शनिवार, 18 सितंबर 2010

क्या हम भगत सिंह को जानते हैं?

कुँवरपाल सिंह
पूछिए तो कहते हैं कि हाँ बहुत बड़ा क्रांतिकारी बलिदानी व्यक्ति था। देश के लिए अपनी जान दे दी। हमारा प्रेरणा स्रोत है। किन्तु बहुत कम लोग जानते हैं कि भगत सिंह बीसवीं शताब्दी के राजनीतिक कार्यकर्ताओं के बीच एक प्रमुख बुद्धिजीवी भी थे। आज उन्हें इसी रूप में याद करने की आवश्यकता है। लगभग दो साल वे जेल में रहे। इस बीच उन्होंने बहुत सी पुस्तकें पढ़ीं। इनमें यूरोप-अमरीका के विद्वान, चिंतक, बुद्धिजीवी साहित्यकारों की पुस्तकें हैं। उनका पूर्ण राजनीतिक जीवन 18 साल का रहा और कुल उम्र 25 साल। अजीब संयोग है कि रानी लक्ष्मीबाई भी 23 साल की उम्र में अँग्रेज़ों से लड़ते हुए शहीद हो गयीं। भगत सिंह के अन्य साथी यतीन्द्रनाथ ने 65 दिन तक आमरण अनशन किया-जेल सुधार तथा मानवाधिकारों के लिए। इसके बाद वह भी 23 वर्ष की आयु में शहीद हो गये। उनकी शहादत ने पूरे देश को झकझोर दिया। ब्रिटिश सरकार भी मजबूर हो गयी। क्रान्तिकारियों का यह प्रभाव भी पड़ा कि वहाँ पढ़ने लिखने की सामग्री दी जाने लगी। यह सुधार कुछ मामूली परिवर्तनों के साथ, लगभग उसी रूप में आज भी मौजूद है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि उनकी चार महत्वपूर्ण कृतियाँ- The ideal Of Socialism (समाजवाद का आदर्श), History of Revolutionary Movement in India (भारत में क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास), At the Door of Death (मौत के दरवाजे पर), जेल से बाहर तो आई थीं किन्तु वे कहाँ गयीं किसी को पता नहीं। उनकी जेल नोटबुक जरूर प्रकाश में आई, जो उनके भाई कुलबीर सिंह के पास थी। यह बात रूसी विद्वान एल.वी. मित्रोखिन के जरिए मालूम हुई। यह नोटबुक उन्हें 1977 में मिल गयी। 1981 में उन्होंने भगत सिंह पर एक विस्तृत शोध-निबंध लिखा था। बाद में जगमोहन सिंह तथा डॉ. चमनलाल ने भगत सिंह के दस्तावेजों को हिन्दी में प्रकाशित करवाया। फिर भगत सिंह की जेल नोटबुक को लम्बी भूमिका के साथ 'शहीदे आजम की जेल डायरी' नाम से सत्यम वर्मा ने संपादित किया तथा यह 1999 में परिकल्पना प्रकाशन, लखनऊ से प्रकाशित हुई। यह जेल नोटबुक भगत सिंह तथा क्रांतिकारी आंदोलन के बारे में हमारी ज्ञान-वृद्धि करती है। भगत सिंह लाहौर जेल में 1929 से 23 मार्च, 1931 तक, फाँसी पर चढ़ाए जाने से पूर्व नोटबुक लिखते रहे।
बीसवीं सदी के किसी भी लेखक या बुद्धिजीवी में इतनी वैचारिक प्रगति नहीं दिखती, जितनी भगत सिंह में। 1918 से उनका आंदोलनकारी सफर आरंभ हुआ। तब वे आर्य समाजी थे, फिर सुधारवादी फिर अराजकतावादी होते हुए अंत में वैज्ञानिक समाजवाद के साये में आये। आतंकवाद को वे गलत समझते थे। उनका विचार था कि बिना संगठन और पार्टी के कोई परिवर्तन संभव नहीं है, क्रांतिकारी के रूप में ये दोनों बहुत आवश्यक हैं। लेनिन उनके आदर्श थे। कहना प्रासंगिक होगा कि फाँसी का बुलावा आया तो भगत सिंह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे, तब उन्होंने एक हाथ उठा कर कहा कि रुको, एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है। उन्होंने नौजवानों से अपील की कि ''व्यवस्थित ढंग से आगे बढ़ने के लिए आपको जिसकी सबसे अधिक आवश्यकता है, वह है एक पार्टी जिसके पास जिस टाइप के कार्यकर्ताओं का ऊपर जिक्र किया जा चुका है, वैसे कार्यकर्ता हों-ऐसे कार्यकर्ता जिनके दिमाग साफ हों और जिनमें समस्याओं की तीखी पकड़ हों और पहल करने और तुरन्त फैसला लेने की क्षमता हो। इससे पार्टी का अनुशासन बहुत कठोर होगा और यह जरूरी नहीं है कि वह भूमिगत पार्टी हो, बल्कि भूमिगत नहीं होनी चाहिए- पार्टी को अपने काम की शुरूआत अवाम के बीच प्रचार से करनी चाहिए। किसानों और मज़दूरों को संगठित करने और उनकी सक्रिय सहानुभूति प्राप्त करने के लिए यह बहुत जरूरी है। इस पार्टी को कम्युनिस्ट पार्टी का नाम दिया जा सकता है।'' (दो फरवरी 1931 को युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम अपील से) भगत सिंह ने इस देश की जनता को तीन नारे दिये- 1. इंकलाब-जिन्‍दाबाद, 2. किसान-मजदूर जिन्‍दाबाद (कम्युनिस्ट पार्टी का आज भी यही नारा है) 3. साम्राज्यवाद का नाश हो। ये तीनों नारे आज हमारी श्रमिक एवं संघर्षशील जनता के कंठहार हैं। भगत सिंह ने महत्वपूर्ण कार्य यह किया कि अपने समय के क्रांतिकारी आंदोलन को पुराने क्रांतिकारी आंदोलन की रूढ़वादी परम्परा से विमुक्त किया। पुराने क्रांतिकारी किसी न किसी देवी-देवता के उपासक थे और दृढ़ ईश्वर विश्वासी थे। वे इस सबको नियति का खेल मानते थे। भगत सिंह ने कहा कि इस प्रकार के क्रांतिकारी अंत में साधु-सन्यासी बन जाते हैं। उन्होंने धर्म को राजनीति से अलग रखने का सबसे अधिक प्रयास किया। राजनीति और धर्म के मेल में देशभक्ति की भावना मर जाती है, अपने इसी विचार को नौजवानों तक पहुँचाने के लिए भगत सिंह ने एक लेख लिखा-'मैं नास्तिक क्यों हूँ' जो आज भी बहुत चाव से पढ़ा जाता है। भगत सिंह ने यह भी कहा कि ''हमें धर्मनिरपेक्ष राजनीति की जरूरत है। हमें ऐसी राजनीति की जरूरत नहीं जो किसी भी धर्म को महत्व दे।'' भगत सिंह की यह बात बहुत सही ठहरती है क्यों कि पिछले 40 साल से धर्म की राजनीति हो रही है और दंगे कराये जा रहे हैं। आज तो इस में जाति का भी समावेश हो गया है। धर्म की राजनीति करने वाले लोग हर समस्या का हल अतीत में देखते हैं। उनके लिए हर समस्या का हल उनके धार्मिक ग्रंथों में निहित है। ऐसे दिवास्वप्न देखने वाले लोग देश का क्या भला करेंगे। भगत सिंह की रचनाओं के आधार पर उनका एक संक्षिप्त मूल्यांकन हमने किया है। यह वर्ष उनका जन्म शताब्दी वर्ष है। 'वर्तमान साहित्य' उन पर यत्किंचित सामग्री दे रहा है। भगत सिंह पर उनके साथी शिव वर्मा के संस्मरण तथा उनके द्वारा लिखी पुस्तक 'भगत सिंह की चुनी हुई रचनाएं' हिन्दी व अँग्रेज़ी दोनों में उपलब्ध हैं। इसे विशेष रूप से पढ़ने का आग्रह है। भगत सिंह ने भारत में क्रांति की संभावना पर जो विचार दिया है वह आज भी सार्थक है-''क्रान्ति परिश्रमी विचारकों और परिश्रमी कार्यकर्ताओं की पैदावार होती है। दुर्भाग्य से भारतीय क्रान्ति का बौद्धिक पक्ष हमेशा दुर्बल रहा है। इसलिए क्रान्ति की आवश्यक चीजों और किये गये काम के प्रभाव पर ध्यान नहीं दिया गया। इसलिए एक क्रान्तिकारी को अध्ययन मनन को अपनी पवित्र जिम्मेदारी बना लेना चाहिए।''
(वरिष्ठ साहित्यकार कुंवरपाल सिंह का लेख साभार प्रस्तुत कर रहे है)

वह शहीद नहीं था

सुरजीत पातर
उसने कब कहा
शहीद हूं मैं
फांसी का रस्सा चूमने से कुछ रोज पहले
उसने तो केवल यही कहा था
कि मुझसे बढ़ कौन होगा खुशकिस्मत ...
मुझे नाज़ है अपने आप पर
अब तो बेहद बेताबी से
अंतिम परीक्षा की है प्रतिक्षा मुझे
कब कहा था उसने : मैं शहीद हूं


शहीद तो उसे धरती ने कहा था
सतलुज की गवाही पर
शहीद तो, पांचों दरिया ने कहा था
गंगा ने कहा था
ब्रह्मपुत्र ने कहा था
शहीद तो उसे वृक्षों के पत्ते-पत्ते ने कहा था


आप जो अब धरती से युद्धरत हो
आप जो नदियों से युद्धरत हो
आप जो वृक्षों के पत्तों तक से युद्धरत हो


आपके लिये बस दुआ ही मांग सकता हूं मैं
कि बचाये आपको
रब्ब
धरती के शाप से
नदियों की बद्दुआ से
वृक्षों की चित्कार से।
(पंजाबी से अनुवाद- मनोज शर्मा)

पाश की भगत सिंह पर एक कविता

अवतार सिंह संधु 'पाश' पंजाबी के प्रख्‍यात शायर थे । वे वामपंथी आंदोलन में सक्रिय रहे। आजाद मुल्‍क़ के लिए जैसे समाज का ख्‍़वाब भगत‍ सिंह देख रहे थे, पाश वैसे ही समाज बनाने की जद्दोजहद में लगे थे। पंजाब में जिस दौरान अलगाववादी आंदोलन चरम पर था, पाश ने इसका खुलकर विरोध किया। ज़ाहिर है, वे इसके ख़तरे से अच्‍छी तरह वाकि़फ़ भी थे। ... पाश भी उसी दिन शहीद हो गये जिस दिन भगत सिंह शहीद हुए थे... सिर्फ सन् अलग- अलग थे। पाश महज़ 38 साल की उम्र में 23 मार्च 1988 को शहीद हो गये थे। भगत‍ सिंह पर लिखी गयी उनकी कविता यहॉं पेश है-

शहीद भगत सिंह
-पाश
पहला चिंतक था पंजाब का
सामाजिक संरचना पर जिसने
वैज्ञानिक नज़रिये से विचार किया था

पहला बौद्धि‍क
जिसने सामाजिक विषमताओं की, पीड़ा की
जड़ों तक पहचान की थी

पहला देशभक्‍त
जिसके मन में
समाज सुधार का
ए‍क निश्चित दृष्टिकोण था

पहला महान पंजाबी था वह
जिसने भावनाओं व बुद्धि‍ के सामंजस्‍य के लिए
धुँधली मान्‍यताओं का आसरा नहीं लिया था
ऐसा पहला पंजाबी
जो देशभक्ति के प्रदर्शनकारी प्रपंच से
मुक्‍त हो सका
पंजाब की विचारधारा को उसकी देन
सांडर्स की हत्‍या
असेम्‍बली में बम फेंकने और
फॉंसी के फंदे पर लटक जाने से कहीं अधिक है
भगत सिंह ने पहली बार
पंजाब को
जंगलीपन, पहलवानी व जहालत से
ब‍ुद्धि‍वाद की ओर मोड़ा था
जिस दिन फांसी दी गयी
उसकी कोठरी में
लेनिन की किताब मिली
जिसका एक पन्‍ना मोड़ा गया था
पंजाब की जवानी को
उसके आखिरी दिन से
इस मुड़े पन्‍ने से बढ़ना है आगे
चलना है आगे
(पंजाबी से अनुवाद: मनोज शर्मा, साभार: उद्भावना)

हम हैं इसके मालिक, हिन्‍दुस्‍तान हमारा

सन् 1857 के महासमर के 150 साल हो रहे हैं। हमारी कोशिश होगी कि शहीद ए आज़म पर इस महासमर से जुड़ी चीज़ें पाठकों के लिए मुहैया करायें। ख़ासकर वैसी सामग्री, जो आमतौर पर नहीं मिल पातीं।
आज यहां एक ऐसी कविता दी जा रही है, जिसे आप इस मुल्‍क का पहला क़ौमी तराना कहें तो शायद गलत नहीं होगा। आज से 150 साल पहले, मुल्‍क़ का ऐसा तसव्‍वुर नहीं था। राजा- रजवाड़ों के दिमाग में भी नहीं। यह गीत महासमर के एक मशहूर योद्धा अजीमुल्‍ला खां ने रचा था।
हम हैं इसके मालिक हिन्‍दुस्‍तान हमारा,पाक वतन है कौम का जन्‍नत से भी न्‍यारा।
ये है हमारी मिल्कियत, हिन्‍दुस्‍तान हमाराइनकी रूहानियत से रोशन है जग सारा।
कितना कदीम कितना नईम, सब दुनिया से प्‍यारा,करती है ज़रख़ेज़ जिसे गंगो-जमुन की धारा।
ऊपर बर्फीला पर्वत पहरेदार हमारा,नीचे साहिल पर बजता सागर का नक्‍कारा।
इसकी खानें उगल रही हैं, सोना, हीरा, पारा,इसकी शानो-शौकत का दुनिया में जयकारा।
आया फिरंगी दूर से ऐसा मंतर मारा,लूटा दोनों हाथ से, प्‍यारा वतन हमारा।
आज शहीदों ने है तुमको अहले वतन ललकारा,तोड़ो गुलामी की जंज़ीरें बरसाओ अंगारा।
हिन्‍दू-मुसलमां, सिख हमारा भाई-भाई प्‍यारा,यह है आजादी का झंडा, इसे सलाम हमारा।

भगत सिंह होने का मतलब

इरफ़ान हबीब
'मैं घोषणा करता हूं कि मैं आतंकवादी नहीं हूं और अपने क्रांतिकारी जीवन के आरंभिक दिनों को छोड़कर शायद कभी नहीं था। और मैं मानता हूं कि उन तरीकों से हम कुछ हासिल नहीं कर सकते।'
-भगत सिंह
निस्संदेह भगतसिंह भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के सर्वाधिक प्रसिद्ध शहीदों में से एक रहे हैं। हालांकि अधिकतर उन्हें गोली चलाने वाले युवा राष्ट्रवादी की रोमांटिक छवि से परे नहीं देख पाते। इसका कारण शायद यह है कि उनकी यही छवि औपनिवेशिक दौर के सरकारी दस्तावेजों में दर्ज की गई। लोग भगतसिंह को एक ऐसे शख्स के रूप में देखते थे,जो अपने हिंसात्मक कारनामों से ब्रिटिश शासन को आतंकित कर देता था। उनकी जबरदस्त हिम्मत ने उन्हें एक प्रतिमान बना दिया। भगतसिंह को आज भी प्यार और श्रद्धा की नजर से देखा जाता है,लेकिन क्या हमें उनकी राजनीति और विचारों के बारे में कुछ पता है?और क्या उनके हिंसा व आतंक में विश्वास के शुरुआती नजरिए के बारे में भी कुछ पता है (जो मौजूदा आतंकवादी हिंसा से एकदम अलग चीज थी),जिसे उन्होंने शीघ्र ही एक ऐसे क्रांतिकारी दृष्टिकोण में बदल लिया जो स्वाधीन भारत को एक धर्मनिरपेक्ष,समाजवादी और समतावादी समाज में बदलने से वास्ता रखता था।
भगत सिंह को जनता की ओर से इस तरह का मुक्त समर्थन क्यों मिला,जबकि उसके पास पहले से ही नायकों की कमी नहीं थी?इस सवाल का जवाब देना आसान नहीं है। जब देश के सबसे बड़े नेताओं का तात्कालिक लक्ष्य स्वतंत्रता प्राप्ति था,उस समय भगत सिंह,जो बमुश्किल अपनी किशोरावस्था से बाहर आये थे,उनके पास इस तात्कालिक लक्ष्य से परे देखने की दूरदृष्टि थी। उनका दृष्टिकोण एक वर्गविहीन समाज की स्थापना का था और उनका अल्पकालिक जीवन इस आदर्श को समर्पित रहा। भगत सिंह और उनके साथी दो मूलभूत मुद्दों को लेकर सजग थे,जो तात्कालिक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिक थे। पहला,बढ़ती हुई धार्मिक व सांस्कृतिक वैमन्स्यता और दूसरा,समाजवादी आधार पर समाज का पुनर्गठन। भगत सिंह और उनके कामरेडों ने क्रांतिकारी पार्टी के मुख्य लक्ष्यों में से एक के बतौर समाजवाद को लाने की जरूरत महसूस की। सितंबर 1928 में दिल्ली स्थित फिरोजशाह कोटला के खंडहरों में महत्वपूर्ण क्रांतिकारियों की बैठक में इस पर विचार विमर्श के बाद हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) में सोशलिस्ट शब्द जोड़ कर एचएसआरए बना दिया गया। भगत सिंह अपने साथियों को यह समझाने में सक्षम थे कि भारत की मुक्ति सिर्फ राजनीतिक आजादी में नहीं,बल्कि आर्थिक आजादी में है।
समाजवाद के प्रति उनकी प्रतिबद्धता 8 अप्रैल 1929 को उनके द्वारा असेंबली में बम फेंकने की कार्रवाई में भी प्रकट हुई। भगतसिंह दरअसल 1920 के दौर में सांप्रदायिकता के बढ़ते खतरे के प्रति सजग हुए। उसी दशक में आरएसएस और तबलीगी जमात का उदय हुआ। उन्होंने सांप्रदायिकतावादी प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने की नीति पर सवाल किए।
एक राजनीतिक विचारक के रूप में वह तब परिपक्व हुए जब अपनी शहादत से पहले उन्होंने दो साल जेल में रहते हुए गुजारे। उनकी जेल डायरी पूरी स्पष्टता से उनकी राजनीतिक बनावट के विकास को दिखाती है। जेल में ही उन्होंने अपना विख्यात लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूं' लिखा। यह लेख तार्किकता की दृढ़ पक्षधरता के साथ अंधविश्वास का पुरजोर खंडन करता है। भगत सिंह मानते थे कि धर्म शोषकों के हाथ का औजार है जिसका इस्तेमाल वे जनता में ईश्वर का भय बनाए रखकर उनका शोषण करने के लिए करते हैं।
एचएसआरए के नेताओं का वैज्ञानिक दृष्टिकोण समय के साथ विकसित हुआ और उनमें से अधिकतर समाजवादी आदर्श या साम्यवाद के करीब आए। वे व्यक्तिगत कार्रवाइयों के बजाय जनांदोलन में भरोसा रखते थे। भगत सिंह उस संघर्ष को लेकर एकदम स्पष्ट राय रखते थे। उन्होंने अपने आखिरी दिनों में कहा था-
‘भारत में यह संघर्ष तब तक जारी रहेगा जब तक मुट्ठी भर शोषक आम जनता के श्रम का शोषण करते रहेंगे। यह कोई मायने नहीं रखता कि ये शोषक खालिस ब्रिटिश हैं, ब्रिटिश व भारतीय दोनों सम्मिलित रूप से हैं या विशुद्ध भारतीय हैं।’
हमें भगतसिंह की जन्मशती के मौके पर उनके द्वारा सोचे गए शासन के वैकल्पिक ढांचे पर रोशनी डालनी चाहिए,जिसमें आतंक या हिंसा नहीं बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय सर्वोपरि होगा।

