दिल्ली: गाँति शांति प्रतिष्ठान,दिल्ली में मारूति सुजुकी इंडिया लिमिटेड में मज़दूर संघर्ष और उनके दमन पर जारी पीयूडीआर की रिपोर्ट 'शोषण का पहिया:मारूति सुजुकी इंडिया लिमिटेड में मज़दूर संघर्ष और अधिकारों का हनन (जून 2013)' पर 17 जून को एक सार्वजनिक बैठक आयोजित की गयी।
यह रिपोर्ट 'शोषण का पहिया:मारूति सुजुकी इंडिया लिमिटेड में मज़दूर संघर्ष और अधिकारों का हनन' मानेसर में स्थित मारूति यूनिट में 18 जुलाई 2012 को हुई हिंसा की घटना के बाद पीयूडीआर द्वारा की गई जाँच-पड़ताल का नतीजा है। इस घटना को हुए तकरीबन एक साल बीत चुका है, जिसमें एक एचआर मैनेजर की मौत हो गई थी और कुछ अन्य मैनेजर और मज़दूर घायल हो गए थे। बाद के महीनों में पुलिस ने इस घटना की काफी गलत तरीके से जाँच-पड़ताल करते हुए बड़ी संख्या में मजदूरों और उनके परिवारों के सदस्यों को प्र्रताड़ित किया। इस जाँच के कारण मजदूरों को गिरफ़्तार करके जेलों में बंद कर दिया गया और आज तक बहुत से मजदूरों को जमानत भी नहीं मिली है। पुलिस की जाँच के पूरा होने के पहले ही कंपनी ने सैकड़ों मजूदरों पर 18 जुलाई की घटना में शामिल होने का आरोप लगाते हुए उन्हें नौकरी से बर्खास्त कर दिया। पंजीकृत यूनियन को यूनिट के भीतर काम करने की इजाज़त नहीं दी गई है और यूनिट के बाहर पुलिस और राज्य के अधिकारियों द्वारा लगातर इसकी गतिविधियों को दबाया जा रहा है। इसी पृष्ठभूमि में हम इस घटना से जुड़े तथ्यों की व्यापक जाँच-पड़ताल करने के बाद, घटना और इसके गहरे संदर्भ और प्रभावों के बारे में यह रिपोर्ट जारी कर रहे हैं। इसके पहले पीयूडीआर ने मारूति में मजदूरों के संघर्ष के बारे में दो अन्य रिपोर्ट भी प्रकाशित किया था, जिनके शीर्षक थे: पूँजी का पहिया (2001) और बेकाबू सरमायादार (2007)। इन दोनों रिपोर्टो मारूति संघर्ष के महत्त्वपूर्ण घटनाक्रमों का विश्लेषण दर्ज किया गया है। इस रिपार्ट पर जाँच के दौरान हम मज़दूरों (ठेका, स्थाई और बर्खास्त), यूनियन के नेताओं और उनके वकील से मिले। हमने गुड़गाँव के श्रम विभाग के अधिकारियों और विभिन्न पुलिस अधिकारियां से भी बातचीत की। अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद हम प्रबंधन से नहीं मिल पाये।
पीयूडीआर की रिपोर्ट में दर्ज जांच के नतीजे इस प्रकार हैं:
1.स्वतंत्र जाँच का तमाशा
18 जुलाई 2012 को मारूति के मानेसर यूनिट में हुए घटनाक्रम के बारे मंे अभी बहुत ज्यादा भ्रम और विरोधभासक की स्थिति है। इस घटना के असल गुनाहगार तभी पकड़े जा सकते हैं, जब एक ऐसी एजंसी से जाँच कराई जाए जो प्रबंधन से प्रभावित न हो। हरियाणा पुलिस घटना के बाद से ही लगातार प्रबंधन के पक्ष में काम कर रही है। इसलिए इस काम के लिए उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। इस घटना के स्वतंत्र जाँच न होने के कारण न्याय की पूरी तरह उपेक्षा हुई है। पीयूडीआर इस बात पर ज़ोर देना चाहते हैं कि वैज्ञानिक आधार पर जुटाए गए प्रमाणों की बजाय पूर्व-निर्धारित अवधरणाओं के आधार पर जाँच और मुकदमा चलाने का अर्थ यह होगा कि अवनीश देव की हत्या के लिए जिम्मेदार लोग आराम से बच जाएँगे और निर्दोष लोगों का सजा मिलेगी। पुलिस द्वारा दायर आरोप-पत्र और गिरफ़्तार मजूदरों की ज़मानत नकारने से यह बात स्पष्ट होती है कि यह मुकदमा इसी दिशा में जा रहा है। यह असल में न्याय के साथ खिलवाड़ होगा और इससे मजूदरों और अवनीश देव- दोनों को ही न्याय नहीं मिलेगा।
2. मजदूरों को प्रताड़ित करने में प्रबंधन, प्रशासन और पुलिस की मिलीभगत
कानून के शासन की उपेक्षा करते हुए, जाँच के खत्म होने के बहुत पहले ही इस घटना की पूरी जिम्मेदारी मज़दूरों पर डाल दी गई। सिर्फ प्रबंधन ने ही घटना के लिए मजदूरों को जिम्मेदार नहीं ठहराया, बल्कि पुलिस और प्रशासन ने भी यही किया। 18 जुलाई की घटना के बाद पुलिस और प्रबंधन के गठजोड़ का पूरी तरह से पर्दाफाश हो गया। यह कोई संयोग नहीं हो सकता है कि पुलिस द्वारा 500-600 ‘अज्ञात आरोपियों’ के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज़ की गई और कंपनी द्वारा 546 मजदूरों को 18 जुलाई की हिंसक घटना के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए बर्खास्त कर दिया गया। इससे यह पता चलता है कि पुलिस कितने ध्यान से कपंनी के हितों की सुरक्षा कर रही है।
