सोमवार, 31 दिसंबर 2018

फरक्का की यात्राः नदी ने धारा बदली तो महाप्रलय आएगा

                     (सुरेंद्र विश्वकर्मा)|
65 वर्षिय बुजुर्ग मित्र इलियास शेख के बार - बार अनुरोध पर आखिरकार मैं इस यात्रा के पहले पड़ाव

वर्धमान पहुँच गया। खाना खाने के लिए रेलवे के भोजनालय पहुँचने पर पता चला कि कैन्टीन को किसी प्राइवेट कम्पनी को
दिया जा रहा है, इसलिये भोजनालय बन्द है और सभी कर्मचारी इस नव उदारवादी बदलाव के खिलाफ हड़ताल पर हैं।
अमूमन यात्राओं में मैं रेलवे के भोजनालय में ही खाना खाता हूँ क्योंकि खाना साफ - सुथरा, ताजा और मात्र 35 रुपये का ही होता है।
बरहाल मैं नव उदारवादी नीतियों का मारा रात 7 बजे फरक्का स्टेशन पर पहुँच गया।

मैं न तो कोई नदी - घाटी परियोजना का विशेषज्ञ हूँ न ही भौगोलिय परिवर्तनों को समझने वाला ज्ञाता लेकिन इस वर्ष साधारण सी बारिश से पटना शहर में 1 से 1.5 फिट तक पानी भर गया। लगा कि कुछ तो गड़बड़ है, क्या गंगा नदी का तल इतना ऊंचा हो गया है कि नदी पानी को खींच नहीं पा रही है? जबकि इस वर्ष गंगा नदी से सम्बंधित पहाड़ों और मैदानी इलाकों में औसत से कम वर्षा हुई थी।

नितीश कुमार सन 2017 तक फरक्का बाँध को बिहार की त्रासदी बता रहे थे तो क्या सन 2018 तक आते - आते चीफ मिनिस्टर साहब के गले का पानी सूख गया? या मोदी का सफेद हाथी वाराणसी से हल्दिया गंगा नदी में व्यापारिक जहाज चलना ज्यादा हावी हो गया है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल बोर्ड ने कैसे इस परियोजना को मंजूरी दी जो नदी के फ्लड प्लेन को ही तबाह कर दे।

शेख साहब बतातें हैं कि मई के महीने में बड़े - बड़े टीले फरक्का से साहिबगंज तक देखे जा सकते हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि नदी स्वयं बैराज को नहीं तोड़ सकती है और सरकार बन रहे सफेद हाथी के कारण इसे तोड़ेगी भी नहीं क्योकि इस परियोजना में अरबों रुपये का हेर - फेर होगा। गंगा के कैचमेंट एरिया में जिस वर्ष अत्यधिक वर्षा होगी सम्भव है कि नदी अपनी धारा ही बदल दे तो साहिबानों प्रलय नहीं महाप्रलय आएगा।

कम्युनिस्ट पार्टी जब विपक्ष में थी तो बाँध के विरोध में थी लेकिन सत्ता में आते ही इसकी वकालत करने लगी। शायद साम्यवादी सरकार से पड़ोसी देश की खुशहाली देखी नहीं गयी!
गढ्ढ़ा खोदने वाला खुद ही के बनाये गाद में दब गया है कि पूर्वी पाकिस्तान की बर्बादी के लिये बने बांध से हर साल बलिया तक भूमि कटान से खेत और घर नदी में समा रहे हैं और प्रत्येक वर्षा काल में बिहार की आधी आबादी बाढ़ जैसी विभीषिका झेलने को मजबूर है। कोलकाता बंदरगाह की सिल्ट साफ करने के लिये लायी गयी 40000 क्यूसेक पानी से कुछ नहीं होता और आज भी बंदरगाह से बालू हटाने के लिये प्रतिवर्ष 350 करोड़ रुपये खर्च किये जाते हैं। सप्ताह में केवल एक छोटा सा टूरिस्ट जहाज बड़े स्टीमर जैसा चलाते हैं, यही एकमात्र उपलब्धि कही जा सकती है वो भी यात्रियों की संख्या पर निर्भर है।

बंगलादेश की एक तिहाई आबादी गंगा के पानी पर निर्भर है। पानी की कमी से धान की खेती और मत्स्यपालन तो प्रभावित हुआ ही सुन्दरबन के अस्तित्व पर संकट आन पड़ी है। इस आर्थिक और भौगोलिक परिवर्तन से कितने लोगों का पलायन हुआ होगा, इसका कोई आँकड़ा दोनों देशों के पास नहीं है।

फरक्का में भोजन काफी सस्ता है। 10 रुपये में नास्ता (4 पूड़ी और सब्जी) और 35 - 45 रुपये में बढियां खाना एक सूखी सब्जी, साग, आलू का भुजिया, दाल, चटनी, पापड़, प्याज, रोटी या चावल, और खाना स्टील की थाली में पत्तल पर। अधिकतर लोग चावल खाना पसंद करते हैं और केवल शाकाहारी खाना मिलना असंभव है। साधारणतया लोग गंगा के पानी को बिना फिल्टर किये पीते हैं।

अगले दिन बैराज पार कर के बहाव के विपरीत दिशा में पैदल चलने लगा तो इतने बड़े - बड़े टापू दिखाई दिये कि मैं वाकई हैरान रह गया। लगभग 3 किलोमीटर पैदल चल कर नदी किनारे बसे मल्लाहों के गांव में पहुंच गया। लोग गंगा में बने टापुओं से मड़ई छाने वाला 10 फिट लम्बा सरकंडों का बोझा ला रहे थे। बदलते जमाने के साथ छावन का प्रयोग अब ईधन के रूप में किया जाता है। सरकार तटीय आबादी को 2 लीटर डीजल एक सप्ताह के लिए देती है। मैं भी एक मशीनी नाव पर सवार होकर दो किलोमीटर की यात्रा के बाद एक हरे भरे टापू पर पहुँच गया, यहाँ खेती भी की जाती है। द्वीप इतना बड़ा कि दूसरे सिरे का पता ही नहीं चलता जैसे लगा कि अलिफ लैला के जजीरे वाली रहस्यमयी दुनिया में आ गया हूँ। इसी तरह के बड़े - बड़े टापुओं को ब्रम्हपुत्र नदी में भी देखा था, जिसमें हाथी रहते हैं। यह सब फरक्का बाँध का चमत्कार है, खेतिहर जमीन और गांव सब गंगा के चपेट में, केवल मालदा जिले की 4000 एकड़ जमीन सन 2014 तक गंगा लील चुकी है।

बैराज के दूसरी तरफ का नजरा और भी शानदार था, पानी के तेज बहाव में पक्षी मछली खाने और खेलने के लिए टूटे पड़े हुए थे।

बैराज के 112 गेट में से केवल 4 गेट ही खुले हुये थे और फीडर की दिशा में सभी 11 गेट हमेशा खुले रहते हैं। यहाँ फोटो खीचना प्रतिबंधित है जो प्रमाणित करता है कि भारत जल समझौते का उल्लंघन कर रहा है।
2 किमी इस दिशा में आगे जाने पर एक धारा बायीं तरफ मुड़ गयी है जिसमें वाराणसी से आने वाले जहाज मुड़ कर कोलकाता की ओर जाते हैं। इसी धारा में फीडर के पानी को आगे मिला दिया गया है। यहाँ ढेर सारा कबाड़ स्टीमर, क्रेन इत्यादि सन 1975 से सड़ रहा है और इसकी रखवाली CISF के दो जवान करते हैं, जिनमें से एक जवान की सैलरी 54000 रुपये है।

इस एरिया में मशीनी नाव परिवहन का आसन और सस्ता साधन है। सरकारों ने यह मान लिया है कि नदी रोड को लील जायेगी इसलिये वह रोड बनाने के बारे में सोंचती ही नहीं है।
ढेर सारे लोग बड़े - बड़े ड्रम, बैंड, इत्यादि बाजों के साथ झारखंड के किसी चमत्कारी बाबा के कान फोड़ने के लिये नावों पर सवार हो रहे थे, नाव चलते ही थाली पीटना और हुलूक ध्वनि शुरू हो गई 😊। एक महिला श्रीधर से लहसुन के ढेरों बोरों के साथ आयी थीं। इन्होंने किसान से 8 - 20 रुपये / किलो के हिसाब से खरीदा था। गुवाहाटी में इस लहसुन को 50 - 70 रुपये / किलो के भाव में बेचने की कोशिश करेंगीं। पूरे देश में एक ही हालात हैं कि किसान को उसके उपज का उचित मूल्य न मिलना। क्या आपको अजीब नहीं लगता है जब बात किसानों की होनी चाहिये तो हम मन्दिर की बात करने लगते हैं?

बहरहाल शाम को इलियास जी ने पकड़ लिया और  जबरन अपने गांव ले गए। रास्ते में बहुत बड़े - बड़े आम के बाग दिख रहे थे लगता था कि मालदा में केवल आम ही पैदा होता है। बहुत दिनों बाद ढंग का खाना नसीब हुआ। अगले दिन से वापसी की यात्रा शुरू हुई।

 फरक्काबांध बना कर VIP इंजीनियर तो चले गए लेकिन आज भी सरकार इन VIP बंगलों को संभाल कर रखे हुए है, काश इसमें स्कूल - कॉलेज या हॉस्पिटल ही खोल दिए जाते।

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

नरक से बदतर जीवन जी रहे आदिवासी

                  ...(सुरेंद्र विश्वकर्मा)
यह यात्रा मुण्डा आदिवासी समाज और पथलगढ़ी आंदोलन से सम्बंधित है। खुंटी जिले में प्रवेश करते ही इतने अधिक अर्द्ध सैनिक बलों को देखकर वाकई मैं बहुत अधिक डर गया था, लेकिन अभ्यस्त होने के बाद लगा कि ये तो केवल बकरे हैं जो आम लोंगो के धन पर ही पलते हैं। चलिये अब यात्रा शुरू करते हैं।

झारखण्ड राज्य में कोई सरकारी बस नहीं चलती
झारखण्ड राज्य में कोई सरकारी बस नहीं चलती है, केवल राँची शहर में कुछ सरकारी बसें चलती हैं अन्यथा सभी बस प्राइवेट आपरेटर ही चलाते हैं।
राँची से लगभग 55 किलोमीटर की दूरी पर खुंटी जिले के कितहातु गाँव जाने वाले चौक पर लगभग 11 बजे बस और टाटा सूमों की यात्रा के बाद पहुँच गया।

 पुलिसिया आतंक का गवाह है कितहातु चौक
चौक पर एक शहीद स्मारक है जो 2016 में हुये पुलिसिया आतंक का गवाह है और यहीं पर पथलगढ़ी किया गया है। दस मीटर की दूरी पर एक 10 x 20 फुट का एक सरकारी पोस्टर पथलगढ़ी के विरोध में लगा है, लेकिन  संविधान में लिखी बातों को आप कैसे गलत साबित कर सकते हैं। इस तरह के पोस्टर पथलगढ़ी के अलावा गैर आदिवासी इलाकों में भी मिल जाते हैं।

डर और नास्ते से निपटने के बाद अब आगे की कहानी
गाड़ी से उतरते ही CRPF के अत्याधुनिक हथियारों से लैस कई जवानों के दर्शन हो गये। मैं बगल के एक झोपड़ी नुमा दुकान में प्रवेश कर गया क्योंकि थोड़ी दूर आगे थाने के कुछ सिपाही हर आने - जाने वाले से पूछताछ कर रहे थे।

जनजातीय इलाकों में खाने - पीने का सामान बहुत ही सस्ता होता है। आंटे और गुड़ का बना गुलाब जामुन जितना बड़ा गुलगुला एक रुपये का एक, इडली जैसा समान भी एक रुपये का, बड़ा सा मालपुआ जिसका स्वाद लाजवाब होता है पांच रुपये का इत्यादि। डर और नास्ते से निपटने के बाद अब आगे की कहानी।

बिरसा मुंडा के गाँव उलिहातु पहुँच गया
यहां से उलिहातु का टैम्पो दोपहर 3:30 पर जाता है।
4 किलोमीटर पैदल और 14 किलोमीटर गैस सिलेंडर ढोने वाले टैम्पो की सहायता से बिरसा मुंडा के गाँव उलिहातु पहुँच गया। रास्ते में सड़क पर ही गाँव के लोग धान सुखाते दिखाई दिये। धान मुंडारी लोगों का मुख्य फसल है। रोड काफी अच्छा बना है क्योंकि नेताओं की यह धारणा है कि बिरसा मुंडा के दर पर जाने से झारखण्ड के आदिवासी समुदाय का वोट प्राप्त हो जायेगा।

बिरसा मुंडा के पौत्र से मुलाकात
बिरसा मुंडा के 75 वर्षिय पौत्र सुखराम मुण्डा जी के
पास दो घण्टे था। इनके दो लड़कों को चतुर्थ श्रेणी की सरकारी नौकरी मिल गयी है। इस गाँव में सरकारी स्कूल के साथ ही CRPF कैम्प भी है। लगता है कि ज्ञान और आतंक दोनों साथ - साथ चलते हैं। यह गाँव मुंडाई समुदाय का सबसे विकसित गाँव माना जाता है। 2017 में अमित शाह भी यहाँ आये थे सुखराम जी और इनके पड़ोसी के यहाँ एक - एक पक्का शौचालय, सुखराम जी के यहाँ एक सोलर लैम्फ और बरांडे में रोड बनाने वाला टाइल बिछाया गया है। लेकिन शाह ने एक बड़ा बैनर लगवा कर यह दावा किया है कि सभी 136 परिवारों के लिये घर और
सोलर वाटर टंकी।
100 सोलर लैम्फ बनवा और लगवा दिया गया है साथ में और भी कई सारे दावे किये गए हैं। शौचालय के नाम पर कई गांवों के प्रत्येक घरों के बाहर एक लगभग 2 x 3 फुट का नीले रंग का ढाँचा रख दिया गया है, हगने के लिए न शीट न पाइप न ही कोई पानी का इंतजाम लेकिन स्वच्छता का प्रचार दबा के किया
स्वच्छ भारत अभियान का हाल।
गया है। शौचालय बनाने के लिए 12000 रुपये आवंटित होते हैं लेकिन ठेकेदारों ने बमुश्किल 700 - 800 रुपये खर्च किये होंगे। इस पूरे यात्रा में मुझे कहीं भी सड़क या पगडंडियों पर पखाना नहीं दिखा। सुखराम जी और गाँव वाले प्रस्तवित माइक्रो घर को मिनी घर में तब्दील करवाने की लड़ाई लड़ रहे हैं।

मात्र 25 वर्ष जीने वाले बिरसा मुंडा मूलतः मुण्डा, खड़िया, उरांव इत्यादि जनजातियों के लिए भगत सिंह की तरह एक क्रांतिकारी नायक थे, लेकिन इन्हें भी भगवा रंग में रगनें की पुरजोर कोशिश की जा रही है। उलिहातु गाँव में कहीं पथलगढ़ी नहीं दिखा लेकिन सरकार के प्रति आक्रोश बढ़ रहा है।