दुर्गा भाभी: एक परिचय

जेण्‍डर विभेद सिर्फ परिवारों में ही नहीं होता बल्कि समाज के हर क्षेत्र में इसका बोलबाला है। फिर चाहे वो क्रांतिकारियों को याद करने का ही मामला क्‍यों न हो। आजादी के लिए जान न्‍योछावर करने वाले को ही हम कितना याद करते हैं, यह खुद एक सवाल है। महिला क्रांतिकारियों की तो बात जाने दें। इसके बावजूद पुरुष क्रांतिकारी के बारे में फिर भी कुछ पता होता है, महिला क्रांतिकारियों के बारे में तो तलाशने पर भी मुश्किल से जानकारी मिल पाती है। आज ऐसी ही एक महिला क्रांतिकारी की पैदाइश का दिन है... उनकी पैदाइश की सौवीं सालगिरह।
एक दृश्‍य- पंजाब केसरी लाला लाजपत राय की शहादत के बाद अंग्रेज अफसर सांडर्स की हत्‍या। हत्‍यारों की तलाश में हर जगह जबरदस्‍त मोर्चाबंदी। लाहौर रेलवे स्‍टेशन। 18 दिसम्‍बर 1928। चार लोग। दो मर्द, एक औरत और एक बच्‍चा। इनमें दो लोग पति-पत्नी थे और बच्‍चे के साथ ट्रेन के पहले दर्जे के डिब्बे में बैठे। नौकर तीसरे दर्जे में था। ये और कोई नहीं बल्कि वे क्रांतिकारी थे, जिन्‍होंने पंजाब केसरी की मौत का बदला लिया था। पति के रूप में भगत सिंह थे तो पत्‍नी दुर्गावती देवी थीं और नौकर सुखदेव। दुर्गावती देवी, एक और क्रांतिकारी भगवती चरण वोहरा की जीवन साथी और बाकि क्रांतिकरियों की दुर्गा भाभी। और इस तरह दुर्गा भाभी ने साहसी काम कर दिखाया और भगत सिंह को अपना शौहर बनाकर लाहौर से अंग्रेजों के जबड़े से निकालकर कलकत्‍ता पहुँचा आयीं।
आने वाले दिनों में भगत सिंह ने जो किया, वो उन्‍हें शहीदे आज़म के दर्जे तक ले गया और उनकी जन्‍म शताब्‍दी का भी यह साल है। पर उनके साथ ही यह साल दुर्गाभाभी की भी जन्‍म शताब्‍दी का साल है। भगत सिंह तो याद रहे पर दुर्गा भाभी आज के क्रांतिकारियों को भी याद नहीं रहीं। यहां तक कि इंटरनेट, जिसे जानकारी का खजाना माना जाता है, वहां भी दुर्गा भाभी के बारे में न तो जानकारी मिलती है, फोटो की बात तो दूर है। भगत सिंह 28 सितम्‍बर 1907 में पैदा हुए थे और दुर्गा भाभी उसी साल सात अक्‍टूबर को इलाहाबाद में। 11 साल की उम्र में उनकी शादी लाहौर के भगवती चरण वोहरा से हुई। भगवती चरण वोहरा पढ़ाई के दौरान क्रांतिकारी आंदोलन के हिस्‍सा बन गये और उनके साथ ही दुर्गावती देवी भी कंधे से कंधा मिलाकर चलने लगीं। ये दोनों भगत सिंह के काफी करीब थे। क्रांतिकारी आंदोलन के जो भी खतरे थे, दुर्गा भाभी ने वो सारे खतरे उठाये और एक मजबूत क्रांतिकारी बन कर उभरीं। भगत सिंह और उनके साथियों को जब सजा हो गयी तो उन्‍हें छुड़ाने की योजना बनी। लाहौर में बनी इस योजना को अमलीजामा पहनाने भी इनका योगदान था। इसी योजना के तहत बम बन रहे थे। उन बम का परीक्षण रावी नदी के तट पर होना तय हुआ। परीक्षण के दौरान ही बम फट गया और भगवती चरण वोहरा की मौत हो गयी... और दुर्गा भाभी को आखिरी वक्‍त में उनका चेहरा भी देखने को नहीं मिला। इस व्‍यक्तिगत और भयानक हादसे के बावजूद वो डिगी नहीं... टूटी नहीं। आंदोलन का हिस्‍सा बनी रहीं।
इसी दौरान क्रांतिकारियों ने बम्‍बई के अत्‍याचारी गर्वनर हेली को मारने की योजना बनाई गयी। इस योजना को अंजाम देने वालों में दुर्गा भाभी भी थीं। उन्‍होंने गोलियां भी चलाईं। लेकिन यह वक्‍त क्रांतिकारी आंदोलन के उरुज और अवसान दोनों का था। एक एक करके क्रांतिकारी आंदोलन के बड़े कारकुन शहीद हो गये... भगवती चरण वोहरा, शालिग्राम शुक्‍ल, चन्‍द्रशेखर आजाद और फिर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु। इस हालत में भी दुर्गा भाभी आंदोलन को आगे बढ़ाने की कोशिश्‍ा करती रही। वे पुलिस की पकड़ में भी आयीं। जेल भी गयी और नजरबंद भी रहीं। सन् 1936 में वे गाजियाबाद आ गयीं। फिर लखनऊ। 20 जुलाई 1940 को उन्‍होंने लखनऊ में पहला मांटेसरी स्‍कूल स्‍थापित किया। उन्‍होंने अपना मकान शहीदों के बारे में शोध के लिए दान दे दिया। आखिरी वक्‍त में वे अपने पुत्र शचीन्‍द्र वोहरा के पास गाजियाबाद चली गयी थीं। इस महान क्रांतिकारी ने 14 अक्‍तूबर 1999 को 92 साल की उम्र में हमेशा के लिए इस जहाँ से विदा ले लिया।
जिसने अपने सुख दुख की परवाह किये बगैर, बिना कुछ चाहने की ख्‍वाहिश रखे अपना सब कुछ दॉंव पर लगा दिया हो, उस महान महिला क्रांतिकारी को याद रखना हमारी जिम्‍मेदारी है। क्‍या हम उस जिम्‍मेदारी को निभा रहे हैं।

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

तब लोगों को मेरी याद आएगी- भगत सिंह

23 मार्च भगत सिंह-सुखदेव-राजगुरु की शहादत का दिन है। हालाँकि किसी को पुण्यतिथि या जन्‍मदिन पर याद करना, औपचारिकता ही लगती है। इसके बावजूद यह औपचारिकता कई बार जरूरी है। खासतौर पर उस वक्‍त जब हम देशभक्ति की बातें तो बड़ी-बड़ी करें पर देश में रहने वाले लोगों के बारे में ज़रा भी न सोचें। इसी बात को याद दिलाने के लिए भगत सिंह (Bhagat Singh) की रचनाओं में से चुनी गई कुछ लाइनें यहाँ पेश है।
भगत सिंह (Bhagat Singh) के चंद विचार ''चारों ओर काफी समझदार लोग नज़र आते हैं लेकिन हरेक को अपनी जिंदगी खुशहाली से बिताने की फिक्र है। तब हम अपने हालात, देश के हालात सुधरने की क्‍या उम्‍मीद कर रहे हैं।''
(1928)
'' वे लोग जो महल बनाते हैं और झोंपडि़यों में रहते हैं, वे लोग जो सुंदर-सुंदर आरामदायक चीज़ें बनाते हैं, खुद पुरानी और गंदी चटाइयों पर सोते हैं। ऐसी स्थिति में क्‍या करना चाहिए? ऐसी स्थितियाँ यदि भूतकाल में रही हैं तो भविष्‍य में क्‍यों नहीं बदलाव आना चाहिए? अगर हम चाहते हैं कि देश की जनता की हालत आज से अच्‍छी हो, तो यह स्थितियाँ बदलनी होंगी। हमें परिवर्तनकारी होना होगा।''
(अगस्‍त 1928)
'' हमारा देश बहुत अध्‍यात्मिक है लेकिन हम मनुष्‍य को मनुष्‍य का दर्जा देते हुए भी हिचकते हैं।''
'' उठो, अछूत कहलाने वाले असली जन सेवकों तथा भाइयों उठो... तुम ही तो देश का मुख्‍य आधार हो, वास्‍तविक शक्ति हो... सोए हुए शेरों। उठो, और बग़ावत खड़ी कर दो।''
(अछूत समस्‍या 1928)
'' संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्‍ट्र के हों, हक एक ही हैं।''
'' धर्म व्‍यक्ति का निजी मामला है, इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं, न ही इसे राजनीति में घुसना चाहिए।''
(1927)
''जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में जकड़ लेती है, तो किसी भी प्रकार की तब्‍दीली से लोग हिचकिचाते हैं। इस जड़ता और घोर निष्क्रियता को तोड़ने के लिए एक क्रांतिकारी स्पिरिट पैदा करने की जरूरत होती है, अन्‍यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा जाता है।''
''अंग्रेजों की जड़ें हिल गई हैं और 15 साल बाद में वे यहाँ से चले जाएँगे। बाद में काफी अफरा-तफरी होगी तब लोगों को मेरी याद आएगी।''
(12 मार्च 1931)
''मैं पुरजोर कहता हूँ कि मैं आशाओं और आकांक्षाओं से भरपूर जीवन की समस्‍त रंग‍ीनियों से ओतप्रोत हूँ। लेकिन वक्‍त आने पर मैं सबकुछ कुरबान कर दूँगा। सही अर्थों में यही बलिदान है।''
(सुखदेव के नाम पत्र, 13 अप्रैल 1929)
जहाँ तक प्‍यार के नैतिक स्‍तर का सम्‍बंध है... '' मैं कह सकता हूँ कि नौजवान युवक-युवतियाँ आपस में प्‍यार कर सकते हैं और वे अपने प्‍यार के सहारे अपने आवेगों से ऊपर उठ सकते हैं।''
(सुखदेव को पत्र , 1928)
-नसीरुद्दीन

भगत सिंह- राजगुरु- सुखदेव की याद

Nasiruddin
आज भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की शहादत का दिन है। मुझे नहीं मालूम कि हम में से कितने लोगों को यह दिन याद रहता है। लेकिन इनकी शहादत को याद रखना मेरे लिए काफी अहम है। मैं भूलना भी चाहूँ तो शायद मुमकिन नहीं। इसीलिए महीनों से ब्‍लॉग की दुनिया से दूर रहने के बावजूद मैं यह पोस्‍ट करने पर मजबूर हो रहा हूँ।
तेइस साल। यही उम्र थी भगत सिंह की जब उन्‍हें फाँसी दी गई। मैं तो तेइस साल में कुछ नहीं कर पाया। भगत सिंह के बारे में आप जितना ही पढ़ते जाएँगे, आप अपने होने पर सवाल खड़े करने लगेंगे। आपको लगेगा कि क्‍या वाकई में हम एक ऐसे नौजवान के वारिस हैं, जिसने इतनी कच्‍ची उम्र में इतने पक्‍के खयालात बनाए। देश-दुनिया के बारे में इतना पढ़ गया, जितना हममें से कई दश्‍कों में नहीं पढ़ पाते। इतना कह और सोच गया कि लाख छिपाने पर उसके विचार छिप न सके।
यह कहना की भगत सिंह महान थे, जितना आसान है, उतना ही मुश्किल है उस राह पर चलना जिस पर भगत सिंह ने हँसते-हँसते जान न्‍यौछावर कर दिया। यह काम कोई सिरफिरा या पागल नहीं कर सकता था। यह काम वही कर सकता था, जिसे अपने मकसद के बारे में जरा भी गलतफहमी नहीं थी।
जब मैं पढ़ाई कर रहा था तो अक्‍सर ऐसे टीचर और नेताओं से मुलाकात होती, जो हमें तो भगत सिंह के विचारों से प्रेरित होने और उनके रास्‍ते पर चलने की सलाह देते। लेकिन अपने बेटे- बेटियों से हमेशा यह राह छिपा कर रखा करते। अगर किसी का बेटा या बेटी भटकता हुआ उधर गुजरने की कोशिश करता तो उसे यह समझाकर वापस लौटा लाते कि अभी हालात ऐसे नहीं हैं। (भौतिक परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं हुई हैं।) ‘यानी भगत सिंह बहुत महान। बहुत अच्‍छे। लेकिन भगत सिंह मेरे घर में नहीं बल्कि पड़ोसी के घर पैदा लें।‘ यही आज के मध्‍यवर्ग का मानस भी है। आज इसी मानस का फैलाव दूर-दूर तक है। इसलिए भगत‍ सिंह की वीरता के गान हम भले ही आज जितना गा लें। उनके विचार से दो चार होने की हिम्‍मत नहीं जुटा पाते क्‍योंकि विचार बड़े बदलाव की ओर ले जाते हैं। बदलाव की राह कभी आसान नहीं होती।

