संघर्षरत मेहनतकश के मई-अगस्त 2011 के अंक में साथी जितेंद्र का साम्राज्यवाद पर एक लेख प्रकाशित किया गया था। छह साल पहले लिखे इस लेख की प्रासंगिकता आज पहले से भी ज्यादा है। इसलिए 100 flowers इसे साभार अपने पाठकों के लिए प्रकाशित कर रहा है।
आज की विश्व पूंजीवादी व्यवस्था धनी व्यक्तियों का ही तंत्र है जिसका यौवन खत्म हुए सौ साल से ज़्यादा का समय बीत चुका है। अब तक तो उसे इस धरती से विदा हो जाना चाहिए था। लेकिन वो दुनिया के मेहनतकश वर्ग के यौवन की कीमत पर न सिर्फ अभी तक कायम है बल्कि बहुत मजबूती के साथ कायम है। युद्ध, आतंकवाद और भुखमरी जैसी समस्याएं आज अगर पूरी मानवता को अभी भी रौंद रही है तो सिर्फ इसलिए कि यह धरती एक अस्वस्थ और अप्राकृतिक व्यवस्था की गिरफ्त में है। यूरोप, अमेरिका और दुनिया के अन्य देशों का ताजातरीन आर्थिक संकट इसी का एक लक्षण है।
यूरोप:
यूरोप की अर्थव्यवस्थाएं पिछले छह-सात साल से लगातार आर्थिक संकट को झेल रही है। ग्रीस, पुर्तगाल, स्पेन, इटली और फ्रांस की जनता ने भारी तादाद में सड़कों पर उतरकर आर्थिक नीतियों का विरोध किया। यूरोप के ये देश 2008-09 की आर्थिक मंदी से अभी उबर भी नहीं पाए थे कि वे एक बार फिर मंदी के दलदल में फंस गए। मौजूदा संकट भी इतना व्यापक और गहरा कि यूरो मुद्रा के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा हो गया और यूरोपीय संघ की सारी चमक फीकी पड़ गई। ग्रीस लगभग दिवालिया हो चुका था, स्पेन और इटली भी दिवालिया होने की कगार पर है हालांकि यूरोप के केंद्रीय बैंक ने धन उपलब्ध कराकर समस्या को फिलहाल टाल तो दिया लेकिन इसके एवज में इन देशों की जनता से इसकी भारी कीमत वसूली गई थी। अब इन देशों की सरकारों को खर्च में कटौती के नाम पर उन नीतियों को लागू करना पड़ेगा जो आम जनता के जीवन को और ज्यादा दूभर बनाती हैं। इन नीतियों के विरोध में स्पेन और ग्रीस में लाखों की तादाद में जनता सड़कों पर उतर आई। ग्रीस की जनता ने अपनी संसद के सामने हजारों की संख्या में इकट्ठा होकर चोर-चोर के नारे भी लगाए। जनता की राय बहुत स्पष्ट है कि जिस संकट के लिए पूंजीपति और राजनेता जिम्मेदार हैं उसकी कीमत आम जनता से क्यों वसूली जाए। इस बीच ग्रीस को दिवालिया होने से बचाने के लिए कर्ज दिया जाए या नहीं यह तय करने के लिए जर्मन अधिकारी ग्रीस आए और जांच-पड़ताल की। उन्होंने वहां के कर्मचारियों से भी सवालात किए। ग्रीस की जनता को यह बेहद अपमानजनक और नागवार गुजरा। अतीत में ग्रीस सभ्यता और संस्कृति का केंद्र रहा है। उसने साम्राज्य के उत्थान और पतन को भी देखा है। उन्हें ये बर्दाश्त करना कठिन होता है कि यूरोप के बड़े देश और थैलीशाह पहले तो उन्हें भिखमंगा साबित करें, फिर उन पर कर्ज और शर्तें थोपें।
बहरहाल, इस संकट ने एकबार फिर यह साबित कर दिया कि यूरोपीय संघ का बनना और यूरो मुद्रा की जरूरत यूरोप के पूंजीपति वर्ग और खासतौर जर्मनी और फ्रांस जैसे धनी देशों की आवश्यकता को पूरा करने के लिए थी। जबकि यूरोप की आम जनता खासतौर छोटे और कम धनी देशों को इसकी कीमत चुकानी थी।
अमेरिका:
