शनिवार, 23 मार्च 2013

बांग्लादेशी मजदूरों के तल्ख तेवर

                                                                                 आरडी त्यागी
(लेखक सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं, मो 09568187718 )
इस समय पूरा विश्व मंदी की गिरफ्त में फंसा हुआ है। सबसे बुरी बात यह है कि पूंजीपतियों की लाभ कमाने की अंधी हवस के चलते आई इस मंदी का सारा बोझ मजदूरों के कंधों पर डाला जा रहा है। वह भी खासकर पिछडेÞ देशों के मजदूरों पर। बाजार में गलाकाटू प्रतियोगिता के चलते और विश्व बाजार पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए बड़ी-बड़ी कंपनियां मजदूरों को ज्यादा से ज्यादा निचोड़ने में लगी हैं। दुनिया के कई देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए लूट के खुले चारागाह में तब्दील होते जा रहे हैं। भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे मुल्कों में इस सबका असर वहां के वस्त्र उद्योग पर पड़ रहा है। बांग्लादेश में यह दृश्य बहुत साफ तौर पर दिखाई देता है। बांग्लादेश का रेडीमेड गारमेंट उद्योग वहां की बड़ी आबादी को न केवल रोजगार मुहैया कराता है, बल्कि देश के कुल निर्यात में 80 प्रतिशत का योगदान भी करता है। बहुराष्टीय कंपनियां सस्ते श्रम की उपलब्धता के चलते इन देशों से अपने प्रोडक्ट तैयार करवाती हैं। यही वजह है कि आज अन्य मुल्कों की तुलना में बांग्लादेश का गारमेंट उद्योग वहां की मेहनतकश आबादी के शोषण का मुख्य ठिकाना बन गया है।
           बांग्लादेश को जून 2012 में समाप्त हुए वित्तीय वर्ष में कुल 24.3 अरब डॉलर के निर्यात में करीब 20 अरब डॉलर केवल वस्त्रों के निर्यात से प्राप्त हुआ था। विश्व में रेडीमेड कपड़ों का कुल बाजार 450 अरब डॉलर का है, जिसका बड़ा हिस्सा गरीब देशों के मजदूरों को कम से कम सुविधाएं देकर पैदा किया जाता है। बांग्लादेश में रेडीमेड गारमेंट की करीब 4000 इकाइयां हैं, जिनमें लगभग 40 लाख लोग काम करते हैं। वैसे तो तमाम विकासशील मुल्कों में महिलाओं और बच्चों को बहुत ही कम वेतन मिलता है। इस मामले बांग्लादेश का जिक्र विशेष तौर पर उल्लेखनीय है कि वहां गारमेंट मजूदरों की कुल संख्या की 80 प्रतिशत महिला मजदूर हैं, जो कम वेतन पर काम करने को मजबूर होती हैं। यही वजह है वहां जितने भी आंदोलन होते हैं, उसमें बड़ी संख्या में महिला मजदूर भी शिरकत करती हैं।
दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियां जहां इन वस्त्रों को अपने ट्रेड मार्क लगाकर ऊंचे दामों पर बेचती हैं, वहीं इस उद्योग में लगे मजदूरों के हालात दिन प्रतिदिन बिगड़ते जा रहे हैं। दुनिया की इन कंपनियों के लिए सिले-सिलाए कपड़े तैयार करने वाले कारखानों में मजदूरों की सुरक्षा के कम से कम इंतिजामात तक नहीं हैं। साफ-सफाई तो दूर की बात दुर्घटना के वक्त सुरक्षित निकल पाने के उपाय तक नहीं हैं। बड़े-बड़े हॉल में मजदूरों को ठूंस-ठूंस कर भरा जाता हैं और 12-12 घंटे काम लिया जाता है। इसी का नतीजा है कि जब कोई दुर्घटना घटती है, तो उसका सबसे ज्यादा खामियाजा इन्हीं मजदूरों को उठाना पड़ता है। इन दुर्घटनाओं में कई सौ लोगों की जान जा चुकी हैं। ऐसी ही एक दुर्घटना इसी 26 जनवरी 2013 को घटी, जब ढाका की एक रेडीमेड वस्त्र बनाने वाली कंपनी में आग लग जाने से कम से कम 7 मजदूरों की मौत हो गई थी। खास बात यह थी कि मरने वालों में सभी महिलाएं थीं। इस घटना के बाद मजदूरों ने भारी गुस्से के साथ विरोध प्रदर्शन किया था। लोग बड़ी संख्या में सड़कों पर उतर आए और सुरक्षा के साथ अच्छी सुविधाओं के अलावा वेतन बढ़ोत्तरी मांग को लेकर कई दिनों तक प्रदर्शन जारी रहे।