मारंगबरू की यात्रा में एक नौजवान पति - पत्नी गोद में बच्चा और पीठ पर झोले में सुअर का बच्चा लिये मेरे सहयात्री बन गए
उलिहातु से 10 किलोमीटर दूर तीन पहाड़ जंगल पार मुझे सेल्दा गाँव होते हुए मारंगबुरु जाना था। लगभग 3 किमी चलने के बाद पहाड़ शुरू होता है। यहीं से एक नौजवान पति - पत्नी गोद में बच्चा और पीठ पर झोले में सुअर का बच्चा लिये मेरे सहयात्री बन गए। इन लोगों ने स्थानीय बाजार में वयस्क सुअर को बेंच कर एक नवजात को लिया और बाकी पैसों से जरूरत का सामान मोल लिया था। इनकी बहुत ही इच्छा थी कि मैं इनके साथ गांव चलूँ और अगले दिन अपने राह लगूँ। वक्त की कमी के करण यह संभव नहीं था। 45 मिनट की सहयात्रा के बाद ये लोग अपने गांव की तरफ मुड़ गए और मैं सेल्दा गांव के रास्ते लगा।
बरहाल मैं पहाड़ और जंगल पार करते हुए अंधेरा होने के ठीक पहले मारंगबुरु गाँव पहुँच गया। इस गांव में पथलगढ़ी नहीं हुई है। गाँव के प्रत्येक परिवार 5 रुपये प्रतिवर्ष मालगुजारी जमा करते हैं। गांव में बिजली - पानी नहीं है, केवल एक सोलर लैम्फ इसी वर्ष लगा है। इसकी रोशनी में गांव वाले अपने पर्व की रात नाचते हैं। फसल काटने से पहले आदिवासी समाज जंगल देवता सरना (किसी भी एक पेड़ को चुन लिया जाता है) की पूजा करते हैं और रात में हड़िया (चावल का देसी शराब) पीकर सभी लोग जोरदार तरीके से नाच - गान करते हैं। प्रकृति के करीब होने के करण आदिवासी बहुत ही विनम्र होते हैं। हिंदु धर्म और इनके देवी देवताओं से इनका कोई नाता नहीं है। आदिवासी महिलाएं सिंदुर इत्यादि का प्रयोग नहीं करती हैं। गांव में एक माध्यमिक विद्यालय और चर्च भी है, गांव के 40 परिवारों में से 10 लोगों ने इसाई धर्म अपना लिया है। विद्यालय के अध्यापक खुंटी से आते हैं, इसलिये अक्सर गैरहाजिर ही रहते हैं।

 मारंगबुरू गांव में गरीबी भयानक रूप से फैली है

मारंगबुरू गांव में गरीबी भयानक रूप से फैली है, कुछ ही लोगों के पास ठंड काटने के लिए गरम कपड़े दिखे, अन्यथा सभी आग के सहारे ही ठंड से लड़ते हैं। कुछ नौजवान लोग दिल्ली, पंजाब, तमिलनाडु इत्यादि राज्यों में पिछले 4 - 5 सालों से मजदूरी करने जाने लगे हैं। पिछले पांच वर्षों में आदिवासियों के आर्थिक हालात अत्यंत दयनीय हो गये हैं, इसका मुख्य कारण लाख (मुंडारी भाषा में लाही) के दाम का 900 रुपये से गिरकर 140 -170 रुपये / किलो तक आ जाना है साथ ही रुपये का अवमूल्यन। सरकार और पूंजीपतियों के गठजोड़ से यह काम बखूबी चल रहा है। खुंटी जिले का मुंडारी समाज इस लाख को बेचकर अपने जरूरत का सामान जैसे कपड़ा, साबुन - तेल, नमक - मसाला, शादी, बच्चों की पढ़ाई, हारी - बीमारी इत्यादि का इंतजाम करते हैं।

पूरी यात्रा में दो परिवारों के पास ही दिखा टीवी और ट्रैक्टर
खेती से बचे समय में लाख को मुख्यतया कुसुम की डालियों से निकाला जाता है। आदिवासी लोग खेती में रासायनिक खाद का प्रयोग न के बराबर करते हैं। इनका मुख्य फसल धान ही है, लेकिन अरहर, उडद, आलू और सरसों की भी खेती की जाती है। खेत जोतने के लिए हल - बैल का प्रयोग किया जाता है। पूरी यात्रा में केवल दो परिवारों के पास ट्रैक्टर और टीवी दिखा।

60 किलो से ज्यादा का नहीं दिखा कोई आदिवासी
यात्रा में किसी भी आदिवासी समुदाय का वजन 60 किलो से अधिक नहीं दिखा, महिलाओं का वजन तो 45 किलो से भी कम। 60 किलो वजन से अधिक केवल तीन ही लोग दिखे जो सरकारी नौकरी करते हैं।

नाग काटने से मरी बकरी का बना मांस
मारंगबुरु में आग तापते ढेर सारे लोगों का मैं कौतुहल का विषय बन गया क्योंकि पहली बार घुमन्तु किस्म का कोई बाहरी व्यक्ति इस दुर्गम गांव में आया था, कुछ का मत था कि मैं CID से हूँ और पथलगढ़ी से संबंधित जानकारी इक्कठा करने आया हूँ। मैने पूरी कोशिश की कि बातचीत इस मुद्दे पर न हो, बरहाल मै इसमें कामयाब रहा और लोग खुलने लगे। दोपहर में बकरी को नाग ने काट लिया था और वह मर गई थी। सोलर लैम्फ की रोशनी में उसे काटा गया और जिन लोगों ने काटने में मदद किया था उनको बराबर का हिस्सा दिया गया।
नोट: पके मांस को खाने से विष असर नहीं करता है।
मुंडारी लोग गाय - बैल, सुअर, बकरी, भेड़ और मुर्गी पालते हैं और गाय को छोड़ कर सभी का मांस खाते हैं। गोबर का प्रयोग खेतों में खाद के लिए किया जाता है और लकड़ी को ईधन के रूप में इस्तेमाल करते हैं। महिलाये घर में ही धान कूटती हैं।

चावल सब्जी खाकर स्कूल में सो गया
चावल और सब्जी खाकर रात 9 बजे मैं स्कूल में आठ बच्चों के साथ सोने चल दिया। इन बच्चों में DJ के प्रति गजब का उत्साह था, सभी दरवाजा बंद करके पुरबिया रीमिक्स DJ सुन रहे थे। सुबह हाथ - मुंह धोकर मैं मारंगबुरु गांव से निकल लिया। रास्ते में  गाड़ा नदी (मुंडारी भाषा में ) के किनारे बसे कई गाँव मिले थे। चार किमी चलने के बाद गितलबेडा गांव आया, यहां शादी थी इसलिये जोरदार तरीके से DJ बज रहा था और बच्चे शाखु के दोनों में मुरमुरा खा रहे थे। इस तरफ के गाँवों में पथलगढ़ी नहीं किया गया है। थोड़ी दूर आगे अरक्की जाते एक टेम्पो से राजाबाजार यहां से फोर्स नामक गाड़ी से दलभंगा के रविवारीय एक बहुत बड़े मेले जैसे बाजार में आ गया। बाजार एक बहुत बड़े खुले मैदान में लगा था। लोग जमीन पर पॉलीथिन बिछा कर दुकानदारी में लगे थे। जनजातीय लोग लाख लेकर आ रहे थे। आज लाख का भाव 170 रुपये है कल 160 रुपये था तीन दिन पहले140 रुपये था। लोग लाख बेचकर अपने जरूरत का सामान खरीद रहे थे। हड़िया (देसी शराब) और खाने के सामानों का कोई हिसाब ही नहीं था। इस तरफ के गांवों में पथलगढ़ी की गई है।

कोचांग जैसी सड़कें नहीं देखीं
हड्डी तोड़ रोड की यात्रा पूरी करके मैं रात 7 बजे अपनी मंजिल कोचांग गांव पहुँच गया। मै बहुत घूमा हूँ लेकिन ऐसी भयानक सड़कों से कभी पाला नहीं पड़ा था। खुंटी - बन्धगाँव होते हुए भी कोचांग पहुंचा जा सकता है, लेकिन बन्धगाँव के रास्ते सवारी गाड़ी नहीं मिलती। यह रोड हाल ही में बना है।


कोचांग गांव बना पथलगढ़ी आंदोलन का केंद्र
फिलहाल कोचांग गाँव पथलगढ़ी आंदोलन का केंद्र
बन गया है। इसलिये एक CRPF कैम्प का होना भी लाजमी है जो कि यहां के सरकारी प्राइमरी स्कूल में स्थापित किया गया है और यहां के बच्चों को 4 किमी दूर किसी अन्य स्कूल में पढ़ने को कहा जा रहा है। सरकार कोचांग गांव में एक सामुदायिक भवन बनवाना चाहती है लेकिन बिना ग्राम प्रधान और ग्रामीणों की सहमति के। इसके लिए ग्राम प्रधान को गाँव से बाहर बन्दूक के नोक पर 15 नवम्बर को हस्ताक्षर लिया जाता है और उसी हस्ताक्षर के नीचे ग्रामीणों से भी दस्तखत लिया गया है धोती बँटवाकर। ग्रामीण सामुदायिक भवन के विरोध में नहीं हैं वह तो केवल अपनी सहमति से जगह, आकर और इससे जुड़ी सुविधाओं का चयन करना चाहते हैं जो कि उनका अपना संवैधानिक अधिकार है।

पथलगढ़ी से सरकार को परेशानी क्या है
इससे पहले की घटनायें और पथलगढ़ी में क्या लिखा गया जिससे सरकार पगला गयी है सुधिपाठक इंटरनेट पर देख सकते हैं। इसके लिए द वायर पर नीरज सिन्हा की रिपोर्ट पढ़ें   http://thewirehindi.com/35737/jharkhand-patthalgadi-tribal-movement-raghubar-das-government/

इससे मुंडारी समाज के आर्थिक, सामाजिक और पथलगढ़ी के बाद समाज में आ रहे बदलाव को जानने और समझने में मदद मिलेगी।

प्राथमिक चिकित्सा केंद्र में नहीं मिलते डाक्टर
कोचांग गाँव में एक चर्च और माध्यमिक मिशनरी
स्कूल भी है। शायद 600 या 900 बच्चे पढ़ते हैं, थोड़ा मैं भूल रहा हूँ लगता है कि उम्र का असर है क्या! वार्षिक फीस 300
रुपये है और फादर और सिस्टर का वेतन 3000 रुपये है।
गांव में पोस्ट ऑफिस और प्राथमिक चिकित्सा केंद्र भी है लेकिन डॉक्टर और उनका अमला शायद ही कभी आता है। पथलगढ़ी आंदोलन ने बिजली का इंतजाम कर दिया है क्योंकि CRPF के जवान तो बिना बिजली के रह ही नहीं सकते हैं। मोबाइल का नेटवर्क केवल एक पहाड़ी पर आता है और वहाँ CRPF के जवानों का कब्जा बना रहता है।


माध्यमिक के बाद 80 प्रतिशत बच्चों की गरीबी के कारण छूट जाती है पढ़ाई
माध्यमिक शिक्षा के बाद लगभग 80% बच्चे आर्थिक
कोचांग गांव का मिशनरी स्कूल।
हालात के कारण आगे पड़ना छोड़ देते हैं, जिसके कारण सामाजिक रूप से पिछड़ा हुआ वर्ग बुनियादी रूप से और भी पिछड़ जाता है। आगे की पढ़ाई के लिये सक्षम परिवार के बच्चे खुंटी के प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैं और वहीं हॉस्टल में रहते हैं। इसलिये जरूरत है कि सामुदायिक भवन बनाने की जगह स्कूल, कॉलेज और हॉस्पिटल खोलें जाएं और यह सुनिश्चित किया जाये कि वो किसी भी मायने में प्राइवेट संस्थाओं से पीछे न हों।


बादशाह किसानों का खयाल रखे तो उसे सेना की जरूरत नहीं पड़ेगी: शेख सादी
तेरहवीं शताब्दी में शेख सादी ने कहा था कि यदि बादशाह किसानों का ख्याल रखती है तो उसे फौज की जरूरत नहीं है। लगभग 75000 - 80000 रुपये प्रति माह एक CRPF जवान पे खर्च आता है, यदि सरकार वाकई कुछ करना चाहती है तो इस खर्च का केवल10% ग्रामीणों के उत्थान पर व्यय किया जाय तो तसवीर दूसरी होगी।


पथलगढ़ी आंदोलन से गिरी पुजारियों की कमाई
कोचांग में एक नौजवान पुजारी (ओझा) मिले जो पथलगढ़ी विरोधी थे क्योंकि लोगों की चेतना ने इनकी आमदनी कम कर दी है। ईसी तरह के लोग और साहूकार आंदोलन विरोधी खेमे के हैं। स्तिथि तब और बिगड़ गई जब पथलगढ़ी समर्थकों ने अपना बैंक खोलने का एलान कर दिया।

पथलगढ़ी आंदोलन और सामाजिक चेतना
पथलगढ़ी आंदोलन ने लोगों को भारतीय संविधान में लिखे Scheduled Area के ग्राम सभाई अधिकारों जैसे: विकास किस रूप में होगा, कैसे होगा और इसका मुनाफा किन लोगों में वितरित होगा इत्यादि के बारे में काफी सचेत कर दिया है।
सरकार इस चेतना के स्तर को दबाये रखना चाहती है अन्यथा इसका फैलाव माइन एरिया में हो गया तो कार्पोरेटी लूट सम्भव नहीं रहेगा। इसलिये ग्रामीणों को आये दिन डरना, किसी - किसी गांव के सभी लोगों को थाने में नामजद करना इत्यादि सभी सम्भव हथकंडे अपनाये जा रहे हैं। कुछ लोगों पर तो इतने तरह के मुकदमे दर्ज कर दिये गये हैं कि पा जायें तो सीधा इनकाउंटर कर दें। लाख की गिरती कीमतों ने आदिवासियों को संवैधानिक अधिकारों की शरण में जाने को मजबूर किया किया है जिसका परिणाम पथलगढ़ी के रूप में सामने आया है।

नोट: लेख कैसा लगा कमेंट बाक्स में जरूर लिखें साथ ही 100flowers media group का यू ट्यूब चैनल भी देखें और सब्सक्राइब करें---

धार्मिक दंगे-फसाद लाते हैं बर्बादी
https://youtu.be/kZ469_ddRJo
मानव सभ्यता की विकास यात्रा पर बच्चों की अनोखी प्रस्तुति
https://youtu.be/s7vwNHUKFyc

मंगलवार, 23 अक्टूबर 2018

जम्मू-कश्मीर के कोकून उत्पादकों के लिए केंद्र की कई योजनाएं बंद

देवेंद्र प्रताप
  • दुनिया का सबसे बेहतर कोकून पैदा करने वाले लाखों गरीब और भूमिहीन उत्पादकों की आजीविका छिन गई 
  • मोदी सरकार ने करोड़ों लोगों को रोजगार देना का वादा किया था, ऐसे में उम्मीद की जा रही थी कि हो सकता है इस क्षेत्र का कुछ उद्धार हो, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।


 सरकार की तरफ से रेशम उत्पादन से जुड़े किसानों के लिए कैटलिटिक डेवलपमेंट प्रोग्राम के तहत कई तरह की योजनाएं चलाई गई थीं, जो अब बंद कर दी गई हैं। ऐसा नहीं है कि इसे मोदी सरकार ने किया है, लेकिन यह जरूर है कि मोदी सरकार ने इन्हें फिर से चालू भी नहीं किया है। यानी कुल मिलाकर दोनों का मतलब एक ही है। इससे दुनिया का सबसे बेहतर कोकून पैदा करने वाले लाखों गरीब और भूमिहीन उत्पादकों की आजीविका छिन गई है। मोदी सरकार ने करोड़ों लोगों को रोजगार देना का वादा किया था, ऐसे में उम्मीद की जा रही थी कि हो सकता है इस क्षेत्र का कुछ उद्धार हो, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।
रीयरिंग किट योजना के तहत किसानों को प्लास्टिक ट्रे, स्टैंड और अन्य मदद दी जाती थी। यह योजना अब बंद हो गई है। इसी तरह कोकून उत्पादन के लिए 50 हजार रुपये से एक लाख रुपये में सरकार किसानों को एक कमरा बना कर देती थी। यह योजना भी बंद हो गई है। रेशम उत्पादन से जुड़ी महिलाओं के स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर केंद्र सरकार ने 2008-09 में स्वास्थ्य बीमा योजना शुरू की थी। इसकी ज्यादातर रकम सरकार ही जमा करती थी। इसमें उक्त महिला के अलावा उसके पति और दो बच्चों को शामिल किया गया था। महिला सशक्तीकरण का ढिंढोरा पीटने वाली सरकार अब योजना को भी बंद कर चुकी है। कोकून को सुखाने के लिए तकनीकी मदद भी अब सरकार नहीं देती है। रेशम उत्पादकों की मदद के लिए शुरू किया गया कैटलिटिक डेवलपमेंट प्रोग्राम ही सरकार बंद कर चुकी है।

37 में से 20 फैक्ट्रियों पर लटका ताला
सरकार की उपेक्षा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि एक-एक कर रेशम फैक्ट्रियां बंद होती रहीं, लेकिन उनको बंद होने से बचाने के लिए कोई प्रयास नहीं किए गए। एक समय रियासत भर रेशम का धागा बनाने वाली 37 फैक्टियां थीं, आज इनमें से महज 17 ही किसी तरह चल रही हैं। इसकी वजह से समाज में बेरोजगारों को मिलने पर रोजगार भी उनके हाथ से जाता रहा।