पुलिस ने पहले से ही यह सोच बना लिया कि दोषी कौन है, और घटना के बाद इसी सोच के आधार पर कार्यवाई की। पुलिस ने मनमाने तरीके से, बगैर किसी जाँच के सैकड़ों मज़दूरों को गिरफ़्तार कर लिया। उसने प्रबंधन द्वारा दी गई सूची के आधार पर यह गिरफ़्तारी की। प्रबंधन ने अपनी सूची में उन मजदूरों को निशाना बनाया, जो ज़्यादा मुखर थे और यूनियन में सक्रिय थे। गिरफ़्तार मजदूरों को क्रूर यातना दी गई। इसमंे हिरासत और गिरफ़्तारी से संबंधित सभी संवैधानिक मानकों का उल्लंघन किया गया और मजदूरांे के परिवार के सदस्यों को प्रताड़ित किया गया। सिर्फ़ इतना ही नहीं हुआ, बल्कि पुलिस लगातार मजदूरों को धमकी देती रही और बर्खास्त तथा अन्य मजूदरों के संघर्ष को निशाना बनाती रही है। पुलिस अपनी इन कार्रवाईयों द्वारा मजदूरों के वैध विरोध को खामोश करने और उसे जुर्म मंें बदलने की कोशिश की है (देखें अध्याय 4)। ऐसा लगता है कि इस मकसद से इतने बड़े पैमाने पर पुलिस ने कार्रवाई की ताकि भविष्य में ये मजदूर और मानेसर और गुड़गाँव इंडस्ट्रियल एरिया के दूसरे मजदूर आंदोलन करने की हिम्मत न जुटा पाएँ। हाल में, 18 मई 2013 को हरियाणा सरकार ने कैथल में सीआरपीसी की धारा 144 लगा दी और शांतिपूर्ण तरीक से विरोध कर रहे 150 मजदूरों को गिरफ़्तार कर लिया। ये मजदूर पिछले 24 मार्च से शांतिपूर्ण विरोध कर रहे थे और उनकी यह माँग थी कि गिरफ़्तार मजूदरों को रिहा किया जाए और बर्खास्त मजदूरों को फिर से काम पर बहाल किया जाए।
पुलिस के प्रबंधन के साथ मिलीभगत का एक अन्य उदाहरण यह है कि जाँच-पड़ताल के दौरान इसने प्रबंधन की लापरवाहियों की तरफ बिल्कुल ही ध्यान नहीं दिया। प्रबंधन ने कई तथ्यों को नज़रअंदाज़ किया -जैसे कि 18 जुलाई की हिंसक घटना में मजदूर भी घायल हुए थे, यूनिट के भीतर बाउंसर मौजूद थे, या फिर यह महŸवपूर्ण तथ्य कि मजदूर हमेशा कि अवनीश देव अपना हमदर्द मानते थें। असल में, मजदूर ही घटना के स्वतंत्र जाँच की माँग करते रहे हैं और राज्य तथा केन्द्र सरकार ने इस माँग की उपेक्षा की है।
3. मारूति में अनुचित श्रम व्यवहारों और मजदूरों के संघर्ष का इतिहास
इस घटना को इसके पहले हुई घटनाओं की लंबी श्रृंखला के संदर्भ में देखने की आवश्यकता है। मानेसर यूनिट के भीतर प्रबंधन और मजदूरों के बीच लगातार तनाव और टकराव की स्थिति रही है। मजदूर अपना यूनियन पंजीकृत कराने और काम की अमानवीय स्थितियों पर ध्यान दिलाने की भी लगातार संघर्ष करते रहे हैं। सितम्बर 2011 को मानेसर यूनिट में मारूति प्रबंधन ने यह शर्त रखी कि ‘अच्छे आचरण’ के एक शपथ पत्र (अंडरटेकिंग) पर हस्ताक्षर करने के बाद ही मजदूर प्लांट में काम करने के लिए आ सकते हैं। इस अंडरटेकिंग ने मजदूरों के कानूनी हड़ताल करने का अधिकार छीन लिया। इंडस्ट्रियल डिस्प्युट एक्ट (25टी, 25यू, पाँचवी अनुसूची से जोड़कर पढ़ने पर) से उन्हें इस अधिकार की गारंटी मिली है। इसका अर्थ यह भी है कि इंडस्ट्रियल डिस्प्युट ऐक्ट की पाँचवी अनुसूची के सेक्शन 8 के मुताबिक मजदूरों के साथ गलत बरताव हो रहा है (देखें अध्याय 3)।
अन्य कारपोरेटों की तरह ही मारूति ने भी उत्पादन लागत को घटाने और मुनाफ़े को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने तथा दूसरी कंपनियों से होड़ करने पर ज्यादा जोर दिया है। पर यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि लगभग अन्य सभी आटोमोबाइल कंपनियों की तुलना में मारूति अपने मजूदरों पर सबसे कम खर्च करती है। इसके अलावा, अपने मजदूरों से ज्यादा-से-ज्यादा काम लेने के लिए कंपनी ने कई तरीके भी ईजाद किए हैं। इसलिए मारूति में इसकी क्षमता से बहुत ज्यादा उत्पादन सामथ्र्य (प्रोडक्शन कैपेबिलिटी) और लक्ष्य तय किए जाते हैं। अर्थात् कंपनी की उत्पादन सामथ्र्य 15.5 लाख यूनिट प्रति वर्ष है, जबकि इसमें 12.6 लाख यूनिट प्रति वर्ष उत्पादन करने का सामथ्र्य ही है (एनुअल रिपोर्ट, मारूति सुजुकी