देवेन्द्र प्रताप
1857 के पहले हुए विद्रोहों में आम जनता 'अंग्रेज परस्त सामंतों तथा उनके ब्रिटिश आकाओं, दोनों को ही अपना दुश्मन समझती थी जबकि, बागी सामंतों के साथ मिलकर न सिर्फ वह अंग्रेजों के खिलाफ लड़ती थी, बल्कि उन्हें अपनी स्मृति में रचा-बसाकर सदा के लिए अमर कर देती थी। यही बात 1857 के विद्रोह में भी नजर आती है। अमर सिंह और कुंवर सिंह के जीवित न रहने के बावजूद, आज तक उनके गीत गाए जाते हैं। अंग्रेज परस्त सामंतों में से एक नाम महेश्वर बख्स सिंह का है। उसने कुंवर सिंह के जीवित रहते अंग्रेजों की मदद की थी, इसलिए आम जनता उससे घृणा करती थी। कुंवर सिंह की मृत्यु के बाद भी महेश्वर को हमेशा जनता से डर बना रहता था। उसके द्वारा शाहाबाद के कलेक्टर को लिखे पत्र को दुर्गाप्रसाद ने अपने शोध ग्रंथ में भी शामिल किया है। इस पत्र में महेश्वर लिखता है, ‘शाहाबाद जिलेभर के निवासी, जहां प्रार्थी की अधिक जमींदारी है, प्रार्थी से सबसे अधिक घृणा और नफरत इसलिए करते हैं कि प्रार्थी ने मृत बागी बाबू कुंवर सिंह के विरुद्ध गत विद्रोह में अंग्रेजों की मदद की थी। लड़ाई के प्रारंभ में ही यह भावना उत्तोत्तर बढ़ती गई और आज तो बहुत बढ़ गई है। इसलिए इतने कम हथियार रखने की आशा से-जबकि आपका प्रार्थी अधिक हथियार रखने की आज्ञा की आशा किए था-प्रार्थी को अधिक हानि होने की निश्चित संभावना है।'
1857 के महान स्वतंत्रता संग्राम की विचारधारा को लेकर जितनी बहसें हमारे मुल्क में हैं, उतनी बहस शायद ही दुनिया के किसी आंदोलन को लेकर हो। इसमें से एक पक्ष न सिर्फ 1857 को स्वतंत्रता संग्राम मानने से इंकार करता है, वरन वह इसे महज सामंतों का विद्रोह करार देता है। 1857 के हजारों रणबाकुरों में से एक नाम बाबू कुंवर सिंह का भी है। 23 अप्रैल को उनकी पुण्य तिथि है। वीर कुंवर सिंह ने जिस तरह अंग्रेजों से लोहा लिया उसे देखकर लीबिया के महान स्वतंत्रता स्वतंत्रता सेनानी उमर मुख्तार की याद आ जाती है। गुरिल्ला युद्ध की दोनों की तकनीक में समानता दुर्लभ है। लेकिन, एक तरफ जहां उमर मुख्तार पर हॉलीवुड में ‘डेजर्ट आॅफ लॉयन’ नाम से अत्यंत प्रसिद्ध फिल्म भी बन चुकी है, वहीं हमारे देश की बड़ी आबादी वीर कुंवर सिंह का नाम तक नहीं जानती।
बिहार में जगदीशपुर के जमींदार कुंवर सिंह ने 70 साल की उम्र में जब विद्रोह किया, तो अंग्रेज सरकार ने उन्हें और उनके साथियों को 'डकैतों की सूची में डाल दिया। राष्ट्रीय अभिलेखागार में विदेश विभाग की फाइल (763/25.06.1858) इस बात की गवाही देती है। यह फाइल कहती है, ‘उस किसी व्यक्ति को 25 हजार रुपए पुरस्कार दिए जाएंगे, जो जगदीशपुर के विद्रोही बाबू कुंवर सिंह को जीवित रूप से किसी ब्रिटिश सैनिक चौकी अथवा कैंप में सुपुर्द करेगा। आगे यह भी सूचित किया जाता है कि इस पुरस्कार के अलावा पहली तारीख को जारी सरकारी घोषणा 470 में उल्लेखित बातों के अतिरिक्त किसी भी बलवाई अथवा भगोड़े सैनिक अथवा किसी भी विद्रोही को क्षमा कर दिया जाएगा, जो कुंवर सिंह को सुपुर्द करेगा।'
