शनिवार, 16 मार्च 2013

...तो आजाद हो जाता मुल्क

काकोरी कांड के बाद ज्यादातर क्रांतिकारी गिरफ्तार कर लिए गए थे। बिस्मिल, असफाक उल्ला, राजेन्द्र सिंह लाहिड़ी,रोशन सिंह आदि साथियों को फांसी की सजा सुना दी गई, लेकिन आजाद टूटे नहीं। किसी ने उनके आंसू नहीं देखे। उन्होंने आजादी की जंग के लिए दूसरी यात्रा शुरू की। इस बार उन्होंने भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, शिववर्मा आदि साथियों के साथ ऐसा क्रांतिकारी नेटवर्क खड़ा किया कि ब्रिटिश साम्राज्य थरथर कांपने लगा।

                                                       देवेन्द्र प्रताप
     देश के आजाद होने के बाद जिंदा रहे भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद के साथी शिव वर्मा ने आजाद के साथ बिताए वक्त को अपनी पुस्तक ‘संस्मृतियां’ में दर्ज किया है। उनकी इस पुस्तक को सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार मिल चुका है। वे लिखते हैं: ‘एक दिन जब सुरेन्द्र पांडे ने धीरे से मेरे कान में आकर बताया कि नं.2 आए हैं और आज रात तुम्हें उनसे मिलना है, तो मेरे सारे शरीर में बिजली सी दौड़ गई। दूसरों से आजाद के बारे में जो कुछ सुना था, उसके सहारे कल्पना में मैंने आजाद की एक तस्वीर बना ली थी। सुरेन्द्र की बात से यह तस्वीर चलने-फिरने लगी।’ आजाद उस समय प्रख्यात बुद्धिजीवी राधामोहन गोकुल जी के यहां रुके थे। आमतौर पर लोग आजाद को बम-पिस्तौल वाला क्रांतिकारी समझते हैं, लेकिन उनकी अपने समय के कई बुद्धिजीवियों से बहुत ही गाढ़ी दोस्ती थी।
        राम विलास शर्मा अपने लेख ‘मेरे साक्षात्कार’ में बताते हैं कि चंद्रशेखर आजाद की उस समय के क्रांतिकारी साहित्यकार राधामोहन गोकुल जी से बहुत ही करीबी दोस्ती थी। वे उनके यहां आकर अक्सर रुकते थे। महाकवि निराला राधामोहन गोकुल जी को अपना गुरु मानते थे, इस तरह उनका भी चंद्रशेखर आजाद से परिचय हुआ। इसी तरह प्रख्यात बुद्धिजीवी वैशंपायन और रामचंद्र शुक्ल से भी आजाद की गाढ़ी दोस्ती थी। इसका प्रमाण राधामोहन गोकुल जी के यहां चंद्रशेखर आजाद जिस अधिकार से रहते थे, उससे चल जाता है। जब शिववर्मा राधामोहन गोकुल जी के यहां पहुंचे तो उन्हें देखते ही राधामोहन गोकुल जी ने ऊपर जाने का इशारा कर दिया।
     शिववर्मा ने देखा कि चांद के रुपहले प्रकाश एक व्यक्ति उधारे बदन बैठा हुआ है। सांवला रंग, गठा हुआ जिस्म, औसत लंबाई से कुछ नाटा कद, तेज चुभती हुई आंखें और चेहरे पर चेचक के दाग और घुटने के पास रखा उनका रिवाल्वर-पहली मुलाकात में आजाद कुछ ऐसे ही नजर आए थे, शिववर्मा को। शिववर्मा के लिए यह आश्चर्य का विषय था कि जिस व्यक्ति का नाम ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के लिए आतंक का पर्याय बन चुका था, वह राधामोहन गोकुल जी के यहां इतने इत्मिनान से बैठा उनका हाल-चाल पूछ रहा था। शिववर्मा लिखते हैं, ‘मैंने आजाद की जो तस्वीर बनाई थी, वह बेहद सुंदर और दुर्लभ थी। उसकी आराधना हो सकती थी। लेकिन, मैंने देखा मेरे साथ जो व्यक्ति बैठा हुआ है, वह मेरी तरह ही एक सामान्य नौजवान है-बेहद कोमल, मिलनसार, विनोद प्रिय किंतु दृढ़ और अटल।’ अन्य क्रांतिकारी साथियों की तहत ही शिववर्मा पर भी आजाद का गहरा रंग चढ़ा था। उन्होंने आजाद को एक ऐसे सिपाही के रूप में पाया जो ‘मौत को सामने देखकर भी मुस्कुरा सकता है, उसे ललकार सकता है और सबसे बड़ी बात यह कि वह एक ऐसे मनुष्य हैं, जिनकी इतनी बड़ी शख्सियत होने के बावजूद अहंकार उन्हें छू तक नहीं पाया है।’ये वही आजाद थे, जिन पर 1921 में असहयोग आंदोलन के दौरान पिकेटिंग के आरोप में मुकदमा चला था। ये वही आजाद थे, जिन्होंने अदालत में अपना नाम आजाद और घर जेलखाना बताया था। हालांकि यह उनकी पहली और अंतिम गिरफ्तारी थी। वे अपने इस घर (जेलखाना) दोबारा कभी नहीं गए और सदा आजाद ही रहे।
       23 जुलाई 1906 में जन्मे आजाद बचपन से ही क्रांतिकारी विचारों को पसंद करते थे। सबसे पहले वे गांधी जी से प्रभावित होकर असहयोग आंदोलन से जुड़ गए। लेकिन काकोरी कांड के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया। उनके इस निर्णय की समूचे देश में आलोचना हुई। इस घटना के बाद आजाद ने भी ‘अहिंसा’ का दामन छोड़कर ‘हिंसा’ के रास्ते अंग्रेजों को देश से बाहर करने का फैसला किया। लेकिन, इसका मतलब कदापि नहीं था कि क्रांतिकारी हिंसा के ही पुजारी थे। गांधी जी ने जहां अहिंसा को ही अपना मूल हथियार बनाया, वहीं क्रांतिकारियों ने हिंसा और अहिंसा दोनों को ही अपना हथियार बनाया।  सशस्त्र क्रांति के लिए जहां उन्होंने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) का गठन किया, वहीं अहिंसात्मक आंदोलन के लिए नौजवान भारत सभा का गठन किया।
      ध्यान देने की बात यह है कि जहां कांग्रेस पार्टी क्रांतिकारियों से दूरी बनाकर चलती थी, वहीं नौजवान भारत सभा उसके आयोजनों में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी करती थी। जगमोहन सिंह और चमनलाल द्वारा लिखी गई किताब ‘भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज’ में इसका जिक्र किया गया है। साइमन कमीशन का विरोध करने के लिए जब लाल लाजपत राय ने आंदोलन किया, तो ‘नौजवान भारत सभा ने न सिर्फ आंदोलन को संगठित करने के लिए पूरा जोर लगाया वरन इसमें नेतृत्वकारी भूमिका भी निभाई।’ वहीं दूसरी ओर जब लाला जी पुलिस लाठीचार्ज में शहीद हो गए, तो कांग्रेस तो अहिंसक आंदोलन ही करती रही, जबकि क्रांतिकारियों ने उनकी मौत का बदला लिया। मिलिटैंट नेशनलिज्म इन पंजाब में कमलेश मोहन लिखते हैं कि यह निर्णय आजाद की सलाह पर लिया गया। 18 दिसंबर को एचएसआरए के कमांडर इन चीफ बलराज (चंद्रशेखर) के हस्ताक्षर के साथ पर्चे चिपकाए गए। पर्चे में कहा गया था :‘हमें एक आदमी की हत्या का खेद है। परंतु, यह आदमी उस निर्दयी, नीच और अन्यायपूर्ण व्यवस्था का अंग था, जिसे समाप्त कर देना आवश्यक था। इस आदमी की हत्या हिन्दुस्तान में ब्रिटिश शासन के एक कारिंदे के रूप में की गई है। यह सरकार दुनिया की सबसे अत्याचारी सरकार है।’
