मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

भारत या बांग्लादेश : गारमेण्ट एक्सपोर्ट उद्योग की हालत एक जैसी

बांग्लादेश की राजधानी ढाका के बाहरी इलाके साभर में राना प्लाज़ा नामक एक आठ मंजिली इमारत के ढह जाने की त्रासदी की परतें धीरे धीरे खुल रही हैं। इस हादसे में अब तक 350 से अधिक लोगों के मौत की पुष्टी हो चुकी है और 900 अधिक मजदूर अभी भी लापता हैं। इस इमारत में विदेशी कम्पनियों के लिए सिले सिलाए वस्त्रों को तैयार करने की कम से कम चार फैक्टरियाँ थी।
इस इमारत में दरार पड़ चुकी थी और बाशिंदों से इसको खाली कर देने का आदेश दिया जा चुका था। पहली मंजिल में स्थित दुकानों और एक निजी बैंक ने ऐसा कर भी दिया था और बांग्लादेश गारमेण्ट मैनुफक्चरर्स एसोशियेशन ने इन फैक्टरियों के मालिकों से फैक्टरियाँ बन्द कर देने का सुझाव दिया था। मजदूरों से भी चले जाने को कहा गया था लेकिन अगले दिन यानी 24 अप्रैल को मालिकों द्वारा उन्हें पगार काट लेने और नौकरी से निकालने के धमकी देकर वापस बुला लिया गया। इन फैक्टरियों में कम करने वाले 3,500 मजदूरों के 70 फ़ीसदी जिनमें से बहुलांश महिलायें थी, उस इमारत में मौजूद थे जब यह जोरों की आवाज के साथ बैठ गयी। गारमेण्ट एक्सपोर्ट के कारखाने में विगत एक वर्ष के भीतर हुआ यह दूसरा हादसा है
विगत 24 नवम्बर 2012  को ढाका के बाहरी इलाके में स्थित ताजरीन फैशंस की फैक्टरी में आग निचली मंजिल में फ़ैली और फिर इस नौ मंजिली इमारत के ऊपरी मंजिलों के लोग वहीं फँस गये। अधिकारीयों के अनुसार आग से बचाव की बाहरी सीड़ियाँ नहीं थीं और बहुत सारे लोग आग से बचने के लिये कूदने के चलते मारे गये। इस हादसे में करीब डेढ़ सौ लोग मारे गए थे।
इस दुर्घटना ने जो निश्चित तौर पर मानव-निर्मित है, एक बार फिर इस बात को सामने ला दिया है कि गारमेण्ट एक्सपोर्ट के क्षेत्र में किन अमानवीय परिस्थितियों में काम होता है और विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और उनके स्थानीय एजेण्टों के मुनाफे की अन्धी हवस के सामने मजदूरों के जान की कीमत कितनी कम है। यह बात सिर्फ बांग्लादेश के लिए ही सही नहीं है बल्कि  भारत और तीसरी दुनिया के अन्य गरीब मुल्कों के बारे में भी सही है जहाँ गारमेण्ट एक्सपोर्ट उद्योग में तैयार होने वाले कपड़े पश्चिमी देशों के सुपर मार्केटों और चेनों में मशहूर ब्राण्ड नामों के अन्तर्गत बिकते हैं।
भारत के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के गुडगाँव या नोएडा हों, पश्चिमी तमिलनाडु का तिरुपुर हो या कर्णाटक का बेंगलुरु हो, हर जगह जहाँ गारमेण्ट एक्सपोर्ट की छोटी बड़ी फैक्टरियाँ हैं, वहाँ मजदूरों को इन्ही अमानवीय परिस्थितियों में ही काम करना होता है। भारत में इस क्षेत्र में लाखों मजदूर कार्यरत है जिनमें से एक बड़ी संख्या महिलाओं की है और यह करोड़ों की विदेशी मुद्रा अर्जित करती है लेकिन किसी भी प्रकार के नियम कानून का, किसी भी तरह की विनियमन की व्यवस्था का पूर्ण अभाव है।
नोएडा स्थित गारमेण्ट एक्सपोर्ट की सैकड़ों छोटी बड़ी इकाइयों में काम की जिन परिस्थितियों से हम वाकिफ हैं वे बांग्लादेश की इस ध्वस्त इमारत से निकल कर आ रही हृदय विदारक कहानियों से कुछ अलग नहीं हैं। इस बाबत हम नीचे तीन सामग्रियों के लिंक दे रहे हैं जिन्हें जरूर देखा जाना चाहिए। इसमें पहला विजय प्रसाद का लेख है जिसमें उन्होंने बताया है कि राना प्लाज़ा का मालिक सोहेल राना कैसा आदमी है और हमारे समाजों में वह कैसे फलता फूलता है।