बॉयलर को पानी सप्लाई करने वाली पानी की टंकियां दिलाती हैं रेशम फैक्ट्री की याद
जम्मू में जहां पर सुपर स्पेशलिटी अस्पताल बना है, वहां कभी सेरीकल्चर विभाग की रेशम फैक्ट्री हुआ करती थी। इस फैक्ट्री में हजारों वर्कर काम करते थे, जो इससे सटी कालोनी में रहते थे, जिसका नाम ही रेशमघर कालोनी पड़ गया। अब यह फैक्ट्री तो रही नहीं, इसके अवशेष के रूप में बॉयलर को पानी सप्लाई करने के लिए उस समय बनीं तीन पानी की टंकियां अभी सेरीकल्चर विभाग के कार्यालय में हैं, जो फैक्ट्री की याद दिलाती हैं। रेशमघर कालोनी के लोगों के जेहन में अभी भी उन दिनों की याद ताजा है, जब रेशम फैक्ट्री यहां मौजूद थी।

शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2018

चिनैनी नाशरी टनल के मजदूर फिर हड़ताल पर

एक हफ्ते पहले चिनैनी नाशरी टनल के मजदूर दो माह के बकाया वेतन और अन्य सुविधाओं की मांग पर हड़ताल पर चले गये थे। 

प्रशासन ने उनकी मांगें पूरी नहीं करवाईं तो 4 सितंबर को मजदूरों ने फिर से हड़ताल शुरू कर दी। इस बार मजदूर बहुत गुस्से में हैं। उनका कहना है कि उनसे बेगार करवाया जा रहा है। इस बार वे अपना हक लेकर रहेंगे।

गौरतलब है कि यह टनल जम्मू-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है। इसे देश की सबसे लंबी सुरंग बताया गया। वे सुरंग के अंदर जीप से यात्रा किए और  कुछ चहलकदमी भी की। 

जम्मू, कश्मीर, ऊधमपुर और रामबन जिलों को जोड़ने वाली इस सुरंग से जम्मू-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग के 30 किलोमीटर लंबे खतरनाक व दुर्गम मार्ग से बचा जा सकेगा। 

मोदी चले गये, फिर पलट कर कभी नहीं जाना इसे चलाने वाले मजदूर कैसे हैं हालत यह है कि तीसरा महीना हो गया टनल में काम करने वाले मजदूरों को तनख्वाह नहीं मिली है। 

मजदूरों के बच्चे स्कूल जा सकें इसके लिए जरूरी है कि मजदूरों को सेलरी समय से मिले। इतना ही नहीं। इन मजदूरों के लिए को मेडिक्लेम भी नहीं है।

 वीकली के अलावा कोई अवकाश नहीं मिलता है। वीडियो में सुनिए चिनैनी नाशरी टनल के मजदूरों की कहानी उन्हीं की जुबानी।

मंगलवार, 2 अक्टूबर 2018

बापू की जयंती के दिन किसानों पर पुलिस ने बरसाईं लाठियां

अखिल भारतीय किसान सभा आज दिल्ली की सीमा पर अपनी मांगों के समर्थन में प्रदर्शन कर रहे किसानों पर दिल्ली और यूपी की पुलिस द्वारा बर्बर हमले की तीव्र भर्त्सना करती है।
बी के यू के नेतृत्व में किसान अपनी मांगों जैसे-कर्ज माफी, स्वामीनाथन कमीशन के अनुसार समर्थन मूल्य, पेन्शन, गन्ना का बकाया जल्द भुगतान आदि के लिए दिल्ली मे किसान घाट पहुच कर मोदी सरकार से वार्ता करना चाहते थे, पर उन्हे रोका गया, लाठी चार्ज, पानी की बौछार,अश्रु गैस आदि से बर्बर हमले किए गए|दर्जनो किसान घायल हुए है, अनेको ट्रैक्टर को पुलिस द्वारा नुकशान पहुचाया गया है|
आजादी के बाद , मोदी सरकार सबसे ज्यादा किसान विरोधी और कारपोरेट पक्षी सरकार है |गत वर्ष मंदसौर मे 6 किसानो की हत्या की गयी, किसानो की आत्महत्या जारी है, सरकार किसानो एवंआम जनता से सीर्फ झूठे वादे करती है, और राहत एवं माफी कारपोरेट्स- पुजिपतियो को देती है| अ.भा. किसान सभा गत 5 सितम्बर को मजदूरो के साथ मिलकर संसदके सामने लाखो(aiks,citu,aiawu) की संख्या मे ''मजदूर किसान संघर्ष''रैली कर मान्गो को उठाया|और अगले 28-30 नवम्बर को फिर लाखो किसान संसद की ओर अ.भा. किसान संघर्ष समन्वय समिति के बैनर मे संयुक्त मार्च करेंगे |
मोदी सरकार को किसान विरोधी और  जन विरोधी नीतियो को छोड़ना होगा अन्यथा आम जनता अगले चुनाव मे भाजपा को सत्ता की गद्दी से नीचे उतार देने के लिए मजबूर हो जायेगी |

नशे में चूर मिला सीनियर फार्मासिस्ट

चिनैनी नाशरी टनल के मजदूरों की सुनो मोदी

भारत-अमेरिका के बीच सैन्य अभ्यास

https://youtu.be/_-H4IuCZcHM
भारत और अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ तैयारी को ध्यान में रख कर युद्ध अभ्यास उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के चौबटिया, रानीखेत में चल रहा है। सैन्य अभ्यास करने के बाद कुछ मस्ती के पल बिताते हुए फौजी। बेड़ू पाके बारो मासा...और अन्य उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोकगीतों पर सैनिकों ने जम कर मस्ती की।

Joint Military exercises between India and America in Ranikhet, Almora in Uttarakhand. This exercise is based on to Counter Terrorism.

सोमवार, 1 अक्टूबर 2018

भारतीय क्षेत्र में घुस आया पाकिस्तानी सेना का हेलीकाप्टर

https://youtu.be/kIuT_py2IvM
एक तरफ हमारे 56 इंच का सीना रखने वाले हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय सेना की सर्जिकल स्ट्राइक को आने वाले चुनावों में कैश कराने में जुटे हैं और इसके लिए कल ही पूरे देश में उन्होंने पराक्रम दिवस भी मनवाया, वहीं सर्जिकल स्ट्राइक के दूसरे ही दिन पाकिस्तानी सेना का एक हेलीकाप्टर भारतीय क्षेत्र में करीब दो किलोमीटर अंदर तक घुस आया। पुंछ के नियंत्रण रेखा पर स्थित करमाड़ा सेक्टर में आया यह हेलीकाप्टर डेढ़ किलोमीटर अंदर आने के बाद आराम से करीब पांच किलोमीटर लंबी दूरी तय कर माल्टी सेक्टर की तरफ भी गया। उसके इस रूट पर भारतीय सेना की तीन चौकियां भी पड़ीं। जैसे ही सेना के जवानों ने पाकिस्तानी सेना का हेलीकाप्टर देखा, तो तुरंग उधमपुर में वायुसेना के हेडक्वार्टर फोन कर दिया गया। इसके बाद वहां से वायुसेना के जहाज पुंछ पहुंच गए। इस बीच भारतीय सेना के जवानों ने हेलीकाप्टर को निशाना बनाकर गोलाबारी भी शुरू कर दी। हालांकि बहुत नीचे उड़ने के बाद भी पाकिस्तानी सेना का हेलीकाप्टर आसानी से वापस अपने क्षेत्र में लौट गया। 

बुधवार, 26 सितंबर 2018

बार्डर रोड संगठन के खिलाफ बार्डर के मजदूर सड़क पर

देश के सीमावर्ती इलाके मेंत्रबार्डर रोड आर्गेनाइजेशन के खिलाफ रैली निकालते बार्डर के मजदूर।
बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन (बीआरओ) का मुख्य काम है डिफेंस के लिए रोड का निर्माण करना। सरक्षा बलों के लिए बार्डर के इलाकों के हजारों मजदूर सड़क बनाते हैं। हो सकता है भाजपा इसके लिए अपने तथाकथित राष्ट्रवाद के नाम पर मजदूरों की पीठ भी थपथपाना चाहे,  लेकिन शायद ही वह ऐसा करे, क्योंकि इससे उसकी अंगुलियां जल जाएंगी। वजह यह है कि इन मजदूरों में सत्ता के साथ ही उसके चाटुकार मजदूरों में जबरदस्त गुस्सा है। बीआरओ इन सड़क बनाने वाले मजदूरों का भयंकर शोषण करता है। इसके खिलाफ अब मजदूर संगठित होने लगे हैं।
हजारों की तादाद में कैजुअल पेड लेबर ( सीपीएल) के लिए समय-समय पर भारत सरकार द्वारा कई ऑर्डर निकाले गए। जैसे- 26 जुलाई 1979, 10 दिसंबर 1993 और 30 दिसंबर 1911। इन आदेशों के जरिए बीआरओ के सीपीएल मजदूरों के लिए पेंशन, राशन आदि योजनाओं का लाभ सुनिश्चित किया गया। लेकिन, बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन द्वारा मजदूरों को न तो समय पर वेतन, न सप्ताहिक छुट्टी दी जाती है। इनके लिए  कोई सामाजिक सुरक्षा की गारंटी नहीं है। काम करते वक्त कोई सुरक्षा उपकरण नहीं दिया जाता है। बजट में जो भी सहूलियतें मजदूरों के लिए आती हैं, उनमें से 5 परसेंट भी सीपीएल मजदूरों को नहीं मिलती है। भ्रष्टाचार के चलते बीआरओ के द्वारा मजदूरों के श्रम कानून को पैरों तले रोंदा जा रहा है। ये मजदूर अपनी जिंदगी के 5 से लेकर 40 साल बीआरओ को देते हैं ताकि वह देश के निर्माण के लिए, दुश्मन को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए सड़कें बना सके, लेकिन जब ये मजदूर शरीर से कमजोर होकर काम छोड़ देते हैं, तो इनको कोई पैंशन भी नहीं मिलती है। इपीएफ, ईएसआई जैसी सुविधाओं से यह मजदूर वंचित हैं। यूनियन का यह मानना है इन मजदूरों का जिस कदर विभाग के द्वारा शोषण किया जा रहा है उसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। अब ये मजदूर संगठित होने लगे हैं। खास बात यह है कि इन मजदूरों ने एलान किया है कि वे किसी भी क्षेत्र के श्रमिक के साथ बिरादराना एकता बना कर उनके संघर्षों में भी शिरकत करेंगे।  मजदूरों के इन अधिकारों की लड़ाई को यूनियन केंद्रीय स्तर पर लड़ने का निर्णय लिया गया है और इस आंदोलन को और तेज किया जाएगा।