     नेहरू जी ने अपनी पुस्तक ‘मेरी कहानी’ में खुद यह लिखा है: ‘उस समय लोगों ने ऐसा महसूस किया कि क्रांतिकारियों ने लाला जी और लाला जी के रूप में कौम की इज्जत रख ली।’ इसलिए ऐसा नहीं कह सकते कि जनता क्रांतिकारियों की कार्रवाइयों को सही नहीं मानती थी। हकीकत यह थी कि वह धीरे-धीरे उनके साथ खड़ी हो रही थी। जबकि गांधी जी लार्ड इरविन की बग्घी पर क्रांतिकारियों की ओर से फेंके गए बम के बाद इस घटना के बिल्कुल उल्टी बात कह रहे थे: ‘उस विशाल आवाम को हिंसा की भावना छू तक नहीं पाई है।...जरा सोचिए अगर वायसराय इस घटना में गंभीर रूप से जख्मी हो गए होते तो...।’ इसी तरह उन्होंने असेंबली बम कांड के बाद भी क्रांतिकारियों की यह कहकर आलोचना की कि जो लोग विवेक से परे नहीं हैं, उन्हें इस ताजातरीन बम कांड की छिपे या खुले तौर पर समर्थन देना बंद कर देना चाहिए। हालांकि हुआ इसके उल्टा। इसके बाद क्रांतिकारी कार्रवाइयों में चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में जबरदस्त उठान देखने को मिलता है।
      एचएसआरए में भी दो तरह की जिम्मेदारियां थीं। संगठन की स्थापना बैठक में ही सदस्यों की जिम्मेदारियों का स्पष्ट बंटवारा किया गया था। कमलेश मोहन अपनी किताब में इस बारे में भी रोशनी डालते हैं: ‘फिरोजशाह कोटला के मैदान में हुई एचएसआरए की स्थापना बैठक में सुखदेव को पंजाब, फणीन्द्र नाथ घोष को बिहार और उड़ीसा, शिववर्मा को उत्तर प्रदेश, जयदेव कपूर उर्फ प्रताप को झांसी में खुलने वाले केंद्रीय आॅफिस के लिए तथा भगत सिंह और विजय कुमार सिन्हा को पार्टी संयोजक की जिम्मेदारी सौंपी गई।’ पार्टी के अंदर ही एक सैन्य विभाग ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ खोला गया। ‘चंद्रशेखर आजाद को इसी सैन्य विभाग का कमांडर इन चीफ चुना गया।’ दिल्ली कांस्पिरेशी केश के एक मुख्य सरकारी गवाह (जो कि पहले क्रांतिकारियों का साथी था) का बयान अभी भी होम डिपार्टमेंट की फाइल संख्या ‘11/15 प्रोसीडिंग्स 1931’ में सुरक्षित है। इसके अनुसार, ‘एचएचआरए के क्रांतिकारियों ने क्रांतिकारी कामों को अंजाम देने, अपनी गुप्त मीटिंगों और बड़े पैमाने पर बम के निर्माण के लिए दिल्ली, लाहौर, अमृतसर, गुजरांवाला, रावलपिंडी, लालपुर, शेखूपुरा, रोहतक, फिरोजपुर, कानपुर, कलकत्ता, सहारनपुर, आगरा, ग्वालियर, अजमेर, झांसी, बेतिया (बिहार) और श्रीनगर में किराए पर कमरे/घर लिए थे।’ यह समूचा नेटवर्क आजाद के ही नेतृत्व में खड़ा किया गया।
