(सुनील कुमार)। दिल्ली का पूर्वी इलाका शहादरा एक समय में सबसे लम्बे फ्लाईओवर के लिए जाना जाता था। फ्लाईओवर के ऊपर सरपट दौड़ती हुई गाड़ियां दिल्ली से यूपी और यूपी से दिल्ली में -जाती हैं। दिल्ली के लोगों ने सबसे पहला मेट्रो का सफर शहादरा से कश्मीरी गेट और कश्मीरी गेट से शहादरा तक किया था। दिल्ली के इस पूर्वी इलाके की गिनती रईस इलाके में नहीं होती है। इस इलाके को दिल्ली की मेहनतकश आबादी के रिहाइशी इलाके के रूप में जाना जाता है। लेकिन अब यहां मध्य वर्ग का कुछ इलाका भी विकसित हो चुका है।
शहादरा फ्लाईओवर और शहादरा से वेलकम मेट्रो लाईन के नीचे एक बस्ती है, जिसे जे.जे. कलस्टर, श्रीराम नगर, लाल बाग कहा जाता है। लेकिन इस बस्ती को दिल्ली की बहुत कम जनता ही जानती है। इस बस्ती से चंद दूरी पर ही एक मध्य वर्गीय इलाका दिलशाद गार्डन है, जहां के लोगों को इस बस्ती के बारे में जानकारी नहीं है। लोगों को पता भी कैसे हो, क्योंकि वे तो गाड़ियों और मेट्रो से इस बस्ती के ऊपर से गुजर जाते हैं।
श्रीराम नगर, लाल बाग की बस्ती दो भागों में बटी है। एक भाग मेट्रो लाईन के नीचे है, जहां ज्यादा तौर पर बिहार और यूपी के लोग रहते हैं। इस बस्ती का कुछ हिस्सा दिलशाद गार्डन मेट्रो के विस्तार के लिए तोड़ा गया तो उन लोगों को सवादा घेरा में पुर्नवास दिया गया। इसी बस्ती का दूसरा हिस्सा शहादरा फ्लाईओवर के नीचे है, जहां राजस्थान के चित्तौरगढ़ से आये लोग रहते हैं। वे अपने को महाराणा प्रताप के वंशज मानते हैं। ये लोग पूरे परिवार के साथ लोहे का काम करते हैं। इनके समुदाय के लोग दिल्ली की सड़कों के किनारे छोटी-छोटी झोपड़ियों में दिख जाते हैं, जो लोहे को गरम कर हथौड़े की चोट से लोहे को अलग-अलग आकार देते हैं और हमारे लिए सस्ते में तावा, हथौड़ा सरसी जैसी सामग्री उपलब्ध कराते हैं। इन्हीं की बस्ती के 65 घरों को 22 अगस्त, 2017को दिल्ली प्रशासन द्वारा बिना किसी पूर्व सूचना या नोटिस दिये बुलडोजर चला कर तोड़ दिया गया।
अब ये लोग अपनी टूटी-फूटी झोपड़ी के सामने चरपाई डाल कर बैठे हुए हैं। 22 अगस्त के बाद से इनके काम-काज भी बंद हैं। इन्हें अपने रहने की जगह के अलावा अपनी जीविका के लिए भी सोचना पड़ रहा है। इनके पास न रहने का जगह बची है, न काम करने की। ये खुले में अपने बच्चों के साथ खाना-पीना, रहना-सोना कर रहे हैं। खुले में शौच करने पर हर्जाना लगाने वाली सरकार को खुले में महिलाओं, बच्चों, बुजुर्गोंं को रहना, सोना, खाना-पीना कोई समस्या नहीं दिख रही है। क्यों नहीं उन आधिकारियों पर कार्रवाई की जा रही है, जिन्होंने इनके पुनर्वास किये बिना इनकी बस्ती को तोड़ दिया?
