कुमार कृष्णन
अर्थव्यवस्था के वैश्विक होते ही स्थानीय व लघु उद्योग धंधों की तो जैसे शामत ही आ गई। कृषि के बाद सर्वाधिक रोजगार प्रदान करने वाला वस्त्र उद्योग आज पतन के गर्त में जा रहा है। न्यूनतम पूंजी की दरकार वाले पावरलूम एवं हैंडलूम उद्योग को यदि सहारा दिया जाता है तो बेरोजगारी
बड़ी औद्योगिक कंपनियों, निर्यातकों और आयातकों को नीतिगत छूट सन 1997 में वैश्विकरणवादी नीतियों से लागू किए गए दूसरे चरण के सुधारकों के जरिए दी गई। यह दूसरा चरण जैसे-जैसे आगे बढ़ा, वैसे-वैसे पावरलूम और अन्य तमाम छोटे उद्योगों के भविष्य पर विराम लगता गया है। भागलपुर के पावरलूमों की खटपट अब शांत होने लगी है। 50 प्रतिशत पावरलूम अब पूरी तरह से ठप्प हो गए हैं। इनके मालिक धागे व बिजली की महंगाई के साथ मजदूरों की कमी का भी रोना रो रहे हैं।
धागे के कारोबार पर सटोरियों का कब्जा हो गया है। सन 2008 की मंदी के दौरान बड़े कारोबारियों ने पावरलूमों का माल लेने से मना कर दिया था। ब्रिकी बाजार के घटाव और धागे की बढ़ती कीमतों के चलते छोटे पावरलूम मालिक बार-बार कर्ज लेने के लिए मजबूर होते रहे हैं। उन्हें बाजार से मिलने वाला कर्ज 24 से 30 प्रतिशत सालाना ब्याज दर पर उठाना पड़ता है। इसे वे कभी चुकता नहीं कर पाए। इसलिए उन्हें पावरलूम बंद करने पड़े।
चंपानगर (भागलपुर) निवासी मोहम्मद जावेद अंसारी एक बुनकर हैं, उसके पास खुद का पावरलूम तो है, लेकिन इतना पैसा नहीं कि वह उसे चला सके। इसके अलावा बिजली की समस्या अलग से है। नतीजतन, उसके घर की स्थिति दिनोंदिन दयनीय होती जा रही है। वह असमंजस में है कि बाहर जाकर क्या करेगा? क्या इतना कमा पाएगा कि वहां से अपने घर-परिवार के लिए पैसा भेज सके? उसे सरकार की विभिन्न योजनाओं की भी जानकारी है, लेकिन वह कहता है कि योजनाओं का लाभ सिर्फ पहुंच वाले लोगों को ही मिल पाता है, उस जैसे गरीब को नहीं। पिछले चार-पांच सालों के अंदर यहां से करीब 8 से 10 हजार बुनकर मुंबई, मेरठ, मद्रास एवं दिल्ली आदि शहरों में चले गए। इनमें से कुछ तो दूसरे शहरों में पावरलूम कंपनियों में ही काम कर रहे हैं, जबकि कुछ लोग आॅटो-रिक्शा चलाने और सब्जी बेचने के लिए मजबूर हैं।
भागलपुर को दुनिया रेशम नगरी के नाम से जानती है। बिहार में बुनकरों की संख्या करीब 4 लाख है। वर्ष 1989 तक भागलपुर के बुनकर अकेले पूरे देश का 48 प्रतिशत रेशम तैयार करते थे। भागलपुर के दंगे की आग में अगर सबसे ज्यादा किसी को नुकसान हुआ तो वे थे, इस जिले के बुनकर। दंगे के बाद इस उद्योग में लगातार गिरावट आती गई। विदेशों से आॅर्डर आने बंद हो गए। 1990 में आई लालू यादव की सरकार ने भी निराश किया। शहर के एक चिकित्सक डॉ. एसपी सिंह का कहना है कि बुनकरों में टीबी, निमोकोनिएसिस और दमा की बीमारियां लगातार बढ़ रही हैं। भागलपुर संसदीय क्षेत्र में बुनकर मतदाताओं की संख्या करीब डेढ़ लाख है, वहीं भागलपुर विधानसभा के अंतर्गत करीब 45 हजार बुनकर मतदाता हैं। इन आंकड़ों से पता चलता है कि यहां कौन सांसद या विधायक बनेगा, यह फैसला बुनकरों के वोट करते हैं, इसके बावजूद उनकी दशा यथावत बनी रही। वर्ष 2005 में जदयू-भाजपा गठबंधन वाली नीतीश सरकार बनी। यहां के अश्विनी चौबे लगातार तीसरी बार विधायक व राज्य सरकार में मंत्री बने और सांसद सुशील कुमार मोदी उप मुख्यमंत्री बन गए। मोदी के उप मुख्यमंत्री बनने से भागलपुर संसदीय सीट खाली हो गई। इस बार भाजपा की ओर से कद्दावर नेता सैयद शाहनवाज हुसैन को मैदान में उतारा गया। वे तो जीत गए, लेकिन, भागलपुर का रेशम कॉलेज आज भी बंद है और बुनकरों की बदहाली का रंग दिनों-दिन गहराता जा रहा है।
