देवेन्द्र प्रताप
आज पूरी दुनिया में न सिर्फ अमेरिका के विरोध में, वरन उसकी दुनिया से इतर एक नई दुनिया का ख्वाब भी देखा जाने लगा है। हमारे देश में चला अन्ना आंदोलन हो या फिर ट्यूनीशिया और समूचे अरब में पैदा हुआ नया जनउभार, वॉल स्ट्रीट का आंदोलन हो या फिर स्पेन और यूनान में जबरदस्त जनसंघर्ष, सभी में एक नई दुनिया का ख्वाब लोगों को प्रेरणा दे रहा है। आर्थिक मंदी ने अमेरिका समेत कई मुल्कों की कमर तोड़ दी है। ऐसे में इन मुल्कों की संचालक विचारधारा पर भी सवाल उठने लगे हैं। वहीं, मंदी के माहौल में भी क्यूबा, बोलीबिया, वेनेजुएला जैसे देश पुरानी दुनिया के मिथ को तोड़कर विकास के नित-नए कीर्तिमान रच रहे हैं।
अमेरिका का आर्थिक संकट उसके द्वारा अपने फायदे के लिए गढ़े गए सिद्धांतों की ही देन है। वह अपने फायदे के लिए कुछ भी कर सकता है। जापान, इराक, अफगानिस्तान आदि देशों में नरसंहार, कई देशों में तख्तापलट कर अपनी पिटठू सरकारों को सत्ता पर बैठाना, कई देशों के राष्ट्राध्यक्षों को मरवाने की साजिश में उसका लिप्त होना आदि सभी कारनामों के केंद्र में उसका अपना लोभी और विकृत चरित्र ही रहा है। एक समय जिस अमेरिका को अब्राहम लिंकन, जार्ज वाशिंगटन जैसे महान लोगों का मुल्क कहा जाता था, आज वही हथियारों के सबसे बड़े सौदागर के रूप में कुख्यात हो चुका है। इसके बावजूद कई ऐसे मुल्क हैं, जिन्होंने कभी भी अमेरिका की नीतियों और उसकी दादागीरी के आगे सरेंडर नहीं किया। वियतनाम, फिलिस्तीन, वेनेजुएला, क्यूबा, बोलीविया, चिली, निकारागुआ, ग्वाटेमाला, पेरू आदि ऐसे मुल्क हैं, जहां की जनता लंबे समय से अमेरिका की साम्राज्यवादी नीतियों का विरोध करती रही है। इनमें से वेनेजुएला, क्यूबा, बोलीविया जैसे कुछेक देशों ने उसकी नीतियों का विरोध करने के साथ ही विकल्पहीन दुनिया के सामने एक बेहतर और मानवीय दुनिया का मॉडल भी प्रस्तुत किया है। आज जबकि अमेरिका आर्थिक मंदी की मार से कराह रहा है, ऐसे में इन मुल्कों की जनता विकास के नए कीर्तिमान रचने में लगी है। दुनिया को चवन्नी से ज्यादा अहमियत न देने वाले आधुनिक तानाशाह अमेरिका ने इन मुल्कों को नेस्तनाबूत करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, लेकिन वियतनाम की तरह ही उसे इन मुल्कों की जनता ने भी हमेशा ही घुटने टेकने को मजबूर किया। आज तीसरी दुनिया की जनता भी इन मुल्कों के मॉडल को अब पसंद करने लगी है।
शिक्षा में अव्वल क्यूबा
आज कमोवेश हर मुल्क में शोषणकारी सत्ताएं कायम हैं। वहीं, वेनेजुएला, क्यूबा और बोलीविया में इससे इतर भी एक दुनिया अस्तित्व में है। लैटिन अमेरिका में भले ही अमेरिका दादागीरी दिखाता हो, लेकिन क्यूबा के सामने उसकी एक नहीं चलती। इसकी एक बड़ी वजह है क्यूबा की जनपक्षधरता और वहां की शिक्षित जनता। आपको यह जानकार शायद आश्चर्य होगा कि क्यूबा के पूर्व राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो ने जब देश की जनता को शिक्षित करने का प्रण लिया, तो महज एक साल में 95 प्रतिशत जनता को शिक्षित कर डाला। अमेरिका इस रिकार्ड को तोड़ने की सपने में भी कल्पना नहीं कर सकता। इतना ही नहीं, मीडिया भले ही अमेरिका