शनिवार, 27 अप्रैल 2013

मजहब पर भारी समाज

                                   सलीम अख्तर सिद्दीकी
सुबह के लगभग सात बजे थे। मैं अभी सोकर नहीं उठा था। दरवाजे पर दस्तक हुई। बाहर निकल कर देखा, तो मेरे मोहल्ले के कुछ ‘मौअजिज’ लोग खड़े थे। उनमें से कुछ हज कर आए थे और कुछ जाने की तैयारी में थे। कुछ ऐसे भी थे, जो कई साल से इस्लाम की दावत दे रहे थे और इस काम के लिए दुनियाभर में घूमते थे। उन्होंने मुझसे दरियाफ्त किया कि मोहल्ले की कुछ समस्याओं के लिए     इलाके के पार्षद के यहां जाना है। पार्षद दलित हैं तथा हमारे घर से कुछ ही दूरी पर उनका मकान है। सुबह-सुबह जाने का मकसद यही था कि वह घर पर ही मिल जाएंगे। सभी पार्षद के घर पहुंचे। उन्होंने बड़ी गर्मजोशी से सबका इस्तकबाल किया। बैठे हुए थोड़ी ही समय हुआ कि एक छोटी बच्ची गिलास में पानी लेकर हाजिर हुई। सभी ने एक-एक करके पानी के लिए मना कर दिया। अकेले मैंने ही पानी के गिलास की ओर हाथ बढ़ाया। पानी पीते हुए मेरी नजर अपने एक साथी पर पड़ गई। वह मुझे अजीब नजरों से देख रहे थे, जैसे कह रहे हों कि ‘यह क्या कर रहे हो।’ मैं उनकी नजरों को समझने की कोशिश कर ही रहा था कि एक टेÑ में चाय, नमकीन और बिस्कुट आ गए। पार्षद ने सभी से चाय लेने का आग्रह किया। लेकिन, सभी ने कोई न कोई बहाना बना इंकार कर दिया। पार्षद के चेहरे पर व्यंग्यात्मक भाव आए। पार्षद ने मेरी ओर देखा। मैंने ट्रे से चाय का कप उठा लिया। बाकी चाय के कप ट्रे में रखे रहे। किसी ने नमकीन और बिस्कुट की ओर भी हाथ नहीं बढ़ाया। पार्षद ने संबंधित समस्याएं सुनीं और उन्हें दूर करने का आश्वासन दिया। थोड़ी देर बाद पार्षद से चलने की आज्ञा मांगी, तो उन्होंने कहा, ‘मैं भी आपसे कुछ कहना चाहता हूं।’ सभी ने उनकी ओर सवालिया नजरों से देखा। पार्षद ने कहना शुरू किया, ‘जिस धर्म से आप हैं, मैंने उसका थोड़ा-बहुत अध्ययन किया है। मुझे हजरत मुहम्मद साहब की वह बात बहुत अच्छी लगती है, जब उन्होंने एक हब्शी गुलाम को खरीदकर उस समय गले लगाया था, जब कोई उनके पास जाना भी नहीं चाहता था। वह गुलाम हजरत बिलाल थे। मेरा यही अनुरोध है कि कम से कम इस्लाम के बुनियादी उसूलों पर समाज की कुरीतियों का बोझ डालकर उन्हें दबाइए मत।’ किसी के पास कोई जवाब नहीं था। बात में पता चला कि उनमें से कई को यही पता नहीं था कि हजरत बिलाल कौन थे?
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