इंडिया लिमिटेड, 2011-12)। यहाँ मजदूरों को रोबोट की तरह साढ़े आठ घंटे काम करना पड़ता है। उन्हें खाना खाने के लिए 30 मिनट का अवकाश मिलता है और चाय पीने के लिए दो बार 7-7 मिनट का अवकाश मिलता है। पिछले कई वर्षों से मजदूरों को अपना शिफ्ट शुरू होने के 15 मिनट पहले रिपोर्ट करना होता है और उन्हें हर रोज अपना शिफ्ट खत्म होने के 15 मिनट बाद भी काम करना होता है। इस काम के लिए उन्हंे कोई अतिरिक्त पैसा नहीं मिलता है। इसके अलावा, यह छुट्टी लेने का नियम भी काफ़ी सख्त है और इसका पूरा रेकार्ड वेतन से जुड़ा हुआ है। छुट्टी लेने पर मजदूरों के वेतन में कटौती होती है। इससे मारूति का काम लगातार चलता रहता है, लेकिन इससे मारूति के मजदूरों पर दबाव बहुत ज्यादा बढ़ गया है।
छुट्टी लेने के कारण वेतन में होने वाले कटौती मारूति मज़दूरों के वेतन के इंसेंटिव से जुड़े भाग से की जाती है, जो ‘प्रोडक्शन-परफार्मेंस-रिवार्ड स्कीम’ से जुड़ा हुआ है। एक स्थायी मजदूर द्वारा, अपने सुपरवाइजर की इजाजत से ली जाने वाली एकमात्र छुट्टी से भी उसे 1200 रूपये से 1500 रूपये तक का नुकसान हो सकता है। 18 जुलाई 2012 की घटना से पहले और उसके बाद भी वेतन का एक हिस्सा फ़िक्स रहा है और इंसेंटिव वेतन के रूप में दिया जाने वाला एक प्रमुख घटक उत्पादन, मुनाफा और छुट्टी के रेकार्ड से जुड़ा होता है, जिससे मजदूरों को हर महीने एक सी तनख्वाह नहीं मिलती, बल्कि उसमें अंतर होता है। इंसेंटिव से जुड़े वेतन के मानक मनमाने तरीके से तय किए गए और मारूति के मानेसर प्लांट के प्रबंधन ने इसमें मनमाने तरीके से बदलाव भी किया है (देखें अध्याय 2 और 3)।
मारूति प्रबंधन, ख़ास तौर पर मानेसर प्लांट के प्रबंधन ने नियमित काम के लिए भी अस्थायी और ठेका मजदूरों के उपयोग को एक नियम जैसा बना लिया है। श्रम विभाग के आँकड़ों के अनुसार जुलाई 2012 में मानेसर में 25 प्रतिशत से भी कम मजदूर स्थायी थे। इन मजदूरों को सिर्फ़ उसी दिन के लिए पैसा दिया जाता है, जिस दिन वे काम करते हैं (अर्थात् हर महीने 26 दिन) और उन्हें स्थायी मजदूरों जितना काम करने के बावजूद उनसे कम पैसा दिया जाता है। इससे सिर्फ़ कंपनी के खर्च में ही कटौती नहीं होती है, बल्कि इस नीति से कंपनी प्रबंधन को ऐसे मज़दूर मिल जाते हैं जो प्रबंधन के सामने बहुत कमजोर, अयुाक्षित और बेआवाज होते हैं। इस बात की बहुत कम संभावना होती है कि वे मुखर होकर अपने अधिकारों की माँग करेंगे। 18 जुलाई की घटना के बाद कंपनी ने यह घोषणा की कि वह अपने मजदूरों का नियमितिकरण (रेगुरलराइजेशन) करेगी। लेकिन अभी यह घोषणा लागू नहीं हुई है (देखें अध्याय 2)।
मारूति प्रबंधन ने मजदूरों को संगठित होने से भी रोकने की पुरजोर कोशिश की है और इस तरह उसने उनके अधिकारों का उल्लंघन किया है। मारूति प्रबंधन द्वारा मजदूरों को अपना यूनियन बनाने की इजाज़त न देना इंडियन ट्रेड यूनियन ऐक्ट (1926) का उल्लंघन है। 2011 के मध्य से मज़दूरों का संघर्ष बहुत ज्यादा बढ़ जाने से सक्रिय मज़दूरों को अपना निशाना बनाया है। उसने उन्हें निलंबित करने, बर्खास्त करने और उनके खिलाफ झूठे मुकदमे दायर करने की रणनीति अपनाई है। एक बार यूनियन के रजिस्टर हो जाने के बाद इसके सदस्यों और समन्वयकों को भी इसी तरह की या इससे भी बुरी प्रताड़ना का सामना करना पड़ा। यूनियन के सभी नेताओं और इसके सक्रिय सदस्यों को 18 जुलाई की घटना में फँसा दिया गया है इससे यूनियन पूरी तरह से ठप्प पड़ गया है। इससे मज़दूरों की स्थिति काफ़ी कमजोर हो गई है और उनके पास प्रबंधन से समझौता-वार्ता करने का कोई रास्ता नहीं बचा है। बाद में, जैसा कि उल्लेख किया जा चुका है, कंपनी ने बहुत से सक्रिय मजदूरों को नौकरी से निकाल दिया क्योंकि कंपनी इन्हें 18 जुलाई की घटना के लिए जिम्मेदार मानती है। यूनिट से यूनियन को ज़बर्दस्ती निकालने के बाद कंपनी अब मजदूरों के मुद्दों पर ध्यान देने का दिखावा कर रही है। इसके लिए इसने एक ‘शिकायत समिति’ (ग्रिवांस कमिटी) का गठन किया है और मजदूरों को इसका भाग बनने के लिए मजबूर किया है।कानूनी रूप से पंजीकृत यूनियन (एम.एस.डब्लू.यू) को, जिसके सदस्य लगातार मजदूरों के मुद्दों को उठा रहे हैं, यूनिट के भीतर काम करने की इजाजत नहीं दी गई है।
