अमेरिकी भूख के लिए जलता खाड़ी का तेल
देवेन्द्र प्रताप
जबकि दुनिया के तमाम देशों की अर्थव्यवस्था एक दूसरे के साथ किसी न किसी रूप में जुड़ चुकी है ऐसे तेल संकट भी किसी देश विशेष के सन्दर्भ में कोई स्वतंत्र परिघटना नहीं रह गयी है। आज पूंजीवादी व्यवस्था का चरित्र पहले से कहीं ज्यादा वैश्विक हो गया है। दुनिया के अधिकांश देशों की अर्थव्यवस्था के एक दूसरे के साथ जुड़ाव ने उनके संकटों को भी साझा कर दिया है। 1930 की आर्थिक महामंदी के समय ऐसा सम्भव था कि कुछ देश महामंदी के प्रभाव से बच गये क्योंकि उस समय पूंजीवादी विकास का चरित्र इतना वैश्विक नहीं था। लेकिन आज यह बात सरासर गलत है। दरअसल, पंूजीवाद को फलते-फूलते रहने के लिए सतत मुनाफे के सो्रत के साथ ही उसका निवेश भी एक अनिवार्य शर्त है। इस शर्त को पूरा करने के लिए पूंजीवाद दुनिया के श्रम व प्राकृतिक संसाधनों का निरंतर और अपेक्षाकृत बड़े पैमाने पर दोहन करता है। पूंजीवाद की यही प्रवृत्ति एक तरफ उसका विस्तार भी करती है और दूसरी ओर उसे संतृप्तता की ओर भी ढकेलती है। आज अमेरिका पूरी दुनिया का चौधरी बन गया है। उसने विश्व के तेल के बाजार पर कब्जा करने के लिए अपनी पूरी मशीनरी को लगा रखा है। पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति पेट्रोल खपत अमरीका में ही है। वहां पहले, 1973 के पहले तेल संकट के समय 33 प्रतिशत तेल बाहर से आता था। अब 60 प्रतिशत आता है और अनुमान है कि 2020 तक वह 70 प्रतिशत तेल आयात करने लगेगा। दुनिया के संसाधनों पर अपने कब्जे के लिए अमरीका आर्थिक, व्यापारिक, कूटनीतिक और सैनिक सभी तरीकों का इस्तेमाल करता है। अभी कुछ दिनों पहले अमेरिकी तेल कम्पनियों द्वारा वहां के तेल के बाजार पर कब्जा करने के लिए भ्रष्ट कजाक अधिकारियों को 8.4 करोड़ रूपये घूस में देने का मसला चर्चा में आया था। इराक और अमेरिका में लोकतंत्र के नाम पर अमेरिका द्वारा किया गया कत्लेआम आज किसी से छुपा नहीं है। सिर्फ अफगानिस्तान में ही करीब 2 लाख से ज्यादा बच्चे अमेरिकी लोकतंत्र बहाली के नाटक की भेंट चढ़ गये।दरअसल, पूंजीवादी मुनाफे की भूख ने सारी मर्यादाओं को तोड़कर गरीब देशों के प्राकृतिक संसाधनों को हड़पने के नए-नए तरीके निकाले हैं, उन्हीं से यह संकट पैदा हुआ है। तेल का मौजूदा संकट और सट्टेबाजी के बीच रिस्तातेल के बाजार को पूरी तरह से सट्टेबाजों के हवाले कर दिया गया है। इस खेल में बड़ी तेल कंपनियों, बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के साथ-साथ तेल के कारोबारी भी शामिल हैं। इसे अमेरिकी सरकार के साथ-साथ ओपेक का भी आशीर्वाद मिला हुआ है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश की बड़ी बहुराष्ट्रीय तेल कंपनियों से सांठ-गांठ किसी से छिपी नहीं है। अमेरिकी उपभोक्ताओं को भले ही पेट्रोलियम उत्पादों की बढ़ी हुई कीमतों की मार झेलनी पड़ रही हो लेकिन बुश प्रशासन तेल कंपनियों, बैंकों- वित्तीय संस्थाओं और सट्टेबाजी पर रोक लगाने के बजाय भारत और चीन जैसे देशों को तेल पर सब्सिडी खत्म करने की हिदायत देने में जुटा हुआ है। दरअसल आज उपभोक्ता वस्तुओं के बाजार के साथ सट्टेबाजी इस हद तक गलबहिया हो गयी है कि उसकी सही तस्वीर के बारे मेें कुछ भी कह पाना मुश्किल है। बहरहाल तेल के