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अपदस्थ राष्ट्रपति मुर्सी के समर्थकों द्वारा दिए जा
रहे धरनों को उखाड़ने के लिए सेना, पुलिस और उनके गुर्गों द्वारा पिछले पाँच दिनों
से जारी कार्रवाइयों में सरकारी सूत्रों
से ही अब तक 800 से अधिक लोगों के मारे जाने की पुष्टि हो चुकी है, जबकि असली संख्या
हजार से भी अधिक है। इसके अलावा अन्य हजारों घायल हैं। हालाँकि यह सब आतंकवाद को
शिकस्त देने और व्यवस्था बहाल करने के नाम पर हो रहा है लेकिन इसमें शक की कोई
गुंजाइश नहीं कि इसका असल उद्देश्य नागरिक शासन की किसी भी सम्भावना को सदा के लिए
समाप्त कर पुनः सैनिक शासन बहाल करना है।
सिर्फ दो वर्ष पहले जिस
काहिरा के तहरीर चौक ने विश्वव्यापी आशा का संचार किया था वही काहिरा अब उसके
कब्रगाह में तब्दील हो गया है। लेकिन इसके लिए जिम्मेदार कौन है? मुबारक को अपदस्थ
किये जाने के बाद से जब भी बदलाव की प्रक्रिया को आघात लगा है मिस्र के तथाकथित
क्रान्तिकारियों ने एक ही मन्त्र दुहराया है कि ‘‘क्रान्ति एक प्रकिया है’’ और
उन्हें यह मुगालता रहा है कि वे ही इस प्रक्रिया को संचालित कर रहे है।
लेकिन सच्चाई यह है कि प्रतिक्रान्ति भी एक
प्रक्रिया है और आने वाले लम्बे समय के लिए उसने जड़ जमा लिया है। और ऐसा सिर्फ
इसलिए नहीं हुआ है कि उसे संचालित करने वाली ताकतें, सेना और ‘फेलौल” (पुरानी सत्ता के गुर्गे) अधिक साधन सपन्न
हैं बल्कि इसलिए हुआ है कि वे संगठित हैं और अपने हितों की रक्षा करने का उनका
लक्ष्य सामान है जो उनके एकजुट करता है। जबकि नेतृत्वविहीन इन तथाकथित
क्रान्तिकारियों में इन गुणों का नितान्त अभाव है। पुरानी व्यवस्था अंगों-उपांगो में सेना ही सबसे मजबूत होती है और उसको और एवं
उसके समस्त ढाँचे को विखण्डित किये बिना किसी व्यवस्था में बुनियादी बदलाव नहीं
लाया जा सकता है। पिछली शताब्दी के क्रान्तिकारियों के अलावा इस बात को खुमैनी भी
जनता था जिसने सत्ता पर कब्ज़ा करने के बाद पहला काम शाह की सेना को विखण्डित करने
का किया। लेकिन मिस्र के इन तथाकथित क्रान्तिकारियों के मुगालतों का कोई अन्त नहीं
था। मुबारक को सत्ताच्युत किये जाने के तुरन्त बाद जब उसको अपदस्थ करने के लिए एक
मंच पर आयी विभिन्न शक्तियाँ अलग-अलग रास्तों पर चल दीं तो उनके दोनों प्रमुख धड़े
उदारवादियों और इस्लामियों ने विभिन्न मौकों पर अलग-अलग सेना से तालमेल स्थापित
करने का प्रयास किया, मानों सेना कोई निष्पक्ष खिलाड़ी हो।
वह भी एक ऐसी देश में जहाँ दशकों से सेना ही सत्ता
का प्रमुख आधार रही है और स्वतन्त्र रूप से व्यवसाय, संस्थानों और संसाधनों
की मालिक है। यह वही सेना है जिसे अमेरिका ने खड़ा किया है और दशकों से वित्त,
अस्त्र-शास्त्रों और अन्य संसाधनों द्वारा पाला-पोसा है जिससे कि वह अरब-इसराइल
विवाद से अलग रहे और इस तरह पश्चिमी एशिया में उसकी चौकी की हिफाजत करे।
जिस समय पुरानी सत्ता
अपने को पुनः एकजुट कर रही थी मिस्र के ये गगनबिहारी क्रान्तिकारी अपने
मुगालतों का में ही व्यस्त रहे और 3 जुलाई को जब अब्दुल फतह अल-सीसी ने सत्ता पर
कब्ज़ा कर लिया तो मिस्र में परिवर्तन की प्रक्रिया का, जिसे वे क्रान्ति कहते फूले
नहीं समाते थे, या अन्ततः उसके मौजूदा चरण का, अन्त हो चुका था। अब क्रान्ति सिर्फ
उनकी कल्पना में रह गयी थी, लेकिन वे तब भी उसे वास्तविक समझते रहे और उनमें से तो
कुछ तो इस क्रान्ति की रक्षा करने की मजबूरी के नाम पर सेना के कुकृत्यों में शरीक
हो गए।
अल-सीसी को उनके इस
मुगालते को हवा देने में कोई परेशानी नहीं थी बल्कि उसने खुद भी क्रान्तिकारी का
