tag:blogger.com,1999:blog-22648300818037097962024-03-05T19:53:11.988-08:00100 flowersDevendra Prataphttp://www.blogger.com/profile/04058854873119577592noreply@blogger.comBlogger306125tag:blogger.com,1999:blog-2264830081803709796.post-68123787815674093002022-05-22T03:28:00.014-07:002022-05-24T10:47:44.051-07:00 महराज यह तो गजब का देश है...<p></p><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjKyI11FZcQ014FcguqXFWGnAljPhc5mNQ9U29Oc-zIBGMNB25L9PjCialEQv_YMy4BuOdJFksZClbRrVBX3QQW45ez5uLHnZNqnSd8DNRIMq43uSgjTPhfv7lEjx0Prczy2IO7eI8bcspC4K5DYxn291KnfnjHLpYsO4WbZR9OGWzxjCYOptL9pFFU/s1280/5.jpg" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1280" height="128" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjKyI11FZcQ014FcguqXFWGnAljPhc5mNQ9U29Oc-zIBGMNB25L9PjCialEQv_YMy4BuOdJFksZClbRrVBX3QQW45ez5uLHnZNqnSd8DNRIMq43uSgjTPhfv7lEjx0Prczy2IO7eI8bcspC4K5DYxn291KnfnjHLpYsO4WbZR9OGWzxjCYOptL9pFFU/w163-h128/5.jpg" width="163" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="color: #800180;"><br /><i>नीचे नजर आती <br />ब्रम्हपुत्र (सियांग) नदी</i></span></td></tr></tbody></table><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="font-size: 16px;"><b><i><u>महराज यह तो गजब का देश है! यहां महिलाएं करघे पर बुनी चमकीली लुंगी पहनती हैं और अपने पतियों से उम्र में बड़ी हैं। अधिकांश पुरूष घर से निकलते समय कोई न कोई हथियार लेकर चलता है और दूसरे राज्य से यहां आने पर परमिट लेना पड़ता है। यह यात्रा संस्मरण सियोम घाटी के पूर्वोत्तरीय सीमांत इलाके मेचुखा का है। इस यात्रा के साथी धीरज थे, जो परम हनुमान भक्त तथा टाइट जनेऊधारी पंडित होने के कारण ब्रम्हचारी बने हुए हैं, लेकिन दिल मचलता रहता है। चलते समय हम लोगों के मित्रों ने इनसे कहा कि वहां शादी की संभावना बन सकती है, तो साहब अरुणाचल प्रदेश के आलो कस्बे में रात को एक सैलून में बाल और मूंछ रंगा के नौजवान बन गए।</u></i></b></span><p></p><div><b style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><span style="color: #999999;"> </span></b><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="color: #0c343d;"><b>सुरेंद्र विश्वकर्मा</b></span></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><br /></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><b><i><span style="color: red;">1. </span></i></b></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><b><i><span style="color: red;">पूर्वी असम के आखिरी रेलवे स्टेशन मुरकंगसेलेक से यात्रा का आगाज</span></i></b></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;">26 अप्रैल, 2022 की रात गुवाहाटी से पूर्वी असम के आखिरी रेलवे स्टेशन मुरकंगसेलेक की यात्रा से इस यात्रा का आगाज होता है। असम राज्य पांच हिस्सों में बंटा है, जिसमें ऊपरी असम के इलाकों की खूबसूरती अभी बची है और आबादी का घनत्व भी बहुत कम है। बाकी के हिस्सों के जंगल को पूंजी के प्रकोप ने काट कर प्लाई बोर्ड बना दिया है और अब जमीन के नीचे दबे कोयले की बारी है।</div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><br /></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5V5XHfOBVxORSk2SIyn1BkGMiDUb0RVfF_v68BAuzIu-sK86qmn9q83b-KOgvTYD5z4XwW45jyLfeOgl6MW0jHHIKb7Ri4ZasRUN5XaPUoK46pBphNNJ44u9FzjOAHXE-n0IPrzxfqJ-ry5r_hzkmwFzf-nRjuL_0onXszBaYo9YKRi2T22K9WblQ/s1280/2.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1280" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5V5XHfOBVxORSk2SIyn1BkGMiDUb0RVfF_v68BAuzIu-sK86qmn9q83b-KOgvTYD5z4XwW45jyLfeOgl6MW0jHHIKb7Ri4ZasRUN5XaPUoK46pBphNNJ44u9FzjOAHXE-n0IPrzxfqJ-ry5r_hzkmwFzf-nRjuL_0onXszBaYo9YKRi2T22K9WblQ/w400-h300/2.jpg" width="400" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="font-size: 16px; text-align: left;"><i><span style="color: #800180;">नौगांव के आगे ऊपरी असम का इलाका </span></i></span></td></tr></tbody></table><b><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></b></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><b><span style="color: #2b00fe;">आकाश से चूता ही रहता है पानी<br /></span></b></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;">नौगांव के आगे ऊपरी असम का इलाका शुरू होता है, जो काफी विरल आबादी वाला हिस्सा है। गांव के घर कंक्रीट की जगह बांस के बने होते हैं और उन्हें ताड़ के पत्तों से छाया जाता है। इस तरह के घरों में खाना बनाने से लेकर पखाना करने तक की सभी सुविधाएं होती हैं। एक छोटे परिवार के लिए इस तरह की झोपड़ी बनाने में 50-60 हजार रुपये की लागत आती है। घर के साथ ही लगा हुआ खेत होता है, जिसे बांस की ठठरियों से घेर दिया जाता है। जहां पानी जमा हो जाए वहीं गढ़ई या पोखरी बन जाती है, क्योंकि इस भूभाग में तो आकाश से पानी चूता ही रहता है और बांस इतना है कि पोखरी को घेरने में देर नहीं करते हैं, फिर मछली रानी पोखरी से रसोई में और फिर सुबह खाद बनने खेत में, फिर धान की फसल ऐसी लहलहाती है कि पूछिये मत!<br /><br /><b><span style="color: #2b00fe;">रोजाना सुबह 20-25 मिनट में कट कर बिक जाते हैं तीन-चार सुअर</span></b></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;">अधिकतर लोग घर के पीछे सुअरबाड़े में सुअर भी खूब पालते हैं, लेकिन साफ-सफाई का बहुत ध्यान रखा जाता है। एक छोटे से कस्बे में रोज सुबह 20-25 मिनट में तीन-चार सुअर कट के बिक जाना आम बात है। यहां 50 किलो के वयस्क सुअर की कीमत 13000 रुपये तथा मछली 200 रुपये किलो के भाव से बिकती है।</div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><br /></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><b><span style="color: #2b00fe;">रेलगाड़ियों के आने-जाने के लिये एक ही रेलपटरी पर चलाने का रिवाज</span></b></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;">असम में रेलगाड़ियों के आने-जाने के लिये एक ही रेलपटरी पर चलाने का रिवाज है, जिसके कारण महज 500 किलोमीटर की दूरी को 11 घंटे में तय करना निर्धारित किया गया है। फलस्वरूप एक्सप्रेस गाड़ी को हर स्टेशन पर आराम करने का पर्याप्त समय मिल जाता है और यात्री भी प्लेटफार्म पर तफरीह कर लेते हैं और हमारे जैसे लोग उपरोक्त वर्णन के लिये कस्बे का चक्कर भी लगा आते हैं, क्योंकि जब तक दूसरी गाड़ी नहीं आयेगी तो हमारी वाली के जाने का सवाल ही नहीं उठता है। कहा जा रहा है कि दूसरी पटरी बिछाने के लिये सरकार के पास पैसा नहीं है, लेकिन जिस तरह मोदी जी खाने के पैकेट से लेकर देश के गली-मुहल्ले में अपनी मुस्कान बिखेर रहे हैं तो यहां के मुख्यमंत्री उनसे एक कदम आगे गुवाहाटी रेलवे स्टेशन को अपने बड़े-बड़े होर्डिंगों से पटवा दिया है। न जाने इस तरह के प्रचार में कितना रुपया फूंका जाता है। इस तरह की भड़ैती करने की जगह 56 इंच के सीना वाले हमारे कद्दावर प्रधानमंत्री जी थोड़ी हिम्मत करें तो केवल सरकारी बैंकों के एनपीए की वसूली से सात लाख करोड़ रुपये से अधिक की रकम मात्र कुछ दिनों में इकट्ठा कर सकते हैं, जिससे देश की सभी परियोजनाओं के लिये धन की कोई कमी नहीं होगी और यदि आम आदमी के बराबर कारपोरेट घरानों से भी टैक्स वसूलें तो वल्ड बैंक, वर्ल्ड ट्रेड आर्गनाइजेशन जैसे फंदे बाजों से हमेशा के लिये गला छूट जाएं। असम के हर चुनाव में रेलपटरी का मुद्दा भी होता है और चुनाव से पहले हर पार्टी वादा भी करती है, देखें इस बार के वादे का क्या होता है।</div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><br /></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><b><span style="color: #2b00fe;">2. </span></b></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><b><span style="color: #2b00fe;">इसी से पता चलता है कि देश में बेरोजगारी का क्या आलम है<br /></span></b>मुरकंगसेलेक में मौसम बहुत सुहावना था और सुबह के आठ बज रहे थे। सूरज निकले लगभग साढ़े चार घंटे हो गये थे फिर भी हल्की-हल्की ठंड लग रही थी। मुरकंगसेलेक इस दिशा का आखिरी रेलवे स्टेशन है। जहां रेल की पटरी खत्म होती है उससे थोड़ा आगे रुकसिन नामक कस्बा है, वहां से पासीघाट की गाड़ी आसानी से मिल जाती है। स्टेशन के बाहर रेलगाड़ी से उतरने वालों की संख्या के लगभग बराबर इलेक्ट्रिक रिक्शे वाले आपका इंतजार कर रहे होते हैं, फलस्वरुप यात्रियों की खींचातानी भगदड़ का स्वरूप ले लेती है और दोनों पक्ष कुत्ते की तरह जीभ निकाल कर हांफने लगते हैं। इसी से पता चलता है कि देश में बेरोजगारी का क्या आलम है।<br />रुकसिन के आगे आबादी लगभग रुक सी जाती है, कहीं-कहीं इक्का-दुक्का घर और धान के खेत दिखाई देते हैं। इस बार मार्च से ही पानी बरसाने लगा था। इसलिये कुछ लोगों ने धान की रोपाई कर दी थी। इसके अलावा सुपाड़ी के बाग थे तो वहीं ताड़ महाशय अनायास ही दाएं-बाएं सिर उठाये खड़े थे। आजकल ताड़ के सुपाड़ी की मांग ज्यादा है। कुछ लोगों ने पाम के बाग भी लगाएं हैं और राज्य सरकार इसके बीज को खरीद भी लेती है, लेकिन तेल नहीं निकालती है। साथ बैठे ग्रामीणों को तेल न निकालने के बारे में कुछ खास नहीं पता था।</div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><br /></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><b><span style="color: #2b00fe;">अरुणाचल में प्रवेश के लिये इनर लाइन परमिट</span></b></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;">पोबा संरक्षित वन क्षेत्र के शुरू होते ही असम की सीमा का आखिरी पड़ाव आ गया। अरुणाचल प्रदेश में दूसरे राज्यों के लोगों को प्रवेश करने के लिये इनर लाइन परमिट दिखाना पड़ता है, जो कि अब आनलाइन भी बन जाता है। पोबा के जंगल में बांस और बेंत की झाड़ियां थीं यहां एक इंच से लेकर 10 इंच तक के बांस के पेड़ थे। एक घंटे की यात्रा के बाद पासीघाट आ गया, यह बड़ी जगह है। आगे जाने वाली गाड़ी ग्यारह बजे की थी, लिहाजा खाना खाने और घूमने निकल पड़े। ब्रम्हपुत्र नदी को अरुणाचल प्रदेश में सियांग नाम से पुकारा जाता है। सियांग नदी के किनारे बसा पासीघाट पूर्वोत्तर की ओर के पहाड़ों की तरफ जाने का प्रवेश द्वार है। सब कुछ इसी रास्ते ऊपर की ओर जाता है। दुकानें उत्तर भारत जैसी ही हैं, लेकिन अधिकांश छोटी दुकानों में बेचने और खरीदने के कामों में महिलाएं ही नजर आ रही थीं। सब्जी, ताम्बूल (छिलका सहित सुपाड़ी), पान का पत्ता, गन्ने के गुड़ का ईंट, लाई साग (सरसों जैसा), कोउ पत्ता (चावल के आटे के घोल को कोउ पत्ता पर फैला कर पत्ते को मोड़ दिया जाता है और फिर इसे खौलते पानी में उबालते हैं। तैयार पीठे नुमा रोटी को सुबह नास्ते में खाया जाता है), लिंगड का साग और कई तरह के पहाड़ी साग, केले का दिल (फूल), सूखी मछलियां, कीनू, संतरा आदि स्थानीय उत्पाद यहां की हर सब्जी बेचने वाली महिला अपने दुकान पर रखती है। अरुणाचल प्रदेश के तराई और ऊंचाई के लोग कीनू और सन्तरे के बाग लगाते हैं तो वहीं केले के जंगल अपने आप उग आते हैं। आजकल यहां के ऊंचाई वाले इलाकों में कीवी और सेब के बाग लगाने की कोशिश भी हो रही है।</div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><br /></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><b><span style="color: #2b00fe;">ब्रम्हपुत्र (सियांग) नदी का मनमोहक नजारा</span></b></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><b><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgv_HXztfDmb79Ie_L8Dlv9ImqQasMpLrF0YEE1qXOF4t_5EIJXKsj41tWjuDhXWVHe-S2yCN5Se7--RgThzrdddjHKzNQQuy8Y5mt6VA2LXZHCYyUU3JYlRX2hxp6PPFRVX4UCKSlfTxSCszPch9oMb_FmKg3NaDt6_Q0UrweIQhFR_CJzG6OdMM8g/s1280/8.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1280" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgv_HXztfDmb79Ie_L8Dlv9ImqQasMpLrF0YEE1qXOF4t_5EIJXKsj41tWjuDhXWVHe-S2yCN5Se7--RgThzrdddjHKzNQQuy8Y5mt6VA2LXZHCYyUU3JYlRX2hxp6PPFRVX4UCKSlfTxSCszPch9oMb_FmKg3NaDt6_Q0UrweIQhFR_CJzG6OdMM8g/w400-h300/8.jpg" width="400" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="color: #800180;">नीचे घाटी में सियांग नदी</span></td></tr></tbody></table><br /></b>पासीघाट से पहाड़ शुरू होता है। नदी के साथ थोड़ा ऊपर जाने पर सियांग नदी की मुख्य धारा के अलावा सैकड़ों अन्य जल धाराएं जाल की शक्ल में 30 से 35 किलोमीटर के फैलाव में फैली नजर आती हैं। यह दृश्य इतना मनमोहक होता है कि यहां से हिलने की इच्छा नहीं होती है। दो घंटे की यात्रा के बाद एक बांस और ताड़ के पत्तों से बनी झोपड़ी में दोपहर का खाना हुआ। इस झोपड़ी नुमा घर के नीचे घाटी में तिब्बत से आने वाली सियांग नदी बहुत फैलाव के साथ शोर मचाते हुए बह रही थी। कोमसिंग गांव के पास सियांग की सहायक नदी सियोम हमारी पथप्रदर्शक बन गई। कोमसिंग से आलो तक रोड की चौड़ाई को बढ़ाने के लिये पहाड़ की कटाई की जा रही थी और ऊपर से बादलों की मेहरबानी, फलस्वरूप लगभग 25 किलोमीटर का रास्ता कीचड़ से लबालब भर गया था। इसी में काम करते मजदूर, जिनमें से अधिकांश असम के चाय बागानों में काम करने वाले परिवारों से आते हैं। इनकी जिंदगी में एक बार बहार (चारु मजूमदार की अगुवाई में चले नक्सलबाड़ी आन्दोलन से उपजी चेतना) आती दिख रही थी, लेकिन ऊपरवाले (यदि हो!) से वो भी देखा न गया, अब तो वह आंदोलन समाज में एक गाली बन गया है। आलो या अलोंग तक पहुंचते-पहुंचते घाटी बहुत फैल गई है, इसलिये इसे पश्चिमी सियांग जिले का जिला मुख्यालय बनाया गया है। शाम के चार बज गये थे, लिहाजा यात्रा को विराम दे दिया गया। शहर की ऊंचाई 700 मीटर से अधिक नहीं है, फिर भी हल्की ठंड जैसा मौसम था। मेचुखा अभी मोटरगाड़ी से 7 घंटे की दूरी पर था, इसलिये अगले दिन सुबह साढ़े पांच बजे की चारपहिया वाहन में आगे की दो सीट बुक करवा लिया गया।</div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><br /><b><span style="color: #2b00fe;">3. </span></b></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><b><span style="color: #2b00fe;">गालो और आदि जनजाति का धर्म<br /></span></b>'आलो', गालो और आदि जनजाति का एक बहुत बड़ा कस्बा है। बहुसंख्यक आबादी की मान्यताओं में डोनीपोलो (सूर्य-चंद्रमा) धर्म है, जिसे लगभग 50 वर्ष पूर्व एक बार फिर से संसोधित करके जीवित किया गया है। इनके मतावलंबी दहकते लाल रंग का सूर्य (डोनी) और बैकग्राउंड में सफेद रंग मतलब चंद्रमा (पोलो) का एक बड़ा सा झंडा अपने घर के दरवाजों पर लगा कर इस धर्म का अनुयायी होने की घोषणा करने से गुरेज नहीं करते हैं। इनकी तुलना में बौद्ध वाले एक पतली सी लंबी झंडी फुरफुराते हैं तो वहीं ईसाई समुदाय अभी झंडे की खोज में लगी हुई है। आलो कस्बा बहुत फैली हुई घाटी में है, इसलिये जिला मुख्यालय है। यहां के बहुत सारे लोगों को सरकारी नौकरी मिली हुई है। जो व्यक्ति सरकारी नौकरी में होता है उसके निश्चित आय से उसका परिवार तो खाता ही है साथ में तीन-चार अन्य परिवारों का गुजारा कपड़ा, सौंदर्य प्रसाधन, सब्जी, राशन इत्यादि बेचकर चल जाता है। वहीं प्राइवेट सेक्टर की नौकरी से खुद के परिवार का ठीक-ठाक गुजारा हो जाए वही बड़ी बात है।</div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><br /></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><b><span style="color: #2b00fe;">जनजातियों में सेना की स्वीकार्यता के लिए कैंटीन<br /></span></b>कस्बे में थल और वायु सेना वाले भी बड़ी संख्या में दखल रखते हैं। वायु सेना की एक हवाई पट्टी भी है, जिसमें रंगरूट लोग सुबह-शाम दौड़ने, चलने के साथ-साथ वर्जिश भी करते हैं। इनमें कुछ बुजुर्गवार भी अपनी चर्बी गला रहे थे, शायद अफसरान होंगे। फौज की एक कैंटीन भी है जहां आम नागरिक सुबह, दोपहर और शाम को बहुत कम दाम पर अपना पेट भर सकते हैं। खाना बनाने के लिए एक फौजी को लगाया गया है, जिसका वेतन 60,000 रुपये प्रति माह है। संभवतः यह पहल जनजातियों में सेना की स्वीकार्यता के लिए किया गया होगा। सवारी गाड़ी चलाने को छोड़कर अन्य कामों में महिलाओं का दखल कुछ ज्यादा ही है। असम के दुकानदार भी हैं तो इक्का-दुक्का बिहार के निवासी फल, सब्जी, बहुत तेज बसाती सूखी मछली और रोजमर्रा के समान के साथ दुकान लगाए बैठे हैं।</div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><br /></div><div><b style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><span style="color: #2b00fe;">हर पुरूष के पास एक फुट लंबा चाकू </span></b><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="color: #2b00fe;"><b>और </b></span><b style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><span style="color: #2b00fe;">हिंदी के गाने बेहद पसंद</span></b></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;">स्थानीय पुरूष जब भी घर से निकलते हैं तो कंधे पर लगभग एक फुट लंबा चाकू लटकाते हैं, जिसका फल बेंत के म्यान में होता है, वहीं महिलाएं चमकदार लुंगी में लकदक करती फिरती हैं। सभी हिंदी भाषा अच्छी तरह बोल और समझ सकते हैं, गाड़ियों में हिंदी के गाने बजते हैं। दो स्थानीय और एक हिंदी भाषी हो तो बातचीत हिंदी भाषा में होगी न कि बंगालियों की तरह कि दोनों बंगाली अपनी भाषा में बात करने लगें और उनका तीसरा मित्र केवल उनका मुंह देखता रहे।</div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><br /></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><b><span style="color: #2b00fe;">4. </span></b></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><b><span style="color: #2b00fe;">नजारा कुछ ऐसा कि देखने वाला उसमें खो जाए<br /></span></b>28 अप्रैल, 2022 को सुबह गाड़ी चली तो पांच मिनट में ही आलो कस्बा पार हो गया और दूर तक फैले खेतों के दर्शन हुए, अभी धान की रोपाई नहीं हुई थी, लेकिन महिला और पुरूष पांव में रबर का लांग बूट चढ़ाए और सिर पर हैट बांधे खेतों को रोपने के लिए तैयार करते नजर आ रहे थे। खेतों के साथ लगे पहाड़ों के निचले हिस्से में अनायास उगे केले के जंगल, उसके ऊपर अत्यधिक वर्षा वाले घनघोर वन और कुछ पहाड़ों के उन्नतांश पर बर्फ की छींटाकशी। यही हाल बहुत फैल कर बह रही सियोम नदी के दूसरी ओर का भी था। नजारा कुछ ऐसा था कि देखने वाला बस उसमें खो जाए, लेकिन इन सबसे अलग गायों के बड़े-बड़े झुंड सड़क पर बैठ कर निर्लिप्त भाव से पगुरी कर रहे थे। मानो कह रहे हों कि ज्यादा हार्न-फार्न न बजाओ, रोड क्या हमसे पूछ कर बनाई गई थी, सूखी जमीन है इसलिये सबसे पहले हमारा अधिकार है और ज्यादा चूं-चपड़ न करो। यदि हमें कहीं खरोंच भी लग गई तो मेरी मालकिन मेरे होने वाले बच्चे के बच्चे का हर्जाना निकलवा लेगी, इसलिये चुपचाप गाड़ी सड़क के नीचे उतार कर ले जाओ।</div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><br /></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><b><span style="color: #2b00fe;">कायिंग गांवः 100 रुपये में इतना केला कि पांच दिन तक खाते रहे<br /></span></b>इन्हीं नजारों में दो घंटे चलने के बाद कायिंग गांव आ गया, यहां सुबह के नास्ते से फारिग होने के बाद 100 रुपये में बहुत ही मीठा ढेर सारा केला खरीद लिया, जिसे हम पांच दिन तक खाते रहे। केला खरीदते समय कस्बे के एक सरकारी स्कूल में पिछले 25 साल से हिंदी पढ़ा रहे पटना के एक मास्टर जी से मुलाकात हो गई। ज्यादा बातचीत का वक्त नहीं था, लेकिन अरुणाचलियों के हिंदी बोलने और समझने का राज समझ में आ गया। यहां से आगे सड़क कटाई के कामों में स्थानीय महिला और पुरूष दोनों लगे हुये थे। वहीं मशीन चलाने की जिम्मेदारी बीआरओ तथा झारखंड के मजदूर निभा रहे थे। जो सरकारी मुलाजिम हैं उनका जिक्र ही क्या, लेकिन झारखंड के मजूर 18,000 रुपये में तो स्थानीय 15,000 रुपये में अपना श्रम एक महीने के लिए बेंच रहे थे। 12 बजने से पहले ही शि-योमी जिले का मुख्यालय टाटो आ गया। यहां से एक रास्ता नदी किनारे-किनारे मेचुखा को तो दूसरा रास्ता नदी पार एक दूसरी घाटी मोनीगोंग को जाता है। दोपहर के भोजन के बाद पहाड़ की चढ़ाई शुरू हो गई। अरुणाचल प्रदेश के पश्चिमोत्तर भाग के वनों की अपेक्षा पूर्वोत्तर के जंगल अत्यधिक घने हैं। चौड़ी सड़क के बनते ही इसका व्यावसायिक दोहन शुरू हो जाएगा।</div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><br /></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg5ANiZBYLv_BY05pEBXsYSl9Sssyb78Y21sU3n6GgnvDIra2RsrKuek3KP25NRpfZFj-5-vTsiragjcIxXK0Xi55Tm_tLZ3ON6lx70II4nHyrgpP-3lXOKi3PflLT2QvqQpwKAnrPqoCoxrrkVNw7dFRwP9r79QN3L6QZ_dbeAVNz6Mn_DeSoMdpV2/s1280/1.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1280" height="297" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg5ANiZBYLv_BY05pEBXsYSl9Sssyb78Y21sU3n6GgnvDIra2RsrKuek3KP25NRpfZFj-5-vTsiragjcIxXK0Xi55Tm_tLZ3ON6lx70II4nHyrgpP-3lXOKi3PflLT2QvqQpwKAnrPqoCoxrrkVNw7dFRwP9r79QN3L6QZ_dbeAVNz6Mn_DeSoMdpV2/w400-h297/1.jpg" width="400" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><i><b>मेचुखा कस्बे का चौराहा</b></i></td></tr></tbody></table><b><span style="color: #2b00fe;">मेचुखा: विशाल घाटी नुमा एक कस्बा</span></b></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;">दो-ढाई घंटे की यात्रा के बाद हमारी मंजिल मेचुखा आ गई। विशाल घाटी नुमा एक कस्बाई शहर, बीच से इठलाती हुई बहती एक नदी, दाएं-बाएं की बर्फिली चोटियां बदलों से खेलती हुईं, नजारे देखें कि पांच दिन के प्रवास के लिए अपने मेजबान को ढूंढें, दिल की इच्छाओं को दबाकर पूछते-पाछते आखिरकार मैडमात के आलीशान बंगले में पहुंच गए। निजता के मद्देनजर मेजबान का परिचय नहीं दे रहा हूं। मेल-मिलाप और कुछ पेट पूजा को तुरंत निपटा, हम दोनों मित्र सियोम नदी की ओर चल पड़े। बर्फीली चोटियों और पहाड़ी जंगलों से बहुत सारे बड़े-बड़े नाले निकले हैं, जिनका आखिरी पड़ाव नदी है। ऐसे ही दो नालों के ऊपर बने पुल को पार करने के बाद सेना की छावनी आ गई। छावनी के बाद एक पगडंडी नदी की ओर जाती है, जहां स्टेडियम जैसा कुछ बन रहा था। यहां काम करने वाली लड़कियां और महिलाएं नदी के दूसरी ओर मेम्बा जनजाति के सबसे पुराने मूल मेचुखा गांव से आती हैं, जिन्हें 350 रुपये मजदूरी मिलती है। सूरज डूबने वाला था, लिहाजा काम बंद हो गया और सभी झूले के पुल से नदी पार अपने गांव को चल पड़ीं। इनके गुजरने के बाद हम भी पुल पर आ गए। नदी चौड़ी होने के साथ गहरी भी थी और बहाव बहुत तेज था। पानी इतना साफ कि बीस फुट की ऊंचाई से तलहटी में बैठे पत्थरों के टुकड़े तक साफ दिखाई दे रहे थे।</div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><br /></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><b><span style="color: #2b00fe;">5. </span></b></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><b><span style="color: #2b00fe;">सवाल भी ऐसे कि सामने वाले का संदेह गहराने लगे<br /></span></b>मेचुखा जैसे दुर्गम कस्बे मेंय वो भी बरसात में दिल्ली से केवल घूमने के लिये आना अड़ोसी- पड़ोसी तो दूर मेजबान के रिश्तेदारों को भी हजम नहीं हो रहा था। जैसे ही हम लोग घूम फिर के वापस पहुंचे एक-एक करके लोगों का जिरह के लिए आना शुरू हो गया। इसमें मुझे मजा भी आता है और इस परिस्थिति का इतना आदि हो गया हूं कि सामने वाला कुछ पूछे उससे पहले अपने सवाल दागते रहो। सवाल भी ऐसे कि सामने वाले का संदेह गहराने लगे। मसलन, क्या करते हैं, शिक्षा कितनी है, कितने बच्चे हैं, बच्चों के शिक्षा की स्थिति क्या है, आपके पिताजी के कितने बच्चे थे, यहां के मूल निवासी हैं, यदि नहीं तो कहां से और कब आए, खेती में क्या-क्या उगता है, सरकारी अस्पताल और स्कूल-कालेज की क्या दशा है, नदी कहां से निकलती है, आखरी गांव कितना दूर है, सीमा किन-किन दिशाओं में और कितनी दूर है, कस्बे की आबादी तथा धार्मिक स्थिति क्या है, इत्यादि। सामने वाला इन सवालों में ही बौड़ियाने लगता है, इसके बाद बताऊं कि मैं प्रिंटिंग प्रेस में प्लेट, केमिकल और इंक बेचता हूं, तो उसे मेरे इस सीधे-साधे जवाब पर कतई भरोसा नहीं होता है, वह प्रवास के आखिरी दिन तक अपने नए-नए प्रश्नों के साथ मुझे टटोलने में लगा रहता है। ऊपर से मेरा चेहरा और पहनावा सैलानी की जगह कोई सरकारी मुलाजिम होने की चुगली करता है।