इस रिपोर्ट की वीडियो भी देखें-

https://youtu.be/ECIFROVkdmc
https://youtu.be/3e0hqLBbbp4

बुधवार, 19 सितंबर 2018

मेरा साथी, मित्र और नेता भगत सिंह: शिव वर्मा

एक दिन प्रात: जब मैं कमरे में बैठा कालेज का काम पूरा कर रहा था तो सुना बाहर पड़ोसी से कोई मेरा पता पूछ रहा है। अपना नाम सुनकर मैं बाहर निकल आया, देखा मैला शलवार-कमीज पहने कम्बल ओढ़े एक सिख नौजवान सामने खड़ा है- लंबा कद, खूब गोरा रंग, छोटी-छोटी आंखें, चुभती हुई पैंनी निगाह, खूबसूरत चेहरे पर हल्की-हल्की छोटी-सी दाढ़ी, केश और पगड़ी। ''यह रहे शिव वर्मा'' मुझे देखकर पड़ोसी ने कहा।
 आगंतुक दोनों हाथ फैलाकर मेरे ऐसे लिपट गया मानो कोई बहुत पुराना दोस्त हो। फिर मेरा हाथ खींचते हुए उसने कमरे में ऐसे प्रवेश किया जैसे कमरा मेरा नहीं उसी का था। छोटे कमरे में जगह की तंगी के कारण मैंने चारपाई निकाल कर जमीन पर ही बिस्तर लगा रखा था। उसने बगैर किसी तकल्लुफ के निस्संकोच जाकर बिस्तर पर आसन लगा दिया और मेरा हाथ खींच कर पास बिठलाते हुए बोला, ''मेरा नाम रंजीत है। मैं दो-चार दिन यहीं रहूंगा। दिल्ली के तुम्हारे दोस्त से मैं तुम्हारे और जयदेव के बारे में सुन चुका हूं। मैं भी तुम्हारी ही डगर का राहगीर हूं।'' फिर कुछ सोचकर पूछा, ''विजय और सुरेंद्र पांडे को जानते हो?''
 रंजीत के सहज व्यवहार, निष्कपट हंसी और मुस्कुराती हुई आंखों ने पहली ही मुलाकात में मेरे सब हथियार छीन लिए थे और अब मेरे लिए उस पर अविश्वास करना असंभव था। रोक-थाम के मेरे सारे बांध टूट गए और मैंने भी उसी सहज भाव से कह दिया ''हां, जानता हूं''।                                                                 
 ''तो इन दोनों को कहला दो कि आज रात यहीं आकर मुझ से मिल लें,'' उसने कहा। फिर कुछ रुक कर पूछा, ''जयदेव कहां है?''
 इस बार मैं झूठ बोल गया। साहस बटोर कर कह दिया, ''कहीं बाहर गया है, यहां नहीं है।''
मैं बात टाल गया हूं इसे रंजीत ने भांप लिया। इस विचार ने कि मैं अभी तक उस पर विश्वास नहीं कर पाया हूं, कुछ देर के लिए उसे उदास-सा कर दिया। वह अपने साथ विक्टर ह्यूगो का सुप्रसिध्द उपन्यास ला मिजरेबुल लाया था। उसने चुपचाप उसे पढ़ना आरंभ कर दिया-मानो किसी ने उसकी हंसी, उसकी बातचीत, उसके बेतकल्लुफाना व्यवहार आदि पर अचानक ब्रेक लगा दिया हो।
 मैं झूठ बोल तो गया पर दिल में बात खटकती-सी रही। भगत सिंह की उदासी के सामने मेरे लिए कमरे में ठहरना कठिन हो गया और विजय को खबर भेजवाने के बहाने मैं कालेज चला गया। सुरेंद्र जीत का पैगाम दिया तो उन्होंने बतलाया कि वह पार्टी का पुराना आदमी है।
 कालेज से वापस आते-आते दोपहर के खाने का समय हो गया था। जयदेव और मैं प्राय: मेस में खाना खाने एक ही साथ जाते थे। रंजीत के लिए कमरे में खाना मंगवाने के बजाय मैं उसे भी साथ लेता गया। मेस में उस समय हम तीन ही खाने वाले थे। रंजीत बीच में जयदेव के पास ही बैठा था लेकिन मेस का कोई अन्य सदस्य समझ कर उसने उधर ध्यान नहीं दिया। फिर जब जयदेव ने चुपचाप उसकी दाल में कस कर गरम घी छोड़ दिया तो उसने पहले जयदेव की ओर देखा फिर प्रश्न भरी निगाह से मेरी ओर देखने लगा। उसकी उलझन पर हम दोनों को हंसी आ गयी। उसके मुंह से निकल गया ''जयदेव?'' हम लोग और जोर से हंस पड़े। रंजीत ने मेरी पीठ पर जोर का घूंसा जमाते हुए कहा ''चोर कहीं के।'' फिर व्यंग्य कसते हुए बोला ''लगता है अपनों को बहुत सहेज कर रखने की आदत है''।
 ''फिलहाल तो तुम्हारी घूसे की चोट ने अपना-पराया सब बराबर कर दिया है,'' मैंने कहा।
उसने बांया हाथ मेरी पीठ पर फेरते हुए कहा,''लो पीठ सहलाये देता हूं, अब चुप-चाप खा लो।''
 रंजीत मेरे कमरे में जितने दिन रहा प्राय: रोज ही विजय और सुरेंद्र पांडे आते रहे। वह काकोरी के अभियुक्त पंडित रामप्रसाद बिस्मिल को जेल से छुड़ाने की योजना पर विचार विमर्श करने आया था। तीन-चार दिन रहने के बाद बिस्मिल से सम्पर्क स्थापित कर योजना पक्की कर रखने का भार विजय पर छोड़ वह पंजाब वापस चला गया।
 रंजीत के चले जाने के बाद मुझे पता चला कि उसका असली नाम भगत सिंह है और वह पहले भी कानपुर में श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के पास 'प्रताप' में काम कर चुका है। कानपुर में 'प्रताप' में काम शुरू करने से पहले कुछ दिन उसने अखबार बेचकर भी निर्वाह किया था। यह भी पता चला कि बिस्मिल को जेल से छुड़ाने का एक प्रयास पहले भी हो चुका था जिसे किन्हीं कारणों वश बीच में ही छोड़ देना पड़ा था। उसमें भाग लेने के लिए भगत सिंह और सुखदेव के साथ पंजाब के कई और साथी भी आए थे। उसी दिशा में अब यह उसका दूसरा प्रयास था।
 लगभग दो महीने बाद भगत सिंह फिर वापस आया। इस बार वह काफी दिन ठहरा। रामप्रसाद बिस्मिल के साथ विजय का संपर्क पहले तो खूब अच्छा रहा। बिस्मिल ने योजना की स्वीकृति भी दे दी थी, लेकिन दिन और समय अभी निश्चित नहीं हो पाया था। उधर केस के फैसले का दिन नजदीक आता जा रहा था। इसी बीच कुछ ऐसा हुआ कि बिल्मिल से पत्र व्यवहार और मुलाकातें आदि एकदम बंद हो गईं और उन पर सख्त पहरा लगा दिया गया।  यह सब क्यों और कैसे हुआ यह तो नहीं जानता लेकिन इससे योजना को गहरा धक्का लगा। फिर भी विजय ने अपना प्रयास जारी रखा।
 भगत सिंह मेरे कमरे में अधिकतर अपना समय पढ़ने में व्यतीत करता था। विक्टर ह्यूगो, हालकेन, टालस्टाय, दॉस्तोयवस्की, गोर्की, बर्नार्ड शॉ, डिकेंस आदि उसके प्रिय लेखक थे। पढ़ने से जब उसकी तबियत ऊबती तो वह छात्रावास के पीछे गंगा के किनारे जाकर बैठ जाता, या जब मुझे और जयदेव को कालेज से फुरसत होती तो हम लोगों से गप्प करता। उसकी बातचीत का विषय अधिकतर उसकी पढी हुई पुस्तकें होतीं। वह उनके बारे में बतलाता और फिर जोर देता कि हम भी उन्हें पढ़ें। कभी-कभी पुराने क्रांतिकारियों की कहानियां भी सुनाता-कूका विद्रोह, गदर पार्टी का इतिहास, कर्तार सिंह, सूफी अम्बाप्रसाद आदि की जीवनियां तथा बबर-अकालियों की बहादुरी की कहानियां बतलाते-बतलाते वह प्राय: ही भावुक हो उठता। उसकी वर्णन शैली में एक अजीब आकर्षण था जिससे खिंच कर प्राय: रोज ही हम दोनों घंटों पहले कालेज से भाग आते थे।
 जयदेव आरंभ से ही मुझ से तगड़ा था। जोखिम से भिड़ने की उसकी आदत थी और मारपीट में उसका हाथ हमेशा से खुला था। उसके इन्हीं सब गुणों से प्रभावित होकर भगत सिंह ने उसे बिस्मिल वाले ऐक्शन में ले जाने का फैसला कर लिया। एक दिन दोपहर के समय जब उसने अपना उक्त निर्णय मुझसे बतलाया तो मुझे अपने दुबले-पतले शरीर पर बड़ी झुंझलाहट महसूस हुई। मैं पार्टी के काम के योग्य नहीं समझा गया इस विचार से मुझे गहरा आघात लगा और कुछ देर बैठे रहने के बाद नींद का बहाना लेकर मैं एक तरफ लेट गया। भगत सिंह जानता था कि मैं सो नहीं रहा हूं। वह कुछ देर तक पास पड़ी एक पुस्तक के पन्ने उलटता रहा, फिर मेरा कंधा हिलाते हुए उसने धीरे से पुकारा ''शिव''।
 ''क्या है?'' उसकी ओर करवट बदलते हुए मैंने कहा।
 ''एक बात पूंछू?''
 ''कहो।''
 ''व्यक्ति का नाम बड़ा है या पार्टी का काम?''
 ''पार्टी का काम,'' मैंने उत्तार दिया।
 ''और पार्टी का काम अविराम गति से चलता रहे, हमारे, 'ऐक्शन्स' सफल होते रहें, हमारी बात देशवासियों तक नियमित रूप से पहुंचती रहे, आज़ादी की अपनी इस लड़ाई में हर मंजिल पर हम कामयाब होते रहें, इसके लिए पहली शर्त क्या है?''
 ''एक मजबूत और व्यापक संगठन,'' मैंने उत्तर दिया।''संगठन और प्रचार'' उसने कहा। ''देश की जनता हमारे साहस और हमारे कामों की सराहना करती है लेकिन हमसे अपना सीधा संपर्क जोड़ पाने में वह असमर्थ है।अभी तक हमने खुले शब्दों में उसे यह भी नहीं बतलाया कि जिस आजादी की हम बात करते हैं उसकी रूप-रेखा क्या होगी, अंग्रेजों के चले जाने के बाद जो सरकार बनेगी वह कैसी होगी और किसकी होगी। अपने आंदोलन को जनाधार देने के लिए हमें अपना ध्येय जनता के बीच ले जाना होगा, क्योंकि जनता का समर्थन प्राप्त किए बगैर हम अब पुराने ढंग से इक्के-दुक्के अंग्रेज अधिकारियों को या सरकारी मुखबिरों को मार कर नहीं चल सकते। हम अभी तक संगठन तथा प्रचार की ओर से उदासीन रह कर प्राय: ऐक्शन पर ही जोर देते आए हैं। काम का यह तरीका हमें छोड़ना पड़ेगा। मैं तुम्हें और विजय को संगठन तथा प्रचार के कामों के लिए पीछे छोड़ना चाहता हूं। कुछ देर चुप रह कर उसने कहा, ''हम सब लोग सिपाही हैं। और सिपाही का सबसे अधिक मोह होता है रणक्षेत्रा से। इसीलिए 'ऐक्शन' पर चलने की बात उठते ही सब लोग उछल पड़ते हैं। फिर भी आंदोलन का ध्यान रखकर किसी न किसी को तो 'ऐक्शन' का यह मोह छोड़ना ही पड़ेगा। यह सही है कि आमतौर पर शहादत का सेहरा 'ऐक्शनन्स' में जूझने वालों या फांसी पर झूल जाने वालों के सर पर ही बंधता है, लेकिन इसके बावजूद उनकी स्थिति इमारत के मुख्य द्वार पर जड़े उस हीरे के समान ही रहती है जिसका मूल्य जहां तक इमारत का सवाल है, नींव के नीचे दबे एक साधारण पत्थर के मुकाबिले कुछ भी नहीं होता।''
 मैं लेटे-लेटे भगत सिंह की बातें सुनता रहा। वह मेरे सर के पास दीवार का सहारा लिए बैठा था और ऐसे बात कर रहा था मानो जोर-जोर से सोचने का प्रयास कर रहा हो। बीच-बीच में उसके दाहिने हाथ की उंगलियां मेरे सर के बालों में घूम जातीं और वह फिर धीरे-धीरे रुक-रुक कर उसी लहजे में बोलना शुरू कर देता:
 ''हीरे इमारत की खूबसूरती बढ़ा सकते हैं, देखने वालों को चकाचौंध कर सकते हैं, लेकिन इमारत की बुनियाद नहीं बन सकते, उसे लंबी उम्र नहीं दे सकते, सदियों तक अपने मजबूत कंधों पर उसके बोझ को उठा कर उसे सीधा खड़ा नहीं रख सकते। अभी तक हमारे आंदोलन ने हीरे कमाए हैं, बुनियाद के पत्थर नहीं बटोरे। इसीलिए इतनी कुर्बानी देने के बाद भी हम अभी तक इमारत क्या उसका ढांचा भी खड़ा नहीं कर पाए। आज हमें बुनियाद के पत्थराें की जरूरत है।'' फिर कुछ रुककर बोला, ''और त्याग तथा कुर्बानी के भी दो रूप हैं। एक है गोली खाकर या फांसी पर लटक कर मरना। इसमें चमक अधिक है लेकिन तकलीफ कम। दूसरा है पीछे रहकर सारी जिंदगी इमारत का बोझ ढोते फिरना। आंदोलन के चढ़ाव उतार के बीच प्रतिकूल वातावरण में कभी ऐसे भी क्षण आते हैं जब एक एक कर सभी हमराही छूट जाते हैं। उस समय मनुष्य सांत्वना के दो शब्दों के लिए भी तरस उठता है। ऐसे क्षणों में भी विचलित न होकर जो लोग अपनी राह नहीं छोड़ते, इमारत के बोझ से जिनके पैर नहीं लड़खड़ाते, कंधे नहीं झुकते, जो तिल-तिलकर अपने आपको इसलिए गलाते रहते हैं, इसलिए जलाते रहते हैं कि दिए की जोत मध्दिम न पड़ जाए, सुनसान डगर पर अंधेरा न छा जाए, ऐसे लोगों की कुर्बानीऔर त्याग पहले वालों के मुकाबिले क्या अधिक नहीं हैं?''