नेशनल आर्काइव की एक अन्य फाइल (13/12.01.1858) के अुनसार वीर कुंवर सिंह के भतीजे रिपुभजन सिंह को पकड़वाने पर भी अंग्रेज सरकार ने 50 रुपयेपुरस्कार की घोषणा की थी। लेकिन इसके बावजूद अंग्रेजों को कोई एक नागरिक या सैनिक नहीं मिला, जो कुंवर सिंह या उसके साथियों को अंग्रेजों के हवाल करे या उनकी सूचना तक दे। अलबत्ता, अंग्रेजों के शस्त्रागार से न सिर्फ हथियार गायब होत रहे, बल्कि जगदीशपुर से आजमगढ़ तक के सामंतों और आम जनता ने उन्हें सहयोग देना भी जारी रखा। जब कुंवर सिंह को चारों ओर अंग्रेजों के जासूस ढूंढ़ रहे थे, तब वे शिवपुर में आराम से भोजन कर रहे थे तथा नदी को पार करने के लिए नावों की व्यवस्था कर रहे थे। शिवपुर के सामंतों ने उन्हें 20 नावें दीं, जिससे कुंवर सिंह ने मय लाव-लस्कर दी पार की।
जो इतिहासकार 1857 को महज सामंतों का विद्रोह करार देते हैं, तथा सभी सामंतों को एक ही लाइन में खड़ा कर देते हैं। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि जनता का एक बड़ा तबका कुंवर सिंह जैसे अंग्रेजों के बागी सामंतों के साथ था।अब ऐसे में 1857 को महज सामंतों का विद्रोह कहना कहां तक सही होगा? आप चाहें तो नेशनल आर्काइव की फाइल (वि.विभाग 504/28.05.1858) भी खंगाल सकते हैं। इसके अनुसार, जब कुंवर सिंह नदी पार करने की योजना पर काम कर रहे थे, तो उनकी शिवपुर के ग्रामीणों ने भी हर संभव मदद की। कुंवर सिंह के भाई अमर सिंह को भी आम ग्रामीण जनता ने न सिर्फ पूरा सहयोग दिया, बल्कि उनकी सेना में भर्ती होकर उसने अंग्रेजों को मार भगाने की कोशिश की। इलाहाबाद से जीएफएडमास्टन ने ईए रीड को प्रेषित तार (सेक्रेटैरियट रिकॉर्ड रूम, लखनऊ) में लिखा: 'अमरसिंह 7000-9000 आदमियों-मुख्यत: ग्रामीणों के साथ हमारी घेरेबंदी कर रहे हैं और रसद एकत्र कर रहे है। इतने बड़े पैमाने पर किसानों के बीच से सेना में भर्ती, ब्रिटिश सम्राज्यवाद के खिलाफ 'बागी सामन्तों' और किसानों की जर्बदस्त एकता के बिना संभव नहीं है।
एक सवाल यह भी उठता है कि यदि अंग्रेजों के बागी सामंत जीत जाते तो फिर से भारत में सामंतवाद की वापसी हो जाती। यह बहस का विषय है। फिर भी ऐसे लोगों को अमर सिंह द्वारा जगदीशपुर में गठित क्रांतिकारी सरकार के बारे में अध्ययन करना चाहिए, जो नई तथा पुरानी (परंपरागत) व्यवस्थाओं के मेल से बनी थी। इसकी एक खास व्यवस्था अदालते आम थी, जिसमें न्यायधीशों की कुर्सी पर सवर्ण और अवर्ण दोनों जातियां साथ बैठती थीं। इस संबंध में दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह ने अपने शोध के जरिए बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्यों को उजागर किया है। 1955 में प्रकाशित इस शोधग्रंथ के अनुसार, ‘अदालते आम में चार सदस्य थे शंकर मिश्र, मुल्क सिंह, द्वारिका माली और मंगल सिंह।' दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह द्वारा दिए गए नाम, अंग्रेजों द्वारा जारी बागियों की सूची से मेल खाते हैं, अंग्रेजों ने इन्हें 'आम अदालत कौन्सिलर' कहा है। अदालते आम में द्वारिका प्रसाद माली दलित जाति के थे। यह निश्चित तौर पर एक आगे बढ़ा हुआ कदम था। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस भी आंदोलन में जनता की जितनी ज्यादा और सचेतन भागीदारी होती है, उसमें उसकी आकांक्षाओं की प्रतिध्वनि भी उतनी ही तेज होती है। महेश्वर बख्श सिंह, कुंवर सिंह का सगोत्रीय भाई था। इसी तरह रिपुभंजन सिंह तथा गुमान सिंह जो कि कुंवर सिंह के भतीजे थे, उन्होंने भी गुपचुप तरीके से अंग्रेजों की मदद की थी। 