के सुर में सुर मिलाता हो, हकीकत यही है कि शिक्षा के अलावा स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी क्यूबा की स्थिति अमेरिका से बेहतर है। क्यूबा में प्रति हजार शिशु मृत्यु दर महज सात है, जो अमेरिका से काफी बेहतर है। वहीं, हमारे देश में प्रति हजार शिशु मृत्युदर 46 है। दुनिया को चवन्नी-अठन्नी समझने वालों की सोच से इतर भी एक बेहतर दुनिया न सिर्फ मौजूद है, वरन इसे और बेहतर बनाने का ख्वाब भी जिंदा है।
विकास पथ पर बोलीविया
वर्तमान समय में विकसित देशों में आर्थिक असमानता का उच्चतम स्तर अमेरिका में है। वहां 2006 के बाद से गरीबी की दर में 23 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 40 साल पहले वहां 61 प्रतिशत मध्यवर्ग था, अब वह 50 प्रतिशत से भी काफी नीचे आ गया है, यह अवसान अभी जारी है। यही अमेरिका की सबसे बड़ी चिंता भी है। इससे इतर वैश्विक आर्थिक संकट के बीच बोलीविया ने 2011 की तुलना में 2012 में 6 प्रतिशत की आर्थिक वृद्धि दर्ज की। चिली, पेरू, पनामा व वेनुजुएला को अगर छोड़ दिया जाए, तो यह लैटिन अमेरिका में सबसे बेहतर स्थिति है। 2006 में ईवो मोराल के राष्ट्रपति बनने के बाद बोलीविया का जीडीपी तीन गुना जबकि प्रति व्यक्ति आय दोगुने से भी ज्यादा हो गई। आज वहां के सबसे धनी लोगों की आय, वहां के सबसे निर्धनतम 10 प्रतिशत लोगों की आय से महज 36 गुना अधिक है, जबकि यही 1997 में 96 गुना अधिक थी। संयुक्त राष्ट्र आर्थिक आयोग के प्रमुख एलिसिआ बासेर्ना भी मानते हैं, ‘बोलीविया ऐसे कुछ देशों में शामिल है, जहां आर्थिक असमानता में बेहद कमी आई है। गरीबों और अमीरों के बीच की खाई में काफी कमी आई है।’ विश्व बैंक भी बोलीविया को ‘निम्न मध्य आय वाला देश’ मानता है। यह इस बात का प्रमाण है कि वहां गरीबों और अमीरों के बीच आर्थिक असमानता के स्तर में ज्यादा अंतर नहीं है। बोलीविया संभवत: दुनिया का ऐसा एकमात्र देश है, वहां 2005 के बाद से न्यूनतम मजदूरी में 127 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। वहीं अमेरिका में वेतन वृद्धि की बात कौन करे, जिनके पास पहले रोजगार था, वे अब बेरोजगार हो गए हैं। रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पुअर ने भी पिछले साल अक्टूबर माह में बोलीविया को ‘बहुत ही शानदार आर्थिक प्रगति करने वाला देश’ कहा था। वोलीविया निजीकरण के खात्मे की ओर तेजी से बढ़ रहा है। जिस गति से वह इस दिशा में बढ़ रहा है, उसी रफ्तार से वहां गरीबी, बेरोजगारी आदि समस्याएं भी कम हो रही हैं।
जनसेवा में अव्वल वेनेजुएला
संयुक्त राष्ट्र संघ के काराकस सम्मेलन में 20 सितंबर 2006 को वेनेजुएला के तत्कालीन राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज ने भाषण दिया था। उनका इस भाषण को तीसरी दुनिया की जनता ने (जहां अमेरिका का दबदबा है) काफी पसंद किया। उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत करते हुए कहा, ‘शैतान कल यहां भी आया था। (हंसी और तालियां) कल शैतान यहीं था। ठीक इसी जगह। यह टेबुल जहां से मैं बोल रहा हूं, वहां अभी भी सल्फर की बदबू आ रही है। कल, बहनो, भाइयो, ठीक इसी सभागार में संयुक्त राज्य अमरीका का राष्ट्रपति जिसे मैं शैतान कह रहा हूं, आया था और ऐसे बोल रहा था, जैसे वह दुनिया का मालिक हो। कल उसने जो भाषण दिया था, उसे समझने के लिए हमें किसी मनोचिकित्सक की मदद लेनी पड़ेगी।’ फिदेल कास्त्रो की तरह ही ह्यूगो शावेज भी अमेरिकी साम्राज्यवाद के कट्टर विरोधी थे। शावेज ने राष्ट्रपति बनते ही, वेनेजुएला की प्रमुख तेल कंपनी ‘पेट्रोलिओस दि वेनेजुएला’ का राष्ट्रीयकरण किया, अमेरिकी और यूरोपीय तेल कंपनियों पर प्रतिबंध लगाया और वेनेजुएला की पूंजी को बाहर जाने से रोका। इसके बाद उन्होंने वेनेजुएला की गरीबी को दूर करने के लिए कमर कस ली। भ्रष्टाचार पर लगाम भी शावेज के सही समय में लग सकी। अगले दस साल में उन्होंने जनसेवा के लिए दी जाने वाली राशि को 61 प्रतिशत बढ़ाकर 772 बिलियन डॉलर कर दिया। अमीरों की अय्याशी पर पाबंदी लगा दी, नतीजतन 10 सालों में ही गरीब-अमीर की खाई में जबरदस्त कमी आई। गरीबी 71 प्रतिशत से 21 प्रतिशत, जबकि अत्यंत गरीबी, जो पहले 40 प्रतिशत थी वह 7.3 प्रतिशत हो गई। वहां लगभग सभी वृद्ध वृद्धा पेंशन पाते हैं। लगभग सभी को स्वच्छ पेयजल मिलता है। वेनेजुएला क्यूबा के बाद संभवत: अकेला ऐसा देश है, जहां स्कूलों में छात्रों की 85 प्रतिशत उपस्थिति रहती है। करीब एक करोड़ वेनेजुएला के छात्रों को विश्वविद्यालय में मुफ्त शिक्षा मिलती है। भारत वेनेजुएला से न सिर्फ बहुत बड़ा है, बल्कि जनसंख्या भी ज्यादा है, लेकिन यहां के विश्वविद्यालयों में छात्रों की संख्या वेनेजुएला से काफी कम है। वेनेजुएला में शिक्षा, चिकित्सा और भोजन की व्यवस्था मुफ्त है। वहां गरीबों को मुफ्त आवास भी उपलब्ध करवाया जाता है। कुल मिलाकर जनसेवा में वेनेजुएला से अमेरिका का कोई मुकाबला नहीं है।
मंदी में ही डूबा था इंग्लैंड का सूरज
1930 की मंदी के समय इंग्लैंड का समूची दुनिया पर राज था, लेकिन जब महामंदी आई तो उसके सामने इंग्लैंड समेत तमाम शोषणकारी साम्राज्य पानी भरते नजर आए। इसी के बाद दुनियाभर में जनता के मुक्ति संघर्षों में तेजी आई और एक-एक कर दुनिया के कई मुल्कों ने खुद को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद कर लिया। आज एक बार फिर से दुनिया के सामने मंदी का खतरा है। हां, आज दुनिया का सरगना अमेरिका है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद इस मुल्क ने खुद को दुनिया को लूटने की दौड़ में शामिल किया और एक समय आया, जब वह दुनिया का सबसे ताकतवर मुल्क बन गया। अब इतिहास ने एक बार फिर से करवट ली है। इस बार उसके निशाने पर अमेरिका है। कमोवेश दुनिया के हर तानाशाह को इतिहास के कोड़े खाने पड़े हैं, सो अमेरिका को भी खाने पड़ रहे हैं। लेकिन, जैसाकि कहा जाता है कि आज तक किसी भी तानाशाह ने अपनी गलतियों से सबक नहीं लिया, यह बात अमेरिका के ऊपर भी लागू होती है। बल्कि, सच कहा जाए तो आज जो स्थिति बन रही है, उसमें एक तरफ तो उसकी ऐंठ है, जो उसे अपनी गलती स्वीकार करने की इजाजत नहीं देती, दूसरी, अगर वह अपने गलती दुरुस्त करना चाहे भी, तो अब ऐसा कर पाना उसके वश में नहीं है।