दो-तीन दिन बाद विजय ने आकर जेल में बिस्मिल पर होने वाली सख्ती और    अधिकारियों की सतर्कता का समाचार दिया और बतलाया कि फिलहाल उन्हें छुड़ाने के अपने मंसूबे हमें त्यागने पड़ेंगे। इस समाचार ने भगत सिंह की सारी योजनाएं चौपट कर दीं, उसके सारे ख्वाब तोड़ दिए। बहुत कुछ कोशिशों के बाद बिस्मिल की लिखी एक गज़ल ही विजय के हाथ लग पायी थी। वह गज़ल हमारी योजनाओं को कार्यान्वित होने में देरी होते देख उन्होंने शायद उलाहने के तौर पर लिखी थी; जिसे अधिकारियों ने संभवत: प्रेम की एक साधारण कविता समझ कर पास कर दिया था। इस समय गज़ल की कुछ ही पंक्तियां मुझे याद हैं जो इस प्रकार थीं:
 मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या,
 दिल  की बरबादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या!
 मिट  गई  जब  सब  उमीदें  मिट  गए  सारे खयाल,
 उस  घड़ी  गर नामावार  लेकर  पयाम आया तो क्या! ऐ  दिले  नादान  मिट जा  अब  तू  कूये   यार   में,
               फिर  मेरी  नाकामियों  के  बाद  काम आया तो क्या!        काश   अपनी   जिंदगी में  हम  वो  मंजर  देखते, बरसरेतुरबत  कोई  महशरखराम आया तो  क्या! आखिरी शव  दीद के  क़ाबिल थी बिस्मिल की तड़प, सुबेहदम  कोई अगर बालायेबाम  आया तो  क्या!
 भगत सिंह ने विजय के हाथ से लेकर पर्चा पढ़ा। बिस्मिल का इशारा साफ था-कुछ करना है तो जल्दी करो, बाद में रस्से से लटकती मेरी लाश को तुमने अगर छुड़ा भी लिया तो वह तुम्हारे किस काम आएगी। कागज का वह टुकड़ा उसके हाथ से छूट कर जमीन पर गिर पड़ा और वह माथे पर हाथ रख कर पत्थर की निर्जीव मूर्ति की भांति दीवार के सहारे लुढ़क गया। अब और अधिक बातचीत उस दिन किसी के लिए भी संभव न थी। विजय और सुरेंद्र चले गए और भगत सिंह बगैर कुछ बोले चुप-चाप उठ कर गंगा की ओर चला गया।
 काफी रात बीत जाने पर जब मैं और जयदेव उसकी तलाश में गंगा के किनारे पहुंचे तो उस समय भी वह माथे पर हाथ रक्खे ठंडी रेत पर उसी तरह पत्थर की मूर्ति बना बैठा था। हमने पास जाकर उसके कंधे पर हाथ रक्खा और कमरे में चलने के लिए कहा। वह उठा और परछाई की भांति हमारे पीछे हो लिया, बोला फिर भी नहीं।
 कई महीने के परिश्रम से उसने जहां कुछ भी न था वहां संगठन का एक ढांचा खड़ा किया, योजना बनाई, हथियार जमा किए, साथी जुटाए और जब मंजिल नजदीक आने लगी और उसे लगा कि वह कुछ कर सकने में समर्थ हो सकेगा तो अचानक सब कुछ उलट गया-रह गया था केवल बिस्मिल का उलाहना। भगत सिंह को इससे गहरा आघात लगा, लेकिन एक ही दिन में उसने अपने ऊपर काबू पा लिया।
 दूसरे दिन वह स्वयं ही बोला, ''असफलताओं के सामने सर झुका कर बैठ जाने से तो मार्ग ही अवरुध्द हो जाएगा और तब रास्ते के रोड़े हटा कर बढ़ने के बजाय हम स्वयं ही दूसरों के लिए रोड़ा बन जायेंगे।'' उसने सब साथियों को एकत्रा कर संगठन तथा प्रचार की समस्याओं पर बातचीत की, आगे का कार्यक्रम बनाया और जल्द वापस आने का वादा कर पंजाब चला गया। यह 1927 के शुरू के दिनों की बात है।
 1926 में भगत सिंह, सुखदेव, भगवतीचरण, यशपाल आदि ने लाहौर में नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी। यह क्रांतिकारी आंदोलन का एक प्रकार का खुला मंच था जिसका काम था आम सभाओं, बयानों, पर्चों आदि के माध्यम से क्रांतिकारियों के और उनके विचारों का प्रचार करना। शोषण, दरिद्रता, असमानता आदि की संसार व्यापी समस्या पर अध्ययन एवं विचार कर वे लोग इस परिणाम पर पहुंचे थे कि भारत की पूर्ण     स्वाधीनता के लिए केवल राजनैतिक ही नहीं बल्कि आर्थिक स्वाधीनता भी आवश्यक है। मैजिक लैंटर्न द्वारा क्रांतिकारी शहीदों के चित्रों का प्रदर्शन और उसके साथ-साथ कमेंटरी के रूप में क्रांतिकारी आंदोलन के संक्षिप्त इतिहास से जनता को अवगत कराना भी उसका एक काम था। प्रचार का वह एक सशक्त माध्यम था।
 नौजवान भारत सभा की स्थापना गुप्त संगठन के कार्य का क्षेत्र तैयार करने और जनता में साम्राज्यवाद विरोधी उग्र राष्ट्रीय भावना जगाने के लिए की गयी थी। भगत सिंह और भगवतीचरण वोहरा उसके मुख्य सूत्राधार थे। भगत सिंह उसके प्रथम महामंत्राी (जनरल सेक्रेटरी) और भगवतीचरण वोहरा प्रथम प्रचारमंत्री चुने गए थे। सुखदेव,  धन्वन्तरी, यशपाल और एहसान इलाही भी सभा के प्रमुख एवं सक्रिय सदस्यों में से थे। उस समय समाजवाद की ओर रुझान रखने वाले कांग्रेस के प्राय: सभी नौजवान खिंच कर सभा में आ गए थे।
 सभा के कार्यकर्ताओं के राजनैतिक एवं सामाजिक ष्दृष्टिकोण को परिमार्जित करने और उन्हें वैज्ञानिक भौतिकवाद से परिचित कराने में 'सर्वेंट्स आफ़ पीपल्स सोसाइटी' के प्रिंसिपल छबीलदास का विशेष हाथ था। उनकी एक छोटी सी पुस्तिका 'क्या पढें' ने उस समय अध्ययन के लिए पुस्तक चुनने में हमारी काफी सहायता की थी। इनके अलावा कुछ कांग्रेसी तथा गैर कांग्रेसी नेताओं का सहयोग भी सभा को मिलता रहता था। इनमें डॉ. सत्यपाल, डॉ. किचलू, केदारनाथ सहगल और सोहन सिंह जोश के नाम उल्लेखनीय हैं।
 भगत सिंह जब भी कानपुर आता तो अन्य पुस्तकों के साथ नौजवान भारत सभा का कुछ न कुछ साहित्य अपने साथ अवश्य लाता था। राधामोहन गोकुलजी और सत्यभक्त के संपर्क ने कानपुर के हम सभी साथियों में समाजवाद की ओर रुझान पैदा कर दिया था। शचींद्रनाथ सान्याल के माध्यम से श्रीराधामोहन गोकुलजी और सत्यभक्त से भगत सिंह का संपर्क काकोरी से पहले ही स्थापित हो चुका था और यह चारों
समाजवाद तथा कम्युनिज्म पर काफी विचार विनिमय कर चुके थे। स्वर्गीय श्री गणेश शंकर विद्यार्थी के नेतृत्व में हम लोगों ने कानपुर मजदूर सभा में भी दिलचस्पी लेनी आरंभ कर दी थी। आगे चल कर भगत सिंह ने हमारे उस रुझान को बल दिया और समाजवाद का अध्ययन तथा उस पर बहस आदि करने की प्रेरणा प्रदान की।
 उसका कहना था कि अंग्रेजी दासता के विरुध्द संघर्ष तो हमारे युध्द का पहला मोर्चा है। अंतिम लड़ाई तो हमें शोषण के विरुध्द ही लड़नी पड़ेगी। चाहे वह शोषण मनुष्य द्वारा मनुष्य का हो या एक राष्ट्र द्वारा दूसरे का हो। यह लड़ाई जनता के सहयोग के बगैर नहीं लड़ी जा सकती। इसलिए हमें हर संभव उपायों से जनता के अधिक से अधिक निकट पहुंचने का प्रयास करते रहना चाहिए। नौजवान भारत सभा की स्थापना, मजदूर सभा में काम, पत्रा-पत्रिकाओं में लेख-मालाएं, मैजिक लैंटर्न का प्रयोग, पर्चे और पैम्फलेट आदि इसी प्रयास के अंग थे।
 भगत सिंह से पहले प्रचार तथा जनसंपर्क की दिशा में इतना बड़ा संगठित कदम क्रांतिकारियों ने नहीं उठाया था। यहां तक कि पकड़े जाने के बाद अदालत तक को उसने मुख्यतया अपने विचारों के प्रचार के साधन के रूप में ही इस्तेमाल किया। वह अच्छा योध्दा ही नहीं अच्छा प्रचारक भी था।
 प्रचार के दो मुख्य साधन हैं, वाणी तथा लेखनी। भगत सिंह का दोनों पर समान अधिकार था। आमने-सामने की बातचीत में होने के साथ ही वह अच्छा वक्ता भी था। नौजवानों तथा विद्यार्थियों के बीच मैजिक लैंटर्न पर उसके भाषण तो विशेष रूप से लोकप्रिय थे।
 और कलम का धनी तो वह था ही। हिंदी, उर्दू, पंजाबी और अंग्रेजी पर उसका समान अधिकार था। उन दिनों कामरेड सोहन सिंह जोश अमृतसर में 'किरती' नाम से गुरुमुखी तथा उर्दू में एक मासिक पत्रिाका निकालते थे। भगत सिंह उन में नियमित रूप से लिखता था। विभिन्न नामों से 'किरती' में क्रांतिकारी शहीदों की जो जीवनियां प्रकाशित हुई थीं उनमें से अधिकांश भगत सिंह की ही कलम की देन थीं। हिंदी में उसने अधिकतर 'प्रताप' तथा 'प्रभा' (कानपुर), 'महारथी'(दिल्ली) और 'चांद' (इलाहाबाद) में ही लिखा।
 अंग्रेजी में लिखे हुए उसके लेख, अदालती वक्तव्य, पत्रा, पर्चें, आदि उसकी सशक्त शैली के प्रमाण हैं। नौजवान भारत सभा के घोषणापत्रा का अंग्रेजी मसविदा भगवतीचरण ने भगत सिंह के साथ मिलकर 1928 में तैयार किया था। भाषा-शैली तथा देश के उस समय के राजनैतिक स्तर को देखते हुए विचारों की परिपक्वता की दृष्टि से उस घोषणापत्रा का आज भी एक ऐतिहासिक महत्व है। असेंबली में बम फेंकने के बाद पकड़े जाने पर अदालत में उसने जो बयान दिया था, वह तो उसी समय एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति का दस्तावेज बन गया था।
 उसे पढ़ने-लिखने का भी बेहद शौक था। वह जब भी कानपुर आता तो अपने साथ
दो-चार पुस्तकें अवश्य लाता। बाद में फरार जीवन में जब उसके साथ रहने का अवसर मिला तो देखा कि पिस्तौल और पुस्तक का उसका चौबीस घंटे का साथ था। मुझे ऐसा एक भी अवसर याद नहीं पड़ता जब मैंने उसके पास कोई न कोई पुस्तक न देखी हो।
 1923-24 में भगत सिंह के पिता उसका विवाह करने पर तुल गए थे। पिता की जिद से बचने के लिए वह भाग कर कानपुर चला आया। कुछ दिन दिल्ली भी रहा। यहां उसने बड़ी मुसीबतों में दिन बिताए। दिल्ली, कानपुर से जब वह लाहौर वापस गया तो उसकी पगड़ी का स्थान एक छोटे अंगौछे ने ले लिया था। उसकी कमीज उसके शरीर का साथ छोड़ गयी थी और जब उसका बंद गले का खद्दर का कोट कमीज का काम दे रहा था। कोट की आस्तीनें फट जाने पर उसने पायजामे की टांगें आस्तीन की जगह जोड ली थीं और पायजामे का स्थान उसकी चादर ने ले लिया था। जिसे वह लुंगी की तरह इस्तेमाल करने लगा था। लेकिन इस हालत में भी उसके कोट की जेब में कोई न कोई पुस्तक अवश्य रहती थी।
 भगत सिंह को सौंदर्य, संगीत तथा कला से भी बेहद प्यार था। आगरा केंद्र पर जब कभी पंजाब से सुखदेव आ जाता तो वे दोनों एक दूसरे में ऐसे खो जाते मानो और कोई हो ही नहीं। उस समय पंजाब कांग्रेस की गतिविधि, उसके नेताओं की आपसी पैंतरेबाजियां, नौजवान भारत सभा का काम, बुध्दिजीवियों का मानसिक चढ़ाव-उतार, क्रांतिकारी आंदोलन की समस्याएं, मजदूरों के संघर्ष आदि विषयों से लेकर किसने क्या पढ़ा है, पठित पुस्तकों के लेखकों की शैली और उसके विचार, नयी पिक्चर्स, अभिनेताओं की ऐक्टिंग आदि सभी बातों पर बहस होती।
 भगत सिंह से पहले क्रांतिकारियों का उद्देश्य था केवल मात्र देश की आजादी। लेकिन इस आजादी से हमारा क्या अभिप्राय है इस पर उससे पहले हमारे दिमाग साफ न थे। क्या अंग्रेज वायसराय को हटा कर उसके स्थान पर किसी भारतीय को रख देने से आजादी की समस्या का समाधान हो जाएगा? क्या समाज में आर्थिक असमानता और उस पर आधारित मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के बरकरार रहते हम सही मायने में आजादी का उपभोग कर सकेंगे? आजादी के बाद की सरकार किस की होगी और भावी समाज की रूपरेखा क्या होगी आदि प्रश्नों पर क्रांतिकारियों में काफी अस्पष्टता थी। भगत सिंह ने सबसे पहले क्रांतिकारियों के बीच इन प्रश्नों को उठाया और समाजवाद को दल के ध्येय के रूप में सामने लाकर रखा। उसका कहना था कि देश की राजनैतिक आजादी की लड़ाई लक्ष्य की ओर केवल पहला कदम है और अगर हम वहीं पर जाकर रुक गए तो हमारा अभियान अधूरा ही रह जाएगा। सामाजिक एवं आर्थिक आजादी के अभाव में राजनैतिक आजादी दरअसल थोड़े से व्यक्तियों के द्वारा बहुमत को चूसने की ही आजादी होगी। शोषण और असमानता के उन्मूलन के सिध्दांत पर गठित समाजवादी समाज और समाजवादी राजसत्ता ही सही अर्थों में राष्ट्र का चौमुखी विकास कर सकेगी। समाजवाद उस समय युग की आवाज थी। क्रांतिकारियों में भगत सिंह ने सबसे पहले उस आवाज को सुना और पहचाना। यहीं पर वह अपने दूसरे साथियों से बड़ा था।