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

वेदांतः हिदुत्व और साम्राज्यवादी मंसूबों का विध्वंसक मिश्रण

वेदांत सिर्फ एक कंपनी नहीं है, वह साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था के हमारे देश में हुए विस्तार का एक अनिवार्य चरित्र और स्वरूप भी है. यह वही कंपनी है, जिसके निदेशक मंडल में कभी पी चिदंबरम हुआ करते थे, और जिस पद पर से इस्तीफा देकर वे वित्तमंत्री बने. वेदांत ने जिस तरह से एक अर्धऔपनिवेशिक देश में हिंदुत्ववाद और साम्राज्यवाद का मिश्रण पेश किया है, वह एक अनिवार्य शोध का विषय है, जिस पर रोजर मूडी का यह लेख भी प्रकाश डालता है. इस कंपनी के काम करने के तरीके पर रोहित पोद्दार की किताब वेदांताज बिलियंस को भारत में चिदंबरम के नेतृत्ववाले गृह मंत्रालय ने प्रतिबंधित कर दिया है. आइए पढ़ें. मुँह में राम...
विभिन्न देशों के कानून और पर्यावरण नियमों का बड़े पैमाने पर उल्लंघन करने में वेदांत रिसोर्सेज़ की एक अलग पहचान है. कहने को तो यह कम्पनी एक पब्लिक कम्पनी है मगर इसमें वर्चस्व खुले तौर पर केवल एक व्यक्ति, उसके परिवार और इष्ट मित्रों का ही है. इस कम्पनी को इस बात पर भी नाज़ है कि वह हिन्दुत्व और नव-उदार रूढ़िवादिता में समन्वय स्थापित करती है. परेशानी की बात यह है कि इसका चेहरा जानुस (एक रोमन मिथकीय पात्र जिसके दो विपरीत दिशाओं में जुड़े सिर थे और वह कोई भी दरवाज़ा खोल सकता था) की तरह है जिससे अधिकांश भारतीयों को कोई समस्या नहीं होती.मुझसे कभी-कभी पूछा जाता है कि मैंने अपने 25 वर्षों के सारी दुनिया के उद्योगों के अध्ययन में किस खनन कम्पनी को सबसे 'घटिया' पाया है.1 कुछ समय पहले तक मेरा जवाब हुआ करता था कि ''इनमें से कोई भी कलंक से मुक्त नहीं है और सभी एक जैसे बुरे हैं. ''लेकिन पिछले 2 वर्षों में मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि एक कम्पनी जरूर है जो अपने समकालीनों से एकदम अलग दिखाई पड़ती है. न केवल उस पर लगाये गये आरोपों की संख्या या उनकी सीमा तक बल्कि विभिन्न देशों के कानून और पर्यावरण नियमों का बड़े पैमाने पर उल्लंघन करने में भी उसका कोई सानी नहीं है. यह एक 'भारतीय' कम्पनी है, भले ही उसकी नाम इंग्लैण्ड में दर्ज है लेकिन इस पर सिर्फ एक आदमी, उसके परिवार और ताकतवर दोस्तों के एक कसे हुए समूह का आधिपत्य है. यह कोई बहुत आश्चर्यजनक बात नहीं है. स्विट्‌ज़रलैण्ड की ग्लेनकोर धातुओं का व्यापार करने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कम्पनी है जिसके पास खनन से जुड़े बहुत से प्रतिष्ठानों का मालिकाना है. इस कम्पनी का निदेशक बोर्ड तक नहीं है और इसकी पूरी अर्थव्यवस्था सात तालों के भीतर बन्द रहती है. इस कम्पनी का कार्पोरेट मुखौटा एक्सस्ट्राटा लंदन में स्थित है.2लेकिन इस तरह के संदिग्ध चरित्र वाले स्थिर सहयोगी से जो चीज़ वेदांत रिसोर्सेज़ को अलग करती है वह है उसकी वह रफ्तार जिससे कम्पनी ने अपने प्रभावी मालिक अनिल अग्रवाल के लिए सिर्फ तीन साल के अन्दर अकूत सम्पत्ति अर्जित कर ली है और जिसके दम पर वह लंदन स्टॉक एक्सचेंज में चौथी सबसे ताकतवर खनन कम्पनी के तौर पर निबन्धित हुई है. इसके अलावा जिस आश्चर्यजनक तरीके से इसके अमरीकी और यूरोपीय वित्त पोषकों ने इस कम्पनी के प्रति अपने सारे शुरुआती सन्देहों को ताक पर रख दिया और उसके उद्‌गम, निष्ठा और ईमानदारी की परवाह किये बगैर इस एकदम बाहरी संस्था को ब्रिटिश फाइनेन्शियल सर्विसेज़ ऑथोरिटी की मिली भगत से दुनिया के सबसे चलायमान पूंजी बाजार की गोद में आराम से बैठने की जगह दिलवा दी वह भी कम दिलचस्प नहीं है.टाटा, जिन्दल और अम्बानी कहीं अब जाकर विदेशों में खनिजों के क्षेत्र में आपसी सहयोग की कोशिश कर रहे हैं. (ध्यान दें कि टाटा ने 2007 में इंग्लैण्ड डच स्टील कम्पनी-कोरस का अधिग्रहण किया, जिन्दल ने 2006 में बोलिविया की विशाल मुटुन-लौह अयस्क डिपॉज़िट को हासिल किया और एस्सार स्टील ने इस साल मध्य अप्रैल में कनाडा की तीसरी सबसे बड़ी कम्पनी अलगोमा का मालिकाना हासिल किया). लेकिन अग्रवाल आज से 10 साल पहले से आस्ट्रेलिया की तांबा खदानों में, मध्य एशिया में सोना और मैक्सिको, रूस तथा बर्मा में दूसरे उपक्रमों की खोज-बीन में मशगूल थे. 'भारत' के विश्व-स्तरीय विस्तार में उनसे बेहतर रुतबा सिर्फ़ लक्ष्मी मित्तल का है. लेकिन अग्रवाल और मित्तल दोनों ही वास्तव में इंग्लैण्ड में बसे अनिवासी भारतीय हैं. उस पार की हरियाली अब धीरे-धीरे भूरे रंग में बदल रही है.3लक्ष्मी मित्तल अभी तक किसी स्कैण्डल में नहीं फंसे हैं मगर अग्रवाल और उनके चट्टे-बट्टे लम्बे समय से संदेहों की दलदल में हाथ पैर मार रहे हैं. जिस समय मैं यह लेख लिख रहा हूँ उस समय वेदांत की एक इकाई स्टरलाइट गोल्ड पर अर्मेनिया में जुर्म के कई इल्जाम लग रहे हैं जिनमें सरकार द्वारा निर्धारित सीमा से ज्य़ादा सोने का खनन, जान-बूझ कर अपने (खनिज) संसाधनों की कीमत कम आंक कर बताना तथा खदान से निकले हुए कचरे का उचित निस्तारण न करना शामिल है.4 पिछले साल ज़ाम्बिया में वेदांत पर आरोप लगा था कि उसने 2 साल वहाँ की सबसे बड़ी ताँबा खदान, केसीएम, खरीदी थी और उसके ज़हरीले कचरे को निस्तारित करने के लिए जान-बूझ कर ख़राब पाइप लाइन का निर्माण किया. उसने वहाँ ज़ाम्बिया सरकार की आधिकारिक अनुमति लिए बिना ही ज़ाम्बिया के सबसे महत्वपूर्ण ताँबे के स्मेल्टर पर काम शुरू कर रखा है.5 भारत में भी वेदांत ने तूतीकोरिन में तमिलनाडु राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के समुचित निर्देशों के बिना ताँबे के एक विशाल स्मेल्टर का विस्तार किया और वह भी तब जबकि उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित हैज़ार्ड्‌स वेस्ट मॉनिटरिंग सब-कमेटी (ख़तरनाक अपशिष्ट के अनुश्रवण के लिए गठित उप-समिति) ने इस बात की हिदायत दी थी कि कम्पनी ऐसा करने से बाज़ आये (कृपया आगे भी देखें). इसने उड़ीसा में लांजीगढ़ में एक बड़ी अल्युमिनियम रिफ़ाइनरी पर भी काम चालू रखा था बावजूद इसके कि उच्चतम न्यायालय की एक दूसरी उप-समिति ने सितम्बर 2005 में यह कहते हुए इसकी निन्दा की थी कि कम्पनी ने संरक्षित वनों का नाश किया है, इसलिए वह गैऱ-कानूनी तरीके से काम कर रही है. इसके अलावा, इस साल जनवरी में दिल्ली स्थित वीवी गिरी इन्स्टीट्यूट (श्रम मंत्रालय से सम्बद्ध) ने अपने एक शोध में पाया कि कम्पनी ने 2001 में, जब उसने सरकारी कम्पनी बाल्को का मालिकाना हासिल किया तब उसने कामगारों के साथ जितने भी करार किये थे प्रायः उनमें से किसी का भी पालन नहीं किया.6 अगले ही महीने उड़ीसा राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने झारसुगुड़ा में बन रहे कम्पनी के अल्युमिनियम स्मेल्टर का काम बन्द कर देने को कहा क्योंकि इसे अल्युमिना लांजीगढ़ की गैऱ-कानूनी रिफ़ाइनरी से मिलने वाला था. सिर्फ़ 6 महीने पहले उड़ीसा के एक मशहूर मानवाधिकार एक्टिविस्ट प्रफुल्ल सामन्त राय द्वारा दिये गये फोटो के सबूतों के आधार पर लंदन स्थित 'विक्षुब्ध शेयर धारकों' ने कम्पनी और उसके दूसरे शेयर-धारकों को खुल कर समझाया था कि इस तरह का निर्माण गैऱ-कानूनी है.7 इसके बावजूद, वन और पर्यावरण मंत्रालय ने 10 दिन बाद इस भ्रष्टाचारी कम्पनी को जल्दी-जल्दी में पिछली तारीख से पर्यावरणीय अनापत्ति देकर बड़े आराम से पीठ ठोंक दी. यह सिर्फ़ एक मिसाल है कि हमारे देश के निर्णय-क्षमता वाले लोग, अग्रवाल की गुप्त-गोष्ठी और उसके चट्टे-बट्टे किस तरह से एक-दूसरे से मिले हुए हैं.अनिल अग्रवाल की उत्तरोत्तर उड़ानवेदांत रिसोर्सेज़ पीसीएल की लंदन स्टॉक एक्सचेंज में लॉन्चिंग दिसम्बर 2003 में इन्टरनेशनल पब्लिक ऑफ़रिंग (आईपीओ) के साथ हुई जिसमें एचएसबीसी, सिटीग्रुप, ऑस्ट्रेलिया की मैक्वायर बैंक, दॉइश बैंक, आईसीआई सिक्यूरिटीज़ (भारत), जेपी मॉर्गन कैज़ेनोवे का हाथ था. इन सबने मिल कर 1.3 करोड़ पाउण्ड के करीब राशि पर सम्मिलित फ़ीस के रूप में हाथ साफ़ किया.8 उनकी कोशिशों से नई कम्पनी को एक अरब डॉलर से अधिक की प्राथमिक बाज़ारी पूँजीकरण (इनीशियल मार्केट कैपिटलाइजे़शन) का लाभ हुआ. इंग्लैण्ड के एक्सचेंज में यह उस साल की दूसरी सबसे बड़ी पेशकश थी और किसी भी भारतीय पृष्ठभूमि वाली कम्पनी के लिए यह पहला मौका था. एबीएन ऐमरो, बर्कलेज़ कैपिटल और दॉइश बैंक द्वारा जारी किये गये 70 करोड़ डॉलर के बॉण्ड के दम पर इस कम्पनी ने 2.2 अरब अमरीकी डॉलर मूल्य की विस्तार की योजना बनाई. उसका लक्ष्य भारत का सबसे बड़ा ताँबे और अल्युमिनियम का उत्पादक बनना था (कुछ वर्षों तक इस कम्पनी ने देश में पैदा होने वाले जिंक और सीसे के अधिकांश भाग का उत्पादन किया था).शहरों में रहने वाले बहुत से भारतीयों ने स्टरलाइट इण्डस्ट्रीज़ का नाम सुना होगा मगर (जैसा मुझे अपनी यात्राओं के दौरान पता लगा) इनमें से बहुतों को यह नहीं पता होगा कि स्टरलाइट पर वेदांत का 82 प्रतिशत नियंत्रण है. वास्तव में लन्दन में हुए निबन्धन ने अग्रवाल को विदेशी पूंजी हासिल करने का अभूतपूर्व अवसर प्रदान करने के साथ-साथ स्टरलाइट की भारतीय खदानों और उनसे सम्बद्ध शोधन इकाइयों की पूंजी को भी और अधिक बढ़ाने का मौका मुहैया करवाया. 2007 के प्रारम्भ में अनिल अग्रवाल और उनके परिवार के पास वेदांत का 54 प्रतिशत हिस्सा था और इस तरह से उसी अनुपात में उन्होंने कार्पोरेट मुनाफे का हिस्सा भी हथिया लिया.955 वर्ष पूर्व एक व्यापारी मारवाड़ी परिवार में पैदा हुए (मगर इस समय लंदन के फैशनपरस्त मेफेयर इलाके में सुखपूर्वक रहते हुए) अग्रवाल ने पिछले 3 दशकों में एक छोटी सी ताँबा उत्पादक इकाई को एक पारिवारिक होल्डिंग कम्पनी के रूप में संवर्धित किया था जो अब भारत सरकार की दो खनिज कम्पनियों, हिन्दुस्तान जिंक़ और बाल्को (भारत अल्युमिनियम कम्पनी) को नियंत्रित करती है. भारत के तीन खनिज समृद्ध राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ उनके व्यक्तिगत सम्बन्ध हैं, पी चिदम्बरम वेदांत कम्पनी के एक डायरेक्टर रह चुके हैं जिस पद को छोड़ कर वह भारत के ताकतवर वित्तमंत्री बने. ''मैं भारत के मानस को समझता हूँ.'' यह अग्रवाल ने 2005 के शुरू में सारी दुनिया के निवेशकों के सामने उनके ज्ञानवर्धन के लिए कहा था. वह निश्चित रूप से जानते हैं कि गोटी कैसे फिट की जाती है. जब वेदांत के अध्यक्ष माइकेल फाउल ने एकाएक उस साल मार्च में अपने पद से इस्तीपफ़ा दे दिया और उसके तुरन्त बाद ज्याँ पियरे रॉडियर, जो वेदांत के स्वास्थ्य, सुरक्षा और पर्यावरण समिति के अध्यक्ष थे, भी छोड़ कर चले गये तब अग्रवाल ने तुरन्त अपने आप को कम्पनी का कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया. यह इंग्लैण्ड के उस कार्पोरेट जगत के बेहतर गवर्नेंस नियमों के खिलापफ़ था जिसकी नाक-भौंह चढ़ जाती है अगर किसी कम्पनी का सबसे बड़ा शेयर धारक उसका मुखिया बन जाता है.10 अपने बोर्ड के सदस्यों की नियुक्ति को लेकर भी अग्रवाल पर छींटे पड़े. इंग्लैण्ड की निबन्धन संस्था की कम्पनी पर प्राथमिक शर्तों के अनुसार, जिस पर जेपी मॉर्गन इन्वेस्टमेन्ट बैंक की भी मुहर थी, बोर्ड के अधिकांश निदेशक अग्रवाल परिवार और उनके ट्रस्ट के 'बाहर' के आदमी होने चाहियें. आजकल बोर्ड का केवल एक सदस्य ग़ैर-हिन्दुस्तानी है. तीन में से दो कार्यकारी निदेशक अग्रवाल हैं और तीसरे कुलदीप जौरा ने 2002 से स्टरलाइट के लिए काम किया है.11नियमों की धज्जियाँविवाद अग्रवाल का पीछा 1990 के दशक के मध्य से ही कर रहे हैं. उन पर बार-बार आरोप लगे हैं कि उन्होंने राजनैतिक और न्यायिक स्तर पर घूस देने की पेशकश की है और भारत के दक्षिणपंथी हिन्दुत्व एजेण्डे की पैसे से मदद की है. उनके ख़िलाफ़ साबित तो कुछ नहीं हुआ है मगर इस साल शुरू में लोकसभा में भारत की राजनैतिक पार्टियों को दानदाता वेदांत फाउण्डेशन द्वारा चन्दा देने का प्रश्न उठाया गया था क्योंकि, जैसा लगता है, यह मामला देशी कानून का उल्लंघन है जो किसी भी विदेशी कम्पनी को ऐसा करने से निषेध करता है.12 इतना तो तय है कि 1998 में स्टरलाइट को वृहद रूप से खुद को फ़ायदा पहुँचाने वाले शेयर घोटाले का दोषी पाया गया था. परिणामतः बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज के नियंत्रक, सिक्यूरिटी एण्ड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इण्डिया (सेबी) ने इसे 2 साल तक के लिए ट्रेडिंग करने से रोक दिया था (हालांकि इस आदेश को जल्दी ही सरकार द्वारा निरस्त कर दिया गया था जब सेबी द्वारा दिये गये नए सबूत को सरकार ने नहीं माना).13तूतीकोरिन (तमिलनाडु) में कम्पनी की हरकतों से वहाँ के बाशिन्दों और कामगारों की हुई दुर्दशा एक दीर्घकालिक चिन्ता का विषय है. आस्ट्रेलिया के एक पुराने बन्द प्लांट से 1994 में खरीदे गये (अग्रवाल का कहना है कि यह माटी के मोल मिल गया था) इस स्मेल्टर को महाराष्ट्र सरकार ने बहुत ज्यादा ख़तरनाक बता कर खारिज कर दिया था और वही स्मेल्टर मन्नार की खाड़ी के स्पेशल बायो-स्पफीयर रिजर्व से 9 किलोमीटर दूर समुद्री सुरक्षा नियमों के ख़िलाफ़ बैठाया गया.अपने पहले साल के कार्यकाल में इस स्मेल्टर को सरकारी आदेश से तीन बार बन्द किया गया मगर स्पष्ट रूप से असुरक्षित और ज़हरीले पदार्थों से छलकते हुए इस प्लांट को फिर खोलने की अनुमति दे दी गई. भारतीय उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित ख़तरनाक कचरों का अनुश्रवण (मॉनिटरिंग) करने वाली एक समिति जब सितम्बर 2004 में यह प्लांट देखने गई तब वह एक किनारे पर फॉस्फ़ो-जिप्सम के 'पहाड़' देख कर हैरान रह गई तो कारखाने के दूसरे किनारे पर ''हज़ारों टन आर्सेनिक से सने स्लैग'' देखने को मिले- सब खुले आसमानके नीचे हवा और पानी के पूरे सम्पर्क में. न सिर्फ इस कचरे को तत्काल हटा देने वाले आदेश की वेदांत ने अनदेखी की बल्कि उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित एक अन्य विशेषज्ञ समिति जब अगले महीने वहाँ गई तो उसने देखा कि कम्पनी ने गैऱ-कानूनी ढंग से नये-नये उपकरण लाकर अपना विस्तार अपनी डिज़ाइन क्षमता से लगभग दुगुना कर लिया है जिसकी वजह से कचरा घटने के बजाय बढ़ गया है. बहुत से पर्यवेक्षकों और खुद मैंने इस स्मेल्टर तक की 2004 से 2006 के बीच कई यात्राएं कीं और सबका नतीजा एक ही था कि कम्पनी ने इन ख़तरनाक वस्तुओं की मात्रा को कम करने के लिए कुछ भी नहीं किया.14इस बीच में अग्रवाल वेदांत के महत्वाकांक्षी बॉक्साइट खनन प्रयासों के साथ-साथ अल्युमिनियम की शोधन और स्मेल्टिंग क्षमता को आगे बढ़ाने के प्रयासों में उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में कोशिशें करते रहे. स्टरलाइट द्वारा 2001 में सरकार की कम्पनी बाल्को के अधिग्रहण पर उस साल एक बड़ा राजनैतिक विवाद उठ खड़ा हो गया था.15 यह पहला मौका नहीं था जब अग्रवाल ने भारत के एक बड़े अल्युमिनियम कारखाने को हथियाने की कोशिश की थी. उन्होंने इण्डैल को पाने के लिए इसके निवेशकों से शेयर लेने का प्रयास किया मगर पैसा नहीं चुका सके. 4 साल बाद दिल्ली उच्च न्यायालय को एक आदेश निर्गत कर उन्हें मजबूर करना पड़ा कि वह पैसा दिखायें. भारत की तीसरी सबसे बड़ी अल्युमिनियम कम्पनी बाल्को के 51 प्रतिशत हिस्से की आनन-फानन में बिक्री को कुछ लोगों ने सरकार के बीमार बही-खातों को 'बजट-पूर्व कलाबाजी' के रूप में देखा था. इस तरह के आरोप खुल कर लगाये गये कि भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में चल रही देश की सरकार ने जान-बूझ कर और सफलतापूर्वक बाल्को को अपनी शर्तों और अपने संसाधनों से आधुनिकीकरण नहीं करने दिया. जो भी रहा हो, कम्पनी की कीमत बहुत कम आँकी गई, कुछ अनुमानों के अनुसार स्टरलाइट ने जितना पैसा दिया उससे दस गुनी सम्पत्ति उसने हासिल की. इस रेवड़ी बंटने के सबसे पहले शिकार हुए बाल्को के कामगार जिन पर छंटनी और अन्य लाभों को गंवाने का खतरा मंडराने लगा. नवनिर्मित 'आदिवासी' छत्तीसगढ़ राज्य के सात हजार कामगार एक लम्बी हड़ताल पर चले गये और भारत अल्युमिनियम कर्मचारी संघ (सीटू से सम्बद्ध) के कार्यकारी अध्यक्ष एएम अन्सारी को स्टरलाइट प्रबन्धन ने 3 साल पहले किये गये दुर्व्यवहार का हवाला देकर नौकरी से बर्खास्त कर दिया.जनवरी 2007 में वीवी गिरी इन्स्टीट्यूट की एक रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि की गई कि वेदांत/बाल्को ने हस्तांतरण के समय अपने कर्मचारियों के साथ आतताइयों जैसा व्यवहार किया और रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि कम्पनी ने निजीकरण अनुबन्ध के अधिकांश प्रावधानों का उल्लंघन किया.16 सर्वाधिक दबाव तथाकथित 'हरित धातु' के उत्पादन के लिए आवश्यक कच्चे माल की जो आवश्यकता पड़ती है, उस उच्च गुणवत्ता वाले सारी दुनिया में पाये जाने वाले बॉक्साइट का आठवाँ भाग भारत में ज़मीन के नीचे मौजूद है. लेकिन यह खनिज उन पहाड़ियों की चोटी पर मिलता है जो कम से कम 1000 मीटर उंची हैं जहाँ पहाड़ी ढलानों पर किनारे-किनारे केवल संकरे रास्तों और पगडण्डियों के जरिये ही पहुँचा जा सकता है. पिछले 20 वर्षों में जंगलों की भारी कटाई के बावजूद और पर्यटन तथा जंगल कटाई से बचते-बचाते ये इलाके अब भी इस उप-महाद्वीप के सबसे समृद्ध जैव-विविधता वाले क्षेत्र हैं. ये हज़ारों आदिवासियों, चीतों, हाथियों, भैंसों, हिरण और दुर्लभ औषधियों के घर-वास हैं. तमिलनाडु में यह शोला के जंगलों की शक्ल में बीहड़ों को ढकने का काम करते हैं.मैंने वेदांत की प्रायः सभी बड़ी बॉक्साइट वाली खदानों के स्थानों को देखा है जो छत्तीसगढ़ और तमिलनाडु में जगह-जगह पर फैली हुई हैं. बिना किसी अपवाद के मैंने यह पाया है कि यह कम्पनी छोटे से छोटे पर्यावरणीय मानकों का भी उल्लंघन करती है और अपने कामगारों का शोषण तो वह इस हद तक करती है जिसके आगे, अगर विश्वस्तरीय प्रतिष्ठानों की बात छोड़ दें, तो घरेलू भारतीय कम्पनियाँ भी उतना नीचे नहीं गिरती होंगी. 2005 में छत्तीसगढ़ में मैनपाट में वहाँ की सबसे बड़ी बॉक्साइट खदान में मैं लगभग 30 मजदूरों से मिला था जिनके सिर पर कोई हेलमेट नहीं था, उन्होंने साधारण कमीजें या साड़ियाँ पहन रखी थीं और चिलचिलाती धूप में लैटेराइट पत्थरों के ब्लास्टिंग के बीच काम करने को मजबूर थे. ब्लास्टिंग के बाद वह कुछ अंकुसी और हथौडे़ लेकर पत्थर तोड़ने के लिए आये ताकि वह इन्तज़ार कर रहे ट्रकों में हाथों से लदाई करने के पहले उनकी छंटाई कर सकें.वेदांत के सारे खनिक ठेका मजदूर हैं. अगर मैनपाट में उनका दिन अच्छा है तो वह एक टन खनिज की डिलीवरी के बदले 60 रुपये प्रतिदिन से थोड़ा अधिक (महिलाओं के लिए यह राशि कम होती है) कमा सकते हैं. उनका घर क्या है, झोपड़ी है जो खदान के ढलानों पर टिकी हुई है, बिजली पानी से एकदम विहीन. एक आदिवासी युवती मती साहू ने मुझे बताया कि ''करीब 150 परिवारों के लिए एक हैण्ड पम्प है. कम्पनी की तरफ से कोई दवा-दारू नहीं मिलता है और अगर कोई घायल हो जाता है तो उसे हमीं लोगों को टैक्सी किराये पर लेकर नीचे जाना पड़ता है.'' थोड़ा अलग हट कर एक बेहतर बस्ती में गाँव वालों ने शिकायत की कि दिन-रात खदान से सिलिका भरी धूल वाली हवा उनके घरों में बहती है और दीवारों तथा फ़र्श पर जमा होती रहती है. छत्तीसगढ़ में कोरबा अल्युमिनियम संकुल के विस्तार के कारण बढ़ी भूख और उड़ीसा में लांजीगढ़ रिफ़ाइनरी की बॉक्साइट की जरूरतों को पूरा करने के लिए वेदांत ने कवर्धा जिले के बोदई-दलदली की 10 किलोमीटर लम्बी पहाड़ियों की लूटपाट शुरू कर दी है. ये पहाड़ियाँ कान्हा नेशनल पार्क के साथ उफँचा सिर कर के खड़ी हुई हैं जिनके जंगलों को रुडयार्ड किप्लिंग ने अपनी 'जंगल बुक' में अमर कर दिया था. पिछले साल एक अंग्रेज मानव विज्ञानी और उसके एक भारतीय सहकर्मी ने यहाँ के बॉक्साइट खनन का अध्ययन किया था और पाया कि यहाँ के हालात मैनपाट से कहीं ज्य़ादा बदतर हैं.