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आज पूरी दुनिया में न सिर्फ अमेरिका के विरोध में, वरन उसकी दुनिया से इतर एक नई दुनिया का ख्वाब भी देखा जाने लगा है। हमारे देश में चला अन्ना आंदोलन हो या फिर ट्यूनीशिया और समूचे अरब में पैदा हुआ नया जनउभार, वॉल स्ट्रीट का आंदोलन हो या फिर स्पेन और यूनान में जबरदस्त जनसंघर्ष, सभी में एक नई दुनिया का ख्वाब लोगों को प्रेरणा दे रहा है। आर्थिक मंदी ने अमेरिका समेत कई मुल्कों की कमर तोड़ दी है। ऐसे में इन मुल्कों की संचालक विचारधारा पर भी सवाल उठने लगे हैं। वहीं, मंदी के माहौल में भी क्यूबा, बोलीबिया, वेनेजुएला जैसे देश पुरानी दुनिया के मिथ को तोड़कर विकास के नित-नए कीर्तिमान रच रहे हैं।
अमेरिका का आर्थिक संकट उसके द्वारा अपने फायदे के लिए गढ़े गए सिद्धांतों की ही देन है। वह अपने फायदे के लिए कुछ भी कर सकता है। जापान, इराक, अफगानिस्तान आदि देशों में नरसंहार, कई देशों में तख्तापलट कर अपनी पिटठू सरकारों को सत्ता पर बैठाना, कई देशों के राष्ट्राध्यक्षों को मरवाने की साजिश में उसका लिप्त होना आदि सभी कारनामों के केंद्र में उसका अपना लोभी और विकृत चरित्र ही रहा है। एक समय जिस अमेरिका को अब्राहम लिंकन, जार्ज वाशिंगटन जैसे महान लोगों का मुल्क कहा जाता था, आज वही हथियारों के सबसे बड़े सौदागर के रूप में कुख्यात हो चुका है। इसके बावजूद कई ऐसे मुल्क हैं, जिन्होंने कभी भी अमेरिका की नीतियों और उसकी दादागीरी के आगे सरेंडर नहीं किया। वियतनाम, फिलिस्तीन, वेनेजुएला, क्यूबा, बोलीविया, चिली, निकारागुआ, ग्वाटेमाला, पेरू आदि ऐसे मुल्क हैं, जहां की जनता लंबे समय से अमेरिका की साम्राज्यवादी नीतियों का विरोध करती रही है। इनमें से वेनेजुएला, क्यूबा, बोलीविया जैसे कुछेक देशों ने उसकी नीतियों का विरोध करने के साथ ही विकल्पहीन दुनिया के सामने एक बेहतर और मानवीय दुनिया का मॉडल भी प्रस्तुत किया है। आज जबकि अमेरिका आर्थिक मंदी की मार से कराह रहा है, ऐसे में इन मुल्कों की जनता विकास के नए कीर्तिमान रचने में लगी है। दुनिया को चवन्नी से ज्यादा अहमियत न देने वाले आधुनिक तानाशाह अमेरिका ने इन मुल्कों को नेस्तनाबूत करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, लेकिन वियतनाम की तरह ही उसे इन मुल्कों की जनता ने भी हमेशा ही घुटने टेकने को मजबूर किया। आज तीसरी दुनिया की जनता भी इन मुल्कों के मॉडल को अब पसंद करने लगी है।
शिक्षा में अव्वल क्यूबा
आज कमोवेश हर मुल्क में शोषणकारी सत्ताएं कायम हैं। वहीं, वेनेजुएला, क्यूबा और बोलीविया में इससे इतर भी एक दुनिया अस्तित्व में है। लैटिन अमेरिका में भले ही अमेरिका दादागीरी दिखाता हो, लेकिन क्यूबा के सामने उसकी एक नहीं चलती। इसकी एक बड़ी वजह है क्यूबा की जनपक्षधरता और वहां की शिक्षित जनता। आपको यह जानकार शायद आश्चर्य होगा कि क्यूबा के पूर्व राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो ने जब देश की जनता को शिक्षित करने का प्रण लिया, तो महज एक साल में 95 प्रतिशत जनता को शिक्षित कर डाला। अमेरिका इस रिकार्ड को तोड़ने की सपने में भी कल्पना नहीं कर सकता। इतना ही नहीं, मीडिया भले ही अमेरिका के सुर में सुर मिलाता हो, हकीकत यही है कि शिक्षा के अलावा स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी क्यूबा की स्थिति अमेरिका से बेहतर है। क्यूबा में प्रति हजार शिशु मृत्यु दर महज सात है, जो अमेरिका से काफी बेहतर है। वहीं, हमारे देश में प्रति हजार शिशु मृत्युदर 46 है। दुनिया को चवन्नी-अठन्नी समझने वालों की सोच से इतर भी एक बेहतर दुनिया न सिर्फ मौजूद है, वरन इसे और बेहतर बनाने का ख्वाब भी जिंदा है।