</div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><br /></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><b><span style="color: #2b00fe;">1995 तक सामूहिक नरसंहार का दौर चला था<br /></span></b>मेचुखा में मेब्बा और आदि दो जनजातियों के लोग निवास करते हैं। सियोम नदी के उस पार मेब्बा लोगों की बस्तियां हैं तो इस पार आदि लोग निवास करते हैं। आदि, मेब्बाओं की अपेक्षा अधिक समृद्ध हैं। परंतु, आदि यहां के मूल निवासी नहीं हैं, संभवतः चार-पांच पीढ़ी पहले मोनीगोंग से यहां आकर बसना शुरू हुए हैं, जिसके कारण 1995 तक सामूहिक काटाकूटी (नरसंहार) का दौर भी चला था। रात के अंधेरे में एक व्यक्ति दूसरे कबीले के छोटे बच्चे से लेकर बुजुर्ग और महिला सभी को काट डालता था, इस व्यक्ति को अपने कबीले में योद्धाओं जैसा सम्मान दिया जाता था। पूर्वोत्तर भारत की लोकगाथाओं में इस तरह के सैकड़ों लोगों का जिक्र आता है, जो यहां के जनमानस में बहुत ही सम्मानित हैं। खैर काटाकूटी के दौर गुजरे तीनदशक होने को आए हैं, लेकिन जमीन को लेकर असंतोष अभी भी बरकरार है। जब इस तरह की कोई बात उठती है तो संख्या में थोड़े कम आदि जनजाति वाले मोनीगोंग से अपने साथियों को बुलवा लेते हैं, जिन्हें यहां तक पहुंचने में 6-7 घंटे लगते हैं। लगभग इतना ही समय मेम्बा लोगों को अपने फैले हुए गांवों से एकत्र हो झूले वाले पुल से नदी पार कर पहुंचने में लगता है। लेकिन, शिक्षा धीरे-धीरे दोनों समुदायों को करीब ला रही है, किन्तु दसवीं के आगे पढ़ने के लिए कोई शिक्षण संस्था नहीं है। मोनीगोंग, जहां से आदि लोग मेचुखा में आए हैं, मेचुखा से लगभग 120 किलोमीटर दूर तिब्बती बार्डर से लगा एक गांव है। मेम्बा और आदि लोग भी मेचुखा या मोनीगोंग के मूल निवासी नहीं हैं, ये लोग भी तिब्बत से आएं हैं। कुछ 1956 से पहले, तो कुछ सैकड़ों या हजारों साल पहले विस्थापित हुए थे, लेकिन शुरुआती विस्थापन कब और क्यों शुरु हुआ, इस सवाल का जबाब उपरी असम से लेकर अरुणाचल तक मुझे किसी से नहीं मिला, बस सबके जेहन में है कि हमारे पुरखे-पुरनियां तिब्बत से आए थे।</div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><br /></div><div><span style="color: #2b00fe;"><b style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;">ईसा पूर्व 2200 से </b><span face="arial, helvetica, sans-serif"><b>शुरू हुआ था</b></span><b style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"> विस्थापन</b><br /></span><span face="arial, helvetica, sans-serif">बहरहाल मेरे पास हिमालय के उस पार से विस्थापन कब से और क्यों हुआ, इसका एक ठीक - ठाक जवाब है। भूगर्भीय समय पर नजर रखने वाली एक अधिकृत संस्था इंटरनेशनल कमीशन आन स्टैटीग्राफी ने जुलाई 2018 में मेघालयन नामक एक शोध प्रस्तुत किया। इसके मुताबिक, विस्थापन ईसा पूर्व 2200 से अब तक जारी है और इसकी शुरुआत एक बहुत भीषण सूखे से होती है, जिसनें मिस्र, मेसोपोटामिया, चीन और हिंदुस्तान की सभ्यताओं को कुचल कर रख दिया था। यह भीषण सूखा संभवतः महासागरों और वातावरण में आए बदलावों की वजह से पड़ा था। हिमालय के उस पार से पलायन की शुरुआत आज से लगभग 4200 साल पहले शुरु हुए इसी सूखे से होती है, फिर आवाजाही का दौर 1956 में भारत-चीन के बीच तनाव तक चला था। कायदे से इस रिपोर्ट के आने के बाद सरकार को हिमालय के प्रचलित गिरिद्वारों से डीएनए सैंपल की खोज और जांच करनी चाहिए थी, लेकिन उसे खलनायक सिनेमा के फूहड़ गाने चोली के पीछे क्या है की तर्ज पर मस्जिद के नीचे क्या है पर गुनगुनाने में मजा आ रहा है! मेचुखा कस्बे में एक निर्माणाधीन अस्पताल हैं, तो वहीं शराब की अनगिनत दुकानें हैं। अन्य राज्यों की अपेक्षा अरुणाचल में शराब आधे दाम पर बिकती है।</span></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgFdiRuiO7mB5NgBi9jcIjYjVImDB_tPyVN3_yD5G9B7Gj5AzU553s8ZEVy9x6yuVbhTvAkv7GeltyX8NHCKvnJzMIwkq-GHdyXnsaJKOgB1v3QIDCN3Y0XHbT4rAKK9BnhOmptHmdeje2Jao8KECuxUv-rcKJUFL87HA5aAZAVAT9369_w73XqzsU3/s1280/6.jpg" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="960" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgFdiRuiO7mB5NgBi9jcIjYjVImDB_tPyVN3_yD5G9B7Gj5AzU553s8ZEVy9x6yuVbhTvAkv7GeltyX8NHCKvnJzMIwkq-GHdyXnsaJKOgB1v3QIDCN3Y0XHbT4rAKK9BnhOmptHmdeje2Jao8KECuxUv-rcKJUFL87HA5aAZAVAT9369_w73XqzsU3/s320/6.jpg" width="240" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="color: #800180;"><b>सियोम नदी </b></span><b style="font-size: 16px;"><span style="color: #800180;">पर बना झूले वाला पुल</span></b></td></tr></tbody></table><br /><b><span style="color: #2b00fe;"><span>इस पीढ़ी </span>में <span>भी 3-4 बच्चे</span></span></b></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;">दसवीं तक विद्यालय होने कारण आबादी पर थोड़ा नियंत्रण लगा है और इस पीढ़ी के लोग 3-4 बच्चे पैदा कर रहे हैं, अन्यथा पिछली पीढ़ी वालों में 8-10 बच्चे होना आम बात थी। कस्बे के जितने भी परिवारों से मुलाकात हुई, उसमें महिला की उम्र अपने पति से अधिक थी। खुद हमारी मेजबान मैडम अपने पति से दो साल बड़ी हैं और अपने शादी का प्रस्ताव दसवीं में पढ़ते समय अपने नाबालिग हमसफर के सामने रखा था। फिर महोदय 6 महीना अपने होने वाले ससुराल में खटकर अपनी योग्यता को साबित किया। शादी में हुजूर के परिवार ने पांच मिथुन भेंट दिया, जो भोज में आए लोगों के पेट में हजम हुआ। हमारे प्रवास के दौरान कस्बे में एक शादी थी, जहां 10 मिथुन और 30 सुअर काटे गए थे। इन जनजातीय इलाकों में बिना मिथुन दिए शादी नहीं होती है। मिथुन दिखने में गाय और कुछ-कुछ भैंस जैसा होता है, लेकिन इसे पाला नहीं जाता है, ये जंगलों में घूमते रहते हैं। नमक चटा कर इन्हें पालतू बना लेते हैं और पहचान के लिए अलग-अलग आकार में कान काट दिया जाता है। काफी लोग घर की चारदीवारी के पीछे सुअर पालते हैं, तीन महीने नए के नवजात सुअर की कीमत यहां 8000 रुपये है। हमारे आगमन के दस दिन पहले मेजबान मैडम के तीन सुअरियों ने 29 बच्चों को जन्म दिया था, जो जनजातियों के आर्थिक समृद्धि का एक स्रोत भी है। भेड़, बकरी और गरेड़िया संस्कृति के अभाव में इस संभाग के फौजी भी इन लजीज मांस का सेवन करते हैं, लेकिन इस बात को किसी ने खुल कर स्वीकार नहीं किया। पारंपरिक आयोजनों में शरीक होने वाले अपने साथ एक चाकू रखते हैं, जिससे परोसे गए 3-4 किलो के मांस के टुकड़े को काट-काट कर खाया जा सके। प्रकृति ने यहां के लोगों का हाजमा दुरुस्त रखने के लिए एक नायाब औषधि जायर दिया है, जो पतली टहनियों में मटर जितना बड़ा और गहरे हरे रंग का होता है। इसकी खुशबू बहुत तेज और शानदार होती है, यहां के लोग इसका प्रयोग मसाले की तरह करते हैं।</div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><br /></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><b><span style="color: #2b00fe;">6. </span></b></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><b><span style="color: #2b00fe;">वहीं कहीं अपने देश की आखिरी सीमा है<br /></span></b>मेचुखा में सुबह का उजाला दिल्ली की अपेक्षा एक घंटा 25 मिनट पहले होना शुरू हो जाता है। मेजबान ने मेरे पढ़ने-लिखने का इंतजाम कर दिया था, लिहाजा उजाला होते ही मैं अपने काम में लग गया। <table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgXQxfMSSnaq-IOw5qHP_8M3ny8d5J7Eq0_5e6bXXaENeT4ngWQ0o2xy7A4utgKWSp9yQ1iHx6uwsYgBKPfyqT4lscxq-rHjlVeGVu8BnESqWGJISyFdyphhVNrg5WrheMTRDu__MBSrEVDug7HhrH3vJPtf45J6gZ3OqSQYmP92990WIZyCRy72puW/s1280/3.jpg" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1280" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgXQxfMSSnaq-IOw5qHP_8M3ny8d5J7Eq0_5e6bXXaENeT4ngWQ0o2xy7A4utgKWSp9yQ1iHx6uwsYgBKPfyqT4lscxq-rHjlVeGVu8BnESqWGJISyFdyphhVNrg5WrheMTRDu__MBSrEVDug7HhrH3vJPtf45J6gZ3OqSQYmP92990WIZyCRy72puW/w400-h300/3.jpg" width="400" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><i><span style="color: #800180;">मेचुखा घाटी और खूबसूरत सियोम नदी</span></i></td></tr></tbody></table><br />दोपहर बारह बजे हम दोनों मित्र कस्बे के पास में एक पहाड़ी पर बने नये गोम्पा की ओर चल पड़े। गोम्पा के पीछे और उससे लगी एक काफी ऊंची पहाड़ी है, जहां फौज के बंकर बन रहे हैं, लेकिन काम बंद है। बंकर संभवतः वायु सेना की हवाई पट्टी की सुरक्षा के लिए बनाए जा रहे हैं। धीरज ने अपनी सेहत के मद्देनजर नीचे रहना मुनासिब समझा। जब मैं ऊपर पहुंचा तो पता चला कि एक कच्ची सड़क से भी ऊपर आ सकते हैं। यहां से पूरी घाटी के चप्पे-चप्पे का नजारा हो रहा था। घाटी के पश्चिमोत्तर दिशा में लगभग 12 किलोमीटर दूर एक ऊंचे पहाड़ी पर एक और आलीशान गोम्पा, गोम्पा से कुछ दूर आगे घाटी का संभवतः आखिरी छोटा सा गांव थरगेलिंग, गांव से नीचे नदी की ओर एक गुरुद्वारा, गुरुद्वारे के ऊपर बर्फीली चोटियां, शायद वहीं कहीं अपने देश की आखिरी सीमा है।</div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;">मेचुखा, नदी की तरफ ढलांव लिए हुए एक बहुत बड़ा लगभग समतल परवलयकार भूभाग है, जिसके पश्चिमोत्तर दिशा से लेकर दक्षिण तक बर्फीली चोटियां और बाकी दिशाओं में देवदार के जंगलों से लदे ऊंचे-ऊंचे पहाड़, साथ में दाएं-बाएं घूम कर बहती एक औसत दर्जे की नदी जिसके पानी के स्रोत यही बर्फीले पहाड़ और जंगल हैं। कम दूरी में एक नदी का बनना यही मेचुखा घाटी की खासियत है, जो मेम्बा भाषा में इसके नाम को सार्थक करती है, जिसका मतलब होता है - चिकित्सकीय गुण वाली बर्फीली नदी।</div><div><br /><span style="color: #2b00fe;"><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="font-size: 16px;"><b>सरकारी सफेद हाथी</b></span><br /></span><span face="arial, helvetica, sans-serif">घाटी में नदी को पैदल पार करने के लिये कई झूले वाले पुल बनाए गए हैं। मेरी गिद्ध वाली आंख ने उनमें से चार पुल ढूंढ निकाले और मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि घाटी को सड़क की अपेक्षा इन पुलों के द्वारा घूमना बहुत आसान है, क्योंकि सड़क नदी के साथ बहुत दाएं-बाएं घूमकर किसी मंजिल को पहुंचाती प्रतीत हो रही थी। पहाड़ी से उतरने के बाद हम दोनों घूमते - घामते एक अत्यंत निर्जन इलाके में स्थित उपभोक्तावादी संस्कृति से उपजे कचरे से बिजली बनाने के सफेद हाथी के पास पहुंचे (देखने में संयंत्र बिजली बनाने का ही प्रतीत हो रहा था)। बिल्डिंग के खिड़की-दरवाजे तो दूर संयंत्र ही लंगड़ा गई थी। कोई मिलता तो पूछते भइया यह सरकारी है या पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) माडल और इसने किन-किन लोगों को कृतार्थ किया है।</span></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><br /></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><b><span style="color: #2b00fe;">आलू के साथ मेमो साग की लाजवाब भुजिया<br /></span></b>कस्बे के बहुत सारे परिवारों ने तथागत को छोड़कर ईसाइयत का दामन थामा है, जिसमें मोनीगोंग से आए आदि जनजाति के लोग बड़ी संख्या में हैं, तो कुछ ऐसे भी हैं जो यह कहते हैं कि इस वादी में रहना ही हमारे जीस्त का मुकद्दर है। ऐसे ही एक व्यक्ति के खेत में मुझे मेमो साग दिख गया। इसका स्वाद कुछ-कुछ हरे <table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhyGBK7N6WQ0mT6SKSdO2qOWGUfmC4MBa-dUsD2KXjZUaav3GIGY4yZPnfZIiZYGmx-g6bgiSlUdiPhW3Nx9jUDi03-nEK74VCVkqlqbfH1PZdkzjvhWMp5tn9thJVlURyqZFyK3pIK4Zn7OgKO5YlByIUEdUi8IKoialY2xKlh-I3xYRFgrzyFmW1m/s1280/7.jpg" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="722" data-original-width="1280" height="181" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhyGBK7N6WQ0mT6SKSdO2qOWGUfmC4MBa-dUsD2KXjZUaav3GIGY4yZPnfZIiZYGmx-g6bgiSlUdiPhW3Nx9jUDi03-nEK74VCVkqlqbfH1PZdkzjvhWMp5tn9thJVlURyqZFyK3pIK4Zn7OgKO5YlByIUEdUi8IKoialY2xKlh-I3xYRFgrzyFmW1m/s320/7.jpg" width="320" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe;"><b> मेमो का साग</b></span></td></tr></tbody></table><br />प्याज के पत्ते की तरह होता है, जिसको लगभग 1900 मीटर की ऊंचाई पर उगाया जा सकता है और आलू के साथ बने इसके भुजिए का जवाब नहीं है। खेती और मजदूरी परिवार के आय के स्रोत हैं। खेत में खड़ी गेहूं की फसल को पकने में अभी बीस दिन की देर है, तो वहीं गोभी और आलू तैयार हो गए हैं। इन सबके बाद धान रोपने की तैयारी शुरु होगी। सुधिजनय धान और गेहूं के बीच में यहां मंडुवा भी उगाई जाती है। यहां तक पहुंचते -पहुंचते रासायनिक खाद बहुत महंगी हो जाती है, लिहाजा गोबर और सड़ी पत्तियों का उपयोग खाद की तरह किया जाता है। खाने में मडुवे की रोटी और मेमो का साग तथा रात्रि विश्राम के अनुरोध को अस्वीकार करके हम लोग मिलते रहने के वादे के साथ विदा हुए। हमारे साथ ढेर सारा मेमो साग था, जिसे रात के खाने में उपयोग किया गया।</div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><br /></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><b><span style="color: #2b00fe;">7. </span></b></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><b><span style="color: #2b00fe;">400 साल पुराने महायान संप्रदाय का समतेन योंगचा मठ<br /></span></b>अगले दिन रविवार को दोनों मित्र 12-13 किलोमीटर दूर 400 साल पुराने महायान संप्रदाय के समतेन योंगचा मठ के लिए निकले तो वहीं हमारे मेजबान अपने तीन बच्चों के साथ चर्च के लिए रवाना हुए। तीन झूले के पुल और दलदली जमीन को लांघते हुये लगभग ढाई घंटे की यात्रा के बाद पहाड़ी पर बने तिब्बतीय माडल के मठ द्वार पर हमने दस्तक दे दी, लेकिन तथागत बुद्ध का अभी पुर्नजन्म लंबित है और उनके अनुयायी लामा लोग शायद कस्बे में कहीं पेटपूजा कर रहे थे, निर्जनता ऐसी थी कि आदमी और जानवर तो दूर परिंदे भी गायब थे। वापसी के लिये जैसे ही मुड़े, बदलों ने मेहरबानी शुरू कर दी। चलते समय मौसम ठीक था, इसलिये बचाव का कोई इंतजाम नहीं किया गया था। बरसात हो रही थी, लिहाजा पगडंडियों वाले रास्ते की जगह सड़क मार्ग को अपनाया गया। पिच रोड इतनी बेहतरीन ढंग से बनी हुई थी कि दबाने से दब जाए और जोर से रगेद दें तो नीचे से मिट्टी निकल आए।</div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><br /></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><b><span style="color: #2b00fe;">साथी ठहरे मोदी भक्त<br /></span></b>साथी ठहरे मोदी भक्त और साथ में पार्टी के प्रचारक। केंद्र और राज्य में इन्ही के पार्टी की सरकार। बार-बार दुहाई देने लगे कि अभी इसके ऊपर कंकरीट की ढलाई की जाएगी। साहिबानय इसे कहते हैं अंधभक्ति। जब दिमाग गलत को सही ठहराने के लिये तथ्य और तर्क ढूंढने लगे, तो समझिए कि आपने अफीम चाट लिया है या चटा दिया गया है।<br /></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><br /></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><b><span style="color: #2b00fe;">700 रुपये में दो छाता<br /></span></b>खैर एक घंटा तर होने के बाद आबादी के इलाके में पहुंचे तो 700 रुपये में दो छाता खरीदा गया, जो दिल्ली में अधिक से अधिक 150 रुपये में एक मिल जाता। दो मई को मित्र धीरज ने कहीं चलने से मना कर दिया। बहुत मान-मनौव्वल के बाद साहब खेत वाले सज्जन के यहां चलने को राजी हुए। चल ऐसे रहे थे कि जैसे बबासीर का कोई गंभीर मरीज टांग फैलाकर बहुत धीरे-धीरे कदम बढ़ता है। पिछले दिन का 24 किलोमीटर चलना और भींगना साहब को बहुत भारी पड़ गया था।</div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><br /></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><b><span style="color: #2b00fe;">एक वोट की कीमत तीन लाख रुपये<br /></span></b>खेत वाले परिवार के साथ चाय पीते समय एक बात का खुलासा हुआ कि यहां के स्थानीय चुनाव में एक वोट की कीमत तीन लाख रुपये हो सकती है, जो लेने वाले नौजवान दंपति को जमीन के शक्ल में दी गई थी और दंपति भी साथ बैठे हुए थे। दोनों ने घर वालों की मर्जी के बगैर शादी की था। लड़का बीआरओ में 700 रुपये में दिहाड़ी मजदूरी करता है और उम्र में थोड़ी बड़ी महिला को फौज की कैंटीन में खाना बनाने के 350 रुपये रोजाना मिलते हैं, लेकिन 25 साल के उम्र में ही दोनों तीन बच्चों के मां-बाप बन गए हैं। चुनाव में तीन लाख रुपये की जमीन देने वाले को मैं बहुत करीब से जानता हूं। साहब इतने सज्जन पुरुष हैं कि शराब को छूना पाप समझते हैं, लेकिन लोगों को पिलाकर मस्त रखते हैं। मतलब कस्बे में एक मदिरालय के मालिक हैं। </div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><br /></div><div style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-size: 16px;"><b><span style="color: #2b00fe;">डीजल 70 रूपये लीटर बेचकर भी 20 रूपये मुनाफा<br /></span></b>सुधीजन एक और राज की बात बताता हूॅं।आलो से मेचुखा के रास्ते में कुछ ऐसे ठिकाने हैं, जहां डीजल 70 रुपये लीटर मिलता है, जिसे बेंचने वाला 20 रुपये लीटर के मुनाफे पर बेचता है, बिना किसी मिलावट और घटतौली के, है न आश्चर्य की बात। बस इतना समझिए कि यह सड़क का कमाल है। अब इस दास्तान को विराम देने का वक्त आ गया है, लिहाजा अगले दिन सुबह साढ़े पांच बजे की गाड़ी में दो सीट बुक करा लिया गया। इस बार नदी की दिशा में चलते हुए गुवाहाटी फिर दिल्ली।</div><div><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span></div>Devendra Prataphttp://www.blogger.com/profile/04058854873119577592noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-2264830081803709796.post-28532535081583979182020-12-22T22:33:00.003-08:002020-12-28T13:06:17.272-08:00आपबीतीः एक गलती ने पहुंचा दिया कोरोना कैदखाना<div dir="auto" style="background-color: white;"><b style="color: #222222; font-size: small;">सुनीता</b></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial,Helvetica,sans-serif; font-size: small;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEifQ6djYEwo0nic7hNfqxPsT6PIl0aF387XgHms5FkWIoC3y2nc9jCZ4vjAOEqEleUkdM6JmPi8yu_zEhujc1X9Nh-MO5BuAwI2edw66l7p6A4peJlzMd7HB0bfC7zEdP7sE1KDSTi6FYI/s431/sunita+2.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="431" data-original-width="306" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEifQ6djYEwo0nic7hNfqxPsT6PIl0aF387XgHms5FkWIoC3y2nc9jCZ4vjAOEqEleUkdM6JmPi8yu_zEhujc1X9Nh-MO5BuAwI2edw66l7p6A4peJlzMd7HB0bfC7zEdP7sE1KDSTi6FYI/s320/sunita+2.JPG" /></a></div><br /><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial,Helvetica,sans-serif; font-size: small;">जिस दिन कृषि उत्पादों पर मोदी सरकार द्वारा पास बिल पर देश के किसानों ने देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया था उसी 26 नवम्बर 2020 को मैं और मेरे पति ने कोरोना टेस्ट कराया। यह टेस्ट उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा इंदिरापुरम, गाज़ियाबाद के एक गुरुद्वारा में कैम्प लगाकर किया जा रहा था। पूर्वी उत्तर प्रदेश के अपने गांव 7-8 महीने रहकर अक्टूबर के पहले सप्ताह में मैं गाज़ियाबाद आई थी। गांव से आये अभी डेढ़ महीने हुए थे कि मुझे और मेरे पति को सर्दी-जुकाम और हल्का बुखार हो गया। एहतियात बरतते हुए हम दोनों पैरासिटामोल खाकर हम दोनों ठीक हो चुके थे। मेरे पति के ऑफिस में उनके एक कलीग ने बोला कि कोरोना टेस्ट करा लो। उन्होंने आव देखा न ताव हमारा और अपना कोरोना टेस्ट करा लिया।</div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial,Helvetica,sans-serif; font-size: small;"><br /></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial,Helvetica,sans-serif; font-size: small;"> हमें लगा था कि हम लोग पूरी तरह ठीक हैं कोरोना पॉजिटिव होने का कोई सवाल ही नहीं बनता लेकिन सीधे उल्टा हुआ।कोरोना टेस्ट सेम्पल देने के 24 घंटे के अंदर उत्तर प्रदेश के कोरोना साइट पर हम दोनों का एंटीजेन निगेटिव दिखाया। 28 और 29 नवम्बर के शाम तक उपरोक्त साइट पर RT-PCR रिसेम्पलिंग दिखाता रहा। 30 नवम्बर को दिन के 11 बजे के करीब उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग से फोन आया कि हम दोनों कोरोना पॉजिटिव हैं। जब हमें पता चला कि हम कोरोना पॉजिटिव हैं तो हम लोग सतर्क हो गए और होम क्वारंटाइन हो गए और मजे में थे। 1 दिसंबर को उत्तर प्रदेश, गाज़ियाबाद के स्वास्थ्य विभाग ने तरह-तरह के नम्बर से फोन करके हमारा जीना हराम कर दिया। हमने उन्हें बताया कि हमें किसी भी किस्म की कोई दिक्कत नहीं है फिर भी यदि टेस्ट में पॉजिटिव आया है तो हम लोग होम क्वारंटाइन हैं, हमारी दो साल की बिटिया भी है और वह भी स्वस्थ है। उन्होंने हमारे पास ऑक्सिमिटर, थरमामीटर और घर में टॉयलेट बाथरुम के होने के बारे में पूछा जिसकी उपलब्धता की जानकारी हमने उन्हें दी। पॉजिटिव आने के 24-36 घंटे में उत्तर प्रदेश, गाज़ियाबाद स्वास्थ्य विभाग से न कोई डॉक्टर आया और न ही किसी ने कोई दवा लेने का सुझाव दिया। 1 दिसंबर को सेपरेट टॉयलेट न होने का हवाला देकर हमें होस्पिटलाइज़ होने का दबाव बनाया जाने लगा। तंग आकर मेरे पति होस्पिटलाइज़ होने को तैयार हो गए लेकिन मुझे अपनी बच्ची के साथ होम क्वारंटाइन रहने के लिए कन्विंस करने की कोशिश करते रहे किंतु कोरोना हैंडलिंग विभाग का ऐसा अमानवीय रवैया रहा कि हम दोनों को बच्ची के साथ ले जाने के लिए एम्बुलेंस भेज दिया। हम और बच्ची हो न जाने पर फोन करने वाले डॉक्टर ने एफ.आई.आर करने की धमकी भी दी। आखिरकार सरकार और जनता के बीच इस बीमारी के प्रति अफवाह को देखते हुए हम लोग होस्पिटलाइज़ होने को तैयार हो गए।</div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial,Helvetica,sans-serif; font-size: small;"><br /></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial,Helvetica,sans-serif; font-size: small;"> जब हमारे कॉलोनी के गेट पर एम्बुलेंस आया तो दिन के 3 बज रहा होगा। एम्बुलेंस ऐसा था जैसे कि उसमें जिंदा आदमी नहीं बल्कि किसी लाश को उठाने आये हों। सीटों पर धूल अटी पड़ी थी। ऑक्सीजन सिलिंडर तो लटका हुआ था किंतु उसका पाइप टूटा हुआ लगा। ड्राइवर से बोलकर सीट साफ कराई और बिटिया के साथ हम दोनों सवार हो गए। हम तीनों को ईएसआई, साहिबाबाद ले जाया गया। हम दोनों काफी परेशान थे लेकिन अपने लिए नहीं बल्कि अपने 2 साल की बिटिया के लिए। मेरा रो-रोकर बुरा हाल हो गया था। ईएसआई के अंदर जिस गार्ड ने हम दोनों का नाम और आधार नंबर दर्ज किया वह हमारे लगभग 10 मीटर की पर खड़ा होकर कागजी खानापूर्ति की और हमें उस गेट के अंदर डाल दिया गया जिसमें पहले से ही 20-25 स्वस्थ लोग मौजूद थे। उन लोगों में जो लोग 60-70 साल के थे वे ही थोड़ा अस्वस्थ थे। हमें कोई संदेह नहीं कि वे अपने उम्र के वजह से थोड़ा अस्वस्थ थे न कि कोरोना के वजह से। जब हम अंदर गए तो न कोई डॉक्टर था और न ही कोई नर्स। हमारी मुलाकात संजय नाम के एक सज्जन मजदूर से मुलाकात हुई जो खुद हमारे ही तरह ज़बरदस्ती पकड़कर लाए गए थे। उनका हँसता चेहरा और खुशमिजाजी से थोड़ा राहत महसूस हुआ। वे ही उस हॉस्पिटल के स्टाफ को 224 नम्बर पर फोन करके दो लोगों का और आने की सूचना दी और हम लोगों को एक कमरे में पड़े बेड को चुन लेने का इशारा किया। हॉस्पिटल में हम दो लोगों की भर्ती तो दर्ज हो गई लेकिन बिटिया का हमारे साथ होने का कहीं भी दर्ज नहीं हुआ। इससे हम और भी चिंतित होने लगे कि उत्तर प्रदेश स्वास्थ्य विभाग इतना लापरवाह क्यों है? जब मैं अपनी बच्ची के साथ होम क्वारंटाइन होने की अपील कर रहे थे तो हम पर एफ.आई.