संदीप राउजी
24 नवम्बर 2012 को जब बांग्लादेश की राजधानी ढाका के बाहरी इलाके में ताजरीन फैशंस की
फैक्टरी में आग लगी और 112 मजदूर बेमौत मारे गए तो उस समय इसे बांग्लादेश के कपड़ा उद्योग के इतिहास की
सबसे भीषण दुर्घटना कहा गया। महज छह महीने के भीतर 24 अप्रैल 2013 को इससे भी भीषण दुर्घटना घटी, जिसे बांग्लादेश के ही नहीं बल्कि
दुनिया के वस्त्र उद्योग के इतिहास की सबसे भयावह दुर्घटना कहा जा रहा है। ढाका के
बाहरी क्षेत्र साभर में एक आठ मंजिली इमारत भरभराकर ढह गई और उसमें सैंकड़ों कपड़ा
मजदूर दब गए। अबतक 1,115 शव बरामद होने की पुष्टि हो चुकी है और 2500 लोगों को बचा लिया गया है। यह
संख्या 13 मई को बचाव कार्य की समाप्ति के औपचारिक घोषणा के समय की है, जबकि अभी भी बड़ी संख्या में लोग लापता बताये जा रहे हैं। इमारत की पांच
फैक्टरियों में लगभग 4000 मजदूर कार्यरत थे। इससे एक दिन पहले इमारत में दरार का पता चल चुका था और इसे
खाली कर देने का आदेश दिया जा चुका था। पहली मंजिल में स्थित दुकानों और एक निजी
बैंक ने ऐसा कर भी दिया था और बांग्लादेश गारमेण्ट मैनुफक्चरर्स एसोशियेशन ने
इमारत के पांचों फैक्टरी मालिकों से इन्हें बन्द कर देने का सुझाव दिया था।
मजदूरों से भी चले जाने को कहा गया था लेकिन 24 अप्रैल को मालिकों द्वारा उन्हें
पगार काट लेने और नौकरी से निकालने के धमकी देकर वापस बुला लिया गया। घटना को दो
हफ्ते से ज्यादा होने को हैं और अभी मलबे से आखिरी शव निकाला जाना बाकी है, इसी बीच बृहस्पतिवार को ढाका के ही उत्तरी इलाके में एक स्वेटर फैक्टरी तुंग
हाई में आग के कारण आठ लोग मारे गए। मरने
वालों में फैक्टरी का मालिक एवं बांग्लादेश गारमेंट मैन्युफैक्चरर्स एण्ड
एक्सपोर्टर एसोसिएशन के निदेशक मंडल का सदस्य, एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी और सत्ताधारी पार्टी का एक युवा नेता शामिल हैं।
24 अप्रैल की घटना पर बांग्लादेश के सूचना मंत्री हसनउल हक की तत्कालीन
प्रतिक्रिया थी, “मैं इसे दुर्घटना नहीं कहूंगा, यह कत्लेआम है।” लेकिन हक साहब इस कत्लेआम के लिए जिसे जिम्मेदार ठहराने की कोशिश कर रहे हैं
असल में वे प्यादे से ज्यादा कुछ नहीं हैं यानी बिल्डर, फैक्टरी मालिक, नगरपालिका अभियंता आदि। जो वह नहीं बताना चाह रहे हैं, वह है, इस त्रासदी के असली जिम्मेदार पश्चिमी वस्त्र विक्रेता कम्पनियों की
कारगुजारियां। इसीलिए इस बात पर ताज्जुब नहीं है कि इस त्रासद घटना के बाद अमेरिका
और यूरोप में उपभोक्ताओं के एक वर्ग ने उन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के खिलाफ विरोध
प्रदर्शन किया, जिनके कपड़े इन फैक्टरियों में बन रहे थे। काम की भयावह परिस्थितियों के कारण
तीसरी दुनिया में बनने वाले कपड़ों के बहिष्कार की पश्चिमी देशों में पहले से ही
आवाज उठ रही है। ध्यान देने वाली बात यह है कि उपरोक्त घटनाओं की शिकार कम्पनियों
में बने कपड़े यूरोप और अमेरिका के सुपर मार्केटों और उनकी शृंखलाओं में मशहूर
ब्राण्ड नामों से बिकते हैं। हालिया घटना में अमेरिकी खुदरा कम्पनियां चिल्ड्रेन्स
प्लेस एवं ड्रेस बार्न, ब्रिटेन की प्राइमार्क, स्पेन की मांगो,
इटली की बेनेटन, वालमार्ट और लोबलॉ आदि के ब्रांड नाम
से पांचों फैक्टरियों में वस्त्र तैयार किये जा रहे थे। कहना न होगा कि टके के भाव
