देवेन्द्र प्रताप
दो साल पहले आई वैश्विक आर्थिक मंदी के बाद से ऐसा लगता है कि आम जनता को मंहगाई की नजर लग गई है। अभी तक फ्रांस, अल्जीरिया, ग्रीस, ब्रिटेन आदि देशों की जनता मंहगाई के खिलाफ सड़कों पर उतर कर अपने दर्द को बयां कर चुकी है। इस मामले में संयुक्त राष्ट्र से संबद्ध ‘खाद्य और कृषि संस्था’ की रिपोर्ट ने भी स्वीकार किया है कि इस समय भारत समेत समूची दुनिया में खाने-पीने की चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं। चीन, वियतनाम, श्रीलंका में तो और भी बुरा हाल है। यही हाल ब्राजील समेत ज्यादातर अफ्रीकी देशों का भी है, जहां खाद्य सामग्री की पहले से ही तंगी पर मंहगाई के तड़के ने लोगों के जीवन को नर्क बना दिया है। हालत यह है कि अल्जीरिया में अभी पिछले दिनों खाद्य सामग्री के लिए दंगे तक हुए हैं। एक समय यूरोप को सभ्यता का पाठ बनाने वाला ग्रीस इस समय भिखमंगा बना हुआ है। इस देश के ऊपर वर्तमान समय में कुल 340 अरब यूरो का कर्ज है, जबकि वहां का हर नागरिक 31 हजार यूरो के कर्ज के नीचे दबा हुआ है। यहां युवाओं में बेरोजगारी की दर 43 प्रतिशत पर पहुंच गई है। खाने-पीने की चीजों के दाम को लेकर वहां पहले से ही हाहाकार मचा हुआ है, ऊपर से सरकार 28 अरब यूरो बचाने के चक्कर में सरकारी खर्चे में कटौती और जनता के ऊपर अतिरिक्त कर लगाने जा रही है। सरकार के इस जनविरोधी कदम के खिलाफ वहां की जनता ने सड़क पर उतरकर सरकार के खिलाफ हल्ला बोल रखा है। जल्दी ही वहां के सभी मजदूर संगठन भी हड़ताल पर जाने वाले हैं, इसके बाद पूरी उम्मीद है कि ग्रीस की स्थिति और विस्फोटक हो जाएगी। पहले से ही कर्ज के बोझ तले दबे ग्रीस को इस संकट से निकलने के लिए फिर से कर्ज का सहारा लेना पड़ रहा है। उम्मीद है कि आईएमएफ और यूरोपीय संघ की ओर से ग्रीस को मिलने वाले 12 अरब यूरो के कर्ज के बाद फिलहाल वहां कुछ समय के लिए हालात सुधर सकते हैं, लेकिन उधार पर मिली यह स्थिरता कितने दिन तक रहेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता।दुनिया को स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का पहला पाठ पढ़ाने वाले फ्रांस की स्थिति भी इस वर्ष की शुरुआत के साथ ही तेजी से बिगड़ी। अभी ज्यादा वक्त नहीं बीता जब वहां के छात्रों और मजदूरों ने बेरोजगारी, कम वेतन, बेरोजगारी भत्ता, पेंशन में छेड़छाड़, रिटायरमेंट की उम्र में वृद्धि, बढ़ती हुई मंहगाई, कारखाना बंदी और मंहगाई के खिलाफ बहुत बड़ा आंदोलन किया। उनके इस आंदोलन को वहां की करीब 60 प्रतिशत जनता का समर्थन हासिल था। अंदाजा लगाया जा सकता है कि जी-7 में शामिल इस देश के आम नागरिकों किन स्थितियों में जीने को अभिशप्त हैं। यह अलग बात है कि उनकी स्थिति भारत, पाकिस्तान जैसे गरीब मुल्कों के आम लोगों से कई गुना बेहतर है। फ्रांस की हालत यह है कि वहां के राष्ट्रपति सरकोजी को विश्व बैंक से यह आग्रह करना पड़ा कि वह इस बात की जांच करे कि उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें इतने खतरनाक स्तर पर कैसे बढ़ीं। दुनिया का चौधरी बनने वाले अमेरिका में आर्थिक मंदी आई, तो वहां के प्रकांड अर्थशास्त्री तक मार्क्स की रचना ‘पूंजी’ का पाठ करते नजर आए थे। वे इतने बदहवास हो गए कि अपनी ओर से ‘रसातल में दफना दिए गए’ मार्क्स का भूत उन्हें सताने लगा। आर्थिक मंदी के बाद वहां बेरोजगारी छह प्रतिशत से बढ़कर 13 प्रतिशत पर पहुंच गई। यही हाल एक आधुनिक दुनिया के सबसे पुराने सरगना का भी है। इंग्लैंड, जिसके बारे में एक समय यह कहावत चलती थी कि ‘इसका सूरज कभी नहीं डूबता’, वहां भी हालत सही नहीं हैं। हालत यह है कि वहां की डेविड केमरून सरकार को दुनिया की दूसरी जनविरोधी सरकारों की तरह अर्थव्यवस्था की स्थिति को सुधारने के लिए जन कल्याण के खर्चों में 80 अरब पौंड से ज्यादा की कटौती करनी पड़ी। इतना ही नहीं वहां सार्वजनिक क्षेत्र के मजदूरों का वेतन देने के लिए सरकार के पास पैसे नहीं हैं। इस बहाने से उसने करीब 50 हजार कर्मचारियों की छंटनी का फरमान जारी किया हुआ है। पुर्तगाल, जर्मनी, इटली, स्पेन में भी यही हाल है। इनमें सबसे खराब स्थिति स्पेन और पुर्तगाल की है, जहां आज भी आए दिन मंहगाई के खिलाफ जनता आंदोलन करती रहती है। इन मुल्कों में हालत यह है कि वहां की सरकारें मंहगाई को रोकने के लिए छंटनी, तालाबंदी, कर्ज, जनकल्याण के खर्चों में कटौती जैसे कदम उठाकर स्थिति को और भी विस्फोटक बनाने में लगी हुई हैं। जर्मनी, ग्रीस, स्पेन, पुर्तगाल और इटली जैसे देशों में इस समय बेरोजगारी 7-14 प्रतिशत पर पहुंच गई है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक आर्थिक मंदी के बाद करीब 10 करोड़ लोगों का रोजगार छिन गया। यही लोग वैश्विक आर्थिक मंदी के बाद पैदा हुई वैश्विक मंहगाई से सबसे से प्रभावित हुए हैं।
ye baat bikul sahi hai
जवाब देंहटाएंwah bahut koob
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