शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

भगत सिंह- राजगुरु- सुखदेव की याद

Nasiruddin
आज भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की शहादत का दिन है। मुझे नहीं मालूम कि हम में से कितने लोगों को यह दिन याद रहता है। लेकिन इनकी शहादत को याद रखना मेरे लिए काफी अहम है। मैं भूलना भी चाहूँ तो शायद मुमकिन नहीं। इसीलिए महीनों से ब्‍लॉग की दुनिया से दूर रहने के बावजूद मैं यह पोस्‍ट करने पर मजबूर हो रहा हूँ।
तेइस साल। यही उम्र थी भगत सिंह की जब उन्‍हें फाँसी दी गई। मैं तो तेइस साल में कुछ नहीं कर पाया। भगत सिंह के बारे में आप जितना ही पढ़ते जाएँगे, आप अपने होने पर सवाल खड़े करने लगेंगे। आपको लगेगा कि क्‍या वाकई में हम एक ऐसे नौजवान के वारिस हैं, जिसने इतनी कच्‍ची उम्र में इतने पक्‍के खयालात बनाए। देश-दुनिया के बारे में इतना पढ़ गया, जितना हममें से कई दश्‍कों में नहीं पढ़ पाते। इतना कह और सोच गया कि लाख छिपाने पर उसके विचार छिप न सके।
यह कहना की भगत सिंह महान थे, जितना आसान है, उतना ही मुश्किल है उस राह पर चलना जिस पर भगत सिंह ने हँसते-हँसते जान न्‍यौछावर कर दिया। यह काम कोई सिरफिरा या पागल नहीं कर सकता था। यह काम वही कर सकता था, जिसे अपने मकसद के बारे में जरा भी गलतफहमी नहीं थी।
जब मैं पढ़ाई कर रहा था तो अक्‍सर ऐसे टीचर और नेताओं से मुलाकात होती, जो हमें तो भगत सिंह के विचारों से प्रेरित होने और उनके रास्‍ते पर चलने की सलाह देते। लेकिन अपने बेटे- बेटियों से हमेशा यह राह छिपा कर रखा करते। अगर किसी का बेटा या बेटी भटकता हुआ उधर गुजरने की कोशिश करता तो उसे यह समझाकर वापस लौटा लाते कि अभी हालात ऐसे नहीं हैं। (भौतिक परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं हुई हैं।) ‘यानी भगत सिंह बहुत महान। बहुत अच्‍छे। लेकिन भगत सिंह मेरे घर में नहीं बल्कि पड़ोसी के घर पैदा लें।‘ यही आज के मध्‍यवर्ग का मानस भी है। आज इसी मानस का फैलाव दूर-दूर तक है। इसलिए भगत‍ सिंह की वीरता के गान हम भले ही आज जितना गा लें। उनके विचार से दो चार होने की हिम्‍मत नहीं जुटा पाते क्‍योंकि विचार बड़े बदलाव की ओर ले जाते हैं। बदलाव की राह कभी आसान नहीं होती।

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