मजदूरों को यूनियन बनाने के अधिकार से वंचित रखने के लिए हरियाणा के श्रम विभाग ने प्रबंधन के मिलीभगत करके काम किया है। अगस्त 2011 में इसने मजदूरों के रजिस्ट्रेशन के आवेदन को तकनीकी आधारों का हवाला देकर लटका कर रखा। देखा जाए तो, मजदूरों द्वारा 3 जून 2011 को पंजीकरण के लिए दिए गए आवेदन पत्र के बाद उनको लगातार संघर्ष करना पड़ा और इसके कारण 1 मार्च 2012 को यूनियन का पंजीकरण हुआ। इसके अलावा, ऐसा लगता है कि श्रम विभाग ने कभी भी मारूति के श्रम संबंधी विवादों में मजदूरों की मदद के लिए हस्तक्षेप नहीं किया। जब 2011 के तालाबंदी को हड़ताल घोषित करते हुए प्रबंधन ने मजदूरों के वेतन में कटौती करने की घोषणा की थी, या फिर जब प्रबंधन ने मजदूरों की माँग-पत्र पर कार्रवाई नहीं की तो श्रम विभाग ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया। इसने प्रबंधन के दोहरे और गलत श्रम व्यवहारों पर या स्थायी कामों के लिए ठेका मजदूरों के उपयोग पर सवाल खड़े नहीं किए (देखें अध्याय तीन)।
मारूति के मानेसर यूनिट में मजूदरों द्वारा हाल में किए संघर्ष की एक प्रमुख विशेषता यह रही है कि इसमें स्थायी और ठेका मजदूरों के बीच अभूतपूर्व एकता रही है। संघर्ष की शुरूआत से ही ठेका मजदूरों का नियमितिकरण एक प्रमुख मुद्दा रहा है। एम.एस.डब्लू.यू. के बैनर तले फिर से संगठित हुए संघर्ष में शामिल मजदूरों में स्थायी और ठेका मजदूर दोनों ही हैं। 18 जुलाई की घटना के लिए दोषी ठहाराये गए और जेल में बंद मजदूरों में ठेका मजदूर भी शामिल हैं।
मारूति कंपनी या इसकी कार मारूति की कहानी को असाधारण नहीं बनाती है। असल में, प्रबंधन और पुलिस के क्रूर दमन और हर स्तर पर श्रम विभाग तथा न्यायपालिका द्वारा इन्हें राहत देने में नाकामी के बावजूद मजदूरों का असाधारण संघर्ष इसे एक असाधारण कहानी बनाती है। सबसे बड़ी बात यह है कि मजदूरों ने अपना यूनियन बनाने के राजनीतिक अधिकार के लिए लगातार लड़ाई लड़ी है। उन्होने अपने संघर्ष में यूनियन के भीतर लोकतांत्रिक संरचनाएँ बनाने पर भी ध्यान दिया है और इन संरचनाओं के माध्यम से इस अत्यंत शोषणकारी श्रम व्यवस्था के खिलाफ अपनी शिकायतें अभिव्यक्त करने का तरीका खोजा है।
पीयूडीआर माँग
उस घटना की एक निष्पक्ष और स्वतंत्र न्यायिक जाँच की जाए जिसके परिणाम स्वरूप अवनीश देव की जान गई। जाँच के लिए दोनों पक्षों की सहमति से जज की नियुक्ति हो।18 जुलाई की घटना के संबंध हरियाणा की पुलिस द्वारा की गई तहकीकात को न मान कर, फिर से तहकीकात के लिए एसआईटी नियुक्त की जाए, जिसमें राज्य के बाहर की पुलिस रखी जाए।18 जुलाई की घटना मंे वहाँ उपस्थित बांउसरों की भूमिका की जाँच की जाए और उनके नामों की सूची उजागर की जाए।गिरफ्तारियों, हिरासत में यातनाएं देने और अभियुक्तों के परिवारों को परेशान करने के संबंध में कानूनी दिशानिर्देशों के उल्लंघन के लिए ज़िम्मेदार हरियाणा पुलिसकर्मियों की पहचान की जाए और उनके खिलाफ आपराधिक कार्यवाही की जाए।
-घटना के बाद, घटना में शामिल होने के ठोस सबूतों के न होने पर भी काम से निकाले गए सभी मज़दूरों को काम पर वापस लिया जाए।श्रम विभाग की भूमिका की जाँच हो और उन अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही की जाए जिन्होंने श्रम कानूनों से संबंधित अपनी ज़िम्मेदारियाँ पूरी नहीं की हैं।
18 जुलाई की घटना के संबंध में गिरफ़्तार सभी मज़दूरों को तुरंत ज़मानत दी जाए। घटना की जाँच जल्दी पूरी की जाए और उसके लिए ज़िम्मेदार लोगों को न छोड़ा जाए।
-अपनी स्वतंत्र यूनियन बनाने के मज़ूदरों के अधिकार को मारूति में पुनःस्थापित किया जाए। एम.एस.डब्लू.यू को, जो कि मानेसर यूनिट की कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त यूनियन है, फैक्टरी के अंदर काम करने दिया जाए।
- मारूति की गुड़गाँव और मानेसर यूनिटों में काम कर रहे सभी ठेका मज़दूरों को नियमित किया जाए और नियमित काम के लिए ठेके पर मज़दूर रखे जाने की गैरकानूनी प्रथा पर रोक लगाई जाए।