       दिल्ली में सिरकी बाजार, पराठा वाली गली, न्यू हिन्दू हॉस्टल, कश्मीरी गेट और झंडेवालान में कमरे लिए गए थे। नया बाजार वाले ठिकाने पर भगवती चरण बोहरा एक बीमा एजेंट के रूप में रहते थे। हिन्दू हॉस्टल में हुई बैठक में चंद्रशेखर आजाद ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध छेड़ने के ऊपर विस्तार से बात की। इस बारे में भी कैलाशपति की गवाही एक महत्वपूर्ण सबूत है : ‘चंद्रशेखर आजाद ने इस मीटिंग में कहा था कि हिमालयन ट्वायलेट नाम से बनी फैक्ट्री में तैयार किए गए पिक्रिक एसिड और दिल्ली में अन्य जगहों तथा कानपुर में तैयार किए गए बम के खोलों की मदद से हम बड़े पैमाने पर बम तैयार कर सकेंगे। उसके बाद हम पूरे देश में इनका वितरण करके पूरे देश में सरकार के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध छेड़ देंगे।’ बाद में कुछ क्रांतिकारियों की गिरफ्तारी के बाद पुलिस ने इस फैक्ट्री पर छापा मारा। हालांकि आजाद का सूचना तंत्र इतना मजबूत था कि वे वहां से काफी सामान दूसरे ठिकाने पर पहुंचाने में सफल रहे। इसके बावजूद पुलिस को जितनी सामग्री मिली उससे छह हजार बम बनाए जा सकते थे। आजाद पुलिस की गतिविध को ताड़ने में माहिर थे। इसी वजह से वे विस्फोटकों की एक बड़ी मात्रा को बचाने में सफल रहे।
       झंडेवालान वाले घर के बाहर हिमालयन ट्वायलेट का बोर्ड टंगा हुआ था। इस बोर्ड को देखकर कोई भी इसे साबुन फैक्ट्री समझता। आजाद के निर्देश पर इसे पार्टी के कवर के रूप में प्रयोग करने का निर्णय लिया गया था। कैलाशपति के ही बयान के अनुसार, ‘नंद किशोर निगम (हिन्दू हॉस्टल) के यहां 9 जून 1930 को हुई बैठक में चंद्रशेखर आजाद ने साथियों के साथ साबुन फैक्ट्री की योजना पर विस्तार से बात की थी। इसी बैठक में तय निर्णय के आधार पर विमल प्रसाद जैन को साबुन फैक्ट्री का मैनेजर बनाया गया।’
     दिल्ली के बाद पुलिस को ऐसी एक फैक्ट्री लाहौर में भी मिली। पुलिस पीछे पड़े रही और आजाद नई जगह पर बम फैक्ट्रियां लगाते रहे। लाहौर में पुलिस ने छापा मारा तो आजाद ने ऐसी ही एक बम फैक्ट्री ग्वालियर में खड़ी कर दी। उन्होंने यहां टिन बमों को बनाने की भी एक फैक्ट्री लगाई थी, जिसके सिर्फ वही विशेषज्ञ थे। ग्वालियर में भी पुलिस ने छापा मारा। लेकिन एक बार फिर आजाद पुलिस को चकमा देने में सफल रहे। यहां से भागकर उन्होंने पूना में बम फैक्ट्री खड़ी कर दी। यहां भी पुलिस ने छापा मारा और बड़ी मात्रा में विस्फोटक जब्त किया। भगत सिंह के अनन्य मित्र राजगुरु को यहीं से गिरफ्तार किया गया। यहां से भी आजाद ने विस्फोटक सामग्री को बचाने की भरसक कोशिश की। इसके बाद आजाद को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस ने पूरी ताकत लगा दी। अंतत: 27 फरवरी 1931 को एक मुखबिर की सूचना पर पुलिस ने आजाद को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में घेर लिया। यहीं पर पुलिस से लड़ते हुए आजाद शहीद हो गए। जिस समय पुलिस ने उन्हें चारों ओर से घेरा हुआ था, उस वक्त भी एक शहीद की मां को पैसा भेजवाना नहीं भूले। आजाद की इसी खूबी के चलते उनके साथी उन्हें जान से ज्यादा प्यार करते थे।

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