भगत सिंह और दत्त द्वारा असेंबली भवन में फेंके गए पर्चों की पहली पंक्ति थी 'बहरों को सुनाने के लिए जोर की आवाज की जरूरत होती है।' लेकिन सरकार तो जान-बूझ कर बहरी बनी थी। असेंबली में उसका बहुमत था। ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल पास हो गया। लेकिन पब्लिक सैफ्टी बिल को पेश करने का उसका साहस नहीं हुआ। वह आर्डिनेन्स के रूप में देश के सर पर थोप दिया गया। पर्चे में फ्रेंच विप्लवी वेलां के कुछ उध्दरण देकर क्रांतिकारी दल के कार्यों का समर्थन किया गया था और कहा गया था कि जनता के प्रतिनिधि अपने निर्वाचकों के पास लौट जाए और जनता को भावी विप्लव के लिए तैयार करें।
 दिल्ली में अब मैं और जयदेव ही रह गए थे। हमने पहले से ही अलग एक कमरा ले लिया था। उन दोनों साथियों की गिरफ्तारी के साथ-साथ हम पुराना मकान छोड़ कर नए कमरे में आ गए। दिन भर के काम के बाद काफी रात गए जब हम सोये तो हम दोनों के दिल भारी थे। ऐसा लग रहा था मानो हम अभी-अभी अपने दो संबंधियों की बलि चढ़ाकर लौटे हों। एक दूसरे से बिना कुछ बोले ही हमने आखें बंद कर लीं। आंखें बंद करते ही मेरे सामने जेल का नक्शा घूमने लगा। उस समय तक मैंने जेल देखा न था, केवल उसकी दिल दहलाने वाली कहानियां ही सुनी थीं। एक रात पहले हम चारों एक साथ सोए थे। और अब उनमें से दो हमेशा के लिए हमसे छिन चुके थे। जीवन में उनसे अब हम कभी भी न मिल सकेंगे; इस विचार से मुझे रुलाई-सी आने लगी। आंसू बहाना कमजोरी है, अपने पर काबू पाने और अपने भावों को दबाने के विचार से में चुपचाप उठा और रात के सन्नाटे में सुनसान सड़क की ओर खुलती एक खिड़की के पास जाकर बैठ गया।
 जयदेव भी शायद मेरी ही तरह केवल आंख बंद किए पड़ा था। कुछ देर बाद जब उसने आंखें खोली तो देखा शिव अपने बिस्तर पर नहीं है। मुझे ढूंढ़ निकालने में उसे कठिनाई नहीं हुई। मुझे खिड़की पर चुपचाप बैठा देख वह मेरे पास आ गया। पास बैठते हुए उसने पुकारा।
 प्रकृति ने शरीर में दो ऐसे भेदिये लगा दिए हैं जो लाख छिपाने पर भी हृदय का सारा राज दूसरों से कह डालते हैं। बहुत कुछ संभालने पर भी मेरी आंखों से आंसू के दो बूंद लुढ़क ही गए। उसी समय दो और भेदिये भी अपनी कहानी कह डालने के लिए उतावले हो पड़े। जयदेव की आंखें भी नम हो गयीं। जब हमसफर बिछड़ जाते हैं तो शायद सब जगह ऐसा ही होता है। उस रात हम लोग काफ़ी देर तक खिड़की के पास चुपचाप बैठे रहे और भेदिये रुक-रुक कर अपनी-अपनी कहानियां कहते रहे।
 दल ने इन दोनों साथियों को जिस काम के लिए बलिदान किया था, उसे उन्होंने पूरे उत्तारदायित्व के साथ निबाहा। अदालत के सामने भगत सिंह और दत्ता ने दल के समाजवाद उस समय युग की आवाज थी। क्रांतिकारियों में भगत सिंह ने सबसे पहले उस आवाज को सुना और पहचाना। यहीं पर वह अपने दूसरे साथियों से बड़ा था।
 भगत सिंह और दत्ता द्वारा असेंबली भवन में फेंके गए पर्चों की पहली पंक्ति थी 'बहरों को सुनाने के लिए जोर की आवाज की जरूरत होती है।' लेकिन सरकार तो जान-बूझ कर बहरी बनी थी। असेंबली में उसका बहुमत था। ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल पास हो गया। लेकिन पब्लिक सैफ्टी बिल को पेश करने का उसका साहस नहीं हुआ। वह आर्डिनेन्स के रूप में देश के सर पर थोप दिया गया। पर्चे में फ्रेंच विप्लवी वेलां के कुछ उध्दरण देकर क्रांतिकारी दल के कार्यों का समर्थन किया गया था और कहा गया था कि जनता के प्रतिनिधि अपने निर्वाचकों के पास लौट जाए और जनता को भावी विप्लव के लिए तैयार करें।
 दिल्ली में अब मैं और जयदेव ही रह गए थे। हमने पहले से ही अलग एक कमरा ले लिया था। उन दोनों साथियों की गिरफ्तारी के साथ-साथ हम पुराना मकान छोड़ कर नए कमरे में आ गए। दिन भर के काम के बाद काफी रात गए जब हम सोये तो हम दोनों के दिल भारी थे। ऐसा लग रहा था मानो हम अभी-अभी अपने दो संबंधियों की बलि चढ़ाकर लौटे हों। एक दूसरे से बिना कुछ बोले ही हमने आखें बंद कर लीं। आंखें बंद करते ही मेरे सामने जेल का नक्शा घूमने लगा। उस समय तक मैंने जेल देखा न था, केवल उसकी दिल दहलाने वाली कहानियां ही सुनी थीं। एक रात पहले हम चारों एक साथ सोए थे। और अब उनमें से दो हमेशा के लिए हमसे छिन चुके थे। जीवन में उनसे अब हम कभी भी न मिल सकेंगे; इस विचार से मुझे रुलाई-सी आने लगी। आंसू बहाना कमजोरी है, अपने पर काबू पाने और अपने भावों को दबाने के विचार से में चुपचाप उठा और रात के सन्नाटे में सुनसान सड़क की ओर खुलती एक खिड़की के पास जाकर बैठ गया।
 जयदेव भी शायद मेरी ही तरह केवल आंख बंद किए पड़ा था। कुछ देर बाद जब उसने आंखें खोली तो देखा शिव अपने बिस्तर पर नहीं है। मुझे ढूंढ़ निकालने में उसे कठिनाई नहीं हुई। मुझे खिड़की पर चुपचाप बैठा देख वह मेरे पास आ गया। पास बैठते हुए उसने पुकारा।
 प्रकृति ने शरीर में दो ऐसे भेदिये लगा दिए हैं जो लाख छिपाने पर भी हृदय का सारा राज दूसरों से कह डालते हैं। बहुत कुछ संभालने पर भी मेरी आंखों से आंसू के दो बूंद लुढ़क ही गए। उसी समय दो और भेदिये भी अपनी कहानी कह डालने के लिए उतावले हो पड़े। जयदेव की आंखें भी नम हो गयीं। जब हमसफर बिछड़ जाते हैं तो शायद सब जगह ऐसा ही होता है। उस रात हम लोग काफ़ी देर तक खिड़की के पास चुपचाप बैठे रहे और भेदिये रुक-रुक कर अपनी-अपनी कहानियां कहते रहे।
 दल ने इन दोनों साथियों को जिस काम के लिए बलिदान किया था, उसे उन्होंने पूरे उत्तारदायित्व के साथ निबाहा। अदालत के सामने भगत सिंह और दत्ता ने दल के  आदर्श के प्रचार के साधन के रूप में इस्तेमाल करने का पक्षपाती था। साथ ही वह यह भी चाहता था कि हम लोग अदालत में तथा जेलों में राजनैतिक बंदियों के अधिकारों के लिए अनवरत सर्घष करें, सरकार, उसकी अदालत तथा उसकी नीतियों के प्रति अपने घृणा के भाव को अपने कामों द्वारा हर उपयुक्त अवसर पर प्रदर्शित करें, और अंत में यदि वक्तव्य देने का अवसर मिले तो एक राजनैतिक वक्तव्य द्वारा पूरी व्यवस्था पर गहरा प्रहार करें।
 सरदार की इन बातों का सभी साथियों ने समर्थन किया। इस योजना के अनुसार सभी अभियुक्तों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया। पहली श्रेणी उन लोगों की थी जिनका केस वकील द्वारा लड़ा जाना था। इसमें पांच साथी थे- देशराज भारती, प्रेमदत्ता, मास्टर आज्ञा राम, अजय घोष और किशोरी लाल। दूसरी श्रेणी थी शत्राु की अदालत को मान्यता न देने वालाें की। इनका काम था उपयुक्त अवसर पर अदालती अभिनय के ढकोसले पर सैध्दांतिक प्रहार करना। इन साथियों ने ट्रिब्यूनल के सामने पहले ही दिन जो बयान दिया उसके बारे में अदालत के जजों ने लिखा था कि वह ''ब्रिटिश सरकार पर हिंसात्मक राजनैतिक हमला था। चूंकि खुली अदालत में इस भाषण्ा का, जो कि राजद्रोहात्मक प्रचार के अतिरिक्त और कुछ भी न था। बहुत ही अनुचित था ...इसलिए टिब्यूनल ने उसका पढ़ा जाना रोक दिया।'' बयान के अंत में कहा गया था ''इन कारणों से हम इस हास्यास्पद अभिनय का अंग बनने से इनकार करते हैं और आगे से हम इस अदालत की कार्यवाही में किसी प्रकार का हिस्सा नहीं लेंगे।'' इनमें थे महावीर सिंह, बी.के. दत्ता, डॉ. गयाप्रसाद, कुन्दनलाल और जतींद्रनाथ सान्याल। और तीसरी श्रेणी उन लोगों की थी जो अपना केस स्वयं लड़ रहे थे। इनका काम था सरकारी गवाहों से जिरह करना, मुखबिरों तथा गवाहों के मुंह से अपनी बात कहलवाना। उनकी हर बात का उद्देश्य होता था प्रचार। इस ग्रुप के साथियों के नाम थे- भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, शिव वर्मा, जयदेव कपूर, विजय कुमार सिन्हा, कमलनाथ तिवारी और सुरेंद्रनाथ पांडे।
 अदालत के मंच को प्रचार के साधन के रूप में इस्तेमाल करने की हमारी यह योजना बहुत सफल रही।
 यह भूख-हड़ताल 63 दिन चली। भगत सिंह और दो ने तीन महीने से ऊपर पार किये। इन तीनों महीनों में भगत सिंह अपना सारा काम-लिखना, पढ़ना, नहाना, अदालत जाना, मसविदे तैयार करना, सरकार से पत्र-व्यवहार करना, अदालत में बयान देना, हंसना, गुनगुनाना-नियमित रूप से करता रहा। केस के दौरान भगत सिंह और दत्ता को लाहौर सेन्ट्रल जेल में रखा गया और शेष अभियुक्तों को बोर्स्टल जेल में। डिफेंस (सफाई) के लिए आपसी परामर्श के बहाने वे दोनों प्रत्येक रविवार के दिन बोर्स्टल जेल आ जाते थे। भगत सिंह कई बार भूख-हड़ताल के बावजूद बोर्स्टल जेल आया।
 जेल में किताबों की सुविधा थी और आरम्भ से ही पढ़ने-लिखने का वातावरण बनगया था। आपस में सैध्दांतिक एवं राजनैतिक समस्याओं पर बहस आदि भी होती थी लेकिन भगत सिंह के आ जाने पर उस सब में एक नयी जान सी आ जाती। उस दिन शायद ही कोई विषय अछूता रहता हो-सप्ताह की पढ़ी हुई पुस्तकें, माक्र्सवाद, सोवियत संघ की उन्नति, अफगानिस्तान के उलट फेर, चीन और जापान की तनातनी, लीग आफ नेशंस का निकम्मापन, मेरठ केस, भारतीय पूंजीपति वर्ग की भूमिका, कांग्रेस की गतिविधि, लाहौर-कांग्रेस में ध्येय परिवर्तन का प्रश्न आदि सभी विषयों पर चर्चा रहती।
 यों हमारे केस के प्राय: सभी साथियों को पढ़ने लिखने में अच्छी रुचि थी, लेकिन भगत सिंह इस क्षेत्रा में सबसे आगे था। उसका प्रिय विषय साम्यवाद होते हुए भी उपन्यासों में उसकी अच्छी रुचि थी, विशेषतया राजनैतिक तथा आर्थिक समस्याओं पर प्रकाश डालने वाले उपन्यास। डिकेन्स, अप्टन सिंक्लेयर, हाल केन, विक्टर ह्यूगो, गोर्की, स्टेपनियेक, आस्कर वाइल्ड, लियांनाइड एन्ड्रीव आदि उसके प्रिय लेखक थे। लियांनाइड एन्ड्रीव की सुप्रसिध्द पुस्तक 'सेवन दैट वेयर हैंग्ड' उसने अदालत में हमें पढ़ कर सुनाई। पुस्तक का एक पात्रा जिसे मौत की सजा हुई थी लगातार यही दोहराता रहता था कि 'मुझे फांसी नहीं लगनी चाहिए'। जब उसे फांसी पर लटकाने के लिए ले जाया जाने लगा तब भी वह बार बार कातर स्वर से यही चिल्लाता रहा, 'मुझे फांसी नहीं लगनी चाहिए'।
 भगत सिंह जब कहानी के इस प्रसंग पर पहुंचा तो उसकी आंखों में आंसू छलक आए। उस समय मृत्यु पर विजय पाने वाले अपने साथी को मृत्यु भय से कातर एक औपन्यासिक पात्रा की सहानुभूति में आंसू बहाते देख सब के दिल भर आए थे।
 जिन दिनोें हमारा केस चल रहा था उन दिनों प्राय हर दूसरे तीसरे दिन पुलिस वालों से या जेल अधिकारियों से झगड़ा और मारपीट चलती रहती थी। उन झगड़ों में मुझ जैसे दुबले-पतले लोग थोड़ी मार खाकर ही बच जाते थे। लात-घूंसाें और डंडों की अधिकंाश चोट बेचारे पांच छह व्यक्तियों के हिस्से में ही पड़ती थी। देखने में मोटे तगड़े उन साथियों को जैसे अधिकारियों ने इसी काम के लिए चुन सा लिया था। राजनैतिक समस्याओं पर वाद-विवाद में ही नहीं वरन् मार खाने वाले साथियों की उस लिस्ट (भगत सिंह, जयदेव कपूर, महावीर सिंह, किशोरी लाल, गयाप्रसाद आदि) में भी भगत सिंह सबसे आगे था।
अंत में फैसले का दिन भी आ गया। भगत सिंह को फांसी की सजा होगी इसके लिए हम पहले से तैयार थे। फिर भी उसे सुन कर मेरे सर में चक्कर-सा आ गया। कल तक जो अनुमान था वह अब यथार्थ बन कर सामने आ रहा था।
 सजा के बाद भी बोर्स्टल जेल से हटा कर केंद्रीय कारागार में कर दिया गया। वहां के नये और पुराने दोनाें फांसी के हाते एक दूसरे से सटे हुए थे। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु नये हाते में थे और हम लोग पुराने में। एक रात अचानक हमारी कोठरियों के ताले खुले और हम से चलने के लिए कहा गया। हमारे साथियों को फांसी देने से पहलेही सरकार हमें किसी दूसरी जगह भेज देना चाहती थी।
 जेल का बड़ा दरोगा अपने पूरे दलबल के साथ हमें लेकर फाटक की ओर चला। कुछ दूर चलकर उसने पूछा ''अपने साथियों से मिलोगे?'' उदारता के लिए धन्यवाद पा कर उसने नये हाते का फाटक खुलवाया और हमें भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की कोठरियों के सामने ले जाकर खड़ा कर दिया।
 प्रश्न सुन कर पहले तो सरदार ठहाका मार कर हंसा फिर गंभीर हो कर बोला, ''क्रांति के मार्ग पर कदम रखते समय मैंने सोचा था कि यदि मैं अपना जीवन देकर देश के कोने-कोने तक इंकलाब जिंदाबाद का नारा पहुंचा सका तो मैं समझूंगा कि मुझे अपने जीवन का मूल्य मिल गया। आज फांसी की इस कोठरी में लोहे के सीखचों के पीछे बैठ कर भी मैं करोड़ों देशवासियों के कंठाें से उठती हुई उस नारे की हुंकार सुन सकता हूं। मुझे विश्वास है कि मेरा यह नारा स्वाधीनता संग्राम की चालक शक्ति के रूप में साम्राज्यवादियों पर अंत तक प्रहार करता रहेगा।'' फिर कुछ रुक कर अपनी स्वाभाविक मुस्कराहट के बीच उसने आहिस्ते से कहा, ''और इतनी छोटी जिंदगी का इससे अधिक मूल्य हो भी क्या सकता है?''
 मैं सबसे पीछे था। विदाई लेते समय मेरी आंखाें में आंसू आ गए। मुझे रोते देखकर उसने कहा ''भावुक बनने का समय अभी नहीं आया है प्रभात। मैं तो कुछ ही दिनों में सारे झंझटों से छुटकारा पा जाऊंगा, लेकिन तुम लोगाें को लंबा सफर पार करना पड़ेगा। मुझे विश्वास है उत्तारदायित्व के भारी बोझ के बावजूद इस लंबे अभियान में तुम थकोगे नहीं, पस्त नहीं होगे और हार मान कर रास्ते में बैठ नहीं जाओगे।'' यह कहकर उसने सीखचों के अंदर से हाथ बढ़ा कर मेरा हाथ पकड़ लिया।
 जेल के दरोगा ने पास आकर आहिस्ते से कहा, ''चलिए''। सरदार से वह हमारी आखिरी मुलाकात थी।
और फिर 23 मार्च, 1931 की संध्या समय सरकार ने उनसे सांस लेने का अधिकार छीन कर अपनी प्रतिहिंसा की प्यास भी बुझा ली। अन्याय और शोषण के विरुध्द विद्रोह करने वाले तीन और तरुणों की जिंदगियां जल्लाद के फंदे ने समाप्त कर दीं।
 फांसी के तख्ते पर चढ़ते हुए भगत सिंह ने एक अंग्रेज मजिस्ट्रेट को संबोधित करते हुए कहा, ''मजिस्ट्रेट महोदय, आप वास्तव में बड़े भाग्यशाली हैं, क्योंकि आप को यह देखने का अवसर प्राप्त हो रहा है कि एक भारतीय क्रांतिकारी अपने महान आदर्श के लिए किस प्रकार हंसते-हंसते मृत्यु का आलिंगन करता है।''
 फांसी से कुछ पहले भाई के नाम अंतिम पत्रा में उसने लिखा था, ''मेरे जीवन का अवसान समीप है। प्रात: कालीन प्रदीप के प्रकाश के समान टिम-टिमाता हुआ मेरा जीवन प्रदीप भोर के प्रकाश में विलीन हो जायेगा। हमारा आदर्श, हमारे विचार बिजली के कौंध के समान सारे संसार में जागृति पैदा कर देंगे। फिर यदि यह मुट्ठी भर राखविनष्ट भी हो जाए तो संसार का इससे क्या बनता बिगड़ता है!''
 जैसे-जैसे भगत सिंह के जीवन का अवसान समीप आता गया, देश तथा मेहनतकश जनता के उज्ज्वल भविष्य में उसकी आस्था गहरी होती गयी। मृत्यु से पहले सरकार के नाम लिखे एक पत्रा में उसने कहा था, ''अति शाीघ्र ही अंतिम संघर्ष के आरंभ की दुंदुभी बजेगी। उसका परिणाम निर्णायक होगा। साम्राज्यवाद और पूंजीवाद अपनी अंतिम घडियां गिन रहे हैं। हमने उसके विरुध्द युध्द में भाग लिया था। और उसके लिए हमें गर्व है।''
 एक महान एवं पवित्रा आर्दश के प्रति अडिग विश्वास ही किसी देश के नवयुवकों को जल्लाद के सामने भी मुस्कराता हुआ खड़ा रख सकता है। भगत सिंह और उसके दोनों साथियों का अपने आदर्श की अंतिम विजय में कितना विश्वास था, वह उनके उपरोक्त शब्दों से स्पष्ट है। और यह विश्वास ही उनके अमरत्व का राज था।
 जिस समय भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दी गई उस समय मैं    आंध्र प्रदेश (उस समय मद्रास प्रांत के अंतर्गत) की राजमहेंद्री जेल में था। मुझे ऐसा लगा कि हम शायद बिछड़ने के लिए ही मिले थे। यतीन्द्रदास, भगवतीचरण और आजाद तो जा ही चुके थे, अब जल्लाद ने मेरे तीन और साथी मुझसे छीन लिए।
 मेरे हमजोलियों की कतार से अलग होकर वे शहीदों में जा मिले। तब से उन पर सारे देश का अधिकार है। उनके नामों के जै-जैकार के बीच जब भी कभी उनके चित्राों पर फूल चढ़ते देखता हूं। या किसी अजनबी को उन पर रचे सैकड़ों गीतों में से किसी एक गीत की पंक्तियां गुनगुनाने सुनता हूं तो गर्व से मस्तक उंचा हो जाता है। फिर भी हमराहियों के बिछुड़ जाने से जीवन में जो एक अभाव सा पैदा हो जाता है, उससे कुछ तकलीफ तो होती ही है। और पुरानी स्मृतियां जब कभी मन को कुरेद देती हैं तो वह कविवर आलम के शब्दों में कह उठता हैं! ''नैनन में जे सदा रहते तिनकी अब कान कहानी सुनो करै'' और तब अंतर के स्वर अधीर होकर पूछने लगते हैं :
           वे सूरतें इलाही किस देश बसतियां हैं?