परियोजना की राह के रोड़े बनी बैगा आदिवासियों की दो बस्तियों को बिना किसी कानूनी प्रक्रिया का पालन किये हुए उनके घरों समेत उजाड़ दिया गया और उन्हें मैदानों में गैऱ-आदिवासी बस्तियों के बीच लाकर छोड़ दिया गया. उन्हें उनकी मक्के, तिलहन, चने और सरसों की फ़सल को काटने तक की मोहलत नहीं दी गई. उनकी गाय, भैंस, बकरियाँ वगैरह सब वहीं छूट गईं और जितनी ज़मीन उनके पास हुआ करती थी अब उसकी आधे पर अपनी जिन्दगी बसर करने के लिए वे मजबूर हैं. वेदांत के पहले मैनेजर ने 2005 में मुझे बताया कि वेदांत ने यहाँ जो खैऱात बाँटी उसमें नया घर बनाने के लिए 2,500 रुपये, एक हैण्ड पम्प और एक नई सड़क शामिल थी. कुछ मुआवज़ा भी लोगों को दिया गया था लेकिन मैनेजर ने यह स्वीकार किया कि वह बहुत कम था. उन्होंने यह भी कहा कि, ''अगर सरकार हमें कुछ अतिरिक्त भुगतान करने के लिए कहती है तो हम करेंगे.'' लोगों के प्रति हुई नाइन्साफ़ी से साफ़ तौर पर परेशान मैनेजर ने कहा कि लोगों को और अधिक नहीं हटाया जाना चाहिए, कम से कम कुछ समय के लिए तो हरगिज़ नहीं. इसके कुछ दिनों बाद मैनेजर को ही हटा कर मैनपाट भेज दिया गया और इसी बीच में कुछ अन्य परिवारों को ज़बर्दस्ती उनकी ज़मीन से बेदखल कर दिया गया या पहाड़ों पर खदानों के किनारे ठेल दिया गया ताकि वे झूलते रहें. अब उनकी नींद हर सुबह खदानों के धमाके और धूल भरी बारिश से खुलती है.17उधर दक्षिण में तमिलनाडु में शेवारोयाँ और कोल्लि पहाड़ियों में वेदांत की सब्सिडियरी माल्को में कामगारों के हालात थोड़े बेहतर हैं. यहाँ बड़े पत्थरों को तोड़ने का काम जेसीबी मशीनों से होता है मगर छंटाई का काम मजदूर करते हैं. इतनी-सी सुविधा को 'मांगलिक' मानते हुए कम्पनी इसे अर्धमशीनीकरण कहती है लेकिन इसके पर्यावरणीय प्रभाव जघन्य हैं. मैनपाट में भले ही नाम के लिए ही सही, कुछ वनीकरण पर काम हुआ था. यह एक अलग बात है कि पूरे पौधारोपण में बाहर से लाए हुए और जल्दी उगने वाले पेड़ लगाये गये थे, स्थानीय किस्मों के पौधे नहीं. इनको भी ऊपरी मिट्टी और खदान के अपशिष्ट को मिला कर जैसे-तैसे गक्के में लगा भर दिया. मगर यहाँ इन पहाड़ियों में वेदांत ने वह नौटंकी भी नहीं की, बस पहाड़ियों को व्यवस्थित तरीके से नंगा करते गये.बादलों की पृष्ठभूमि में पहाड़ के ये अंश घाव की तरह दिखाई पड़ते थे. पहाड़ों की यह कटाई ऊपर से नीचे एकदम सीधी दिशा में चलती है. जैसे-जैसे पहाड़ को छीलते जाते हैं वैसे-वैसे उसका अपशिष्ट और खुदा हुआ माल किनारे से नीचे की ओर ठेल दिया जाता है. इसका जो परिणाम होता है उसे बहुत अच्छी तरह से एक पादरी अरुल आनन्दन ने मुझे और मेरे एक सहयोगी नित्यानन्द जयरामन को बताया. पादरी आदिवासियों द्वारा चलाये जा रहे एक कॉफी प्लांटेशन के प्रबन्धन का काम करते थे. ''हमारी एक पहाड़ी को वेदांत ने ऊपर से 200 फुट नीचे तक सीधे तराश दिया है. सामने वाली चोटी पर अब उन्होंने एक नई खदान का काम शुरू किया है. ब्लास्टिंग से घबरा कर बहुत से बाइसन वहाँ से भाग निकले हैं. कम्पनी ने कुछ पेड़-पौधे जरूर लगाये थे पर उनमें से अधिकांश मर चुके हैं. सबसे बुरा जो हुआ वह यह कि जब पानी बरसता है तब हमारी ज़मीन पर बाढ़ आ जाती है मगर सूखे के मौसम में इसका उलटा होता है. पानी के हमारे जितने सदानीरा स्रोत थे वे सब सूख गये हैं.'' वेदांत की खदानों के निचले हिस्सों में खेती की कोशिश करने वाले ग्रामीण बार-बार एक ही बात दुहराते हैं. जब से यहाँ खनन का काम शुरू हुआ तभी से सारे सोते सूख गये और इसका कारण जानना कतई मुश्किल नहीं है. पहाड़ों के ऊपर जमे बॉक्साइट में एक अद्‌भुत विशिष्टता होती है. यह बरसात के मौसम में पानी का संग्रह कर लेता है और बाकी समय में धीरे-धीरे उसे पहाड़ी के ढलानों और तलहटी तक छोड़ता रहता है. वेदांत को यह बुनियादी जल-विज्ञान मालूम ही नहीं है. 'कम्पनी के सामाजिक दायित्व' का बखान करते हुए मालिकों का एक बयान देखने लायक है,'' बॉक्साइट पेड़-पौधों के विकास में सहायक नहीं होता (जबकि) खनन से वनीकरण में मदद मिलती है.'' इसके विपरीत कोल्लि पहाड़ियों का वर्षों से अध्ययन कर रहे प्रकृतिवादी डॉ मारिमुत्थु बड़ी शिद्दत से कहते हैं कि, ''इन पहाड़ियों में कभी हमारे भारत के विज्ञ वैद्यों सिद्धरों का निवास हुआ करता था और ये जगहें देश के सबसे बड़े भेषज (दवाओं में प्रयोग होने वाली वनस्पतियों) उद्यान के तौर पर मशहूर थीं. इन पहाड़ों की ऊपर की मिट्टी हटा कर इनकी खुदाई कर दीजिए, हमारे यह संसाधन हमेशा-हमेशा के लिए लुप्त हो जायेंगे.18उड़ीसा की नियमगिरि पर्वतमाला वहाँ रहने वाले डोंगरिया कन्ध जन-जाति के लिए पूजनीय स्थान माना जाता है और वेदांत की सभी सबसे महत्वपूर्ण लक्षित खदानें इन्हीं पहाड़ियों में हैं (इत्तेफ़ाकन आज से करीब एक शताब्दी पहले जिस अंग्रेज भूगर्भशास्त्री ने समृद्ध खनिजों वाली इस जगह को खोज निकाला था उसने इस खनिज को 'खोण्डालाइट' नाम देकर यहाँ रहने वाली कन्ध जन-जाति के प्रति सम्मान प्रकट किया था. यहाँ का रास्ता उसे कन्ध लोगों ने ही बताया था). अगर इस परियोजना को उसकी डिज़ाइन क्षमता तक चलने दिया गया तो क़रीब 660 हेक्टेयर घने जंगल की बलि चढ़ जायेगी जो कुल आरक्षित क्षेत्र का 90 प्रतिशत है. इसकी वजह से लगभग 100 नाले, झरने, सोते सूख जायेंगे और उन नदियों पर खतरा पैदा हो जायेगा जिनको इन साधनों से पानी मिलता है. वंशधारा नदी पर इसका विशेष रूप से प्रभाव पड़ेगा क्योंकि उसके पानी से मैदानी इलाकों में सिंचाई होती है.लेकिन अग्रवाल तो इस बात के लिए इतने निश्चिन्त थे कि परियोजना सारी कानूनी अड़चनों को पार कर लेगी. उन्होंने 2003 में आस्ट्रेलिया के एक बड़े इंजीनियरिंग समूह, वॉर्ली पारसन्स को नियुक्त कर दिया कि वह यथाशीघ्र एक अल्युमिना रिपफ़ाइनरी का निर्माण कर दें ताकि नियमगिरी से निकलने वाले बॉक्साइट का शोधन किया जा सके. साइट की सफाई और निर्माण कार्य परियोजना को वन तथा पर्यावरण मन्त्रालय द्वारा स्वीकृति मिलने के पहले ही शुरू कर दिया गया था. तब रिफ़ाइनरी के नज़दीक के गाँवों में रह रहे अधिकांश मांझीकन्ध परियोजना के विरोध में बग़ावत में उठ खड़े हो गये. यह आग तब और भी ज्य़ादा भड़की जब 2004 में उनके दो गाँवों को मिट्टट्ठी में मिला दिया गया. वहाँ के बाशिन्दों को पुलिस ने बर्बरतापूर्वक उठा कर एक कंक्रीट की कॉलोनी में डाल दिया. योजना के आलोचक इसे 'यातना शिविर' मानते हैं.अगर भारत के पर्यावरणवादियों और आदिवासी अधिकारों के लिए लड़ने वाले लोग न होते तो अब तक कम्पनी द्वारा इन पहाड़ियों की लूट-पाट शुरू हो चुकी होती. सितम्बर 2004 में भू-वैज्ञानिक डॉ श्रीधर राममूर्त्ति-निदेशक, अकैडेमी ऑफ माउन्टेन एन्विरॉनिक्स, उड़ीसा के पर्यावरणविद्‌ विश्वजीत महन्ती और अधिकार रक्षक-प्रचारक सामन्त राय ने मिल कर उच्चतम न्यायालय की सेन्ट्रल एम्पॉवर्ड कमेटी को आवेदन किया कि वह कम्पनी के क्रिया-कलाप को बन्द करवाये. इसके प्रत्युत्तर में उस वर्ष के अन्त में दो विशेषज्ञों को लांजीगढ़ भेज कर वस्तुस्थिति की जानकारी मांगी गई. ये लोग इस नतीजे पर पहुँचे कि वेदांत ने उड़ीसा सरकार की मिली भगत से ग़ैर-कानूनी ढंग से संरक्षित वनों का विनाश किया है और बिना समुचित अनुमति के रिफ़ाइनरी का निर्माण चालू कर दिया है तथा वहाँ के बाशिन्दों को बिना किसी जन-सुनवाई के उनकी ज़मीन और घरों से हटा दिया है. जनवरी 2005 में सेन्ट्रल एम्पावर्ड कमेटी ने स्पष्ट रूप से कहा कि वेदांत ने उड़ीसा सरकार की मदद से बेशक कानून को तोड़ा है.पाँच महीने बाद उड़ीसा के पर्यावरण संरक्षण समूह (एनवॉयर्नमेन्ट प्रोटेक्शन ग्रुप) के एक अध्ययन में यह बात स्पष्ट रूप से सामने आई कि पूरा का पूरा नियमगिरि खनिज डिपॉज़िट संरक्षित जंगल क्षेत्र के ऊपर स्थित है जो लुप्तप्राय और दुर्लभ वनस्पतियों और पशु-पक्षियों का आवास-स्थान है. यहाँ की जैव-विविधता का दक्षिण एशिया में कोई सानी नहीं है जिसमें 30 औषधियों वाले पौधे, कम से कम 15 किस्म के एपीफ़ाइट ऑर्किड्‌स,20 जंगली सजावटी पौधे, दस से ज्यादा फ़सली पौधों के जंगली सम्बन्धी (इनमें से कुछ अंतर्राष्ट्रीय समझौतों के अधीन संरक्षित हैं), चीते, हाथी, तेन्दुए, रीछ, मुसंग और दूसरे बहुत से जानवर भी यहाँ पाये जाते हैं जिनमें बहुत से जानवर इन्टरनेशनल यूनियन फॉर दि कंजर्वेशन ऑफ नेचर द्वारा दुर्लभ प्रजातियों का दर्जा पाये हुए हैं. यहाँ बहुत से दुर्लभ पक्षी भी मिलते हैं और पाये जाने वाले जानवरों में अद्‌भुत सुनहरी छिपकिली, जंगली सांप और एक दुर्लभ गेहुँअन सांप शामिल है.19सेन्ट्रल एम्पावर्ड कमेटी की 'वेदांत मामले' की चौथी सुनवाई दिल्ली में 28 अप्रैल 2005 को हुई जिसमें कम्पनी के मुख्य वकील सीए सुन्दरम के माध्यम से कम्पनी ने यह दलील देने की कोशिश की कि लांजीगढ़ में उसका रिफ़ाइनरी का काम मामूली सा हुआ है. यह सफेद झूठ था क्योंकि सेन्ट्रल एम्पावर्ड कमेटी की दिसम्बर 2004 वाली रिपोर्ट में न केवल यह बात दर्ज़ थी वरन वेदांत की अपनी वार्षिक रिपोर्टों (2004 तथा 2005) में दिये गये बयान तथा फोटो और वॉर्ली पारसन के वेब साइट पर भी यह घोषणा की गई थी कि परियोजना का काम चुस्त मगर दुरुस्त तरीके से चल रहा है. इस मुकाम पर आकर वेदांत ने पेशकश की कि रिफ़ाइनरी की साइट का कुछ हिस्सा अगर जंगल की ज़मीन है तो वह वहाँ से हट जायेगा. कम्पनी ने यह भी कहा कि नियमगिरि की पहाड़ियों से उसकी कोई अपेक्षा नहीं है. सुन्दरम के अनुसार अब यह उड़ीसा माइनिंग कार्पोरेशन पर निर्भर करता था कि वह कम्पनी के खनन परमिट वाली दरख़्वास्त पर आगे विचार करना चाहता है या नहीं. इससे ज्य़ादा कपटपूर्ण बात हो ही नहीं सकती थी.सेन्ट्रल एम्पावर्ड कमेटी ने पहले ही राज्य सरकार द्वारा गलत तरीके से खदान को स्थाई रूप से रिफ़ाइनरी से जोड़ कर दोनों को एक ही परियोजना बनाने और उसके लिए एक ही पर्यावरणीय प्रभाव के मूल्यांकन को स्वीकार किये जाने पर एतराज किया था. स्टरलाइट का एक मेमोरण्डम ऑफ अंडरस्टैंडिंग उड़ीसा माइनिंग कार्पोरेशन के साथ 1997 में पहले ही हो चुका था जिसका फिर जून 2003 में पुनर्नवीनीकरण हुआ था. इसके अनुसार वेदांत को प्रसिद्ध नियमगिरि खदान के लिए अधिकांश पूंजी और प्रबन्धन विशेषज्ञता मुहैया करनी थी और इसके बदले में इंग्लैण्ड की इस कम्पनी द्वारा उत्खनित माल को खरीदने का पहला हक इसी कम्पनी को दिया गया था.2005 सितम्बर में सेन्ट्रल एम्पावर्ड कमेटी ने वेदांत द्वारा नियमगिरि को लूटने की योजना पर एक निन्दात्मक रिपोर्ट प्रकाशित की.20 इसमें एक स्वर से स्पष्ट किया गया था कि नियमगिरि का उत्खनन नहीं होना चाहिए जबकि वेदांत से अभी तक ग़ैर-कानूनी ढंग से लांजीगढ़ रिपफ़ाइनरी के निर्माण के बारे में कोई जवाब आना बाकी था. लेकिन इस मसले पर कोई फैसला देने के पहले 2006 के प्रारम्भ में न्यायालय ने इसे फॉरेस्ट एडवाइज़री कमेटी के पास उसकी राय जानने के लिए और एक विस्तृत तकनीकी मूल्यांकन करने के लिए भेज दिया जिसे तीन महीने के अन्दर पूरा किया जाना था. इनमें से दो अध्ययन पूरे किये गये. पहला वाइल्ड लाइफ़ इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डिया-देहरादून ने वन्य जीवन पर प्रभाव के लिए किया और दूसरा सेन्ट्रल माइन प्लानिंग एण्ड डिज़ाइन इन्स्टीट्यूट (सीएमपीडीआई)-रांची ने खनन के तकनीकी पक्ष पर किया. वाइल्ड लाइफ़ इन्स्टीट्यूट की रिपोर्ट किसी तरह से लीक हो गई मगर इसमें कोई सन्देह नहीं था कि इस सम्मानित संस्था ने नियमगिरि के उत्खनन को सीधे शब्दों में ख़ारिज कर दिया.21 मगर फॉरेस्ट एडवाइज़री कमेटी ने अक्टूबर महीने में जंगल की ज़मीन को कुछ शर्तों के साथ परियोजना को हस्तान्तरित करने के लिए स्वीकृति दे दी.ये सब रिपोर्टें अन्ततःन्यायालय को पिछले साल दिसम्बर में दे दी गईं जब वेदांत के एक वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी ने कहा कि नियमगिरि पर खनन के बिना रिफ़ाइनरी चल ही नहीं सकती. वकील साहब ने जो कुछ भी बताया उसे परियोजना के आलोचक बहुत पहले से जानते थे. उन्होंने, सेन्ट्रल एम्पॉवर्ड कमेटी के समक्ष और आम जानकारी देने के लिए, कम्पनी द्वारा दिये गये बयानों को गस्त्र-मस्त्र कर दिया था. अगस्त 2006 में हुई वार्षिक जनरल मीटिंग के बाद वेदांत ने कई बार यह बयान दिया है कि नियमगिरि पहाड़ियों से मिलने वाले बॉक्साइट के बिना भी वह अपनी रिफ़ाइनरी चला सकता है. यह सब की जानकारी में है कि कम्पनी मध्य-2006 से काफ़ी मात्रा में आयातित खनिज लांजीगढ़ में इकट्ठा कर रही है. इसी बीच न्यायालय ने तय किया है कि फॉरेस्ट एडवाइज़री कमेटी का गठन गलत तरीके से हुआ था क्योंकि इसमें स्वतंत्र सदस्य शामिल ही नहीं थे.22यह लेख लिखने के समय तक नई फॉरेस्ट एडवाइज़री कमेटी ने अभी तक अपनी रिपोर्ट नहीं दी है.उपसंहार : ''हमारा वेदांत''दुनिया की किसी भी खनन कम्पनी ने इस तरह से अपने आपको प्रतिष्ठित नहीं किया जैसा कि वेदांत ने किया है. इसे एक ओर अपने भारतीय मूलपर नाज़ है और यह देश के औद्योगिक विकास में मदद करने के लिए कटिबद्ध है (इसने आणविक विद्युत केन्द्रों के निर्माण में रुचि दिखाई है, निजी कोयला खदानों के क्षेत्र में काम करना चाहती है, लौह अयस्क की खदानों को हासिल करना चाहती है,23 और कोलार की सोना खदानों के लिए बोली लगा रही है), वहीं इसने ऑस्ट्रेलिया, ज़ाम्बिया और अर्मेनिया में वर्तमान सेंधमारी के अलावा दुनिया की बहुत-सी जगहों पर अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए नज़रें गड़ा रखी हैं.अनिल अग्रवाल यह दावा जरूर करते हैं कि उनके मुनाफ़ा कमाने से साथीभारतीयों को फ़ायदा पहुँचता है मगर हकीकत यह है कि उनका प्रक्षेपण एकदम उलटी दिशा में है.दरअसल उनका पहला उद्देश्य अपने परिवार के ज़खीरे को बड़ा करना है और अपने विदेशी निवेशकों को उनका लाभांश पहुँचा देना है. अब तक किसी ने भी, लक्ष्मी मित्तल या टाटा बन्धुओं समेत, इतने व्यवस्थित और निन्दनीय तरीके से अपनी मातृ-भूमि को नंगा नहीं किया है, अपने कामगारों का इतना शोषण नहीं किया है, और न ही कभी निर्दयी लुटेरों की तरह उन समुदायों के अधिकारों का हनन किया है जिन्हें तथाकथित रूप से भारत के संविधान से सुरक्षा मिली हुई है. सच यह भी है कि पिछले 2 वर्षों में किसी भी खनन कम्पनी का आर्थिक रूप से इतना विकास नहीं हुआ है जितना इस कम्पनी का हुआ, जिसने अपने मुनाफ़े को इसी दौरान लगभग दोगुना कर दिया.वेदांत को शुद्ध रूप से एक मानक की तरह भारतीय चमत्कार मानने को मन करता है और सचमुच इस निष्कर्ष पर पहुँचना ही होगा कि अग्रवाल ने जान-बूझ कर इस कम्पनी को इस तरह से गढ़ा है कि वह उच्चवर्णीय हिन्दुत्व का एक तार्किक विस्तार लगे, मगर प्रगट रूप में वह धर्मनिरपेक्ष दिखाई पड़े. उनका यह प्रस्ताव कि वह पुरी के पवित्र धाम के पास उड़ीसा में 'हार्वर्ड की तर्ज़ पर' एक वेदांत विश्वविद्यालय की स्थापना करेंगे, इसकी एक मिसाल है. इस विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए किसी 'योग्यता' की आवश्यकता नहीं होगी, (अर्थात इसमें मध्य वित्त वर्ग और सम्पन्न वर्ग के लोगों के लड़के-लड़कियों के लिए खास स्थान होगा और उनसे - अभिभावकों से- यह अपेक्षा रहेगी कि वे वेदांत के सभी सही-गलत कामों का समर्थन करते रहें). लेकिन इसके पहले कि इस दिव्य भवन की आधारशिला रखी जाए, वेदांत ने खुद आदिवासियों के मनुष्य और प्रकृति के बीच के सम्बन्धों की मनोभावना को निर्दयतापूर्वक निष्क्रिय कर दिया है और उनकी आध्यात्मिकता को ठिकाने लगा दिया है.लांजीगढ़ रिफ़ाइनरी के निर्माण के लिए चौरस या उजाड़ कर दिये गये किसी भी क्षेत्र में अगर कोई जाये तो उसे हर गाँव में एक साइन बोर्ड लिखा मिलता है और उस पर स्पष्ट शब्दों में लिखा मिलता है कि यह 'हमारे वेदांत' का हिस्सा है.यह भी कोई अनहोनी बात नहीं है. अस्सी के दशक में सुनने में आया था कि मध्य-पूर्व में एक इस्लामिक मिनरल्स जैसी कोई कम्पनी वजूद में आई थी और ऑस्ट्रेलिया में वहाँ की आदिम जन-जातियों के एक समूह ने क्रिश्चियन मिनरल कम्पनी शुरू की थी. मगर इन लोगों ने अपने पंथ के मूल पर कोई परदा डालने की कोई कोशिश नहीं की थी और शायद इसीलिए उनका जीवन काल बहुत छोटा रहा क्योंकि आजकल के समय में कड़ी व्यापारिक स्पर्धा में यह सब टिक नहीं सकता. इसके विपरीत अग्रवाल उद्योग ने हिन्दुत्व और नव-उदार रूढ़िवादिता का मिश्रण करने में एक ज़बर्दस्त सफलता अर्जित की है भले ही यह सफलता बेतुकी क्यों न हो. परेशानी की बात यह है कि इसका चेहरा जीनस की तरह है जिससे अधिकांश भारतीयों को कोई समस्या नहीं होती, फिर चाहे वह अपनी खुद की ओर देख रहे हों या दुनिया के दूसरे लोगों को इसे दिखा रहे हों. फुटनोट1. वास्तव में जब मैं यह लेख लिख रहा था तब मुझसे डाउ जोन्स इंग्लैण्ड के एक खनन संवाददाता ने ठीक यही सवाल पूछा था.
2. ग्लेनकोर की स्थापना बदनाम माल विक्रेता मार्करिच और उसके साथ इन्वेस्टमेन्ट बैंक-क्रेडिट स्विस के बहुत से करार के उत्तराधिकार के लिए की गई थी. इस कम्पनी के पास एक्सस्ट्राटा के 40 प्रतिशत इक्विटी शेयर हैं जो दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी खनन कम्पनी है.3. लक्ष्मी मित्तल को बहुत से भारतीय लोग ग़लती से स्थानीय उद्योगपति समझ बैठते हैं मगर उनके साथ ऐसा कुछ भी नहीं है. उनके नाम पर आधारित कम्पनी (आर्सेलर-मित्तल जो लक्जमबर्ग की सबसे बड़ी इस्पात बनाने वाली कम्पनी थी जिसे मित्तल ने पिछले साल खरीद लिया था) रॉटरडम में निबन्धित है. कई कोशिशों के बावजूद इन्हें आज तक भारत में किसी खदान या प्लांट को हासिल करने में सफलता प्राप्त नहीं हुई है.4. देखें-Armenia may start prosecution of Vedanta-controlled Zod gold mine” by John Helmer, Mineweb, February 28, 2007. अग्रवाल द्वारा कम्पनी सम्बन्धी समस्याओं को नियंत्रित करने के बावजूद स्टरलाइट गोल्ड कुछ समय से घाटे में चल रही है. उन्होंने वायदा किया था कि इस खदान के नज़दीक ही एक नई मिल के लिए वह कम से कम 8 करोड़ अमरीकी डॉलर की व्यवस्था करेंगे मगर ऐसा हो नहीं सका. इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं होना चाहिये क्योंकि कोई भी निवेशक राजनीतिक रूप से अस्थिर अज़रबाइजान की सीमा से एकदम लगे हुए घाटे में चल रहे प्रकल्प में अपनी पूंजी फंसाना नहीं चाहेगा. इसके अलावा अग्रवाल ने यह स्पष्ट कर दिया था कि वह परिवेश संरक्षित सेवन झील के पास, जो पवित्र माउन्ट अराफ़ात के पीछे अवस्थित है, एक रिफ़ाइनरी लगाने की तलाश में हैं. जब वह स्टरलाइट गोल्ड को वापस 2006 में वेदांत रिसोर्सेज प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी में ले आये तब उनकी इंग्लैण्ड स्थित कम्पनी ने 6 करोड़ अमरीकी डॉलर अर्मेनियन कम्पनी को खरीदने के लिए दिये थे जिसमें आधे से ज्य़ादा अग्रवाल और उनके परिवार के सदस्यों ने हड़प लिये. यह एक चालबाज़ी भरी अन्दरूनी खरीद-फरोख्त थी जिस पर इंग्लैण्ड के फ़ाइनेन्शियल प्रेस ने कोई टिप्पणी करने की तकलीफ़ नहीं उठाई. इससे भी ज्य़ादा बुरी बात यह थी कि इस करार को उस 'जिम्मेदार' अकाउन्टैन्सी फर्म अर्न्स्ट एण्ड यंग की सहमति का ठप्पा भी लग गया (यह फर्म वेदांत की लेखा-परीक्षक है). ज़ॉड खदान प्रकल्प में अग्रवाल के प्रारम्भिक पार्टनर एक बदनाम हस्ती रॉबर्ट फ्रीडलैण्ड थे जिन्हें लोग 'टॉक्सिक बॉब' (जहरीले बॉब) के नाम से जानते थे. बॉब अमेरिका से 1992 में उस समय भाग निकले जब उनकी कोलोरैडो स्थित समिटविल सोना खदान के साइनाइड भरे लीच पैड से ज़हरीला कचरा निकल कर स्थानीय नदी-नालों में बहने लगा. फ्रीडलैण्ड को आपराधिक लापरवाही की सज़ा सुनाई गई लेकिन जेल जाने की कौन कहे वह कभी पूरे दिन के लिए अदालत में भी नहीं रहा. 5. देखें-Alastair Fraser and John Lungu, For Whom the Windfalls: Winners and Losers in the Privatization of Zambia’s Copper Mines, published by Civil Society Trade Network of Zambia, and the Catholic Centre for Justice Development and Peace, Zambia Episcopal Conference, Lusaka, March 2006. इस रिपोर्ट के अनुसार ''6 नवम्बर 2006 को पूरे चिन्गोला जिले (उत्तर ज़ाम्बिया) में पानी की किल्लत हो गई क्योंकि केसीएम प्लांट की खदानों से निकलने वाले अपशिष्ट के फैलने के कारण काफ्य़ू नदी का पानी प्रदूषित हो गया. पानी की आपूर्ति करने वाली दो कम्पनियाँ, जो चिन्गोला आवासीय क्षेत्र के 75,000 निवासियों को पानी की आपूर्ति करती हैं, उनको अपने प्लांट बन्द कर देने पड़े क्योंकि केसीएम प्लांट के टेलिंग लीच प्लान्ट से घोल ले जाने वाला एक पाइप फट गया और काफ्य़ू नदी का पानी एकाएक नीला हो गया. नदी के पानी में कचरा मिल जाने के कारण नदी के पानी में ताँबे की मात्रा स्वीकृत मानक से 1,000 प्रतिशत अधिक हो गई. मैंगनीज़ 77,000 प्रतिशत और कोबाल्ट की मात्रा इस पानी में10,000 प्रतिशत ज्य़ादा हो गई.'' ''... काफ्य़ू नदी जैसे प्रदूषित पानी का खाने-पीने में उपयोग करना, नदी में मिलने वाली मछलियों का सेवन, या उसी प्रदूषित पानी से पेड़-पौधों की सिंचाई करने से स्वास्थ्य पर तात्कालिक या दीर्घकालिक दुष्प्रभाव पड़ने की काफ़ी सम्भावना है. जिस तरह के रासायनिक पदार्थ नदी के पानी में घुल गये हैं उनसे फेफड़े और दिल की बीमारियाँ या सांस की समस्याएं हो सकती हैं और जिगर तथा गुर्दे खराब हो सकते हैं. तात्कालिक प्रभाव यह हुआ है कि बड़ी संख्या में लोग पेचिश, आंख में संक्रमण और त्वचा में परेशानी महसूस कर रहे हैं. ये सब दूरगामी दुष्प्रभावों में प्रदूषण के प्राथमिक चिह्न हो सकते हैं. ज्य़ादा मात्रा में मैंगनीज़ से सम्पर्क के कारण 'मैगेनिज्म' नाम की बीमारी हो सकती है जो केन्द्रीय स्नायु प्रणाली की एक बीमारी है. इससे मानसिक और स्नायुविक प्रक्रियाओं पर बुरा असर पड़ सकता है. स्थानीय आबादी पर मस्तिष्क पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों में पीढ़ियों का अन्तर पड़ सकता है.''