देवेन्द्र प्रताप
पिछले माह अमेरिका के अनिवासी भारतीयों ने भारत में बढ़ते भ्रष्टाचार के खिलाफ करीब 240 मील लंबा मार्च निकाला। 12 मार्च को कैलिफोर्निया के सान डियागो में मार्टिन लूथर किंग जूनियर के स्मारक से शुरु होकर लास एंजिल्स से होते हुए 26 मार्च को यह मार्च सैनफ्रांसिस्को में गांधी जी की प्रतिमा पर जाकर समाप्त हुआ। जवाहर कामभामपति और श्रीहरि अटलूरी के नेतृत्व के नाम से आयोजित में निकाले गए इस मार्च के समर्थन में अमेरिका और यूरोप के दूसरे मुल्कों में के अनिवासी भारतीयों ने भी भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ मार्च निकाला। यूरोप और अमेरिका में आयोजित इन प्रदर्शनों को ‘दूसरे दांडी मार्च’ का नाम दिया गया। इनकी मांग थी कि भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव और ‘जन लोकपाल विधेयक’ को लागू किया जाए। भ्रष्टाचार के खिलाफ विदेश में अनिवासी भारतीयों का यह अभी तक का सबसे बड़ा प्रदर्शन था, हांलाकि भारतीय मीडिया में इसे कम जगह ही मिली। भ्रष्टाचार के नीचे दबी भारत की जनता को इसके बारे में पता ही नहीं चल पाया। भ्रष्टाचार के खिलाफ भूख हड़ताल पर बैठे, गांधीवादी अन्ना हजारे का आंदोलन इस मामले में ज्यादा असरकारी है। अन्ना हजारे के इस आंदोलन को योग गुरु बाबा रामदेव और आध्यात्मिक गुरु श्री रविशंकर जैसों का समर्थन मिल जाने से इसका विस्तार और बढ़ जाएगा। अन्ना हजारे के साथ किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल और दूसरे सामाजिक संगठनों के उतर आने से प्रगतिशील आंदोलन की धारा भी इसके साथ खड़ी होती हुई नजर आ रही है। यही वजह है कि आजाद भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ इस आंदोलन को सबसे ज्यादा ताकतवर आंदोलन माना जा रहा है। आंदोलन को मिल रहे जन समर्थन से ऐसा लग रहा है कि इस बार जन लोकपाल विधेयक के मसले पर सरकार का टालू रवैया उसके लिए खतरनाक हो सकता है। यह मसला अप्रैल-मई में होने वाले विधानसभा चुनाओं पर भी असर डाल सकता है। छोटे गांधी के नाम से मशहूर अन्ना हजारे ने भी गांधी के ‘करो या मरो’ के नारे की तरह भूख हड़ताल पर जाने से पहले यह घोषणा कर दी है कि लोकपाल बिल के बिल के लिए भले ही उनकी जान ही क्यों न चली जाए, लेकिन अब वे पीछे नहीं हटेंगे। आखिर देश के इतने प्रतिष्ठित और 72 वर्षीय वृद्ध गांधीवादी नेता को भ्रष्टाचार के खिलाफ इस तरह की आर-पार की जंग छेड़ने के लिए क्यों मजबूर होना पड़ा। क्या सत्ता में बैठे लोगों को भ्रष्टाचार खत्म करने की जरुरत ही नहीं महसूर कर रहे? हकीकत तो फिलहाल यही लगती है। 2009 में सीबीई के निदेशक अश्विनी कुमार ने ‘सीबीआई और राज्यों के भ्रष्टाचार निरोधक व्यूरों के प्रमुखों’ के 17 वें सम्मेलन में ‘शीर्ष पदों पर विराजमान व्यक्तियों के नैतिक मूल्यों में ह्रास को भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी वजह’ बताया था। इसके लिए उन्होंने देश के कमजोर न्यायतंत्र को भी जिम्मेदार माना, जहां भ्रष्टाचार के मामलों की सुनवाई में वर्षों लग जाते हैं। इसी तरह का बयान सुप्रीम कोर्ट के कई न्यायाधीश तक दे चुके हैं। इसके बावजूद भ्रष्टाचार कम होने के बजाय लगातार बढ़ता ही गया है। भारत के भ्रष्टाचार की चर्चा प्रतिष्ठित पत्रिका फोर्ब्स तक में हो चुकी है। पिछले दिनों वाशिंगटन में हुए एक अध्ययन के अनुसार भारत में आजादी के बाद से वर्ष 2008 तक करीब 20 लाख करोड़ रुपये भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुके हैं। वाशिंगटन के आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ समूह ‘ग्लोबल फाइनेंशियस इंटिग्रिटी’ (जीएफआई) की इस रिपोर्ट (द ड्राइवर्स एंड डायनामिक्स आॅफ इलिसिट फाइनेंशियल फ्लो फ्रॉम इंडिया 1948-2008) के अनुसार यह धन भारत के ऊपर कुल कर्जे का दुगुना है। इस संस्था के संचालक रेमंड बेकर की मानें तो ‘भारत की गरीबी की यही सबसे बड़ी वजह’ है। आज अन्ना हजारे, किरण वेदी, अरविंद केजरीवाल जैसे बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता इसीलिए लोकपाल बिल के लिए सड़क पर उतरे हैं। यह स्थिति तब बनी जब सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली ‘नेशनल एडवाइजरी कौंसिल’ ने लोकपाल बिल के ड्राफ्ट को खारिज कर दिया। अन्ना हजारे के जज्बे को सलाम, लेकिन दिमाग में एक सवाल तो यह है ही कि क्या वाकई जन लोकपाल कानून बन जाने से भारत में भ्रष्टाचार रुक जाएगा।
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