शनिवार, 23 मार्च 2013

फैज अहमद फैज : इंकलाब से प्रेम

                                                     कौशल किशोर
फैज कहते हैं-‘अब मैं दिल बेचता हूं और जान खरीदता हूं।’ फैज की शायरी में आया यह बदलाव ‘नक्शे फरियादी’ के दूसरे भाग में साफ दिखता है। साथ ही यह विश्वास भी झलकता है - ये स्थितियां बदलेंगी, ये हालात बदलेंगे। शायर कहता है: चन्द रोज और मेरी जान! फकत चंद ही रोज/जुल्म की छांव में दम लेने पे मजबूर हैं हम /...लेकिन अब जुल्म की याद के दिन थोड़े हैं/इक जरा सब्र, कि फरियाद के दिन थोड़े हैं।

फैज अहमद फैज (13 फरवरी-20 नवम्बर 1984) की जन्मशती पिछले साल मनायी गई। फैज इस महाद्वीप के ऐसे कवि रहे हैं, जो भाषा व देश की दीवारों को तोड़ते हैं। वे ऐसे शायर हैं, जिन्होंने अपनी शायरी से लोगों के दिलों में जगह बनाई। हमारे अंदर इंकलाब का अहसास पैदा किया, तो वहीं मुहब्बत के चिराग भी रोशन किए। दुनिया फैज को इंकलाब के शायर के रूप में जानती है, लेकिन वे अपने को मुहब्बत का शायर कहते थे। इंकलाब और मुहब्बत का ऐसा मेल विरले ही कवियों में मिलता है। यही कारण है कि फैज जैसा शायर मर कर भी नहीं मरता। वह हमारे दिलों में धड़कता है। वह उठे हुए हाथों और बढ़ते कदमों के साथ चलता है। वह हजार हजार चेहरों पर नई उम्मीद व नए विश्वास के साथ खिलता है और लोगों के खून में नए जोश की तरह जोर मारता है।
आवामी शायरी की परंपरा से नाता
फैज उर्दू कविता की उस परंपरा के कवि हैं, जो मीर, गालिब, इकबाल, नजीर, चकबस्त, जोश, फिराक, मखदूम से होती हुई आगे बढ़ी है। यह परंपरा है, आवामी  शायरी की परंपरा। उर्दू की वह शायरी जो माशूकों के लब व रुखसार ;चेहरा, हिज्र व विसाल ;जुदाई-मिलन, दरबार नवाजी, खुशामद और केवल कलात्मक कलाबाजियों तक सीमित रही है, इनसे अलग यह परंपरा आदमी और उसकी हालत, अवाम और उसकी जिन्दगी से रूबरू होकर आगे बढ़ी है। फैज इस परंपरा से यकायक नहीं जुड़ गये। उन्होंने अपनी शुरुआत रूमानी अंदाज में की थी तथा ‘मुहब्बत के शायर’ के रूप में  अपनी इमेज बनाई थी। 1930 के बाद वाले दशक के दौरान फैली भुखमरी, किसानों-मजदूरों के आंदोलन, गुलामी के विरुद्ध आजादी की तीव्र इच्छा आदि चीजों ने हिंदुस्तान को झकझोर रखा था। इनका नौजवान फैज पर गहरा असर पड़ा। इन चीजों ने उनकी रुमानी सोच को नए नजरिए से लैस कर दिया। नजरिए में आया हुआ बदलाव शायरी में कुछ यूं ढलता है-
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से /लौट आती है इधर को भी नजर क्या कीजे /अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे /और भी गम है जमाने में मुहब्बत के सिवा /मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न मांग।
चन्द रोज और मेरी जान...

