केपी सिंह
दलितों पर अत्याचारों का सिलसिला सदियों से चला आ रहा है। आज उनकी स्थिति में कुछ परिवर्तन तो हुए हैं, खासकर आजादी के बाद आरक्षण मिलने से दलितों के एक छोटे हिस्से में जागृति की लहर आई है। कुछ प्रतिरोध होना शुरू हुआ है, लेकिन जब भी दलितों ने अपने जमीन के हकों को लेकर आवाज उठाई उनका उत्पीड़न बहुत भयानक रूप से हुआ। कई घटनाओं में सैकडों की संख्या में दलितों को जिन्दा जला दिया गया।
इसके बावजूद आज भी जब गांव में काम करने वाले खेतिहर दलित मजदूर मजदूरी बढ़ाने की बात करते हैं, अपने अधिकारों के लिए संगठित होते हैं, यहां तक कि यदि कोई दलित मोटर साइकिल से ऊंची जाति वालों के घर के सामने से गुजरता है या गांव में दलित अपना घर ऊंचा बना लेता है, तो गांव की दबंग जातियों का क्रोध बढ़ जाता है और उनकी बेचैनी बढ़ जाती है।
पबनावा की हालिया घटना
सवर्णों के अंदर दबा गुस्सा मौका मिलते ही फूट पड़ता है। कई बार यही गुस्सा सामूहिक रूप धारण कर लेता है और फिर पूरे दक्खिन टोले को उसका दंड भुगतना पड़ता है। अभी पिछले दिनों 13 अप्रैल 2013 को हरियाणा राज्य के कैथल जिले के गांव पबनावा में एक दलित युवक के उच्च जाति की युवती से प्रेम विवाह कर लेने पर उच्च जाति के दबंगों ने पुलिस की मौजूदगी में दलितों की बस्ती पर हमला बोल दिया। पुलिस की मौजूदगी के बावजूद दबंगों के डर के कारण पबनावा गांव के 200 से ज्यादा परिवार गांव से पलायन कर चुके हैं।
हिंसा के लिए उकसाती है जातिगत चेतना
पिछले दिनों अंतजार्तीय विवाहों पर तरह-तरह से हमले ही नहीं हुए, बल्कि जातिगत चेतना को और गहरा करने की तमाम कोशिशें की गर्इं। अंतजार्तीय विवाह के समर्थन में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, ‘ऐसे विवाहों को पुलिस सुरक्षा दी जाए'। मगर ढाक के वही तीन-पात। पुलिस की चेतना भी तो अधिकांश मामले में जातिगत चेतना को ही उजागर करती है। जैसा कि हाल ही में उत्तरप्रदेश के अलीगढ़ में 18 अप्रैल की सुबह नवरात्र की अष्टमी को जहां कन्याओं को पूजने की तैयारी हो रही थी, वहीं एक दलित कन्या दरिंदगी का शिकार हो गई। इस घटना का विरोध करने वाले लोगों पर पुलिस नें लाठियां भांजकर अपनी बहादुरी दिखाई। उसे सुप्रीम कोर्ट के आदेश की जरा भी परवाह नहीं थी। यहां तक कि विलाप कर रही महिलाओं, बच्चों एवं बच्ची के मां-बाप को भी पुलिस ने लाठियों से पीटा। यह जातिगत चेतना है, जो जातीय हिंसा के लिए उकसाती है।
कानून को लागू करने का सवाल
सभी जानते है कि वर्ष 1955 में बने ‘प्रोटेक्शन आॅफ सिविल राइटस एक्ट’ की सीमाओं के मददेनजर नया कानून (अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम-1989) बनाया गया। इसमे कई अहम प्रावधान किए गए। इनमें से ज्यादा प्रावधान इतने कड़े हंै कि एक बार इनके तहत गिरफ्तारी होने पर जमानत भी नहीं हो पाती। लेकिन, विडंबना यह है कि इस कानून की मूल भावना के हिसाब से कभी इस पर अमल ही नहीं होने दिया गया।
शहरों में भी फैला है जाति का जहर
अगर हम वर्ष 2004-05 की अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति आयोग की वगीर्कृत रिपोर्टों को देखें तो स्पष्ट होता है कि जातिवाद का जहर गांवों में ही नहीं, शहरी इलाकों में भी घुला हुआ है। आंकडेÞ बताते हंै कि हर सप्ताह औसतन 11 दलितों की हत्या कर दी जाती है, जबकि 21 दलित महिलाए बलात्कार का शिकार होती हैं। अनुसूचित जाति के महज 30 प्रतिशत घरों में बिजली का कनेक्शन है, तो महज 9 प्रतिशत घरों में साफ-सफाई की व्यवस्था है।
आठवीं भी नहीं पढ़ पाते बच्चे
आधे से ज्यादा दलित परिवारों के बच्चे आठवीं कक्षा के पहले ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। अनुसूचित जाति के छात्रावासों में रहने वाले तमाम बच्चे आज भी नहीं जानते कि दूध का स्वाद कैसा होता है। अनुसूचित जाति की 40 प्रतिशत आबादी खेत मजदूरी में लगी है और उनके पास दो कट्ठा जमीन भी नहीं है। मुल्क की लगभग 20 करोड़ से अधिक आबादी के बहुलांश की आज भी दोयम दर्जे की स्थिति दुनिया के सबसे बडेÞ जनतंत्र में क्या संकेत देती है?
डॉ. अंबेडकर की चिंता
संविधान सभा की आखिरी बैठक में बैठक में बोलते हुए डॉ. अंबेडकर ने समय की इसी स्थिति की भविष्यवाणी की थी। उन्होंने कहा था कि ‘हम लोग अंतर्विरोधों की दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं। राजनीति में हम एक व्यक्ति-एक वोट को स्वीकार करेंगे, लेकिन हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन में हमारे मौजूदा सामाजिक आर्थिक ढांचे के चलते हम लोग इस सिद्धांत को हमेशा खारिज करेंगे। कितने दिनों तक हम अंतर्विरोधों का यह जीवन जी सकते हंै? कितने दिनों तक हम सामाजिक आर्थिक जीवन में बराबरी से इंकार करते रहेंगे?’ आज अंबेडकर का यह सवाल भारत में हर इंसाफ पसंद आदमी के सामने खड़ा है।
(लेखक सामाजिक विषयों के जानकार हैं)
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