-कानून में निहित मज़दूरों के अधिकारों को मारूति में तुरंत सुनिश्चित किया जाए।
डी. मंजीत
आशीष गुप्ता
सचिव, पीयूडीआर
यह रिपोर्ट 'शोषण का पहिया:मारूति सुजुकी इंडिया लिमिटेड में मज़दूर संघर्ष और अधिकारों का हनन' मानेसर में स्थित मारूति यूनिट में 18 जुलाई 2012 को हुई हिंसा की घटना के बाद पीयूडीआर द्वारा की गई जाँच-पड़ताल का नतीजा है। इस घटना को हुए तकरीबन एक साल बीत चुका है, जिसमें एक एचआर मैनेजर की मौत हो गई थी और कुछ अन्य मैनेजर और मज़दूर घायल हो गए थे। बाद के महीनों में पुलिस ने इस घटना की काफी गलत तरीके से जाँच-पड़ताल करते हुए बड़ी संख्या में मजदूरों और उनके परिवारों के सदस्यों को प्र्रताड़ित किया। इस जाँच के कारण मजदूरों को गिरफ़्तार करके जेलों में बंद कर दिया गया और आज तक बहुत से मजदूरों को जमानत भी नहीं मिली है। पुलिस की जाँच के पूरा होने के पहले ही कंपनी ने सैकड़ों मजूदरों पर 18 जुलाई की घटना में शामिल होने का आरोप लगाते हुए उन्हें नौकरी से बर्खास्त कर दिया। पंजीकृत यूनियन को यूनिट के भीतर काम करने की इजाज़त नहीं दी गई है और यूनिट के बाहर पुलिस और राज्य के अधिकारियों द्वारा लगातर इसकी गतिविधियों को दबाया जा रहा है। इसी पृष्ठभूमि में हम इस घटना से जुड़े तथ्यों की व्यापक जाँच-पड़ताल करने के बाद, घटना और इसके गहरे संदर्भ और प्रभावों के बारे में यह रिपोर्ट जारी कर रहे हैं। इसके पहले पीयूडीआर ने मारूति में मजदूरों के संघर्ष के बारे में दो अन्य रिपोर्ट भी प्रकाशित किया था, जिनके शीर्षक थे: पूँजी का पहिया (2001) और बेकाबू सरमायादार (2007)। इन दोनों रिपोर्टो मारूति संघर्ष के महत्त्वपूर्ण घटनाक्रमों का विश्लेषण दर्ज किया गया है। इस रिपार्ट पर जाँच के दौरान हम मज़दूरों (ठेका, स्थाई और बर्खास्त), यूनियन के नेताओं और उनके वकील से मिले। हमने गुड़गाँव के श्रम विभाग के अधिकारियों और विभिन्न पुलिस अधिकारियां से भी बातचीत की। अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद हम प्रबंधन से नहीं मिल पाये।
पीयूडीआर की रिपोर्ट में दर्ज जांच के नतीजे इस प्रकार हैं:
1.स्वतंत्र जाँच का तमाशा
18 जुलाई 2012 को मारूति के मानेसर यूनिट में हुए घटनाक्रम के बारे मंे अभी बहुत ज्यादा भ्रम और विरोधभासक की स्थिति है। इस घटना के असल गुनाहगार तभी पकड़े जा सकते हैं, जब एक ऐसी एजंसी से जाँच कराई जाए जो प्रबंधन से प्रभावित न हो। हरियाणा पुलिस घटना के बाद से ही लगातार प्रबंधन के पक्ष में काम कर रही है। इसलिए इस काम के लिए उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। इस घटना के स्वतंत्र जाँच न होने के कारण न्याय की पूरी तरह उपेक्षा हुई है। पीयूडीआर इस बात पर ज़ोर देना चाहते हैं कि वैज्ञानिक आधार पर जुटाए गए प्रमाणों की बजाय पूर्व-निर्धारित अवधरणाओं के आधार पर जाँच और मुकदमा चलाने का अर्थ यह होगा कि अवनीश देव की हत्या के लिए जिम्मेदार लोग आराम से बच जाएँगे और निर्दोष लोगों का सजा मिलेगी। पुलिस द्वारा दायर आरोप-पत्र और गिरफ़्तार मजूदरों की ज़मानत नकारने से यह बात स्पष्ट होती है कि यह मुकदमा इसी दिशा में जा रहा है। यह असल में न्याय के साथ खिलवाड़ होगा और इससे मजूदरों और अवनीश देव- दोनों को ही न्याय नहीं मिलेगा।
2. मजदूरों को प्रताड़ित करने में प्रबंधन, प्रशासन और पुलिस की मिलीभगत
कानून के शासन की उपेक्षा करते हुए, जाँच के खत्म होने के बहुत पहले ही इस घटना की पूरी जिम्मेदारी मज़दूरों पर डाल दी गई। सिर्फ प्रबंधन ने ही घटना के लिए मजदूरों को जिम्मेदार नहीं ठहराया, बल्कि पुलिस और प्रशासन ने भी यही किया। 18 जुलाई की घटना के बाद पुलिस और प्रबंधन के गठजोड़ का पूरी तरह से पर्दाफाश हो गया। यह कोई संयोग नहीं हो सकता है कि पुलिस द्वारा 500-600 ‘अज्ञात आरोपियों’ के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज़ की गई और कंपनी द्वारा 546 मजदूरों को 18 जुलाई की हिंसक घटना के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए बर्खास्त कर दिया गया। इससे यह पता चलता है कि पुलिस कितने ध्यान से कपंनी के हितों की सुरक्षा कर रही है।