अमेरिका भी ऐतिहासिक आर्थिक संकट के दलदल में फंस चुका है। दरअसल वह 2008-09 की भीषण आर्थिक मंदी के दौर से कभी उबर नहीं पाया। मंदी से उबरने की झूठी घोषणाएं होती रहीं जबकि उसकी आर्थिक विकास दर एक से डेढ़ प्रतिशत से अधिक कभी नहीं हो पाया। लेकिन कर्ज के संकट को हल करने के लिए 1 अगस्त के दिन सरकार और विपक्ष ने मिलकर जो समझौता किया उससे अमेरिकी समाज का संकट अधिक तीखा हो जाएगा इसमें और कोई संदेह नहीं रह गया है। इस समझौते की वजह से अमेरिकी सरकार को अगले दस साल के दौरान अपने खर्चों में 2.4 खरब डॉलर की कटौती करनी पड़ेगी। जाहिरा तौर पर ये कटौतियां आम जनता के लिए होने वाले सामाजिक सुरक्षा और मेडिकल खर्चों में ही की जाएगी। हालांकि कर्ज के संकट का समाधान अमीरों पर टैक्स लगाकर भी किया जा सकता था क्योंकि अमेरिका की कुल आमदनी का 83 प्रतिशत हिस्सा मात्र 20 प्रतिशत लोगों की जेब में जाता है। लेकिन सरकार और विपक्ष ने उस विकल्प को नहीं चुना। ऐसी आर्थिक नीतियों का मतलब बहुत साफ है कि मेहनतकश जनता की गाढ़ी कमाई को 1) टैक्स छूट के रास्ते अमीरजादों तक पहुंचाना तथा 2) तीसरी दुनिया के देशों पर कब्जा जमाने और दुनिया में चौधराहट कायम रखने के लिए सैन्य खर्च की भरपाई करना। पिछले तीस सालों के दौरान अमेरिका में इस नीति को बार-बार अपनाया गया है लेकिन वर्ष 2000 से तो लगातार यही नीति लागू हो रही है। अभी चार साल पहले अमेरिकी जनता ने देखा कि किस तरह वहां की सरकार ने उन्हीं वित्तीय संस्थानों और बैंकों को सैकड़ों-अरबों डॉलर की मदद की जिनकी बेइंतहा मुनाफाखोरी ने आर्थिक मंदी को जन्म दिया था। जबकि पूरी दुनिया में उन पर नकेल कसने की आवाज उठी थी। जनता ने यह भी देखा बल्कि आज भी देख रही है कि किस तरह अमेरिका पूरी दुनिया पर अपना सैन्य प्रभुत्व कायम रखने के लिए इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, मिस्र और लीबिया में खरबों डॉलर लुटा रहा है। यह सारा का सारा धन अमेरिका के ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के मेहनतकशों के श्रम और उनकी प्राकृतिक संपदाओं की लूट से हासिल किया गया है। इन नीतियों ने अमेरिकी समाज में अमीर-गरीब की खाई को बहुत अधिक बढ़ा दिया है। अमेरिका में आज काम करने वाली कुल आबादी का 42 प्रतिशत हिस्सा बेरोजगार हो चुका है। ये आंकड़ा और भी बढ़ने वाला है। स्थितियां इतनी निराशाजनक हैं कि अमेरिका के भविष्य को लेकर कोई भी अच्छी उम्मीद नहीं बांध पा रहा है। वैश्वीकरण के झंडाबरदारों के मुंह से आज सिर्फ विलाप के शब्द ही फूट रहे हैं। न्यूयार्क टाइम्स का थॉमस फ्रीडमैन विलाप करते हुए कहता है ''हमने शीतयुद्ध की समाप्ति को एक ऐसी विजय मान लिया था जो हमारे लिए नई समृद्धि का रास्ता खोल देगी। लेकिन हम गलत थे। उसने वास्तव में हमारे सामने अब तक की सबसे भीषण चुनौतियां पेश कर दी हैं।'' इसी तरह लंदन का मशहूर अखबार टेलीग्राफ कहता है ''इस बार हम जल्दी ही दोबारा मंदी के खतरों से घिर गए हैं। लेकिन इस बार हमारा सहारा बनने वाला कोई नहीं है। चीन अपने सफल घरेलू उत्पाद का 200 प्रतिशत कर्ज के रूप में पहले ही झोंक चुका है।''
संकट के कारण:
यूं तो आर्थिक संकट का पूंजीवाद से नाता उसके जन्मकाल से ही है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की मूल प्रेरक शक्ति मुनाफा होता है। इसलिए मुनाफे के लिए तीव्र होड़ करना, कुछ लोगों के हाथों पूंजी या संपति का इकट्ठा होते जाना व शेष आबादी का संपतिहीन होते जाना और इस कारण बीच-बीच में आर्थिक मंदी पैदा होते रहना पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी आम सी बात है। लेकिन मौजूदा संकट कोई आम संकट नहीं है। पूंजीवाद का संकट और मुनाफे के लिए होड़ अब एक नई मंजिल तक पहुंच गई है। आज कुछ लोगों के हाथों में पूंजी या संपति इतनी इकट्ठा हो गई है कि उसकी कल्पना भी आम आदमी नहीं कर सकता है। इस पूंजी में वित्तीय और सट्टेबाजी की पूंजी की मात्रा सबसे ज्यादा है इसलिए मुनाफे के लिए होड़ भी उतनी ही तीखी हो चुकी है। इस होड़ में जो सबसे आगे और सबसे ताकतवर व प्रभावशाली होगा वही सबसे ज्यादा मुनाफे का भागीदार होगा। इसी कारण पूंजी को पैदा करने वाले मजदूर और मेहनतकश तबके का शोषण और उसकी तबाही भी उतनी ही तेज हो गई है। इसलिए आज का शासनतंत्र पूरी तरह एक परजीवी तंत्र में तब्दील हो चुका है। गरीब देशों की तीव्र लूट के बिना अमेरिकी-यूरोपीय तंत्र आज कायम नहीं रह सकता। ठीक इसी तरह मजदूरों और मेहनतकशों की तीव्र लूट के बिना आज पूंजीपति भी अपनी हैसियत नहीं बनाए रख सकता। भारत में भी इस परिघटना को देखा जा सकता है। उदारीकरण के जिस दौर में यहां पूंजीपतियों की संपतियों में तीन गुना की बढ़ोतरी हुई, उसी दौर में मजदूरों और मेहनतकशों का शोषण भी उसी मात्रा में बढ़ा। यह परजीवी तंत्र ही दुनिया के तमाम संकटों का मूल कारण है और इसका खात्मा इसका एकमात्र समाधान है।
- (जितेंद्र)
आज की विश्व पूंजीवादी व्यवस्था धनी व्यक्तियों का ही तंत्र है जिसका यौवन खत्म हुए सौ साल से ज़्यादा का समय बीत चुका है। अब तक तो उसे इस धरती से विदा हो जाना चाहिए था। लेकिन वो दुनिया के मेहनतकश वर्ग के यौवन की कीमत पर न सिर्फ अभी तक कायम है बल्कि बहुत मजबूती के साथ कायम है। युद्ध, आतंकवाद और भुखमरी जैसी समस्याएं आज अगर पूरी मानवता को अभी भी रौंद रही है तो सिर्फ इसलिए कि यह धरती एक अस्वस्थ और अप्राकृतिक व्यवस्था की गिरफ्त में है। यूरोप, अमेरिका और दुनिया के अन्य देशों का ताजातरीन आर्थिक संकट इसी का एक लक्षण है।
यूरोप:
यूरोप की अर्थव्यवस्थाएं पिछले छह-सात साल से लगातार आर्थिक संकट को झेल रही है। ग्रीस, पुर्तगाल, स्पेन, इटली और फ्रांस की जनता ने भारी तादाद में सड़कों पर उतरकर आर्थिक नीतियों का विरोध किया। यूरोप के ये देश 2008-09 की आर्थिक मंदी से अभी उबर भी नहीं पाए थे कि वे एक बार फिर मंदी के दलदल में फंस गए। मौजूदा संकट भी इतना व्यापक और गहरा कि यूरो मुद्रा के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा हो गया और यूरोपीय संघ की सारी चमक फीकी पड़ गई। ग्रीस लगभग दिवालिया हो चुका था, स्पेन और इटली भी दिवालिया होने की कगार पर है हालांकि यूरोप के केंद्रीय बैंक ने धन उपलब्ध कराकर समस्या को फिलहाल टाल तो दिया लेकिन इसके एवज में इन देशों की जनता से इसकी भारी कीमत वसूली गई थी। अब इन देशों की सरकारों को खर्च