आर. कर देने की धमकी देकर, सेपरेट टॉयलेट बाथरूम न होने का हवाला देकर यहाँ लाया गया जबकि हॉस्पिटल में लेडी और जेन्स का सेपरेट कंबाइन टॉयलेट-बाथरूम है। ऐसा नहीं था कि वहाँ केवल गरीब इलाकों के ही लोग थे। वहां गाज़ियाबाद, वैशाली के अपार्टमेंट में रहने वाले लोग भी आये थे। लेकिन उत्तर प्रदेश स्वास्थ्य विभाग की बेरहमी, लापरवाही और निरंकुशता इसमें थी कि उसे दो साल की बच्ची नजर नहीं आ रही थी जो बिल्कुल स्वस्थ थी। यदि सरकारी मानदंडों के अनुसार वहाँ आए हुए सभी लोग कोरोना इन्फेक्टेड थे तो 2 साल की स्वस्थ बच्ची को इंफेक्शन होना तय था जिसकी परवाह स्वास्थ्य विभाग को नहीं थी। हॉस्पिटल और सरकार की कोरोना हैंडलिंग विभाग की असंवेदनशीलता को देखते हुए हम लोगों ने तय किया कि अब बच्ची के साथ जो भी हो किन्तु इंफेक्शन से बचाया जाना चाहिए और हम लोगों ने उसी शाम एक मित्र की मदद से उसे ग्रेटर नोएडा उसके मौसी के पास भेज दिया। हॉस्पिटल से सभी मरीजों को पाँच दिन की दवा पहले दिन ही पकड़ा दिया जाता है जो हमें भी मिली। पहली खुराक खाने के बाद हम दोनों को लगा कि दवा नुकसान कर रही है और हम दोनों ने उसे लेना बंद कर दिया।</div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial,Helvetica,sans-serif; font-size: small;"><br /></div><p><span face="Arial, Helvetica, sans-serif" style="background-color: white; color: #222222; font-size: small;"> साहिबाबाद ईएसआई काफी बड़ा अस्पताल है। उस हॉस्पिटल के एक हिस्से में जिसमें मरीजों के इलाज के 6 कमरे थे और हर कमरे में 5-6 बेड पड़े हुए थे कैद कर दिया गया है। मरीजों के आने और क्वारंटाइन के 7 दिन तथा कोरोना टेस्ट के दिन को मिलाकर कम से कम 10 दिन होने पर डिस्चार्ज होकर जाने के लिए एक ही दरवाजा है और चारों तरह ब्लॉक कर दिया गया है। डायरेक्ट सूरज की रोशनी की कोई व्यवस्था नहीं है। कोरोना हैंडलिंग में सरकारी विभाग की लापरवाही के बेजोड़ नमूने हैं। मरीजों को कॉल करने के उनके जितने भी सेल हैं जैसे डी एम कोरोना हेल्पलाइन, सी एम कोरोना हेल्पलाइन इत्यादि और हॉस्पिटल के बीच कोई आपसी कोआर्डिनेशन नहीं है। यदि मरीज इनकी लापरवाही और बेहूदगी को गंभीरता से लें तो लगेगा कि सरकारी मानदंडो के हिसाब से जो लोग कोरोना पॉजिटिव हैं, उन्हें मारने या खुद मर जाने के लिए हॉस्पिटल में कैद किया है। हर मरीज के पास उपरोक्त हेल्पलाइन से दिन में कई बार फोन आते हैं लेकिन उन्हें खुद पता नहीं होता कि फला मरीज जिससे बात हो रही है वह अपने घर पर है या हॉस्पिटल में। कॉल करने वाले विभाग को हमारे द्वारा अपडे</span><span face="Arial, Helvetica, sans-serif" style="background-color: white; color: #222222; font-size: small;"></span><span face="Arial, Helvetica, sans-serif" style="background-color: white; color: #222222; font-size: small;"><br />ट दिए जाने के बाद भी अगले दिन हमसे वही बेहूदा सवाल पूछा जाता कि आप कहाँ हैं? आपका ऑक्सीजन लेवल और तापमान क्या है? जबकि ज्यादातर लोगों का केवल भर्ती होने के समय ही ऑक्सीजन लेवल और तापमान लिया जाता था। जो वाकई थोड़ा अस्वस्थ थे उम्रदराज थे या सुगर के मरीज थे बस उनका ही चेक होता था। बाकी लोग किसी तरह दिन गिनकर समय काटते थे। हम व्यक्तिगत तौर पर आश्वस्त नहीं है कि कोरोना वाइरल फीवर कुछ अलग भी है। लेकिन इसका आशंका जरूर है कि इसके नाम पर सारी स्वास्थ्य सेवाएं ध्वस्त की जा रही हैं और इसके बहाने दूसरा कोई इलाज नहीं दिया जा रहा है। कोरोना के मरीजों के हैंडलिंग के नियम में मुझे पता चला कि यदि आप हॉस्पिटल में भर्ती हैं और आपके परिवार में शादी है तो आपको शादी अटेंड करने की छुट्टी मिल जाएगी लेकिन फिर आपको आकर क्वारंटाइन होने के लिए भर्ती होना पड़ेगा लेकिन 2 साल की बच्ची और 72 साल की बुजुर्ग महिला के लिए सरकार और स्वास्थ्य विभाग के पास सुरक्षा का कोई न इंतजाम है और न ही कोई परवाह। क्या फिर भी आपको लगता है कि कोरोना कोई गंभीर बीमारी है? आखिरकार 7 दिसंबर को हम दोनों की क्वारंटाइन की मियाद पूरी हुई और हम दोनों रिहा कर दिए गए। जैसे स्वस्थ गए थे वैसे स्वस्थ तो नहीं नहीं लौटे लेकिन शुकुन यह था कि मेरी बिटिया स्वस्थ</span><span face="Arial, Helvetica, sans-serif" style="background-color: white; color: #222222; font-size: small;"> </span><span face="Arial, Helvetica, sans-serif" style="background-color: white; color: #222222; font-size: small;">थी।</span></p>Devendra Prataphttp://www.blogger.com/profile/04058854873119577592noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2264830081803709796.post-86700583265972015842019-07-28T00:44:00.002-07:002019-07-28T00:44:20.193-07:00जलते मजदूर, सोती सरकार<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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शनिवार को सुबह रोज की तरह फ्रेंडस कॉलोनी गली नं. 4 में चहल-पहल थी। इसी गली में कॉरस बाथ नामक फैक्ट्री है, जो कि पीतल और प्लास्टिक की टूटी बनाने का काम करती है। फैक्ट्री के गेट पर न तो नम्बर लिखा है और ना ही कोई नाम, यानी कोई अनजान व्यक्ति वहां नहीं पहुंच सकता। यही हाल उसी गली के सभी फैक्ट्रियों का है, या यों कहा जाये कि यह सुरते हाल पूरी दिल्ली का है-जहां पर मजदूर को पता नहीं होता कि वह किस कम्पनी में काम करता है और कम्पनी का नम्बर क्या है। वह पहचान के लिए लाल, काला या पीला गेट बताता है। मजदूरों को यह भी जानने का हक नहीं होता है कि वे किस कम्पनी के लिए मॉल तैयार करते हैं। इसकी चिंता न तो श्रम मंत्री को है और न ही श्रम अधिकारियों को, जिसके लिए उन्हें हर महीने मोटी रकम मिलती है।</div>
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कॉरस फैक्ट्री में रोजना की तरह 13 जुलाई, 2019 (शनिवार) को भी मजदूर भागते हुए फैक्ट्री पहुंच रहे थे। कुछ मजदूर पहुंच चुके थे और अपनी काम करने की तैयारी में थे। इन्हीं मजदूरों में संगीता, मंजू और सुहेल भी थे, जो रोज की तरह अपने घरों से निकले थे कि शाम को वे फिर वापस घर आ जाएंगे। मंजू, लोनी (एकता बिहार) में रहती है और ट्रेन से ड्युटी पर आती थी। लेकिन उस दिन ट्रेन देर होने के कारण वह बेटे के साथ बाईक से आ गई। उनको मालूम था कि आधे घंटे की देर भी महीने में मिलने वाली पगार में कमी ला सकता है, जिससे परिवार चलाने में मुश्किल हो सकती है। संगीता बिहार के नालन्दा जिले से है और अपने पति के साथ वह कृष्णा बिहार (जिला गाजियाबाद) में किराये के मकान में रहती थी। संगीता के तीन बच्चे हैं, जिनको वह गांव पर ही रख कर पढ़ाती थी। वह 9-10 साल से कॉरस फैक्ट्री में काम करती थी। संगीता रोजाना दो टैम्पू बदल कर फैक्ट्री पहुंचती थी, जिसके बदले उसे 8,500 रू. महीने की पगार मिलती थी। संगीता टाइफाइड बुखार से पीड़ित थी तो कुछ दिन तक वह 1 घंटा देर से फैक्ट्री पहुंच रही थी, लेकिन उस दिन बच्चों को पैसा भेजने के लिए जल्दी ही फैक्ट्री पहुंच गई थी।</div>
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संगीता के साथ 10 साल से काम करने वाली कुसुम पटना जिले से हैं और कृष्णा बिहार में ही रहती हैं। वह बताती है कि सन् 2010 से वह इस कम्पनी में 2,400 रू. पर काम पर लगी थी जो अभी जून 2019 में 6,100 रू. बढ़कर 8500 रू. हो गई थी। इसी फैक्ट्री में संगीता, कुसुम से एक माह पहले से इस फैक्ट्री में काम करती थी। ये लोग पहले कृष्णा बिहार के गली नं. 12 में ही काम करते थे जहां पर कॉरस फैक्ट्री की एक और यूनिट चलती है। 2015 से यहां से कुछ लोगों को झिलमिल की फ्रेंडस कॉलोनी गली नं. 4 की दूसरी यूनिट में शिफ्ट कर दिया गया, जहां पर भट्ठी से लेकर मॉल तैयार करने और पैकिंग तक काम होता है। कृष्णा बिहार से झिलमिल पहुंचने में करीब इनको एक घंटा लग जाता था और 40 रू. रोज का खर्च होता था। कुसुम बताती हैं कि इस फैक्ट्री में करीब 300 मजदूर काम करते थे, जिनमें से 50-60 महिला मजदूर थी। इनमें से 3-4 महिला के पास ही ईएसआई कार्ड और पीएफ कार्ड है और पैकिंग डिर्पाटमेंट में एक ही महिला का ईएसआई कार्ड था, जो कि 2003 से काम करती हैं। फैक्ट्री में सप्ताहिक छुट्टी और कुछ सरकारी छुट्टी ही मिलती थी। इसके अलावा कोई भी छुट्टी करने से पैसा कट जाता था। फैक्ट्री का समय सुबह 9 से शाम 5.30 बजे तक है। सुबह 9.15 से लेट होने पर पैसे कटते थे। कुसुम बताती हैं कि मालिक अच्छा था और वह 10 तारीख को तनख्वाह और 25 को एडवांस दे देता था। महिलाएं अगर खड़ी होती थीं तो उनको पहले पैसा देता था। संगीता, कुसुम जैसे दिल्ली के लाखों मजदूरों के लिए अच्छा मालिक होने का मतलब है कि समय से पैसा दे देना, यानी दिल्ली में मजदूरों को अपना पैसा भी समय से नहीं मिलता है।</div>
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कुसुम बताती हैं कि वह चौथी मंजिल पर काम करती थी और संगीता तीसरी मंजिल पर। सुबह हमलोग अपने काम पर लगे ही थे कि धुंआ ऊपर आने लगा। संगीता मेरे पास आई और कही कि पता नहीं धुंआ कहां से आ रहा है और हमें लेकर वह नीचे वाली फ्लोर पर आ गई। हम चार महिलाएं दूसरी मंजिल के फ्लोर पर आकर ऑफिस वाले केबिन में चले गये कि यहां ए.सी. चलता है तो धुंआ नहीं लगेगा। लेकिन ए.सी भी बंद थी और दफ्तर में धुंआ भरने लगा। कुसुम चिल्लाने लगी - ‘‘हमारा प्राण चला जायेगा, मेरा बच्चा का क्या होगा’’? संगीता, कुसुम को हिम्मत दे रही थी और अपनी भाषा में बोल रही थी कि ‘‘बहिनी का करीयो, जो लिखल होई वहीं होई, निकल जाओ’’ (बहन क्या कर सकती हो जो लिखा होगा वो होगा, हम लोग निकलते हैं)। चारं महिलाएं नीचे आ रही थी, एक दूसरे को पकड़े हुए। उसमें संगीता की बहन की बेटी भी थी। कुसुम बताती है कि संगीता को कुछ याद आया और वह ऊपर चली गई। हम किसी तरह बाहर निकले, संगीता बाहर नहीं आ पाई। इस हादसे में संगीता, मंजू और सुहेल की दम घुटने से जान चली गई। कुसुम अभी सदमे है और वह संगीता की लाश को भी नहीं देखना चाहती। बस वह याद कर रही है कि किस तरह संगीता उसको हिम्मत देते हुए बाहर निकलने के लिए कह रही थी।</div>
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संगीता के रिश्तेदार बताते हैं कि संगीता का पति शराबी था और वह अपनी कमाई पूरा खर्च कर जाता था। संगीता ही बच्चों की देख-भाल के लिए पैसा जुटा कर गांव भेजती थी और वह बहुत ही मिलनसार स्वभाव की थी। पोस्टमार्टम होने के बाद लाश जब एम्बुलेन्स में रखी गई तो मालिक की तरफ से संगीता के परिवार को 10 हजार, मंजू के परिवार को 7 हजार और सुहेल के परिवार को 5 हजार रू. अंतिम संस्कार के लिये दिये गये और किसी तरह का आश्वासन नहीं दिया गया। कुसुम कहती हैं कि मालिक पैसा नहीं देगा, वह छुट्टी का भी पैसा नहीं देगा। कुसुम कहती हैं -‘‘उस फैक्ट्री में दुबारा जाने का दिल नहीं करता है, लेकिन बच्चे पालने हैं -जब मालिक बुलायेगा तो जाना ही पड़ेगा, क्योंकि दूसरी जगह काम करने पर 4-5 हजार रू. ही मिलेंगे। मेरी हाथ एक्सीडेंट में कमजोर हो गयी है तो दूसरे जगह काम मिलने में भी मुश्किल होगी। वहां पुरानी थी तो हमें काम का आइडिया है तो मैं काम कर लेती हूं‘‘।</div>
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दिल्ली में आग लगने और मजदूरों की जान जाने की न तो यह पहली घटना है और ना ही आखिरी। इससे पहले कुछ ही सालों में आग लगने के कई बड़े-बड़े हादसे हो चुके हैं, जिसमें सैकड़ों मजदूरां की जानें जा चुकीं हैं। बवाना, नरेला, पीरागढ़ी, शादीपुर, सुल्तानपुरी, मुंडका आदि जगहों पर आग लगने से मजदूरों की जानें जा चुकीं हैं और प्रशासन लाशें गिनने और अवैध वसूली करने में लगा हुआ है। फ्रेंड्स कॉलोनी गली नं. 1 में 14 जुलाई को आग लगने की घटना हुई थी। इससे दो माह पहले इसी गली में आग लगी थी। दिल्ली के आधुनिक कहे जाने वाले इंडिस्ट्रयल एरिया बवाना, नरेला और भोरगढ़ में औसतन प्रतिदिन एक से दो फैक्ट्री में आग लगती है, जैसे कि बवाना में 2017 अप्रैल से 2018 मार्च तक 465 फैक्ट्रियों में आग लगी, उसी तरह नरेला में यह संख्या 600 से अधिक है। बवाना में अक्टूबर, 2017 में लगी आग में 17 मजदूरों की जानें चली गईं थीं, उसके बाद भी दर्जनों मजदूर आग लगने से मर चुके हैं।</div>
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मंडोली के उस श्मसान घाट, जहां पर संगीता का पार्थिव शरीर को लिटाया गया था, एक श्लोक लिखा हुआ था -</div>
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‘‘मानुष तन दुर्लभ है, होय ना दूजी बार।।</div>
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पक्का फल जो गिर पड़े, बहूरी ना लगे डारि।।’’</div>
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यह श्लोक जहां इंगित करता है कि मनुष्य का शरीर दुबारा नहीं मिलता है वहीं पर मुनाफाखोरों के लिए इस शरीर की कोई कीमत नहीं है। एक शरीर खत्म होते ही दूसरा शरीर के शोषण के लिए मुनाफाखोर तैयार रहता है। जहां इस अमानवीय बर्ताव के लिए मुनाफाखोर पूंजीपतियों पर कड़े कानून लाकर शिकंजा कसने की जरूरत थी वहीं पर सरकार श्रम कानूनों में बदलाव कर और भी अमानवीय तरीके से मजदूरों के शोषण की छूट दे रही है। शासन-प्रशासन मजदूरों की लाशों पर पैसा उगाही का काम करते हैं। अगर हम देखें तो हालिया घटना में किसी भी मालिक को कोई सजा नहीं हुई है। एक दिखावटी कानूनी खाना-पूर्ति करने के बाद उनको छोड़ दिया जाता है और वे दुबारा से मजदूरों के खून पीने के लिए तैयार रहते हैं। उनकी लूट का एक हिस्सा शासन-प्रशासन और सरकार में बैठे लोगों तक पहुंचता है। आखिर हम कब तक इस तरह के अमानवीय शोषण को बर्दाश्त करते रहेंगे? क्या हमारे पास इससे छुटकारा पाने के लिए कोई हथियार नहीं हैं? कब तक सरकार सोती रहेगी और मजदूरों को लूटने वालों को संरक्षण देती रहेगी? मंजू, संगीता और सुहेल की मौत की जिम्मेवारी किसकी है, इसके लिए किसको सजा मिलेगी?</div>
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Devendra Prataphttp://www.blogger.com/profile/04058854873119577592noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2264830081803709796.post-61976070426097186742019-03-16T13:05:00.000-07:002019-03-16T13:05:09.739-07:00धनंजय शुक्ल की कहानी *ढाबा *<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
नगीना में रेलवे क्रासिंग से थोड़ा पहले एक ढाबा है, जिस पर ढाबा जैसा कुछ नही लिखा है, उसकी पहचान भी ढाबे जैसी नही है। उस पर दो बूढ़े सरदार रहते हैं। दोनों भाई हैं। दोनों हर दिन एक ही तरह के कपड़े पहनते हैं। ढाबा धुंआ से बिल्कुल काला हो गया है। वे साफ सुथरे सरदारों की तुलना में गंदे दिखते हैं, लेकिन हैं नही। उस पर खाना देने वाले या बर्तन धुलने वाले लड़के कभी लड़के रहे होंगे, लेकिन अब सब अधेड़ हैं। असल में ढाबे के बगल में ही, एक हर तरह की गाड़ियों के पंचर जोड़ने वाला बिहारी भी दुकान खोले हुए है, बाद में पता चला कि उसका असली मिस्त्री एक बंगाली है। अंदर बैठने की जगह पर उसने लोहे की कुर्सियां, और चारपाइयाँ डाल रखी हैं, अजीब एंटीक टाइप का माहौल रहता है। एक भूत टाइप का आदमी टहलता हुआ आया, उसने जब सलाद और चटनी सामने रखी तो वह चटनी को देखता ही रह गया, अभी दाल रोटी आने में देर थी तो उसने चटनी को मूली में लगा के चखा। तभी बेवजह ही उसके दिमाग में एक बूढ़ी सरदारनी का चेहरा घूम गया जो किसी बच्चे को चटनी रोटी खिला रही थी। जबकि वह पूर्वजन्म को नही मानता, कल्पना को कल्पना की तरह देख लेता है, अनुभव में उसने किसी सरदारनी को देखा नही। उसे लगा दिमाग के पर्दे पर उस चटनी के माध्यम से कोई उतरा था। कारण कुछ भी हो ! बाद में उस बूढ़े सरदार से बात करते हुए पता चला कि यह चटनी उसकी नानी ने उसे बनाना सिखाया था। उसकी नानी, लाहौर के पास के एक गांव की थीं,और बाबा, गुरुदास पुर में रहते थे।उसको अपना बचपन याद आ गया था। आजादी के पहले का गुरुदास पुर , यह उसकी आँखों में तैर रहा था। किसी बूढ़े की आँख में उसके बचपन की स्मृतियों से पैदा हुए भाव को तैरते हुए देखना, एक बहुत अलग अनुभव है ! असल में उसे सरदारों को देखने पर जो चीजें याद आती थीं, उनमें पाकिस्तान और भारत का बंटवारा तो आता ही था उसके अलावा गुरुनानक के साथ बाकी सभी गुरुओं का नाम भी ख्याल में आ जाता था। उसने अपने कस्बे में सरदार की कैसेट की दुकान पर सबसे पहले किसी सरदार को देखा था, उसे उस दौर के तमाम गानों की याद आयी, वह लिस्ट भी, जिसे कैसेट में भरने के लिए सरदार को दी थी। उसे अजीब लगता है वो जिस भी चीज को देखता है उससे उसका इतिहास झांकने लगता है। वह उन सरदारों को देखता है बड़ा भाई ज्यादा शांत है, उसके दुख के अनुभव ज्यादा लगते हैं, वो सीधा भी है। सीधा तो दूसरा भी है लेकिन वो थोड़ा बेहतर हिसाब किताब कर लेता है। दोनों बचपन के खेल की तरह ढाबा चलाते हैं। दोनों की पत्नियां खत्म हो गयी हैं। लड़के और नाती पोते बड़े महानगरों में बस गए हैं, एक तो विदेश चला गया है। वे गरीब नही हैं,लेकिन गरीबों के साथ रहते हैं। उनके पास लकधक देखकर आने वालों की संख्या नगण्य है, जो उसके स्वाद को जानते हैं वे ही उसके पास आते हैं। वे बताते हुए यह भी बताते हैं कि शुरुवात में उन्होंने अपना ढाबा कलकत्ता में खोला था, यह आजादी के तुरंत बाद की बात है। वह बंगलादेश बनने तक वहाँ थे। उसके बाद वे हरिद्वार चले आये थे। उन लोगों ने बताया कि वे लोग कई बार उजड़े और बसे हैं ! और यह ढाबा तो उन्होंने पचीस साल पहले इस क्रासिंग पर खोला था, तब यहां कोई नही रहता था, अब तो यह शहर के बीच में आ गया। उसे वे दोनों आदमी से ज्यादा किसी बड़े पेड़ की तरह लग रहे थे, जो ठूंठ में बदलते जा रहे थे, लेकिन आपस में बहुत बढ़िया संवाद की वजह से बीच-बीच में हरे भी हो जाते थे।</div>
Devendra Prataphttp://www.blogger.com/profile/04058854873119577592noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2264830081803709796.post-48182983207667355952019-03-08T04:49:00.000-08:002019-03-08T04:49:29.996-08:00'भारतीय चिंतन परंपरा' से गायब कर दिए गए हैं फुले, पेरियार और अंबेडकर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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(युवा सामाजिक कार्यकर्ता नन्हेलाल द्वारा के. दामोदरन की पुस्तक 'भारतीय चिंतन परंपरा'</div>
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की संक्षिप्त आलोचना)</div>
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भारत के आधुनिक विचारकों में प्रमुख तीन शख्सियतों को हमें गिनाना हो तो ज्योतिबा फूले, रामासामी पेरियार और डॉक्टर भीमराव अंबेडकर होंगे । लेकिन आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि के. दामोदरन की किताब 'भारतीय चिंतन परंपरा' में उपरोक्त तीनों नायकों का कहीं भी चर्चा तक नहीं है । लेखक ने अपनी पुस्तक में जिन आधुनिक विचारकों की चर्चा की है वह निम्न है-</div>
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★ राजा राममोहन राय</div>
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★ स्वामी विवेकानंद</div>
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★ रविन्द्र नाथ ठाकुर</div>
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★ इकबाल</div>
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★ महात्मा गांधी</div>
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★ जवाहरलाल नेहरू</div>
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दुनिया में आधुनिक समाज का आगाज यूरोप में औद्योगिक क्रांति के साथ हुआ। इसकी वैचारिक पृष्ठभूमि यूरोप के पुनर्जागरण (1400-1650) ईसवी और प्रबोधन(ज्ञानोदय) 1650-1780 ईसवी में ही रख दी गई थी। इस दौर में यूरोप में इस कदर खलबली मची हुई थी कि पूरा समाज उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था। एक तरफ तो पुरानी सामंती व्यवस्था जो मुख्यतः कृषि अर्थव्यवस्था पर निर्भर थी और सामाजिक व्यवस्था पर राजे रजवाड़ों और धर्म की ताकत का बोलबाला था। इसी के गर्भ से जन्मा दस्तकारी और इसका हमसफर वैज्ञानिक चिंतन ने पुरानी व्यवस्था को ध्वस्त करने का आंदोलन तूल पकड़ लिया । धर्म की ईश्वरीय सत्ता को चुनौती दी जाने लगी और हर चीज को तर्क की कसौटी पर कसा जाने लगा। मानव मात्र को केंद्र में रखकर हर घटनाएं और इतिहास परखा जाने लगा। यूरोप ज्ञान के मामले में इतना अधैर्य था कि दुनिया के हर संभव कोनों से संपर्क स्थापित करने की कोशिश की और साथ ही अब तक के लिखित इतिहास को खंगालने में जाने में जुटा रहा। ठीक इसी वक्त दुनिया के तमाम देश धीरे-धीरे ब्रिटेन के उपनिवेश भी बने। पुनर्जागरण और प्रबोधन हर अतार्किक चीज को नकारा और इंसान केंद्रित स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व इसका प्रमुख नारा बन गया। ज्ञानोदय के इसी आभामंडल ने विज्ञान को कुलांचें भरने की जमीन मुहैया कराया।</div>
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जब एक तरफ यूरोप आगे बढ़ रहा था तब भारत जैसे तमाम देश यूरोपी देशो के उपनिवेश बन रहे थे और गुलाम देशों के शोषण से यूरोप को आगे बढ़ने का ईंधन मुहैया हो रहा था। यूरोप अपनी दासता के पुराने बेड़ियों को तोड़ रहा था जो कृषि आधारित सामाजिक संरचना से उपजे थे। दूसरी तरफ औधोगिक क्रांति मानवता की दासता की नई बेड़ियों को अपने साथ लिए हुए था । कहने का मतलब है कि औद्योगिक समाज को अपने नई दासता की बेड़ियों से अभी उसे कोई आभास नहीं था। लेकिन सामंती दासता को वह अब बर्दाश्त नहीं कर सकता था जो मानव समाज की स्वभाविक गति से उपजी थी।</div>
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भारत में आधुनिक विचार ब्रिटेन के खिलाफ मुक्ति संघर्ष के दौरान ही अपना आकार ग्रहण किया। भारत ब्रिटेन का गुलाम बनने से पहले यूरोप और पश्चिम एशिया के आक्रमणकारियों से हर हमेशा तहस-नहस होता रहा ।भारतीय उपमहाद्वीप की स्वाभाविक सामाजिक संरचना को देखें तो यह अनेक रियासतों में बटा हुआ था और वर्ण व्यवस्था की जकड़न कहीं अधिक तो कहीं कम थी जो कृषि अर्थव्यवस्था पर टिकी हुई थी। यदि भारतीय सामंती समाज को आधुनिक समाज में बदलना था तो उसे पुरानी वर्ण व्यवस्था की सामाजिक संरचना को ध्वस्त कर देना था और इसकी दासता से मुक्त होकर औद्योगीकरण में पदार्पण करना था किंतु ब्रिटेन के उपनिवेश हो जाने के कारण यह स्वाभाविक गति अवरूद्ध हो गई।</div>
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के. दामोदरन ने जिन भारतीय आधुनिक विचारों का नाम गिनाया है वह भारत के वर्ण व्यवस्था में ही पले बढ़े थे और उन्हीं पुरानी मूल्यों मान्यताओं के साथ खड़े थे। एशियाई महाद्वीप में यूरोप जैसा पुनर्जागरण और प्रबोधन का सामाजिक उथल पुथल नहीं हुआ जो इस पूरे महाद्वीप को अपने आगोश में ले सकें और औद्योगिक समाज के नए मुल्यों से मानव समाज को सराबोर कर दे। लेकिन इस तथ्य से कौन इनकार कर सकता है कि इस जमीन पर अलग-अलग काल खंडों में वर्ण व्यवस्था को जबरदस्त चुनौती मिली थी। बौद्ध धर्म तो ब्राह्मणवाद के खिलाफ ही संघर्ष करते हुए खड़ा हुआ था। लेकिन वर्ण व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष इस पूरे उपमहाद्वीप को एक सूत्र में नहीं पिरो पाया। वर्ण व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष की निरंतरता अंग्रेजी शासन के खिलाफ संघर्षों के दौरान ज्योतिबा फुले, पेरियार और अंबेडकर में दिखाई देती है। चिन्हित करना कठिन नहीं है कि राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानंद, रविंद्र नाथ ठाकुर, इकबाल, महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू भारत के आधुनिक विचारों की श्रेणी में नहीं आ सकते जो किसी न किसी रूप में सामंती समाज की सामाजिक संरचना वर्ण व्यवस्था की आलोचना तो करते हैं किंतु इसके पूर्ण खात्मे की बात कतई नहीं करते।</div>
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अब हम आते हैं 'भारतीय चिंतन परंपरा' के लेखक के. दामोदरन के दृष्टि भ्रम पर। इस बात से इनकार करना बेमानी होगी कि लेखक मार्क्सवादी विज्ञान से परिचित नहीं है जो दुनिया के पैमाने पर अब तक उपलब्ध मानव समाज के विश्लेषण का अचूक हथियार साबित हो चुका है। आखिर लेखक ने आधुनिक विचारक के लिए क्या मानदंड बनाया है?</div>
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क्या आधुनिक विचारक उन्हें मान लिया जाए जो पुराने मूल्यों मान्यताओं या मूल रूप से कृषि अर्थव्यवस्था पर टिकी सामाजिक संरचना वर्ण व्यवस्था के पैरोकार होते हुए भी औद्योगिक समाज के मूल नारे स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को भी स्वीकार कर ले?</div>