से बने कपड़ों को ऊँचे मुनाफे में बेचने की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की हवस, दुनिया के इस कोने में एक ऐसे पूँजीवाद को अस्तित्वमान रखने में एक बड़ा कारक बन कर
उभरा है, जो उन देशों में सौ साल पहले विद्यमान था। इसी के चलते बांग्लादेश के मजदूर आज
दुनिया में सबसे कम वेतन पर और सबसे बुरी कार्य परिस्थितियों में काम करने को
मजबूर हैं।
इस दुर्घटना ने और ऐसी तमाम दुर्घटनाओं ने, जो निश्चित तौर पर मानव-निर्मित है, एक बार फिर इस बात को सामने ला दिया है कि गारमेण्ट एक्सपोर्ट के क्षेत्र में
किन अमानवीय परिस्थितियों में काम होता है और विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और
उनके स्थानीय एजेण्टों के मुनाफे की अन्धी दौड़ के सामने मजदूरों के जान की कीमत
कितनी कम है। यह बात सिर्फ बांग्लादेश के लिए ही सही नहीं है बल्कि भारत और तीसरी
दुनिया के अन्य गरीब मुल्कों के बारे में भी सही है जहाँ गारमेण्ट एक्सपोर्ट
उद्योग पश्चिमी देशों के उपभोक्ताओं के लिए प्रमुख आपूर्तिकर्ता बना हुआ है।
बांग्लादेश में कपड़ा उद्योग के मजदूरों की त्रासदियों की यह शृंखला, असल में, वैश्विक खुदरा उद्योग की सस्ते से सस्ता उत्पादन हासिल करने की चाहत का नतीजा
है। इसके अलावा अपने यहां मांग के आधार पर यूरोप और अमेरिका तीसरी दुनिया में वस्त्र
निर्माण का कोटा निर्धारित करते रहे हैं। निर्माण क्षेत्र में अग्रणी होने के
बावजूद चीन और भारत को बांग्लादेश से कम कोटा जारी होता रहा है। यही कारण है कि
बांग्लादेश में 1970 से पहले जो वस्त्र उद्योग परिदृश्य में ही नहीं था उसका व्यापार, वाणिज्य मंत्रालय के अनुसार, आज 15.6 अरब डॉलर तक पहुंच चुका है और देश
के कुल निर्यात में इसकी हिस्सेदारी 80 फीसदी हो गई है। बांग्लादेश के
वस्त्र निर्यात का 60 फीसदी यूरोप को, 23 फीसदी अमेरिका को आर 5 फीसदी कनाडा को जाता है। देश में मौजूद 5000 फैक्टरियों में करीब 35 लाख बांग्लादेशी मजदूर लगे हुए हैं जिनका बहुलांश महिलाएं हैं, जो सिर्फ जीवन-यापन भर की दिहाड़ी पर काम करती हैं।
भारत की कहानी भी बांग्लादेश से कुछ इतर नहीं है। भारत के राष्ट्रीय राजधानी
क्षेत्र (गुडगाँव व नोएडा),
पश्चिमी तमिलनाडु का तिरुपुर और कर्नाटक का बेंगलुरु देश के
कुल वस्त्र निर्यात में 60 फीसदी तक योगदान करते हैं। केंद्रीय कपड़ा मंत्रालय की एक रपट के मुताबिक
भारत के कपड़ा उद्योग का आकार 55 अरब डॉलर है। विश्व व्यापर संगठन के
अनुसार भारत दुनिया के तीसरे नंबर का कपड़ा निर्यातक देश है और रेडीमेड वस्त्र
निर्यात के मामले में छठे पायदान पर आता है (बांग्लादेश चौथे पायदान पर)। यहां भी
गारमेंट मजदूरों की स्थिति दयनीय है। इस उद्योग में लगी अधिकांश श्रम शक्ति
असंगठित है। घोषित-अघोषित तौर पर विशेष औद्योगिक क्षेत्र के दर्जा होने के चलते इन
इलाकों में उनके पास न कोई संगठन है न ही श्रम कानूनों का वजूद। आम तौर पर काम के
घण्टे 12 हो चले हैं और मजदूरी में मोलभाव का अधिकार बीते जमाने की बात हो गई है।
प्रशासन और फैक्टरी मालिकों की मिली भगत से अघोषित तौर पर यूनियन बनाने, चलाने पर पाबंदी लग चुकी है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की गारमेण्ट एक्सपोर्ट
की सैकड़ों छोटी बड़ी इकाइयों में काम की जिन परिस्थितियों से हम वाकिफ हैं वे
बांग्लादेश की इस ध्वस्त इमारत से निकल कर आ रही हृदय विदारक कहानियों से कुछ अलग