भगवान के घर में भी हो रही वर्कर्स की छंटनी

               ....    .....(देवेंद्र).......
पूंजीवाद सिर्फ कारखानों में ही छंटनी नहीं करवाता है, वरन मंदिरों में सेवादारों/वर्कर्स की संख्या में कटौती करवाता है, ताकि लागत कम की जा सके। आपको यह सुनकर आश्चर्य भले लगे, लेकिन थोड़ी देर के लिए अपनी आस्था को किनारे कर विवेक के दरवाजे खोल कर किसी बड़े मंदिर में पहुंच जाइए, आपको खुद सच्चाई नजर आ जाएगी। पहले मंदिर में आरती के समय मोहल्ले के लोग भजन-कीर्तन और घंटा घड़ियाल बजाने पहुंच जाते थे। तब पूंजीवाद इतना विकसित नहीं था। समाज में भी लोगों के पास समय था। इसलिए लोग मंदिर में पहुंच जाते थे। इतना ही नहीं तब त्योहारों में भी लोग खूब शिरकत करते थे। लेकिन, तब समाज पिछड़ा था। जाति-पांति, महिला पुरुष में भेदभाव भी ज्यादा था। बहरहाल, पूंजीवाद और विकसित हुआ तो उसने लोगों का काफी समय अपने लिए लेकर उन्हें अपना गुलाम बना लिया। समाज में अलगाव बढ़ा। अपनी संस्कृति से लोग कटे। सरकारी संस्थाओं को पूंजीपतियों को बेचा जाने लगा। कारखानों में छंटनी होने लगी। अब तो हमारे यहां का पूंजीपति योरोप अमेरिका के पूंजीपतियों को टक्कर दे रहा है। इसलिए हर जगह पूंजीपति कम से कम वर्कर्स से काम चला रहा है।
अब, मंदिरों में सुबह- शाम की आरती में पहुंचने के लिए  मोहल्ले के लोगों के पास समय नहीं होता है। मंदिरों में भी पैसे की भूख बढ़ी। इसलिए मंदिरों में पहले जो कर्मचारी भी रखे थे गये थे, उनकी भी छंटनी की जाने लगी। इन सबके बीच देश के ज्यादातर बड़े मंदिरों में घंटा आदि बजाने का काम धीरे-धीरे मशीनें करने लगीं। मंदिरों के शहर कहे जाने वाले जम्मू के ज्यादातर मंदिरों में मशीन ही घंटा, घड़ियाल आदि बजाती है। दूर से आरती के समय मंदिर से आती मधुर आवाज सुन कर कोई अंदाजा नहीं लगा सकता है कि यह काम मशीन कर रही है। वीडियो में जो मशीन आरती करवा रही है, वह जम्मू के कृष्णा नगर इलाक में रविदास मंदिर के बगल में स्थित भगवान शंकर के मंदिर की है। कभी इस मंदिर में भी भक्तों की भीड़ जुटती थी, लेकिन अब यहां भूले भटके ही भक्त आते हैं। लेकिन, मशीन की बदौलत आरती सुबह-शाम दोनों समय होती है। इसका कुछ न कुछ पुण्य मशीन को भी तो मिलेगा ही। या नहीं...राम जाने...
https://youtu.be/Jd4LkHebALI

सोमवार, 17 सितंबर 2018

जम्मू-कश्मीर बंद में भी 'मल' पालिटिक्स चालू आहे

(लोकेश चंद्र)।
इस समय जम्मू कश्मीर में निकाय और पंचायत चुनाव होने हैं। देश के प्रधान ठेकेदार और उनके सागिर्द मुस्तैद हो गए हैं। वे लोगों को बता रहे हैं कि देश में इन दिनों भ्रष्टाचार कम हुआ है। आजकल जनता और नेता बमुश्किल बिक रहे हैं। बापू जी के नाम और उनके काम को बेचने का ड्रामा शुरू हुआ है। हालांकि इसकी पटकथा पहले से ही प्रधान जी ने लिख रखी थी। अभी ड्रामे का मंचन शुरू हुआ। यही एक ड्रामा है खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) का।
गांधी जयंती पर इस साल पूरे देश को खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) करने का फरमान प्रधान जी ने जारी किया था। इस फरमान पर नौकरशाहों ने ताबरतोड़ कागजों पर शौचालय बनाने का काम शुरू कर दिया। कुछ जमीन पर भी बने। जो बने उन शौचालयों में पानी की सुविधा नहीं। इसी कड़ी में प्रधान जी के आदेश के मुताबिक जम्मू-कश्मीर को भी महामहिम जी ने आननफानन में खुले में शौच मुक्त घोषित कर दिया। इस तरह भारत का सिर यानी जम्मू-कश्मीर ऐसा ग्यारहवां राज्य बन गया जो ओडीएफ घोषित हो गया। यानी भारत के सिर से मैला हट गया।
अब कुछ जमीनी हकीकत बयां कर लेते है। जम्मू शहर में नालों के किनारे बसे संभ्रांत लोग भी अपने घर में सेप्टिक टैंक नहीं बनाते, केवल शौचालय बनाते हैं। इसी तरह छोटी-छोटी पहाड़ी नदियों के किनारे बसे लोग भी अपने घर के मल को सीधे नदी में बहाते हैं। यहां तक कि उधमपुर में गंगा की बड़ी बहन कहलाने वाली देविका भी मल से त्रस्त है। जम्मू शहर के छन्नी, नानक नगर, त्रिकुटा नगर में यही हालत है। पुराने शहर में भी शौच को नालों में ही मुक्त किया जाता है। ऐसे में तंज होता है कि क्या राज्यपाल भी 'मल ' राजनीति कर रहे हैं?

मंगलवार, 11 सितंबर 2018

हमारे स्कूल में टीचर नहीं है

जम्मू कश्मीर के कठुआ जिले की बसोहली तहसील के गलुई धार गांव के प्राइमरी स्कूल में 10 सितंबर को जब बच्चे पहुंचे तो वहां कोई शिक्षक नहीं था। इस स्कूल में गरीब घरों के 100 बच्चे पढ़ते हैं। अन्य सरकारी स्कूलों की तरह यहां भी अक्सर शिक्षक नहीं रहते। स्कूल में आरईटी शिक्षक हैं, जो वेतन बढ़ाने, स्थाई करने की मांग पर चल रही हड़ताल में शामिल होने गये थे। शिक्षकों को न पाकर बच्चों को गुस्सा आ गया और वे नारे लगाने लगे, हमारे स्कूल में टीचर नहीं है। हमारे स्कूल में टीचर नहीं है....

बार्डर पर लाल झंडा लिए मजदूरों का प्रदर्शन

सीटू से जुड़ी भवन निर्माण कामगार यूनियन ने जम्मू कश्मीर में श्रम कानून ठीक से लागू नहीं होने की आरोप लगाते हुए प्रदर्शन किया।

शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

कश्मीर में हिन्दू-मुस्लिम कोई मुद्दा नहीं


भगवान स्वरूप कटियार
( समापन किस्त)
सिख साथियों से पता चला कि कश्मीर में हिन्दू-मुस्लिम कोई मुद्दा ही नहीं हैं। यहां सभी कश्मीरी हैं। न हिन्दू न मुस्लिम। मुस्लिम, हिंदुओं की शवयात्रा में शामिल होते हैं और हिंदू भी कब्रगाह जाते हैं। कश्मीरी पंडितों के मुद्दे के बारे में पता चला कि यहां के मुस्लिम समाज के आज भी कश्मीरी पंडितों से सौहार्दपूर्ण रिश्ते हैं, जो पहले थे। वे एक- दूसरे के शादी विवाह में शामिल होते हैं। अभी भी जो कश्मीरी पंडित कश्मीर में हैं, उन्हें कश्मीरी मुसलमानों पर पूरा यकीन है। 
कई स्‍थानीय कश्मीरियों का कहना था कि यह सारा बिगाड़ा खेल तत्कालीन कश्मीर के गवर्नर जगमोहन का है, जिसने दहशत फैलाकर कश्मीरी पंडितों को कश्मीर से भगा दिया, ताकि कश्मीरी मुसलमानों को राज्य सत्ता के चाबुक से हांका जा सके। वह राष्ट्रपति शासन का दौर था और गवर्नर थे रिटायर्ड आईएएस अफसर जगमोहन। कश्मीरी पण्डितों के रहते राज्य सत्ता का दमन चक्र कश्मीरी पण्डितों को भी प्रभावित करता और तब हिन्दू-मुस्लिम की सियासी आग इस तरह न सुलग पाती, जो आज लपटों के रूप में सर्वनाश कर रही है। इस बीच जिस किसी से भी बात हुई तो दो टूक निष्कर्ष निकल कर सामने आया कि कश्मीरियों को भारत के साथ रहने में कोई गुरेज नहीं है और वे रह ही रहें है वर्षों से साथ-साथ। सारा खेल सियासत और फ़ौज ने बिगाड़ा है। वे कहते हैं हमें साथ-साथ रहने की संभावनाओं पर और अधिक संवेदनशीलता से सोचने-समझने की जरूरत है।
  जुलाई २०१६ में मोहम्म्द बुर्हनुद्दीन वानी का इनकाउंटर हुआ था। इस पढ़े-लिखे नौजवान के एनकाउंटर ने पूरे कश्मीर को ही नहीं पूरे देश को हिला कर रख दिया था। इसकी कश्मीर में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई थी। अभी भी बरसी पर कश्मीर में लोग सड़कों पर उतर पड़ते हैं। अब बुरहान वानी के इलाके को फ़ौज ने छावनी में तब्दील कर दिया है। अवंतीपोरा तहसील के खार मोड़ पर त्रालमिदूरा गांव के रास्ते में एक बड़ी सी जमीन किराये पर लेकर वहां किलेनुमा अड्डा बना रखा है, जहां फ़ौज  का गोलाबारूद रहता है।यहां फौज का बड़ा जमावड़ा है। अब इस इलाके में होने वाले प्रदर्शनों में लड़कियों की भी शिरकत होती है। फ़ौज की कार्रवाइयों ने तमाम नौजवानों को भटकाया भी है। 
   वर्ष २०१५ में बुरहान के भाई का एनकाउन्टर किया गया था, जो एक लैब में काम करता था। बुरहान के वालिद एक कालेज में प्रिंसिपल हैं और उसके दादा किसी कालेज में लेक्चरर थे। बुरहान के तीन भाइयों में एक बचा है जो पढाई कर रहा है और उसकी एक बहन भी है। बुरहान के नहीं रहने से पूरा परिवार गहरे सदमें में है। अब कश्मीर में लोग बुरहान को शहीद का दर्जा देते हैं। जिनसे भी वहां मुलाकात ह़ुई १०० में ८० लोगों ने उसे शहीद कहा। उसकी मजार बना दी गई, जहां बड़ी संख्या में लोग जमा होते हैं। 

१५ अप्रैल को हम श्रीनगर के खैयाम चौक पहुंचे। वहां करीब तीन बजे शारजाह होटल में दाखिल हुए। वहां फ्रेश हुए और लंच कर डल झील घूमने निकल गए। वहां टूरिज्म के पीक सीजन में अजीब सा सन्नाटा देखने को मिला। आमतौर पर शिकारों से भरी रहने वाली डल में बहुत कम शिकारे सैलानियों को घुमा रहे थे। आतंकी माहौल ने टूरिज्म के कारोबार को चौपट कर दिया है। हम लोगों ने एक शिकारा लिया, जिसको जहूर मियां चला रहे थे। ५ से ८ बजे रात तक तीन घंटे हम लोग शिकारे में डल झील घूमे। डल झील भी पुलिस और आर्मी सिक्योरिटी की गिरफ्त में थी। लोगों से बात करने पर सबके दिल दर्द से कराहते नजर आए। सब कहते कि कश्मीर की जन्नत को किसी की बुरी नजर लग गयी है। अगले दिन हम शालीमार और ट्यूलिप गार्डन घूमते हुए वेमिना डिग्री कालेज पहुंचे, जहां के छात्र और अध्यापक हमारा इंतजार कर रहे थे। यह शेड्यूल कश्मीर यात्रा के लिए चलने से पहलें ही बन चुका था। ट्यूलिप गार्डेन के फूलों की रंगत ने हम सबको लूट लिया था। बरसते पानी और हल्की ठंड में ट्यूलिप गार्डन घूमना बेहद खुशनुमा लग रहा था। 
वेमिना डिग्री कालेज में प्रो नदीम अहमद ने हमें अपने साथियों से मिलवाया। उनको यह जानकर काफी खुशी थी कि हम लोग कश्मीर के हालात जानने-समझने के लिए आए हैं।  उन्होंने जो दर्द बयां किया तो उनके साथ हम भी फूट-फूट कर रोये। तब हमें लगा राज्यसत्ता के दमन का मंजर किस स्तर तक पहुंच गया है। प्रो जीडी वानी (पर्सियन), प्रो आतिब मंजूर (अरैबिक), प्रो नदीम अहमद (इकनामिक्स), तारिक अहमद (उर्दू), प्रो बिलाल (इंग्लिश), प्रो मालिक (इकनामिक्स) तथा प्रो अमरजीत सिंह (हिंदी) ने आज के दौर के कश्मीर पर अपने विचार साझा किए। प्रो आतिब मंजूर की दर्द भरी दास्तां ने सबको रुला दिया। बाकया उनके घर के पास हुए एक आतंकी हमले का था।
उन्होंने बताया कि फौज के अफसर उनको घर से पकड़ कर ले गए। उन्हें मारा पीटा और बेइज्जत किया। उन्होंन यह भी लिहाज नहीं किया वे एक सीनियर प्रोफेसर के साथ ऐसा बरताव कर रहे हैं। यही वजह है जब कश्मीरी कहते हैं कि डेफिसिट आफ ट्रस्ट की स्थिति पैदा हो गई है। उनका मानना है कि सरकार का पालिसी अप्रोच सही नहीं है। 
प्रो. बिलाल और मलिक ने कहा है कि मौजूदा सरकार का मुसलमानों के प्रति रवैया सही नहीं है। पूरे देश में यही हाल है। मुसलमानों को तबाह कर वे हिन्दू वोट संगठित करते हैं जबकि उन्ही हिन्दुओं में दलितों और पिछड़ों के साथ उनके सलूक मुसलमानों से कम बदतर नहीं हैं। आगरा के भीम सेना के चन्द्रशेखर के साथ उनका सलूक सामने है।जुनेद ,अख़लाक़ के साथ खड़े होने की भी उन्होंने हमसे अपील की क्योकि वे हमारे देश के मुसलमान हैं। कश्मीर के लोग हिंदुस्तान के साथ रहें इसकी संभावनाएं तलाशी जानी चाहिए पर हालात क्यों बिगड़े और किसने बिगाड़े यह उससे जरुरी और बड़ा सवाल है।उन्हें कश्मीर की सरकार, केंद्र सरकार, हुर्रियत नेताओं और फ़ौज से बेहद शिकायत है।हालात ठीक करने और अमन कायम  करने की पहली शर्त है कश्मीर से फौजों को हटाना। फौज के लोग कश्मीरी नौजवानों का एनकाउन्टर कर उन्हें अपराधी बनाने पर अमादा है। जब हमने कहा कि कश्मीर घूमते हुए हमने देखा कि कश्मीर में गरीबी नहीं है और कश्मीरी लोग मेहनती हैं तो उनके चेहरे चमक आ गई और बोले चलो आप लोगों ने माना तो कि कश्मीरी मेहनती हैं। वरना यहां तो यह आरोप लगाया जाता है कि कश्मीरियों के गाल केंद्र सरकार से मिल रहे पैसे से लाल हो रहे हैं।
अगले दिन १८ अप्रैल को हमारी वापसी थी। श्रीनगर छोड़ने के पहले सुबह बरसते मौसम में हम लोग हज़रत बल देखने गए और कश्मीर यूनिवर्सिटी भी देखी। बन्द होने के कारण वहां किसी से मुलाकात नहीं हो पाई। श्रीनगर से दोपहर १२ बजे चल कर अवंतीपोरा के रास्ते हम त्राल मिदूरा गांव पहुंचे, जहां एक ७० वर्षीय बुजुर्ग अब्दुल रसीद वानी अपने परिवार के साथ हमारा इंतजार कर रहे थे। वे हमें अपनी कार से हम लोगों अवंतीपोरा लेने आये। कार के चालक थे उनके भांजे मिस्टर आसिफ़ हुसैन वानी प्रिंस।
एक खुशमिजाज नौजवान जिसे सभी प्रिंस कहते हैं।
अब्दुल रसीद साहब के तीन बेटे हैं। सबसे बड़े हमीदुल्ला वानी वहीँ पर टीचर हैं7 गुलाम मुहिमुद्दीन वानी सेक्रेटीरियेट में मुलाजिम है।हमारे लखनऊ के साथी मसूद साहब के दामाद जादे डा०जहूर अहमद वानी यहीं लखनऊ में सीमैप में रिसर्च स्कॉलर हैं। रसीद साहब की दो बेटियां भी हैं। रसीद साहब खुद भी एनीमल हसबैंडरी विभाग में मुलाजिम रह चुके हैं। उनके पास लगभग ६० कुनाल (बीघे की तरह कृषि भूमि की इकाई) की खेती है जिसमें अखरोट, सेब और बादाम के बगीचे हैं। उनके घर की दीवार पर फ़ौज की बंदूकों से चली गोलियों के निशान देखने को मिले। अब लोग इन चीजों के आदी हो गये हैं। धूप अच्छी लग रही थी घर के सामने लान में बैठ कर उसका आनन्द लिया। हमारे पास समय कम था इसलिए कम से कम समय में अधिक से अधिक घूम लेना चाहते थे। शाम तीन बजे हम रसीद साहब के साथ कार से बुरहान वानी के घर त्राल गए और बूढ़े दादा से मिले। बुरहान वानी कब्र के उन तमाम नौजवानों की भी कब्रे हैं जो इनकाउंटर में मारे गये हैं।
  थोड़ी देर में पता चला कि आर्मी किसी नौजवान को उठा ले गयी है7 सड़कों पर नौजवानों की भीड़ इकठ्ठा हो गयी। कुछ पूछतांछ शुरू न हो जाय इस अंदेशे से हम लोग घर वापस लौट आये। रास्ते में भीड़-भाड़ और तनाव का मंजर देखते हुए घर पहुंचे।सुबह हमें जम्मू के लिए रवाना होना था। चाय नाश्ते के बाद हम लोग सेब के बाग़ देखने गये जिनमें अभी फूल लगा हुआ है। सेब के दरख्त में कलम की ग्राफ्टिंग कर तमाम किस्म के सेव एक ही दरख्त में लगते हैं। इस करिश्माई जानकारी ने हमें अचम्भे में दाल दिया। आधुनिक तकनीकी और वैज्ञानिक जानकारियों से लैस हैं कश्मीर के किसान। रसीद साहब ने एक कुशल गाइड की तरह हमें तमाम चीजें दिखाई और सेब पकने के समय यानी नवम्बर-दिसम्बर के महीने में कश्मीर आने की दावत भी दे डाली।
अवन्तिपुरा से हम लोग जम्मू के लिए टैक्सी से रवाना हुए। काजीगुंड के आगे लवर मुंडा में जाम लग गया। रामबाग में हैवी लैंड स्लाइड ने रास्ता रोक दिया था। कश्मीरियों के खुशमिजाज चेहरे और कश्मीर में अमन लाने का जलता सवाल हमारी नम आँखों में तैर रहे हैं। हमने अपने कश्मीरी भाइयों से कुछ वायदे किये हैं और उसी दिशा में आगे बढ़ना है।