ज़ाम्बिया की एवॉयर्नमेन्ट काउन्सिल का कहना था कि केसीएम द्वारा यह एक पर्यावरणीय लापरवाही की मिसाल है जिसके कारखाने में कई बार पाइप फटने की दुर्घटना हो चुकी है. कई बार तो ऐसा हुआ है कि बहुत जगह जनता को साल भर से अधिक समय के लिए प्रदूषित पानी मिला है. ईसीजेड के एक प्रवक्ता ने शिकायत की कि, ''केसीएम द्वारा पर्यावरणीय प्रबन्धन कम्पनियों के सामाजिक उतरदायित्व का यह एक स्पष्ट उदाहरण है.'' पूरी रिपोर्ट के लिए देखें- http://minewatchzambia.com/reports/report.pdf.6. Impact of Privatization of labour : A study of BALCO Disinvestment, published by V. V. Giri NationalLabour Institute, January 2007. 7.“Vedanta asked to stop construction” The Hindu, March 11, 2007. 8. वेदांत को बाजार में उतारने में मुख्य भूमिका किस शख़्स की थी, यह 2006 के मध्य तक U. K. Financial Times’ ने ज़ाहिर नहीं किया था. यह साहब थे इयान हन्नाम, तथाकथित 'जनता के सिपाही', जेपी मॉर्गन कैसेनोवा के कार्यकारी निदेशक, गल्फ़-एसएएस (स्पेशल एअर सर्विसेज़) के भूतपूर्व अपफ़सर जो इस विश्वस्तरीय निवेशक बैंक में कैपिटल मार्केट के अध्यक्ष हैं. हन्नाम ने दुनिया की सबसे बड़ी खनन कम्पनी बीएचपी बिल्लिटन की लन्दन में लिस्टिंग की व्यवस्था की थी और साथ हीकज़ाकमीज़, जो दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी यूरेनियम कम्पनी है, की भी लिस्टिंग में उनका हाथ था. देखें-फाइनेन्शियल टाइम्स, जून-3/4, 2006.9. लन्दन स्टॉक एक्सचेंज में दिसम्बर 2003 में वेदांत की लिस्टिंग के ठीक पहले फाइनेन्शियल टाइम्स के पहेलियाँ बुझाने वाले स्तम्भकार 'लेक्स' ने स्वीकार किया था कि, ''(स्टरलाइट) की संरचना बड़ गूढ़ है और उसके कार्पोरेट गवर्नेंस का उतार-चढ़ाव का इतिहास रहा है.'' अब यह तो पता नहीं कि यह संरचना जान-बूझ कर इसलिए बनाई गई है कि अनिल अग्रवाल के संदिग्ध सम्पर्कों को भारत के आर्थिक अण्डरवर्ल्ड के उनसे भी ज्य़ादा संदिग्ध व्यक्तियों से सम्पर्क को छिपाया जा सके, लेकिन इतना तय है कि यह संरचना पारदर्शी नहीं है. उस समय तक स्टरलाइट की 'दुरूह संरचना' की जड़ में टि्‌वन स्टार होल्डिंग्स के नाम से एक दूसरी संस्था टैक्स रियायतों के स्वर्ग, मॉरिशस, में हुआ करती थी और माना जाता है कि उसी के पास स्टरलाइट उद्योग का अधिकांश मालिकाना था. टि्‌वन स्टार ने अपना पहला समुद्र पार कदम 1998 में रखा था जब उसने कनाडा की फर्स्ट डाइनेस्टी माइन्स में बड़े इक्विटी निवेश के लिए हामी भरी थी जिसका संस्थापक एक बहुत ही विवादास्पद आर्थिक निवेशक रॉबर्ट 'टॉक्सिक बॉब' फ्रीडलैण्ड हुआ करता था. टि्‌वन स्टार के जरिये स्टरलाइट कम्पनी फर्स्ट डाइनेस्टी में 75 लाख अमरीकी डॉलर निवेश करने के लिए राज़ी हो गई जिससे भारतीय कम्पनी को अपने तीन निर्देशक नियुक्त करने का अवसर प्राप्त हुआ और अन्ततः यह कनाडा स्थित कम्पनी का 43 प्रतिशत हिस्सा ले बैठी. अग्रवाल का मुख्य उद्देश्य किसी तरह स्टरलाइट को अर्मेनिया में फर्स्ट डाइनेस्टी के ज़ॉड स्वर्ण परियोजना में घुसाना था. अग्रवाल और उसके दो सहयोगी वास्तव में फर्स्ट डाइनेस्टी के बोर्ड के सदस्य भी थे और उसके तुरन्त बाद फर्स्ट डाइनेस्टी में टि्‌वन स्टार का निवेश पूरा हो गया.टि्‌वन स्टार के बारे में फिर 2003 तक कुछ खास सुनने को नहीं मिला जब इस कम्पनी ने पुष्टि की कि होल्डिंग कम्पनी के पास स्टरलाइट का 55 प्रतिशत स्टॉक है और उसके साथ 7.13 प्रतिशत का मालिकाना स्टरलाइट की मद्रास अल्युमिनियम कम्पनी (माल्को) का था जिसका 80 प्रतिशत खुद टि्‌वन स्टार के कब्ज़े में था. तब अक्टूबर में, जब वेदांत की इंग्लैण्ड में निरीक्षण के लिए परेड चल रही थी उसके ठीक बाद, टि्‌वन स्टार कम्पनी ने यह घोषणा की कि वह स्टरलाइट में अपनी हिस्सेदारी 75 प्रतिशत करना चाहती है. भारतीय अधिकारियों ने इस बात पर चिन्ता व्यक्त की कि बाल्को और हिन्दुस्तान जिंक का हस्तान्तरण अब किसी दूसरे विदेशी मालिक को कर दिया जायेगा जबकि इस तरह के हस्तान्तरण को खास तौर पर उस समय ग़ैर-कानूनी चिह्नित किया गया था जब स्टरलाइट ने इन कम्पनियों का अधिग्रहण किया था. जब अधिकारी अपनी इस दुविधा से समझौता करने की कोशिश कर रहे थे उसी समय वित्त मंत्रालय की विदेशी निवेश इकाई ने स्पष्ट किया कि टि्‌वन स्टार के असली मालिक अग्रवाल थे ही नहीं बल्कि यह कोई विनोद शाह था. लन्दन में रहने वाले एक दूसरे अप्रवासी भारतीय शाह ने अपनी होल्डिंग कम्पनी वोल्कन इन्वेस्टमेन्ट लिमिटेड के माध्यम से टि्‌वन स्टार का शत प्रतिशत मालिकाना अपने हाथ में लिया हुआ था.उस समय यह स्पष्ट नहीं था कि सेबी के 'सब्सटेन्शियल अक्वीजीशन ऑफ शेयर्स एण्ड टेक ओवर्स' नियमों का उल्लंघन हुआ था या नहीं. लेकिन यह निश्चित था कि वेदांत की लिस्टिंग के समय वोल्कन इन्वेस्टमेन्ट लिमिटेड (वापस?) अग्रवाल के हाथों में आ चुकी थी. अगस्त 2006 में, जैसा कि वेदांत की वार्षिक रिपोर्ट (30 सितम्बर 2006) की एक उप-संचिका में कहा गया है कि एक दूसरी अज्ञात सब्सिडियरीवेल्टर ट्रेडिंग ने टि्‌वन स्टार इन्टरनेशनल लिमिटेड के 100 प्रतिशत पर कब्ज़ा जमा लिया था.10. ऐसा लगता है कि माइकेल फाउल ने वेदांत को खुशगवार माहौल में छोड़ा लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि वह कम्पनी छोड़ने के लिए एक बहुत अच्छे पैकेज की वजह से ही आकर्षित हुआ, रोडियर ने कभी यह नहीं बताया कि उसने इस्तीफ़ा क्यों दिया. एक तार्किक अनुमान यह हो सकता है कि इस स्वनामधन्य पेशेवर आदमी ने जो कि पहले फ्रेंन्च एटॉमिक एनेर्जी एजेन्सी में काम कर चुका था और फिर पिचिनी अल्युमिनियम के शीर्ष पद पर था, वेदांत पर अनिल अग्रवाल की मजबूत पकड़ के कारण उत्तरोत्तर परेशान रहा करता था. अग्रवाल की ज्य़ादा दखलअंदाजी भी उसे खलती थी. 11. देखें-वेदांत रिसोर्सेज़ पब्लिक लिमिटेड कम्पनी, वार्षिक रिपोर्ट-2006, पृष्ठ 50. 12. वास्तव में यह बात पिछले साल उड़ीसा स्थित पत्रकार और एक्टिविस्ट समरेन्द्र दास ने वेदांत की वार्षिक साधारण सभा में उठाई थी. जवाब में अग्रवाल ने वायदा किया था कि उनके 'दान-धर्म' का फायदा पाने वाले भारतीय राजनीतिज्ञों की सूची वह उपलब्ध करवा देंगे पर यह आज तक नहीं किया गया.13. सेबी ने स्टरलाइट और दो भारतीय निजी कम्पनियों की अन्दरूनी खरीद-फरोख्त की तीव्र भर्त्सना कीथी. यह एक ऐसा फैसला था जिसके बारे में फ्रन्टलाइन के स्तम्भकार प्रफुल्ल बिदवई ने कहा कि ''यह स्टॉक मार्केट में कम्पनियों की अंधेरगर्दी के ख़िलापफ़ किसी संवैधानिक संस्था द्वारा किया गया सबसे बड़ा अभियोग पत्र है.'' स्टरलाइट पर 2 वर्षों के लिए बाजार से पैसा उठाने पर पाबन्दी लगा दी गई और बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज के 34 दलालों को भी इस स्कैम में हेरा-फेरी का दोषी पाया गया. कहा जाता है कि अनिल अग्रवाल ने शेयर के दामों में दग़ल फसल के लिए एक 'प्रमोटर' हर्षद मेहता के साथ षडयंत्र किया. 6 साल पहले 1992 में मेहता को स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया से रसीद 'गायब' हो जाने का हवाला देकर 5 अरब रुपये हजम करने का दोषी पाया गया था. लेकिन इतना होने के बावजूद बाद में उसे स्टॉक खाली करने का टिप देने और बाजार के रुझान बताने वाली वेबसाइट चालू करने से रोका नहीं जा सका. अखबारों में भी उसकी छद्म 'प्रबुद्धि’ का प्रसारण करने से नहीं रोका जा सका. मेहता ने अपनी संदेहजनक सेवाएं उन कम्पनियों को भी अर्पित करने की पेशकश की जिनकी माली हालत ख़स्ता थी. स्टरलाइट इस सूची में शामिल थी.सेबी द्वारा की गई जांच-पड़ताल से पता लगा कि अप्रैल से लेकर जून 1998 के बीच जब स्टरलाइट ने इण्डिया अल्युमिनियम कम्पनी को हासिल करने की एक नाकाम कोशिश की थी तब उसका स्क्रिप प्राइस 41 प्रतिशत बढ़ गया था लेकिन उसका जो वास्तविक परिवर्तन मूल्य था उसका बोझ कम्पनी की पहुँच से बाहर था. मेहता के पास पैसा तो बड़ा सीमित था पर उसने अग्रणी कम्पनियों का एक बहुत बड़ा नेटवर्क बना रखा था. सामूहिक रूप से दमयन्ती ग्रुप के नाम से जाने वाले इस समूह ने शीघ्र ही स्टरलाइट के अच्छे खासे फ्रलोटिंग स्टॉक का अधिग्रहण कर लिया जिसमें 30,000 शेयर इसके मद्रास सहयोगी के माध्यम से कर्ज़ के रूप में मिले (देखें-बिज़नेस इण्डिया, मार्च 13, 2005). कर्ज़ की अदायगी में दिक्कतें आने पर दमयंती ग्रुप ने अपनी पोज़ीशन्स को एक स्टॉक एक्सचेंज से दूसरे एक्सचेंज में 'रोल' करना शुरू कर दिया. दलालों के बीच में यह हस्तांतरण क्रेडिट नोटों के माध्यम से होता था. पैसा पास में न होने की वजह से हर्षद मेहता आखिरकार दिवालिया हो गया. जब सेबी ने इन अग्रणी कम्पनियों की छानबीन शुरू की और उनका हर्षद मेहता से रिश्ता जानना शुरू किया तब उसके चट्टे-बट्टे ने उलटी-सीधी बातें बता कर जांचकर्ताओं को गुमराह करने की कोशिश की. अंततः सेबी ने टेलीफोन बिलों के सहारे, वकीलों को दी गई फ़ीस और दूसरे दलालों की जांच-पड़ताल करके कार्पोरेट के काले कारनामों पर से परदा हटाया. ब्यूरो को पता लगा कि कम्पनियों ने हर्षद मेहता को पैसा उधार दिया ताकि वह अपनी पोज़ीशन मजबूत कर सके, बाज़ार में एक अप्राकृतिक उछाल आये और अंततः सारे निवेशों की हवा निकल जाये. एक तरह से यह 'एनरॉन स्कैम' का एक प्राथमिक भारतीय प्रतिरूप था. मेहता की बाजार में हाथ की सफाई के पीछे उसकी तीन भारतीय कम्पनियों-बीपीए, वीडियोकॉन और स्टरलाइट से रब्त-जब्त था. यह तीनों कम्पनियाँ पूंजी बाजार से पैसा उठाने के लिए क्रमशः चार, तीन और दो वर्षों के लिए प्रतिबन्धित थीं. लेकिन सिक्यूरिटी अपैलैन्ट ट्राइब्यूनल में स्टरलाइट ने सफलतापूर्वक यह दलील रखी कि इस आदेश का कोई कानूनी औचित्य नहीं है और इस तरह से उस पर से प्रतिबन्ध हटा लिया गया. इस निमित्त सेबी ने स्टरलाइट के ख़िलाफ़ जो नए सबूत ट्राइब्यूनल के सामने रखे उसे दुर्भाग्यवश ट्राइब्यूनल ने नहीं माना. 2001 में मेहता की हृदय गति रुक जाने से मृत्यु हो गई. 14. तूतीकोरिन में 1994-95 के बीच वेदांत द्वारा किये गये उल्लंघनों की एक सिलसिलेवार रिपोर्ट अक्टूबर 2005 में एक जाने माने पर्यावरणीय पत्रकार नित्यानन्द जयरामन ने मद्रास स्थित ’दि अदर मीडिया के कारपोरेट अकाउन्टेबिलिटी डेस्क’ के लिए तैयार की थी. संक्षेप में जो अभियोग बनते हैं वे यहाँ नीचे दिये गये हैं,
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा चिर्ति मन्नार की खाड़ी के स्पेशल बायोस्फियर रिज़र्व से स्मेल्टर केवल 14 किलोमीटर की दूरी पर था जबकि कानून यह कहता है कि सारे औद्योगिक प्रतिष्ठान यहाँ से कम से कम 25 किलोमीटर के पफासले पर होने चाहिए.
कम्पनी (उस समय स्टरलाइट) द्वारा काम शुरू करने के पहले न तो पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का कोई मूल्यांकन हुआ और न ही वैसा कोई अनुमोदन हुआ.
इस तरह का कोई कारखाना शुरू करने के पहले जन-सुनवाई का प्रावधान होता है. यह तब तक नहीं हुई जब तक 2003 में स्टरलाइट कम्पनी वेदांत के हाथ में नहीं चली गई मगर तब तक स्मेल्टर को काम करते हुए 7 साल बीत चुके थे. उस समय तक भी, प्लांट के विस्तार के लिए मुख्य इकाइयों की स्वीकृति नहीं मिली थी मगर कम्पनी ने अपने उत्पादन का जोविस्तार कर लिया हुआ था वह उसकी स्वीकृत कानूनी सीमा से चार गुने से भी ज्यादा था और उसके पास तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की अनुमति भी नहीं थी.
सितम्बर 2004 में (जब वेदांत रिसोर्सेज़ प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी को टूटीकोरिन स्मेल्टर का अधिग्रहण किये हुए 9 महीने का समय बीत चुका था) भारत के उच्चतम न्यायालय की हैज़ार्डस वेस्ट्‌स मॉनिटरिंग कमेटी ने पाया कि कम्पनी अनापत्ति प्रमाण-पत्र की चार मुख्य शर्तों का उल्लंघन कर रही थी. साइट पर हजारों टन आर्सेनिक-प्रदूषित स्लैग का मौजूद रहना खास तौर पर चिन्ताजनक था. एक सप्ताह बाद कमेटी ने उच्चतम न्यायालय से सिफ़ारिश की कि तूतीकोरिन में वेदांत के विकास की पूरी प्रक्रिया को गैऱ-कानूनी करार कर दिया जाए.
इसके बावजूद तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 2004 अप्रैल में वेदांत के विस्तार के लिए बीती तारीखों से अनुमति प्रदान कर दी.
एक माह बाद (मई 2005 में) हैजार्ड़स वेस्ट्‌स मॉनिटरिंग कमेटी ने तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से सफाई मांगी कि ग़ैर-कानूनी कामों को करने के लिए अनुमति कैसे दी गई? आज तक इसका कोई सन्तोषजनक उत्तर बोर्ड की ओर से नहीं दिया गया है.
15. ''बाल्को करार आर्थिक रूप से असंगत, राजनैतिक दृष्टि से निन्दनीय, कानूनी तौर पर अमान्य और पर्यावरणीय लिहाज़ से गलत है...यह भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गये मौलिक अधिकारों पर ऐतिहासिक समता फैसले का उल्लंघन है जिसमें कहा गया है कि आदिवासियों की जमीन पर केवल उन्हीं का अधिकार है....'' (प्रफुल्ल बिदवई, फ्रन्टलाइन मई 12.25, 2001).16. वीवी गिरी रिपोर्ट के अनुसार कर्मचारियों पर 'दबाव' डाला गया कि वे स्वैच्छिक अवकाश योजना के तहत रिटायरमेन्ट ले लें. जिन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया उन्हें परेशान किया गया. वेदांत ने स्वैच्छिक अवकाश की जो रणनीति अपनाई थी उसका मकसद था ''उनके आत्म सम्मान को ठेस पहुँचा कर बेइज्जत करना और कम्पनी के प्रति उनकी निष्ठा पर शक करना.'' जिन लोगों ने स्वैच्छिक अवकाश लेने की पेशकश की उनके पैसों का भुगतान पाँच किस्तों में किया गया और हर भुगतान के बीच छः महीने का अन्तर रखा गया. 1,302 कर्मचारियों को स्वैच्छिक अवकाश मिला जिनमें से लगभग सभी को (1,281) पैसों का भुगतान देर से किया गया. स्वैच्छिक अवकाश स्वीकृत किये जाने के बावजूद कर्मचारियों के 25,000 से 50,000 रुपयों तक की राशि को कम्पनी ने अपने पास रखा. नई दिल्ली कार्यालय और बिधानबाग इकाई में काम कर रहे कर्मचारियों को बड़ी संख्या में कोरबा अल्युमिनियम कॉम्प्लेक्स भेज दिया गया और वहाँ उन्हें स्वैच्छिक अवकाश लेने पर मजबूर किया गया. अगर उन लोगों ने स्थानान्तरण के विरुद्ध आवाज उठाई तो ''उनकी तनख़्वाह और भत्ते रोक दिए गये जिनका भुगतान सात महीने बाद तक नहीं हुआ.'' ''स्कूलों में नामांकन में भी भारी गिरावट आई'' यहाँ तक कि जूनियर स्कूल तो बन्द हो गया और ''अब कम्पनी जूनियर स्कूल भवन को एक गोदाम के तौर पर इस्तेमाल कर रही है.'' (देखें-बाल्को के कर्मचारी स्वैच्छिक अवकाश लेने को बाध्य किये गये-अक्षय मुकुल, टाइम्स ऑफ इण्डिया, जनवरी 25, 2007). यह भी ध्यान देने की बात है कि 2005 में छत्तीसगढ़ के राजस्व मंत्री ने बाल्को पर यह इल्जाम लगाया था कि उसने ''सम्बद्ध संस्थाओं की अनुमति के बगैर'' कोरबा अल्युमिनियम कॉम्प्लेक्स के विस्तार के लिए 20,000 पेड़ों को काट दिया. वेदांत पर 2004 में यह भी इल्जाम लगा था कि जब उसके पास विस्तार कार्यों के लिए पूंजी जमा हो गई तब उसने गैऱ-कानूनी तरीके से गाँव वालों को मजबूर किया कि वह अपनी जगह-जमीन छोड़ कर हट जायें. (देखें-बाल्को पर जमीन हड़पने की बदनामी टेलिग्राफ, कोलकाता, जून 18, 2005, न्यू इण्डियन एक्सप्रेस जून 24, 2005, आइएएनएस-जुलाई 13 तथा जुलाई 25, 2005).17. 2005 के मध्य में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमण सिंह ने यह स्वीकार किया कि इस तरह से इतना जल्दी किया गया जबर-दखल मान्य नहीं है. ऐसा उन्होंने तब कहा जब 20 प्रभावित परिवारों ने गवाही दी कि 'नई खदान' ने उनके घरों और खेती को ''पूरी तरह से तबाह'' कर दिया है. कहा जाता है कि सिंह ने जिला कलक्टर को यह आदेश दिया कि इन परिवारों का यथाशीघ्र और समुचित पुनर्वास सुनिश्चित किया जाय, उन्हें जीवन निर्वाह के लिए वैकल्पिक जमीन और रहने के लिए घर की व्यवस्था की जाए और समुचित क्षतिपूर्ति दी जाए. भारत तथा इंग्लैण्ड की एक अध्ययन टीम जब मई 2006 में इस क्षेत्र के भ्रमण के लिए गई तो उसे नहीं लगा कि इस तरह के कोई कदम उठाये गये थे या वह लोग जो इस खदान के जीवन काल में भविष्य में हटाये जायेंगे, उनके लिए भी इस तरह की कोई योजना है.18. उत्तरी तमिलनाडु में मेट्‌टूर में माल्को के समग्र अल्युमिनियम उपक्रमों में इस तरह के प्रदूषण फैलाने वाले कुख्यात उद्योगों की पर्यावरण पर दुष्प्रभाव की निहायत घटिया प्रदर्शनी देखने को मिलती है जिसमें असुरक्षित कोयला चालित कैप्टिव पॉवर प्लांट से निकले जहरीले पदार्थों का अपना विशिष्ट योगदान रहता है. वेदांत दावा करता है कि वह माल्को से निकलने वाले ''लाल कीचड़'' (कॉस्टिक सोडा अपशिष्ट) और फ्लाइ ऐश का उपयोग ईंटें बनाने में करता है. यह अपने आप में ही बड़ा सन्देहास्पद ''समाधान'' है और बहुत मुमकिन है कि ऐसा पूरी तरह कर पाने में वर्षों लग जायेंगे. इस बीच लाल कीचड़ बजबजाते हुए खेतों तक पहुँच जाता है, पानी के स्रोतों को प्रदूषित करता है और जानवरों की मृत्यु का कारण बनता है. रिफ़ाइनरी और विद्युत गृह से निकलने वाला धुआँ बहुत से स्थानीय निवासियों, खास कर दलितों, की जीवनधारा में जहर घोलता है. अप्रैल, 2005 में बहुत से ऐसे लोगों ने जो माल्को से प्रभावित थे इण्डियन पीपुल्स ट्राइब्यूनल ऑन एनवायर्नमेन्ट एण्ड ह्यूमन राइट्‌स द्वारा आयोजित जांच-पड़ताल के समक्ष अपना बयान दिया. इसका काम केमप्लास्ट सन्मार और मालको लिमिटेड में पर्यावरण की दुःस्थिति और मानवाधिकार उल्लंघन का अध्ययन करना था. बहुत से लोगों ने, इनमें कर्मचारी भी शामिल थे, बहुत सी ऐसी बीमारियाँ बताईं जिनसे इलाके के लोग त्रस्त थे. इनमें गम्भीर रूप से श्वास तंत्र की बीमारियाँ, त्वचा तथा आंख की बीमारी, पेट की गड़बड़ी, सीने और हाथ-पैरों में दर्द की शिकायतें आम थीं.19. देखें-A Brief Report on Ecological and Biodiverstiy Importance of Nyamgiri Hill and Implications of Bauxite Mining, Environmental Protection Group, Orissa, June 200520. Central Empowered Committee report in IA No. 1324 regarding the alumina refinery plant being set up by m/s Vedanta Alumina Limited at Lanjigarh in Kalahandi district, Orissa; Delhi, September 21, 200521. देखें: Studies on impact of proposed Lanjigarh bauxite mining on biodiversity including wildlife and its habitat, Wildlife Institute of India, Dehra Dun, August 200622. Information from Forest Case Update, Delhi, December 200623. अप्रैल 2007 के आखिर में भारत के सबसे बड़े ताँबा निर्यातक सीसा गोआ के अधिग्रहण के मामले में वेदांत ने लक्ष्मी मित्तल की कम्पनी आर्सेलर मित्तल को पछाड़ दिया. दुनिया के दूसरे नम्बर की निर्यातक रियो टिन्टो करीब 2 महीने पहले इस दौड़ से हट गई थी. कोरस के हाल के अधिग्रहण में संसाधन प्रायः चुक जाने के बाद (और अब नये संसाधनों की तलाश के कारण) टाटा स्टील की गिनती आखिरी सम्भावित खरीदारों तक में नहीं थी. देखें (“Vedanta buys 51 percent of India’s Sesa Goa” by Mark Potter and Emi Emoto, The Scotsman, April 24, 2007.)वेदांत का कहना है कि वह सीसा गोआ के अधिग्रहण के लिए आवश्यक संसाधन ''मौजूदा नगद संसाधनों और बैंक द्वारा आश्वस्त किये गये नये 1100 करोड़ अमरीकी डॉलर'' से करेगा. एक जाहिर सा और तुरन्त का प्रश्न यह उठता है कि ऐसी परिस्थिति में उड़ीसा में बॉक्साइट को अल्युमिनियम में परिवर्तित करने के लिए जो विस्तार करना होगा उसके लिए जरूरी पूंजी कहाँ से आयेगी (यह सच है कि गोआ के लौह अयस्क में अल्युमिना की खासी मात्रा है और वहाँ बॉक्साइट का भी खनन होता है). लेकिन निर्विवाद रूप से भारत की सबसे बड़ी और सर्वाधिक विविधिता वाली यह खनन कम्पनी जिसका लन्दन स्टॉक एक्सचेंज में मार्केट कैपिटलाइजेशन बढ़ कर 4100 करोड़ अमरीकी डॉलर हो गया है, ऐसा नहीं लगता है कि अतिरिक्त पूँजी जुटाने में इसे कोई दिक्कत होने वाली है क्योंकि यूरोप और अमेरिका के इसके पुराने बैंक सूत्र इस काम में उसकी मदद करेंगे.