बाना ओढ़ लिया। सेना के प्रचार के मुताबिक अल-सीसी और उसके सहकर्मियों ने दो वर्ष
पहले मिस्र को न केवल मुबारक से छुटकारा दिलाया बल्कि उत्तराधिकारी के रूप में
तैयार किये जा रहे उसके पुत्र गमाल से भी रक्षा की जो नवउदारवादी ‘सुधार’ का
समर्थक था और जिससे सेना के आर्थिक हितों पर आँच आ सकती थी। और अब वह देश की
‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ और उसके विदेशी समर्थकों से रक्षा कर रहा है, जिसमें वे हमास
से लेकर अमेरिकी राजदूत अन्ने पैटरसन तक सबका नाम शामिल करते हैं।
इन तथाकथित क्रान्तिकारियों
के मुगालतों ने सेना के इस प्रचार को हवा दी और आज की विडम्बनात्मक स्थिति पैदा की
कि जिसमें एकओर नरसंहार जारी है, वही, दूसरी ओर, इस कुकृत्य को, लगता है, भारी
जनसमर्थन हासिल है। सेना द्वारा गाया जा रहा क्रान्ति का गीत आज मिस्र में बहुतों
को, सम्भवतः बहुसंख्यक आबादी को भा रहा है क्योंकि इसनें अंधराष्ट्रवाद के सभी
तत्व हैं। इसमें शायद ही किसी को शक हो कि मौजूदा अन्तरिम सरकार के पीछे अल-सीसी
और सेना की ताकत है लेकिन इसमें आश्चर्य की कोई गुञ्जाइश नहीं है यदि निकट भविष्य
में ही उसका नाम राष्ट्रपति के रूप में सामने आये। ऐसी स्थिति में अल-सीसी की
सरकार खुले तौर पर एक अंधराष्ट्रवादी फासिस्ट सरकार होगी।
मौजूदा सरकार इस बात का
प्रचार कर रही है कि ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ आतंकवादी है, इसमें निश्चित तौर पर
संदेह की अपार गुञ्जाइश है लेकिन इसमें संदेह की कोई गुञ्जाइश नहीं कि वह
प्रतिक्रियावादी है। लेकिन उस पर कहर बरसा रही सेना भी प्रतिक्रियावादी है और वह
एक संस्थाबद्ध और मजबूत प्रतिक्रियावादी है जो दूसरे प्रतिक्रियादी शक्ति को या कम
से कम उसके एक हिस्से आतंकवादी बनाने की दिशा में धकेल रही है। यदि देश
संकीर्णतावादी हिंसा की चपेट में आ जाये, जिसकी शुरुआत ढेर सारी क्रोप्टिक
गिरजाघरों को आगजनी का निशाना बनाने के माध्यम से सामने आ चुकी है, तो इसका सबसे
अधिक फायदा सेना को ही होनेवाला है। यहाँ वही कुछ हो रहा है जो 1900 में अल्जीरिया
में हो चुका है और फ़िलहाल सीरिया में जारी है। मिस्र की इस घटनाक्रम का
दुनियाभर की परिवर्तन चाहने वाली जनता के लिए महत्व है। ठीक उसी प्रकार जैसे 2011
की घटनाक्रम का था। वह जनता की पहलकदमी का ऐसा
प्रस्फोट था जिसकी ओर सभी ने उम्मीद से देखा और उसका स्वागत किया। नयी शताब्दी की
वह पहली घटना थी जिसमें इतिहास निर्माण में जनता की भूमिका को रेखांकित किया था।
लेकिन वहाँ घटनाक्रम में आये मौजूदा मोड़ ने बदलाव की प्रक्रिया के एक दूसरे लेकिन
उतने ही महत्वपूर्ण पहलू को रेखांकित कर दिया है। वह है इसमें विचारधारा और संगठन
की भूमिका। जनता की पहलकदमी को यदि जनता के एक बेहतर भविष्य की विचारधारा और उस
अनुरूप नेतृत्व की संरचनाओं के साथ नहीं मिलाया जाय तो वही परिणाम सामने आयेगा जो
आज मिस्र और पश्चिम एशिया के अन्य देशों में सामने आ रहा है। एक ऐसी दुनिया में,
जो सभी किस्म के प्रतिक्रियावादियों के आपसी मेलमिलाप व सामंजस्य और उनपर एक
महाशक्ति के सर्वस्वीकृत प्रभुत्व के आधार पर चल रही है, यदि जनता की पहलकदमी को सही विचारधारा और सांगठनिक रूपों से
मिलान नहीं किया जाय, तो अन्तिम योगफल में
उनका फायदा उसी महाशक्ति को मिलेगा। सेना के मौजूदा ताण्डव
और विचारधारा और सांगठनिक रूपों के आभाव में मिस्र का भविष्य अंधकारमय ही दिखायी
देता है।
साभार-![](https://lh4.googleusercontent.com/-NVed61Nic8Q/TkXQWwpnJ8I/AAAAAAAAAKs/u7pbqjvXwZM/s912/Red%252520Tulips%252520Logo.jpg)