सोमवार, 28 मार्च 2011

यादें

संघर्ष की संस्कृति के कमांडर कमला प्रसाद


कमलाजी की प्रतिष्ठा आलोचक के रूप में, लेखक व संपादक के रूप में भी खूब रही है। लेकिन मेरा मानना है कि उन्होंने सांगठनिक कार्य का चयन अपनी प्राथमिकता के तौर पर कर लिया था...


विनीत तिवारी
उनसे आप लड़ सकते थे, नाराज हो सकते थे, लेकिन वो लड़ाई और नाराजगी कायम नहीं रह सकती थी। वो आलोचक थे इसलिए विश्लेषण उनका सहज स्वभाव था,और साथ ही वे संगठनकर्ता थे इसलिए अपनी आलोचना सुनने,काम करने के दौरान हुई खामियों को दुरुस्त करने और दूसरों को गलतियाँ सुधारने का भरपूर मौका देने का जबर्दस्त संयम उनके पास था।

कोई अगर एक अच्छे कार्यक्रम की अस्पष्ट सी आकांक्षा भी प्रकट कर दे तो वे उसके सामने ही संसाधनों के प्रबंध से लेकर वक्ता, विषय आदि सबका पूरा विस्तृत खाका खींच निश्चित कर देते थे कि कार्यक्रम हो। सक्रियता और गतिविधि में उनका गहरा यकीन था। वे कहते भी थे कि अगर कुछ हो रहा है तो उसमें कुछ गलत भी हो सकता है और उसे ठीक भी किया जा सकता है। पूरी तरह पवित्र और सही तो वही बने रह सकते हैं जो कुछ करते ही न हों।

मध्य प्रदेश के प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव होने के नाते मेरा अनेक इकाइयों में जाना हुआ और हर जगह कोने-कोने में छोटे-बड़े अनेक साहित्यकार कमलाजी के साथ अपने परिचय का जिक्र करते। ये देखने का तो मौका नहीं मुझे मिला लेकिन अंबुजजी, हरिओम, योगेश वगैरह से कितनी ही बार ये जाना कि कमलाजी ने एक संगठनकर्ता के नाते कितनी ही असुविधाजनक यात्राएँ कीं। कहीं से इकाई बनाने का संकेत मिलते ही शनिवार-रविवार की छुट्टी में चल देते थे। रिजर्वेशन तो दूर की बात, कभी-कभी सीट न मिलने पर भी घंटों खड़े रहकर संगठन के विस्तार की चाह में दूर-दूर दौड़े जाते थे।

वे अपने वैचारिक और सांगठनिक गुरू परसाईजी को कहा करते थे और कमलाजी ने अपने गुरू के नाम और काम को आगे ही बढ़ाया। नामवरजी से लेकर होशंगाबाद के गोपीकांत घोष तक उन्हें कमांडर कहते थे और कार्यक्रम व योजना वे कमांडर की ही तरह बनाते भी थे और फिर एक साधारण कार्यकर्ता की तरह काम में हिस्सा भी बँटाते थे,लेकिन कभी शायद ही किसी ने उन्हें आदेशात्मक भाषा में बात करते सुना हो।

उल्टे हम कुछ साथियों को तो कई बार कुछ अयोग्य व्यक्तियों के प्रति उनकी उतनी विनम्रता भी बर्दाश्त नहीं होती थी। लेकिन सांस्कृतिक संगठन बनाने का काम तुनकमिजाजी और अक्खड़पन से नहीं बल्कि तर्क, विनय और दृढ़ता के योग से बनता है - ये सीख हमने उनके काम को देखते-देखते हासिल की। उनको याद करते हुए राजेन्द्र शर्मा की याद न आये,ये मुमकिन ही नहीं। राजेन्द्रजी ने जैसे कमलाजी के काम के वजन में जितना हो सके उतना हिस्सा बँटाने को ही अपना मिशन बना लिया था।

कमलाजी की प्रतिष्ठा आलोचक के रूप में, लेखक व संपादक के रूप में भी खूब रही है। लेकिन मेरा मानना है कि उन्होंने सांगठनिक कार्य का चयन अपनी प्राथमिकता के तौर पर कर लिया था और इसलिए अपनी लेखकीय क्षमताओं के भरपूर दोहन के बारे में वे बहुत सजग कभी नहीं रहे। उनका अपना लेखन,किसी हद तक पठन-पाठन भी संगठन के रोज के कामों के चलते किसी न किसी तरह प्रभावित होता ही था। फिर भी उन्होंने खूब लिखा।

‘वसुधा’ में उनके संपादकीय तो अनेक रचनाकारों के लिए राजनीतिक व संस्कृतिकर्म के रिश्तों की बुनियादी शिक्षा और अनेक के लिए रचनात्मक असहमति व लेखन के लिए उकसावा भी हुआ करते थे। लेकिन वो ऐसे लोगों की बिरादरी में थे जिन्होंने संगठन के लिए,और नये रचनाकार तैयार करने के लिए अपने खुद के लेखक की महत्त्वाकांक्षा को कहीं पीछे छोड़ दिया था।

प्रगतिशील लेखक संगठन का देश भर में विस्तार। पहले हिन्दी क्षेत्र में संगठन को एक साथ सक्रिय करना, फिर उर्दू के लेखकों से संपर्क और हिन्दी-उर्दू की प्रगतिशील ताकतों को इकट्ठा करना, फिर कश्मीर में, उत्तर-पूर्व में, बंगाल में और दक्षिण भारत में संगठन का आधार तैयार करना, और फिर समान विचार वाले संगठनों से भी संवाद कायम करना, इस सबके साथ-साथ ‘वसुधा’ का संपादन - दरअसल इतना काम आदमी कर ही तब सकता है जब उसके सामने एक बड़ा लक्ष्य हो। ये एक बड़े विज़न वाले व्यक्ति की कार्यपद्धति थी।

करीब एक महीना पहले जब कालीकट, केरल में हम लोग राष्ट्रीय कार्य परिषद की बैठक में साथ में थे तभी देश भर से आये संगठन के प्रतिनिधियों ने बेहद प्यार और सम्मान के साथ उनका 75वाँ जन्मदिन वहीं सामूहिक रूप से मनाया था। कैंसर के उनके शरीर पर असर भले दिखने लगे थे लेकिन कैंसर उनके मन पर बिल्कुल बेअसर था। वहाँ बैठक में और बाद में केरल से भोपाल तक के सफर के दौरान उनके पास ढेर सारे सांगठनिक कामों की फेहरिस्त थी,ढेर सारी योजनाएँ थीं। साम्प्रदायिक और साम्राज्यवादी ताकतों से अपने सांस्कृतिक औजारों से किस तरह मुकाबला किया जाए,किस तरह हम समाजवादी दुनिया के निर्माण में एक ईंट लगाने की अपनी भूमिका ठीक से निभा सकें, ये सोचते उनका मन कभी थकता नहीं था।

उनके जाने से उस पूरी प्रक्रिया में ही एक अवरोध आएगा जो कमलाजी ने शुरू की थी लेकिन हम उम्मीद करें कि देश में उनके जोड़े इतने सारे लेखक मिलकर उसे रुकने नहीं देंगे, आगे बढ़ाएँगे, यही उनके जाने के बाद उन्हें उपने साथ बनाये रखने का तरीका है और यही उनके प्रति श्रद्धांजलि भी।



(लेखक प्रगतिशील लेखक संघ के मध्य प्रदेश इकाई के महासचिव हैं,उनसे comvineet@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

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