रोजर मूडी लंदन में रहते हैं और वेब साइट www.minesandcommunities.org के प्रबन्ध सम्पादक हैं. वह एक अनुभवी अंतर्राष्ट्रीय शोधकर्त्ता और अभियानी हैं जिन्होंने बहुत-सी यात्राएँ, ख़ास कर एशिया प्रशान्त क्षेत्र में की हैं. उनकी बहुत-सी कृतियों में बहुचर्चित ‘The Gulliver File : Mines, People and Land’—A Global Battleground (Mineswatch/WISE Glen Aplin/International Books, 1992), The Indigenous Voice : Vision and Realities (Zed Books 1988) तथा The Risks We Run : Mining, Communities and Political Risk Insurance (International Books, Utrecht, 2005 शामिल हैं. उनकी नवीनतम पुस्तक Rocks and Hard Places : Globalisation of Mining (Zed Books) पिछले महीने प्रकाशित हुई है.
पैनोस साउथ एशिया द्वारा प्रकाशित पुस्तक बुलडोजर और महुआ के फूल से साभार.

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

महावीर सिंह का दुर्लभ पत्र

भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेजों के प्रकाशन के बाद भगत सिंह के निकट साथियों में से एक महावीर सिंह (16.9.1905-17.5.1933) अंडमान के कुछ दस्तावेज उनके भतीजे यतीन्द्र सिंह राठौर, जयपुर के प्रयासों से सामने आये हैं. अंडमान जाने से पहले का यह पत्र यहाँ प्रस्तुत है, दस्तावेजों में संकलित पत्र अंडमान पहुँचने के बाद का है: चमन लाल

पूज्यवर,
कृपा पत्र प्राप्त हुआ परन्तु जो सीधे रजिस्टर्ड भेजा था वह अभी तक 3 सप्ताह से दफ्तर में ही पड़ा हुआ है हिन्दी पढ़ने वाला यहाँ मुश्किल से कोई ही मिलता है यही कारण है कि वह पढ़ाने के लिए कानपुर अथवा लाहौर कहीं भेजा गया है और तब प्राप्त कर सकूंगा खैर समाचार तो मिल ही गया है. सम्प्रति हम लोग कुछ अच्छी तरह पर हैं पर भविष्य में निकट ही फिर उन्हीं कष्टों की आशा की जाती है. बन्धुवर दत्त त्रिचनापल्‍ली भेज दिये गये और जयदेव कपूर राज मेहन्दी तथा कमलनाथ तिवारी बैलूर में हैं.
प्रारम्भ में पत्र में लिखा था कि हमारे उत्तरदायी संरक्षक गण असमर्थ हैं और वे पराधीन हैं. हमें उनके साथ कुछ झगड़ा वगैरह नहीं करना चाहिए परन्तु आप यह ध्यान रखें कि हमारी दुनिया और आपकी दुनिया बिल्कुल विपरीत है. आप अपनी दुनिया से स्वतन्त्र हैं आपको मान अपमान से सर्वदा बाधित होने का कोई अवसर नहीं है परन्तु यहाँ उठते बैठते चलते फिरते पग-पग पर अपमान सहने पड़ते हैं ठोकरें खानी पड़ती हैं गालियाँ सुननी पड़ती हैं ऐसी दशा में मेरा तीन वर्ष का अनुभव बतलाता है कि यह जगह मनुष्य के स्वभाव किसी भी हालत में क्यों न हों बदल देती हैं उसके लिए सिर्फ दो ही उपाय बाकी रह जाते हैं एक तो उनकी नीच आज्ञाओं का पालन करना और धमकी तथा अपमान चुपचाप सहन करना जो कि मनुष्य को बिल्कुल, आत्माहीन, स्वार्थपरक तथा भीरु बना देता हैं आत्मदृढ़ता तथा विश्वास का बिल्वुफल लोप हो जाता है ऐसा मनुष्य बाहर निकलकर भी चारों ओर सिवाय निराशा और घोर अंधकार के कुछ भी नहीं देखता. ऐसी हालत में वह और भी पतित हो जाता है ऐसे उत्साहहीन पुरुष का जीवन केवल भार स्वरूप होकर दुखदायी हो जाता है. इसमें यदि कोई कहे शान्ति है तथा नम्रता है तो उसका खयाल बिल्कुल गलत है. ऐसी जगह में क्षमा की आवश्यकता नहीं है क्योंकि आप जानते हैं कि ये चीजें गुण उसी दशा में कही जा सकती हैं जब उनके विरुद्ध होने वाली दुष्टताओं को दमन करने वाला हर प्रकार का बल मनुष्य में हो और ऐसी ही हालत में शान्तिपूर्वक उनको क्षमा कर देना एक अनुपम गुण होता है और शान्ति एक दैवी सौंदर्य लेकिन जब अत्याचारी यह देखता है कि वह बलवान है और दूसरा पुरुष उसका कुछ भी नहीं कर सकता है ऐसा खयाल कर के हर प्रकार के अमानुषीय कृत्यों को करने पर उतारू हो जावे तो मनुष्य का कर्तव्य यह है कि वह उनके विरुद्ध अवश्य खड़ा हो, नहीं हो वह क्षमाशील तथा शान्तिप्रिय होने के स्थान में भीरू और कायर ही होगा. ऐसा मेरा ही मत नहीं है पर महात्मा गाँधी जी का भी है. हाँ दूसरा उपाय यह है कि मनुष्य को उपरोक्त बडे़ मनुष्यों के सिद्धांतों के अनुसार बुराई के खिलाफ जिस प्रकार हो सके तन मन धन से कमर बाँध के खड़ा हो जाना चाहिए. ऐसी हालत में जो मनुष्य ऐसा कार्य करता है वह इन आत्माहीन दुराचारियों से टकराता है, बदमाश, उदंड और कानूनों को न मानने वाला कहलाता है और फिर उसे कष्टों को सहन करना पड़ता है. पर जब अत्याचारी कष्ट पहुँचाकर थक जाते हैं तो फिर उस मनुष्य के साथ दुर्व्‍यवहार करने की सहज में उतनी चेष्टा नहीं करते हैं इसलिए जो आदमी इस चारदिवारी के अन्दर प्रवेश करे तो पहले वह हमारे संरक्षकों की भाषा के अनुसार उदंड और बदमाश बने, तभी मान रक्षा पा सकता है. कायर बनने पर हालत में अपमान ही मिलेगा जो शारीरिक कष्टों से बहुत ही दुखदायी होता है. आप विश्वास रखें कि, ये उपवास तथा यातना इत्यादि हमें बिल्‍कुल कष्ट नहीं देते बल्कि चौगुनी खुशी देते हैं, क्योंकि हम ख्यात करते हं कि हम अत्याचारों के विरुद्ध लड़ रहे हैं. रही बात हमारे संरक्षकगणों के व्यवहार की बातें सो वे जितना सरकार चाहती हैं उससे दस गुना करते हैं. दो चार गाली सुनना या बेंत की परीक्षा करना तो मामूली ही है. सरकार की मंशा है कि हम लोगों को भेड़ों की तरह रखा जावे तो ये लोग उतना भी नहीं रखना चाहते हैं. एक गड़रिया अपनी भेड़ों को अच्छी से अच्छी घास तथा सुखमय स्थान देने की सर्वदा चेष्टा करता है परन्तु यहाँ जितना बुरा हो सके उतना बुरा खाना और दस झरोंखे वाले कपड़े देते हैं परन्तु जब काम की बात आती हैं तो एक कोल्‍हू का बैल भी उसके सामने सर झुका जाता है. और सरकारी आज्ञा के विरुद्ध खाने के उपरान्त ही समय से एक घंटा पहले ले जाकर बन्द कर दिया जाता है और वह लोग भी बिचारे भेड़ों की तरह से मार बरदाश्त करते, उनकी इच्छानुसार कार्य करते रहते हैं. इस प्रकार जो बिगड़ी हुई आदतें हैं इन सैयादों की हैं उन्हें हमारे ऊपर भी कभी-कभी उपयोग में लाने की चेष्टा करते हैं और तभी हम लोगों के साथ झगड़े हो जाते हैं. अभी तक हम अपने जीवन-मरन के साथियों को आपके पत्र के साथ अक्‍सर पत्र में लिख दिया करते थे, जिससे उनको हमारा समाचार विदित हो जाया करता है.
परन्तु अब इस गुलशन के माली ने आजादी छीन ली है. पूज्यवर आपने भदवास के ठाकुर सरदार सिंह तथा धनराज सिंह जी या मेरे मित्रों के विषय में पूरा विवरण नहीं लिखा कृपया पूरा वृतान्त शीघ्र लिखियेगा. मुझे यह सुनकर अतीव आनन्द है कि मैं शीघ्र ही एक भावी पिता का बड़ा भाई बनूंगा. ऐसा सुनने में आया है कि भारत मंत्री सईमुयेल होर महाशय हम पर बड़े कृपालु हैं और शीघ्र ही हमें सौ आदमियों सहित एक सुन्दर समुद्र परीवेष्टित द्वीप, कालापानी की सैर करायेंगे. इसमें भी एक अपूर्व आनन्द ही होगा. यह आपका खयाल ठीक नहीं है कि मैं घर के लिए घबड़ाया करता हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ जिसे छोड़ ही दिया उसके लिए घबड़ाना क्या. पर हाँ माताजी और बुआजी के वृद्धत्व तथा निर्बलता का कभी खयाल आ जाता है, परन्तु उससे अधीर नहीं होता, क्योंकि मैं जानता हूँ कि उन्हें किसी प्रकार की मदद तथा तत्पर सेवा नहीं कर सकता हूँ. मेरे साथी डॉ. गयाप्रसाद को दौरे गत सितम्बर से शुरू हो गये, अब तक लगभग नौ आ चुके हैं. वे दवा पीते हैं और तीन माह से अभी तक कोई दौरा भी नहीं आया है, परन्तु दिमागी गड़बड़ी कभी-कभी मालूम होती है. परन्तु मुझे गत चार से अधिक वर्षों से कोई ऐसी शिकायत नहीं है. स्वास्थ्य अच्छा है परन्तु मुल्तान के वजन से करीब 15 पोंड कम हूँ, डॉ. साहब भी वजन में गिर गये हैं.
मुझे इससे बड़ा दुख हुआ कि जिनके लिए हममें से तीन आदमी हँसते-हँसते फाँसी के तख्ते पर झूल गये और बाकी ने आजन्म कारावास को सहर्ष आंलिगन किया, उन्हीं मनुष्यों, गरीब किसानों पर ठाकुर मंशी सिंह जी ज्यादती करते हैं. यह उन्हें उचित नहीं हैं, आप उन्हें समझा दें बच्चों की शिक्षा का उचित प्रबंध करावे, लली और बेटी सरोजनी देवी को मेरा आर्शीवाद कहियेगा. भाइयों को प्यार, माताजी और बुआजी, चाचाजी, दाऊजी तथा चाची वर्ग को चरण स्पर्श कहना, बाकी कुशल है दीदी कंचन कुअर को पैर छूना तथा बच्चों को प्यार कहियेगा. मोरमुकुट तथा हीरालाल जी को भी हाथ जोड़कर नमस्ते कहियेगा. बंसुध्रे वाले को तथा भाई फूल सिंह जिसे मैं केवल आपके पत्र द्वारा ही जानता हूँ, नमस्ते कहियेगा। अधिक क्या लिखू, सब कुशल है, मिलने की सूचना उन्हें देना.
आपका आज्ञाकारी
महावीर सिंह

महावीर सिंह के भतीजे यतीन्द्र सिंह के सौजन्य से

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

आदिवासी और माओवादी एक तरफ हैं और राजसत्ता दूसरी तरफ


‘पुलिस दुश्मन के साथ है’क्रांतिकारी कवि और विचारक वरवर राव बता रहे हैं कि पश्चिम बंगाल में पुलिस कैंप पर हमला ऑपरेशन ग्रीन हंट के बदले में किया गया था. तहलका में प्रकाशित शोभिता नैथानी से बातचीत से अंश-साभार.

पश्चिम बंगाल में जवानों की निर्मम हत्या पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?

यह कोई अलग-थलग घटना नहीं है। जवान माओवादियों के खिलाफ कॉम्बिंग ऑपरेशन का हिस्सा हैं. सरकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों को जंगल की जमीन सौंप कर आदिवासियों को संसाधनों से वंचित कर रही है. इस उद्देश्य से जब पुलिस भेजी जाती है तो पुलिस और माओवादियों के बीच संघर्ष होता है. सरकार अपने ही लोगों को विस्थापित कर रही है, उनकी हत्या कर रही है. इसलिए इस घटना को अलग करके नहीं देखिए, बल्कि ऐसे देखिए कि ये क्यों हो रहा है. ऐसा दो भिन्न विकास मॉडलों के बीच टकराव के कारण हो रहा है. सरकारी मॉडल को जनता से कुछ लेना-देना नहीं है.
लेकिन जो मारे गए वे गरीब कांस्टेबल थे, और अपने परिवार की जीविका कमाने के लिए ड्यूटी कर रहे थे।
किसी युद्ध के दौरान पुलिस गरीब लोगों की ही भर्ती करती है। लेकिन यहां वे दुश्मन के साथ है- उनके जरिए राजसत्ता लोगों पर दमन चलाती है.

इस हमले का लक्ष्य क्या है?

गणपति (भाकपा माओवादी के महासचिव) ने मांग की है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गतिविधियां खत्म की जाएं, अर्धसैनिक बलों को वापस बुलाया जाए और माओवादी नेताओं नारायण सान्याल, अमिताभ बागची, सुशील राय और कोबाद गांधी को छोड़ा जाए। और यह कि जंगल की संपत्ति और इसके खनिज को आदिवासियों के हाथों में सौंप दिया जाए. इसे एक क्रांति से और एक वकल्पिक जनता की सत्ता से ही पूरा किया जा सकता है.

इस हमले से क्या हासिल हुआ?

यह एक या दो हमलों की बात नहीं है। कोई हमला अलग-थलग हमला नहीं है. अगर राज्य हिंसा को नहीं रोकता है तो ऐसे हमले होंगे.
क्या पुलिस के अत्याचारों को रोकने का हिंसा एकमात्र रास्ता है? या मुद्दे को सुलझने के लिए कोई

लोकतांत्रिक जनांदोलन संभव है?

यह एक लोकतांत्रिक आंदोलन है।

आप इसे लोकतांत्रिक कैसे कह सकते हैं, जब इसमें हिंसा हो रही है?

एक सरकार जो संसदीय चुनावों के जरिए सत्ता में आती है और एक संसदीय लोकतंत्र के तहत शपथ लेती है, उसने देश के अधिकतर हिस्सों में सैनिक शासन चला रखा है, जिसमें मुठभेड़ों में हत्याएं और ऑपरेशन ग्रीन हंट शामिल है। क्या यह लोकतांत्रिक है?

माओवादी किनका प्रतिनिधित्व करते हैं?

मेहनतकश वर्ग, आदिवासियों, मुसलमानों, दलितों, महिलाओं- जो कोई भी उत्पादन की प्रक्रिया का हिस्सा है- माओवादी उन सबका प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन किशन से अलग हुए माओवादी जोनल कमांडर मार्शल ने तहलका को बताया है कि माओवादी आदिवासी समर्थक नहीं हैं। यह सलवा जुडूम जसी दलील है। सरकार कहती है कि सलवा जुडूम आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन यह सही नहीं है. सरकार उनको (मार्शल) नियंत्रित कर रही है और उनसे ऐसा बुलवा रही है.

साल पहले यह फैसला करने के बाद भी कि वे स्कूलों को नहीं गिराएंगे, माओवादी क्यों स्कूल की इमारतों को जला रहे हैं?

क्योंकि उनका उपयोग पुलिस कैंप के रूप में हो रहा था। आप केवल प्रतिक्रियाओं के बारे में पूछ रही हैं, कार्रवाइयों के बारे में नहीं पूछ रही हैं. माओवादी आदिवासियों के लिए स्कूल चला रहे हैं, और वे आदिवासियों के लिए स्वास्थ्य कार्यक्रम भी चला रहे हैं.

क्या इसकी संभावना है कि माओवादी हथियार डाल कर बातचीत शुरू कर सकते हैं?