पुलिस ने पहले से ही यह सोच बना लिया कि दोषी कौन है, और घटना के बाद इसी सोच के आधार पर कार्यवाई की। पुलिस ने मनमाने तरीके से, बगैर किसी जाँच के सैकड़ों मज़दूरों को गिरफ़्तार कर लिया। उसने प्रबंधन द्वारा दी गई सूची के आधार पर यह गिरफ़्तारी की। प्रबंधन ने अपनी सूची में उन मजदूरों को निशाना बनाया, जो ज़्यादा मुखर थे और यूनियन में सक्रिय थे। गिरफ़्तार मजदूरों को क्रूर यातना दी गई। इसमंे हिरासत और गिरफ़्तारी से संबंधित सभी संवैधानिक मानकों का उल्लंघन किया गया और मजदूरांे के परिवार के सदस्यों को प्रताड़ित किया गया। सिर्फ़ इतना ही नहीं हुआ, बल्कि पुलिस लगातार मजदूरों को धमकी देती रही और बर्खास्त तथा अन्य मजूदरों के संघर्ष को निशाना बनाती रही है। पुलिस अपनी इन कार्रवाईयों द्वारा मजदूरों के वैध विरोध को खामोश करने और उसे जुर्म मंें बदलने की कोशिश की है (देखें अध्याय 4)। ऐसा लगता है कि इस मकसद से इतने बड़े पैमाने पर पुलिस ने कार्रवाई की ताकि भविष्य में ये मजदूर और मानेसर और गुड़गाँव इंडस्ट्रियल एरिया के दूसरे मजदूर आंदोलन करने की हिम्मत न जुटा पाएँ। हाल में, 18 मई 2013 को हरियाणा सरकार ने कैथल में सीआरपीसी की धारा 144 लगा दी और शांतिपूर्ण तरीक से विरोध कर रहे 150 मजदूरों को गिरफ़्तार कर लिया। ये मजदूर पिछले 24 मार्च से शांतिपूर्ण विरोध कर रहे थे और उनकी यह माँग थी कि गिरफ़्तार मजूदरों को रिहा किया जाए और बर्खास्त मजदूरों को फिर से काम पर बहाल किया जाए।
पुलिस के प्रबंधन के साथ मिलीभगत का एक अन्य उदाहरण यह है कि जाँच-पड़ताल के दौरान इसने प्रबंधन की लापरवाहियों की तरफ बिल्कुल ही ध्यान नहीं दिया। प्रबंधन ने कई तथ्यों को नज़रअंदाज़ किया -जैसे कि 18 जुलाई की हिंसक घटना में मजदूर भी घायल हुए थे, यूनिट के भीतर बाउंसर मौजूद थे, या फिर यह महŸवपूर्ण तथ्य कि मजदूर हमेशा कि अवनीश देव अपना हमदर्द मानते थें। असल में, मजदूर ही घटना के स्वतंत्र जाँच की माँग करते रहे हैं और राज्य तथा केन्द्र सरकार ने इस माँग की उपेक्षा की है।
3. मारूति में अनुचित श्रम व्यवहारों और मजदूरों के संघर्ष का इतिहास
इस घटना को इसके पहले हुई घटनाओं की लंबी श्रृंखला के संदर्भ में देखने की आवश्यकता है। मानेसर यूनिट के भीतर प्रबंधन और मजदूरों के बीच लगातार तनाव और टकराव की स्थिति रही है। मजदूर अपना यूनियन पंजीकृत कराने और काम की अमानवीय स्थितियों पर ध्यान दिलाने की भी लगातार संघर्ष करते रहे हैं। सितम्बर 2011 को मानेसर यूनिट में मारूति प्रबंधन ने यह शर्त रखी कि ‘अच्छे आचरण’ के एक शपथ पत्र (अंडरटेकिंग) पर हस्ताक्षर करने के बाद ही मजदूर प्लांट में काम करने के लिए आ सकते हैं। इस अंडरटेकिंग ने मजदूरों के कानूनी हड़ताल करने का अधिकार छीन लिया। इंडस्ट्रियल डिस्प्युट एक्ट (25टी, 25यू, पाँचवी अनुसूची से जोड़कर पढ़ने पर) से उन्हें इस अधिकार की गारंटी मिली है। इसका अर्थ यह भी है कि इंडस्ट्रियल डिस्प्युट ऐक्ट की पाँचवी अनुसूची के सेक्शन 8 के मुताबिक मजदूरों के साथ गलत बरताव हो रहा है (देखें अध्याय 3)।
अन्य कारपोरेटों की तरह ही मारूति ने भी उत्पादन लागत को घटाने और मुनाफ़े को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने तथा दूसरी कंपनियों से होड़ करने पर ज्यादा जोर दिया है। पर यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि लगभग अन्य सभी आटोमोबाइल कंपनियों की तुलना में मारूति अपने मजूदरों पर सबसे कम खर्च करती है। इसके अलावा, अपने मजदूरों से ज्यादा-से-ज्यादा काम लेने के लिए कंपनी ने कई तरीके भी ईजाद किए हैं। इसलिए मारूति में इसकी क्षमता से बहुत ज्यादा उत्पादन सामथ्र्य (प्रोडक्शन कैपेबिलिटी) और लक्ष्य तय किए जाते हैं। अर्थात् कंपनी की उत्पादन सामथ्र्य 15.5 लाख यूनिट प्रति वर्ष है, जबकि इसमें 12.6 लाख यूनिट प्रति वर्ष उत्पादन करने का सामथ्र्य ही है (एनुअल रिपोर्ट, मारूति सुजुकी इंडिया लिमिटेड, 2011-12)। यहाँ मजदूरों को रोबोट की तरह साढ़े आठ घंटे काम करना पड़ता है। उन्हें खाना खाने के लिए 30 मिनट का अवकाश मिलता है और चाय पीने के लिए दो बार 7-7 मिनट का अवकाश मिलता है। पिछले कई वर्षों से मजदूरों को अपना शिफ्ट शुरू होने के 15 मिनट पहले रिपोर्ट करना होता है और उन्हें हर रोज अपना शिफ्ट खत्म होने के 15 मिनट बाद भी काम करना होता है। इस काम के लिए उन्हंे कोई अतिरिक्त पैसा नहीं मिलता है। इसके अलावा, यह छुट्टी लेने का नियम भी काफ़ी सख्त है और इसका पूरा रेकार्ड वेतन से जुड़ा हुआ है। छुट्टी लेने पर मजदूरों के वेतन में कटौती होती है। इससे मारूति का काम लगातार चलता रहता है, लेकिन इससे मारूति के मजदूरों पर दबाव बहुत ज्यादा बढ़ गया है।