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यदि भारतीय समाज का स्वाभाविक विकास होता और वर्ण व्यवस्था के खिलाफ निर्णायक संघर्ष अपने मुकाम को हासिल करता तो क्या ये तथाकथित आधुनिक विचारक सभ्यता के दोनों नावों पर सवार रहते?</div>
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मेरा मानना है कि ऐसा नहीं होता तो फिर इन्हें आधुनिक विचारक कैसे मान लिया जाए?</div>
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यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि के. दामोदरन ने भारतीय समाज को समझने के लिए ऐतिहासिक भौतिकवाद का इस्तेमाल करने में चूक की है । मार्क्स के शब्दों में 'अब तक का ज्ञात (लिखित) मानव इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास है', तो भारत में भी सनातन परंपरा के खिलाफ भौतिकवादी परंपरा हर हमेशा मौजूद रही होगी; जो लोकायत/ श्रमण परंपरा थी। भारत में प्राचीन काल से ही हर दौर में सनातनी परंपरा के खिलाफ लोकायत/ श्रमण परंपरा हमेशा चुनौती के रूप में खड़ी रही है । इसे मुखर रूप से चिन्हित करने और तथ्यों को सामने लाने में श्रेय बहुजन चिंतकों और लेखकों को दिया जाना चाहिए जिन्होंने धर्म ग्रंथों से भी इस संघर्ष परंपरा के सार को अपनी लेखनी के माध्यम से जनता तक पहुंचा रहे हैं। लेखक के पक्ष में यदि हम यह मान भी लें कि ब्राह्मणवादी बहुत ही आक्रामक थे और श्रमण परंपरा के नायकों और उनके लिखित दस्तावेजों को नष्ट कर देते थे तो भी ऐतिहासिक भौतिकवाद पर पकड़ रखने वाले चिंतक का दृष्टि भ्रम स्वाभाविक नहीं लगता। वह इसके साक्ष्यों को अन्य स्रोतों में भी तलाश करेगा , वह दुश्मन के साहित्य में भी ढूंढने की कोशिश करेगा।</div>
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मेरा मानना है लेखक ने यूरोप के सामाजिक संरचना को भारतीय समाज पर आरोपित करने का प्रयास किया है और जाति व्यवस्था के प्रश्न से बचने की कोशिश की है । जाति व्यवस्था ऐसा जटिल सा दिखता है जिसमें श्रमिक वर्ग का भी कई संस्तरों पर विभाजन सा प्रतीत होता है। किंतु यह स्थिति बाद की है जबकि प्राचीन और मध्य काल तक तो शुद्र और अछूत जातियां ही सर्वहारा वर्ग के रूप में मौजूद रही होंगी। लेकिन यह प्रश्न चाहे जितना भी जटिल हो इससे किनाराकशी करने पर सनातन परंपरा के खिलाफ श्रमण परंपरा की पूरी क्रांतिकारी विरासत ही आंखों से ओझल हो जाती है और क्रांतिकारी विरासत के रूप में हम हंसिया हथौड़ा लेकर शून्य में टटोलते नजर आते हैं । इस दृष्टि भ्रम का ही नतीजा है कि ब्राह्मणवाद का ही मानवीय चेहरा के रूप में निकला आर्य समाज, ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज इत्यादि को मानने वाले जो जाति व्यवस्था में थोड़ा सुधार तो चाहते हैं पर उसका विनाश कतई नहीं चाहते और उन्हें ही हम आधुनिक विचारक घोषित करने में लगे हुए हैं।</div>
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Devendra Prataphttp://www.blogger.com/profile/04058854873119577592noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2264830081803709796.post-81995638187132665422019-03-04T04:13:00.002-08:002019-03-04T04:28:16.175-08:00जंग नहीं अमन चाहिए, मज़दूरों को अधिकार चाहिए<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
दिल्ली, 3 मार्च। मज़दूर वर्ग पर बढ़ते हमलों के खिलाफ देश के विभिन्न हिस्सों से पहुँचे हजारों मजदूरों ने राजधानी दिल्ली के संसद मार्ग पर अपनी आवाज़ बुलंद की।<br />
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मजदूर अधिकार संघर्ष रैली के तहत दिल्ली के रामलीला मैदान में एकत्रित हुए मजदूरों का यह कारवां संसद भवन के लिए कूच किया। अपनी मांगों को बुलंद करते हुए संसद भवन के पास जोरदार सभा की। 17 सूत्री मांगों को लेकर मजदूर अधिकार संघर्ष अभियान (मासा) के आह्वान पर आज देश के विभिन्न हिस्सों से मजदूर जुटे थे। मोदी सरकार द्वारा श्रम कानूनों में किए जा रहे बदलाव के खिलाफ, 25000 रुपए मासिक न्यूनतम मजदूरी करने, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के हक हकूक, महिलाओं के अधिकार, फिक्सड टर्म, नीम ट्रेनी के नाम पर मजदूरों की नौकरियों की प्रकृति में हो रहे परिवर्तन, स्थाई रोजगार खत्म करने के खिलाफ, सम्मानजनक रोजगार और रोजगार नहीं मिलने तक ₹15000 बेरोजगारी भत्ता देने, समान काम का समान वेतन देने, मनरेगा मजदूरों और अलग-अलग सेक्टर के मजदूरों के हक के लिए, अन्यायपूर्ण सजा झेलते मारुति, प्रिकाल, गर्जियानो के मज़दूरों की रिहाई व दमन सहित 17 सूत्री मांग पत्र पर आवाज़ बुलंदी हुई। इसके साथ ही धर्म, जाति व राष्ट्रीयता के नाम पर बढ़ते उन्माद पर भी जबरदस्त हमला बोला गया।<br />
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रैली में भाग लेने के लिए आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटका, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, उड़ीसा, बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, केरल, असम, दिल्ली-एनसीआर आदि राज्यों सहित देश के विभिन्न संघर्षशील मजदूर संगठनों के नेतृत्व में मजदूरों का कारवां दिल्ली पहुंचा था।<br />
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सभा मे वक्ताओं ने कहा कि मोदी सरकार आने के बाद मजदूर मेहनतकशों पर हमले और तेज हुए हैं। पूंजीपतियों के हित में श्रम कानून में परिवर्तन किया जा रहा है। नई उदारवादी आर्थिक नीतियों के चलते हर क्षेत्र में स्थाई नौकरी की जगह पर ठेका प्रथा अपरेंटिस, ट्रेनी का दबदबा बढ़ा है। मजदूरों को ट्रेड यूनियन का और सामूहिक मांग पत्र पर सम्मानजनक समझौता करने के अधिकार का हनन हो रहा है। मजदूरों पर काम का बोझ बढ़ता जा रहा है। पूंजीपतियों द्वारा श्रम कानूनों का खुला उल्लंघन किया जा रहा है । गैरकानूनी तालाबन्दी, क्लोज़र, ले-ऑफ, छंटनी व मनरेगा में वार्षिक बजट कम कर मजदूरों को बेरोजगार किया जा रहा है। मजदूरों के हर अधिकार को कुचलने के लिए सरकारें दमन तेज कर रही हैं। इससे भटकाने के लिए साम्प्रदायिक व जातिवादी हमले बढ़े हैं। अंध राष्ट्रवाद का जुनूनी माहौल भयावह रूप ले रहा है। इनके खिलाफ एक जुझारू आंदोलन खड़ा करना आज मज़दूर वर्ग का प्रमुख कार्यभार बन गया है।<br />
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ज्ञात हो कि केंद्र तथा विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा लागू किए जा रहे नव उदारवादी नई आर्थिक नीतियों के साथ समझौताहीन जुझारू संघर्ष व देश में मजदूर आंदोलन का एक वैकल्पिक ताकत खड़ा करने की जरूरत के लिए मजदूर अधिकार संघर्ष अभियान (मासा) का गठन हुआ था, जिसमें देश के अलग-अलग राज्यों से 15 से ज्यादा घटक संगठन शामिल हैं।<br />
ट्रेड यूनियन सेंटर ऑफ इंडिया (TUCI) से संजय सिंघवी, स्ट्रगलिंग वर्कर्स कोआर्डिनेशन कमेटी, वेस्ट बंगाल (SWCC) से कुशल देवनाथ, ग्रामीण मजदूर यूनियन, बिहार से अशोक कुमार, इंडियन सेंटर ऑफ ट्रेड यूनियन्स (ICTU) से नरेंद्र, इंडियन फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियन्स ( IFTU) से एस बी रॉव, आईएफटीयू (सर्वहारा) से अजय कुमार, इंकलाबी केंद्र पंजाब से सुरिंदर, इंकलाबी मजदूर केंद्र (IMK) से श्यामबीर, जन संघर्ष मंच हरियाणा से फूल सिंह, मजदूर सहयोग केंद्र, गुड़गांव से राम निवास, मजदूर सहयोग केंद्र, उत्तराखंड से मुकुल, श्रमिक शक्ति, कर्नाटका से वरदा राजेन्द्र, सोशलिस्ट वर्कर्स सेंटर, तमिलनाडु से सतीश, ऑल इंडिया वर्कर्स काउंसिल(AIWC) से शिवजी राय के अलावा मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन से अजमेर, डाइकिन एयरकंडीशनिंग से मनमोहन, चायबागान संग्राम समिति दार्जलिंग से आशा प्रधान, भगवती प्रोडक्ट्स माइक्रोमैक्स से सूरज ने बातें रखीं। संचालन अमिताभ, स्वदेश कुमारी, आर मन्सिया, अजित और एम श्रीनिवास ने किया।</div>
Devendra Prataphttp://www.blogger.com/profile/04058854873119577592noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2264830081803709796.post-62308140429834071712019-02-28T00:57:00.001-08:002019-02-28T00:57:09.375-08:00पंछी, दरिया, पवन के झोंके। कोई सरहद न इन्हें रोके<iframe allowfullscreen="" frameborder="0" height="270" src="https://www.youtube.com/embed/1PmJvkGl_7s" width="480"></iframe>Devendra Prataphttp://www.blogger.com/profile/04058854873119577592noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2264830081803709796.post-81213480123595341742019-02-12T20:14:00.000-08:002019-02-12T20:22:54.349-08:00बर्फबारी में फंसी गर्भवती महिला की जान<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://youtu.be/7agkc1T7mdM">https://youtu.be/7agkc1T7mdM</a></div>
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⛑⛑⛑⛑(इस खबर का वीडियो देखने के लिए दिए गये लिंक पर क्लिक करें)⛑⛑⛑⛑</div>
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पुंछ जिले की मंडी तहसील के डन्ना गांव की रहने वाली महिला को प्रसव पीड़ा होने पर उसके परिवार के लोग पांच फुट बर्फबारी में पांच किलोमीटर तक महिला को कंधे पर बैठा कर लोरन स्थित स्वास्थ्य केंद्र पहुंचे थे। जिन लोगों के पास हमारे प्रधानमंत्री की तरह का 56 इंच का सीना नहीं है, उनको शायद पता न हो कि एलओसी से सटे इलाकों में डॉक्टर नदारद हैं। हमारे प्रधानमंत्री का दिमाग तो शायद उनके 56 इंच के सीने में ही है, इसीलिए उनको सब पता रहता है। उनकी बुद्धि जीएसटी, फसल बीमा योजना, राफेल डील के साथ पाकिस्तान को सबक सिखाने में भी नजर आती है। उनकी बुद्धि का ही कमाल है कि बार्डर से सटे इलाके कमोवेश डॉक्टर विहीन हो गए हैं। शायद उनको लगता है कि यहां के लोग इतने मजबूत हैं कि उनका पाकिस्तान या कोई बीमारी कुछ नहीं बिगाड़ सकती है। शायद वे महिलाओं को भी इतना मजबूत मानते हैं कि वे प्रसव पीड़ा को झेल कर बहुत आसानी से बच्चे को जन्म दे सकती हैं। वैसे आपको दाद देनी होगी कि भले ही उन्होंने शादी न की हो लेकिन वे इस विषय पर भी कमाल की बुद्धि रखते हैं।<br />
बहरहाल, वापस विषय पर आते हैं। जब गर्भवती महिला को अस्पताल पहुंचाया गया तो वहां डॉक्टर तो था नहीं। एक अदद स्टाफ ही था। उसने महिला के परिवार वालों को नेक सलाह दी कि वे बिना देर किए उसे मंडी उपजिला अस्पताल ले जाएं, जो वहां से करीब 15 किलोमीटर पड़ता है। अब सोचिए उस परिवार पर क्या बीती होगी, जो पांच फुट बर्फ में पांच किलोमीटर तक गर्भवती महिला को कंधे पर बैठा कर और उसे ठंड से बचाते हुए अस्पताल पहुंचा था। आखिरकार उन्होंने पुलिस को फोन किया और समस्या बताई। पुलिस ने तुरंत मंडी में पीडब्ल्यूडी मेकेनिकल विंग के कार्यपालक इंजीनियर कमल ज्योति शर्मा को फोन कर मदद करने की अपील की। इंजीनियर तुरंत अपना वाहन निकाला और एक स्नोकटर मशीन को अपने वाहन के आगे लगाया। आगे-आगे मशीन बर्फ हटाते हुए आगे बढ़ रही थी और पीछे-पीछे इंजीनियर शर्मा चल रहे थे। दरअसल सारी बर्फ हटाने वाली सारी मशीनें दूरदराज के इलाकों में बर्फ हटाने के काम में लगाई गई थीं। ऐसे में इंजीनियर को एक स्नोकटर मशीन मिली। उन्होंने पहले सोचा कि मंडी से वे बर्फ हटवाते हुए लोरन पहुंचेंगे और उसे अपनी गाड़ी में बैठा कर मंडी उपजिला अस्पताल लेकर आएंगे। इसी बीच उन्हें ध्यान आया कि एक स्नोफ्लोवर मशीन लोरन में भी तैनात की गई है। उन्होंने आगे बढ़ते हुए स्नोफ्लोवर मशीन के चालक को फोन लगाया। फोन नहीं मिला। फिर मिलाया और मिलाते रहे। क्योंकि उनको लग रहा था कि महिला को प्रसव पीड़ा हो रही है, ऐसे में कहीं ज्यादा समय न लग जाए। आखिरकार फोन चालक को लग गया। उन्होंने चालक को महिला को लेकर मंडी की तरफ रवाना होने को कहा और खुद भी उधर बढ़ते रहे। चालक ने स्नोफ्लोवर मशीन की केबिन में गर्भवती महिला और उसके परिवार के सदस्यों को बैठाया और आगे की 15 किलोमीटर की यात्रा पर निकल पड़ा। पूरे रास्ते पांच फुट बर्फ जमा थी, ऐसे में वह मशीन से बर्फ हटाते हुए आगे बढ़ रहा था। उधर इंजीनियर साहब भी लोरन की तरफ बर्फ हटाते हुए बढ़ रहे थे। आखिरकार स्नोफ्लोवर मशीन का चालक ने गर्भवती महिला और पूरी सलामती के साथ अस्पताल पहुंचाने में सफल रहा। इस तरह उसने बड़ी विकट परिस्थिति में गर्भवती महिला और उसके बच्चे की जान बचाई। यदि इसी तरह से सभी विभागों के कर्मचारी और अधिकारी काम करें तो जनता की कितनी समस्या हल हो सकती है। इसके लिए इंजीनियर और स्नोफ्लोवर मशीन के जज्बे और नेक इरादे को सलाम।</div>
Devendra Prataphttp://www.blogger.com/profile/04058854873119577592noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2264830081803709796.post-57778610529965448692019-01-28T03:31:00.002-08:002019-01-28T05:08:46.807-08:00बर्फबारी में काम करते बिजली कर्मियों को देखें<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
इस समय जम्मू के कठुआ जिले की बनी तहसील के उच्च पर्वतीय इलाकों में पिछले तीन-चार दिन में पांच छह फुट बर्फबारी हो गई है। पांंच-छह फुट बर्फबारी में बिना जरूरी सुविधाओं के काम करने को मजबूर जम्मू कश्मीर के बिजली कर्मी। खंभे टूट गये हैं। पेड़ तार पर गिरने से तार टूट गये हैं। सड़कें बंद हैं।<br />
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<span style="color: red;">देखें: वीडियो-1</span><br />
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<a href="https://youtu.be/51y-ObDwWBQ">https://youtu.be/51y-ObDwWBQ</a></div>
जम्मू कश्मीर के हिम्मती, मेहनती बिजली वर्कर<br />
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<span style="color: red;">देखें: वीडियो-2</span><br />
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<a href="https://youtu.be/djJsqIyIaYw">https://youtu.be/djJsqIyIaYw</a></div>
बिजली बहाली में जुटे बिजली कर्मचारी<br />
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<span style="color: red;">देखें: वीडियो-3</span><br />
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<a href="https://youtu.be/l8bEcocamVA">https://youtu.be/l8bEcocamVA</a></div>
ढाई फुट बर्फबारी में बिना गंबूट टूटे तार ढूंढते बिजली कर्मी<br />
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ऐसे में दुर्गम इलाकों में बिना गंबूट, दस्ताने आदि दिए राष्ट्रपति शासन में बिजली कर्मियों से बिजली बहाली का काम करवाया जा रहा है। वीडियो देखें और देश के हर नागरिक तक कर्मचारियों की परेशानी पहुंचाने में अपना योगदान भी दें। यदि आपको सही लगे तो चैनल को सब्सक्राइब भी करें।<br />
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<a href="https://www.youtube.com/channel/UCI5dMXJERGZFi7N5hKrtgCA">https://www.youtube.com/channel/UCI5dMXJERGZFi7N5hKrtgCA</a></div>
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Devendra Prataphttp://www.blogger.com/profile/04058854873119577592noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2264830081803709796.post-26971678771073886852018-12-31T04:29:00.002-08:002018-12-31T04:29:43.688-08:00फरक्का की यात्राः नदी ने धारा बदली तो महाप्रलय आएगा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
(सुरेंद्र विश्वकर्मा)|<br />
65 वर्षिय बुजुर्ग मित्र इलियास शेख के बार - बार अनुरोध पर आखिरकार मैं इस यात्रा के पहले पड़ाव <br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjdVx9azw_RFsPQm18HvX8OmHkRhk1-nBuDFyTExFRqDdI7KYEJBfUdKR0S6_XkxXDUNVI8Gi-Cq24AuMc37PG6dsmILNhJfXxCxXYN-hK8fg0u7u3osHD4S14Vf8hIFhd3Daot0JLgNC4/s1600/IMG-20181223-WA0005.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="1280" height="180" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjdVx9azw_RFsPQm18HvX8OmHkRhk1-nBuDFyTExFRqDdI7KYEJBfUdKR0S6_XkxXDUNVI8Gi-Cq24AuMc37PG6dsmILNhJfXxCxXYN-hK8fg0u7u3osHD4S14Vf8hIFhd3Daot0JLgNC4/s320/IMG-20181223-WA0005.jpg" width="320" /></a></div>
वर्धमान पहुँच गया। खाना खाने के लिए रेलवे के भोजनालय पहुँचने पर पता चला कि कैन्टीन को किसी प्राइवेट कम्पनी को <br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiFokwH3CSJgO6CeKze8NuFP9wog3vCU82h7vkiaR11PjaXSklIwnZc3Y2pcUSPuPGgiJmwc1XitmA_VwUhAc6liX6thnbdG2w4XYjfubmhpCiGCmGJI5ZvrIrd2dwF0BQraRyjbk_mL6E/s1600/VID-20181223-WA0004.mp4" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="240" data-original-width="320" height="176" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiFokwH3CSJgO6CeKze8NuFP9wog3vCU82h7vkiaR11PjaXSklIwnZc3Y2pcUSPuPGgiJmwc1XitmA_VwUhAc6liX6thnbdG2w4XYjfubmhpCiGCmGJI5ZvrIrd2dwF0BQraRyjbk_mL6E/s320/VID-20181223-WA0004.mp4" width="320" /></a></div>
दिया जा रहा है, इसलिये भोजनालय बन्द है और सभी कर्मचारी इस नव उदारवादी बदलाव के खिलाफ हड़ताल पर हैं।<br />
अमूमन यात्राओं में मैं रेलवे के भोजनालय में ही खाना खाता हूँ क्योंकि खाना साफ - सुथरा, ताजा और मात्र 35 रुपये का ही होता है।<br />
बरहाल मैं नव उदारवादी नीतियों का मारा रात 7 बजे फरक्का स्टेशन पर पहुँच गया।<br />
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मैं न तो कोई नदी - घाटी परियोजना का विशेषज्ञ हूँ न ही भौगोलिय परिवर्तनों को समझने वाला ज्ञाता लेकिन इस वर्ष साधारण सी बारिश से पटना शहर में 1 से 1.5 फिट तक पानी भर गया। लगा कि कुछ तो गड़बड़ है, क्या गंगा नदी का तल इतना ऊंचा हो गया है कि नदी पानी को खींच नहीं पा रही है? जबकि इस वर्ष गंगा नदी से सम्बंधित पहाड़ों और मैदानी इलाकों में औसत से कम वर्षा हुई थी।<br />
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नितीश कुमार सन 2017 तक फरक्का बाँध को बिहार की त्रासदी बता रहे थे तो क्या सन 2018 तक आते - आते चीफ मिनिस्टर साहब के गले का पानी सूख गया? या मोदी का सफेद हाथी वाराणसी से हल्दिया गंगा नदी में व्यापारिक जहाज चलना ज्यादा हावी हो गया है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल बोर्ड ने कैसे इस परियोजना को मंजूरी दी जो नदी के फ्लड प्लेन को ही तबाह कर दे।<br />
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शेख साहब बतातें हैं कि मई के महीने में बड़े - बड़े टीले फरक्का से साहिबगंज तक देखे जा सकते हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि नदी स्वयं बैराज को नहीं तोड़ सकती है और सरकार बन रहे सफेद हाथी के कारण इसे तोड़ेगी भी नहीं क्योकि इस परियोजना में अरबों रुपये का हेर - फेर होगा। गंगा के कैचमेंट एरिया में जिस वर्ष अत्यधिक वर्षा होगी सम्भव है कि नदी अपनी धारा ही बदल दे तो साहिबानों प्रलय नहीं महाप्रलय आएगा।<br />
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कम्युनिस्ट पार्टी जब विपक्ष में थी तो बाँध के विरोध में थी लेकिन सत्ता में आते ही इसकी वकालत करने लगी। शायद साम्यवादी सरकार से पड़ोसी देश की खुशहाली देखी नहीं गयी!<br />
गढ्ढ़ा खोदने वाला खुद ही के बनाये गाद में दब गया है कि पूर्वी पाकिस्तान की बर्बादी के लिये बने बांध से हर साल बलिया तक भूमि कटान से खेत और घर नदी में समा रहे हैं और प्रत्येक वर्षा काल में बिहार की आधी आबादी बाढ़ जैसी विभीषिका झेलने को मजबूर है। कोलकाता बंदरगाह की सिल्ट साफ करने के लिये लायी गयी 40000 क्यूसेक पानी से कुछ नहीं होता और आज भी बंदरगाह से बालू हटाने के लिये प्रतिवर्ष 350 करोड़ रुपये खर्च किये जाते हैं। सप्ताह में केवल एक छोटा सा टूरिस्ट जहाज बड़े स्टीमर जैसा चलाते हैं, यही एकमात्र उपलब्धि कही जा सकती है वो भी यात्रियों की संख्या पर निर्भर है।<br />
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बंगलादेश की एक तिहाई आबादी गंगा के पानी पर निर्भर है। पानी की कमी से धान की खेती और मत्स्यपालन तो प्रभावित हुआ ही सुन्दरबन के अस्तित्व पर संकट आन पड़ी है। इस आर्थिक और भौगोलिक परिवर्तन से कितने लोगों का पलायन हुआ होगा, इसका कोई आँकड़ा दोनों देशों के पास नहीं है।<br />
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फरक्का में भोजन काफी सस्ता है। 10 रुपये में नास्ता (4 पूड़ी और सब्जी) और 35 - 45 रुपये में बढियां खाना एक सूखी सब्जी, साग, आलू का भुजिया, दाल, चटनी, पापड़, प्याज, रोटी या चावल, और खाना स्टील की थाली में पत्तल पर। अधिकतर लोग चावल खाना पसंद करते हैं और केवल शाकाहारी खाना मिलना असंभव है। साधारणतया लोग गंगा के पानी को बिना फिल्टर किये पीते हैं।<br />
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अगले दिन बैराज पार कर के बहाव के विपरीत दिशा में पैदल चलने लगा तो इतने बड़े - बड़े टापू दिखाई दिये कि मैं वाकई हैरान रह गया। लगभग 3 किलोमीटर पैदल चल कर नदी किनारे बसे मल्लाहों के गांव में पहुंच गया। लोग गंगा में बने टापुओं से मड़ई छाने वाला 10 फिट लम्बा सरकंडों का बोझा ला रहे थे। बदलते जमाने के साथ छावन का प्रयोग अब ईधन के रूप में किया जाता है। सरकार तटीय आबादी को 2 लीटर डीजल एक सप्ताह के लिए देती है। मैं भी एक मशीनी नाव पर सवार होकर दो किलोमीटर की यात्रा के बाद एक हरे भरे टापू पर पहुँच गया, यहाँ खेती भी की जाती है। द्वीप इतना बड़ा कि दूसरे सिरे का पता ही नहीं चलता जैसे लगा कि अलिफ लैला के जजीरे वाली रहस्यमयी दुनिया में आ गया हूँ। इसी तरह के बड़े - बड़े टापुओं को ब्रम्हपुत्र नदी में भी देखा था, जिसमें हाथी रहते हैं। यह सब फरक्का बाँध का चमत्कार है, खेतिहर जमीन और गांव सब गंगा के चपेट में, केवल मालदा जिले की 4000 एकड़ जमीन सन 2014 तक गंगा लील चुकी है।<br />
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बैराज के दूसरी तरफ का नजरा और भी शानदार था, पानी के तेज बहाव में पक्षी मछली खाने और खेलने के लिए टूटे पड़े हुए थे।<br />
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बैराज के 112 गेट में से केवल 4 गेट ही खुले हुये थे और फीडर की दिशा में सभी 11 गेट हमेशा खुले रहते हैं। यहाँ फोटो खीचना प्रतिबंधित है जो प्रमाणित करता है कि भारत जल समझौते का उल्लंघन कर रहा है।<br />
2 किमी इस दिशा में आगे जाने पर एक धारा बायीं तरफ मुड़ गयी है जिसमें वाराणसी से आने वाले जहाज मुड़ कर कोलकाता की ओर जाते हैं। इसी धारा में फीडर के पानी को आगे मिला दिया गया है। यहाँ ढेर सारा कबाड़ स्टीमर, क्रेन इत्यादि सन 1975 से सड़ रहा है और इसकी रखवाली CISF के दो जवान करते हैं, जिनमें से एक जवान की सैलरी 54000 रुपये है।<br />
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इस एरिया में मशीनी नाव परिवहन का आसन और सस्ता साधन है। सरकारों ने यह मान लिया है कि नदी रोड को लील जायेगी इसलिये वह रोड बनाने के बारे में सोंचती ही नहीं है।<br />
ढेर सारे लोग बड़े - बड़े ड्रम, बैंड, इत्यादि बाजों के साथ झारखंड के किसी चमत्कारी बाबा के कान फोड़ने के लिये नावों पर सवार हो रहे थे, नाव चलते ही थाली पीटना और हुलूक ध्वनि शुरू हो गई 😊। एक महिला श्रीधर से लहसुन के ढेरों बोरों के साथ आयी थीं। इन्होंने किसान से 8 - 20 रुपये / किलो के हिसाब से खरीदा था। गुवाहाटी में इस लहसुन को 50 - 70 रुपये / किलो के भाव में बेचने की कोशिश करेंगीं। पूरे देश में एक ही हालात हैं कि किसान को उसके उपज का उचित मूल्य न मिलना। क्या आपको अजीब नहीं लगता है जब बात किसानों की होनी चाहिये तो हम मन्दिर की बात करने लगते हैं?<br />
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बहरहाल शाम को इलियास जी ने पकड़ लिया और जबरन अपने गांव ले गए। रास्ते में बहुत बड़े - बड़े आम के बाग दिख रहे थे लगता था कि मालदा में केवल आम ही पैदा होता है। बहुत दिनों बाद ढंग का खाना नसीब हुआ। अगले दिन से वापसी की यात्रा शुरू हुई।<br />
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फरक्काबांध बना कर VIP इंजीनियर तो चले गए लेकिन आज भी सरकार इन VIP बंगलों को संभाल कर रखे हुए है, काश इसमें स्कूल - कॉलेज या हॉस्पिटल ही खोल दिए जाते।</div>