अगर सरकार युद्धविराम की घोषणा करता है और माओवादियों पर से प्रतिबंध हटाता है तो वे बातचीत करेंगे।बहुत सारे आदिवासी माओवादियों और राज्य के बीच में फंसे हुए हैं।
यह आपका मानना है. माओवादी वहां आदिवासियों के लिए हैं. वे जंगल की जमीन की अपने लिए नहीं, आदिवासियों के लिए मांग कर रहे हैं. आदिवासी और माओवादी एक तरफ हैं और राजसत्ता दूसरी तरफ. जिन आदिवासियों को यह नहीं लगता कि माओवादी उनके साथ है, उन्हें जब इसका फायदा दिखेगा तो वे भी ऐसा मानने लगेंगे।

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

नेपाली माओवाद और भारत नेपाल संबंधों पर अमलेंदु उपाध्याय की आनंद स्वरुप वर्मा से बातचीत


आनन्द स्वरूप वर्मा देश के जाने माने पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। संभवत:नेपाल की राजनीति और खासतौर पर वहां की माओवादी राजनीति पर भारत में उनसे ज्यादा गहराई के साथ कम ही लोग जानते हैं। अपनी बेबाक बयानी के लिए जाने जाने वाले वर्मा जी जब रौ में बोलते हैं तो इतना सच कि जुबां कड़वी हो जाए। जाहिर है सच कड़वा ही होता है। छपास डॉट कॉम के राजनीतिक संपादक अमलेन्दु उपाध्याय ने उनसे नेपाली माओवाद और भारत नेपाल संबंधों पर लम्बी बातचीत की। साभार प्रस्तुत है उनसे बातचीत के प्रमुख अंश-
आपकी फिल्म 'फ्लेम्स ऑफ स्नोÓ पर सेंसर बोर्ड ने पाबंदी क्यों लगा दी?सेंसर बोर्ड का कहना है कि इस देश में अभी जो माओवादी आन्दोलन है, उसका जो विस्तार हुआ है उसे देखते हुए हम इस फिल्म पर रोक लगा रहे हैं। लेकिन हमारा कहना है कि इस फिल्म में भारत के माओवादी आन्दोलन के विषय में एक शब्द भी नहीं कहा गया है, कोई फुटेज भी नहीं है कोई स्टिल भी नहीं है। ऐसी स्थिति में अगर नेपाल के आन्दोलन पर, केवल माओवादी आन्दोलन पर नहीं बल्कि वहां के समग्र आन्दोलन पर कोई फिल्म बनाई जा रही है तो उसको यह बहाना देकर रोकना एकदम अनुचित है। क्योंकि यह फिल्म माओवादी आंदोलन के ऊपर नहीं है बल्कि उसके ऊपर केन्द्रित है। क्योंकि इस फिल्म की शुरूआत होती है जब पृथ्वीनारायण शाह ने नेपाल की स्थापना की थी यानि दो सौ ढाई सौ साल के दौरान जो आन्दोलन हुए उनकी झलक देते हुए यह माओवादी आन्दोलन पर केन्द्रित हो जाती है। क्योंकि यह मुख्य आन्दोलन था जिसने वहां राजशाही को समाप्त किया। अब अगर आप यह कहते हैं कि इस फिल्म से यहां के माओवादियों को प्रेरणा मिलेगी तो किसी एक जनतांत्रिक देश में इस तरह की बात कहकर किसी फिल्म को रोकना अनुचित है। तब तो अगर नेपाल के आन्दोलन पर कोई पुस्तक लिखी जाएगी तो भी प्रेरणा मिलेगी? यह स्थिति तो बिल्कुल जो हमारा फन्डामेन्टल राइट यानि अभिव्यक्ति की आजादी है उसका गला घोंटना है।
क्या भारत का माओवाद और नेपाल का माओवाद अलग-अलग है?मेरे विचार में हर देश का माओवाद अलग-अलग होता है। क्योंकि जितने भी विचारक रहे हैं मार्क्स, लेनिन, स्टालिन, माओत्से तुंग या आज के दौर में प्रचण्ड, सबका यही कहना है कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद जो एक सिद्धान्त है, उसको आप अपने देश की सांस्कृतिक, भौगोलिक, राजनीतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि के अनुरूप लागू कीजिए। हर देश की राजनीतिक सामाजिक पृष्ठभूमि अलग होती है। नेपाल में राजतंत्र था और वहां एक जबर्दस्त सामंती राजनैतिक व्यवस्था थी। उसमें उन्होंने वहां किस परिस्थिति में माओवाद को लागू किया यह उनका मामला है। भारत के माओवाद और नेपाल के माओवाद में बहुत फर्क है। क्योंकि उन्होंने तो चुनाव में भी हिस्सा लिया और सरकार बनाई। जबकि भारत में अभी ऐसी स्थिति नहीं है। दोनों स्थितियों में फर्क तो काफी है। लेकिन नेपाल के माओवादी आन्दोलन से भारत के माओवादी आन्दोलन को प्रेरणा लेने का सवाल है, जैसा कि सेंसर बोर्ड कहता है तो वह यह भी प्रेरणा ले सकते हैं कि किस तरह कोई आन्दोलन आम जनता के बीच न केवल आदिवासियों के बीच पॉपुलर हो सकता है, मध्यवर्ग को भी प्रभावित कर सकता है, मध्यवर्ग को भी अपने दायरे में ले सकता है और वह एक निरंकुश व्यवस्था के खिलाफ सफल हो सकता है। तो दोनों में फर्क तो है। अब भारत में जो लोग हैं जो सत्ता में बैठे हैं जो सेंसर बोर्ड देख रहे हैं उनकी अकल इतनी नहीं है कि इतना विश्लेषण कर सकें।
क्या आपको लगता है कि भारत की सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था माओवादियों के खिलाफ हो चुकी है?
भारत के माओवादियों के?
नहीं यह तो एक दूसरा सवाल हो गया क्योंकि इसका मुझसे कोई मतलब नहीं है। ( हंसते हुए) अगर आप हमसे भारत के माओवादी आन्दोलन पर बातचीत करना चाहते हैं तो एक अलग बात है। हमसे तो नेपाल पर ही बात करें।
चलिए नेपाल पर ही केन्द्रित होते हैं। अक्सर यह आरोप लगते रहे हैं कि नेपाल के माओवादियों से भारत के माओवादियों को समर्थन और मदद मिलती रही है और नेपाली माओवादियों का रुख हमेशा से भारत विरोधी रहा है। क्या नेपाली माओवादी वास्तव में भारत विरोधी हैं?
इसके लिए तो आपको यह देखना होगा कि भारत के माओवादियों की केन्द्रीय समिति और उनके बड़े नेता गणपति के हस्ताक्षर से अब से एक डेढ़ साल पहले खुली चि_ी नेपाल के माओवादियों को लिखी गई जिसमें नेपाली माओवादी आन्दोलन की तीखी आलोचना की गई। इस पत्र में यह आलोचना की गई कि नेपाली माओवादी क्रांति का रास्ता छोड़ करके संशोधानवादी हो गए। यह तो दोनों के संबंधों की बात है। जहां तक नेपाल के माओवादियों से मदद मिलते रहने की बात है तो वह इस स्थिति में कभी नहीं रहे कि भारत जैसे किसी विशाल देश के किसी संगठन को मदद कर सकें। अगर आप दोनों देशों के एरिया और आबादी की और रिसोर्सेस से तुलना करें तो देखेंगे कि वह भारत के मुकाबले कहीं ठहरते ही नहीं हैं। ऐसे में वह अपने को संभालेंगे कि भारत के माओवादियों की मदद करेंगे। इसलिए कोई भौतिक मदद या इस तरह की मदद की बात नहीं है लेकिन बिरादराना संबंध वह मानते हैं। वह तो भारत के माओवादियों के साथ, पेरू के माओवादियों के साथ, कोलंबिया के माओवादियों के साथ, हर देश के माओवादियों के साथ एक बिरादराना संबंध मानते हैं। वैसे ही भारत के माओवादियों के साथ मानते हैं। इससे ज्यादा उनका कोई लेना देना नहीं है।
लेकिन प्रचण्ड प्रधानमंत्री बनते ही पहले चीन गए जबकि परंपरा रही है कि नेपाल का राजनेता पहले भारत आता है। वैसे भी हम नेपाल के ज्यादा नजदीक हैं, क्योंकि हमारे सदियों पुराने संबंधा नेपाल से हैं। इस कदम से नहीं लगा कि प्रचण्ड के मन में भारत के प्रति कोई गांठ है?
देखिए यह कौन सी परंपरा है कि कोई प्रधानमंत्री जो बनेगा वह पहले भारत आएगा? भारत कोई मंदिर है जो वहां जाएगा और मत्था टेकेगा? जहां तक मेरा सवाल है मैं इस परंपरा के एकदम खिलाफ हूं। दूसरी बात किन परिस्थितियों में प्रचण्ड भारत न आकर चीन गए उसे देखना पड़ेगा। किसी भी विषय पर बात करते समय उस पूरी प्रक्रिया को देख लीजिए न कि केवल परिणिति। केवल परिणिति को देखने पर सही निष्कर्ष पर नहीं पहुंचेंगे। वह पूरी प्रक्रिया क्या थी मैं आपको थोड़ा संक्षेप में बता दूं। वहां पर बीजिंग में ओलंपिक खेल चल रहे थे चीन में। खेलों के उद्धाटन के समय चीन ने वहां के राष्ट्रपति को निमंत्रण दिया। रामबरन यादव को, जो नेपाली कांग्रेस के हैं। वह जब निमंत्रण मिला तो भारत के नेपाल में राजदूत राकेश सूद ने राष्ट्रपति से कहा कि आप चीन मत जाइए, इससे भारत को अच्छा नहीं लगेगा। तो राष्ट्रपति ने कहा कि हम नहीं जाएंगे। अब केवल बात राष्ट्रपति और राकेश सूद के बीच की होती तो यह किसी भी तरह स्वीकार्य हो सकती थी। मुझे व्यक्तिगत तौर पर यह भी स्वीकार्य नहीं है। लेकिन डिप्लोमैटिक रूप से एकबारगी यह स्वीकार्य हो सकता है। लेकिन राकेश सूद ने यह जानकारी प्रेस को दी कि हमने मना कर दिया और राष्ट्रपति नहीं गए। अब नेपाल की आम जनता को यह बात बहुत अच्छी नहीं लगी कि हमारे राष्ट्रपति को एक, मतलब राष्ट्रपति तो बहुत बड़ा पद है न, राष्ट्रपति को एक ब्यूरोक्रेट भारत का मना कर दे और वह मान जाए। जब समापन समारोह के लिए, तब यह प्रचण्ड प्रधानमंत्री नहीं बने थे, 15 अगस्त 2008 को बने हैं, और उनको जाना था 16 या 17 अगस्त को, इनको भी निमंत्रण मिला समापन समारोह के लिए और प्रचण्ड ने स्वीकृति दे दी थी। राकेश सूद ने उन्हें भी मना किया कि आप मत जाइए। तब प्रचण्ड ने कहा कि मैंने स्वीकृति दे दी है तो फिर सूद ने कहा कि आप मत जाइए भारत को अच्छा नहीं लगेगा। उन्होंने कहा मैं क्यों नहीं जाऊं जब मैंने स्वीकृति दे दी है मैं जाऊंगा। और वह चले गए। मान लीजिए कि प्रचण्ड उस समय नहीं जाते और राकेश सूद इस बात को भी प्रेस में देता ही कि हमने मना किया तो एक संप्रभु राष्ट्र के राष्ट्रपति और प्रधाानमंत्री को भारत का राजदूत मना कर दे कि आप यह न करें वह न करो, यह उचित नहीं है। इसलिए अपनी देश की जनता की भावनाओं को देखते हुए प्रचण्ड के लिए चीन जाना जरूरी हो गया था। अगर राकेश सूद ने यह गड़बडिय़ां नहीं की होतीं तो शायद वह इसको एवायड भी कर सकते थे। इसलिए इस घटना का विश्लेषण पूरी परिस्थिति देखकर ही करना चाहिए। हालांकि प्रचण्ड ने भी इसके बाद जो कहा मैं उससे भी बहुत सहमत नहीं हूं कि 'मेरी पहली राजनीतिक यात्रा तो भारत की ही होगी। क्या जरूरत थी यह भी कहने की। नेपाल एक संप्रभु राष्ट्र है वह भारत का कोई सूबा नहीं है कोई प्रॉविंस नहीं है कोई प्रांत नहीं है।
देखने में आ रहा है कि माओवादियों का आन्दोलन नेपाल में भी कुछ कमजोर पड़ता जा रहा है और आम जनता पर उनकी पकड़ कुछ ढीली पड़ती जा रही है। क्या कारण हैं कि माओवादी कमजोर पड़ रहे हैं?यह कहने का आधार कोई है?
जी बिल्कुल। अभी उन्होंने हड़ताल का आह्वान किया और लोगों ने सड़को पर उतरकर उसका विरोधा किया तो उन्हें हड़ताल वापस लेनी पड़ी?
नहीं। एक मई को जो हड़ताल का आह्वान किया था, वह आप नेपाल के किसी भी सोर्स से पता कर लीजिए अखबार से, जो बुर्जुआ अखबार हैं उनसे मालूम कीजिए वह अब तक का सबसे बड़ा प्रदर्शन था। रहा सवाल यह हड़ताल वापस लेने का तो वैसे भी उस को चार पांच दिन से अधिक नहीं चलाते क्योंकि उससे वहां की आम जनता को काफी दिक्कतें उठानी पड़तीं। लेकिन एक चीज का ध्यान दीजिए कि राजतंत्र समाप्त तो हो गया, भौतिक रूप से समाप्त हो गया। लेकिन अभी तमाम राजावादी तत्व सभी पार्टियों में मौजूद हैं। सामन्तवाद वहां अभी मौजूद है, वह तो समाप्त नहीं हुआ है। तो बहुत सारे ऐसे तत्व हैं जो इस समय अपने को माओवादियों के खिलाफ लामबंद कर रहे हैं। पिछले एक वर्ष के दौरान माओवाद विरोधी ताकतों को नजदीक आने का एक अच्छा मौका मिला है। इसमें बहुत सारी अन्तर्राष्ट्रीय ताकतें जिसमें अमेरिका और स्वयं भारत भी शामिल है, इन्होंने माओवाद के खिलाफ तत्वों की मदद की है। निश्चित रूप से जो खबरें आई हैं वह सही हैं कि कुछ प्रदर्शन हुए हैं काठमांडू में लेकिन काठमांडू और शहर तो कभी भी माओवादियों के आधार नहीं रहे उनका आधार तो ग्रामीण इलाका है। काठमांडू में जरूर इस तरह के तत्व हैं लेकिन केवल इस आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि उनकी पकड़ कमजोर पड़ गई है। क्योंकि जिस दिन माओवादियों की पकड़ कमजोर पड़ जाएगी उन्हें नष्ट करने में एक मिनट का भी समय वह ताकतें नहीं लगाएंगी जो उनकी विरोधी हैं।
प्रचण्ड ने बीच में एक बार आरोप लगाया था कि उनकी सरकार गिराने में विदेशी ताकतों का हाथ था और खासतौर पर उन्होंने भारत की तरफ इशारा किया था और आपने सुना भी होगा कि योगी आदित्यनाथ ने बयान दिया था कि राजतंत्र की बहाली के लिए वह नेपाल जाएंगे, बाबा रामदेव भी वहां गए और आरएसएस के प्रचारक इन्द्रेश जी के भी नेपाल में पड़े रहने की खबरें आई थीं। तो क्या आपको लगता है कि भारत की दक्षिणपंथी ताकतें माओवादियों के खिलाफ नेपाल में काम कर रही हैं?
जी हां, प्रचण्ड ने केवल संकेत ही नहीं दिया था बल्कि उन्होंने खुलकर कहा था कि भारत ने उनकी सरकार गिराने में पूरी मदद की थी। और उसकी वजह थी कि सेनाध्यक्ष रुकमांगद कटवाल वाला प्रकरण। कटवाल को जब प्रचण्ड ने बर्खास्त किया तो तीन-तीन बार कटवाल ने प्रधानमंत्री के आदेशों की अवहेलना की थी। इसलिए जरूरी हो गया था उन्हें बर्खास्त करना। उस समय भी राकेश सूद ने प्रचण्ड से कहा था कि अगर आप कटवाल को बर्खास्त करेंगे तो इसके बहुत गम्भीर परिणाम होंगे। अपमानजनक शब्दावली प्रयोग की थी हमारे राजदूत ने। इस राजदूत ने तो ठेका ले रखा है नेपाल की जनता को भारत विरोधी बनाने का। जबकि हम लोग लगातार यह प्रयास करते हैं कि दोनों देशों की जनता के बीच एक सद्भाव बना रहे। लेकिन राकेश सूद की वजह से यह सद्भाव बहुत समय तक बना नहीं रह पाएगा। इसके बाद प्रचण्ड ने कटवाल को बर्खास्त किया। एक निर्वाचित प्रधानमंत्री को यह अधिकार है कि वह सेनाधयक्ष को बर्खास्त कर सके। उन्होंने बर्खास्त किया और राष्ट्रपति ने उन्हें बहाल कर दिया। उन राजनीतिक दलों ने खासतौर पर नेकपा एमाले जो वहां की प्रमुख राजनीतिक दल है उसके अधयक्ष झलनाथ खनाल ने, जिनकी पार्टी सरकार में शामिल थी, वायदा किया कि कटवाल की बर्खास्तगी का वह समर्थन करेंगे। लेकिन जब प्रचण्ड ने बर्खास्त किया तो उन्होंने समर्थन वापस ले लिया। यह प्रचण्ड का मानना है और वहां की जनता का मानना है कि नेकपा एमाले ने जो समर्थन वापिस लिया वह भारत के इशारे पर वापिस लिया। अब यह बात सही है या गलत मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा। लेकिन आम नेपाली जनता के अन्दर धारणा यही है, राकेश सूद की हरकतों की वजह से, कि भारत ने ही प्रचण्ड की सरकार गिराने में मदद की। और यही बात प्रचण्ड ने भी कही है। तो एक बात तो है कि भारत की भूमिका इस समय अच्छी नहीं रही। जिस समय नवंबर 2005 में बारह सूत्रीय समझौता हुआ था उसके बाद से भारत की बहुत अच्छी गुडविल बन गई थी नेपाल में। और नेपाली जनता भारत सरकार के प्रति सकारात्मक रुख अख्तियार कर रही थी। लेकिन कटवाल प्रसंग के बाद से लगातार एक के बाद एक कई घटनाएं ऐसी हो चुकी हैं जिनसे नेपाली जनता को लग रहा है कि भारत उसके हितों के खिलाफ काम कर रहा है। हाल के ही अखबार उठाकर देखिए, कांतिपुर और काठमांडू पोस्ट जो वहां के दो बड़े अखबार हैं, और यह माओवादी अखबार नहीं हैं। बाकायदा अखबार हैं जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया है या इंडियन एक्सप्रेस है, इनके प्रिन्ट के कोटा को अ_ाइस दिन से यहां रोक रखा है कलकत्ता बंदरगाह पर भारत सरकार के अधिकारियों ने। महज इसलिए कि इस अखबार ने लगातार यह लिखा कि मौजूदा परिस्थिति में माधाव नेपाल को इस्तीफा दे देना चाहिए ताकि एक आम सहमति की सरकार बन सके। माधाव नेपाल की सरकार को चूंकि भारत सरकार समर्थन कर रही है इसलिए इनको यह चीज नागवार लगी। इतना ही नहीं राकेश सूद ने वहां के उद्योगपतियों को जो भारतीय उद्योगपति हैं, बुलाकर कहा कि आप लोग कांतिपुर को, काठमांडू पोस्ट को और कांतिपुर टेलीविजन को विज्ञापन देना बन्द कर दें। तो यह सारी चीजें जो हो रही हैं वह दोनों देशों की जनता के संबंधों को बहुत खराब करेंगी। मेरी चिन्ता यह है और अगर दोनों देशों के संबंध तनावपूर्ण होते हैं तो उससे नेपाल का नुकसान तो होगा ही क्योंकि वह छोटा देश है लेकिन भारत का भी कोई बहुत भला नहीं होने जा रहा है।
अगर प्रचण्ड यह समझ लेते कि कटवाल को बर्खास्त करने से भारत की तरफ से इस तरह का हस्तक्षेप हो सकता है तो क्या स्थिति थोड़ी सुधार सकती थी?
नहीं प्रचण्ड को तो यह मालूम पड़ गया था कि अगर हम कटवाल को बर्खास्त करेंगे तो ऐसा होगा क्योंकि उन्हें बहुत खुलकर धामकी दी थी राकेश सूद ने और शायद इस धामकी के जवाब में ही उन्हें कटवाल को बर्खास्त करना और ज्यादा जरूरी हो गया था। क्योंकि अतीत में भारत सरकार के राजदूतों के या भारत सरकार के ब्यूरोक्रेट्स की यह आदत पड़ गई थी कि वह नेपाल के प्रधानमंत्रियों को कुछ भी कह कर अपनी मनमर्जी करवाते थे। कम से कम प्रचण्ड के साथ यह बात नहीं है। उन्होंने कभी यह नहीं कहा, देखिए अगर आज नेपाल के अन्दर साक्षात् माओत्से-तुंग भी शासन करने आ जाएं तो भारत के साथ किसी तरह की दुश्मनी एफोर्ड नहीं कर सकते। इसको प्रचण्ड अच्छी तरह जानते हैं कि भारत से नेपाल तीन तरफ से घिरा हुआ है, यूं कहिए इण्डिया लॉक्ड कंट्री है। ठीक है। भारत से यह नाराजगी मोल लेंगे तो भारत उनकी जनता को कितना कष्ट पहुंचाएगा? तो अगर कोई पार्टी या कोई पार्टी का राजनेता जो सचमुच जनता के हितों की परवाह करता होगा, मैं यह मानता हूं कि माओवादी जनता की हितों की ज्यादा परवाह करते हैं और पार्टियों के मुकाबले, तो वह कभी नहीं चाहेगा कि भारत के साथ शत्रुतापूर्ण संबंधा हों, और प्रचण्ड ने कई मौकों पर यह कहा है कि हमारे पड़ोसी दो जरूर हैं चीन और भारत। हम राजनीतिक तौर से एक समान इक्वल डिस्टेंस रखेंगे दोनों से। लेकिन भारत के साथ हमारे जो संबंध हैं, सांस्कृतिक संबंध, भौगोलिक संबंध, इनकी कोई तुलना ही नहीं हो सकती चीन से। हमारे और भारत के बीच में रोटी और बेटी का संबंध है, यह शब्द प्रचण्ड ने इस्तेमाल किए थे। तो जब पूरा कल्चरली एक है, दोनों की खुली सीमा है। बिहार का एक बहुत बड़ा हिस्सा खुले रूप से नेपाल आता जाता है। तो ऐसी स्थिति में प्रचण्ड खुद ऐसा नहीं चाहेंगे कि भारत के साथ हमारे संबंधा कटु हों। लेकिन उसके साथ-साथ एक संप्रभु राष्ट्र होने के नाते प्रचण्ड यह जरूर चाहेंगे कि भारत हमारी संप्रभुता का सम्मान करे। छोटे देश और बड़े देश में आकार तो हो सकता है कि अलगृअलग हों लेकिन कहीं यह नहीं होता है कि छोटे देश की संप्रभुता छोटी हो और बड़े देश की संप्रभुता बड़ी हो। अगर
ऐसा होता तो इंग्लैण्ड की संप्रभुता तो बड़ी छोटी होती, जो ढाई सौ तीन सौ साल तक भारत पर शासन कर सकी। इसलिए संप्रभुता छोटी बड़ी नहीं होती है देश का आकार छोटा बड़ा होता है। इस बात को भारत का ब्यूरोक्रेट नहीं समझता है। इसलिए जरूरत यह है रूलिंग क्लास के माइंड सेट को बदलने की।
एक आरोप यह लगता रहा है कि जैसा आपने भी कहा कि यहां का जो रूलिंग क्लास ब्यूरोक्रेट है, यह भारत की विदेश नीति के साथ हमेशा कुछ न कुछ गड़बड़ करता रहता है। कहीं न कहीं इसके पीछे इस वर्ग के अपने कुछ निहित स्वार्थ होते हैं या कुछ और इंट्रैस्ट होते हैं? क्या यह आरोप सही है?देखिए प्रमाण तो कोई नहीं हैं। लेकिन निश्चित तौर पर आखिर क्या वजह है कि किसी भी पड़ोसी देश के साथ हमारे संबंधा अच्छे नहीं हैं। कुछ चीजें तो हैं जो हमारे वश में नहीं हैं। भौगोलिक सीमा, ठीक है भारत एक बड़ा देश है, उसके लिए हम कुछ नहीं कर सकते। बड़े देश का एरोगेन्स तो हम रोक सकते हैं न! तो यह जो प्रॉब्लम है। भूटान के राजतंत्र को हम लगातार समर्थन देते रहे हैं। आप समर्थन दीजिए लेकिन किसकी कॉस्ट पर? वहां की जनता जो रिफ्यूजी बना दी गई जनतंत्र की मांग करने पर! यह हमारी नीति है। और हम दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र हैं और हम दुनिया के सबसे सड़े गले राजतंत्र को समर्थन देते रहे आम जनता के साथ धोखा करके। तो यह बड़ी शर्मनाक स्थिति है और यह हमारी विदेश नीति की असफलता है कि आज सारे पड़ोसी देश हमसे खतरा महसूस करते हैं। बजाय इसके कि अगर आप एक बड़े भाई की तरह रहते या जुड़वां भाई की तरह रहते तो वह चीज नहीं है।