इस समुदाय के लोगों का मानना है कि उन्हें अपने लिए स्थायी घर नहीं बनाना है। लेकिन उनकी जो नई पीढ़ी है वह इस मान्यता को नहीं मान रही है। इस पीढ़ी के लोग पढ़ना चाहते हैं, अपने लिए स्थायी ठिकाना चाहते हैं और घुमंतू जीवन-यापन नहीं करना चाहते हैं। यही कारण है कि इस बस्ती का हरेक बच्चा (या बच्ची) अब स्कूल जाता है। अभी इस बस्ती से तीन छात्राएं और एक छात्र कॉलेज में पढाई कर रहे हैं। नेहा (19 वर्ष) ने बगल के सर्वोदय कन्या विद्यालय से इण्टरमीडिएट की परीक्षा 72 प्रतिशत अंकों के साथ पास की। वह दिल्ली विश्वविद्यालय के पत्राचार कोर्स से बीए द्वितीय वर्ष में पढ़ाई कर रही है। नेहा बताती है कि वह घर के कामों में हाथ बंटाती थी, छोटे बच्चों को पढ़ाती थी और साथ में ही तीन घंटे स्वयं पढ़ती थी। लेकिन जिस दिन से उनकी बस्ती टूटी है वह पढ़ नहीं पा रही है, क्योंकि घर तोड़ दिये गये और लाईट का कनेक्शन काट दिया गया। क्या ‘बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ’ का नारा लगाने वाली सरकार को नेहा जैसी लड़कियों के लिए चिंता नहीं है? नेहा आगे बताती है कि उसके साथ कॉलेजों में भी भेदभाव होता है, जिसके कारण उसके एक भी दोस्त कॉलेज में नहीं है। नेहा का सपना है कि वह अध्यापक बने और बच्चों को पढ़ाये। अभी तक उसका समुदाय शिक्षा के स्तर में काफी पीछे है।
राजकुमार (पुत्र नौरंग, उम्र 42 साल) बताते हैं कि उनका जन्म मॉडल टाउन का है लेकिन वे बचपन से ही शहादरा में रहते हैं। इंदिरा गांधी हत्याकांड के समय उनकी उम्र करीब 9 वर्ष की थी, उससे पहले से वे इस जगह पर रहते आ रहे हैं। वे जब यहां आये थे तो फ्लाईओवर नहीं था। वे लोग सड़क के किनारे रहते थे। फ्लाईओवर बनने के बाद वे फ्लाइओवर के नीचे रहने लगे। राजकुमार बताते हैं कि उनके पास वी पी सिंह के समय का सिल्वर वाला टोकन नहीं है। लेकिन जब वी पी सिहं प्रधानमंत्री के पद से हटने के बाद आये थे तो काले रंग के टोकन बांटे थे, वह टोकन उनके पास है। उनके पास 1996 से मतदाता पहचान पत्र है जो यहीं के निवास पते से बना हुआ है। लेकिन अब उन्हें यहां से भी तोड़ कर भगाया जा रहा है। राजकुमार महाराणा प्रताप का जिक्र करते हुए कहते हैं कि हमने ‘‘पहले भी अपना राज हारा और अब भी हार रहे हैं।’’ वे कहते हैं कि हम तो हिन्दुस्तानी हैं, कोई विदेशी तो नहीं हैं जो हमें भगाया जा रहा है। राजकुमार की पत्नी सुमन बताती हैं कि हमने अपनी जिन्दगी को बदलने के लिए अपने चूल्हे को बंद कर अपने बच्चों को पढ़ाया है। सुमन के चार बच्चे हैं, जिसमें से एक बेटा और एक बेटी कॉलेज की पढ़ाई कर रहे हैं और दो बच्चे स्कूलों में हैं। सुमन बताती हैं कि हम जो भी बनाते थे उसे बाजारों में ले जाकर बेचा करते थे। लेकिन अब घर टूट जाने से हम कुछ भी बना नहीं पा रहे हैं, जिसके कारण बाजार में भी नहीं जा पा रहे हैं। सुमन बताती हैं कि बाजारों में भी हमको बैठने नहींं दिया जाता है-कहा जाता है कि यह तुम्हारा ठेहा (बाजार में एक निश्चित बैठने की जगह) नहीं है, तुम यहां से जाओ। सुमन कहती हैं - ‘‘बच्चे हमसे कहते हैं कि हमें भी स्थायी रहने की जगह चाहिए, लेकिन हमारे पास कहां पैसा है कि हम घर बना पायें, हम इनको पढ़ा दे रहे हैं वही बहुत है।’’ सुमन की मांग है - ‘‘सरकार हमें यहां रहने दे या हमको स्थायी जगह दे।’’
