शनिवार, 27 अप्रैल 2013

दिमाग पर हावी बुद्धू बक्सा

टेलीविजन पर घूमती-फिरती छवियां ज्यादा असरदार होती हैं। ये लोगों को ज्यादा चिंतन-मनन का मौका नहीं देतीं। जिंदगी के किसी यथार्थ चित्र की तरह ये दृश्य हमारे दिमाग में ज्यों के त्यों रच-बस जाते हैं, भले ही वे पूरी तरह काल्पनिक ही क्यों न हों। श्रव्य-दृश्य माध्यम की यही ताकत है। वरना, हम अपने हमदर्द मित्रों से भी ज्यादा चलचित्र की दुनिया के  इन नायक-नायिकाओं को अपना करीबी कैसे मान लेते। ऐसे जबरदस्ती के नायक जो किसी कठिन घड़ी में हमारी मदद नहीं करते, उनसे हमारी कभी बातचीत नहीं होती, मुलाकात का तो सवाल ही नहीं, लेकिन हम उनके फैन बन जाते हैं? बाजार में मौजूद दिग्गज कंपनियां इसका फायदा उठाती हैं और इनके माध्यम से उपभोक्ताओं तक अपनी पहुंच बनाती हैं।
                                                             विक्रम प्रताप
टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रम साहित्य या संगीत की तरह अमूर्त और गंभीर नहीं होते। मूर्त रूप में दिखने वाली घूमती-फिरती छवियां ज्यादा असरदार होती हैं। इन्हें देखकर लोग चिंतन-मनन नहीं करते। जिंदगी के किसी यथार्थ चित्र की तरह ये दृश्य हमारे दिमाग में ज्यों के त्यों रच-बस जाते हैं, भले ही वे पूरी तरह काल्पनिक ही क्यों न हों। श्रव्य-दृश्य माध्यम की यही ताकत है। वरना हम अपने हमदर्द मित्रों से भी ज्यादा कैटरीना कैफ और शाहिद कपूर जैसे नायक-नायिकाओं को अपना करीबी कैसे मान लेते, जिनसे पूरी जिंदगी में न हमारी कभी कोई बातचीत हुई होती है, न मुलाकात और न ही किसी कठिन घड़ी में हमें उनका कोई सहयोग मिला होता है। फिर कैसे वे हमारी जिन्दगी के नायक-नायिका हो जाते हैं और क्यों हम उनके फैन हो जाते हैं? सच तो यह है कि टीवी के माध्यम से उनकी छवि चाहे-अनचाहे हमारे दिमाग में घुसेड़ दी जाती है। बाजार में मौजूद दिग्गज कंपनियां इसका फायदा उठाती हैं और इन्हें बाजार में अपना माल बेचने के लिए इस्तेमाल करती हैं। कार्यक्रम निर्माता इस मायाजाल के नकारात्मक पहलुओं का आभास भी नहीं होने देते। सब कुछ सहज और सामान्य लगे, यही उनकी कलाकारी है।
खड़ी हो रही ‘पप्पुओं’ की फौज
कुछ टीवी चैनल बच्चों को लक्ष्य करके फिल्में, कार्टून और विज्ञापन प्रसारित करते हैं। इन कार्यक्रमों के नायक बच्चों की चेतना कंपनियों के मुताबिक मनचाहे सांचे में ढालते हैं, नतीजतन बच्चे असली दुनिया से कट जाते हैं। इस तरह कम उम्र में जबकि वे प्रकृति और जिंदगी के रहस्य को अपने निजी अनुभव से जानते-समझते हैं, अपने हम उम्र बच्चों के साथ खेलकूद और लड़ाई झगड़े से दोस्ती-दुश्मनी के मायने समझते हैं, कठिन परिश्रम करने से उनके मन में श्रम की गरिमा स्थापित होती है, तो टीवी का कमाल देखिए कि उनका बचपन हैरी पार्टर और कार्टूनों की नकली दुनिया में गुम हो जाता है। बड़े होने पर ऐसे ‘पप्पुओं’ को सामान्य व्यवहारिक ज्ञान न होने के चलते उन्हें हर जगह हंसी का पात्र बनना पड़ता है।