जिले के एक वार्ड पार्षद खुर्शीद आलम बबलू बताते हैं कि बैंकों ने अब बुनकरों को कर्ज देना भी बंद कर दिया है। नतीजतन, बुनकर साहूकारों से अधिक ब्याज दर से कर्ज लेते हैं, जिसे चुकाने के लिए घर-जमीन तक बेचना पड़ता जाता है। नाथनगर के बुनकर मोहम्मद नूर आलम का कहना है कि सबसे बड़ी समस्या बिजली की है। 24 घंटे में केवल 3-4 घंटे ही बिजली देखने को मिलती है। आलम बताते हैं कि पूरे इलाके में केवल 10-12 बड़े व्यवसायी हैं, जिनके पास पूंजी है। वही जनरेटर और पैसे की बदौलत अपने कारखानों को जिंदा रखने में सफल रहे हैं। उनके यहां बुनकर काफी कम मजदूरी पर काम करते हैं, क्योंकि काम कम है और बुनकरों की संख्या अधिक।
नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने से यहां के बुनकरों में उम्मीद जगी थी। बिजली की महंगाई और धागों की कीमतों में लगातार बढ़ोत्तरी आदि के चलते लागत बढ़ती जा रही है, लेकिन अगर बाजार में मांग बनी रहे और बढ़ती रहे तो लूम ठप पड़ने की गुंजाइश कम हो जाएगी। इसे विपरीत बाजार में माल जाम होने के फलस्वरूप उत्पादन का अगला चक्र भी जाम हो जाएगा। दरअसल, भागलपुर में और अन्य जगहों के पावरलूमों के साथ यही कुछ हो रहा है। वैसे ऐसा केवल पावरलूमों के साथ नहीं, बल्कि ज्यादातर छोटे उद्योगों के साथ हो रहा है। पावरलूम का क्षेत्र, कपड़ा उत्पादन का क्षेत्र है। इस क्षेत्र में कपड़े का बाजार का खासा हिस्सा अब रेडीमेड कपड़ो में बदल गया है और विदेशी आयातित कपड़ों की भी धूम मची हुई है। इसके चलते भी बिना सिले कपड़ों का बाजार संकुचित होता जा रहा है। फिर इसके अलावा बिना सिले कपडेÞ के बाजार का बड़ा हिस्सा देशी बड़ी मिलों के उत्पादित कपड़े के रूप में है।
पहले कई दिग्गज कपड़ा मिलें भी पावरलूम से उत्पादित कपड़ों पर अपना ट्रेड मार्क लगाकर बाजार में उतारती रहती थीं, लेकिन अब वैसा माहौल नहीं रहा। मुंबई व कानपुर जैसे शहरों की तमाम कपड़ा मिलों को उनके धनाढ्य मालिक पिछले 20-25 सालों से बंद करते जा रहे हैं। चीन, कोरिया जैसे देशों से भी कपड़े का आयात होने लगा है। पावरलूम जैसे तमाम छोटे उद्योगों की बबार्दी पर उसी दिन मुहर लग गई थी जब वर्ष 1997 से लगातार विदेशी आयात पर लगे प्रतिबंधों को हटाने का काम हुआ। इससे भी पहले छोटे एवं कुटीर उद्योगों के क्षेत्रों में घुसने से रोकने के लिए देश की बड़ी कंपनियों पर लगे एमआरटीपी जैसे कानूनी प्रतिबंध को भी काटने-घटाने से इन छोटे उद्योगों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता रहा है। पावरलूमों की बिगड़ती स्थितियों के मद्देनजर बुनकरों ने केन्द्रीय सरकार से अपनी सुरक्षा की मांग की है। लेकिन, ऐसी मांगें भी अंतोगत्वा छोटे उद्यमियों को धोखे में ही रखने वाली साबित होंगी, क्योंकि विदेशी कंपनियों को छूट देते हुए सरकार अब इनकी सुरक्षा कदापि नहीं कर सकती।
की समस्या से कुछ हद तक निपटा जा सकता है।