कालीचरण (66 साल) बताते हैं कि हम यहां पर अपनी जवानी के दिनों में करीब 40 साल पहले आये थे, उस समय फ्लाईओवर नहीं बना था। हमारे बच्चों का जन्म यहीं का है, लेकिन सरकार हमें यहां से भगा रही है। हमारे बच्चों की शादी हो चुकी है, उनके भी बच्चे हो गये हैं। उनका सवाल है कि हम कहां जायें, हमारे पास तो चित्तौरगढ़ में भी कुछ नहीं है। कालीचरण के बेटे कर्मवीर ने बताया कि यहां पर वे दो भाई और मां-पिता रहते हैं। उनकी दो झुग्गियों को तोड़ दिया गया, जिसके कारण उनको60 हजार रू. का नुकसान हुआ है। कर्मवीर ने अपने आटे के टूटे हुए कनस्तर को दिखाते हुए बताया कि इसमें रखा बीस किलो आटा भी खराब हो गया। उनके बेड और बर्तन भी टूटे हुए पड़े थे। कालीचरण जन प्रतिनिधियों से बहुत निराश हैं। उनका कहना है कि कोई भी सांसद, विधायक, निगम पार्षद ने उनकी सहायता नहीं की। यहां तक कि वे लोग दिल्ली के मुख्यमंत्री से मिले। मुख्यमंत्री ने कहा कि तुम लोगों के साथ गलत हुआ है, तुम लोग जाआ,े दो घंटें में टेन्ट और पानी के टैंकर पहुंच जायेंगे। लेकिन तीन दिन बाद भी उनके पास किसी तरह की सुविधा नहीं पहुंच पाई है।
इसी तरह अपने घर के आगे सफाई कर रहे राहुल ने बताया कि उनके घर को बिना किसी सूचना के तोड़ दिया गया, जिसके कारण समानों का बहुत नुकसान हुआ है। वे अपनी पुरानी बैलगाड़ी को दिखाते हुए कहते हैं कि यह मेरे बाबा-दादा की निशानी थी जिसको वर्षों से मैंने सम्भाल कर रखा था, उसको भी तोड़ दिया गया।
दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड द्वारा यहां चलायमान दो टॉयलेट की गाड़ियां रखी गई हैं, जिसमें दोनों बस्ती के लोग जाते हैं और एक रू. प्रति व्यक्ति इसका प्रयोग करने के लिए देना पड़ता है। इस टॉयलेट के रख-रखाव करने वाले मिथलेस बताते हैं कि लोगों की संख्या के हिसाब से पर्याप्त टायलेट नहीं है, जिसके कारण यहां सुबह के समय काफी भीड़ लगती है और टॉयलेट भी गंदे होते हैं। मिथलेस ने बताया कि पहले लोग बाहर रेलवे पटरियों पर पखाना के लिए चले जाते थे, जिसके कारण भीड़ कम होती थी। लेकिन अब बाहर पखाना करने पर जुर्माना लगाते हैं, जिससे लोग बाहर नहीं जा पा रहे हैं और सुबह के समय यहां स्थिति काफी खराब हो जाती है। मिथलेस का कहना था कि पहले पर्याप्त संख्या में लोगों के लिए टायलेट उपलब्ध हो, फिर कोई बाहर जाता है तो आप जुर्माना लगाईये। लेकिन सरकार उनकी इस बात को नहीं सुनती है।
लोगों ने बताया कि उनकी बस्ती पार्किंग बनाने के लिए उजाड़ी जा रही है। कुछ लोग बता रहे थे कि बस्ती तोड़ने में एमसीडी और पीडब्ल्यूडी दोनों के कर्मचारी थे और साथ में एसडीएम और दौ सौ की संख्या में पुलिस बल भी थी।
बस्ती के लोग एक एनजीओ की मद्द से कोर्ट में केस डालाने की तैयारी में लगे हैं। सवाल है कि जनप्रतिनिधि उनकी समस्याओं का समाधान क्यों नहीं कर रहे हैं? सरकार द्वारा क्या ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’, ‘जहां झुग्गी वहां मकान’ जैसे नारे केवल लोगों को बरगलाने के लिए उछाले गए हैं। सरकार की सीटू पुनर्वास योजना का क्या यह मतलब है कि लोगों को उनकी बस्तियों को तोड़ कर भागाया जाय? क्या बिना पूर्व सूचना के झुग्गी बस्ती तोड़ना अपराध नहीं। लोगों की जीविका के साधन पर हमले करना, उनके बिजली और पानी के कनेक्शन को काट देना किस इंसानियत का परिचायक है।
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