माता-पिता भी हैं दोषी
बच्चों को इस नरक की ओर धकेलने में उनके मां-बाप का भी हाथ होता है, जो सोचते हैं, ‘बच्चा जितनी देर टीवी देखेगा, उतनी देर शैतानी नहीं करेगा।’ यही सोचकर वे चैन की सांस लेते हैं। वे यह नहीं समझ पाते कि शैतानी करके ही बच्चा सीखता है। सामान उठाने और फेंकने से ही उसे हल्की और भारी चीजों के अंतर पता चलता है। दीवार पर आड़ी-तिरझी रेखाएं खींचने पर चित्र और पृष्ठभूमि के अंतरसंबंधों की उसकी समझ साफ होती है। ऐसी न जाने कितनी शरारतें बच्चों को जिन्दगी की सीख देने वाले छोटे-छोटे प्रयोग होते हैं, जिससे वह प्रत्यक्ष ज्ञान हासिल करता है। इससे काटकर बच्चे को टीवी के सामने झोंककर उनसे राहत पाना आसान भले ही है, लेकिन इससे बच्चे का व्यक्तित्व कुंठित हो जाता है और उसकी जिंदगी नरक हो जाती है। बाल मनोविज्ञान की इन बुनियादी बातों को अच्छी तरह जानते हुए भी अपना माल बेचने के लिए कंपनियां बच्चों को अपना शिकार बनाती हैं। अबोध बच्चों के प्रति इस आपराधिक कुकृत्य में चाहे अनचाहे उनके अभिभावक भी शामिल होते हैं।
तू हां कर या ना कर...
टेलीविजन और अन्य दृश्य-श्रव्य माध्यमों के द्वारा परोसी जाने वाली उपभोक्तावादी संस्कृति हर किसी को अपनी जद में ले लेती है। यह उपभोक्ता को गलत-सही का निर्णय करने का अवसर नहीं देती। जैसे एक विज्ञापन में आपने देखा होगा कि खेलते समय प्यास लगने पर खिलाड़ी कोल्ड ड्रिंक की तरफ लपकते हैं। इसे प्यास बुझाने के सर्वश्रेष्ठ साधनों के रूप में दिखाया जाता है। लेकिन, कोल्ड ड्रिंक में कितना कीटनाशक मिला हुआ है और वह कितना हानिकारक है, इसके बारे में जानकारी देना कंपनियां अपनी नैतिक जिम्मेदारी नहीं समझतीं। वे विज्ञापन पर होने वाले खर्च का पाई-पाई वसूल लेना चाहती हंै। वे लोगों को अपनी शर्तों पर सामान खरीदने के लिए तैयार करती हंै और उनके सामने केवल दो ही विकल्प छोड़ती है, वे हां करें या इंकार। कोई तीसरा विकल्प नहीं होता। दिन में सैकड़ों बार हमें अलग-अलग सामानों के लिए अपनी राय देनी होती है कि हम फलां माल खरीदना चाहते हैं या नहीं।
‘बिना श्रम के कुछ भी हासिल करना चोरी है’
टेलीविजन पर आने वाले कई घटिया किस्म के कार्यक्रमों और मीठे जहर भरे विज्ञापनों का एक और खतरनाक पहलू श्रम की गरिमा का नाश करके हमारी नई पीढ़ी को पथभ्रष्ट करना है। यह तीन-तिकड़म, चोरी और सीनाजोरी के जरिए अपनी मनपसंद चीजें हासिल करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है। समझदार मां-बाप बच्चों में शुरू से मेहनत के प्रति लगाव पैदा करने की कोशिश करते हैं। बच्चों को कपड़े और घर की सफाई करना सिखाते हैं। वे बताते हैं कि बिना श्रम के कुछ भी हासिल करना चोरी है। हमें कठिन परिश्रम से नहीं घबराना चाहिए। लेकिन टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले कई कार्यक्रम और कंपनियों के विज्ञापन ऐसे सकारात्मक मूल्यों को रौंदने का काम कर रहे हैं। वे उपभोक्ता