Devendra Prataphttp://www.blogger.com/profile/04058854873119577592noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2264830081803709796.post-57553569870712015902018-12-21T14:32:00.001-08:002018-12-22T00:21:53.790-08:00नरक से बदतर जीवन जी रहे आदिवासी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
...(सुरेंद्र विश्वकर्मा)<br />
यह यात्रा मुण्डा आदिवासी समाज और पथलगढ़ी आंदोलन से सम्बंधित है। खुंटी जिले में प्रवेश करते ही इतने अधिक अर्द्ध सैनिक बलों को देखकर वाकई मैं बहुत अधिक डर गया था, लेकिन अभ्यस्त होने के बाद लगा कि ये तो केवल बकरे हैं जो आम लोंगो के धन पर ही पलते हैं। चलिये अब यात्रा शुरू करते हैं।<br />
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<span style="color: red;">झारखण्ड राज्य में कोई सरकारी बस नहीं चलती</span><br />
झारखण्ड राज्य में कोई सरकारी बस नहीं चलती है, केवल राँची शहर में कुछ सरकारी बसें चलती हैं अन्यथा सभी बस प्राइवेट आपरेटर ही चलाते हैं।<br />
राँची से लगभग 55 किलोमीटर की दूरी पर खुंटी जिले के कितहातु गाँव जाने वाले चौक पर लगभग 11 बजे बस और टाटा सूमों की यात्रा के बाद पहुँच गया।<br />
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<span style="color: red;"> पुलिसिया आतंक का गवाह है कितहातु चौक</span><br />
चौक पर एक शहीद स्मारक है जो 2016 में हुये पुलिसिया आतंक का गवाह है और यहीं पर पथलगढ़ी किया गया है। दस मीटर की दूरी पर एक 10 x 20 फुट का एक सरकारी पोस्टर पथलगढ़ी के विरोध में लगा है, लेकिन संविधान में लिखी बातों को आप कैसे गलत साबित कर सकते हैं। इस तरह के पोस्टर पथलगढ़ी के अलावा गैर आदिवासी इलाकों में भी मिल जाते हैं।<br />
<span style="color: red;"><br /></span>
<span style="color: red;">डर और नास्ते से निपटने के बाद अब आगे की कहानी</span><br />
गाड़ी से उतरते ही CRPF के अत्याधुनिक हथियारों से लैस कई जवानों के दर्शन हो गये। मैं बगल के एक झोपड़ी नुमा दुकान में प्रवेश कर गया क्योंकि थोड़ी दूर आगे थाने के कुछ सिपाही हर आने - जाने वाले से पूछताछ कर रहे थे।<br />
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जनजातीय इलाकों में खाने - पीने का सामान बहुत ही सस्ता होता है। आंटे और गुड़ का बना गुलाब जामुन जितना बड़ा गुलगुला एक रुपये का एक, इडली जैसा समान भी एक रुपये का, बड़ा सा मालपुआ जिसका स्वाद लाजवाब होता है पांच रुपये का इत्यादि। डर और नास्ते से निपटने के बाद अब आगे की कहानी।<br />
<span style="color: red;"><br /></span>
<span style="color: red;">बिरसा मुंडा के गाँव उलिहातु पहुँच गया</span><br />
यहां से उलिहातु का टैम्पो दोपहर 3:30 पर जाता है। <br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiBXkEZ52QhFGFhX4zhRVgA07Y6yx1OjuixBchjDJPMsZUcM8RYBbrCsHPNaHR9YkmSg4x5k4gQ21vsyXsMAeo3tuQuanrP-mYokIK8pkOf_qKDfxl7IZRF4QDV0b3QtWutGzd9J-Tm9qw/s1600/IMG-20181221-WA0018.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="1280" height="225" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiBXkEZ52QhFGFhX4zhRVgA07Y6yx1OjuixBchjDJPMsZUcM8RYBbrCsHPNaHR9YkmSg4x5k4gQ21vsyXsMAeo3tuQuanrP-mYokIK8pkOf_qKDfxl7IZRF4QDV0b3QtWutGzd9J-Tm9qw/s400/IMG-20181221-WA0018.jpg" width="400" /></a></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
4 किलोमीटर पैदल और 14 किलोमीटर गैस सिलेंडर ढोने वाले टैम्पो की सहायता से बिरसा मुंडा के गाँव उलिहातु पहुँच गया। रास्ते में सड़क पर ही गाँव के लोग धान सुखाते दिखाई दिये। धान मुंडारी लोगों का मुख्य फसल है। रोड काफी अच्छा बना है क्योंकि नेताओं की यह धारणा है कि बिरसा मुंडा के दर पर जाने से झारखण्ड के आदिवासी समुदाय का वोट प्राप्त हो जायेगा।<br />
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<span style="color: red;">बिरसा मुंडा के पौत्र से मुलाकात</span><br />
बिरसा मुंडा के 75 वर्षिय पौत्र सुखराम मुण्डा जी के <br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhJr63oylQepR_lqboRPfacQdrup1azeOMty1aaAM1QpZwlyGx0fEehqoOB4YZgo0ojRxnUgqZ9-7UPUeNhjof6yMPrJHZDIzlZ9p8FkJkl_FfuUXOnaVf4UGMyPLMKKPuKKyevPaZnHtY/s1600/IMG-20181221-WA0017.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="1280" height="225" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhJr63oylQepR_lqboRPfacQdrup1azeOMty1aaAM1QpZwlyGx0fEehqoOB4YZgo0ojRxnUgqZ9-7UPUeNhjof6yMPrJHZDIzlZ9p8FkJkl_FfuUXOnaVf4UGMyPLMKKPuKKyevPaZnHtY/s400/IMG-20181221-WA0017.jpg" width="400" /></a></div>
पास दो घण्टे था। इनके दो लड़कों को चतुर्थ श्रेणी की सरकारी नौकरी मिल गयी है। इस गाँव में सरकारी स्कूल के साथ ही CRPF कैम्प भी है। लगता है कि ज्ञान और आतंक दोनों साथ - साथ चलते हैं। यह गाँव मुंडाई समुदाय का सबसे विकसित गाँव माना जाता है। 2017 में अमित शाह भी यहाँ आये थे सुखराम जी और इनके पड़ोसी के यहाँ एक - एक पक्का शौचालय, सुखराम जी के यहाँ एक सोलर लैम्फ और बरांडे में रोड बनाने वाला टाइल बिछाया गया है। लेकिन शाह ने एक बड़ा बैनर लगवा कर यह दावा किया है कि सभी 136 परिवारों के लिये घर और <br />
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjRBYPJ9YJT6awq1TwWEwC02xoCUzyP7k1MfB8SFsqeFpmt0sA_hEO66hgnky-R7uYqf7bRBqv2dPxhaBiiw40UlW4MRyHPh7PPXI3bga22YBLhEJQ2ASEk5s45B3wb3XSx_SVsz1lsZbQ/s1600/IMG-20181221-WA0009.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="720" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjRBYPJ9YJT6awq1TwWEwC02xoCUzyP7k1MfB8SFsqeFpmt0sA_hEO66hgnky-R7uYqf7bRBqv2dPxhaBiiw40UlW4MRyHPh7PPXI3bga22YBLhEJQ2ASEk5s45B3wb3XSx_SVsz1lsZbQ/s400/IMG-20181221-WA0009.jpg" width="225" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">सोलर वाटर टंकी।</td></tr>
</tbody></table>
100 सोलर लैम्फ बनवा और लगवा दिया गया है साथ में और भी कई सारे दावे किये गए हैं। शौचालय के नाम पर कई गांवों के प्रत्येक घरों के बाहर एक लगभग 2 x 3 फुट का नीले रंग का ढाँचा रख दिया गया है, हगने के लिए न शीट न पाइप न ही कोई पानी का इंतजाम लेकिन स्वच्छता का प्रचार दबा के किया <br />
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEikacJy0OBbkvpJpYsUtuB61e2aacuqmK_CH70oHKx_d_VY445OOh6jNeXJTbG89hY1my85UCPPGyWVsuYtLSGLUDxlx2BAqJ2uI4z7430vzsEkH7ei9jVut5wbvjgxSGqamfp5aJjxF-s/s1600/IMG-20181221-WA0010.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="1280" height="225" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEikacJy0OBbkvpJpYsUtuB61e2aacuqmK_CH70oHKx_d_VY445OOh6jNeXJTbG89hY1my85UCPPGyWVsuYtLSGLUDxlx2BAqJ2uI4z7430vzsEkH7ei9jVut5wbvjgxSGqamfp5aJjxF-s/s400/IMG-20181221-WA0010.jpg" width="400" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">स्वच्छ भारत अभियान का हाल।</td></tr>
</tbody></table>
गया है। शौचालय बनाने के लिए 12000 रुपये आवंटित होते हैं लेकिन ठेकेदारों ने बमुश्किल 700 - 800 रुपये खर्च किये होंगे। इस पूरे यात्रा में मुझे कहीं भी सड़क या पगडंडियों पर पखाना नहीं दिखा। सुखराम जी और गाँव वाले प्रस्तवित माइक्रो घर को मिनी घर में तब्दील करवाने की लड़ाई लड़ रहे हैं।<br />
<br />
मात्र 25 वर्ष जीने वाले बिरसा मुंडा मूलतः मुण्डा, खड़िया, उरांव इत्यादि जनजातियों के लिए भगत सिंह की तरह एक क्रांतिकारी नायक थे, लेकिन इन्हें भी भगवा रंग में रगनें की पुरजोर कोशिश की जा रही है। उलिहातु गाँव में कहीं पथलगढ़ी नहीं दिखा लेकिन सरकार के प्रति आक्रोश बढ़ रहा है।<br />
<br />
<span style="color: red;">मारंगबरू की यात्रा में एक नौजवान पति - पत्नी गोद में बच्चा और पीठ पर झोले में सुअर का बच्चा लिये मेरे सहयात्री बन गए</span><br />
उलिहातु से 10 किलोमीटर दूर तीन पहाड़ जंगल पार मुझे सेल्दा गाँव होते हुए मारंगबुरु जाना था। लगभग 3 किमी चलने के बाद पहाड़ शुरू होता है। यहीं से एक नौजवान पति - पत्नी गोद में बच्चा और पीठ पर झोले में सुअर का बच्चा लिये मेरे सहयात्री बन गए। इन लोगों ने स्थानीय बाजार में वयस्क सुअर को बेंच कर एक नवजात को लिया और बाकी पैसों से जरूरत का सामान मोल लिया था। इनकी बहुत ही इच्छा थी कि मैं इनके साथ गांव चलूँ और अगले दिन अपने राह लगूँ। वक्त की कमी के करण यह संभव नहीं था। 45 मिनट की सहयात्रा के बाद ये लोग अपने गांव की तरफ मुड़ गए और मैं सेल्दा गांव के रास्ते लगा।<br />
बरहाल मैं पहाड़ और जंगल पार करते हुए अंधेरा होने के ठीक पहले मारंगबुरु गाँव पहुँच गया। इस गांव में पथलगढ़ी नहीं हुई है। गाँव के प्रत्येक परिवार 5 रुपये प्रतिवर्ष मालगुजारी जमा करते हैं। गांव में बिजली - पानी नहीं है, केवल एक सोलर लैम्फ इसी वर्ष लगा है। इसकी रोशनी में गांव वाले अपने पर्व की रात नाचते हैं। फसल काटने से पहले आदिवासी समाज जंगल देवता सरना (किसी भी एक पेड़ को चुन लिया जाता है) की पूजा करते हैं और रात में हड़िया (चावल का देसी शराब) पीकर सभी लोग जोरदार तरीके से नाच - गान करते हैं। प्रकृति के करीब होने के करण आदिवासी बहुत ही विनम्र होते हैं। हिंदु धर्म और इनके देवी देवताओं से इनका कोई नाता नहीं है। आदिवासी महिलाएं सिंदुर इत्यादि का प्रयोग नहीं करती हैं। गांव में एक माध्यमिक विद्यालय और चर्च भी है, गांव के 40 परिवारों में से 10 लोगों ने इसाई धर्म अपना लिया है। विद्यालय के अध्यापक खुंटी से आते हैं, इसलिये अक्सर गैरहाजिर ही रहते हैं।<br />
<br />
<span style="color: red;"> मारंगबुरू गांव में गरीबी भयानक रूप से फैली है</span><br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZV-6GqpRRq7bsuFi8uIp2tz-8lCEXqsi29g1bw4Y14eSeJ1WOk-NGJWYbSjluGdl3oxPYAqXhb5YvnQQPEfpBO0CqrcodSUZgW5In1EMCNKXhxih5_3P3rTRYBGgRc707P4111sfIAtM/s1600/IMG-20181221-WA0012.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="1280" height="225" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZV-6GqpRRq7bsuFi8uIp2tz-8lCEXqsi29g1bw4Y14eSeJ1WOk-NGJWYbSjluGdl3oxPYAqXhb5YvnQQPEfpBO0CqrcodSUZgW5In1EMCNKXhxih5_3P3rTRYBGgRc707P4111sfIAtM/s400/IMG-20181221-WA0012.jpg" width="400" /></a></div>
मारंगबुरू गांव में गरीबी भयानक रूप से फैली है, कुछ ही लोगों के पास ठंड काटने के लिए गरम कपड़े दिखे, अन्यथा सभी आग के सहारे ही ठंड से लड़ते हैं। कुछ नौजवान लोग दिल्ली, पंजाब, तमिलनाडु इत्यादि राज्यों में पिछले 4 - 5 सालों से मजदूरी करने जाने लगे हैं। पिछले पांच वर्षों में आदिवासियों के आर्थिक हालात अत्यंत दयनीय हो गये हैं, इसका मुख्य कारण लाख (मुंडारी भाषा में लाही) के दाम का 900 रुपये से गिरकर 140 -170 रुपये / किलो तक आ जाना है साथ ही रुपये का अवमूल्यन। सरकार और पूंजीपतियों के गठजोड़ से यह काम बखूबी चल रहा है। खुंटी जिले का मुंडारी समाज इस लाख को बेचकर अपने जरूरत का सामान जैसे कपड़ा, साबुन - तेल, नमक - मसाला, शादी, बच्चों की पढ़ाई, हारी - बीमारी इत्यादि का इंतजाम करते हैं।<br />
<span style="color: red;"><br /></span>
<span style="color: red;">पूरी यात्रा में दो परिवारों के पास ही दिखा टीवी और ट्रैक्टर</span><br />
खेती से बचे समय में लाख को मुख्यतया कुसुम की डालियों से निकाला जाता है। आदिवासी लोग खेती में रासायनिक खाद का प्रयोग न के बराबर करते हैं। इनका मुख्य फसल धान ही है, लेकिन अरहर, उडद, आलू और सरसों की भी खेती की जाती है। खेत जोतने के लिए हल - बैल का प्रयोग किया जाता है। पूरी यात्रा में केवल दो परिवारों के पास ट्रैक्टर और टीवी दिखा।<br />
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<span style="color: red;">60 किलो से ज्यादा का नहीं दिखा कोई आदिवासी</span><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg9q8RDVK8LPZqpgYKDCGjHPa-has4Jtc-k0Mi5UcrGWGFDbhI0wC7Y99bX7gf5kSjbXmPefs3rxVpOhZaEHHj9WGhUkD14xSEKbXde6a_hWzkG9UFFl3pQpiy-EcMnYqiloxkDCt9m0t4/s1600/IMG-20181221-WA0011.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="1280" height="225" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg9q8RDVK8LPZqpgYKDCGjHPa-has4Jtc-k0Mi5UcrGWGFDbhI0wC7Y99bX7gf5kSjbXmPefs3rxVpOhZaEHHj9WGhUkD14xSEKbXde6a_hWzkG9UFFl3pQpiy-EcMnYqiloxkDCt9m0t4/s400/IMG-20181221-WA0011.jpg" width="400" /></a></div>
यात्रा में किसी भी आदिवासी समुदाय का वजन 60 किलो से अधिक नहीं दिखा, महिलाओं का वजन तो 45 किलो से भी कम। 60 किलो वजन से अधिक केवल तीन ही लोग दिखे जो सरकारी नौकरी करते हैं।<br />
<br />
<span style="color: red;">नाग काटने से मरी बकरी का बना मांस</span><br />
मारंगबुरु में आग तापते ढेर सारे लोगों का मैं कौतुहल का विषय बन गया क्योंकि पहली बार घुमन्तु किस्म का कोई बाहरी व्यक्ति इस दुर्गम गांव में आया था, कुछ का मत था कि मैं CID से हूँ और पथलगढ़ी से संबंधित जानकारी इक्कठा करने आया हूँ। मैने पूरी कोशिश की कि बातचीत इस मुद्दे पर न हो, बरहाल मै इसमें कामयाब रहा और लोग खुलने लगे। दोपहर में बकरी को नाग ने काट लिया था और वह मर गई थी। सोलर लैम्फ की रोशनी में उसे काटा गया और जिन लोगों ने काटने में मदद किया था उनको बराबर का हिस्सा दिया गया।<br />
नोट: पके मांस को खाने से विष असर नहीं करता है।<br />
मुंडारी लोग गाय - बैल, सुअर, बकरी, भेड़ और मुर्गी पालते हैं और गाय को छोड़ कर सभी का मांस खाते हैं। गोबर का प्रयोग खेतों में खाद के लिए किया जाता है और लकड़ी को ईधन के रूप में इस्तेमाल करते हैं। महिलाये घर में ही धान कूटती हैं।<br />
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<span style="color: red;">चावल सब्जी खाकर स्कूल में सो गया</span><br />
चावल और सब्जी खाकर रात 9 बजे मैं स्कूल में आठ बच्चों के साथ सोने चल दिया। इन बच्चों में DJ के प्रति गजब का उत्साह था, सभी दरवाजा बंद करके पुरबिया रीमिक्स DJ सुन रहे थे। सुबह हाथ - मुंह धोकर मैं मारंगबुरु गांव से निकल लिया। रास्ते में गाड़ा नदी (मुंडारी भाषा में ) के किनारे बसे कई गाँव मिले थे। चार किमी चलने के बाद गितलबेडा गांव आया, यहां शादी थी इसलिये जोरदार तरीके से DJ बज रहा था और बच्चे शाखु के दोनों में मुरमुरा खा रहे थे। इस तरफ के गाँवों में पथलगढ़ी नहीं किया गया है। थोड़ी दूर आगे अरक्की जाते एक टेम्पो से राजाबाजार यहां से फोर्स नामक गाड़ी से दलभंगा के रविवारीय एक बहुत बड़े मेले जैसे बाजार में आ गया। बाजार एक बहुत बड़े खुले मैदान में लगा था। लोग जमीन पर पॉलीथिन बिछा कर दुकानदारी में लगे थे। जनजातीय लोग लाख लेकर आ रहे थे। आज लाख का भाव 170 रुपये है कल 160 रुपये था तीन दिन पहले140 रुपये था। लोग लाख बेचकर अपने जरूरत का सामान खरीद रहे थे। हड़िया (देसी शराब) और खाने के सामानों का कोई हिसाब ही नहीं था। इस तरफ के गांवों में पथलगढ़ी की गई है।<br />
<span style="color: red;"><br /></span>
<span style="color: red;">कोचांग जैसी सड़कें नहीं देखीं</span><br />
हड्डी तोड़ रोड की यात्रा पूरी करके मैं रात 7 बजे अपनी मंजिल कोचांग गांव पहुँच गया। मै बहुत घूमा हूँ लेकिन ऐसी भयानक सड़कों से कभी पाला नहीं पड़ा था। खुंटी - बन्धगाँव होते हुए भी कोचांग पहुंचा जा सकता है, लेकिन बन्धगाँव के रास्ते सवारी गाड़ी नहीं मिलती। यह रोड हाल ही में बना है।<br />
<br />
<br />
<span style="color: red;">कोचांग गांव बना पथलगढ़ी आंदोलन का केंद्र</span><br />
फिलहाल कोचांग गाँव पथलगढ़ी आंदोलन का केंद्र <br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhrHn1tbgjnD8g9wMdCrYWaxnv1dSs4Rq5OMj8WJUsXuipcmuOfMziCl24EVPjn_njPFsVsHZO4Gs7l3bf0NTOnwY_AzSUHg042xTwRj2KUlkaguWzO7iK7tsAJrrO8E7Nwn4wyW90JFDU/s1600/IMG-20181221-WA0001.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="720" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhrHn1tbgjnD8g9wMdCrYWaxnv1dSs4Rq5OMj8WJUsXuipcmuOfMziCl24EVPjn_njPFsVsHZO4Gs7l3bf0NTOnwY_AzSUHg042xTwRj2KUlkaguWzO7iK7tsAJrrO8E7Nwn4wyW90JFDU/s640/IMG-20181221-WA0001.jpg" width="360" /></a></div>
बन गया है। इसलिये एक CRPF कैम्प का होना भी लाजमी है जो कि यहां के सरकारी प्राइमरी स्कूल में स्थापित किया गया है और यहां के बच्चों को 4 किमी दूर किसी अन्य स्कूल में पढ़ने को कहा जा रहा है। सरकार कोचांग गांव में एक सामुदायिक भवन बनवाना चाहती है लेकिन बिना ग्राम प्रधान और ग्रामीणों की सहमति के। इसके लिए ग्राम प्रधान को गाँव से बाहर बन्दूक के नोक पर 15 नवम्बर को हस्ताक्षर लिया जाता है और उसी हस्ताक्षर के नीचे ग्रामीणों से भी दस्तखत लिया गया है धोती बँटवाकर। ग्रामीण सामुदायिक भवन के विरोध में नहीं हैं वह तो केवल अपनी सहमति से जगह, आकर और इससे जुड़ी सुविधाओं का चयन करना चाहते हैं जो कि उनका अपना संवैधानिक अधिकार है।<br />
<br />
<span style="color: red;">पथलगढ़ी से सरकार को परेशानी क्या है</span><br />
इससे पहले की घटनायें और पथलगढ़ी में क्या लिखा गया जिससे सरकार पगला गयी है सुधिपाठक इंटरनेट पर देख सकते हैं। इसके लिए द वायर पर नीरज सिन्हा की रिपोर्ट पढ़ें <i><span style="color: red;"> http://thewirehindi.com/35737/jharkhand-patthalgadi-tribal-movement-raghubar-das-government/</span></i><br />
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इससे मुंडारी समाज के आर्थिक, सामाजिक और पथलगढ़ी के बाद समाज में आ रहे बदलाव को जानने और समझने में मदद मिलेगी।<br />
<br />
<span style="color: red;">प्राथमिक चिकित्सा केंद्र में नहीं मिलते डाक्टर</span><br />
कोचांग गाँव में एक चर्च और माध्यमिक मिशनरी <br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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स्कूल भी है। शायद 600 या 900 बच्चे पढ़ते हैं, थोड़ा मैं भूल रहा हूँ लगता है कि उम्र का असर है क्या! वार्षिक फीस 300 <br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgTXRh1aR1fOpc3lnJGCwCYFD3AgIlB7LwThg18MfSgVjlYcbqO2dFX0me3LLA3EGMoiBaxJa5rgqUwieMUrkQ4wDrNkuebdJGX5azbfYoN92P9s6eElATM2pgWuCcsUyh4yHeuXAa6gCI/s1600/IMG-20181221-WA0007.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="1280" height="180" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgTXRh1aR1fOpc3lnJGCwCYFD3AgIlB7LwThg18MfSgVjlYcbqO2dFX0me3LLA3EGMoiBaxJa5rgqUwieMUrkQ4wDrNkuebdJGX5azbfYoN92P9s6eElATM2pgWuCcsUyh4yHeuXAa6gCI/s320/IMG-20181221-WA0007.jpg" width="320" /></a></div>
रुपये है और फादर और सिस्टर का वेतन 3000 रुपये है।<br />
गांव में पोस्ट ऑफिस और प्राथमिक चिकित्सा केंद्र भी है लेकिन डॉक्टर और उनका अमला शायद ही कभी आता है। पथलगढ़ी आंदोलन ने बिजली का इंतजाम कर दिया है क्योंकि CRPF के जवान तो बिना बिजली के रह ही नहीं सकते हैं। मोबाइल का नेटवर्क केवल एक पहाड़ी पर आता है और वहाँ CRPF के जवानों का कब्जा बना रहता है।<br />
<br />
<br />
<span style="color: red;">माध्यमिक के बाद 80 प्रतिशत बच्चों की गरीबी के कारण छूट जाती है पढ़ाई</span><br />
माध्यमिक शिक्षा के बाद लगभग 80% बच्चे आर्थिक <br />
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgFi591nEakc4LJUDJS840cSR6jcljyrH2wxrvMg_D8R4NxnxEFM5XS0BgmGwDKINIc1iDySVVgFWBb6ZRcmJN-hEa9D2Gd1Xe-8sp_pllJKDQH0U-CoTH1HtgFtIqR223bz2OyQRrIqYg/s1600/IMG-20181221-WA0004.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="1280" height="225" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgFi591nEakc4LJUDJS840cSR6jcljyrH2wxrvMg_D8R4NxnxEFM5XS0BgmGwDKINIc1iDySVVgFWBb6ZRcmJN-hEa9D2Gd1Xe-8sp_pllJKDQH0U-CoTH1HtgFtIqR223bz2OyQRrIqYg/s400/IMG-20181221-WA0004.jpg" width="400" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">कोचांग गांव का मिशनरी स्कूल।</td></tr>
</tbody></table>
हालात के कारण आगे पड़ना छोड़ देते हैं, जिसके कारण सामाजिक रूप से पिछड़ा हुआ वर्ग बुनियादी रूप से और भी पिछड़ जाता है। आगे की पढ़ाई के लिये सक्षम परिवार के बच्चे खुंटी के प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैं और वहीं हॉस्टल में रहते हैं। इसलिये जरूरत है कि सामुदायिक भवन बनाने की जगह स्कूल, कॉलेज और हॉस्पिटल खोलें जाएं और यह सुनिश्चित किया जाये कि वो किसी भी मायने में प्राइवेट संस्थाओं से पीछे न हों।<br />
<br />
<br />
<span style="color: red;">बादशाह किसानों का खयाल रखे तो उसे सेना की जरूरत नहीं पड़ेगी: शेख सादी</span><br />
तेरहवीं शताब्दी में शेख सादी ने कहा था कि यदि बादशाह किसानों का ख्याल रखती है तो उसे फौज की जरूरत नहीं है। लगभग 75000 - 80000 रुपये प्रति माह एक CRPF जवान पे खर्च आता है, यदि सरकार वाकई कुछ करना चाहती है तो इस खर्च का केवल10% ग्रामीणों के उत्थान पर व्यय किया जाय तो तसवीर दूसरी होगी।<br />
<br />
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<span style="color: red;">पथलगढ़ी आंदोलन से गिरी पुजारियों की कमाई</span><br />
कोचांग में एक नौजवान पुजारी (ओझा) मिले जो पथलगढ़ी विरोधी थे क्योंकि लोगों की चेतना ने इनकी आमदनी कम कर दी है। ईसी तरह के लोग और साहूकार आंदोलन विरोधी खेमे के हैं। स्तिथि तब और बिगड़ गई जब पथलगढ़ी समर्थकों ने अपना बैंक खोलने का एलान कर दिया।<br />
<span style="color: red;"><br /></span>
<span style="color: red;">पथलगढ़ी आंदोलन और सामाजिक चेतना</span><br />
पथलगढ़ी आंदोलन ने लोगों को भारतीय संविधान में लिखे Scheduled Area के ग्राम सभाई अधिकारों जैसे: विकास किस रूप में होगा, कैसे होगा और इसका मुनाफा किन लोगों में वितरित होगा इत्यादि के बारे में काफी सचेत कर दिया है।<br />
सरकार इस चेतना के स्तर को दबाये रखना चाहती है अन्यथा इसका फैलाव माइन एरिया में हो गया तो कार्पोरेटी लूट सम्भव नहीं रहेगा। इसलिये ग्रामीणों को आये दिन डरना, किसी - किसी गांव के सभी लोगों को थाने में नामजद करना इत्यादि सभी सम्भव हथकंडे अपनाये जा रहे हैं। कुछ लोगों पर तो इतने तरह के मुकदमे दर्ज कर दिये गये हैं कि पा जायें तो सीधा इनकाउंटर कर दें। लाख की गिरती कीमतों ने आदिवासियों को संवैधानिक अधिकारों की शरण में जाने को मजबूर किया किया है जिसका परिणाम पथलगढ़ी के रूप में सामने आया है।<br />
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नोट: लेख कैसा लगा कमेंट बाक्स में जरूर लिखें साथ ही 100flowers media group का यू ट्यूब चैनल भी देखें और सब्सक्राइब करें---<br />
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धार्मिक दंगे-फसाद लाते हैं बर्बादी<br />
https://youtu.be/kZ469_ddRJo<br />
मानव सभ्यता की विकास यात्रा पर बच्चों की अनोखी प्रस्तुति<br />
https://youtu.be/s7vwNHUKFyc</div>
Devendra Prataphttp://www.blogger.com/profile/04058854873119577592noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2264830081803709796.post-55656288308065445372018-10-23T23:26:00.000-07:002018-10-23T23:26:55.052-07:00जम्मू-कश्मीर के कोकून उत्पादकों के लिए केंद्र की कई योजनाएं बंद<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="mail-message expanded" id="m-6329757368285970610" style="font-family: sans-serif;">
<div class="mail-message-content collapsible zoom-normal mail-show-images " style="margin: 16px 0px; overflow-wrap: break-word;">
<div class="clear">
<div dir="ltr">
<div style="font-size: 12.8px; text-align: center;">
देवेंद्र प्रताप</div>
<div style="text-align: center;">
</div>
<ul style="font-size: 12.8px;">
<li>दुनिया का सबसे बेहतर कोकून पैदा करने वाले लाखों गरीब और भूमिहीन उत्पादकों की आजीविका छिन गई </li>
<li>मोदी सरकार ने करोड़ों लोगों को रोजगार देना का वादा किया था, ऐसे में उम्मीद की जा रही थी कि हो सकता है इस क्षेत्र का कुछ उद्धार हो, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।</li>
</ul>
<div>
<span style="font-size: 12.8px;"><br /></span></div>