मामले में इतना सभी जानते हैं कि तेल की कीमतों में उतार-चढ़ाव के पीछे अमेरिकी सट्टेबाज कम्पनियों का ही हाथ होता है। हमारे देश के नेतृत्व को अमेरिका के सामने समर्पण करने के बजाय अपना निर्णय स्वतंत्र तौर पर लेना चाहिए। हमारे देश के नेतृत्व को इराक, इरान जैसे अन्य देशों के साथ बेहतर सम्बन्ध बनाने चाहिए। अगर हम ऐसा करते हैं तो हमारी अमेरिका के ऊपर निर्भरता भी खत्म हो जाएगी। वैकल्पिक उर्जा का सवाल और अमेररिकी मंशा उर्जा के वैकल्पिक सो्रतों का इस्तेमाल कर बिजली उत्पादन समेत कई ऐसे बड़े काम किए जा सकते हैं जिससे मौजूदा ईंधन की समस्या और दिन ब दिन बढ़ती तेल कीमतों से काफी हद तक निपटा जा सकता है। ये ऊर्जा के पारंपरिक विकल्प के अलावा अलग से एक अच्छा विकल्प साबित हो सकते हैं। लेकिन अमेरिका क्यों चाहेगा कि खाड़ी का कोई मुल्क बाकी मुल्कों को ये वैकल्पिक ऊर्जा के नए रास्ते दिखाए। अगर ऐसा हो गया तो क्षेत्र में उनकी सदियों पुरानी दादागीरी का क्या होगा? इसके पीछे एक और वजह है। खाड़ी मुल्कों के तेल भंडारों में तकनीक पूरी तरह से पश्चिम की लगी है। लिहाजा ये देश काफी हद तक उसके कब्जे में है। परमाणु ऊर्जा की तकनीक पश्चिम से नहीं आई है। इसलिए इनका इस्तेमाल शुरू होने के बाद से इन देशों का दखल भी पूरे क्षेत्र में कम हो जाएगा। पश्चिम का दर्द इसलिए बढ़ता जाता है कि इसके विस्तार के साथ ही उन्हें अपना वर्षों से बनाया गया तेल साम्राज्य छिन्न-भिन्न होता नजर आने लगता है।बाजार पर कब्जा, वह भी किसी भी कीमत पर सारी दुनिया के ज्ञात प्राकृतिक तेल भंडारों का 60 प्रतिशत पश्चिम एशिया में मौजूद है; कि अकेले सउदी अरब में 20 प्रतिशत, बहरीन, कुवैत, ओमान, कतर और संयुक्त अरब अमीरात में मिलाकर 20 प्रतिशत, और इराक और ईरान में 10-10 प्रतिशत तेल भंडार हैं; कि ईरान के पास दुनिया की प्राकृतिक गैस का दूसरा सबसे बड़ा भंडार है; उसी तरह लगभग सारी दुनिया में अमेरिका के कारनामों से परिचित लोग इसे एक तथ्य की तरह स्वीकारते हैं कि अमेरिका की दिलचस्पी न लोकतंत्र में है और न ही किसी अन्य चीज में। उसकी दिलचस्पी सिर्फ अरब देशों के तेल के सो्रतों पर कब्जे में है। इसी मकसद को पूरा करने के लिए अमेरिका ने समूची दुनिया को युद्धक्षेत्र में तब्दील करने में लगा हुआ है। इरान से परमाणु हथियारों का खतरा तो अमेरिका का एक नाटक है दरअसल वह समूचे अरब क्षेत्र के तेल के भंडारों पर अपना कब्जा बनाए रखना चाहता है। इसीलिए उसने अपने इन देशों में अपने सैन्य अड्डे खोल रखे हैं।पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सउदी अरब और इराक में अमेरिकी फौजों की मौजूदगी ईरान के लिए लगातार बढ़ते खतरे का संकेत है। अमेरिका व नाटो के सैनिकों की इराक में 1 लाख 40 हजार की मौजूदगी है, जॉर्डन और इजरायल में विश्वसनीय फौजी बेस है, अफगानिस्तान में 21000 फौजी और भेजे जा चुके हैं जबकि अमेरिका के फौजी जनरल द्वारा 40000 सैनिकों को और भेजने की माँग की गयी है। फौज और हथियारों के जमावड़े के साथ-साथ अमेरिकी खुफिया एजेंसियाँ पहले से ईरान के भीतर के और पड़ोसी देशों के साथ के अंतद्र्वद्वों को ईरान में अस्थिरता बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करने का कोई मौका नहीं चूकेंगीं।
एक्सिस ऑफ इविल ?