इस दौर में फैज यह भी कहते हैं-‘अब मैं दिल बेचता हूं और जान खरीदता हूं।’ फैज की शायरी में आया यह बदलाव ‘नक्शे फरियादी’ के दूसरे भाग में साफ दिखता है। साथ ही यह विश्वास भी झलकता है - ये स्थितियां बदलेंगी, ये हालात बदलेंगे। शायर कहता है -
चन्द रोज और मेरी जान! फकत चंद ही रोज/जुल्म की छांव में दम लेने पे मजबूर हैं हम /...लेकिन अब जुल्म की याद के दिन थोड़े हैं/इक जरा सब्र, कि फरियाद के दिन थोड़े हैं।
फैज का यह विश्वास समय के साथ और मजबूत होता गया। कविता का आयाम व्यापक होता गया। कविता आगे बढ़ती रही। यह जनजीवन और उसके संघर्ष के और करीब आती गई। इस दौरान न सिर्फ फैज की कविता के कथ्य में बदलाव आया, बल्कि उनकी भाषा भी बदलती गयी है। जहां पहले उनकी कविता पर अरबी और फारसी का प्रभाव नजर आता था, वहीं बाद में उनकी कविता जन मानस की भाषा, अपनी जमीन की भाषा के करीब पहुंचती गई है। ऐसे बहुत कम रचनाकार हुए हैं, जिनमें कथ्य और उसकी कलात्मकता के बीच ऐसा सुन्दर संतुलन दिखाई पड़ता है। फैज की यह चीज तमाम कवियों-लेखकों के लिए अनुकरणीय है, क्योंकि इस चीज की कमी जहां एक तरफ नारेबाजी का कारण बनती है, वहीं कलावाद का खतरा भी उत्पन्न करती हैं।
फैज की निर्भीकता
फैज की खासियत उनकी निर्भीकता, जागरुकता और राजनीतिक सजगता है। फैज ने बताया कि एक कवि-लेखक को राजनीतिक रूप से सजग होना चाहिए तथा हरेक स्थिति का सामना करने के लिए उसे तैयार रहना चाहिए। अपनी निर्भीकता की वजह ही उन्हें पाकिस्तान के फौजी शासकों का निशाना बनना पड़ा। दो बार उन्हें गिरफ्तार किया गया। जेलों में रखा गया। रावलपिंडी षड्यंत्र केस में फंसाया गया। 1950 के बाद चार बरस उन्होंने जेल में गुजारे। शासकों का यह उत्पीड़न उन्हें तोड़ नहीं सका, बल्कि इस उत्पीड़न ने उनकी चेतना, उनके अहसास तथा उनके अनुभव को और गहरा किया। फैज की कविताओं पर बात करते समय उनके उस पक्ष पर भी, जिसमें उदासी व धीमापन है, विचार करना प्रासंगिक होगा। यह उदासी व धीमापन फैज की उन रचनाओं में उभरता है जो उन्होंने जेल की चहारदीवारी के अंदर लिखी थीं। एक कवि जो घुटन भरे माहौल में जेल की सींकचों के भीतर कैद है, उदास हो सकता है। लेकिन सवाल है कि क्या कवि उदास होकर निष्क्रिय हो जाता है? धीमा होकर समझौता परस्त हो जाता है? फैज जैसा कवि हमेशा जन शक्ति के जागरण के विश्वास के साथ अपनी उदासी से आत्म संघर्ष करता है और यह आत्म संघर्ष फैज की कविताओं में भी दिखाई देता है। फैज उन चीजों से, जो मानव को कमजोर करती हैं, संघर्ष करते हुए जिस तरह सामने आते है, वह उनकी महानता का परिचायक है। वे कहते हैं:
मता-ए-लौह-औ कलम छिन गई तो क्या गम है/कि खून-ए-दिल में डुबो ली हैं उंगलियां मैंने/जबां पे मुहर लगी है तो क्या रख दी हैं/हर एक हल्का-ए-जंजीर में जुबां मैंने।
वैसे फैज ने मुहब्बत के शायर के रूप में अपनी पहचान बनाई थी। इस नजरिये से हम उनकी पूरी कविता यात्रा पर गौर करें तो पायेंगे कि फैज का यह रूप अर्थात मुहब्बत के एक शायर का रूप समय के साथ निखरता गया है तथा उनके इस रूप में और व्यापकता व गहराई आती गई है। शुरुआती दौर में जहां उनका अंदाज रूमानी था, बाद में समय के साथ उनका नजरिया वैज्ञानिक होता गया है। जहां पहले शायर हुस्न-ओ-इश्क की मदहोशियों में डूबता है, वहीं बाद में सामाजिक राजनीतिक बदलाव की आकांक्षा से भरी उस दरिया में डूबता है, जिस दरिया के झूम उठने से बदलाव का सैलाब फूट पड़ता है। जहां पहले माशूक के लिए चाहत है, समय के साथ यह चाहत शोषित पीड़ित इंसान के असीम प्यार में बदल जाती है।
(संपर्क : एफ - 3144, राजाजीपुरम, लखनऊ, मो. 0840020803)

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