों के लिए सब कुछ उनका परिवार ही होता है और ये सारी जरूरतों के लिए घर के पुरुष सदस्यों का मुंह देखती हैं। पहली तस्वीर वाली औरत को जितना ही उच्चश्रृंखल, गैरजिम्मेदार, खुदगर्ज और भोगवादी दिखाया जाता है, उतनी ही तीक्ष्णता से दूसरी तस्वीर की परंपरावादी और यथास्थितिवादी औरत आम दर्शकों को सहज स्वाभाविक लगने लगती है। हमारे समाज की ज्यादातर औरतों की जिन्दगी दूसरी तस्वीर से ज्यादा मेल खाती है और इस तस्वीर को महिमामंडित करने का मकसद उन्हें इसी स्थिति में बने रहने की प्रेरणा देना है। इसलिए कि भले ही औरतें आज घर में सिमटी हुई हैं पर समाज विकास के कारण घर से बाहर निकलकर पढ़-लिखकर नौकरी करने का सपना भी आज की औरतें देखने लगी हैं। आज औरतें निहायत पारंपरिक होकर नहीं जीना चाहतीं। वे अपनी पहचान और अस्तित्व के लिए सचेत हैं। वे इस घुटन से बाहर आने के लिए छटपटा रही हैं, जबकि मीडिया उन्हें वापस घर में लौटने का मूल्य परोस रहा है, जो वास्तव में एक अपराध है।
विश्व बैंक के एक हालिया सर्वेक्षण के अनुसार उत्तर प्रदेश में 90 प्रतिशत औरतों को घर से बाहर कदम रखने के लिए पुरुषों की इजाजत लेनी पड़ती है। एक तिहाई औरतों के पास निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं है। टीवी पर दिखने वाली औरतों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर दिखाया जाता है, पर मानसिक रूप से वे भी अपने पिता, पति या पुत्र पर निर्भर रहती हैं। वे पुरुषवादी जकड़न को तोड़ती तो दिखाई जाती हैं, पर अंतत: समझौता कर खुश रहती हैं। औरतों के लिए यह तस्वीर ज्यादा खतरनाक है, क्योंकि ये समझौते इतने सुंदर तरीके से पेश किए जाते हंै कि हमें लगता है कि हां ऐसा ही होना चहिए।
गलत आदर्श पेश करती तस्वीर
तीसरी तस्वीर जो देखने में काफी लुभावनी लगती है, जिसे देखकर लगता है कि दुनिया की सारी औरतें पढ़ी-लिखी और सभी आत्मनिर्भर हैं। सीरियलों में इन औरतों को इतना समर्थ दिखाया जाता है, जिसमें वे दफ्तर और घर दोनों का काम अत्यंत दक्षता के साथ करती हैं-बगैर थके, बिना किसी चिड़चिड़ाहट और गुस्से के। उसकी यह छवि देखकर आश्चर्य होता है कि कोई इंसान इतना समर्थ कैसे हो सकता है। कहीं न कहीं इस तस्वीर के माध्यम से वे यह भी पुष्ट करना चाहते हैं कि औरत कितना भी पढ़-लिख जाए, कुछ भी बन जाए, घरेलू जिम्मेदारियां तो उसे ही निभानी हैं। विज्ञान टेक्नोलॉजी चाहे जहां पहुंच जाए, घरेलू श्रम उसके हिस्से का ही है। यदि उसमें खरीदने की क्षमता हो, तो वह कपड़े हाथ से नहीं, वाशिंग मशीन से धो रही है और घर की सफाई वैक्यूम क्लीनर से कर रही है। लेकिन काम की जिम्मेदारी उसी की है। हमारे समाज में स्त्रियों की स्थिति टीवी में दिखने वाली इस तस्वीर के विपरीत है।
इन तस्वीरों पर गहराई से विचार करने पर स्पष्ट हो जाता है कि दरअसल ये तीनों ही तस्वीरें औरत विरोधी और पुरुषवादी मानसिकता की पोषक हैं। पहली तस्वीर, औरत को शरीर के रूप में पेश करती है, दूसरी पुरुष की दासी के रूप में और तीसरी तस्वीर गलत समझौते को आदर्श मूल्य बनाकर पेश करती है। ये तीनों ही तस्वीर औरतों को छल और बरगलाने वाली हैं। अत: मीडिया के इस झूठे आइने को तोड़कर हमें अपनी एक नई तस्वीर तलाशनी होगी, जिसमें औरत इस सड़े-गले, पिछड़े समाज की मूल्यों-मान्यताओं से जूझ तो रही होगी पर उसके चेहरे पर अपने पिछले संघर्षों की दमक भी होगी, उन संघर्षों की दमक जिनके बल पर उसने ढेर सारे अधिकार हासिल किए हैं और ढेरों अधिकार अभी उसे हासिल करने हैं। यही हमारी सच्ची तस्वीर होगी।

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