अर्थव्यवस्था के वैश्विक होते ही स्थानीय व लघु उद्योग धंधों की तो जैसे शामत ही आ गई। कृषि के बाद सर्वाधिक रोजगार प्रदान करने वाला वस्त्र उद्योग आज पतन के गर्त में जा रहा है। न्यूनतम पूंजी की दरकार वाले पावरलूम एवं हैंडलूम उद्योग को यदि सहारा दिया जाता है तो बेरोजगारी
बड़ी औद्योगिक कंपनियों, निर्यातकों और आयातकों को नीतिगत छूट सन 1997 में वैश्विकरणवादी नीतियों से लागू किए गए दूसरे चरण के सुधारकों के जरिए दी गई। यह दूसरा चरण जैसे-जैसे आगे बढ़ा, वैसे-वैसे पावरलूम और अन्य तमाम छोटे उद्योगों के भविष्य पर विराम लगता गया है। भागलपुर के पावरलूमों की खटपट अब शांत होने लगी है। 50 प्रतिशत पावरलूम अब पूरी तरह से ठप्प हो गए हैं। इनके मालिक धागे व बिजली की महंगाई के साथ मजदूरों की कमी का भी रोना रो रहे हैं।
धागे के कारोबार पर सटोरियों का कब्जा हो गया है। सन 2008 की मंदी के दौरान बड़े कारोबारियों ने पावरलूमों का माल लेने से मना कर दिया था। ब्रिकी बाजार के घटाव और धागे की बढ़ती कीमतों के चलते छोटे पावरलूम मालिक बार-बार कर्ज लेने के लिए मजबूर होते रहे हैं। उन्हें बाजार से मिलने वाला कर्ज 24 से 30 प्रतिशत सालाना ब्याज दर पर उठाना पड़ता है। इसे वे कभी चुकता नहीं कर पाए। इसलिए उन्हें पावरलूम बंद करने पड़े।
चंपानगर (भागलपुर) निवासी मोहम्मद जावेद अंसारी एक बुनकर हैं, उसके पास खुद का पावरलूम तो है, लेकिन इतना पैसा नहीं कि वह उसे चला सके। इसके अलावा बिजली की समस्या अलग से है। नतीजतन, उसके घर की स्थिति दिनोंदिन दयनीय होती जा रही है। वह असमंजस में है कि बाहर जाकर क्या करेगा? क्या इतना कमा पाएगा कि वहां से अपने घर-परिवार के लिए पैसा भेज सके? उसे सरकार की विभिन्न योजनाओं की भी जानकारी है, लेकिन वह कहता है कि योजनाओं का लाभ सिर्फ पहुंच वाले लोगों को ही मिल पाता है, उस जैसे गरीब को नहीं। पिछले चार-पांच सालों के अंदर यहां से करीब 8 से 10 हजार बुनकर मुंबई, मेरठ, मद्रास एवं दिल्ली आदि शहरों में चले गए। इनमें से कुछ तो दूसरे शहरों में पावरलूम कंपनियों में ही काम कर रहे हैं, जबकि कुछ लोग आॅटो-रिक्शा चलाने और सब्जी बेचने के लिए मजबूर हैं।
भागलपुर को दुनिया रेशम नगरी के नाम से जानती है। बिहार में बुनकरों की संख्या करीब 4 लाख है। वर्ष 1989 तक भागलपुर के बुनकर अकेले पूरे देश का 48 प्रतिशत रेशम तैयार करते थे। भागलपुर के दंगे की आग में अगर सबसे ज्यादा किसी को नुकसान हुआ तो वे थे, इस जिले के बुनकर। दंगे के बाद इस उद्योग में लगातार गिरावट आती गई। विदेशों से आॅर्डर आने बंद हो गए। 1990 में आई लालू यादव की सरकार ने भी निराश किया। शहर के एक चिकित्सक डॉ. एसपी सिंह का कहना है कि बुनकरों में टीबी, निमोकोनिएसिस और दमा की बीमारियां लगातार बढ़ रही हैं। भागलपुर संसदीय क्षेत्र में बुनकर मतदाताओं की संख्या करीब डेढ़ लाख है, वहीं भागलपुर विधानसभा के अंतर्गत करीब 45 हजार बुनकर मतदाता हैं। इन आंकड़ों से पता चलता है कि यहां कौन सांसद या विधायक बनेगा, यह फैसला बुनकरों के वोट करते हैं, इसके बावजूद उनकी दशा यथावत बनी रही। वर्ष 2005 में जदयू-भाजपा गठबंधन वाली नीतीश सरकार बनी। यहां के अश्विनी चौबे लगातार तीसरी बार विधायक व राज्य सरकार में मंत्री बने और सांसद सुशील कुमार मोदी उप मुख्यमंत्री बन गए। मोदी के उप मुख्यमंत्री बनने से भागलपुर संसदीय सीट खाली हो गई। इस बार भाजपा की ओर से कद्दावर नेता सैयद शाहनवाज हुसैन को मैदान में उतारा गया। वे तो जीत गए, लेकिन, भागलपुर का रेशम कॉलेज आज भी बंद है और बुनकरों की बदहाली का रंग दिनों-दिन गहराता जा रहा है।
