रविवार, 5 नवंबर 2017

शिखु लाः अंजान लोगों का साथ और पदयात्रा

                     सुरेंद्र विश्वकर्मा
इस बार श्रीनगर कुछ बदला-बदला सा लग रहा था। कश्मीर घाटी में सुन्नी लोगों की बहुलता है, लेकिन नये श्रीनगर में महिलाओं से बुरका गायब था। सटीक
Glacier at penjila pass
कारण किसी ने नहीं बताया, लेकिन श्रीनगर से बाहर या घाटी के बाकी हिस्सों में हिजाब दिखने लगता है। सेना और पुलिस को
zanskar river
देखकर लगता है,
Same way I pass river
जैसे इन्हें खुद ही सुरक्षा की जरूरत है।
घाटी में लोग मिलनसार लगे, चाहे वे स्‍थानीय बस के सहयोगी हों, बगीचों के माली या पैदल चल रहे राहगीर। केंद्र सरकार और मीडिया ने देश के बाकी हिस्सों में एक अघोषित मायाजाल फैला रखा है। फिर भी डल झील के किनारे जितने भी लाई चने बेचने वाले हैं सभी पूर्वी बिहार के हैं। पूरी यात्रा में जितने भी निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले कामगार मिले, अधिकतर बिहार, बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश के हैं।
 शाहजहां का बनवाया निशात बाग धरती के सबसे खूबसूरत जगहों में से एक है, हालांकि इसकी देखभाल करने वाले मालियों की हालत उतनी ही दयनीय है। कुल मालियों में से महज 3-4 माली ही परमानेंट हैं, बाकी सभी 3000-4000 रुपये के ठेके पर लगाए गए हैं। वे 15-20 सालों से काम कर रहे हैं, लेकिन उनको स्‍थायी नहीं किया गया है। अन्य विभागों में भी अस्‍थायी मुलाजिमों का यही हाल है। सरकार कहती है कि सात साल तक यदि कोई लगातार काम कर रहा है तो उसे स्‍थायी किया जाएगा, लेकिन वह अपने ही बनाए नियम को तोड़ रही है।
मुगलों को चाहे जितना कोस लें, लेकिन चिनार के वृक्षों के लिए उनका शुक्रगुजार तो होना ही चाहिए। वहां लगाए गए कई वृक्ष आज 400-500 साल पुराने हो गए हैं, लेकिन जो वृक्ष जितना पुराना है, उतना ही विशाल और आलीशान है। क्या अमर होना इसी को कहते हैं।
तीन दिनों के श्रीनगर प्रवास के बाद कारगिल पहुंचा। यहां की 80 प्रतिशत आबादी शिया है। द्रास से पहले कारगिल की चोटियां पर 1999 का युद्ध लड़ा गया था। बस आधे घंटे के लिए रुकी। यहां पुरबिया सेना के एक जवान ने पूरी रामायण बड़े विस्तार से दिखाया और बताया।
रविवार की दोपहर सुरू घाटी की यात्रा शुरू की। सुरू घाटी के लोग गेहूं और जौ की खेती करते हैं, जबकि कश्मीर घाटी की मुख्य फसल धान है। सुरू घाटी कुन और नून नामक दो चोटियों के नीचे आबाद है। थोड़ी दूर चलने के बाद बस में पांव रखने की क्या छत पर भी बैठने के लिए जगह नहीं बची। शाम पांच बजे इस घाटी के आखिरी गांव प्रकाचिक पहुंचा। कारगिल से प्रकाचिक तक की आबादी शिया बहुल है। वहां कोई भी काला लबादा नहीं पहनता है। रात रुकने की व्यवस्‍था पीडब्‍ल्यूडी के बंगले में हुई।
