सन् 1857 के महासमर के 150 साल हो रहे हैं। हमारी कोशिश होगी कि शहीद ए आज़म पर इस महासमर से जुड़ी चीज़ें पाठकों के लिए मुहैया करायें। ख़ासकर वैसी सामग्री, जो आमतौर पर नहीं मिल पातीं।
आज यहां एक ऐसी कविता दी जा रही है, जिसे आप इस मुल्क का पहला क़ौमी तराना कहें तो शायद गलत नहीं होगा। आज से 150 साल पहले, मुल्क़ का ऐसा तसव्वुर नहीं था। राजा- रजवाड़ों के दिमाग में भी नहीं। यह गीत महासमर के एक मशहूर योद्धा अजीमुल्ला खां ने रचा था।
हम हैं इसके मालिक हिन्दुस्तान हमारा,पाक वतन है कौम का जन्नत से भी न्यारा।
ये है हमारी मिल्कियत, हिन्दुस्तान हमाराइनकी रूहानियत से रोशन है जग सारा।
कितना कदीम कितना नईम, सब दुनिया से प्यारा,करती है ज़रख़ेज़ जिसे गंगो-जमुन की धारा।
ऊपर बर्फीला पर्वत पहरेदार हमारा,नीचे साहिल पर बजता सागर का नक्कारा।
इसकी खानें उगल रही हैं, सोना, हीरा, पारा,इसकी शानो-शौकत का दुनिया में जयकारा।
आया फिरंगी दूर से ऐसा मंतर मारा,लूटा दोनों हाथ से, प्यारा वतन हमारा।
आज शहीदों ने है तुमको अहले वतन ललकारा,तोड़ो गुलामी की जंज़ीरें बरसाओ अंगारा।
हिन्दू-मुसलमां, सिख हमारा भाई-भाई प्यारा,यह है आजादी का झंडा, इसे सलाम हमारा।
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