रविवार, 10 मार्च 2013

जिंदा है बेहतर दुनिया का ख्वाब

     इस समय समूचा विश्व जबरदस्त वैचारिक उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है। लोगों के सवाल बेहद साफ हैं-क्या वर्तमान दुनिया ऐसे ही चलेगी? क्या इसमें अभी कुछ सुधार की गुंजाइश है?...आदि, आदि। दुनिया के किसी भी देश में चले जाइए, आपको इन सवालों की गंूज सुनाई देगी। इसकी वजह भी बेहद साफ है। पहले लोगों को बताया गया कि पुरानी दुनिया (सामंती) बुरी है, इसलिए नई दुनिया (पूंजीवादी) बनाओ। जनता को भी इसमें अपना बेहतर भविष्य नजर आया। फायदा भी हुआ। उद्योगधंधे खुले, बेकारी मिटी, जनता को लोकतंत्र के रूप में एक नई व्यवस्था मिली। लेकिन इतिहास ठहरता नहीं है। वह हमेशा आगे ही बढ़ता है।आज यही व्यवस्था लोगों के विकास में रोड़ा बन गई है। लोकतंत्र होते हुए भी समूची दुनिया अपने को बेसहारा समझने लगी है। वहीं, विश्व स्तर पर पूंजीवाद के मॉडल रहे अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जापान, इटली, जर्मनी आदि देशों की अर्थव्यवस्था अपने ही पाप के बोझ तले दबी कराह रही है। स्पेन, यूनान, पुर्तगाल, हालैंड जैसे कई देशों का पूंजीवादी मॉडल धूल-धूसरित हो रहा है। स्पेन में जहां बेरोजगारी की दर जहां 56 प्रतिशत तक पहुंच गई है, वहीं एक समय दुनिया को सभ्यता का पाठ पढ़ाने वाले यूनान में यह दर 50 प्रतिशत को पार कर गई है। स्पेन की हालत इतनी खस्ता है कि वहां के लोग अपने परिवार में किसी की मौत होने पर उसका दाह संस्कार का खर्च तक उठाने की स्थिति में नहीं हैं। यही वजह है कि इससे बचने के लिए लोग परिवार में किसी मौत होने पर मृतक के शव को मेडिकल कालेज में दान दे रहे हैं। हालत यह है कि वहां के मेडिकल कालेज मोर्चरी में तब्दील हो गए हैं। 900 अरब यूरो की संपत्ति होने के बावजूद इटली भी इस मंदी से खुद को नहीं बचा पाया। मंदी की इन अंधेरी रातों में अब उसे भी जर्मनी में पैदा हुए मार्क्स का भूत दिखाई देने लगा है।
पंूजीवाद अपनी पैदाइश के साथ ही मंदी को भी लेकर पैदा हुआ। 200 सालों से ज्यादा का इसका इतिहास बताता है कि मंदी ने कभी भी इसका साथ नहीं छोड़ा। वजह यह है कि इसका अस्तित्व ही लगातार मुनाफे के बढ़ने पर टिका हुआ है। जाहिर है मुनाफा तभी बढ़ेगा, जब लोगों को उनकी श्रमशक्ति का उचित मूल्य नहीं दिया जाएगा। मानव के श्रम का यही शोषण पूंजीवादी व्यवस्था का बुनियादी चरित्र है। मानव श्रम की इसी लूट से मुनाफा पैदा होता है। ऐसे में कोई कैसे कह सकता है कि इस तरह की अमानवीय व्यवस्था के रहते कैसे सभी को रोटी, कपड़ा और मकान दिया जा सकता है।
      अमेरिका में भी यही हुआ। जब वह लोगों को रोजी-रोटी देने में असफल साबित हुआ तो उसने सभी को आशियाने का लालच दिया। उसने सोचा कि संतृप्ता अवस्था में पड़ी अपनी अर्थव्यवस्था को वह अपनी इस योजना से गति दे सकेगा। इसके लिए वहां के बैंकों ने लोगों को बहुत ही कम व्याज पर आशियाना खरीदने का लालच दिया। अब चूंकि लोगों के पास पैसे ही नहीं थे, तो वे भला व्याज कैसे चुका पाते। 2008 का सबप्राइम संकट इसी का नतीजा था। एक बार फिर से इस आधुनिक तानाशाह ने साबित कर दिया कि वह न सिर्फ मानव मन को समझने के मामले में निरा मूर्ख है, वरन वह बेहद अमानवीय भी है।