शनिवार, 17 जुलाई 2010

मैं नास्तिक क्‍यों हूं -भगत सिंह

एक नया सवाल उभर कर आया है। क्या मैं एक मिथ्याभिमान के कारण सर्वशक्तिमान, विश्वव्यापी, त्रिकालदर्शी ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता? मैं ने कभी यह कल्पना तक नहीं की थी कि मेरा सामना ऐसे किसी प्रश्न से होगा। लेकिन कुछ मित्रों के साथ बातचीत के दौरान मुझे यह संकेत मिला कि मेरे कुछ साथी, जिनके बारे में मैं ज्यादा समझने का दावा नहीं करता और जिनसे कि मेरा बहुत कम सम्पर्क रहा था, वो यह सोचने पर विवश थे कि मेरे द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को नकार देना मेरे द्वारा की गई एक ज्यादती थी तथा साथ ही कुछ अंश मिथ्याभिमान का भी था जिसने मुझे अविश्वास की ओर प्रवृत्त किया है। खैरसमस्या थोडी ग़म्भीर है। मैं यह भी नहीं कहता कि मैं इन सब मानवीय गुणों से परे हूं। मैं एक पुरुष हूं, उससे अधिक कुछ नहीं। उससे अधिक होने का कोई भी दावा नहीं कर सकता। मेरे अन्दर भी यह कमजोरी है। मिथ्याभिमान भी मेरे स्वभाव का एक छोटा सा हिस्सा है। मैं अपने कॉमरेड्स के बीच तानाशाह के नाम से जाना जाता था। यहां तक कि मेरे मित्र श्री बी के दत्त ने भी कभी कभी मुझे ऐसा कहा। कुछ अवसरों पर मैं एक आततायी के रूप में भी कोसा गया। मेरे कुछ मित्र बडी ग़ंभीरता से शिकायत करते थे कि मैं उनकी इच्छा के विरुध्द उन पर अपनी राय थोपता था और अपने प्रस्ताव स्वीकार करा लेता था। हालांकि कुछ अंश तक यह सच भी है, मैं इस बात से इनकार नहीं करता। यह अहम का भाव भी हो सकता था। मेरे अन्दर मिथ्याभिमान है वैसा ही जैसे कि हमारे क्रान्तिकारी समुदाय में है जो कि दूसरे लोकप्रिय मतानुयायियों में नहीं है। किन्तु यह व्यक्तिगत अहम् नहीं है। शायद यह हमारे क्रान्तिकारी समुदाय का वैधानिक गर्व है जो कि मिथ्याभिमान कदापि नहीं हो सकता।

मिथ्याभिमान और अगर ज्यादा सटीक होकर कहें तो अहंकार स्वयं में व्यर्थ गर्व की अत्याधिक भावना को कहते हैं। या तो यह व्यर्थ अभिमान का ही भाव है जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया या फिर यह इस विषय पर किया गया गहन अध्ययन व चिन्तन मुझे ईश्वर में अविश्वास के निष्कर्ष पर लेकर आया है, यही एक प्रश्न है, जिसकी मैं यहां पर चर्चा करना चाहता हूं। सर्वप्रथम मुझे यह स्पष्ट करने दें कि स्वाभिमान और मिथ्याभिमान दो अलग अलग चीजें हैं।
सबसे पहले, मैं यह समझने में असफल रहा हूं कि व्यर्थ का अभिमान और व्यर्थ की भव्यता भी कभी ईश्वर को मानने की राह में आडे अा सकती है। मैं किसी महान आदमी की महानता को पहचानने से इनकार कर सकता हूं अगर मैंने भी बिना किसी योग्यता के, बिना उन गुणों को प्राप्त किये जो कि इस उद्देश्य के लिये अति आवश्यक हैं, कुछ हद तक लोकप्रियता हासिल की हो। इतना तो सोचा जा सकता है। लेकिन किस प्रकार एक भगवान में विश्वास करने वाला व्यक्ति, अपने मिथ्याभिमान के कारण विश्वास करना बन्द कर सकता है? इसके दो ही कारण हैं। या तो व्यक्ति स्वयं को भगवान का प्रतिद्वन्द्वी समझने लगे या फिर स्वयं को ही भगवान मान ले। इन दोनों ही स्थितियों में वह एक सच्चा नास्तिक नहीं हो सकता। पहले मामले में वह भगवान के अस्तित्व को नकार नहीं रहा और दूसरे मामले में भी वह यह स्वीकार करता है कि कोई तो चैतन्य अस्तित्व है जो परदे के पीछे से प्रकृति के सारे क्रियाकलापों को नियन्त्रित करता है। यहां यह महत्वहीन है कि या तो वह स्वयं को परमात्मा समझे या वह यह सोचे कि परमात्मा कोई है जो उससे भिन्न है। यहां उसका मूल उपस्थित है। यहां उसका विश्वास है। वह किसी भी अर्थ में नास्तिक नहीं। और मैं दोनों में से किसी वर्ग से ताल्लुक नहीं रखता।
मैं परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास को ही अस्वीकार करता हूं। मैं यह क्यों अस्वीकार करता हूं, इस बारे में बाद में चर्चा करेंगे। यहां मैं एक चीज स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि यह मिथ्याभिमान कतई नहीं है जिसने कि मुझे नास्तिकता के मत की ओर प्रेरित किया। न तो मैं उस परमात्मा का प्रतिद्वन्द्वी हूं, न ही कोई उसका अवतार और न ही स्वयं परमात्मा हूं। यहां यह बिन्दु स्पष्ट हो चुका है कि किसी अभिमान की वजह ने मुझे इस सोचने के तरीके की ओर नहीं ढकेला है। मुझे सत्यों की जांच कर लेने दें ताकि मैं अपने ऊपर लगे इन आरोपों को गलत सिध्द कर सकूं। मेरे इन मित्रों के अनुसार मैं वृथाभिमान के साथ बडा हुआ हूं शायद अनापेक्षित लोकिप्रियता प्राप्त करने की वजह से जो कि मुकदमों के दौरान दोनों केसों, दिल्ली बम काण्ड तथा लाहौर काण्ड के बाद मिली थी। ठीक है चलिये देखते हैं कि क्या उनके वक्तव्य सही है!
मेरी नास्तिकता अभी हाल ही में नहीं आरंभ हुई है। मैंने ईश्वर में विश्वास करना तभी छोड दिया था जब मैं एक अप्रसिध्द युवक था, जिसके अस्तित्व के बारे में मेरे उल्लेखित मित्रों को कुछ पता भी नहीं था। कम से कम एक कॉलेज का सामान्य छात्र तो अनपेक्षित अहंकार को पोषित नहीं कर सकता जो कि उसे नास्तिकता की ओर ले जाये। हालांकि कुछ प्रोफेसर्स का मैं प्रिय छात्र था और कुछ मुझे नापसन्द करते थे, मैं कभी एक परिश्रमी तथा पढाकू लडक़ा नहीं रहा। मुझे ऐसा कोई मौका ही नहीं मिला कि मैं वृथाभिमान जैसी किसी भावना में डूबता। बल्कि मैं तो एक शर्मीले स्वभाव का लडक़ा था, जिसका भविष्य को लेकर कोई आशाजनक प्रबन्ध नहीं था। और उन दिनों मैं एक पूर्ण नास्तिक भी नहीं था। मेरे दादा जी जिनके प्रभाव में पला बढा वे घोर आर्यसमाजी थे। और एक आर्यसमाजी कुछ भी हो सकता है पर नास्तिक नहीं। अपनी प्राथमिक शिक्षा पूर्ण करने के बाद मैं पूरा एक साल लाहौर के डी ए वी स्कूल में पढा और हॉस्टल में रहा, वहां सुबह से लेकर शाम की प्रार्थना तक मैं गायत्री मंत्र'' का जाप किया करता था घण्टों तक। तब मैं पूरी तरह श्रध्दालू था। बाद में मैं अपने पिता के साथ रहने लगा। जहां तक धार्मिक रूढिवादिता का सम्बन्ध है वे थोडे स्वतन्त्र विचारों के हैें। यह उनकी ही शिक्षा थी कि मैंने अपना जीवन स्वतन्त्रता प्राप्ति की महत्वाकांक्षा में लगा दिया। पर वे नास्तिक नहीं हैं। वे दृढ विश्वासी हैं। वे मुझे प्रेरित करते थे कि मैं रोज प्रार्थना किया करुं। तो, इस तरह मैं पला बढा। असहयोग आन्दोलन के समय मैंने नेशनल कॉलेज में दाखिला लिया। यह तभी कि बात है कि मैंने स्वतन्त्र तौर पर सोचना और सभी धार्मिक समस्याओं तथा ईश्वर के बारे में चर्चा और आलोचना करना शुरु किया था। पर तब तक भी मैं धर्मविश्वासी था। तब तक मैं ने अपने अपने लम्बे केशों को बांधना शुरु कर दिया था पर मैं कभी पौराणिक गाथाओं तथा सिख धर्म या अन्य धर्म के मतों में विश्वास नहीं कर सका। पर मेरा दृढ विश्वास था कि ईश्वर का अस्तित्व तो है।
बाद में मैं रिवोल्यूशनरी पार्टी में शामिल हुआ। पहले नेता जिनके सम्पर्क में मैं आया, उनके सामने हालांकि मैं पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पाया था किन्तु ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस भी मुझमें न था। मेरे ईश्वर को लेकर दुराग्रही पू छताछ के कारण वे कहा करते, '' जब चाहो प्रार्थना करो।'' अब यह नास्तिकता है, इस समुदाय के मत को स्वीकार करने लिये कम साहस की आवश्यकता होती है। दूसरे नेता जिनके सम्पर्क में मैं आया वे ईश्वर के प्रति दृढ विश्वासी थे। उनका नाम था - आदरणीय कामरेड सचिन्द्र नाथ सान्याल, जो कि आजकल कराची काण्ड के सन्दर्भ में कालापानी की सजा काट रहे हैं। उनकी एकमात्र प्रसिध्द पुस्तक बन्दी जीवन के प्रथम पृष्ठ से ही ईश्वर भव्यता की स्तुति का गुणगान बढाचढा कर किया गया है। इस पुस्तक के दूसरे भाग का आखिरी पृष्ठ वेदान्तिक प्रशंसा और ईश्वर की रहस्यवादिता से ओत प्रोत है जो कि उनके विचारों का एक बहुत ही पवित्र हिस्सा है।
' क्रान्तिकारी पर्चे जो कि 28 जनवरी 1925 को पूरे भारत में वितरित किये गये, अभियोजन पक्ष की कहानी के अनुसार ये उनकी बौध्दिक मेहनत का नतीजा थे, इस गुप्त कार्य में प्रमुख नेता ने ही अपने विचार व्यक्त किये हैं। ये विचार उनके स्वयं के व्यक्तित्व के बेहद करीब हैं और अब यह अपरिहार्य था कि बाकि के सभी कार्यकर्ताओं को उनसे मतभेद होते हुए भी इनसे साम्यता रखनी होगी। इन परचों में एक पूरा पैराग्राफ परमात्मा की प्रशंसा में समर्पित था। यह पूरा रहस्यवाद था। यहां मैं यह इंगित करना चाहता था कि ईश्वर में अविश्वास का विचार क्रान्तिकारी पार्टी में अभी अंकुरित तक न हुआ था। काकोरी के प्रसिध्द शहीद - चारों ने अपने अंतिम दिन प्रार्थना करते हुए बिताए। रामप्रसाद बिस्मिल एक रूढिवादी आर्यसमाजी थे, समाजवाद और कम्यूनिज्म के बारे में व्यापक अध्ययन किये हुए होने के बावजूद भी। राजन लाहिडी भी उपनिषदों तथा गीता के श्लोकों के वाचन की अपनी इच्छा को न दबा सके। मैंने उन सब में सिर्फ एक व्यक्ति को देखा जिसने कभी प्रार्थना नहीं की, वे कहा करते थे, '' दर्शनशास्त्र मानवीय कमजाेरियों और ज्ञान की सीमाओं का ही परिणाम है।'' वे भी कालापानी की सजा काट रहे हैं। किन्तु वे भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस नहीं कर सके।
उस समय तक मैं भी एक उदात्त, आदर्शवादी क्रान्तिकारी था। तब तक हमें महज अनुसरण ही करना होता था। अब वह समय आया जबकि जब कन्धों पर पूरी जिम्मेदारी का बोझ उठाना था। कुछ अपरिहार्य प्रतिक्रियाओं के फलस्वरूप पार्टी का अस्तित्व असंभव सा प्रतीत होने लगा था। उत्साही कामरेडों - विरोधी नेताओं ने हमारा उपहास उडाना शुरु कर दिया था। कुछ समय के लिये मैं भी डर गया था कि कहीं एक दिन मैं भी अपने कार्यक्रमों की निरर्थकता में विश्वास न करने लगूं। यह मेरे क्रान्तिकारी जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड था। ''अध्ययन'' मेरे दिमाग के गलियारोें में यही आवाज गूंज रही थी। अपने आपको अपने विरोधियों के द्वारा दिये हुए तर्कों का मुकाबला करने के लिये अध्ययन करो। अपने समुदाय के पक्ष में तर्क करने के लिये अपने आपको समर्थ करने के लिये मैं ने पढना शुरु किया। मेरे पिछले विश्वास और सही गलत समझने की क्षमता में एक गज़ब का बदलाव आया। हमारी पिछली पीढी क़े क्रान्तिकारियों में हिंसा के मार्ग के प्रति एकमात्र लगाव जो प्रमुख था, अब गंभीर विचारों में बदलने लगा था। अब कोई रहस्यवाद न था, न ही अंधविश्वास! यथार्थ ही अब हमारा मत था।
बल का प्रयोग तभी न्यायोचित है जब वह अत्यन्त आवश्यक हो। अहिंसा की नीति सभी जनआन्दोलनों के लिये अपरिहार्य है। तरीकों के बारे में काफी कह चुका।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह आदर्श जिसके लिये कि हम लड रहे हैं उसकी साफ तसवीर हमारे जहन में हो। जबकि लडाई में कोई महत्वपूर्ण गतिविधि में नहीं हो रही थी, मुझे विभिन्न विश्व क्रान्तियों के प्रणेताओं के बारे में पढने का काफी अवसर मिले। मैं ने बेकनिन को पढा, एक अराजकतावादी नेता, कुछ मार्क्स के बारे में जो कि कम्यूनिज्म के पितामह हैं और काफी सारा लेनिन, ट्रोट्स्की और अन्य क्रान्तिकारी जिन्होंने सफलता पूर्वक अपने अपने देशों में क्रान्ति का संचालन किया था। ये सभी नास्तिक थे। बेकनिन की '' गॉड एण्ड स्टेट '' जो कि खण्डों में है, और इस विषय के बारे एक रोचक अध्ययन प्रस्तुत करती है। बाद में मैं ने एक किताब देखी जिसका शीर्षक था कॉमन सेन्स जो कि निर्लम्बा स्वामी द्वारा लिखी गई थी। यह एक प्रकार की रहस्यवादी नास्तिकता के विषय में थी। यह विषय मेरे लिये सर्वथा रुचिकर हो चला था। 1926 के अन्त तक मुझे इस बात की आधारहीनता पर पूर्ण विश्वास हो गया था कि किसी परमात्मा जिसने कि सबको बनाया और जो समस्त ब्रह्माण्ड का नियंत्रक और मार्गदर्शक है, उसका कोई अस्तित्व नहीं है। मैं ने अपने इस ईश्वर में अविश्वास को उजागर करना आरंभ किया और मैं ने इस विषय पर अपने मित्रों से चर्चा करना शुरु कर दिया था। अब मैं गंभीर नास्तिक घोषित हो चुका था। लेकिन इसका क्या औचित्य था इस पर मैं अब चर्चा करुंगा।
मई 1927 में लाहौर में गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी मेरे लिये आश्चर्यजनक थी। मैं इस बात से अनभिज्ञ था कि पुलिस मेरी तलाश में थी। अचानक एक बाग से गुजरते हुए मैंने अपने आपको पुलिस के बीच घिरा पाया। मैं स्वयं आश्चर्य में था कि उस वक्त मैं इतना शांत था। मुझे कोई संवेदन महसूस नहीं हो रहे थे ना ही मैं ने किसी उत्तेजना का अनुभव किया। मुझे पुलिस की हिरासत में ले लिया गया। अगले दिन मुझे रेल्वे पुलिस के लॉकअप में ले जाया गया जहां कि मुझे पूरा एक महीना काटना था। पुलिस अफसरों के साथ कई दिनों की बातचीत के बाद मैं ने अनुमान लगाया कि उनके पास कोई सूचना थी जिससे मेरा काकोरी काण्ड के लोगों से और अन्य क्रान्तिकारी गतिविधियों से सम्बन्ध जोडा जा सकता था। उन्होंने मुझे कहा कि जब काकोरी काण्ड का मुकदमा चल रहा था तब मैं लखनऊ गया था और मैं उनके भाग जाने की खास योजना के बारे में व्यवस्था कर रहा था। उनकी अनुमति मिलने के बाद हमने कुछ बम जमा किये और प्रयोग करने की खातिर उनमें से एक बम हमने 1926 के दशहरा के अवसर पर भीड में फेंका था। उन्होंने आगे बताया कि, अगर मैं उन्हें क्रान्तिकारी पार्टी की गतिविधियों पर प्रकाश डालने वाला बयान दे दूं तो इसीमें मेरी भलाई है। तब मुझे जेल में नहीं रखा जायेगा और छोड दिया जायेगा और इनाम भी मिलेगा, कोर्ट में वायदामाफ गवाह की तरह भी पेश नहीं किया जायेगा। उनके प्रस्ताव पर मुझे हंसी आ गई। यह पूर्णत: छल कपट था।
हमारे जैसे आदर्शों को मानने वाले लोग अपने ही निर्दोष लोगों पर बम नहीं फेंका करते। एक दिन सुबह मि न्यूमेन जो कि तब सीआईडी सीनीयर सुपरिटेन्डेन्ट थे, मेरे पास आए। और काफी सहानुभूति पूर्ण बातचीत के बाद उन्होंने मुझे यह खेदजनक समाचार बताया कि अगर मैं ने कोई बयान नहीं दिया, जैसा कि वे चाहते थे, तो वे मुझ पर काकोरी काण्ड के सन्दर्भ में राज्य के साथ युध्द करने के षडयन्त्र में और दशहरा बम काण्ड में निर्दोष लोगों की हत्या के सम्बन्ध में मुकदमे दायर करेंगे। और उन्होंने आगे यह भी बताया कि उनके पास इस बात के काफी सबूत हैं जिनकी बिना पर मुझे दोषी ठहरा कर फांसी दी जा सकती है।
उन दिनों मुझे विश्वास था - हालांकि मैं पूर्णत: निर्दोष था - कि पुलिस चाहे तो ऐसा भी कर सकती है। उसी दिन कुछ पुलिस अधिकारियों ने मुझसे आग्रह करना शुरु किया कि मैं भगवान की दोनों वक्त नियमित रूप से प्रार्थना किया करुं। अब मैं एक नास्तिक था। मैं अपने लिये निर्णय करना चाहता था कि मैं शान्ति और खुशहाली के दिनों में नास्तिक होने का दंभ भरता था या ऐसे कठिन समय में भी मैं अपने उन्हीं सिध्दान्तों से भी जुडा रह सकता था। काफी सोच समझ के बाद मैं ने फैसला किया कि मैं भगवान में विश्वास करने तथा उसकी प्रार्थना के लिये स्वयं को प्रेरित नहीं कर सकता। नहीं, कदापि नहीं। यही मेरी असली परीक्षा थी और मैं इसमें सफल रहा। एक पल के लिये भी मैं ने दूसरी कुछ चीज़ों की कीमत पर भी कभी अपनी गर्दन नहीं बचानी चाही। इस प्रकार मैं एक कट्टर नास्तिक था: और उसके बाद हमेशा रहा। इस परीक्षा में खरा उतरना आसान काम न था।
यह विश्वास कठिनाई के दौर को कोमल बना देता है, यहां तक कि कठिनाईयों को खुशगवार बना सकता है। भगवान में आदमी एक मजबूत सहारा व सांत्वना पा सकता है, लेकिन बिना उसके आदमी को स्वयं पर निर्भर रहना होता है। तेज तूफानों और चक्रवातों के बीच किसी का स्वयं अपने पैरों पर खडे रहना कोई बच्चों का खेल नहीं है। ऐसी परीक्षा की घडियों में, मिथ्याभिमान अगर कोई होता भी है तो काफूर हो जाता है, और इन्सान आम विश्वासों को चुनौती देने का साहस नहीं कर सकता, अगर वह करता है तो हमें यही निष्कर्ष निकालना चाहिये कि, मात्र मिथ्याभिमान के अलावा उसके पास कोई विशेष शक्ति अवश्य है। अब बिलकुल यही परिस्थिति है मेरे सम्मुख।