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<blockquote class="tr_bq" style="font-size: 12.8px; text-align: left;">
<span style="font-size: 12.8px; text-align: center;"> सरकार की तरफ से रेशम उत्पादन से जुड़े किसानों के लिए कैटलिटिक डेवलपमेंट प्रोग्राम के तहत कई तरह की योजनाएं चलाई गई थीं, जो अब बंद कर दी गई हैं। ऐसा नहीं है कि इसे मोदी सरकार ने किया है, लेकिन यह जरूर है कि मोदी सरकार ने इन्हें फिर से चालू भी नहीं किया है। यानी कुल मिलाकर दोनों का मतलब एक ही है। इससे दुनिया का सबसे बेहतर कोकून पैदा करने वाले लाखों गरीब और भूमिहीन उत्पादकों की आजीविका छिन गई है। मोदी सरकार ने करोड़ों लोगों को रोजगार देना का वादा किया था, ऐसे में उम्मीद की जा रही थी कि हो सकता है इस क्षेत्र का कुछ उद्धार हो, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।</span></blockquote>
<div style="font-size: 12.8px;">
रीयरिंग किट योजना के तहत किसानों को प्लास्टिक ट्रे, स्टैंड और अन्य मदद दी जाती थी। यह योजना अब बंद हो गई है। इसी तरह कोकून उत्पादन के लिए 50 हजार रुपये से एक लाख रुपये में सरकार किसानों को एक कमरा बना कर देती थी। यह योजना भी बंद हो गई है। रेशम उत्पादन से जुड़ी महिलाओं के स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर केंद्र सरकार ने 2008-09 में स्वास्थ्य बीमा योजना शुरू की थी। इसकी ज्यादातर रकम सरकार ही जमा करती थी। इसमें उक्त महिला के अलावा उसके पति और दो बच्चों को शामिल किया गया था। महिला सशक्तीकरण का ढिंढोरा पीटने वाली सरकार अब योजना को भी बंद कर चुकी है। कोकून को सुखाने के लिए तकनीकी मदद भी अब सरकार नहीं देती है। रेशम उत्पादकों की मदद के लिए शुरू किया गया कैटलिटिक डेवलपमेंट प्रोग्राम ही सरकार बंद कर चुकी है।</div>
<div style="font-size: 12.8px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 12.8px;">
<span style="color: red;"><b><u>37 में से 20 फैक्ट्रियों पर लटका ताला</u></b></span></div>
<div style="font-size: 12.8px;">
सरकार की उपेक्षा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि एक-एक कर रेशम फैक्ट्रियां बंद होती रहीं, लेकिन उनको बंद होने से बचाने के लिए कोई प्रयास नहीं किए गए। एक समय रियासत भर रेशम का धागा बनाने वाली 37 फैक्टियां थीं, आज इनमें से महज 17 ही किसी तरह चल रही हैं। इसकी वजह से समाज में बेरोजगारों को मिलने पर रोजगार भी उनके हाथ से जाता रहा।</div>
<div style="font-size: 12.8px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 12.8px;">
<u><b><span style="color: red;">बॉयलर को पानी सप्लाई करने वाली पानी की टंकियां दिलाती हैं रेशम फैक्ट्री की याद</span></b></u></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgfhwAhT5f1Qr7f2mzS2X7fHu6T7KjkoyNW0rfqYYIpZh_q-8kQOR5i7sLtuHWFRMmb6QBEPsC_RwAHEt-VaPUPMSwdudSlV1yv8tHwyBzEwJQKR1sACK-6GTJzkbi2Do7aQcQED-9HRig/s1600/IMG_20180131_161618.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1200" data-original-width="1600" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgfhwAhT5f1Qr7f2mzS2X7fHu6T7KjkoyNW0rfqYYIpZh_q-8kQOR5i7sLtuHWFRMmb6QBEPsC_RwAHEt-VaPUPMSwdudSlV1yv8tHwyBzEwJQKR1sACK-6GTJzkbi2Do7aQcQED-9HRig/s640/IMG_20180131_161618.jpg" width="640" /></a></div>
<div style="font-size: 12.8px;">
जम्मू में जहां पर सुपर स्पेशलिटी अस्पताल बना है, वहां कभी सेरीकल्चर विभाग की रेशम फैक्ट्री हुआ करती थी। इस फैक्ट्री में हजारों वर्कर काम करते थे, जो इससे सटी कालोनी में रहते थे, जिसका नाम ही रेशमघर कालोनी पड़ गया। अब यह फैक्ट्री तो रही नहीं, इसके अवशेष के रूप में बॉयलर को पानी सप्लाई करने के लिए उस समय बनीं तीन पानी की टंकियां अभी सेरीकल्चर विभाग के कार्यालय में हैं, जो फैक्ट्री की याद दिलाती हैं। रेशमघर कालोनी के लोगों के जेहन में अभी भी उन दिनों की याद ताजा है, जब रेशम फैक्ट्री यहां मौजूद थी।</div>
</div>
<div style="font-size: 12.8px;">
<br /></div>
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</div>
<div class="mail-message-footer spacer collapsible" style="font-size: 12.8px; height: 0px;">
</div>
</div>
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Devendra Prataphttp://www.blogger.com/profile/04058854873119577592noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2264830081803709796.post-61754892404682678352018-10-21T00:46:00.000-07:002018-10-21T00:53:11.696-07:00जेएंडके के सबसे बड़े महिला अस्पताल के लेबर रूम की मर्दवादी डरावनी हकीकत<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
(इस लेख से संबंधित वीडियो के लिए यू टयूब के लिंक पर जाएं https://youtu.be/90G8VucdRVw)<br />
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<a name='more'></a><br />
⇔ (डा. देवेंद्र प्रताप)।<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<iframe width="320" height="266" class="YOUTUBE-iframe-video" data-thumbnail-src="https://i.ytimg.com/vi/90G8VucdRVw/0.jpg" src="https://www.youtube.com/embed/90G8VucdRVw?feature=player_embedded" frameborder="0" allowfullscreen></iframe></div>
जम्मू कश्मीर का सबसे बड़ा महिला अस्पताल एसएमजीएस अस्पताल है। अक्तूबर माह में ही यहां इतनी भीड़ है तो जब कश्मीर से राजधानी जम्मू शिफ्ट होगी, उस समय की आप स्वत्ः कल्पना कर सकते हैं। रियासत के इस सबसे बड़े अस्पताल में इतनी ज्यादा भीड़ होने की एक वजह यह भी है, क्योंकि जम्मू कश्मीर के अंतरराष्ट्रीय सीमा और एलओसी से सटे इलाकों के अस्पतालों मे औसतन 60-70% स्टाफ कम हैं। ऐसे में बड़ी संख्या में लोग या तो खुद कुछ दिन पहले ही जम्मू में अपने रिश्तेदारों के यहां डेरा जमा लेते हैं या अपने यहां के अस्पतालों से रेफर कर दिए जाते हैं।<br />
लेकिन, जम्मू में आकर ऐसा नहीं है कि उनकी हर मुराद पूरी हो जाती है। एसएमजीएस अस्पताल से कई बार बच्चे चोरी हो चुके हैं, लेकिन लेबर रूम के बाहर लगे दो में से एक सीसीटीवी कैमरा टूट कर लटका हुआ है। लेबर रूम के बाहर कई दर्जन तीमारदारों की भीड़ जमा रहती है, लेकिन उनके बैठने के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। कई बार अंदर बच्चे का जन्म हो चुका होता है, लेकिन बाहर लोगों को तब पता चलता है, जब मां और बच्चे को वार्ड में शिफ्ट किया जाता है।<br />
इतना ही नहीं, यदि प्रसव के बाद सरकार की तरफ से महिला को दिए जाने वाले पैसे के बारे में पता किया जाए तो बड़ा घोटाला सामने आ सकता है। अक्तूबर माह के दूसरे सप्ताह में इस अस्पताल में भर्ती हुईं 14-15 महिलाओं से बात करने पर पता चला कि उनमें से एक को भी सरकारी आर्थिक मदद नहीं मिली। इसकी बड़ी वजह महिलाओं का बैंक खाता न होना बताया गया। दूसरा पैसा हासिल करने की प्रक्रिया इतनी थकाऊ है कि कोई भी परिवार बच्चे के पैदा होने के बाद उसके लिए नहीं रुकता है।<br />
<br />
<span style="color: red;">जल्द प्रसव के लिए ट्वायलेट भी नहीं जाने दिया जाता </span><br />
कुछ महिलाओं ने तो यहां तक बताया कि दर्द का इंजेक्शन देने के बाद उनको ट्वायलेट तक नहीं जाने दिया गया, जिससे उन्होंने बेड पर ही ट्वायलेट कर दिया। उसे साफ भी नहीं किया गया और उसी हालत में उनको प्रसव करवाने के लिए ले जाया गया। ऐसा इसलिए भी किया जाता है ताकि जल्दी प्रसव हो और मरीज को वार्ड में भेजा जाए। यह दबाव स्टाफ को भी अमानवीय व्यवहार करने पर मजबूर कर देता है।<br />
ऐसी नारकीय स्थितियों के बाद भी इतनी बड़ी संख्या में लोग इसलिए यहां आते हैं, क्योंकि कभी यह अस्पताल बहुत अच्छी हालत में था, इसलिए लोगों का इस अस्पताल में बड़ा भरोसा है। दूसरी बात, जो इससे ज्याथा महत्वपूर्ण है, लोगों के पास विकल्प नहीं है।<br />
<span style="color: red;"><br /></span>
<span style="color: red;">लड़का, लड़की में फर्क करता है स्टाफ</span><br />
<span style="color: blue;">लड़के के पैदा होने पर मांगे जाते हैं ज्यादा पैसे</span><br />
लेबर रूम से बाहर आने के बाद अपनी बच्ची के साथ वार्ड में दाखिल एक महिला ने तो यहां तक कहा कि लेबर रूम में नर्सें व अन्य स्टाफ लड़का, लड़की में फर्क करते हैं। उसने बताया कि जब चार साल पहले इसी अस्पताल में लड़के को जन्म दिया था तो गेट के बाहर से उसके पति को अंदर लेबर रूम में बुलाया गया व इस खुशी के मौके पर पैसे भी मांगे, लेकिन इस बार जब लड़की पैदा हुई तो तीन घंटे बाद लेबर रूम के बाहर खड़े उसके पति को बुलाया गया। पति के आने पर पैसे तो फिर भी उन्हें मिले, लेकिन वे कुछ ऐसे चेहरा लटकाए थीं, जैसे उनकी गलती से लड़की पैदा हो गई।<br />
<span style="color: red;"><br /></span>
<span style="color: red;">लेबर रूम में तार-तार हो जाता है महिलाओं का सम्मान<a href="https://youtu.be/90G8VucdRVw" target="_blank">https://youtu.be/90G8VucdRVw</a></span><br />
लेबर रूम में घुसने पर हाल में अर्धनग्न चीखतीं महिलाएं पड़ी रहती हैं पर उनको संभालने के लिए पर्याप्त स्टाफ नहीं रहता है। लेबर रूम के अंदर दो या तीन बड़े हाल हैं। हाल नंबर वन में 10-15 महिलाओं को दर्द का इंजेक्शन देकर रखा जाता है। महिलाओं को जितना दर्द सहना पड़ता है, ऐसे में उन्हें कपड़े आदि संभालने का भी ध्यान नहीं रहता है। हाल में कपड़ों से बनाए जाने वाले अलग- अलग कंपार्टमेंट की भी कोई व्यवस्था नहीं है, ऐसे में उनकी निजता व सम्मान उस समय तार-तार हो जाता है, जब कोई पुरुष सुरक्षाकर्मी या तीमारदार वहां पहुंचता है।<br />
<br />
<span style="color: red;">कोई भी सरकार आए होगी मर्दवादी ही!</span><br />
भाजपा पीडीपी राज में स्वास्थ्य सुविधाओं का बंटाधार कर दिया गया है। अब लोगों को यह बात समझ में भी आने लगी है। हालांकि इसमें भी वही बात है, जनता के पास राजनीतिक विकल्प के रूप में जो भी पार्टी मिलेगी वह पुरुषवादी और पूंजीवादी मानसिकता वाली ही होगी।</div>
Devendra Prataphttp://www.blogger.com/profile/04058854873119577592noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2264830081803709796.post-66768398832383301502018-10-05T00:52:00.000-07:002018-10-05T04:57:57.863-07:00चिनैनी नाशरी टनल के मजदूर फिर हड़ताल पर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<iframe allowfullscreen="" class="YOUTUBE-iframe-video" data-thumbnail-src="https://i.ytimg.com/vi/jnjCTqaQv2Q/0.jpg" frameborder="0" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/jnjCTqaQv2Q?feature=player_embedded" width="320"></iframe></div>
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<a href="https://youtu.be/jnjCTqaQv2Q" target="_blank">https://youtu.be/jnjCTqaQv2Q</a></div>
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एक हफ्ते पहले चिनैनी नाशरी टनल के मजदूर दो माह के बकाया वेतन और अन्य सुविधाओं की मांग पर हड़ताल पर चले गये थे। </div>
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प्रशासन ने उनकी मांगें पूरी नहीं करवाईं तो 4 सितंबर को मजदूरों ने फिर से हड़ताल शुरू कर दी। इस बार मजदूर बहुत गुस्से में हैं। उनका कहना है कि उनसे बेगार करवाया जा रहा है। इस बार वे अपना हक लेकर रहेंगे।</div>
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गौरतलब है कि यह टनल जम्मू-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है। इसे देश की सबसे लंबी सुरंग बताया गया। वे सुरंग के अंदर जीप से यात्रा किए और कुछ चहलकदमी भी की। </div>
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जम्मू, कश्मीर, ऊधमपुर और रामबन जिलों को जोड़ने वाली इस सुरंग से जम्मू-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग के 30 किलोमीटर लंबे खतरनाक व दुर्गम मार्ग से बचा जा सकेगा। </div>
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मोदी चले गये, फिर पलट कर कभी नहीं जाना इसे चलाने वाले मजदूर कैसे हैं हालत यह है कि तीसरा महीना हो गया टनल में काम करने वाले मजदूरों को तनख्वाह नहीं मिली है। </div>
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मजदूरों के बच्चे स्कूल जा सकें इसके लिए जरूरी है कि मजदूरों को सेलरी समय से मिले। इतना ही नहीं। इन मजदूरों के लिए को मेडिक्लेम भी नहीं है।</div>
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वीकली के अलावा कोई अवकाश नहीं मिलता है। वीडियो में सुनिए चिनैनी नाशरी टनल के मजदूरों की कहानी उन्हीं की जुबानी।</div>
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Devendra Prataphttp://www.blogger.com/profile/04058854873119577592noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2264830081803709796.post-37883829794430701432018-10-02T12:07:00.002-07:002018-10-02T12:12:31.437-07:00बापू की जयंती के दिन किसानों पर पुलिस ने बरसाईं लाठियां<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEivhtxzl6gVVJzsUhDzRybO81YG576SEwpHyaAkkcjZzxHCqwxUXNuFij3wdOP_0LjQLm81Tyrwrbsh4NLDQyEOE0O-CePwzbnTIFhVx__mEO2ZqYeTh5WaDXmmgU_Vj6bBdueslFJW8PM/s1600/IMG-20181002-WA0023.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="780" data-original-width="1040" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEivhtxzl6gVVJzsUhDzRybO81YG576SEwpHyaAkkcjZzxHCqwxUXNuFij3wdOP_0LjQLm81Tyrwrbsh4NLDQyEOE0O-CePwzbnTIFhVx__mEO2ZqYeTh5WaDXmmgU_Vj6bBdueslFJW8PM/s640/IMG-20181002-WA0023.jpg" width="640" /></a></div>
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अखिल भारतीय किसान सभा आज दिल्ली की सीमा पर अपनी मांगों के समर्थन में प्रदर्शन कर रहे किसानों पर दिल्ली और यूपी की पुलिस द्वारा बर्बर हमले की तीव्र भर्त्सना करती है।<br />
बी के यू के नेतृत्व में किसान अपनी मांगों जैसे-कर्ज माफी, स्वामीनाथन कमीशन के अनुसार समर्थन मूल्य, पेन्शन, गन्ना का बकाया जल्द भुगतान आदि के लिए दिल्ली मे किसान घाट पहुच कर मोदी सरकार से वार्ता करना चाहते थे, पर उन्हे रोका गया, लाठी चार्ज, पानी की बौछार,अश्रु गैस आदि से बर्बर हमले किए गए|दर्जनो किसान घायल हुए है, अनेको ट्रैक्टर को पुलिस द्वारा नुकशान पहुचाया गया है|<br />
आजादी के बाद , मोदी सरकार सबसे ज्यादा किसान विरोधी और कारपोरेट पक्षी सरकार है |गत वर्ष मंदसौर मे 6 किसानो की हत्या की गयी, किसानो की आत्महत्या जारी है, सरकार किसानो एवंआम जनता से सीर्फ झूठे वादे करती है, और राहत एवं माफी कारपोरेट्स- पुजिपतियो को देती है| अ.भा. किसान सभा गत 5 सितम्बर को मजदूरो के साथ मिलकर संसदके सामने लाखो(aiks,citu,aiawu) की संख्या मे ''मजदूर किसान संघर्ष''रैली कर मान्गो को उठाया|और अगले 28-30 नवम्बर को फिर लाखो किसान संसद की ओर अ.भा. किसान संघर्ष समन्वय समिति के बैनर मे संयुक्त मार्च करेंगे |<br />
मोदी सरकार को किसान विरोधी और जन विरोधी नीतियो को छोड़ना होगा अन्यथा आम जनता अगले चुनाव मे भाजपा को सत्ता की गद्दी से नीचे उतार देने के लिए मजबूर हो जायेगी |</div>
Devendra Prataphttp://www.blogger.com/profile/04058854873119577592noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2264830081803709796.post-55313412963106827662018-10-02T05:23:00.001-07:002018-10-02T05:43:42.316-07:00नशे में चूर मिला सीनियर फार्मासिस्ट <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<span style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: left;"><a href="https://youtu.be/_rvi7VjxEjc" target="_blank">https://youtu.be/_rvi7VjxEjc</a></span></div>
<a name='more'></a><br />
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<iframe width="320" height="266" class="YOUTUBE-iframe-video" data-thumbnail-src="https://i.ytimg.com/vi/_rvi7VjxEjc/0.jpg" src="https://www.youtube.com/embed/_rvi7VjxEjc?feature=player_embedded" frameborder="0" allowfullscreen></iframe></div>
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<span style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: left;">जम्मू कश्मीर में सेवाओं का बुरा हाल है। इंटरनेशनल बार्डर और एलओसी से सटे ज्यादातर इलाकों में डाक्टर नहीं है और सरकार जम्मू कश्मीर के नाम पर राष्ट्रवाद का खेल खेलती है। हालत यह है कि ऐसे इलाकों स्वास्थ्य कर्मी, फार्मासिस्ट डाक्टर बन कर लोगों का इलाज करते हैं। हद तो तब हो गई जब पिछले दिनों महानपुर पीएचसी में रात को ड्यूटी पर तैनात एक सीनियर फार्मासिस्ट शराब के नशे में चूर मिला। तहसील व्यापार मंडल प्रधान सोनू गुप्ता के साथ एक महिला अपने बच्चे के उपचार के लिए वहां पहुंची थी। उन्होंने कर्मचारी से बच्चे को देखने के िलए कहा, लेकिन वह इतना ज्यादा नशे में था कि उससे उठा भी नहीं जा रहा था। ऐसे में उनको बच्चे के उपचार के िलए बिलावर जाना पड़ा। </span></div>
<span style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;">व्यापार मंडल प्रधान सोनू गुप्ता ने बताया कि वे अजय मेहरा की पत्नी के साथ बच्चे को दिखाने महानपुर में स्थित पीएचसी गए थे। उन्होंने वहां पर देखा कि रात की ड्यूटी दे रहे सीनियर फार्मासिस्ट ने जमकर शराब पी रखी थी। उन्होंने उससे आग्रह किया कि वह बच्चे को देखे, लेकिन उसने उनकी कुछ नहीं सुनी। इससे उनके साथ आए लोगों का गुस्सा बढ़ गया। बहुत ज्यादा शराब पीने से सीनियर फार्मासिस्ट से खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा था। </span><br />
<span style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;"> जानकारी के मुताबिक बच्चे के पैर में किस चीज से कट गया था। यह मालूम नहीं पड़ रहा था कि किससे उससे चोट लगी है या किसी जीव ने काटा है। ऐसे में महिला कुछ लोगों के साथ पीएचसी पहुंची थी। वहां डॉक्टर मौजूद नहीं था। ट्रामा अस्पताल की हालत वैसे ही खराब है। ऐसे में उनको बच्चे को बिलावर उप जिला अस्पताल ले जाना पड़ा, जहां पर उसका उपचार चल रहा है। लोगों ने स्वास्थ्य विभाग के उच्च अधिकारियों से इस मामले में संबंधित कर्मचारी के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग की है। बाद मेें इस कर्ममचारी निलंबित कर दिया गया, लेकिन पीएचसी मेें डाक्टर नहीं तैैैनात किया गया।</span></div>
Devendra Prataphttp://www.blogger.com/profile/04058854873119577592noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2264830081803709796.post-29462661532774183152018-10-02T04:53:00.001-07:002018-10-02T04:53:49.161-07:00चिनैनी नाशरी टनल के मजदूरों की सुनो मोदी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://youtu.be/2yExQUIDOgM"><iframe width="320" height="266" class="YOUTUBE-iframe-video" data-thumbnail-src="https://i.ytimg.com/vi/vz1DLhSpa_A/0.jpg" src="https://www.youtube.com/embed/vz1DLhSpa_A?feature=player_embedded" frameborder="0" allowfullscreen></iframe></a></div>
<a name='more'></a><br />
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https://youtu.be/2yExQUIDOgM<br />
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल कांग्रेस की बनवाई नाशरी-चेनैनी टनल का उद्घाटन कर अपनी पीठ थपथपा ली थी। यह टनल जम्मू-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है। इसे देश की सबसे लंबी सुरंग बताया गया। वे सुरंग के अंदर जीप से यात्रा किए और कुछ चहलकदमी भी की। जम्मू, कश्मीर, ऊधमपुर और रामबन जिलों को जोड़ने वाली इस सुरंग से जम्मू-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग के 30 किलोमीटर लंबे खतरनाक व दुर्गम मार्ग से बचा जा सकेगा। मोदी चले गये, फिर पलट कर कभी नहीं जाना इसे चलाने वाले मजदूर कैसे हैं हालत यह है कि तीसरा महीना हो गया टनल में काम करने वाले मजदूरों को तनख्वाह नहीं मिली है। उनके बच्चे स्कूल जा सकें इसके लिए जरूरी है कि मजदूरों को सेलरी समय से मिले। इतना ही नहीं। इन मजदूरों के लिए को ई मेडिक्लेम नहीं। वीकली के अलाव कोई अवकाश नहीं मिलता है। वीडियो में सुनिए चिनैनी नाशरी टनल के मजदूरों की कहानी उन्हीं की जुबानी।</div>
Devendra Prataphttp://www.blogger.com/profile/04058854873119577592noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2264830081803709796.post-14262195218516620322018-10-02T00:16:00.000-07:002018-10-02T05:29:26.042-07:00भारत-अमेरिका के बीच सैन्य अभ्यास <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<iframe allowfullscreen="" class="YOUTUBE-iframe-video" data-thumbnail-src="https://i.ytimg.com/vi/_-H4IuCZcHM/0.jpg" frameborder="0" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/_-H4IuCZcHM?feature=player_embedded" width="320"></iframe></div>
<a href="https://youtu.be/_-H4IuCZcHM" target="_blank">https://youtu.be/_-H4IuCZcHM</a><br />
भारत और अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ तैयारी को ध्यान में रख कर युद्ध अभ्यास उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के चौबटिया, रानीखेत में चल रहा है। सैन्य अभ्यास करने के बाद कुछ मस्ती के पल बिताते हुए फौजी। बेड़ू पाके बारो मासा...और अन्य उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोकगीतों पर सैनिकों ने जम कर मस्ती की।<br />
<br />
Joint Military exercises between India and America in Ranikhet, Almora in Uttarakhand. This exercise is based on to Counter Terrorism.</div>
Devendra Prataphttp://www.blogger.com/profile/04058854873119577592noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2264830081803709796.post-31090685314516370362018-10-01T00:39:00.001-07:002018-10-02T05:27:53.431-07:00भारतीय क्षेत्र में घुस आया पाकिस्तानी सेना का हेलीकाप्टर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<iframe allowfullscreen="" class="YOUTUBE-iframe-video" data-thumbnail-src="https://i.ytimg.com/vi/kIuT_py2IvM/0.jpg" frameborder="0" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/kIuT_py2IvM?feature=player_embedded" width="320"></iframe></div>
<span style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;"><a href="https://youtu.be/kIuT_py2IvM" target="_blank">https://youtu.be/kIuT_py2IvM</a></span><br />
<span style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;">एक तरफ हमारे 56 इंच का सीना रखने वाले हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय सेना की सर्जिकल स्ट्राइक को आने वाले चुनावों में कैश कराने में जुटे हैं और इसके लिए कल ही पूरे देश में उन्होंने पराक्रम दिवस भी मनवाया, वहीं सर्जिकल स्ट्राइक के दूसरे ही दिन पाकिस्तानी सेना का एक हेलीकाप्टर भारतीय क्षेत्र में करीब दो किलोमीटर अंदर तक घुस आया। पुंछ के नियंत्रण रेखा पर स्थित करमाड़ा सेक्टर में आया यह हेलीकाप्टर डेढ़ किलोमीटर अंदर आने के बाद आराम से करीब पांच किलोमीटर लंबी दूरी तय कर माल्टी सेक्टर की तरफ भी गया। उसके इस रूट पर भारतीय सेना की तीन चौकियां भी पड़ीं। जैसे ही सेना के जवानों ने पाकिस्तानी सेना का हेलीकाप्टर देखा, तो तुरंग उधमपुर में वायुसेना के हेडक्वार्टर फोन कर दिया गया। इसके बाद वहां से वायुसेना के जहाज पुंछ पहुंच गए। इस बीच भारतीय सेना के जवानों ने हेलीकाप्टर को निशाना बनाकर गोलाबारी भी शुरू कर दी। हालांकि बहुत नीचे उड़ने के बाद भी पाकिस्तानी सेना का हेलीकाप्टर आसानी से वापस अपने क्षेत्र में लौट गया। </span></div>