मंगलवार, 14 अगस्त 2018

आज के दौर में मार्क्स का मार्क्सवाद कैसा होना चाहिए ? (दूसरा भाग)

(भगवान स्वरूप कटियार)।
(पहली किस्त के लिए इस लिंक पर जाएं-https://100flovers.blogspot.com/2018/08/blog-post.html?m=1)

दुनायेव्ह्स्काया ने सभी किताबों में एक नए किस्म के मार्क्सवाद के विकास को प्रतिष्ठित किया जो इस बात पर आधारित है कि आज के दौर में मार्क्स का मार्क्सवाद कैसा होना चाहिए ? उन्होंने तर्क और तथ्यों से सिद्ध किया की मार्क्स की महान रचना पूँजी सबसे ज्याद द्वंद्वात्मक और मानववादी है | क्योकि यह इस विचार पर केन्द्रित है कि मानवीय सम्बन्ध पूंजी के वर्चस्व वाले समाजों में किस तरह वस्तुओं के बीच सम्बन्धों का रूप ले लेते हैं | सच्चा समाजवाद इन परिस्थितियों का निषेध करते हुए नये मानवीय सम्बन्धों को रचते हैं जो उत्पादन केन्द्रों से शुरू होकर सबसे ज्यादा अन्तरंग रिश्तों में फैले होते हैं |       
        मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद व्यावहारिक विज्ञान है | उत्पादन प्रणाली के परिवर्तन के आधार पर यह मानव इतिहास का युग रूपांतरण करता है | आदिम उत्पादन प्रणाली पर आधारित आदिम साम्यवाद का युग ,दास उत्पादन प्रणाली पर आधारित दास युग , सामन्ती उत्पादन प्रणाली पर आधारित सामन्तवादी युग तथा पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली पर आधारित पूंजीवादी युग वर्ग समाज और इसके बाद वर्ग विहीन राज्य विहीन साम्यवादी युग जो निरंतर सर्वहारा क्रांतियों से आयेगा जिसकी समय सीमा तय नहीं है | मार्क्स–एंगेल्स कम्युनिस्ट घोषणापत्र में लिखते हैं दुनियां का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है जिसका मतलब है कि वर्ग समाज में शोषण ,उत्पीड़न और अन्याय के विरुध्द सभी आन्दोलन वर्ग संघर्ष के हिस्से हैं | व्यक्ति का वजूद स्वायत्त न होकर विशिष्ट सामाजिक सम्बन्धों के तहत सामाजिक है | कम्युनिस्ट घोषणापत्र में मार्क्स लिखते हैं कि बुर्जुआ राज्य पूंजीपति वर्ग के हितों की प्रबन्ध कमेटी है | मार्क्स लिखते हैं कि मनुष्य की चेतना उसकी भौतिक परिस्थितियों का परिणाम है और बदली हुई चेतना बदली हुई परिस्थितियों की | लेकिन न्यूटन के गति के नियम के अनुसार बिना बाह्य बल के कोई चीज हिलती भी नहीं है | अत; भौतिक परिस्थितियाँ अपने आप नहीं बल्कि मनुष्य के चैतन्य प्रयास से बदलती हैं | इतिहास की गति का निर्धारण भौतिक परिस्थितियों और सामाजिक चेतना की द्वंद्वात्मक एकता से होता है किसी ईश्वर,पैगम्बर या अवतार की इच्छा या कृपा से नहीं | इस तरह हम देखते हैं कि सत्य की व्याख्या के लिए मार्क्स ने हीगल के द्वंद्ववाद और फायरबाख के भौतिकवाद को संदर्भविन्दु बनाया | उसकी द्वंद्वात्मक एकता ने सत्य की नयी व्याख्या की ,नयी चिन्तनधारा दी और एक नए दर्शन का उदघाटन किया | हीगल को उलटते हुए मार्क्स ने कहा कि विचार से वस्तु की उत्पत्ति नहीं हुई है बल्कि वस्तु से विचार की उत्पत्ति हुई है | ऐतिहासिक रूप से वस्तु विचार से पहले मौजूद रहती है और ऐतिहासिक रूप से विचार वस्तुओं से ही निकलते हैं हवा में नहीं | जैसे न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण का सिध्दांत जहाँ सेब का गिरना पहले से मौजूद था | इसी प्रकार ईश्वर ने मनुष्य को नहीं बनाया है बल्कि मनुष्य ने ईश्वर की अवधारणा को गढ़ा है | उन्होंने वस्तु को सब कुछ मानने वाले फायरबाख को भी ख़ारिज किया और वस्तु पर विचार की प्राथमिकता मानने वाले हीगल को भी ख़ारिज किया | उन्होंने कहा जो भी विवेक सम्मत है वास्तविक है और जो वास्तविक है वह विवेक सम्मत है और अपने विकास क्रम में वास्तविकता समय की आवश्यकता बन जाती है | मार्क्सवाद दुनिया को समझने का गतिमान विज्ञान है और सर्वहारा क्रांति की विचारधारा | एंगेल्स मार्क्स की अंत्येष्टि में अपने भाषण में कहा था कि “जिस तरह डार्विन ने जीवन के विकास के नियमों की व्याख्या की उसी तरह कार्ल मार्क्स ने इतिहास के विकास के नियमों की व्याख्या की है | अत: मार्क्सवाद एक विज्ञान है और मार्क्स विज्ञान को गतिशील मानते थे इसलिए मार्क्सवाद कोई स्थिर आस्था नहीं है बल्कि गतिशील विचार दर्शन है | मार्क्सवाद के बौध्दिक संसाधन सिर्फ मार्क्स और एंगेल्स के विचारों तक सीमित नहीं हैं | ज्ञान की तरह विज्ञान भी एक निरंतर प्रक्रिया है जो अपनी परिस्थिति को समझने और बदलने के प्रयास करने वाले लेनिन ,माओ,ग्राम्सी ,चेग्येरा ,भगतसिंह की रचनाओं के ज्ञान से अनवरत सम्रध्द होता रहा है |

बुधवार, 8 अगस्त 2018

हम कश्मीर में बशीर साहब के घर अखरोट का पौधा लगाकर आए

भगवान स्वरूप कटियार

 ( कश्मीर यात्रा पर दूसरी किस्त। पहली किस्त के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं)
https://100flovers.blogspot.com/2018/05/blog-post_17.html?m=1
अप्रैल 2018 की 14 तारीख को जम्मू से अनंतनाग पहुचते–पहुँचते शाम के छह बज चुके थे। अक्कड़ गांव से बिलाल रैना हमें लेने के लिए अपनी कार लेकर हाजिर हो चुके थे। अपने गांव से 15 किलोमीटर चल कर बिलाल हमें लेने के लिए अनन्तनाग आए। उनके गांव अक्कड़ इस्लामाबाद अपने साधन से आसानी से पहुंचा जा सकता थाजो पहलगाम हाईवे पर है। उनके गांव के मोड़ पर हाईवे पर ढाबे और मिठाई की दुकानें हैजिसमें एक मिठाई की दुकान उत्तर प्रदेश के बिजनौर के एक हिन्दू की हैजो कश्मीरियों के बीच अपने को पूरी तरह महफूज मानता है।
बिलाल के परिवार से मिल कर ऐसी ख़ुशी की अनुभूति हुईजिसे इजहार करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। वे अपनों से भी अपने लगे। हमारे वहां पहुंचने की सूचना परिवार में स्त्री-पुरुषबच्चों सबको थी। इसलिए हमारे पहुंचने से ख़ुशी की चमक हर किसी के चेहरे पर थी। ड्राइंग रूम में सोफे-कुर्सियां आदि नहीं नजर आईं,जबकि लकड़ी वहां इफरात होती है। बड़े से हाल नुमा कमरे में एक सुन्दर सी कालीन और दीवार से टिके कुशन,मसनद और तकियों से सजी बैठक। एक हसीन महफ़िल का नजाराजहां स्त्री-पुरुषबच्चे पूरी आजादी से बैठते बतियाते हैं। मुझे यह सब देख कर एक अजब सा कौतूहल हो रहा था। कौन सी दुनियां में हम आ गए हैंजो इतनी खुशमिजाज और हसीन है। दिन भर की पहाड़ी यात्रा से हम चारों साथी काफी थके थेपर बिलाल के परिवार वालों की बातचीत और मेहमाननवाजी से थकावट कहां फुर्र हो गयीपता ही नहीं चला। हम लोग तकिए के सहारे टिके बैठे थे कि परिवार का एक नौजवान पानी लेकर हाथ धुलाने आया। इस रश्मों रिवाज को देख कर हम कश्मीर की कश्मीरियत को सीधे देख पा रहे थे |ड्राई फ्रूट उनकी घर की फसल है। इसलिए अखरोटबादाम से आवभगत तो उनके रिवाज में है। इसके बाद चाय के साथ नाश्ते में ढेरों चीजें आईं,जिसमें उबले अंडे भी थे। अंडे भी घर की मुर्गियों के ही थे। हर कश्मीरी अपने घर के बगीचे में खाने भर की सब्जियां जरुर उगाता है। मुर्गे–मुर्गियां और दूध के लिए गाय हर कश्मीरी के घर में मिलती है। कश्मीर के गांव वाले नमक और डीजल-पेट्रोल के अलावा बाजार से शायद ही कुछ खरीदते हों। खेत उन्हें सब कुछ देते हैं। चाय नाश्ता करते हुए हमने खूब बातें की और पारस्परिक जान पहचान भी बढाई। इस बीच मेरा कैमरा भी चलता रहा। सबने बड़े उत्साह और ख़ुशी से फोटो खिचवाए। परिवार की महिलाएं भी हमारी पारस्परिक बातचीत में शिरकत कर रहीं थीं। लगता था जैसे हम किसी शादी विवाह में शामिल होने आए हों। एक अजब उत्सव जैसा माहौल था। रात्रि भोज में इतने तरह के पकवान परोसे गए कि हम इस मेहमाननवाजी के कायल हो गए। हम चार साथियों में तीन हिन्दू थे और मसूद साहब अकेले मुस्लिम थे। पर वहां सिर्फ एक ही चीज समझ में आयी कि हम सब इन्सान हैं। उसी कालीन पर गद्दे और रजाइयां-कम्बल लगा दिए गए और थके होने के कारण कब नींद आ गयी पता नहीं चला। सुबह जब जगे तो छह बजे थे। जनवरी जैसी ठंड थी। फ्रेश होकर ट्रैक सूट पहन कर कश्मीर के इस गांव की सुबह देखने निकल पड़ा। वैसे भी प्रातभ्रमण मेरी आदत बन चुकी है। गहरी नींद में सोए साथियों को जगाने की मैंने जुर्रत नहीं की। एक झरने से बहने वाले पानी ने एक नहर जैसी शक्ल ले ली थी। गांव वालों का कहना था कि यह नाला अमरनाथ के रास्ते में गिरने वाले झरने से पहलगांम से होकर आता है। नाले का पानी इतना साफ और ठंडा था कि लोग पीने और घर के वर्तन-कपडे धोने में इस्तेमाल करते हैं। लोग इसी नाले के पानी से घरों में पाइप लाइन से पानी ले जाते है। वैसे इस इलाके में पानी भी10-15 फुट पर मिल जाता है,इसलिए बोरिंग शायद ही कोई कराता हो।
हांसेब के खेतों में बोरिंग देखने को जरूर मिलती है। सुबह घूमते हुए हमने अखरोट के दरख्तों के कई किलोमीटर लम्बे गलियारे देखें और पीले-पीले फूलों से भरे सरसों के खेत और बर्फ से ढके पहाड़। सुबह कैमरा लेकर नहीं गया थाइसलिए मोबाइल फोन का कैमरा इस्तेमाल किया। थोड़ा संकोच और डर जरुर मन में था कि यहां के लोग हमें कहीं गलत न समझ बैठें।
बिलाल का परिवार संयुक्त परिवार जैसा है। उनके वालिद मोहम्मद सुल्तान रैना यही कोई 70-75 साल के होंगे। उनके चार बेटे अब्दुल रहमानबसीर अहमदगुलाम हसन और बिलाल रैना हैं। बिलाल सबसे छोटे हैं और गांव में उनकी दुकान है,जबकि उसने भोपाल में पोलिटिकल साइंस से पीजी किया हुआ है। रैना यहां कश्मीरी ब्राह्मण होते हैं। पर मोहम्मद सुल्तान का परिवार भी रैना लिखता हैं। यह इस बात का सबूत है कि हिन्दू-मुस्लिम में कितना साम्य और घनिष्ठता है। अब्दुल रहमान और गुलाम हसन रैना सरकारी नौकरी में हैं और बसीर अहमद रैना गांव में खेतीबाड़ी संभालते हैं। उनके वालिद मोहम्मद सुल्तान रैना ने अपने सभी बेटों के मकान आसपास ही बनवाये हैं और सब अपने-अपने घरों में रहते हुए भी साथ-साथ रहते हैं।
उनके वालिद और वालिदा का सबके घर रोज का आना जाना रहता है। एक का मेहमान सबका मेहमान होता है। परिवार का यह अनूठा रूप बड़ा मोहक और अनोखा लगा। सुबह घूम कर आया तो हमारे साथी लोग जाग चुके थे। फिर हम सब लोग चाय पीकर रहमान साहब के नेतृत्व में अक्कड़ गांव घूमने निकले। बहुत लोगों से दुआ सलाम और परिचय हुआ। पर सबकी शिकायत थी कि हम लोग कम समय लेकर आये हैं। कश्मीर घूमने के लिए कम से कम एक महीने का समय लेकर आना चाहिए,तब कश्मीर देखाजाना और समझा जा सकता है। मेरे दिमाग में कश्मीर पर एक डाक्यूमेंटरी बनाने का खयाल कौंधा। हमें सुबह दस बजे तक श्रीनगर के लिए निकलना था। भर पेट नाश्ता कर हम अपने लगेज समेट कर तैयार हो गये। हमने बसीर साहब के बगीचे में एक अखरोट का पौधा लगायाइस उम्मीद के साथ कि यह बड़ा होकर कश्मीरियों और हमारी मोहब्बत का बड़ा दरख्त बनेगा। इसके अखरोट के फलों में हमारी मोहब्बत की मिठास होगी। हमारा सामान ऊपर की बैठक से नीचे लाया जा चुका था। सबके घरों से अखरोट के पैकेट विदाई के भेंट के रूप में आने लगे। फिर सबने मिल कर ग्रुप फोटोग्राफी करायी। यह फोटो आज कश्मीर यात्रा का नायब तोहफे के रूप में हमारे पास हैं। सब प्रेम और मोहब्बत के भावों से लबरेज थे। रहमान साहब अपनी कार से हम लोगों को अनंतनाग की मटन तहसील तक छोड़ने आयेजहाँ हमने सूर्य मन्दिर के दर्शन किये जो कोणार्क सूर्य मंदिर के बाद दूसरा सूर्य मंदिर है। वहां हमने मस्जिद और गुरुद्वारे को एक ही स्थान पर साथ-साथ सटे हुए देखा जो साम्प्रदायिक सद्भाव और भाईचारे का जीता जागता सबूत है।