छुट्टी लेने के कारण वेतन में होने वाले कटौती मारूति मज़दूरों के वेतन के इंसेंटिव से जुड़े भाग से की जाती है, जो ‘प्रोडक्शन-परफार्मेंस-रिवार्ड स्कीम’ से जुड़ा हुआ है। एक स्थायी मजदूर द्वारा, अपने सुपरवाइजर की इजाजत से ली जाने वाली एकमात्र छुट्टी से भी उसे 1200 रूपये से 1500 रूपये तक का नुकसान हो सकता है। 18 जुलाई 2012 की घटना से पहले और उसके बाद भी वेतन का एक हिस्सा फ़िक्स रहा है और इंसेंटिव वेतन के रूप में दिया जाने वाला एक प्रमुख घटक उत्पादन, मुनाफा और छुट्टी के रेकार्ड से जुड़ा होता है, जिससे मजदूरों को हर महीने एक सी तनख्वाह नहीं मिलती, बल्कि उसमें अंतर होता है। इंसेंटिव से जुड़े वेतन के मानक मनमाने तरीके से तय किए गए और मारूति के मानेसर प्लांट के प्रबंधन ने इसमें मनमाने तरीके से बदलाव भी किया है (देखें अध्याय 2 और 3)।
मारूति प्रबंधन, ख़ास तौर पर मानेसर प्लांट के प्रबंधन ने नियमित काम के लिए भी अस्थायी और ठेका मजदूरों के उपयोग को एक नियम जैसा बना लिया है। श्रम विभाग के आँकड़ों के अनुसार जुलाई 2012 में मानेसर में 25 प्रतिशत से भी कम मजदूर स्थायी थे। इन मजदूरों को सिर्फ़ उसी दिन के लिए पैसा दिया जाता है, जिस दिन वे काम करते हैं (अर्थात् हर महीने 26 दिन) और उन्हें स्थायी मजदूरों जितना काम करने के बावजूद उनसे कम पैसा दिया जाता है। इससे सिर्फ़ कंपनी के खर्च में ही कटौती नहीं होती है, बल्कि इस नीति से कंपनी प्रबंधन को ऐसे मज़दूर मिल जाते हैं जो प्रबंधन के सामने बहुत कमजोर, अयुाक्षित और बेआवाज होते हैं। इस बात की बहुत कम संभावना होती है कि वे मुखर होकर अपने अधिकारों की माँग करेंगे। 18 जुलाई की घटना के बाद कंपनी ने यह घोषणा की कि वह अपने मजदूरों का नियमितिकरण (रेगुरलराइजेशन) करेगी। लेकिन अभी यह घोषणा लागू नहीं हुई है (देखें अध्याय 2)।
मारूति प्रबंधन ने मजदूरों को संगठित होने से भी रोकने की पुरजोर कोशिश की है और इस तरह उसने उनके अधिकारों का उल्लंघन किया है। मारूति प्रबंधन द्वारा मजदूरों को अपना यूनियन बनाने की इजाज़त न देना इंडियन ट्रेड यूनियन ऐक्ट (1926) का उल्लंघन है। 2011 के मध्य से मज़दूरों का संघर्ष बहुत ज्यादा बढ़ जाने से सक्रिय मज़दूरों को अपना निशाना बनाया है। उसने उन्हें निलंबित करने, बर्खास्त करने और उनके खिलाफ झूठे मुकदमे दायर करने की रणनीति अपनाई है। एक बार यूनियन के रजिस्टर हो जाने के बाद इसके सदस्यों और समन्वयकों को भी इसी तरह की या इससे भी बुरी प्रताड़ना का सामना करना पड़ा। यूनियन के सभी नेताओं और इसके सक्रिय सदस्यों को 18 जुलाई की घटना में फँसा दिया गया है इससे यूनियन पूरी तरह से ठप्प पड़ गया है। इससे मज़दूरों की स्थिति काफ़ी कमजोर हो गई है और उनके पास प्रबंधन से समझौता-वार्ता करने का कोई रास्ता नहीं बचा है। बाद में, जैसा कि उल्लेख किया जा चुका है, कंपनी ने बहुत से सक्रिय मजदूरों को नौकरी से निकाल दिया क्योंकि कंपनी इन्हें 18 जुलाई की घटना के लिए जिम्मेदार मानती है। यूनिट से यूनियन को ज़बर्दस्ती निकालने के बाद कंपनी अब मजदूरों के मुद्दों पर ध्यान देने का दिखावा कर रही है। इसके लिए इसने एक ‘शिकायत समिति’ (ग्रिवांस कमिटी) का गठन किया है और मजदूरों को इसका भाग बनने के लिए मजबूर किया है।कानूनी रूप से पंजीकृत यूनियन (एम.एस.डब्लू.यू) को, जिसके सदस्य लगातार मजदूरों के मुद्दों को उठा रहे हैं, यूनिट के भीतर काम करने की इजाजत नहीं दी गई है।