में कटौती के नाम पर उन नीतियों को लागू करना पड़ेगा जो आम जनता के जीवन को और ज्यादा दूभर बनाती हैं। इन नीतियों के विरोध में स्पेन और ग्रीस में लाखों की तादाद में जनता सड़कों पर उतर आई। ग्रीस की जनता ने अपनी संसद के सामने हजारों की संख्या में इकट्ठा होकर चोर-चोर के नारे भी लगाए। जनता की राय बहुत स्पष्ट है कि जिस संकट के लिए पूंजीपति और राजनेता जिम्मेदार हैं उसकी कीमत आम जनता से क्यों वसूली जाए। इस बीच ग्रीस को दिवालिया होने से बचाने के लिए कर्ज दिया जाए या नहीं यह तय करने के लिए जर्मन अधिकारी ग्रीस आए और जांच-पड़ताल की। उन्होंने वहां के कर्मचारियों से भी सवालात किए। ग्रीस की जनता को यह बेहद अपमानजनक और नागवार गुजरा। अतीत में ग्रीस सभ्यता और संस्कृति का केंद्र रहा है। उसने साम्राज्य के उत्थान और पतन को भी देखा है। उन्हें ये बर्दाश्त करना कठिन होता है कि यूरोप के बड़े देश और थैलीशाह पहले तो उन्हें भिखमंगा साबित करें, फिर उन पर कर्ज और शर्तें थोपें।
बहरहाल, इस संकट ने एकबार फिर यह साबित कर दिया कि यूरोपीय संघ का बनना और यूरो मुद्रा की जरूरत यूरोप के पूंजीपति वर्ग और खासतौर जर्मनी और फ्रांस जैसे धनी देशों की आवश्यकता को पूरा करने के लिए थी। जबकि यूरोप की आम जनता खासतौर छोटे और कम धनी देशों को इसकी कीमत चुकानी थी।
अमेरिका:
अमेरिका भी ऐतिहासिक आर्थिक संकट के दलदल में फंस चुका है। दरअसल वह 2008-09 की भीषण आर्थिक मंदी के दौर से कभी उबर नहीं पाया। मंदी से उबरने की झूठी घोषणाएं होती रहीं जबकि उसकी आर्थिक विकास दर एक से डेढ़ प्रतिशत से अधिक कभी नहीं हो पाया। लेकिन कर्ज के संकट को हल करने के लिए 1 अगस्त के दिन सरकार और विपक्ष ने मिलकर जो समझौता किया उससे अमेरिकी समाज का संकट अधिक तीखा हो जाएगा इसमें और कोई संदेह नहीं रह गया है। इस समझौते की वजह से अमेरिकी सरकार को अगले दस साल के दौरान अपने खर्चों में 2.4 खरब डॉलर की कटौती करनी पड़ेगी। जाहिरा तौर पर ये कटौतियां आम जनता के लिए होने वाले सामाजिक सुरक्षा और मेडिकल खर्चों में ही की जाएगी। हालांकि कर्ज के संकट का समाधान अमीरों पर टैक्स लगाकर भी किया जा सकता था क्योंकि अमेरिका की कुल आमदनी का 83 प्रतिशत हिस्सा मात्र 20 प्रतिशत लोगों की जेब में जाता है। लेकिन सरकार और विपक्ष ने उस विकल्प को नहीं चुना। ऐसी आर्थिक नीतियों का मतलब बहुत साफ है कि मेहनतकश जनता की गाढ़ी कमाई को 1) टैक्स छूट के रास्ते अमीरजादों तक पहुंचाना तथा 2) तीसरी दुनिया के देशों पर कब्जा जमाने और दुनिया में चौधराहट कायम रखने के लिए सैन्य खर्च की भरपाई करना। पिछले तीस सालों के दौरान अमेरिका में इस नीति को बार-बार अपनाया गया है लेकिन वर्ष 2000 से तो लगातार यही नीति लागू हो रही है। अभी चार साल पहले अमेरिकी जनता ने देखा कि किस तरह वहां की सरकार ने उन्हीं वित्तीय संस्थानों और बैंकों को सैकड़ों-अरबों डॉलर की मदद की जिनकी बेइंतहा मुनाफाखोरी ने आर्थिक मंदी को जन्म दिया था। जबकि पूरी दुनिया में उन पर नकेल कसने की आवाज उठी थी। जनता ने यह भी देखा बल्कि आज भी देख रही है कि किस तरह अमेरिका पूरी दुनिया पर अपना सैन्य