24 नवंबर 2012 को ढाका में ही रेडीमेड कपड़ा कंपनी में, देश की अब तक की सबसे बड़ी आग लगने की घटना हुई थी। इस दुर्घटना में 123 मजदूरों की मौत हुई थी। यह कंपनी भी यूरोप की सी एंड ए के अलावा एडिनबर्ग वुलेन मिल के साथ अमेरिका की वॉलमार्ट जैसे बड़े लेबल वाली फर्मों को कपडेÞ निर्यात करती थी। उस घटना के बाद मजदूरों का आक्रोश चरम पर जा पहुंचा था।
     दिसंबर 2010 में भी ढाका के एक दस मंजिला कपड़ा कारखाने में आग लगने से एक दर्जन से ज्यादा की मौत हो गई थी। इस कारखाने में भी आपातकालीन द्वारा तक बंद था और मजदूर छतों से कूदने को मजबूर हुए थे। इस घटना के बाद भी मजदूरों ने जमकर विरोध प्रदर्शन किए थे।
गैरकानूनी ढंग से बने कारखाने अक्सर उद्योग नियमों के तहत रजिस्टर्ड भी नहीं होते। कम मजदूरी और बिना सुविधाओं वाले कारखानों में आग के फौरन बाद हुई एक जांच में लेटीस, स्कॉट फोक्स, बेरिश्का और सोल्स जैसी बड़ी कंपनियों के लेबल पाए गए। ये वे कंपनियां हैं, जो अपने ब्रांडेड वस्त्र यूरोप और अमेरिका सहित दुनिया के कई देशों में बड़ी कीमत पर बेचकर भारी मुनाफा कमाती हैं। वकर्स एंड ह्यूमन राइट ग्रुप ने एक जांच में पाया है कि रेडिमेड कारखानों में 10 से 15 साल के बच्चों से अवैध रूप से काम कराया जाता है। बांग्लादेश के गांवों में रोजगार के अवसर कम होते जा रहे हैं, जिससे महिलाओं को आमदनी का जरिया तलाशने शहरों की ओर रुख करना पड़ रहा है। भारी संख्या में गांवों से शहरों की ओर हो रहे पलायन का ही नतीजा है कि रेडीमेड कारखानों में कम मजदूरी पर लोग, खासकर महिलाएं काम करने के लिए मजबूर हो रहीं हैं।
      मजदूरों में व्याप्त भारी असंतोष के कई कारण हैं। एक सर्वे के दौरान पाया गया कि कुछ कारखाने मजदूरों को समय पर वेतन का भुगतान नहीं करते, वहीं कुछ में ओवर टाइम का पूरा भुगतान नहीं किया जाता। कितने ही कारखानों में तय वेतन से कम वेतन दिया जाता है। इन सभी मांगों के लिए मजदूर समय-समय पर अपना पक्ष प्रबंधन के सामने रखते रहते हैं, लेकिन ज्यादातर मामलों में उन्हें निराशा ही हाथ लगती है। बांग्लादेश में न्यूनतम मजदूरी की दर, 300 टका यानि 37 अमरीकी डॉलर प्रति माह है, जो सरकारी मानकों द्वारा तय जीने लायक वेतन, 500 टका प्रति माह से भी बहुत कम है। खराब हालातों और इतने कम वेतन पर मजदूरी करना मजदूरों की नियति बन गई है। आश्चर्य की बात नहीं कि ऐसी घटनाओं का जिक्र बांग्लादेश के बड़े अखबारों में भी कम ही होता है, क्योंकि मीडिया के मालिकान खुद इस उद्योग से जुड़े हैं और मुनाफाखोरी के हिस्से में शामिल रहते हैं। देश के अग्नि शमन विभाग के अनुसार ही 2006 से अब 2009 तक आग की घटनाओं से 414 कपडा मजदूरों की मौत हो चुकी थी। इससे साफ है कि बढ़ते मुनाफे के बीच सुरक्षा पर खर्च नहीं बढ रहा है। कारखानों में हड़ताल की मुख्य वजह कम वेतन, समय पर न मिलना और काम के दौरान प्रबंधन के लोगों का बुरा व्यवहार रहता है। जाहिर है, यह अकेले बांग्लादेश की कहानी नहीं है। भारत, पाकिस्तान आदि देश भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट के शिकार हैं। कहा जा सकता है कि मजदूरों का शोषण हर जगह है। समस्या यह है कि अधिकतर देशों में मजदूर विरोधी कानून लागू कर दिए गए हैं। ट्रेड यूनियनों को तोड़ दिया गया है। बांग्लादेश आर्थिक समृद्धि की ओर कपड़ा मजदूरों के बल पर आगे बढ़ रहा है, लेकिन उनकी हालत खराब है।

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