वस्तुओं के प्रति लोगों की भूख बढ़ाते हैं। अक्सर वे उसे हासिल करने का सही तरीका नहीं बताते और कभी-कभी तो वे उन तरीकों को बढ़ावा देते हैं, जो इंसान को गलत रास्ते की ओर ले जाते हैं, जैसे- रात में दुकानें बंद हैं, उसी समय हमारे कलाकार को प्यास लगती है और वह दुकान का शटर तोड़कर किसी खास ब्रांड की कोल्ड ड्रिंक से अपनी प्यास बुझा लेता है। चलचित्र के ये नायक लोगों के मन में माल के प्रति ऊंची जगह बना देते हैं। वे इन मालों को पाने के लिए लोगों के अंदर से सभी इंसानी रिश्तों के बंधन तोड़ने की सीख देते हैं। ये नए युग के देवता हैं। कई धार्मिक सीरियलों में भक्ति की जगह चोरी, घूस, दहेज आदि बुराइयों का पाठ पढ़ाया जाता है। परिचित लोगों को धोखा देकर संपत्ति हासिल करने की सीख दी जाती है और इस तरह हासिल की गई संपत्ति से अपने पुरातन देवताओं को खुश करने के लिए लडडू चढ़ाए जाते हैं, दान-धर्म का काम किया जाता है। मनोरंजन के नाम पर परोसे जाने वाले ऐसे कार्यक्रमों में अपराध और धर्म दोनों साथ-साथ उन्नति करते हैं।
समोसा पिछड़ी संस्कृति का प्रतीक कैसे है भैया?
ऊपर से थोपी जाने वाली उपभोक्तावादी संस्कृति का ही नतीजा है कि आज पिज्जा को श्रेष्ठ संस्कृति का प्रतीक बना दिया गया है और समोसे को पिछड़ी संस्कृति का। हमारे देश में शिक्षित और संपन्न तबके के लोगों में खासकर इस विदेशी संस्कृति के प्रति अंधानुकरण की भावना पैदा हुई है। इन उपभोक्ता वस्तुओं को लेकिर उनके अंदर एक किस्म का मिथ्याबोध पैदा हुआ है। यही वजह है कि किसी खास ब्रांड का टीवी, फ्रिज, कूलर और कार रखने वाला इंसान अपने को श्रेष्ठ समझता है, चाहे वह भ्रष्टाचारी और नैतिक रूप से पतित ही क्यों न हो। वहीं दूसरी ओर नैतिक और सदाचारी व्यक्ति अगर गरीब है, तो उसकी समाज मे कोई हैसियत नहीं। माल अंधभक्ति की यह संस्कृति हैसियत और सम्मान पाने के लिए किसी आदमी को नैतिकता और ईमानदारी की कसौटी पर नहीं कसती। उसके लिए ‘बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया’है।
जितने दर्शक उतनी बिक्री
सास-बहू के किस्से पर आधारित धारावाहिक, जासूसी नाटक, राजनीतिक उठापटक, खेल समाचार, रियलटी शो और धार्मिक कार्यक्रमों के जरिए टीवी के सामने भीड़ जुटाई जाती है और दर्शकों की उस जमात को विज्ञापन कंपनियों के हाथों बेच दिया जाता है। जितने अधिक दर्शक, उतना महंगा विज्ञापन। यही उनकी मोटी कमाई का जरिया है। लेकिन, ऐसा नहीं कि टीवी का हर दर्शक विज्ञापन देखकर तुरंत उसके प्रभाव में आ जाता है और न ही विज्ञापन उन्हें बाध्य करता है कि वे तुरंत विज्ञापित माल खरीदने दौड़ पड़ें। फिर भी, करोड़ों दर्शकों में से अगर सिर्फ 1 या 2 प्रतिशत लोग भी उनके द्वारा विज्ञापित माल खरीदें, तो यह संख्या लाखों में होती है और इस तरह उनका उददेश्य पूरा हो जाता है। एक ही विज्ञापन को बार-बार प्रदर्शित करने से उससे प्रभावित होने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जाती है और बार-बार