मजदूरों को यूनियन बनाने के अधिकार से वंचित रखने के लिए हरियाणा के श्रम विभाग ने प्रबंधन के मिलीभगत करके काम किया है। अगस्त 2011 में इसने मजदूरों के रजिस्ट्रेशन के आवेदन को तकनीकी आधारों का हवाला देकर लटका कर रखा। देखा जाए तो, मजदूरों द्वारा 3 जून 2011 को पंजीकरण के लिए दिए गए आवेदन पत्र के बाद उनको लगातार संघर्ष करना पड़ा और इसके कारण 1 मार्च 2012 को यूनियन का पंजीकरण हुआ। इसके अलावा, ऐसा लगता है कि श्रम विभाग ने कभी भी मारूति के श्रम संबंधी विवादों में मजदूरों की मदद के लिए हस्तक्षेप नहीं किया। जब 2011 के तालाबंदी को हड़ताल घोषित करते हुए प्रबंधन ने मजदूरों के वेतन में कटौती करने की घोषणा की थी, या फिर जब प्रबंधन ने मजदूरों की माँग-पत्र पर कार्रवाई नहीं की तो श्रम विभाग ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया। इसने प्रबंधन के दोहरे और गलत श्रम व्यवहारों पर या स्थायी कामों के लिए ठेका मजदूरों के उपयोग पर सवाल खड़े नहीं किए (देखें अध्याय तीन)।
मारूति के मानेसर यूनिट में मजूदरों द्वारा हाल में किए संघर्ष की एक प्रमुख विशेषता यह रही है कि इसमें स्थायी और ठेका मजदूरों के बीच अभूतपूर्व एकता रही है। संघर्ष की शुरूआत से ही ठेका मजदूरों का नियमितिकरण एक प्रमुख मुद्दा रहा है। एम.एस.डब्लू.यू. के बैनर तले फिर से संगठित हुए संघर्ष में शामिल मजदूरों में स्थायी और ठेका मजदूर दोनों ही हैं। 18 जुलाई की घटना के लिए दोषी ठहाराये गए और जेल में बंद मजदूरों में ठेका मजदूर भी शामिल हैं।
मारूति कंपनी या इसकी कार मारूति की कहानी को असाधारण नहीं बनाती है। असल में, प्रबंधन और पुलिस के क्रूर दमन और हर स्तर पर श्रम विभाग तथा न्यायपालिका द्वारा इन्हें राहत देने में नाकामी के बावजूद मजदूरों का असाधारण संघर्ष इसे एक असाधारण कहानी बनाती है। सबसे बड़ी बात यह है कि मजदूरों ने अपना यूनियन बनाने के राजनीतिक अधिकार के लिए लगातार लड़ाई लड़ी है। उन्होने अपने संघर्ष में यूनियन के भीतर लोकतांत्रिक संरचनाएँ बनाने पर भी ध्यान दिया है और इन संरचनाओं के माध्यम से इस अत्यंत शोषणकारी श्रम व्यवस्था के खिलाफ अपनी शिकायतें अभिव्यक्त करने का तरीका खोजा है।
पीयूडीआर माँग
उस घटना की एक निष्पक्ष और स्वतंत्र न्यायिक जाँच की जाए जिसके परिणाम स्वरूप अवनीश देव की जान गई। जाँच के लिए दोनों पक्षों की सहमति से जज की नियुक्ति हो।18 जुलाई की घटना के संबंध हरियाणा की पुलिस द्वारा की गई तहकीकात को न मान कर, फिर से तहकीकात के लिए एसआईटी नियुक्त की जाए, जिसमें राज्य के बाहर की पुलिस रखी जाए।18 जुलाई की घटना मंे वहाँ उपस्थित बांउसरों की भूमिका की जाँच की जाए और उनके नामों की सूची उजागर की जाए।गिरफ्तारियों, हिरासत में यातनाएं देने और अभियुक्तों के परिवारों को परेशान करने के संबंध में कानूनी दिशानिर्देशों के उल्लंघन के लिए ज़िम्मेदार हरियाणा पुलिसकर्मियों की पहचान की जाए और उनके खिलाफ आपराधिक कार्यवाही की जाए।
-घटना के बाद, घटना में शामिल होने के ठोस सबूतों के न होने पर भी काम से निकाले गए सभी मज़दूरों को काम पर वापस लिया जाए।श्रम विभाग की भूमिका की जाँच हो और उन अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही की जाए जिन्होंने श्रम कानूनों से संबंधित अपनी ज़िम्मेदारियाँ पूरी नहीं की हैं।
18 जुलाई की घटना के संबंध में गिरफ़्तार सभी मज़दूरों को तुरंत ज़मानत दी जाए। घटना की जाँच जल्दी पूरी की जाए और उसके लिए ज़िम्मेदार लोगों को न छोड़ा जाए।
-अपनी स्वतंत्र यूनियन बनाने के मज़ूदरों के अधिकार को मारूति में पुनःस्थापित किया जाए। एम.एस.डब्लू.यू को, जो कि मानेसर यूनिट की कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त यूनियन है, फैक्टरी के अंदर काम करने दिया जाए।
- मारूति की गुड़गाँव और मानेसर यूनिटों में काम कर रहे सभी ठेका मज़दूरों को नियमित किया जाए और नियमित काम के लिए ठेके पर मज़दूर रखे जाने की गैरकानूनी प्रथा पर रोक लगाई जाए।
-कानून में निहित मज़दूरों के अधिकारों को मारूति में तुरंत सुनिश्चित किया जाए।
डी. मंजीत
आशीष गुप्ता
सचिव, पीयूडीआर
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