Devendra Prataphttp://www.blogger.com/profile/04058854873119577592noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2264830081803709796.post-85642846160694879782018-09-26T03:46:00.000-07:002018-09-26T20:26:59.665-07:00बार्डर रोड संगठन के खिलाफ बार्डर के मजदूर सड़क पर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjMIuEkvWRBYGsHJCP92paZgAT_4Moa2HS4OEXZij6_zRwBKfhlzvednDVRPRj7qaCq7-1DjnbEL9u3XAAE1djuNGrO3U2mgF3qKG6X3EYnV20JC6t3wZM3iSQUs0t5V-QY9L1aeMbJf8w/s1600/IMG-20180926-WA0006.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1040" data-original-width="780" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjMIuEkvWRBYGsHJCP92paZgAT_4Moa2HS4OEXZij6_zRwBKfhlzvednDVRPRj7qaCq7-1DjnbEL9u3XAAE1djuNGrO3U2mgF3qKG6X3EYnV20JC6t3wZM3iSQUs0t5V-QY9L1aeMbJf8w/s400/IMG-20180926-WA0006.jpg" width="300" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">देश के सीमावर्ती इलाके मेंत्रबार्डर रोड आर्गेनाइजेशन के खिलाफ रैली निकालते बार्डर के मजदूर।</td></tr>
</tbody></table>
बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन (बीआरओ) का मुख्य काम है डिफेंस के लिए रोड का निर्माण करना। सरक्षा बलों के लिए बार्डर के इलाकों के हजारों मजदूर सड़क बनाते हैं। हो सकता है भाजपा इसके लिए अपने तथाकथित राष्ट्रवाद के नाम पर मजदूरों की पीठ भी थपथपाना चाहे, लेकिन शायद ही वह ऐसा करे, क्योंकि इससे उसकी अंगुलियां जल जाएंगी। वजह यह है कि इन मजदूरों में सत्ता के साथ ही उसके चाटुकार मजदूरों में जबरदस्त गुस्सा है। बीआरओ इन सड़क बनाने वाले मजदूरों का भयंकर शोषण करता है। इसके खिलाफ अब मजदूर संगठित होने लगे हैं।<br />
हजारों की तादाद में कैजुअल पेड लेबर ( सीपीएल) के लिए समय-समय पर भारत सरकार द्वारा कई ऑर्डर निकाले गए। जैसे- 26 जुलाई 1979, 10 दिसंबर 1993 और 30 दिसंबर 1911। इन आदेशों के जरिए बीआरओ के सीपीएल मजदूरों के लिए पेंशन, राशन आदि योजनाओं का लाभ सुनिश्चित किया गया। लेकिन, बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन द्वारा मजदूरों को न तो समय पर वेतन, न सप्ताहिक छुट्टी दी जाती है। इनके लिए कोई सामाजिक सुरक्षा की गारंटी नहीं है। काम करते वक्त कोई सुरक्षा उपकरण नहीं दिया जाता है। बजट में जो भी सहूलियतें मजदूरों के लिए आती हैं, उनमें से 5 परसेंट भी सीपीएल मजदूरों को नहीं मिलती है। भ्रष्टाचार के चलते बीआरओ के द्वारा मजदूरों के श्रम कानून को पैरों तले रोंदा जा रहा है। ये मजदूर अपनी जिंदगी के 5 से लेकर 40 साल बीआरओ को देते हैं ताकि वह देश के निर्माण के लिए, दुश्मन को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए सड़कें बना सके, लेकिन जब ये मजदूर शरीर से कमजोर होकर काम छोड़ देते हैं, तो इनको कोई पैंशन भी नहीं मिलती है। इपीएफ, ईएसआई जैसी सुविधाओं से यह मजदूर वंचित हैं। यूनियन का यह मानना है इन मजदूरों का जिस कदर विभाग के द्वारा शोषण किया जा रहा है उसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। अब ये मजदूर संगठित होने लगे हैं। खास बात यह है कि इन मजदूरों ने एलान किया है कि वे किसी भी क्षेत्र के श्रमिक के साथ बिरादराना एकता बना कर उनके संघर्षों में भी शिरकत करेंगे। मजदूरों के इन अधिकारों की लड़ाई को यूनियन केंद्रीय स्तर पर लड़ने का निर्णय लिया गया है और इस आंदोलन को और तेज किया जाएगा।<br />
<br />
इस रिपोर्ट की वीडियो भी देखें-<br />
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https://youtu.be/ECIFROVkdmc<br />
https://youtu.be/3e0hqLBbbp4</div>
Devendra Prataphttp://www.blogger.com/profile/04058854873119577592noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2264830081803709796.post-54022642685977969432018-09-19T22:42:00.000-07:002018-09-19T22:42:04.106-07:00मेरा साथी, मित्र और नेता भगत सिंह: शिव वर्मा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक दिन प्रात: जब मैं कमरे में बैठा कालेज का काम पूरा कर रहा था तो सुना बाहर पड़ोसी से कोई मेरा पता पूछ रहा है। अपना नाम सुनकर मैं बाहर निकल आया, देखा मैला शलवार-कमीज पहने कम्बल ओढ़े एक सिख नौजवान सामने खड़ा है- लंबा कद, खूब गोरा रंग, छोटी-छोटी आंखें, चुभती हुई पैंनी निगाह, खूबसूरत चेहरे पर हल्की-हल्की छोटी-सी दाढ़ी, केश और पगड़ी। ''यह रहे शिव वर्मा'' मुझे देखकर पड़ोसी ने कहा।<br />
आगंतुक दोनों हाथ फैलाकर मेरे ऐसे लिपट गया मानो कोई बहुत पुराना दोस्त हो। फिर मेरा हाथ खींचते हुए उसने कमरे में ऐसे प्रवेश किया जैसे कमरा मेरा नहीं उसी का था। छोटे कमरे में जगह की तंगी के कारण मैंने चारपाई निकाल कर जमीन पर ही बिस्तर लगा रखा था। उसने बगैर किसी तकल्लुफ के निस्संकोच जाकर बिस्तर पर आसन लगा दिया और मेरा हाथ खींच कर पास बिठलाते हुए बोला, ''मेरा नाम रंजीत है। मैं दो-चार दिन यहीं रहूंगा। दिल्ली के तुम्हारे दोस्त से मैं तुम्हारे और जयदेव के बारे में सुन चुका हूं। मैं भी तुम्हारी ही डगर का राहगीर हूं।'' फिर कुछ सोचकर पूछा, ''विजय और सुरेंद्र पांडे को जानते हो?''<br />
रंजीत के सहज व्यवहार, निष्कपट हंसी और मुस्कुराती हुई आंखों ने पहली ही मुलाकात में मेरे सब हथियार छीन लिए थे और अब मेरे लिए उस पर अविश्वास करना असंभव था। रोक-थाम के मेरे सारे बांध टूट गए और मैंने भी उसी सहज भाव से कह दिया ''हां, जानता हूं''। <br />
''तो इन दोनों को कहला दो कि आज रात यहीं आकर मुझ से मिल लें,'' उसने कहा। फिर कुछ रुक कर पूछा, ''जयदेव कहां है?''<br />
इस बार मैं झूठ बोल गया। साहस बटोर कर कह दिया, ''कहीं बाहर गया है, यहां नहीं है।''<br />
मैं बात टाल गया हूं इसे रंजीत ने भांप लिया। इस विचार ने कि मैं अभी तक उस पर विश्वास नहीं कर पाया हूं, कुछ देर के लिए उसे उदास-सा कर दिया। वह अपने साथ विक्टर ह्यूगो का सुप्रसिध्द उपन्यास ला मिजरेबुल लाया था। उसने चुपचाप उसे पढ़ना आरंभ कर दिया-मानो किसी ने उसकी हंसी, उसकी बातचीत, उसके बेतकल्लुफाना व्यवहार आदि पर अचानक ब्रेक लगा दिया हो।<br />
मैं झूठ बोल तो गया पर दिल में बात खटकती-सी रही। भगत सिंह की उदासी के सामने मेरे लिए कमरे में ठहरना कठिन हो गया और विजय को खबर भेजवाने के बहाने मैं कालेज चला गया। सुरेंद्र जीत का पैगाम दिया तो उन्होंने बतलाया कि वह पार्टी का पुराना आदमी है।<br />
कालेज से वापस आते-आते दोपहर के खाने का समय हो गया था। जयदेव और मैं प्राय: मेस में खाना खाने एक ही साथ जाते थे। रंजीत के लिए कमरे में खाना मंगवाने के बजाय मैं उसे भी साथ लेता गया। मेस में उस समय हम तीन ही खाने वाले थे। रंजीत बीच में जयदेव के पास ही बैठा था लेकिन मेस का कोई अन्य सदस्य समझ कर उसने उधर ध्यान नहीं दिया। फिर जब जयदेव ने चुपचाप उसकी दाल में कस कर गरम घी छोड़ दिया तो उसने पहले जयदेव की ओर देखा फिर प्रश्न भरी निगाह से मेरी ओर देखने लगा। उसकी उलझन पर हम दोनों को हंसी आ गयी। उसके मुंह से निकल गया ''जयदेव?'' हम लोग और जोर से हंस पड़े। रंजीत ने मेरी पीठ पर जोर का घूंसा जमाते हुए कहा ''चोर कहीं के।'' फिर व्यंग्य कसते हुए बोला ''लगता है अपनों को बहुत सहेज कर रखने की आदत है''।<br />
''फिलहाल तो तुम्हारी घूसे की चोट ने अपना-पराया सब बराबर कर दिया है,'' मैंने कहा।<br />
उसने बांया हाथ मेरी पीठ पर फेरते हुए कहा,''लो पीठ सहलाये देता हूं, अब चुप-चाप खा लो।''<br />
रंजीत मेरे कमरे में जितने दिन रहा प्राय: रोज ही विजय और सुरेंद्र पांडे आते रहे। वह काकोरी के अभियुक्त पंडित रामप्रसाद बिस्मिल को जेल से छुड़ाने की योजना पर विचार विमर्श करने आया था। तीन-चार दिन रहने के बाद बिस्मिल से सम्पर्क स्थापित कर योजना पक्की कर रखने का भार विजय पर छोड़ वह पंजाब वापस चला गया।<br />
रंजीत के चले जाने के बाद मुझे पता चला कि उसका असली नाम भगत सिंह है और वह पहले भी कानपुर में श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के पास 'प्रताप' में काम कर चुका है। कानपुर में 'प्रताप' में काम शुरू करने से पहले कुछ दिन उसने अखबार बेचकर भी निर्वाह किया था। यह भी पता चला कि बिस्मिल को जेल से छुड़ाने का एक प्रयास पहले भी हो चुका था जिसे किन्हीं कारणों वश बीच में ही छोड़ देना पड़ा था। उसमें भाग लेने के लिए भगत सिंह और सुखदेव के साथ पंजाब के कई और साथी भी आए थे। उसी दिशा में अब यह उसका दूसरा प्रयास था।<br />
लगभग दो महीने बाद भगत सिंह फिर वापस आया। इस बार वह काफी दिन ठहरा। रामप्रसाद बिस्मिल के साथ विजय का संपर्क पहले तो खूब अच्छा रहा। बिस्मिल ने योजना की स्वीकृति भी दे दी थी, लेकिन दिन और समय अभी निश्चित नहीं हो पाया था। उधर केस के फैसले का दिन नजदीक आता जा रहा था। इसी बीच कुछ ऐसा हुआ कि बिल्मिल से पत्र व्यवहार और मुलाकातें आदि एकदम बंद हो गईं और उन पर सख्त पहरा लगा दिया गया। यह सब क्यों और कैसे हुआ यह तो नहीं जानता लेकिन इससे योजना को गहरा धक्का लगा। फिर भी विजय ने अपना प्रयास जारी रखा।<br />
भगत सिंह मेरे कमरे में अधिकतर अपना समय पढ़ने में व्यतीत करता था। विक्टर ह्यूगो, हालकेन, टालस्टाय, दॉस्तोयवस्की, गोर्की, बर्नार्ड शॉ, डिकेंस आदि उसके प्रिय लेखक थे। पढ़ने से जब उसकी तबियत ऊबती तो वह छात्रावास के पीछे गंगा के किनारे जाकर बैठ जाता, या जब मुझे और जयदेव को कालेज से फुरसत होती तो हम लोगों से गप्प करता। उसकी बातचीत का विषय अधिकतर उसकी पढी हुई पुस्तकें होतीं। वह उनके बारे में बतलाता और फिर जोर देता कि हम भी उन्हें पढ़ें। कभी-कभी पुराने क्रांतिकारियों की कहानियां भी सुनाता-कूका विद्रोह, गदर पार्टी का इतिहास, कर्तार सिंह, सूफी अम्बाप्रसाद आदि की जीवनियां तथा बबर-अकालियों की बहादुरी की कहानियां बतलाते-बतलाते वह प्राय: ही भावुक हो उठता। उसकी वर्णन शैली में एक अजीब आकर्षण था जिससे खिंच कर प्राय: रोज ही हम दोनों घंटों पहले कालेज से भाग आते थे।<br />
जयदेव आरंभ से ही मुझ से तगड़ा था। जोखिम से भिड़ने की उसकी आदत थी और मारपीट में उसका हाथ हमेशा से खुला था। उसके इन्हीं सब गुणों से प्रभावित होकर भगत सिंह ने उसे बिस्मिल वाले ऐक्शन में ले जाने का फैसला कर लिया। एक दिन दोपहर के समय जब उसने अपना उक्त निर्णय मुझसे बतलाया तो मुझे अपने दुबले-पतले शरीर पर बड़ी झुंझलाहट महसूस हुई। मैं पार्टी के काम के योग्य नहीं समझा गया इस विचार से मुझे गहरा आघात लगा और कुछ देर बैठे रहने के बाद नींद का बहाना लेकर मैं एक तरफ लेट गया। भगत सिंह जानता था कि मैं सो नहीं रहा हूं। वह कुछ देर तक पास पड़ी एक पुस्तक के पन्ने उलटता रहा, फिर मेरा कंधा हिलाते हुए उसने धीरे से पुकारा ''शिव''।<br />
''क्या है?'' उसकी ओर करवट बदलते हुए मैंने कहा।<br />
''एक बात पूंछू?''<br />
''कहो।''<br />
''व्यक्ति का नाम बड़ा है या पार्टी का काम?''<br />
''पार्टी का काम,'' मैंने उत्तार दिया।<br />
''और पार्टी का काम अविराम गति से चलता रहे, हमारे, 'ऐक्शन्स' सफल होते रहें, हमारी बात देशवासियों तक नियमित रूप से पहुंचती रहे, आज़ादी की अपनी इस लड़ाई में हर मंजिल पर हम कामयाब होते रहें, इसके लिए पहली शर्त क्या है?''<br />
''एक मजबूत और व्यापक संगठन,'' मैंने उत्तर दिया।''संगठन और प्रचार'' उसने कहा। ''देश की जनता हमारे साहस और हमारे कामों की सराहना करती है लेकिन हमसे अपना सीधा संपर्क जोड़ पाने में वह असमर्थ है।अभी तक हमने खुले शब्दों में उसे यह भी नहीं बतलाया कि जिस आजादी की हम बात करते हैं उसकी रूप-रेखा क्या होगी, अंग्रेजों के चले जाने के बाद जो सरकार बनेगी वह कैसी होगी और किसकी होगी। अपने आंदोलन को जनाधार देने के लिए हमें अपना ध्येय जनता के बीच ले जाना होगा, क्योंकि जनता का समर्थन प्राप्त किए बगैर हम अब पुराने ढंग से इक्के-दुक्के अंग्रेज अधिकारियों को या सरकारी मुखबिरों को मार कर नहीं चल सकते। हम अभी तक संगठन तथा प्रचार की ओर से उदासीन रह कर प्राय: ऐक्शन पर ही जोर देते आए हैं। काम का यह तरीका हमें छोड़ना पड़ेगा। मैं तुम्हें और विजय को संगठन तथा प्रचार के कामों के लिए पीछे छोड़ना चाहता हूं। कुछ देर चुप रह कर उसने कहा, ''हम सब लोग सिपाही हैं। और सिपाही का सबसे अधिक मोह होता है रणक्षेत्रा से। इसीलिए 'ऐक्शन' पर चलने की बात उठते ही सब लोग उछल पड़ते हैं। फिर भी आंदोलन का ध्यान रखकर किसी न किसी को तो 'ऐक्शन' का यह मोह छोड़ना ही पड़ेगा। यह सही है कि आमतौर पर शहादत का सेहरा 'ऐक्शनन्स' में जूझने वालों या फांसी पर झूल जाने वालों के सर पर ही बंधता है, लेकिन इसके बावजूद उनकी स्थिति इमारत के मुख्य द्वार पर जड़े उस हीरे के समान ही रहती है जिसका मूल्य जहां तक इमारत का सवाल है, नींव के नीचे दबे एक साधारण पत्थर के मुकाबिले कुछ भी नहीं होता।''<br />
मैं लेटे-लेटे भगत सिंह की बातें सुनता रहा। वह मेरे सर के पास दीवार का सहारा लिए बैठा था और ऐसे बात कर रहा था मानो जोर-जोर से सोचने का प्रयास कर रहा हो। बीच-बीच में उसके दाहिने हाथ की उंगलियां मेरे सर के बालों में घूम जातीं और वह फिर धीरे-धीरे रुक-रुक कर उसी लहजे में बोलना शुरू कर देता:<br />
''हीरे इमारत की खूबसूरती बढ़ा सकते हैं, देखने वालों को चकाचौंध कर सकते हैं, लेकिन इमारत की बुनियाद नहीं बन सकते, उसे लंबी उम्र नहीं दे सकते, सदियों तक अपने मजबूत कंधों पर उसके बोझ को उठा कर उसे सीधा खड़ा नहीं रख सकते। अभी तक हमारे आंदोलन ने हीरे कमाए हैं, बुनियाद के पत्थर नहीं बटोरे। इसीलिए इतनी कुर्बानी देने के बाद भी हम अभी तक इमारत क्या उसका ढांचा भी खड़ा नहीं कर पाए। आज हमें बुनियाद के पत्थराें की जरूरत है।'' फिर कुछ रुककर बोला, ''और त्याग तथा कुर्बानी के भी दो रूप हैं। एक है गोली खाकर या फांसी पर लटक कर मरना। इसमें चमक अधिक है लेकिन तकलीफ कम। दूसरा है पीछे रहकर सारी जिंदगी इमारत का बोझ ढोते फिरना। आंदोलन के चढ़ाव उतार के बीच प्रतिकूल वातावरण में कभी ऐसे भी क्षण आते हैं जब एक एक कर सभी हमराही छूट जाते हैं। उस समय मनुष्य सांत्वना के दो शब्दों के लिए भी तरस उठता है। ऐसे क्षणों में भी विचलित न होकर जो लोग अपनी राह नहीं छोड़ते, इमारत के बोझ से जिनके पैर नहीं लड़खड़ाते, कंधे नहीं झुकते, जो तिल-तिलकर अपने आपको इसलिए गलाते रहते हैं, इसलिए जलाते रहते हैं कि दिए की जोत मध्दिम न पड़ जाए, सुनसान डगर पर अंधेरा न छा जाए, ऐसे लोगों की कुर्बानीऔर त्याग पहले वालों के मुकाबिले क्या अधिक नहीं हैं?''<br />
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दो-तीन दिन बाद विजय ने आकर जेल में बिस्मिल पर होने वाली सख्ती और अधिकारियों की सतर्कता का समाचार दिया और बतलाया कि फिलहाल उन्हें छुड़ाने के अपने मंसूबे हमें त्यागने पड़ेंगे। इस समाचार ने भगत सिंह की सारी योजनाएं चौपट कर दीं, उसके सारे ख्वाब तोड़ दिए। बहुत कुछ कोशिशों के बाद बिस्मिल की लिखी एक गज़ल ही विजय के हाथ लग पायी थी। वह गज़ल हमारी योजनाओं को कार्यान्वित होने में देरी होते देख उन्होंने शायद उलाहने के तौर पर लिखी थी; जिसे अधिकारियों ने संभवत: प्रेम की एक साधारण कविता समझ कर पास कर दिया था। इस समय गज़ल की कुछ ही पंक्तियां मुझे याद हैं जो इस प्रकार थीं:<br />
मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या,<br />
दिल की बरबादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या!<br />
मिट गई जब सब उमीदें मिट गए सारे खयाल,<br />
उस घड़ी गर नामावार लेकर पयाम आया तो क्या! ऐ दिले नादान मिट जा अब तू कूये यार में,<br />
फिर मेरी नाकामियों के बाद काम आया तो क्या! काश अपनी जिंदगी में हम वो मंजर देखते, बरसरेतुरबत कोई महशरखराम आया तो क्या! आखिरी शव दीद के क़ाबिल थी बिस्मिल की तड़प, सुबेहदम कोई अगर बालायेबाम आया तो क्या!<br />
भगत सिंह ने विजय के हाथ से लेकर पर्चा पढ़ा। बिस्मिल का इशारा साफ था-कुछ करना है तो जल्दी करो, बाद में रस्से से लटकती मेरी लाश को तुमने अगर छुड़ा भी लिया तो वह तुम्हारे किस काम आएगी। कागज का वह टुकड़ा उसके हाथ से छूट कर जमीन पर गिर पड़ा और वह माथे पर हाथ रख कर पत्थर की निर्जीव मूर्ति की भांति दीवार के सहारे लुढ़क गया। अब और अधिक बातचीत उस दिन किसी के लिए भी संभव न थी। विजय और सुरेंद्र चले गए और भगत सिंह बगैर कुछ बोले चुप-चाप उठ कर गंगा की ओर चला गया।<br />
काफी रात बीत जाने पर जब मैं और जयदेव उसकी तलाश में गंगा के किनारे पहुंचे तो उस समय भी वह माथे पर हाथ रक्खे ठंडी रेत पर उसी तरह पत्थर की मूर्ति बना बैठा था। हमने पास जाकर उसके कंधे पर हाथ रक्खा और कमरे में चलने के लिए कहा। वह उठा और परछाई की भांति हमारे पीछे हो लिया, बोला फिर भी नहीं।<br />
कई महीने के परिश्रम से उसने जहां कुछ भी न था वहां संगठन का एक ढांचा खड़ा किया, योजना बनाई, हथियार जमा किए, साथी जुटाए और जब मंजिल नजदीक आने लगी और उसे लगा कि वह कुछ कर सकने में समर्थ हो सकेगा तो अचानक सब कुछ उलट गया-रह गया था केवल बिस्मिल का उलाहना। भगत सिंह को इससे गहरा आघात लगा, लेकिन एक ही दिन में उसने अपने ऊपर काबू पा लिया।<br />
दूसरे दिन वह स्वयं ही बोला, ''असफलताओं के सामने सर झुका कर बैठ जाने से तो मार्ग ही अवरुध्द हो जाएगा और तब रास्ते के रोड़े हटा कर बढ़ने के बजाय हम स्वयं ही दूसरों के लिए रोड़ा बन जायेंगे।'' उसने सब साथियों को एकत्रा कर संगठन तथा प्रचार की समस्याओं पर बातचीत की, आगे का कार्यक्रम बनाया और जल्द वापस आने का वादा कर पंजाब चला गया। यह 1927 के शुरू के दिनों की बात है।<br />
1926 में भगत सिंह, सुखदेव, भगवतीचरण, यशपाल आदि ने लाहौर में नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी। यह क्रांतिकारी आंदोलन का एक प्रकार का खुला मंच था जिसका काम था आम सभाओं, बयानों, पर्चों आदि के माध्यम से क्रांतिकारियों के और उनके विचारों का प्रचार करना। शोषण, दरिद्रता, असमानता आदि की संसार व्यापी समस्या पर अध्ययन एवं विचार कर वे लोग इस परिणाम पर पहुंचे थे कि भारत की पूर्ण स्वाधीनता के लिए केवल राजनैतिक ही नहीं बल्कि आर्थिक स्वाधीनता भी आवश्यक है। मैजिक लैंटर्न द्वारा क्रांतिकारी शहीदों के चित्रों का प्रदर्शन और उसके साथ-साथ कमेंटरी के रूप में क्रांतिकारी आंदोलन के संक्षिप्त इतिहास से जनता को अवगत कराना भी उसका एक काम था। प्रचार का वह एक सशक्त माध्यम था।<br />
नौजवान भारत सभा की स्थापना गुप्त संगठन के कार्य का क्षेत्र तैयार करने और जनता में साम्राज्यवाद विरोधी उग्र राष्ट्रीय भावना जगाने के लिए की गयी थी। भगत सिंह और भगवतीचरण वोहरा उसके मुख्य सूत्राधार थे। भगत सिंह उसके प्रथम महामंत्राी (जनरल सेक्रेटरी) और भगवतीचरण वोहरा प्रथम प्रचारमंत्री चुने गए थे। सुखदेव, धन्वन्तरी, यशपाल और एहसान इलाही भी सभा के प्रमुख एवं सक्रिय सदस्यों में से थे। उस समय समाजवाद की ओर रुझान रखने वाले कांग्रेस के प्राय: सभी नौजवान खिंच कर सभा में आ गए थे।<br />
सभा के कार्यकर्ताओं के राजनैतिक एवं सामाजिक ष्दृष्टिकोण को परिमार्जित करने और उन्हें वैज्ञानिक भौतिकवाद से परिचित कराने में 'सर्वेंट्स आफ़ पीपल्स सोसाइटी' के प्रिंसिपल छबीलदास का विशेष हाथ था। उनकी एक छोटी सी पुस्तिका 'क्या पढें' ने उस समय अध्ययन के लिए पुस्तक चुनने में हमारी काफी सहायता की थी। इनके अलावा कुछ कांग्रेसी तथा गैर कांग्रेसी नेताओं का सहयोग भी सभा को मिलता रहता था। इनमें डॉ. सत्यपाल, डॉ. किचलू, केदारनाथ सहगल और सोहन सिंह जोश के नाम उल्लेखनीय हैं।<br />
भगत सिंह जब भी कानपुर आता तो अन्य पुस्तकों के साथ नौजवान भारत सभा का कुछ न कुछ साहित्य अपने साथ अवश्य लाता था। राधामोहन गोकुलजी और सत्यभक्त के संपर्क ने कानपुर के हम सभी साथियों में समाजवाद की ओर रुझान पैदा कर दिया था। शचींद्रनाथ सान्याल के माध्यम से श्रीराधामोहन गोकुलजी और सत्यभक्त से भगत सिंह का संपर्क काकोरी से पहले ही स्थापित हो चुका था और यह चारों<br />
समाजवाद तथा कम्युनिज्म पर काफी विचार विनिमय कर चुके थे। स्वर्गीय श्री गणेश शंकर विद्यार्थी के नेतृत्व में हम लोगों ने कानपुर मजदूर सभा में भी दिलचस्पी लेनी आरंभ कर दी थी। आगे चल कर भगत सिंह ने हमारे उस रुझान को बल दिया और समाजवाद का अध्ययन तथा उस पर बहस आदि करने की प्रेरणा प्रदान की।<br />
उसका कहना था कि अंग्रेजी दासता के विरुध्द संघर्ष तो हमारे युध्द का पहला मोर्चा है। अंतिम लड़ाई तो हमें शोषण के विरुध्द ही लड़नी पड़ेगी। चाहे वह शोषण मनुष्य द्वारा मनुष्य का हो या एक राष्ट्र द्वारा दूसरे का हो। यह लड़ाई जनता के सहयोग के बगैर नहीं लड़ी जा सकती। इसलिए हमें हर संभव उपायों से जनता के अधिक से अधिक निकट पहुंचने का प्रयास करते रहना चाहिए। नौजवान भारत सभा की स्थापना, मजदूर सभा में काम, पत्रा-पत्रिकाओं में लेख-मालाएं, मैजिक लैंटर्न का प्रयोग, पर्चे और पैम्फलेट आदि इसी प्रयास के अंग थे।<br />
भगत सिंह से पहले प्रचार तथा जनसंपर्क की दिशा में इतना बड़ा संगठित कदम क्रांतिकारियों ने नहीं उठाया था। यहां तक कि पकड़े जाने के बाद अदालत तक को उसने मुख्यतया अपने विचारों के प्रचार के साधन के रूप में ही इस्तेमाल किया। वह अच्छा योध्दा ही नहीं अच्छा प्रचारक भी था।<br />
प्रचार के दो मुख्य साधन हैं, वाणी तथा लेखनी। भगत सिंह का दोनों पर समान अधिकार था। आमने-सामने की बातचीत में होने के साथ ही वह अच्छा वक्ता भी था। नौजवानों तथा विद्यार्थियों के बीच मैजिक लैंटर्न पर उसके भाषण तो विशेष रूप से लोकप्रिय थे।<br />
और कलम का धनी तो वह था ही। हिंदी, उर्दू, पंजाबी और अंग्रेजी पर उसका समान अधिकार था। उन दिनों कामरेड सोहन सिंह जोश अमृतसर में 'किरती' नाम से गुरुमुखी तथा उर्दू में एक मासिक पत्रिाका निकालते थे। भगत सिंह उन में नियमित रूप से लिखता था। विभिन्न नामों से 'किरती' में क्रांतिकारी शहीदों की जो जीवनियां प्रकाशित हुई थीं उनमें से अधिकांश भगत सिंह की ही कलम की देन थीं। हिंदी में उसने अधिकतर 'प्रताप' तथा 'प्रभा' (कानपुर), 'महारथी'(दिल्ली) और 'चांद' (इलाहाबाद) में ही लिखा।<br />
अंग्रेजी में लिखे हुए उसके लेख, अदालती वक्तव्य, पत्रा, पर्चें, आदि उसकी सशक्त शैली के प्रमाण हैं। नौजवान भारत सभा के घोषणापत्रा का अंग्रेजी मसविदा भगवतीचरण ने भगत सिंह के साथ मिलकर 1928 में तैयार किया था। भाषा-शैली तथा देश के उस समय के राजनैतिक स्तर को देखते हुए विचारों की परिपक्वता की दृष्टि से उस घोषणापत्रा का आज भी एक ऐतिहासिक महत्व है। असेंबली में बम फेंकने के बाद पकड़े जाने पर अदालत में उसने जो बयान दिया था, वह तो उसी समय एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति का दस्तावेज बन गया था।<br />
उसे पढ़ने-लिखने का भी बेहद शौक था। वह जब भी कानपुर आता तो अपने साथ<br />
दो-चार पुस्तकें अवश्य लाता। बाद में फरार जीवन में जब उसके साथ रहने का अवसर मिला तो देखा कि पिस्तौल और पुस्तक का उसका चौबीस घंटे का साथ था। मुझे ऐसा एक भी अवसर याद नहीं पड़ता जब मैंने उसके पास कोई न कोई पुस्तक न देखी हो।<br />
1923-24 में भगत सिंह के पिता उसका विवाह करने पर तुल गए थे। पिता की जिद से बचने के लिए वह भाग कर कानपुर चला आया। कुछ दिन दिल्ली भी रहा। यहां उसने बड़ी मुसीबतों में दिन बिताए। दिल्ली, कानपुर से जब वह लाहौर वापस गया तो उसकी पगड़ी का स्थान एक छोटे अंगौछे ने ले लिया था। उसकी कमीज उसके शरीर का साथ छोड़ गयी थी और जब उसका बंद गले का खद्दर का कोट कमीज का काम दे रहा था। कोट की आस्तीनें फट जाने पर उसने पायजामे की टांगें आस्तीन की जगह जोड ली थीं और पायजामे का स्थान उसकी चादर ने ले लिया था। जिसे वह लुंगी की तरह इस्तेमाल करने लगा था। लेकिन इस हालत में भी उसके कोट की जेब में कोई न कोई पुस्तक अवश्य रहती थी।<br />
भगत सिंह को सौंदर्य, संगीत तथा कला से भी बेहद प्यार था। आगरा केंद्र पर जब कभी पंजाब से सुखदेव आ जाता तो वे दोनों एक दूसरे में ऐसे खो जाते मानो और कोई हो ही नहीं। उस समय पंजाब कांग्रेस की गतिविधि, उसके नेताओं की आपसी पैंतरेबाजियां, नौजवान भारत सभा का काम, बुध्दिजीवियों का मानसिक चढ़ाव-उतार, क्रांतिकारी आंदोलन की समस्याएं, मजदूरों के संघर्ष आदि विषयों से लेकर किसने क्या पढ़ा है, पठित पुस्तकों के लेखकों की शैली और उसके विचार, नयी पिक्चर्स, अभिनेताओं की ऐक्टिंग आदि सभी बातों पर बहस होती।<br />