विकास पथ पर बोलीविया
वर्तमान समय में विकसित देशों में आर्थिक असमानता का उच्चतम स्तर अमेरिका में है। वहां 2006 के बाद से गरीबी की दर में 23 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 40 साल पहले वहां 61 प्रतिशत मध्यवर्ग था, अब वह 50 प्रतिशत से भी काफी नीचे आ गया है, यह अवसान अभी जारी है। यही अमेरिका की सबसे बड़ी चिंता भी है। इससे इतर वैश्विक आर्थिक संकट के बीच बोलीविया ने 2011 की तुलना में 2012 में 6 प्रतिशत की आर्थिक वृद्धि दर्ज की। चिली, पेरू, पनामा व वेनुजुएला को अगर छोड़ दिया जाए, तो यह लैटिन अमेरिका में सबसे बेहतर स्थिति है। 2006 में ईवो मोराल के राष्ट्रपति बनने के बाद बोलीविया का जीडीपी तीन गुना जबकि प्रति व्यक्ति आय दोगुने से भी ज्यादा हो गई। आज वहां के सबसे धनी लोगों की आय, वहां के सबसे निर्धनतम 10 प्रतिशत लोगों की आय से महज 36 गुना अधिक है, जबकि यही 1997 में 96 गुना अधिक थी। संयुक्त राष्ट्र आर्थिक आयोग के प्रमुख एलिसिआ बासेर्ना भी मानते हैं, ‘बोलीविया ऐसे कुछ देशों में शामिल है, जहां आर्थिक असमानता में बेहद कमी आई है। गरीबों और अमीरों के बीच की खाई में काफी कमी आई है।’ विश्व बैंक भी बोलीविया को ‘निम्न मध्य आय वाला देश’ मानता है। यह इस बात का प्रमाण है कि वहां गरीबों और अमीरों के बीच आर्थिक असमानता के स्तर में ज्यादा अंतर नहीं है। बोलीविया संभवत: दुनिया का ऐसा एकमात्र देश है, वहां 2005 के बाद से न्यूनतम मजदूरी में 127 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। वहीं अमेरिका में वेतन वृद्धि की बात कौन करे, जिनके पास पहले रोजगार था, वे अब बेरोजगार हो गए हैं। रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पुअर ने भी पिछले साल अक्टूबर माह में बोलीविया को ‘बहुत ही शानदार आर्थिक प्रगति करने वाला देश’ कहा था। वोलीविया निजीकरण के खात्मे की ओर तेजी से बढ़ रहा है। जिस गति से वह इस दिशा में बढ़ रहा है, उसी रफ्तार से वहां गरीबी, बेरोजगारी आदि समस्याएं भी कम हो रही हैं।
जनसेवा में अव्वल वेनेजुएला
संयुक्त राष्ट्र संघ के काराकस सम्मेलन में 20 सितंबर 2006 को वेनेजुएला के तत्कालीन राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज ने भाषण दिया था। उनका इस भाषण को तीसरी दुनिया की जनता ने (जहां अमेरिका का दबदबा है) काफी पसंद किया। उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत करते हुए कहा, ‘शैतान कल यहां भी आया था। (हंसी और तालियां) कल शैतान यहीं था। ठीक इसी जगह। यह टेबुल जहां से मैं बोल रहा हूं, वहां अभी भी सल्फर की बदबू आ रही है। कल, बहनो, भाइयो, ठीक इसी सभागार में संयुक्त राज्य अमरीका का राष्ट्रपति जिसे मैं शैतान कह रहा हूं, आया था और ऐसे बोल रहा था, जैसे वह दुनिया का मालिक हो। कल उसने जो भाषण दिया था, उसे समझने के लिए हमें किसी मनोचिकित्सक की मदद लेनी पड़ेगी।’ फिदेल कास्त्रो की तरह ही ह्यूगो शावेज भी अमेरिकी साम्राज्यवाद के कट्टर विरोधी थे। शावेज ने राष्ट्रपति बनते ही, वेनेजुएला की प्रमुख तेल कंपनी ‘पेट्रोलिओस दि वेनेजुएला’ का राष्ट्रीयकरण किया, अमेरिकी और यूरोपीय तेल कंपनियों पर प्रतिबंध लगाया और वेनेजुएला की पूंजी को बाहर जाने से रोका। इसके बाद उन्होंने वेनेजुएला की गरीबी को दूर करने के लिए कमर कस ली। भ्रष्टाचार पर लगाम भी शावेज के सही समय में लग सकी। अगले दस साल में उन्होंने जनसेवा के लिए दी जाने वाली राशि को 61 प्रतिशत बढ़ाकर 772 बिलियन डॉलर कर दिया। अमीरों की अय्याशी पर पाबंदी लगा दी, नतीजतन 10 सालों में ही गरीब-अमीर की खाई में जबरदस्त कमी आई। गरीबी 71 प्रतिशत से 21 प्रतिशत, जबकि अत्यंत गरीबी, जो पहले 40 प्रतिशत थी वह 7.3 प्रतिशत हो गई। वहां लगभग सभी वृद्ध वृद्धा पेंशन पाते हैं। लगभग सभी को स्वच्छ पेयजल मिलता है। वेनेजुएला क्यूबा के बाद संभवत: अकेला ऐसा देश है, जहां स्कूलों में छात्रों की 85 प्रतिशत उपस्थिति रहती है। करीब एक करोड़ वेनेजुएला के छात्रों को विश्वविद्यालय में मुफ्त शिक्षा मिलती है। भारत वेनेजुएला से न सिर्फ बहुत बड़ा है, बल्कि जनसंख्या भी ज्यादा है, लेकिन यहां के विश्वविद्यालयों में छात्रों की संख्या वेनेजुएला से काफी कम है। वेनेजुएला में शिक्षा, चिकित्सा और भोजन की व्यवस्था मुफ्त है। वहां गरीबों को मुफ्त आवास भी उपलब्ध करवाया जाता है। कुल मिलाकर जनसेवा में वेनेजुएला से अमेरिका का कोई मुकाबला नहीं है।
मंदी में ही डूबा था इंग्लैंड का सूरज
1930 की मंदी के समय इंग्लैंड का समूची दुनिया पर राज था, लेकिन जब महामंदी आई तो उसके सामने इंग्लैंड समेत तमाम शोषणकारी साम्राज्य पानी भरते नजर आए। इसी के बाद दुनियाभर में जनता के मुक्ति संघर्षों में तेजी आई और एक-एक कर दुनिया के कई मुल्कों ने खुद को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद कर लिया। आज एक बार फिर से दुनिया के सामने मंदी का खतरा है। हां, आज दुनिया का सरगना अमेरिका है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद इस मुल्क ने खुद को दुनिया को लूटने की दौड़ में शामिल किया और एक समय आया, जब वह दुनिया का सबसे ताकतवर मुल्क बन गया। अब इतिहास ने एक बार फिर से करवट ली है। इस बार उसके निशाने पर अमेरिका है। कमोवेश दुनिया के हर तानाशाह को इतिहास के कोड़े खाने पड़े हैं, सो अमेरिका को भी खाने पड़ रहे हैं। लेकिन, जैसाकि कहा जाता है कि आज तक किसी भी तानाशाह ने अपनी गलतियों से सबक नहीं लिया, यह बात अमेरिका के ऊपर भी लागू होती है। बल्कि, सच कहा जाए तो आज जो स्थिति बन रही है, उसमें एक तरफ तो उसकी ऐंठ है, जो उसे अपनी गलती स्वीकार करने की इजाजत नहीं देती, दूसरी, अगर वह अपने गलती दुरुस्त करना चाहे भी, तो अब ऐसा कर पाना उसके वश में नहीं है।
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prernadayak lekh.
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