अगले दिन सुबह 8 बजे सेना के ट्रक में पदुम की यात्रा शुरू हुई। कच्चे ऊबड़-खाबड़, पथरीले रास्तों पर आर्मी की नई गाड़ी वह भी ट्रक में आगे बैठने को मिल जाना खुदा के मिल जाने के समान है। दोपहर में पेंजिला पास के करीब भूरे रंग के करीब 15- 20 किलोग्राम वजन के हिमालयी चूहों के दर्शन हुए। इसके बाद जंस्कार घाटी शुरू होती है। शाम साढ़े चार बजे पदुम पहुंच गया। 3657 मीटर की ऊंचाई पर बसा पदुम जंस्कार घाटी का केंद्र है। जाड़े के समय लोग जमी हुई जंस्कार नदी पर चलकर लेह जाते हैं। 2500 की बौद्ध धर्मावलंबी आबादी में 100 घर मुस्लिमों के भी हैं। दोनों समुदायों में आबादी बढ़ाने की होड़ दिखी। यहां चार-छह बच्चे होना आम बात है। सबसे अच्छी बात यह लगी कि बच्चे स्कूल जाते हैं। जंस्कार घाटी के स्कूलों को विदेशी चंदा खूब मिलता है। यहां एक राजा का महल भी था, जो अब खंडहर बन गया है।
सुबह के नौ बजे तक घूमता रहा। इसलिए अब अमू गांव तक के लिए एक टैक्सी लेना पड़ा। अमू तक बीआरओ ने पहाड़ काटकर सड़क बना दी है।
 12 सितंबर दिन मंगलवार दोपहर दो बजे से पदयात्रा शुरू हुई। रस्सी  पकड़कर नदी पार किया। साधारणतया यात्री फुगतल गोम्पा तक ही जाते हैं। ठंड बढ़ जाने के कारण यात्रियों की संख्या न के बराबर दिखी। गांवों के लोग पशुओं के छह माह तक खाने लिए घास काटने में लगे थे।
शाम पांच बजे चाह नाम के एक गांव में पहुंचा। मुख्य गांव नदी के दूसरी तरफ स्थित है। घर के बुजुर्ग ने रुकने और खाने का अच्छा इंतजाम कर दिया। प्रातः आठ बजे यहां से निकल लिया। रास्ते में एक सरकारी स्कूल के महाबातूनी मास्टर जी मिल गए। दो घंटे में साहब ने जंस्कार घाटी के बारे में इतना अधिक बताया कि साथ छोड़ना ही मुनासिब लगा। दोपहर में एक दूसरे व्यक्ति मिले। उनके घर दही रोटी खाया। शाम चार बजे नदी को पार किया और शाम सात बजे जंस्कार घाटी का आखिरी गांव कारयोक आ गया। गांव के एक घर में रुकने का इंतजाम हो गया। सुरू और जंस्कार घाटी कारगिल  जिले में आते हैं। सरकार ने लगता है पूरे जिले के लोगों को आदिवासी जनजाति की श्रेणी में डाल रखा है। इससे अधिकतर घरों के लोग सरकारी नौकरी पा गए हैं। जबकि कश्मीर घाटी में हालात ऐसे नहीं हैं। 2004-2005 तक पाकिस्तानी हुक्मरानों ने कश्मीर के अवाम को अपनी तरफ मिलाने के लिए पैसा बांटा। यही काम भारतीय शासकों ने भी किया। शायद सरकारें सोचती हैं कि केवल खाने को दे देने से उनकी जिम्मदारी खत्म हो जाती है, लेकिन यह पैसा भी कुछ लोगों तक ही पहुंचा। भारत की सरकार ने आजादी के बाद से शिक्षा स्वास्‍थ्य और रोजगार के लिए कुछ खास नहीं किया। ले दे के रेशन उद्योग वह भी सरकारी नीतियों के कारण चौपट हो गया।
जिले के सुरू घाटी तक की आबादी शिया मतावलंबी है और इनके धार्मिक गुरु इरान के अयातुल्ला खुमैनी हैं। थोड़े संपन्न घरों के लड़के धार्मिक शिक्षा के लिए यहां से इरान जाते हैं और वहीं शादी करके वापस आते हैं। कारगिल के हुसैनी पार्क में सिर पर सफेद पगड़ी वाले कई लोग मिले। इस्लाम को चाहे जितना भी हिंदू गरिया लें, लेकिन पेन्जिला पास तक एक भी नशेड़ी व्यक्ति नहीं मिला। इतनी ऊंचाई (3000-3900मीटर) पर बसे होने के बावजूद जंस्कार घाटी के लोग जौ, गेहूं और आलू, प्याज आदि उगा लेते हैं। गुरुवार (14 सितंबर) की सुबह साढ़े आठ बजे जंस्कार घाटी के आखिरी गांव बगरयोक को सलाम किया। आज ज्यादा चलना नहीं था। इसलिए गांव की सीमा से निकलकर बैठा था तभी चार विदेशी यात्रियों का दल और उनका लाव लश्कर आता दिखा। ये सभी अलग-अलग देशों के थे, जिन्हें टूर आपरेटर ने मिलाकर एक ग्रुप बना दिया था। इनके गुजरने के बाद मैं फिर से चूहों की तलाश में लग गया।
