गुरुवार, 9 जून 2011

मकबूल फिदा हुसैन से

-गोबिन्द प्रसाद

आंखों में
उतर रहा है
सलेटी गाढ़ा-सा
आसमान
चीड़ का जंगल
सनसनाता हुआ
गुजर गया है
अलगू की बस्ती से
बूढ़े की आंखों में
तमाखू की
लपटों का सुलगाव
कांपकर रह गया है
मेहनतकश चेहरों पर
धूप की थिगलियां
कब तक लगाओगे
मकबूल फिदा हुसैन!
सिमट रहा है समुद्र
धीरे धीरे
बच्चों की नन्हीं हथेलियों के बीच
मुझे मालूम है
तुम फिर
रंगों की चट्टानी भाषा से
लड़ते हुए
गूंगे हो जाओगे
मकबूल फिदा हुसैन
और ... मेरे शब्द
बच्चे की तरह
अपनी माँ से
लिपट कर सो जाएंगे
आसमान... कुछ नहीं बोलेगा
बस्ती को काठ मार जाएगा
बच्चों की नन्हीं हथेलियां
और बूढ़े की आंखों में
कांपती लपटों का सुलगाव
बेहतर यही है
इन्हें हवाओं में, पागल हवाओं में
तिर जाने दो मकबूल फिदा हुसैन

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