नहीं हैं।
वॉलमार्ट जैसी कम्पनियों का गंतव्य
बांग्लादेश जैसे छोटे और गरीब मुल्क, जहां सुरक्षा के नियम और आधारभूत
संरचनाएं तक ढंग की नहीं हैं, कैसे बने यह 19वीं शताब्दी के निर्मम पूँजीवादी तौर तरीकों से अर्जित व्यवसाय कौशल को
वर्तमान में तीसरी दुनिया के मुल्कों में लागू करने की एक षणयंत्रकारी कहानी है।
25 मार्च 1911 को अमेरिका के ट्रायंगल शर्टवेस्ट फैक्टरी में हुए एक अग्निकाण्ड में 146 मजदूर मारे गये थे। कम्पनी ने निकलने के रास्तों और सीढिय़ों को बन्द कर रखा
था जिससे कि मजदूर काम छोड़ कर बाहर न निकल सकें। जब आग लगी तो मजदूर उसमें फँस गए
और निकलने का एक मात्र रास्ता दसवीं मंजिल से मौत की छलांग लगाना था। इस घटना के
लगभग सौ साल बाद 24 नवंबर 2012 को बांग्लादेश में इसी तरह की आगजनी की घटना हूबहू उसी अंदाज में दोबारा घटित
हुई। इस फैक्टरी में भी वालमार्ट के एक ब्रांड के लिए वस्त्र तैयार हो रहा था। इस
घटना के बाद वालमार्ट के निदेशक मण्डल में एक प्रस्ताव लाया गया जिसमें
आपूर्तिकर्ताओं को सुरक्षा संबंधी मामलों पर वार्षिक रपट देने को बाध्य किया जाना
था। लेकिन यह प्रस्ताव गिर गया, जिसमें सिर्फ एक मत प्रस्ताव के पक्ष
में पड़ा था। इस प्रस्ताव के खिलाफ खड़े होने का कारण बताते हुए प्रबंधन ने दावा
किया कि आपूर्तिकर्ताओं से इस तरह की वार्षिक रपट देने को बाध्य करने का मतलब
अंतत: उत्पादन लागत में बढ़ोतरी का होना है। इससे न केवल इसके उपभोक्ताओं पर भार
पड़ेगा बल्कि इसका असर कम्पनी के शेयरधारकों पर भी होगा और बाकी कम्पनियों से होड़
में इसे नुकसान पहुंचेगा। शायद ऐसे तर्कों के आधार पर ही यूरोप की एक अग्रणी
फैक्टरी नियामक समूह बिजिनेस सोशल कम्लायंस ग्रुप के द्वारा राणा प्लाजा में चल
रही फैक्टरियों को सुरक्षा मानकों की जांच में क्लीन चिट दे दी गई थी। तुंग
हाई को भी इमारत के सुरक्षा मानकों से हरी
झण्डी मिली हुई थी। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की इन्हीं कारगुजारियों ने पिछले सात
वर्षों में बांग्लादेश की गारमेंट फैक्टरियों में आगजनी के कारण 700 (यदि ताजा जनहानि को शामिल किया जाए तो यह संख्या 1200 के पार पहुंचेगी) से अधिक मजदूरों को जिंदा जलकर मर जाने दिया। जाहिर है
दुनिया के एक कोने में सस्ती जिंदगियों का मोल बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए उनके
जींस या टीशर्ट पर कुछ टका ज्यादा खर्च करने से भी ज्यादा सस्ता है।
यह खेल बांग्लादेश में इतना आम हो चुका है कि इसमें षणयंत्र की तस्दीक, सामने आने वाली हर नई त्रासदी करती है। ताजा घटना में बिल्डर सोहेल राणा ने आठ
मंजिल की राणा प्लाजा नामक इमारत खींच दी थी, जबकि इजाजत सिर्फ पांच माले तक की
ही थी। मई 2010 में खुली ताजरीन फैशंस के मामले में भी ऐसा ही कुछ था। ठेका मिलते ही कम्पनी
ने 1,500 मजदूरों को काम पर रखा, बिना सुरक्षा के उपाय और कार्य की
परिस्थितियों के बारे में सोचे। जबतक सुरक्षा आदि की फिक्र आती तबतक दो साल के
अंदर उसका व्यापार सालाना साढ़े तीन करोड़ डॉलर के पार हो चुका था। तुंग हाई
ग्रुप की ही दो फैक्टरियों में 7,000 मजदूर काम करते हैं और हर महीने 60 लाख स्वेटर, टीशर्ट, पैंट, पायजामा बनाते हैं। यानी एक मजदूर एक दिन में औसतन 28 वस्त्रों को बनाता है। इस हिसाब से एक मजदूर एक वस्त्र 20 मिनट में तैयार करता है। उत्पादन की इतनी अमानवीय परिस्थिति ने मजदूरों का