अमेरिका ने शैतानियत की धुरी (एक्सिस ऑफ इविल) के तौर पर जिन देशों की पहचान की थी, उनमें से इराक को उसकी सारी बेगुनाही के सबूतों के बावजूद लाशों से पाट दिया गया। दूसरा है उत्तरी कोरिया, जिसने अमेरिकी मंशाओं को समझकर अपने आपको एक परमाणु ताकत बना लिया है। आकार और ताकत के मानकों से देखा जाए तो अमेरिका और उत्तरी कोरिया की तुलना शेर और बिल्ली के रूपक से की जा सकती है। लेकिन अब शेर को बिल्ली पर हाथ डालने से पहले कई बार सोचना पड़ेगा क्योंकि अब बिल्लीके पंजों में परमाण्विक ताकत वाले नाखून आ गये हैं। उत्तरी कोरिया से निपटने की रणनीति का ही हिस्सा है कि पहले बड़े दुश्मन से निपट लिया जाए। और वो बड़ा दुश्मन है ईरान। यह सच है कि इराक को जमींदोज करने के बावजूद अमेरिका अभी तक अपने मंसूबों में पूरी तरह कामयाब नहीं हो पाया है, लेकिन ये सच्चाई भी अपनी जगह बहुत अहम है कि इराक पर जंग के बहाने से अमेरिका ने पश्चिम एशिया में अपनी सैन्य मौजूदगी को कई गुना बढ़ा लिया है। पश्चिम एशिया का मौजूदा सूरतेहाल ये है कि इजराएल, कुवैत, जॉर्डन और सउदी अरब में पहले से ही अमेरिका परस्त सरकारें मौजूद थीं, लेबनान के प्रतिरोध को अमेरिकी शह पर इजराएल ने बारूद के गुबारों से ढाँप दिया है और सीरिया, ओमान, जॉर्जिया, यमन, जैसे छोटे देशों की कोई परवाह अमेरिका को है नहीं। संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन के पानी में अमेरिकी नौसेना का पाँचवाँ बेड़ा डेरा डाले हुए है। कतर ने इराक और अफगानिस्तान पर हमलों के दौर में अमेरिकी वायु सेना के लिए अपनी जमीन और आसमान मुहैया कराये ही थे। दरअसल इराक और फिलिस्तीन के भीतर अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ व्यापक विद्रोह को कुचलने के बाद अब ईरान ही अहम देश है जहाँ से अमेरिकी वर्चस्ववाद के विरोध को जनता के साथ-साथ किसी हद तक राज्य का भी समर्थन हासिल है। इरान ने अपने ऊपर लगाए प्रतिबंधों को कूड़ेदान के हवाले कियातेहरान। ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने यूरेनियम संवर्धन के मसले पर संयुक्त राष्ट्र द्वारा लगाए गए नए प्रतिबंधों को मानने से इंकार कर दिया है। उन्होंने अमेरिका समेत अन्य पश्चिमी देशों को तमाचा जड़ते हुए कहा है कि इरान इन नए प्रतिबंधों को नहीं मानता। यह उसके परमाणु कार्यक्रम पर लगाम लगाने जैसा है और उसने उन्हें कूड़ेदान में डाल दिया है। उधर, पश्चिमी देशों का कहना है कि परमाणु मुद्दे पर ईरान के साथ बातचीत के दरवाजे खुले हुए हैं। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में बुधवार को अमेरिका द्वारा तैयार प्रस्ताव 12 मतों से स्वीकार कर लिया गया। लेबनान ने मतदान में भाग नहीं लिया जबकि ब्राजील और तुर्की ने मतदान का विरोध किया।तेल उपभोग करने वाले देशों कादेश प्रतिशतयूनाइटेड स्टेट्स 30चीन 11जापान 7.3रूस 4.1भारत 3.9जर्मनी 3.6ब्राजील 3.5कनाडा 3.4सउदी अरब 3.3साउथ कोरिया 3.2मेक्सिको 3.1फ्रांस 2.8युनाइटेड किंगडम 2.6इटली 2.5इरान 2.4स्पेन 2.3तेल उत्पादन करने वाले देशों का व्यौरादेश प्रतिशतसउदी अरब 12.1रूस 11.6यू एस ए 10.0इरान 4.8चीन 4.4कनाडा 4.0यूएई 3.5वेनेजुएला 3.1कुवैत 3.1नार्वे 3.0नाइजीरिया 2.8ब्राजील 2.7अल्जीरिया 2.6इराक 2.5अंगोला 2.3लीबिया 2.2युनाइटेड किंगडम 2.0कजाकिस्तान 1.7कतर 1.3अजरबैजान 1.3
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