‘पुलिस दुश्मन के साथ है’क्रांतिकारी कवि और विचारक वरवर राव बता रहे हैं कि पश्चिम बंगाल में पुलिस कैंप पर हमला ऑपरेशन ग्रीन हंट के बदले में किया गया था. तहलका में प्रकाशित शोभिता नैथानी से बातचीत से अंश-साभार.
पश्चिम बंगाल में जवानों की निर्मम हत्या पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?
यह कोई अलग-थलग घटना नहीं है। जवान माओवादियों के खिलाफ कॉम्बिंग ऑपरेशन का हिस्सा हैं. सरकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों को जंगल की जमीन सौंप कर आदिवासियों को संसाधनों से वंचित कर रही है. इस उद्देश्य से जब पुलिस भेजी जाती है तो पुलिस और माओवादियों के बीच संघर्ष होता है. सरकार अपने ही लोगों को विस्थापित कर रही है, उनकी हत्या कर रही है. इसलिए इस घटना को अलग करके नहीं देखिए, बल्कि ऐसे देखिए कि ये क्यों हो रहा है. ऐसा दो भिन्न विकास मॉडलों के बीच टकराव के कारण हो रहा है. सरकारी मॉडल को जनता से कुछ लेना-देना नहीं है.
लेकिन जो मारे गए वे गरीब कांस्टेबल थे, और अपने परिवार की जीविका कमाने के लिए ड्यूटी कर रहे थे।
किसी युद्ध के दौरान पुलिस गरीब लोगों की ही भर्ती करती है। लेकिन यहां वे दुश्मन के साथ है- उनके जरिए राजसत्ता लोगों पर दमन चलाती है.
इस हमले का लक्ष्य क्या है?
गणपति (भाकपा माओवादी के महासचिव) ने मांग की है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गतिविधियां खत्म की जाएं, अर्धसैनिक बलों को वापस बुलाया जाए और माओवादी नेताओं नारायण सान्याल, अमिताभ बागची, सुशील राय और कोबाद गांधी को छोड़ा जाए। और यह कि जंगल की संपत्ति और इसके खनिज को आदिवासियों के हाथों में सौंप दिया जाए. इसे एक क्रांति से और एक वकल्पिक जनता की सत्ता से ही पूरा किया जा सकता है.
इस हमले से क्या हासिल हुआ?
यह एक या दो हमलों की बात नहीं है। कोई हमला अलग-थलग हमला नहीं है. अगर राज्य हिंसा को नहीं रोकता है तो ऐसे हमले होंगे.
क्या पुलिस के अत्याचारों को रोकने का हिंसा एकमात्र रास्ता है? या मुद्दे को सुलझने के लिए कोई
लोकतांत्रिक जनांदोलन संभव है?
यह एक लोकतांत्रिक आंदोलन है।
आप इसे लोकतांत्रिक कैसे कह सकते हैं, जब इसमें हिंसा हो रही है?
एक सरकार जो संसदीय चुनावों के जरिए सत्ता में आती है और एक संसदीय लोकतंत्र के तहत शपथ लेती है, उसने देश के अधिकतर हिस्सों में सैनिक शासन चला रखा है, जिसमें मुठभेड़ों में हत्याएं और ऑपरेशन ग्रीन हंट शामिल है। क्या यह लोकतांत्रिक है?
माओवादी किनका प्रतिनिधित्व करते हैं?
मेहनतकश वर्ग, आदिवासियों, मुसलमानों, दलितों, महिलाओं- जो कोई भी उत्पादन की प्रक्रिया का हिस्सा है- माओवादी उन सबका प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन किशन से अलग हुए माओवादी जोनल कमांडर मार्शल ने तहलका को बताया है कि माओवादी आदिवासी समर्थक नहीं हैं। यह सलवा जुडूम जसी दलील है। सरकार कहती है कि सलवा जुडूम आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन यह सही नहीं है. सरकार उनको (मार्शल) नियंत्रित कर रही है और उनसे ऐसा बुलवा रही है.
साल पहले यह फैसला करने के बाद भी कि वे स्कूलों को नहीं गिराएंगे, माओवादी क्यों स्कूल की इमारतों को जला रहे हैं?
क्योंकि उनका उपयोग पुलिस कैंप के रूप में हो रहा था। आप केवल प्रतिक्रियाओं के बारे में पूछ रही हैं, कार्रवाइयों के बारे में नहीं पूछ रही हैं. माओवादी आदिवासियों के लिए स्कूल चला रहे हैं, और वे आदिवासियों के लिए स्वास्थ्य कार्यक्रम भी चला रहे हैं.
क्या इसकी संभावना है कि माओवादी हथियार डाल कर बातचीत शुरू कर सकते हैं?
अगर सरकार युद्धविराम की घोषणा करता है और माओवादियों पर से प्रतिबंध हटाता है तो वे बातचीत करेंगे।बहुत सारे आदिवासी माओवादियों और राज्य के बीच में फंसे हुए हैं।
यह आपका मानना है. माओवादी वहां आदिवासियों के लिए हैं. वे जंगल की जमीन की अपने लिए नहीं, आदिवासियों के लिए मांग कर रहे हैं. आदिवासी और माओवादी एक तरफ हैं और राजसत्ता दूसरी तरफ. जिन आदिवासियों को यह नहीं लगता कि माओवादी उनके साथ है, उन्हें जब इसका फायदा दिखेगा तो वे भी ऐसा मानने लगेंगे।
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