जिले के एक वार्ड पार्षद खुर्शीद आलम बबलू बताते हैं कि बैंकों ने अब बुनकरों को कर्ज देना भी बंद कर दिया है। नतीजतन, बुनकर साहूकारों से अधिक ब्याज दर से कर्ज लेते हैं, जिसे चुकाने के लिए घर-जमीन तक बेचना पड़ता जाता है। नाथनगर के बुनकर मोहम्मद नूर आलम का कहना है कि सबसे बड़ी समस्या बिजली की है। 24 घंटे में केवल 3-4 घंटे ही बिजली देखने को मिलती है। आलम बताते हैं कि पूरे इलाके में केवल 10-12 बड़े व्यवसायी हैं, जिनके पास पूंजी है। वही जनरेटर और पैसे की बदौलत अपने कारखानों को जिंदा रखने में सफल रहे हैं। उनके यहां बुनकर काफी कम मजदूरी पर काम करते हैं, क्योंकि काम कम है और बुनकरों की संख्या अधिक।
नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने से यहां के बुनकरों में उम्मीद जगी थी। बिजली की महंगाई और धागों की कीमतों में लगातार बढ़ोत्तरी आदि के चलते लागत बढ़ती जा रही है, लेकिन अगर बाजार में मांग बनी रहे और बढ़ती रहे तो लूम ठप पड़ने की गुंजाइश कम हो जाएगी। इसे विपरीत बाजार में माल जाम होने के फलस्वरूप उत्पादन का अगला चक्र भी जाम हो जाएगा। दरअसल, भागलपुर में और अन्य जगहों के पावरलूमों के साथ यही कुछ हो रहा है। वैसे ऐसा केवल पावरलूमों के साथ नहीं, बल्कि ज्यादातर छोटे उद्योगों के साथ हो रहा है। पावरलूम का क्षेत्र, कपड़ा उत्पादन का क्षेत्र है। इस क्षेत्र में कपड़े का बाजार का खासा हिस्सा अब रेडीमेड कपड़ो में बदल गया है और विदेशी आयातित कपड़ों की भी धूम मची हुई है। इसके चलते भी बिना सिले कपड़ों का बाजार संकुचित होता जा रहा है। फिर इसके अलावा बिना सिले कपडेÞ के बाजार का बड़ा हिस्सा देशी बड़ी मिलों के उत्पादित कपड़े के रूप में है।
पहले कई दिग्गज कपड़ा मिलें भी पावरलूम से उत्पादित कपड़ों पर अपना ट्रेड मार्क लगाकर बाजार में उतारती रहती थीं, लेकिन अब वैसा माहौल नहीं रहा। मुंबई व कानपुर जैसे शहरों की तमाम कपड़ा मिलों को उनके धनाढ्य मालिक पिछले 20-25 सालों से बंद करते जा रहे हैं। चीन, कोरिया जैसे देशों से भी कपड़े का आयात होने लगा है। पावरलूम जैसे तमाम छोटे उद्योगों की बबार्दी पर उसी दिन मुहर लग गई थी जब वर्ष 1997 से लगातार विदेशी आयात पर लगे प्रतिबंधों को हटाने का काम हुआ। इससे भी पहले छोटे एवं कुटीर उद्योगों के क्षेत्रों में घुसने से रोकने के लिए देश की बड़ी कंपनियों पर लगे एमआरटीपी जैसे कानूनी प्रतिबंध को भी काटने-घटाने से इन छोटे उद्योगों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता रहा है। पावरलूमों की बिगड़ती स्थितियों के मद्देनजर बुनकरों ने केन्द्रीय सरकार से अपनी सुरक्षा की मांग की है। लेकिन, ऐसी मांगें भी अंतोगत्वा छोटे उद्यमियों को धोखे में ही रखने वाली साबित होंगी, क्योंकि विदेशी कंपनियों को छूट देते हुए सरकार अब इनकी सुरक्षा कदापि नहीं कर सकती।
की समस्या से कुछ हद तक निपटा जा सकता है।
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