देखने पर वह दर्शकों के अवचेतन में बस जाती है। वे दुकान पर जाते ही किसी खास ब्रांड का सामान मांगते हैं। कंपनियां यूं ही इन पर अरबों रुपये पानी की तरह नहीं बहा रही हैं। हमारे पसंदीदा कलाकार जिन उत्पादों पर खुद विश्वास नहीं करते और अपने जीवन में एक बार भी इस्तेमाल नहीं करते, उन्हीं सामानों का चंद खनकते सिक्कों के लोभ में झूठ बोलकर हमारे सामने प्रचार करते हैं। मजेदार बात यह कि ये लोग ही हमारे आदर्श या नायक भी बन जाते हैं।
हिंसा का पाठ
एक अध्ययन के अनुसार अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के दौरान अमरीका में एक बच्चा टीवी पर औसतन 8000 हत्याएं देखता है और 18 साल की उम्र तक वह दो लाख हिंसक घटनाओं का चश्मदीद होता है। टीवी के 69 प्रतिशत कार्यक्रम हिंसक होते हैं। बच्चे इन हिंसक दृश्यों के इतने आदी हो जाते हैं कि जघन्यता के प्रति उनका बोध और संवेदना बहुत ही कम हो जाती है। अमेरिका में बच्चों द्वारा जरा सी बात पर अपने प्रियजनों और सहपाठियों की हत्या कर देने की घटनाओं में बाढ़ सी आ गई है। अगर टीवी पर दिखाई जाने वाली हिंसा इसी तरह बनी रही तो क्या अमेरिकी समाज इस मानसिक रुग्णता से उबर पाएगा?
समोसे से हार जाएगा पिज्जा?
हमारे देश में समोसा, कचौरी, दही-बड़ा, इडली, डोसा, जलेबी और लजीज खानों की अनगिनत किस्में है। लेकिन, आजकल भांति-भांति के और मूलत: महिलाओं को ध्यान में रखकर बनाए जाने वाले कार्यक्रमों और कई तरह के विज्ञापनों के जरिए पिज्जा जैसे खाद्य पदार्थों को एक स्टेटस सिंबल की तरह और सबसे उम्दा खाद्य के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है। वे यह जानते हैं कि बिना किसी प्रचार के आज भी हमारे यहां का समोसा और अन्य विविधतापूर्ण खाद्य पदार्थों के सामने पिज्जा कहीं नहीं ठहरने वाला। इसीलिए कंपनियां अपने माल की बिक्री के लिए जनमानस तैयार करती हैं।
डियोड्रेंट बेचने के लिए स्त्रियों की गरिमा से खिलवाड़
पुरुष द्वारा डियोड्रेंट छिड़कने पर अर्द्धनग्न लड़कियां उसकी ओर खिंचती चली आती हैं। ऐसे कामुक विज्ञापनों के जरिए औरत की गरिमा को रौंदा जा रहा है। यह व्यवस्था सेक्स के प्रति बहसी और पाशविक रवैया अपनाने वाले लंपटों की जमात पैदा कर रही है। ऐसे नौजवान ही पूंजी के हाथ की कठपुतली बन सकते हैं, जो किसी स्त्री को इंसान समझने के बजाय उपभोग की वस्तु समझने लगे हैं। सांस्कृतिक  पतन को लेकर हाय तौबा मचाने वालों की तलवारें इस पतन के लिए जिम्मेदार पूंजी के खिलाफ क्यों नहीं उठती। वे यह देखने से क्यों इंकार कर देते हैं कि अंधउपभोक्तावादी पश्चिमी संस्कृति और कुछ नहीं, पूंजी की संस्कृति है। यह तर्क दिया जाता है कि गंदे कार्यक्रमों और विज्ञापनों को देखते हुए भी इनकी बुराइयों से बचा जा सकता है। इसका मतलब तो यह हुआ कि जहर खाने के बावजूद उसके प्रभाव से बचा जा सकता है।
-संपर्क: ऋषि नगर, मेरठ, मो. 9045110782

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