'विद्रोह कुचल दिए जाने के बाद ऐसे महानुभाव बड़े उत्साह के सामने आए और क्रांति में भाग लेने वालों को डरा-धमकाकर अपना उल्लू सीधा करने लगे तथा सरकार से अपनी खैरख्वाही के लिए जागीर पाने की कोशिश करने लगे। इनकी इन करतूतों से जनता की इनके प्रति घृणा इतनी तीव्र हो गई कि इनका सामाजिक बहिष्कार तक होने लगा।' कुंवर सिंह की मृत्यु के बाद भी, लंबे समय तक 'अंग्रेज परस्त सामंत' जाति-बिरादरी से बहिष्कृत रहे यानी शादी-ब्याह, तीज-त्योहार आदि में ये लोग बिरादरी से बहिष्कृत रहे। ऐसे सैकड़ों अन्य उदाहरण पूरे देश में बिखरे पड़े हैं, जो चीख-चीखकर 1857 के महान स्वतंत्रता संग्राम को महज ‘सैनिक विद्रोह’ या सामंतों का विद्रोह मानने से इंकार करते हैं। जरूरत इस बात की है कि दुनिया के स्तर पर इस सबसे बड़े जनविद्रोह को पुराने सांचे से देखने के बजाए, नए नजरिए से देखा जाए।
कुंवर सिंह |
1857 के महान स्वतंत्रता संग्राम की विचारधारा को लेकर जितनी बहसें हमारे मुल्क में हैं, उतनी बहस शायद ही दुनिया के किसी आंदोलन को लेकर हो। इसमें से एक पक्ष न सिर्फ 1857 को स्वतंत्रता संग्राम मानने से इंकार करता है, वरन वह इसे महज सामंतों का विद्रोह करार देता है। 1857 के हजारों रणबाकुरों में से एक नाम बाबू कुंवर सिंह का भी है। 23 अप्रैल को उनकी पुण्य तिथि है। वीर कुंवर सिंह ने जिस तरह अंग्रेजों से लोहा लिया उसे देखकर लीबिया के महान स्वतंत्रता स्वतंत्रता सेनानी उमर मुख्तार की याद आ जाती है। गुरिल्ला युद्ध की दोनों की तकनीक में समानता दुर्लभ है। लेकिन, एक तरफ जहां उमर मुख्तार पर हॉलीवुड में ‘डेजर्ट आॅफ लॉयन’ नाम से अत्यंत प्रसिद्ध फिल्म भी बन चुकी है, वहीं हमारे देश की बड़ी आबादी वीर कुंवर सिंह का नाम तक नहीं जानती।
बिहार में जगदीशपुर के जमींदार कुंवर सिंह ने 70 साल की उम्र में जब विद्रोह किया, तो अंग्रेज सरकार ने उन्हें और उनके साथियों को 'डकैतों की सूची में डाल दिया। राष्ट्रीय अभिलेखागार में विदेश विभाग की फाइल (763/25.06.1858) इस बात की गवाही देती है। यह फाइल कहती है, ‘उस किसी व्यक्ति को 25 हजार रुपए पुरस्कार दिए जाएंगे, जो जगदीशपुर के विद्रोही बाबू कुंवर सिंह को जीवित रूप से किसी ब्रिटिश सैनिक चौकी अथवा कैंप में सुपुर्द करेगा। आगे यह भी सूचित किया जाता है कि इस पुरस्कार के अलावा पहली तारीख को जारी सरकारी घोषणा 470 में उल्लेखित बातों के अतिरिक्त किसी भी बलवाई अथवा भगोड़े सैनिक अथवा किसी भी विद्रोही को क्षमा कर दिया जाएगा, जो कुंवर सिंह को सुपुर्द करेगा।'
नेशनल आर्काइव की एक अन्य फाइल (13/12.01.1858) के अुनसार वीर कुंवर सिंह के भतीजे रिपुभजन सिंह को पकड़वाने पर भी अंग्रेज सरकार ने 50 रुपयेपुरस्कार की घोषणा की थी। लेकिन इसके बावजूद अंग्रेजों को कोई एक नागरिक या सैनिक नहीं मिला, जो कुंवर सिंह या उसके साथियों को अंग्रेजों के हवाल करे या उनकी सूचना तक दे। अलबत्ता, अंग्रेजों के शस्त्रागार से न सिर्फ हथियार गायब होत रहे, बल्कि जगदीशपुर से आजमगढ़ तक के सामंतों और आम जनता ने उन्हें सहयोग देना भी जारी रखा। जब कुंवर सिंह को चारों ओर अंग्रेजों के जासूस ढूंढ़ रहे थे, तब वे शिवपुर में आराम से भोजन कर रहे थे तथा नदी को पार करने के लिए नावों की व्यवस्था कर रहे थे। शिवपुर के सामंतों ने उन्हें 20 नावें दीं, जिससे कुंवर सिंह ने मय लाव-लस्कर दी पार की।