जीवन नारकीय बना डाला है। पश्चिमी देशों से भारी मांग के चलते यहां एक ऐसी अंधी
दौड़ चल रही है जहां रातों रात कोई कम्पनी खड़ी कर दी जाती है, चंद दिनों में इमारत बन जाती है, मजदूर रख लिए जाते हैं, शिपमेंट की तारीख तय कर जाती है और समय पर आपूर्ति करने के लिए रातों दिन
मजदूरों को खटाया जाता है। जबतक कोई दुर्घटना घहराती है तबतक एजेंट पैसा बना चुकते
हैं, बहुराष्ट्रीय कम्पनियां मुनाफा निचोड़ चुकती हैं और स्थानीय प्रशासन के मत्थे
ठीकरा फोडक़र यह खेल फिर नए सिरे से शुरू हो जाता है।
हाल के दिनों में बांग्लादेशी वस्त्र उद्योग के मजदूर न्यूनतम वेतन में वृद्धि
और कार्य परिस्थितियों में बेहतरी की मांग कर रहे हैं और इसकी वजह से मजदूरों, फैक्टरी मालिकों और सरकार के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है। इन्हें सरकार द्वारा
निर्धारित न्यूतन वेतन 37 डॉलर प्रति माह या इससे कुछ ही ज्यादा मिलता है। इसीलिए यहां हर एक दुर्घटना
के बाद मजदूरों का गुस्सा फूट पड़ता है और हिंसक प्रदर्शन में तब्दील होता रहता
है। 26 अप्रैल को अमेरिका के मजदूर समूहों ने राणा प्लाजा के मलबे से पाए गए स्पैनिश
खुदरा कम्पनी के जे.सी. पेन्नी और एल कोर्टे इंग्लिश ब्रांडों के लेबल लगे
वस्त्रों की तस्वीरों को दिखाते हुए अमेरिकी खुदरा कम्पनियों पर सुरक्षा मानक में
सुधार करने की मांग की। इसके एक दिन पहले सैकड़ों मजदूरों ने सैन फ्रांसिस्को
स्थित गैप के मुख्यालय और रेंटन में स्थित वालमार्ट स्टोर के सामने प्रदर्शन किया।
अमेरिका और यूरोप के मजदूर समूहों एवं मनवाधिकार संगठनों ने मांग की है कि
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को 60 करोड़ डॉलर का एक कोष बनाना चाहिए जो
बांग्लादेश में फैक्टरी सुरक्षा उपायों पर पांच वर्ष के समयांतराल में खर्च हो।
इसके लिए उन्होंने सुझाव दिया है कि प्रतिवर्ष निर्यात होने वाले छ अरब वस्त्रों
पर कम्पनियों द्वारा प्रति वस्त्र 10 सेंट अतिरिक्त अदा कर ऐसे कोष की
स्थापना की जा सकती है। हालांकि इन कम्पनियों को यह भी मंजूर नहीं है। लेकिन क्या
यह समस्या का असली समाधान है, जबकि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के येन केन
प्रकारेण पैसा बनाने को नैतिक और वैध बना दिया गया हो?
19वीं शताब्दी में अधिशेष की उगाही और पूँजी संचय की धुरी पूर्वी यूरोप के
अप्रवासी और यहूदी मजदूर और औपनिवेशिक देशों के अप्रवासी मजदूर थे। 20वीं शताब्दी के मध्य तक दुनिया तस्वीर बदली, पश्चिमी पूँजीवादी
देशों में नियम कानून सख्त बन चुके थे और तीसरी दुनिया के तमाम देश आजाद हो गए थे।
फलस्वरूप अधिकाधिक पूँजी संचय का एकमात्र तरीका गरीब मुल्क के सस्ते मजदूरों के
श्रम की लूट बन गया। एशिया नया ठाँव बन गया। भूमंडलीकरण के बाद तो पूँजी सस्ते
श्रम की खोज में इस ग्रह के एक कोने से दूसरे कोने तक जाने के लिए पूरी तरह
स्वतंत्र हो गई। बांग्लादेश इसी खोज का नतीजा है। और यह मुमकिन है कि पूँजी का
अगला पड़ाव अफ्रीका के युद्ध से बेहाल गरीब मुल्क हों, जहां अभी प्राकृतिक संसाधनों की बड़े पैमाने पर लूट चल रही है। जब ये देश
बर्बाद हो जाएंगे, लोग दाने दाने को मोहताज हो जाएंगे, तारणहार बहुराष्ट्रीय कम्पनियां
उनके श्रम को निचोडऩे पहुंच जाएंगी और 'कत्लेआम' का यह सिलसिला आगे बढ़ जाएगा।