जंस्कार नदी में पानी के दो मुख्य स्रोत हैं। एक स्रोत फुतकल गोम्पा की तरफ से आता है, जिसका रंग एमदम हरा है और जिसके किनारे मैं चल रहा था वो मटमैला। मटमैली नदी का आखिरी पड़ाव अब आ गया था। गांव की सीमा से तीन किमी चलने के बाद, गायों के बड़े-बड़ गोट मिले। एक जगह गरम पानी और दूध पिया। दो नालों को पार कर लखनपुर के होटल या झोपड़ी में शाम चार बजे पहुंचा। इस झोपड़ी के लिए सरकार बोली लगाती है। ठंड बढ़ जाने के कारण इस होटल को भी एक हफ्ते में समेटने की तैयारी चल रही थी।
इस होटल में दो विदेशी यात्री पहले से मौजूद थे। फ्रांस के ये दोनों व्यक्ति स्की सेंटर में गार्ड की नौकरी करते थे। एक महीने की छुट्टी लेकर वे भारत घूमने आए थे। क्या अपने देश में ऐसी आशा की जा सकती है?
बहरहाल शुक्रवार की सुबह दो रोटी नमक तेल लगाकर खा लिया और 6:20 पर शिखु ला की तरफ प्रस्थान किया। डेढ़ घंटे की खड़ी चढ़ाई के बाद एकदम समतल मैदान आ गया। इस समतल मैदान के बाद नदी और ग्लैशियर से सटे रास्ते पर मैं भटक गया। गुजरा हुआ इंसान अपना निशान छोड़ जाता है। इन्हीं निशानों ने फिर से रास्ते पर ला दिया। 40 मिनट की चढ़ाई के बाद जीप चलने लायक कच्चा रास्ता बना दिया गया है। अगले मोड़ पर एक जीप दो विदेशी सैलानियों को लेकर नीचे जाती दिखी। 2019 तक दारचा को पदुम के कच्चे रास्ते से जोड़ने का लक्ष्य है। 80 प्रतिशत काम पूरा हो गया है।
साढ़े दस बजे 5098 मीटर की ऊंचाई पर स्थित शिखु ला पहुंच गया। ऊपर तूफान की तरह ठंडी हवा चल रही थी। पास के दूसरी तरफ एक शानदार झील है और इससे निकली नदी दारचा चली गई है। दारचा यहां से 42 किलोमीटर दूर है, लेकिन बीच में कोई गांव नहीं है। पास के दोनों तरफ 600-700 मीटर ऊंची कई बर्फीली चोटियां हैं।
शिखु ला जितना बड़ा और सुनसान था, उससे भी कहीं अधिक खूबसूरत।
कारयोक गांव के बाहर मिले विदेशी यात्रियों को लेकर वही जीप वापस आ गई। उसमें बैठकर दोपहर में दारचा पहुंच गया। गांव के नीचे एक होलिडे कैंप में ठहर गया। दारचा लेह-मनाली मार्ग पर हिमाचल प्रदेश का एक छोटा सा आखिरी गांव है। अगले दिन केलंग, मलाली होते हुए 23 घंटे की यात्रा के बाद रविवार सुबह पौने सात बजे दिल्ली वापस आ गया।
इस यात्रा वृत्तांत को लिखने का मकसद यही है कि प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया कश्मीर के बारे में जो बताता है, हकीकत उससे अलग है। मैं तो जन्नत का सफर कर खुशी-खुशी लौटा हूं। आप भी एक बार वहां जरूर जाएं।

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