प्रभुत्व कायम रखने के लिए इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, मिस्र और लीबिया में खरबों डॉलर लुटा रहा है। यह सारा का सारा धन अमेरिका के ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के मेहनतकशों के श्रम और उनकी प्राकृतिक संपदाओं की लूट से हासिल किया गया है। इन नीतियों ने अमेरिकी समाज में अमीर-गरीब की खाई को बहुत अधिक बढ़ा दिया है। अमेरिका में आज काम करने वाली कुल आबादी का 42 प्रतिशत हिस्सा बेरोजगार हो चुका है। ये आंकड़ा और भी बढ़ने वाला है। स्थितियां इतनी निराशाजनक हैं कि अमेरिका के भविष्य को लेकर कोई भी अच्छी उम्मीद नहीं बांध पा रहा है। वैश्वीकरण के झंडाबरदारों के मुंह से आज सिर्फ विलाप के शब्द ही फूट रहे हैं। न्यूयार्क टाइम्स का थॉमस फ्रीडमैन विलाप करते हुए कहता है ''हमने शीतयुद्ध की समाप्ति को एक ऐसी विजय मान लिया था जो हमारे लिए नई समृद्धि का रास्ता खोल देगी। लेकिन हम गलत थे। उसने वास्तव में हमारे सामने अब तक की सबसे भीषण चुनौतियां पेश कर दी हैं।'' इसी तरह लंदन का मशहूर अखबार टेलीग्राफ कहता है ''इस बार हम जल्दी ही दोबारा मंदी के खतरों से घिर गए हैं। लेकिन इस बार हमारा सहारा बनने वाला कोई नहीं है। चीन अपने सफल घरेलू उत्पाद का 200 प्रतिशत कर्ज के रूप में पहले ही झोंक चुका है।''
संकट के कारण:
यूं तो आर्थिक संकट का पूंजीवाद से नाता उसके जन्मकाल से ही है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की मूल प्रेरक शक्ति मुनाफा होता है। इसलिए मुनाफे के लिए तीव्र होड़ करना, कुछ लोगों के हाथों पूंजी या संपति का इकट्ठा होते जाना व शेष आबादी का संपतिहीन होते जाना और इस कारण बीच-बीच में आर्थिक मंदी पैदा होते रहना पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी आम सी बात है। लेकिन मौजूदा संकट कोई आम संकट नहीं है। पूंजीवाद का संकट और मुनाफे के लिए होड़ अब एक नई मंजिल तक पहुंच गई है। आज कुछ लोगों के हाथों में पूंजी या संपति इतनी इकट्ठा हो गई है कि उसकी कल्पना भी आम आदमी नहीं कर सकता है। इस पूंजी में वित्तीय और सट्टेबाजी की पूंजी की मात्रा सबसे ज्यादा है इसलिए मुनाफे के लिए होड़ भी उतनी ही तीखी हो चुकी है। इस होड़ में जो सबसे आगे और सबसे ताकतवर व प्रभावशाली होगा वही सबसे ज्यादा मुनाफे का भागीदार होगा। इसी कारण पूंजी को पैदा करने वाले मजदूर और मेहनतकश तबके का शोषण और उसकी तबाही भी उतनी ही तेज हो गई है। इसलिए आज का शासनतंत्र पूरी तरह एक परजीवी तंत्र में तब्दील हो चुका है। गरीब देशों की तीव्र लूट के बिना अमेरिकी-यूरोपीय तंत्र आज कायम नहीं रह सकता। ठीक इसी तरह मजदूरों और मेहनतकशों की तीव्र लूट के बिना आज पूंजीपति भी अपनी हैसियत नहीं बनाए रख सकता। भारत में भी इस परिघटना को देखा जा सकता है। उदारीकरण के जिस दौर में यहां पूंजीपतियों की संपतियों में तीन गुना की बढ़ोतरी हुई, उसी दौर में मजदूरों और मेहनतकशों का शोषण भी उसी मात्रा में बढ़ा। यह परजीवी तंत्र ही दुनिया के तमाम संकटों का मूल कारण है और इसका खात्मा इसका एकमात्र समाधान है।
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