भगत सिंह से पहले क्रांतिकारियों का उद्देश्य था केवल मात्र देश की आजादी। लेकिन इस आजादी से हमारा क्या अभिप्राय है इस पर उससे पहले हमारे दिमाग साफ न थे। क्या अंग्रेज वायसराय को हटा कर उसके स्थान पर किसी भारतीय को रख देने से आजादी की समस्या का समाधान हो जाएगा? क्या समाज में आर्थिक असमानता और उस पर आधारित मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के बरकरार रहते हम सही मायने में आजादी का उपभोग कर सकेंगे? आजादी के बाद की सरकार किस की होगी और भावी समाज की रूपरेखा क्या होगी आदि प्रश्नों पर क्रांतिकारियों में काफी अस्पष्टता थी। भगत सिंह ने सबसे पहले क्रांतिकारियों के बीच इन प्रश्नों को उठाया और समाजवाद को दल के ध्येय के रूप में सामने लाकर रखा। उसका कहना था कि देश की राजनैतिक आजादी की लड़ाई लक्ष्य की ओर केवल पहला कदम है और अगर हम वहीं पर जाकर रुक गए तो हमारा अभियान अधूरा ही रह जाएगा। सामाजिक एवं आर्थिक आजादी के अभाव में राजनैतिक आजादी दरअसल थोड़े से व्यक्तियों के द्वारा बहुमत को चूसने की ही आजादी होगी। शोषण और असमानता के उन्मूलन के सिध्दांत पर गठित समाजवादी समाज और समाजवादी राजसत्ता ही सही अर्थों में राष्ट्र का चौमुखी विकास कर सकेगी। समाजवाद उस समय युग की आवाज थी। क्रांतिकारियों में भगत सिंह ने सबसे पहले उस आवाज को सुना और पहचाना। यहीं पर वह अपने दूसरे साथियों से बड़ा था।<br />
<br />
<br />
भगत सिंह और दत्त द्वारा असेंबली भवन में फेंके गए पर्चों की पहली पंक्ति थी 'बहरों को सुनाने के लिए जोर की आवाज की जरूरत होती है।' लेकिन सरकार तो जान-बूझ कर बहरी बनी थी। असेंबली में उसका बहुमत था। ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल पास हो गया। लेकिन पब्लिक सैफ्टी बिल को पेश करने का उसका साहस नहीं हुआ। वह आर्डिनेन्स के रूप में देश के सर पर थोप दिया गया। पर्चे में फ्रेंच विप्लवी वेलां के कुछ उध्दरण देकर क्रांतिकारी दल के कार्यों का समर्थन किया गया था और कहा गया था कि जनता के प्रतिनिधि अपने निर्वाचकों के पास लौट जाए और जनता को भावी विप्लव के लिए तैयार करें।<br />
दिल्ली में अब मैं और जयदेव ही रह गए थे। हमने पहले से ही अलग एक कमरा ले लिया था। उन दोनों साथियों की गिरफ्तारी के साथ-साथ हम पुराना मकान छोड़ कर नए कमरे में आ गए। दिन भर के काम के बाद काफी रात गए जब हम सोये तो हम दोनों के दिल भारी थे। ऐसा लग रहा था मानो हम अभी-अभी अपने दो संबंधियों की बलि चढ़ाकर लौटे हों। एक दूसरे से बिना कुछ बोले ही हमने आखें बंद कर लीं। आंखें बंद करते ही मेरे सामने जेल का नक्शा घूमने लगा। उस समय तक मैंने जेल देखा न था, केवल उसकी दिल दहलाने वाली कहानियां ही सुनी थीं। एक रात पहले हम चारों एक साथ सोए थे। और अब उनमें से दो हमेशा के लिए हमसे छिन चुके थे। जीवन में उनसे अब हम कभी भी न मिल सकेंगे; इस विचार से मुझे रुलाई-सी आने लगी। आंसू बहाना कमजोरी है, अपने पर काबू पाने और अपने भावों को दबाने के विचार से में चुपचाप उठा और रात के सन्नाटे में सुनसान सड़क की ओर खुलती एक खिड़की के पास जाकर बैठ गया।<br />
जयदेव भी शायद मेरी ही तरह केवल आंख बंद किए पड़ा था। कुछ देर बाद जब उसने आंखें खोली तो देखा शिव अपने बिस्तर पर नहीं है। मुझे ढूंढ़ निकालने में उसे कठिनाई नहीं हुई। मुझे खिड़की पर चुपचाप बैठा देख वह मेरे पास आ गया। पास बैठते हुए उसने पुकारा।<br />
प्रकृति ने शरीर में दो ऐसे भेदिये लगा दिए हैं जो लाख छिपाने पर भी हृदय का सारा राज दूसरों से कह डालते हैं। बहुत कुछ संभालने पर भी मेरी आंखों से आंसू के दो बूंद लुढ़क ही गए। उसी समय दो और भेदिये भी अपनी कहानी कह डालने के लिए उतावले हो पड़े। जयदेव की आंखें भी नम हो गयीं। जब हमसफर बिछड़ जाते हैं तो शायद सब जगह ऐसा ही होता है। उस रात हम लोग काफ़ी देर तक खिड़की के पास चुपचाप बैठे रहे और भेदिये रुक-रुक कर अपनी-अपनी कहानियां कहते रहे।<br />
दल ने इन दोनों साथियों को जिस काम के लिए बलिदान किया था, उसे उन्होंने पूरे उत्तारदायित्व के साथ निबाहा। अदालत के सामने भगत सिंह और दत्ता ने दल के समाजवाद उस समय युग की आवाज थी। क्रांतिकारियों में भगत सिंह ने सबसे पहले उस आवाज को सुना और पहचाना। यहीं पर वह अपने दूसरे साथियों से बड़ा था।<br />
भगत सिंह और दत्ता द्वारा असेंबली भवन में फेंके गए पर्चों की पहली पंक्ति थी 'बहरों को सुनाने के लिए जोर की आवाज की जरूरत होती है।' लेकिन सरकार तो जान-बूझ कर बहरी बनी थी। असेंबली में उसका बहुमत था। ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल पास हो गया। लेकिन पब्लिक सैफ्टी बिल को पेश करने का उसका साहस नहीं हुआ। वह आर्डिनेन्स के रूप में देश के सर पर थोप दिया गया। पर्चे में फ्रेंच विप्लवी वेलां के कुछ उध्दरण देकर क्रांतिकारी दल के कार्यों का समर्थन किया गया था और कहा गया था कि जनता के प्रतिनिधि अपने निर्वाचकों के पास लौट जाए और जनता को भावी विप्लव के लिए तैयार करें।<br />
दिल्ली में अब मैं और जयदेव ही रह गए थे। हमने पहले से ही अलग एक कमरा ले लिया था। उन दोनों साथियों की गिरफ्तारी के साथ-साथ हम पुराना मकान छोड़ कर नए कमरे में आ गए। दिन भर के काम के बाद काफी रात गए जब हम सोये तो हम दोनों के दिल भारी थे। ऐसा लग रहा था मानो हम अभी-अभी अपने दो संबंधियों की बलि चढ़ाकर लौटे हों। एक दूसरे से बिना कुछ बोले ही हमने आखें बंद कर लीं। आंखें बंद करते ही मेरे सामने जेल का नक्शा घूमने लगा। उस समय तक मैंने जेल देखा न था, केवल उसकी दिल दहलाने वाली कहानियां ही सुनी थीं। एक रात पहले हम चारों एक साथ सोए थे। और अब उनमें से दो हमेशा के लिए हमसे छिन चुके थे। जीवन में उनसे अब हम कभी भी न मिल सकेंगे; इस विचार से मुझे रुलाई-सी आने लगी। आंसू बहाना कमजोरी है, अपने पर काबू पाने और अपने भावों को दबाने के विचार से में चुपचाप उठा और रात के सन्नाटे में सुनसान सड़क की ओर खुलती एक खिड़की के पास जाकर बैठ गया।<br />
जयदेव भी शायद मेरी ही तरह केवल आंख बंद किए पड़ा था। कुछ देर बाद जब उसने आंखें खोली तो देखा शिव अपने बिस्तर पर नहीं है। मुझे ढूंढ़ निकालने में उसे कठिनाई नहीं हुई। मुझे खिड़की पर चुपचाप बैठा देख वह मेरे पास आ गया। पास बैठते हुए उसने पुकारा।<br />
प्रकृति ने शरीर में दो ऐसे भेदिये लगा दिए हैं जो लाख छिपाने पर भी हृदय का सारा राज दूसरों से कह डालते हैं। बहुत कुछ संभालने पर भी मेरी आंखों से आंसू के दो बूंद लुढ़क ही गए। उसी समय दो और भेदिये भी अपनी कहानी कह डालने के लिए उतावले हो पड़े। जयदेव की आंखें भी नम हो गयीं। जब हमसफर बिछड़ जाते हैं तो शायद सब जगह ऐसा ही होता है। उस रात हम लोग काफ़ी देर तक खिड़की के पास चुपचाप बैठे रहे और भेदिये रुक-रुक कर अपनी-अपनी कहानियां कहते रहे।<br />
दल ने इन दोनों साथियों को जिस काम के लिए बलिदान किया था, उसे उन्होंने पूरे उत्तारदायित्व के साथ निबाहा। अदालत के सामने भगत सिंह और दत्ता ने दल के आदर्श के प्रचार के साधन के रूप में इस्तेमाल करने का पक्षपाती था। साथ ही वह यह भी चाहता था कि हम लोग अदालत में तथा जेलों में राजनैतिक बंदियों के अधिकारों के लिए अनवरत सर्घष करें, सरकार, उसकी अदालत तथा उसकी नीतियों के प्रति अपने घृणा के भाव को अपने कामों द्वारा हर उपयुक्त अवसर पर प्रदर्शित करें, और अंत में यदि वक्तव्य देने का अवसर मिले तो एक राजनैतिक वक्तव्य द्वारा पूरी व्यवस्था पर गहरा प्रहार करें।<br />
सरदार की इन बातों का सभी साथियों ने समर्थन किया। इस योजना के अनुसार सभी अभियुक्तों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया। पहली श्रेणी उन लोगों की थी जिनका केस वकील द्वारा लड़ा जाना था। इसमें पांच साथी थे- देशराज भारती, प्रेमदत्ता, मास्टर आज्ञा राम, अजय घोष और किशोरी लाल। दूसरी श्रेणी थी शत्राु की अदालत को मान्यता न देने वालाें की। इनका काम था उपयुक्त अवसर पर अदालती अभिनय के ढकोसले पर सैध्दांतिक प्रहार करना। इन साथियों ने ट्रिब्यूनल के सामने पहले ही दिन जो बयान दिया उसके बारे में अदालत के जजों ने लिखा था कि वह ''ब्रिटिश सरकार पर हिंसात्मक राजनैतिक हमला था। चूंकि खुली अदालत में इस भाषण्ा का, जो कि राजद्रोहात्मक प्रचार के अतिरिक्त और कुछ भी न था। बहुत ही अनुचित था ...इसलिए टिब्यूनल ने उसका पढ़ा जाना रोक दिया।'' बयान के अंत में कहा गया था ''इन कारणों से हम इस हास्यास्पद अभिनय का अंग बनने से इनकार करते हैं और आगे से हम इस अदालत की कार्यवाही में किसी प्रकार का हिस्सा नहीं लेंगे।'' इनमें थे महावीर सिंह, बी.के. दत्ता, डॉ. गयाप्रसाद, कुन्दनलाल और जतींद्रनाथ सान्याल। और तीसरी श्रेणी उन लोगों की थी जो अपना केस स्वयं लड़ रहे थे। इनका काम था सरकारी गवाहों से जिरह करना, मुखबिरों तथा गवाहों के मुंह से अपनी बात कहलवाना। उनकी हर बात का उद्देश्य होता था प्रचार। इस ग्रुप के साथियों के नाम थे- भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, शिव वर्मा, जयदेव कपूर, विजय कुमार सिन्हा, कमलनाथ तिवारी और सुरेंद्रनाथ पांडे।<br />
अदालत के मंच को प्रचार के साधन के रूप में इस्तेमाल करने की हमारी यह योजना बहुत सफल रही।<br />
यह भूख-हड़ताल 63 दिन चली। भगत सिंह और दो ने तीन महीने से ऊपर पार किये। इन तीनों महीनों में भगत सिंह अपना सारा काम-लिखना, पढ़ना, नहाना, अदालत जाना, मसविदे तैयार करना, सरकार से पत्र-व्यवहार करना, अदालत में बयान देना, हंसना, गुनगुनाना-नियमित रूप से करता रहा। केस के दौरान भगत सिंह और दत्ता को लाहौर सेन्ट्रल जेल में रखा गया और शेष अभियुक्तों को बोर्स्टल जेल में। डिफेंस (सफाई) के लिए आपसी परामर्श के बहाने वे दोनों प्रत्येक रविवार के दिन बोर्स्टल जेल आ जाते थे। भगत सिंह कई बार भूख-हड़ताल के बावजूद बोर्स्टल जेल आया।<br />
जेल में किताबों की सुविधा थी और आरम्भ से ही पढ़ने-लिखने का वातावरण बनगया था। आपस में सैध्दांतिक एवं राजनैतिक समस्याओं पर बहस आदि भी होती थी लेकिन भगत सिंह के आ जाने पर उस सब में एक नयी जान सी आ जाती। उस दिन शायद ही कोई विषय अछूता रहता हो-सप्ताह की पढ़ी हुई पुस्तकें, माक्र्सवाद, सोवियत संघ की उन्नति, अफगानिस्तान के उलट फेर, चीन और जापान की तनातनी, लीग आफ नेशंस का निकम्मापन, मेरठ केस, भारतीय पूंजीपति वर्ग की भूमिका, कांग्रेस की गतिविधि, लाहौर-कांग्रेस में ध्येय परिवर्तन का प्रश्न आदि सभी विषयों पर चर्चा रहती।<br />
यों हमारे केस के प्राय: सभी साथियों को पढ़ने लिखने में अच्छी रुचि थी, लेकिन भगत सिंह इस क्षेत्रा में सबसे आगे था। उसका प्रिय विषय साम्यवाद होते हुए भी उपन्यासों में उसकी अच्छी रुचि थी, विशेषतया राजनैतिक तथा आर्थिक समस्याओं पर प्रकाश डालने वाले उपन्यास। डिकेन्स, अप्टन सिंक्लेयर, हाल केन, विक्टर ह्यूगो, गोर्की, स्टेपनियेक, आस्कर वाइल्ड, लियांनाइड एन्ड्रीव आदि उसके प्रिय लेखक थे। लियांनाइड एन्ड्रीव की सुप्रसिध्द पुस्तक 'सेवन दैट वेयर हैंग्ड' उसने अदालत में हमें पढ़ कर सुनाई। पुस्तक का एक पात्रा जिसे मौत की सजा हुई थी लगातार यही दोहराता रहता था कि 'मुझे फांसी नहीं लगनी चाहिए'। जब उसे फांसी पर लटकाने के लिए ले जाया जाने लगा तब भी वह बार बार कातर स्वर से यही चिल्लाता रहा, 'मुझे फांसी नहीं लगनी चाहिए'।<br />
भगत सिंह जब कहानी के इस प्रसंग पर पहुंचा तो उसकी आंखों में आंसू छलक आए। उस समय मृत्यु पर विजय पाने वाले अपने साथी को मृत्यु भय से कातर एक औपन्यासिक पात्रा की सहानुभूति में आंसू बहाते देख सब के दिल भर आए थे।<br />
जिन दिनोें हमारा केस चल रहा था उन दिनों प्राय हर दूसरे तीसरे दिन पुलिस वालों से या जेल अधिकारियों से झगड़ा और मारपीट चलती रहती थी। उन झगड़ों में मुझ जैसे दुबले-पतले लोग थोड़ी मार खाकर ही बच जाते थे। लात-घूंसाें और डंडों की अधिकंाश चोट बेचारे पांच छह व्यक्तियों के हिस्से में ही पड़ती थी। देखने में मोटे तगड़े उन साथियों को जैसे अधिकारियों ने इसी काम के लिए चुन सा लिया था। राजनैतिक समस्याओं पर वाद-विवाद में ही नहीं वरन् मार खाने वाले साथियों की उस लिस्ट (भगत सिंह, जयदेव कपूर, महावीर सिंह, किशोरी लाल, गयाप्रसाद आदि) में भी भगत सिंह सबसे आगे था।<br />
अंत में फैसले का दिन भी आ गया। भगत सिंह को फांसी की सजा होगी इसके लिए हम पहले से तैयार थे। फिर भी उसे सुन कर मेरे सर में चक्कर-सा आ गया। कल तक जो अनुमान था वह अब यथार्थ बन कर सामने आ रहा था।<br />
सजा के बाद भी बोर्स्टल जेल से हटा कर केंद्रीय कारागार में कर दिया गया। वहां के नये और पुराने दोनाें फांसी के हाते एक दूसरे से सटे हुए थे। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु नये हाते में थे और हम लोग पुराने में। एक रात अचानक हमारी कोठरियों के ताले खुले और हम से चलने के लिए कहा गया। हमारे साथियों को फांसी देने से पहलेही सरकार हमें किसी दूसरी जगह भेज देना चाहती थी।<br />
जेल का बड़ा दरोगा अपने पूरे दलबल के साथ हमें लेकर फाटक की ओर चला। कुछ दूर चलकर उसने पूछा ''अपने साथियों से मिलोगे?'' उदारता के लिए धन्यवाद पा कर उसने नये हाते का फाटक खुलवाया और हमें भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की कोठरियों के सामने ले जाकर खड़ा कर दिया।<br />
प्रश्न सुन कर पहले तो सरदार ठहाका मार कर हंसा फिर गंभीर हो कर बोला, ''क्रांति के मार्ग पर कदम रखते समय मैंने सोचा था कि यदि मैं अपना जीवन देकर देश के कोने-कोने तक इंकलाब जिंदाबाद का नारा पहुंचा सका तो मैं समझूंगा कि मुझे अपने जीवन का मूल्य मिल गया। आज फांसी की इस कोठरी में लोहे के सीखचों के पीछे बैठ कर भी मैं करोड़ों देशवासियों के कंठाें से उठती हुई उस नारे की हुंकार सुन सकता हूं। मुझे विश्वास है कि मेरा यह नारा स्वाधीनता संग्राम की चालक शक्ति के रूप में साम्राज्यवादियों पर अंत तक प्रहार करता रहेगा।'' फिर कुछ रुक कर अपनी स्वाभाविक मुस्कराहट के बीच उसने आहिस्ते से कहा, ''और इतनी छोटी जिंदगी का इससे अधिक मूल्य हो भी क्या सकता है?''<br />
मैं सबसे पीछे था। विदाई लेते समय मेरी आंखाें में आंसू आ गए। मुझे रोते देखकर उसने कहा ''भावुक बनने का समय अभी नहीं आया है प्रभात। मैं तो कुछ ही दिनों में सारे झंझटों से छुटकारा पा जाऊंगा, लेकिन तुम लोगाें को लंबा सफर पार करना पड़ेगा। मुझे विश्वास है उत्तारदायित्व के भारी बोझ के बावजूद इस लंबे अभियान में तुम थकोगे नहीं, पस्त नहीं होगे और हार मान कर रास्ते में बैठ नहीं जाओगे।'' यह कहकर उसने सीखचों के अंदर से हाथ बढ़ा कर मेरा हाथ पकड़ लिया।<br />
जेल के दरोगा ने पास आकर आहिस्ते से कहा, ''चलिए''। सरदार से वह हमारी आखिरी मुलाकात थी।<br />
और फिर 23 मार्च, 1931 की संध्या समय सरकार ने उनसे सांस लेने का अधिकार छीन कर अपनी प्रतिहिंसा की प्यास भी बुझा ली। अन्याय और शोषण के विरुध्द विद्रोह करने वाले तीन और तरुणों की जिंदगियां जल्लाद के फंदे ने समाप्त कर दीं।<br />
फांसी के तख्ते पर चढ़ते हुए भगत सिंह ने एक अंग्रेज मजिस्ट्रेट को संबोधित करते हुए कहा, ''मजिस्ट्रेट महोदय, आप वास्तव में बड़े भाग्यशाली हैं, क्योंकि आप को यह देखने का अवसर प्राप्त हो रहा है कि एक भारतीय क्रांतिकारी अपने महान आदर्श के लिए किस प्रकार हंसते-हंसते मृत्यु का आलिंगन करता है।''<br />
फांसी से कुछ पहले भाई के नाम अंतिम पत्रा में उसने लिखा था, ''मेरे जीवन का अवसान समीप है। प्रात: कालीन प्रदीप के प्रकाश के समान टिम-टिमाता हुआ मेरा जीवन प्रदीप भोर के प्रकाश में विलीन हो जायेगा। हमारा आदर्श, हमारे विचार बिजली के कौंध के समान सारे संसार में जागृति पैदा कर देंगे। फिर यदि यह मुट्ठी भर राखविनष्ट भी हो जाए तो संसार का इससे क्या बनता बिगड़ता है!''<br />
जैसे-जैसे भगत सिंह के जीवन का अवसान समीप आता गया, देश तथा मेहनतकश जनता के उज्ज्वल भविष्य में उसकी आस्था गहरी होती गयी। मृत्यु से पहले सरकार के नाम लिखे एक पत्रा में उसने कहा था, ''अति शाीघ्र ही अंतिम संघर्ष के आरंभ की दुंदुभी बजेगी। उसका परिणाम निर्णायक होगा। साम्राज्यवाद और पूंजीवाद अपनी अंतिम घडियां गिन रहे हैं। हमने उसके विरुध्द युध्द में भाग लिया था। और उसके लिए हमें गर्व है।''<br />
एक महान एवं पवित्रा आर्दश के प्रति अडिग विश्वास ही किसी देश के नवयुवकों को जल्लाद के सामने भी मुस्कराता हुआ खड़ा रख सकता है। भगत सिंह और उसके दोनों साथियों का अपने आदर्श की अंतिम विजय में कितना विश्वास था, वह उनके उपरोक्त शब्दों से स्पष्ट है। और यह विश्वास ही उनके अमरत्व का राज था।<br />
जिस समय भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दी गई उस समय मैं आंध्र प्रदेश (उस समय मद्रास प्रांत के अंतर्गत) की राजमहेंद्री जेल में था। मुझे ऐसा लगा कि हम शायद बिछड़ने के लिए ही मिले थे। यतीन्द्रदास, भगवतीचरण और आजाद तो जा ही चुके थे, अब जल्लाद ने मेरे तीन और साथी मुझसे छीन लिए।<br />
मेरे हमजोलियों की कतार से अलग होकर वे शहीदों में जा मिले। तब से उन पर सारे देश का अधिकार है। उनके नामों के जै-जैकार के बीच जब भी कभी उनके चित्राों पर फूल चढ़ते देखता हूं। या किसी अजनबी को उन पर रचे सैकड़ों गीतों में से किसी एक गीत की पंक्तियां गुनगुनाने सुनता हूं तो गर्व से मस्तक उंचा हो जाता है। फिर भी हमराहियों के बिछुड़ जाने से जीवन में जो एक अभाव सा पैदा हो जाता है, उससे कुछ तकलीफ तो होती ही है। और पुरानी स्मृतियां जब कभी मन को कुरेद देती हैं तो वह कविवर आलम के शब्दों में कह उठता हैं! ''नैनन में जे सदा रहते तिनकी अब कान कहानी सुनो करै'' और तब अंतर के स्वर अधीर होकर पूछने लगते हैं :<br />
वे सूरतें इलाही किस देश बसतियां हैं?</div>
Devendra Prataphttp://www.blogger.com/profile/04058854873119577592noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-2264830081803709796.post-42790183214893069662018-09-19T05:52:00.000-07:002018-09-23T23:48:07.449-07:00भगवान के घर में भी हो रही वर्कर्स की छंटनी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
.... .....(देवेंद्र).......<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<iframe allowfullscreen="" class="YOUTUBE-iframe-video" data-thumbnail-src="https://i.ytimg.com/vi/Jd4LkHebALI/0.jpg" frameborder="0" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/Jd4LkHebALI?feature=player_embedded" width="320"></iframe></div>
पूंजीवाद सिर्फ कारखानों में ही छंटनी नहीं करवाता है, वरन मंदिरों में सेवादारों/वर्कर्स की संख्या में कटौती करवाता है, ताकि लागत कम की जा सके। आपको यह सुनकर आश्चर्य भले लगे, लेकिन थोड़ी देर के लिए अपनी आस्था को किनारे कर विवेक के दरवाजे खोल कर किसी बड़े मंदिर में पहुंच जाइए, आपको खुद सच्चाई नजर आ जाएगी। पहले मंदिर में आरती के समय मोहल्ले के लोग भजन-कीर्तन और घंटा घड़ियाल बजाने पहुंच जाते थे। तब पूंजीवाद इतना विकसित नहीं था। समाज में भी लोगों के पास समय था। इसलिए लोग मंदिर में पहुंच जाते थे। इतना ही नहीं तब त्योहारों में भी लोग खूब शिरकत करते थे। लेकिन, तब समाज पिछड़ा था। जाति-पांति, महिला पुरुष में भेदभाव भी ज्यादा था। बहरहाल, पूंजीवाद और विकसित हुआ तो उसने लोगों का काफी समय अपने लिए लेकर उन्हें अपना गुलाम बना लिया। समाज में अलगाव बढ़ा। अपनी संस्कृति से लोग कटे। सरकारी संस्थाओं को पूंजीपतियों को बेचा जाने लगा। कारखानों में छंटनी होने लगी। अब तो हमारे यहां का पूंजीपति योरोप अमेरिका के पूंजीपतियों को टक्कर दे रहा है। इसलिए हर जगह पूंजीपति कम से कम वर्कर्स से काम चला रहा है।<br />
अब, मंदिरों में सुबह- शाम की आरती में पहुंचने के लिए मोहल्ले के लोगों के पास समय नहीं होता है। मंदिरों में भी पैसे की भूख बढ़ी। इसलिए मंदिरों में पहले जो कर्मचारी भी रखे थे गये थे, उनकी भी छंटनी की जाने लगी। इन सबके बीच देश के ज्यादातर बड़े मंदिरों में घंटा आदि बजाने का काम धीरे-धीरे मशीनें करने लगीं। मंदिरों के शहर कहे जाने वाले जम्मू के ज्यादातर मंदिरों में मशीन ही घंटा, घड़ियाल आदि बजाती है। दूर से आरती के समय मंदिर से आती मधुर आवाज सुन कर कोई अंदाजा नहीं लगा सकता है कि यह काम मशीन कर रही है। वीडियो में जो मशीन आरती करवा रही है, वह जम्मू के कृष्णा नगर इलाक में रविदास मंदिर के बगल में स्थित भगवान शंकर के मंदिर की है। कभी इस मंदिर में भी भक्तों की भीड़ जुटती थी, लेकिन अब यहां भूले भटके ही भक्त आते हैं। लेकिन, मशीन की बदौलत आरती सुबह-शाम दोनों समय होती है। इसका कुछ न कुछ पुण्य मशीन को भी तो मिलेगा ही। या नहीं...राम जाने...<br />
https://youtu.be/Jd4LkHebALI<br />
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Devendra Prataphttp://www.blogger.com/profile/04058854873119577592noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2264830081803709796.post-59512747799182587042018-09-17T13:33:00.003-07:002018-09-17T23:45:56.975-07:00जम्मू-कश्मीर बंद में भी 'मल' पालिटिक्स चालू आहे<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;">
(लोकेश चंद्र)।</div>
<div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;">
<span style="font-size: 12.8px;">इस समय जम्मू कश्मीर में निकाय और पंचायत चुनाव होने हैं। देश के प्रधान ठेकेदार और उनके सागिर्द मुस्तैद हो गए हैं। वे लोगों को बता रहे हैं कि देश में इन दिनों भ्रष्टाचार कम हुआ है। आजकल जनता और नेता बमुश्किल बिक रहे हैं। बापू जी के नाम और उनके काम को बेचने का ड्रामा शुरू हुआ है। हालांकि इसकी पटकथा पहले से ही प्रधान जी ने लिख रखी थी। अभी ड्रामे का मंचन शुरू हुआ। यही एक ड्रामा है खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) का।</span></div>
<div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;">
गांधी जयंती पर इस साल पूरे देश को खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) करने का फरमान प्रधान जी ने जारी किया था। इस फरमान पर नौकरशाहों ने ताबरतोड़ कागजों पर शौचालय बनाने का काम शुरू कर दिया। कुछ जमीन पर भी बने। जो बने उन शौचालयों में पानी की सुविधा नहीं। इसी कड़ी में प्रधान जी के आदेश के मुताबिक जम्मू-कश्मीर को भी महामहिम जी ने आननफानन में खुले में शौच मुक्त घोषित कर दिया। इस तरह भारत का सिर यानी जम्मू-कश्मीर ऐसा ग्यारहवां राज्य बन गया जो ओडीएफ घोषित हो गया। यानी भारत के सिर से मैला हट गया।<br />
अब कुछ जमीनी हकीकत बयां कर लेते है। जम्मू शहर में नालों के किनारे बसे संभ्रांत लोग भी अपने घर में सेप्टिक टैंक नहीं बनाते, केवल शौचालय बनाते हैं। इसी तरह छोटी-छोटी पहाड़ी नदियों के किनारे बसे लोग भी अपने घर के मल को सीधे नदी में बहाते हैं। यहां तक कि उधमपुर में गंगा की बड़ी बहन कहलाने वाली देविका भी मल से त्रस्त है। जम्मू शहर के छन्नी, नानक नगर, त्रिकुटा नगर में यही हालत है। पुराने शहर में भी शौच को नालों में ही मुक्त किया जाता है। ऐसे में तंज होता है कि क्या राज्यपाल भी 'मल ' राजनीति कर रहे हैं?</div>
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Devendra Prataphttp://www.blogger.com/profile/04058854873119577592noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2264830081803709796.post-4879514958348016442018-09-11T05:50:00.000-07:002018-09-14T13:35:29.720-07:00हमारे स्कूल में टीचर नहीं है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<iframe allowfullscreen="" class="YOUTUBE-iframe-video" data-thumbnail-src="https://i.ytimg.com/vi/kL7u1n80zJ0/0.jpg" frameborder="0" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/kL7u1n80zJ0?feature=player_embedded" width="320"></iframe></div>
जम्मू कश्मीर के कठुआ जिले की बसोहली तहसील के गलुई धार गांव के प्राइमरी स्कूल में 10 सितंबर को जब बच्चे पहुंचे तो वहां कोई शिक्षक नहीं था। इस स्कूल में गरीब घरों के 100 बच्चे पढ़ते हैं। अन्य सरकारी स्कूलों की तरह यहां भी अक्सर शिक्षक नहीं रहते। स्कूल में आरईटी शिक्षक हैं, जो वेतन बढ़ाने, स्थाई करने की मांग पर चल रही हड़ताल में शामिल होने गये थे। शिक्षकों को न पाकर बच्चों को गुस्सा आ गया और वे नारे लगाने लगे, हमारे स्कूल में टीचर नहीं है। हमारे स्कूल में टीचर नहीं है....</div>
Devendra Prataphttp://www.blogger.com/profile/04058854873119577592noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2264830081803709796.post-57723308245021185522018-09-11T05:34:00.002-07:002018-09-11T05:34:20.085-07:00बार्डर पर लाल झंडा लिए मजदूरों का प्रदर्शन<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<iframe width="320" height="266" class="YOUTUBE-iframe-video" data-thumbnail-src="https://i.ytimg.com/vi/EW0PY9IqDKw/0.jpg" src="https://www.youtube.com/embed/EW0PY9IqDKw?feature=player_embedded" frameborder="0" allowfullscreen></iframe></div>
सीटू से जुड़ी भवन निर्माण कामगार यूनियन ने जम्मू कश्मीर में श्रम कानून ठीक से लागू नहीं होने की आरोप लगाते हुए प्रदर्शन किया।</div>
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