जो इतिहासकार 1857 को महज सामंतों का विद्रोह करार देते हैं, तथा सभी सामंतों को एक ही लाइन में खड़ा कर देते हैं। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि जनता का एक बड़ा तबका कुंवर सिंह जैसे अंग्रेजों के बागी सामंतों के साथ था।अब ऐसे में 1857 को महज सामंतों का विद्रोह कहना कहां तक सही होगा? आप चाहें तो नेशनल आर्काइव की फाइल (वि.विभाग 504/28.05.1858) भी खंगाल सकते हैं। इसके अनुसार, जब कुंवर सिंह नदी पार करने की योजना पर काम कर रहे थे, तो उनकी शिवपुर के ग्रामीणों ने भी हर संभव मदद की। कुंवर सिंह के भाई अमर सिंह को भी आम ग्रामीण जनता ने न सिर्फ पूरा सहयोग दिया, बल्कि उनकी सेना में भर्ती होकर उसने अंग्रेजों को मार भगाने की कोशिश की। इलाहाबाद से जीएफएडमास्टन ने ईए रीड को प्रेषित तार (सेक्रेटैरियट रिकॉर्ड रूम, लखनऊ) में लिखा: 'अमरसिंह 7000-9000 आदमियों-मुख्यत: ग्रामीणों के साथ हमारी घेरेबंदी कर रहे हैं और रसद एकत्र कर रहे है। इतने बड़े पैमाने पर किसानों के बीच से सेना में भर्ती, ब्रिटिश सम्राज्यवाद के खिलाफ 'बागी सामन्तों' और किसानों की जर्बदस्त एकता के बिना संभव नहीं है।
एक सवाल यह भी उठता है कि यदि अंग्रेजों के बागी सामंत जीत जाते तो फिर से भारत में सामंतवाद की वापसी हो जाती। यह बहस का विषय है। फिर भी ऐसे लोगों को अमर सिंह द्वारा जगदीशपुर में गठित क्रांतिकारी सरकार के बारे में अध्ययन करना चाहिए, जो नई तथा पुरानी (परंपरागत) व्यवस्थाओं के मेल से बनी थी। इसकी एक खास व्यवस्था अदालते आम थी, जिसमें न्यायधीशों की कुर्सी पर सवर्ण और अवर्ण दोनों जातियां साथ बैठती थीं। इस संबंध में दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह ने अपने शोध के जरिए बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्यों को उजागर किया है। 1955 में प्रकाशित इस शोधग्रंथ के अनुसार, ‘अदालते आम में चार सदस्य थे शंकर मिश्र, मुल्क सिंह, द्वारिका माली और मंगल सिंह।' दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह द्वारा दिए गए नाम, अंग्रेजों द्वारा जारी बागियों की सूची से मेल खाते हैं, अंग्रेजों ने इन्हें 'आम अदालत कौन्सिलर' कहा है। अदालते आम में द्वारिका प्रसाद माली दलित जाति के थे। यह निश्चित तौर पर एक आगे बढ़ा हुआ कदम था। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस भी आंदोलन में जनता की जितनी ज्यादा और सचेतन भागीदारी होती है, उसमें उसकी आकांक्षाओं की प्रतिध्वनि भी उतनी ही तेज होती है। महेश्वर बख्श सिंह, कुंवर सिंह का सगोत्रीय भाई था। इसी तरह रिपुभंजन सिंह तथा गुमान सिंह जो कि कुंवर सिंह के भतीजे थे, उन्होंने भी गुपचुप तरीके से अंग्रेजों की मदद की थी। 'विद्रोह कुचल दिए जाने के बाद ऐसे महानुभाव बड़े उत्साह के सामने आए और क्रांति में भाग लेने वालों को डरा-धमकाकर अपना उल्लू सीधा करने लगे तथा सरकार से अपनी खैरख्वाही के लिए जागीर पाने की कोशिश करने लगे। इनकी इन करतूतों से जनता की इनके प्रति घृणा इतनी तीव्र हो गई कि इनका सामाजिक बहिष्कार तक होने लगा।' कुंवर सिंह की मृत्यु के बाद भी, लंबे समय तक 'अंग्रेज परस्त सामंत' जाति-बिरादरी से बहिष्कृत रहे यानी शादी-ब्याह, तीज-त्योहार आदि में ये लोग बिरादरी से बहिष्कृत रहे। ऐसे सैकड़ों अन्य उदाहरण पूरे देश में बिखरे पड़े हैं, जो चीख-चीखकर 1857 के महान स्वतंत्रता संग्राम को महज ‘सैनिक विद्रोह’ या सामंतों का विद्रोह मानने से इंकार करते हैं। जरूरत इस बात की है कि दुनिया के स्तर पर इस सबसे बड़े जनविद्रोह को पुराने सांचे से देखने के बजाए, नए नजरिए से देखा जाए।
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