अमेरिका में मीडिया पर कड़ा पहरा है। बेहतर दुनिया के रूप में बहुप्रचारित इस मुल्क के बदन से जैसे-जैसे कपड़े उतरते गए, वैसे-वैसे उसने लोकलाज के भय से अपने बदन को और ढकने का प्रयास किया। अब चूंकि मीडिया को किसी के नंगे बदन को दिखाने में कुछ ज्यादा ही मजा आता है, इसलिए उसने इस दृश्य को अपने दर्शकों को दिखाना शुरू कर दिया। बस यहीं से इस आधुनिक तानाशाह ने मीडिया पर पहरा बिठा दिया।
हकीकत यह है कि वहां के सबप्राइम संकट के बाद से अमेरिकी अर्थव्यवस्था की नींव रहे कई बैंक दिवालिया हो गए। नतीजतन लेहमन ब्रदर्श, फ्रैडी, फैनी, सीटी बैंक, मोर्गन स्टेनले, बीयर स्टर्न और बीमा कंपनी एआईजी बर्बादी की कगार पर आ गए। संकट से बचने के लिए इन बैंकों ने दसियों हजार लोगों की नौकरियों से बाहर कर दिया। यही हाल दूसरे संस्थानों में भी हुआ। अमेरिकी सरकार ने पूंजीपतियों को मंदी से बचाने के लिए राहत पैकेज दिया, उधर जनता से उसके मुंह का निवाला छिना। यानी कुल मिलाकर निजी उद्यमों को लाभ पहुंचाने और उन्हें मंदी के बोझ से बचाने के लिए जनता को दंड मिला। सब्सिडी खत्म कर दी गई, लाखों लोगों की नौकरियां छीनी गर्इं। यह सब कुछ उस जनता के साथ किया गया, जिसका मंदी लाने में कोई रोल नहीं था। आखिर यह कहां का न्याय है? जाहिर है ऐसा कदम जनता की सरकार नहीं उठा सकती। इसीलिए हमने अमेरिका को आधुनिक तानाशाह की संज्ञा दी है। आज अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा कर्जदार देश बन चुका है। यह अलग बात है कि हमें चूंकि चकाचौंध भरी दुनिया देखने की आदत पड़ चुकी है या फिर हमें ऐसी ही दुनिया देखने की आदत डाल दी गई है, इसलिए इस चकाचौंध से भरी दुनिया के नीचे भयंकर अंधेरे में जीने वाली विशाल मेहनतकश जनता हमें दिखाई नहीं देती। हकीकत यह है कि अमेरिका में तलछट की जिंदगी जीने वालों की एक बड़ी फौज जमा है। यह फौज लगातार बढ़ती जा रही है।
       अमेरिका में दिसंबर 2012 में बेरोजगारी की दर 7.8 प्रतिशत थी, जो 2013 के जनवरी माह में (सिर्फ एक माह बाद ही, एक साल बाद नहीं) 7.9 प्रतिशत हो गर्र्र्ई। दिसंबर 2012 में वहां बेरोजगारों की संख्या करीब 1.22 करोड़ थी, जो जनवरी 2013 में वह 1.23 करोड़ हो गई। इसलिए भले ही अमेरिका मंदी से उबरने के लाख दावे कर ले, या हो सकता है कि वह कुछ समय के लिए इससे उबर भी जाए, लेकिन वह पंूजीवादी व्यवस्था के रहते अपने पापों से कभी कभी मुक्ति नहीं पा सकता।
     दूसरी ओर इस महामंदी के अंधेरे में समूची दुनिया के आवाम ने एक बेहतर दुनिया का ख्वाब भी देखना शुरू कर दिया है। इस ख्वाब में भविष्य का अक्श अभी बहुत साफ तो नहीं है, लेकिन इसे हकीकत में उतारने के लिए समूची दुनिया में जद्दोजहद शुरू हो गई है। अमेरिका के वॉल स्ट्रीट से उठी यह आवाज आज समूचे यूरोप और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में सुनाई पड़ रही है। भूलना नहीं चाहिए कि सामाजिक जड़ता किसी भी समाज की मृत्यु का दूसरा नाम है, वहीं सामाजिक तब्दीली किसी भी कौम के जिंदा होने का सबूत है। रूस के महान साहित्यकार और विचारक प्लेखानोव ने कहा है कि ‘जिंदा आदमी जिंदा सवालों पर सोचता है।’ यह भी सत्य है कि ‘कुछ नहीं सोचने, कुछ नहीं बोलने से आदमी मर जाता है।’ आज की दुनिया पर ये दोनों बातें लागू होती हैं। आज लोग जिंदा सवालों पर सोच भी रहे हैं और बोल भी रहे हैं। इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि भविष्य कुछ बेहतर तो होगा ही।
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