शनिवार, 27 अप्रैल 2013

उधार की खुशी

                                                             देव प्रकाश चौधरी
मध्याह्न भोजन में फंसे शिक्षक ! उधार के भवन में चलते स्कूल! कहीं-कहीं बिना किसी शिक्षक के लगती कक्षाएं। नई-नई सरकारी योजनाओं को ढोते फाइल! और दीवारों पर सब पढ़े -सब बढ़ें जैसे नारे!  झारखंड पढ़ रहा है। आगे बढ़ रहा है। सरकारी रिपोर्ट कहती है, पिछले 12 सालों में प्राथमिक विद्यालयों और उच्च विद्यालयों में छात्रों की संख्या दोगुनी हुई है। पढ़ने वाले बच्चे और बच्चियां कितना आगे बढ़े हैं? सवाल किसी सरकारी अफसर से करें तो आंकड़ों के पैंतरे से वह आपको निरूत्तर कर देंगे। यही सवाल अगर किसी शिक्षक से करें तो उसके चेहरे की विस्मयाधिबोधक मुस्कान आपको फिर एक नया सवाल पूछने के लिए बाध्य कर देगा। यही सवाल अगर झारखंड के किसी सुदुर देहात के किसी घर में आप किसी बड़े से करें तो फिर आपको पता चलेगा कि कौन आगे बढ़ रहा है। कौन पढ़ रहा है और किसका स्कूल छूट जा रहा है।
करोड़ों खर्च के बाद भी जिस राज्य में बच्चों को समय पर किताबें नहीं मिल पा रही हों, वहां शायद यह पूछना बेमानी सा लगता है कि आखिर कुछ क्लास पढ़कर आदिवासी और संथाल लड़कियां अपना स्कूल क्यों छोड़ देती हैं। संथाल परगना के दुमका जिले में शिक्षा विभाग में नौकरी कर रहे अनुग्रह नारायण झा बताते हैं, ‘शिक्षकों पर गैर शैक्षणिक कार्यों का काफी बोझ है। मध्याह्न भोजन से शिक्षकों को अलग नहीं किया जा सका है। अपनी मांगों को लेकर राज्य के 80 हजार पारा शिक्षक कई बार हड़ताल कर चुके हैं। राज्य के मध्य विद्यालयों में प्रधानाध्यापक के 90 प्रतिशत पद खाली हैं।’
आंकड़ों के इस रस्मी उदाहरण पर मैं कुछ सोच पाता, उससे पहले झा एक दूसरा दर्द सुनाते हैं, ‘शिक्षक पढ़ाएंगे तो बच्चे पढ़ेंगे। लेकिन, एक जान और बहत्तर काम।... राज्य के प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ने के प्रमुख कारण है, मध्याह्न भोजन में फंसे शिक्षक। अदालत के आदेश के बावजूद राज्य में शिक्षकों को गैर-शैक्षणिक कार्यो में लगाया जा रहा है। राज्य के 40 हजार स्कूलों के 45 लाख बच्चों को मध्याह्न भोजन दिया जाता है। कागज पर इसकी जिम्मेदारी सरस्वती वाहिनी को दी गई है, पर इसका पूरा लेखा-जोखा शिक्षकों को ही रखना होता है। गड़बड़ी पर शिक्षक ही जिम्मेदार होते हैं।’
झा से मेरी मुलाकात एनएफआई की फेलोशिप के दौरान देवघर जिले के बारे में भी जानकारियां एकत्रित करने के दौरान हुई। यहां से लगभग साढ़े तीन घंटे के सफर के बाद मैं देवघर पहुंचा। वहां मेरी मुलाकात रिटायर्ड स्कूल इंस्पेक्टर डीके यादव से हुई। वे मुझे सरकारी व्यवस्था के बारे में आंकड़ों के चलते-फिरते बैंक से लगे। बात राज्य में शिक्षा के स्तर को लेकर शुरू हुई, तो वे लगभग उबल पड़े, ‘झारखंड को बने लगभग 12 साल हो गए। इन 12 सालों में इंटरमीडिएट की पढ़ाई को डिग्री कॉलेजों से अलग नहीं किया जा सका है। जबकि, यूजीसी के निर्देशानुसार अन्य राज्यों ने यह काम कर लिया है। इंटर की पढ़ाई अलग नहीं होने के कारण विद्यार्थियों का पाठ्यक्रम पूरा नहीं हो पाता है। डिग्री कॉलेजों में वर्ष में 180 दिन पढ़ाई होती है, जबकि इंटर का पाठ्यक्रम पूरा करने के लिए कम से कम 220 दिनों की पढ़ाई अनिवार्य है। नतीजा यह है कि छह सालों में इंटर के नतीजे 50 प्रतिशत या इससे भी नीचे रहे हैं।’ ये तो नतीजे की बात हुई, लेकिन उनके पास और भी चौंकाने वाले आंकड़े हैं-‘राज्य के 230 प्लस टू स्कूलों में से 171 में प्रयोगशाला नहीं है। पुस्तकालय तो कहीं है ही नहीं। जहां प्रयोगशाला है, वहां उपकरण और रसायन नहीं हैं। प्रयोगशाला सहायक नहीं हैं। प्रयोगशाला के लिए किसी तरह के बजट का प्रावधान नहीं है। राज्य के 59 प्लस टू स्कूलों का न तो अपना भवन है, न ही संसाधन। यहां के उच्च विद्यालय के भवन में ही प्लस टू की पढ़ाई होती है।’ झारखंड में शिक्षा का यह ऐसा चेहरा था, जिसके बारे में मैं पढ़ता तो रहा था, लेकिन पहली बार सुना और महसूस किया। देवघर के रोहिणी इलाके में रहने वाले डीके यादव के पड़ोस में पिछली बार 17 लड़कों ने इंटर की परीक्षा दी थी, मात्र 4 पास हुए। दर्द पड़ोस से उठा था, इसलिए राज्य के आंकड़े जुटते देर नहीं लगी। वहीं राजकपूर महतो मिले। वे शिक्षक बनना चाहते थे। अब एक दल के नेता हैं। एक एनजीओ भी चलाते हैं। शिक्षा की दुर्दशा को लेकर बताने के लिए उनके पास भी कुछ कम मसाला नहीं था। उन्होंने कहा कि शिक्षक हैं कहां, जो पढ़ाएंगे। जब शहर और कस्बों में ये हाल है तो गांव की खुद सोच लीजिए। बातों का असर नहीं होते देख, वह कागजी प्रमाण पर उतर आए। जल्दी ही उनके हाथ में अखबार की एक कटिंग थी-‘प्राथमिक से लेकर प्लस टू उच्च विद्यालय तक शिक्षकों के 60 हजार से अधिक पद खाली हैं। राजकीय व प्रोजेक्ट उच्च विद्यालयों में 25 वर्ष से नियुक्ति नहीं हुई। 7,900 राजकीयकृत उच्च विद्यालयों में 12 वर्ष में केवल एक बार शिक्षक नियुक्ति हुई। 1223 अपग्रेड उच्च विद्यालयों में एक भी शिक्षक नहीं हैं। प्लस टू उच्च विद्यालयों में मात्र आठ विषयों के शिक्षकों के पद सृजित हैं।’
मुझे मॉडल स्कूल के बारे में ख्याल आया। वर्ष 2011 में राज्य में 40 मॉडल स्कूल खोले गए थे। विद्यालय को केंद्रीय विद्यालय की तर्ज पर खोला गया था। इसमें अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई होती है। विद्यालय में अनुबंध के आधार पर गणित, विज्ञान व सामाजिक विज्ञान विषय के शिक्षक नियुक्त किए गए थे। अब क्या हाल है? जवाब के लिए राजकपूर महतो और डीके यादव दोनों तैयार थे। जवाब दिया यादव जी ने-‘वर्ष 2011 में 40 मॉडल स्कूल खोले गए थे। स्कूलों का अपना भवन नहीं है। तीन विषय के ही शिक्षक हैं और अब फिर से 49 स्कूलों में पढ़ाई शुरू करने की योजना है सरकार की। शिक्षकों की नियुक्ति वर्ष 2011 में जून-जुलाई में की गई थी। एक वर्ष से शिक्षकों को मानदेय नहीं मिला है। प्रति कक्षा 120 रुपये के हिसाब से शिक्षकों को मानदेय देना है। उवि के शिक्षक ही मॉडल स्कूल में कक्षा लेते हैं।’मैं देवघर से आगे मधुपुर की तरफ बढ़ रहा था। रास्ते में सर्व शिक्षा अभियान के तहत बने कई स्कूल दिखाई दिए। शाम हो चली थी। किसी भी स्कूल में रोशनी नहीं। हां, सौर उर्जा से जलने वाले बल्व के यंत्र जरूर कहीं-कहीं नजर आए। उन्हीं स्कूलों में से एक में टिमटिमाती हुई रोशनी में दीवाल पर पेंसिल के दोनों छोर पर झूलते हुए दो बच्चे नजर आए। यह सर्व शिक्षा अभियान का लोगो है। नीचे लिखा हुआ था-‘सब पढ़ें, सब बढ़ें।’
(लेखक ने एनएफआई फैलोशिप के तहत शोध कार्य किया है।)

उजड़ गई रेशम नगरी

                                                         कुमार कृष्णन
अर्थव्यवस्था के वैश्विक होते ही स्थानीय व लघु उद्योग धंधों की तो जैसे शामत ही आ गई। कृषि के बाद सर्वाधिक रोजगार प्रदान करने वाला वस्त्र उद्योग आज पतन के गर्त में जा रहा है। न्यूनतम पूंजी की दरकार वाले पावरलूम एवं हैंडलूम उद्योग को यदि सहारा दिया जाता है तो बेरोजगारी
        बड़ी औद्योगिक कंपनियों, निर्यातकों और आयातकों को नीतिगत छूट सन 1997 में वैश्विकरणवादी नीतियों से लागू किए गए दूसरे चरण के सुधारकों के जरिए दी गई। यह दूसरा चरण जैसे-जैसे आगे बढ़ा, वैसे-वैसे पावरलूम और अन्य तमाम छोटे उद्योगों के भविष्य पर विराम लगता गया है। भागलपुर के पावरलूमों की खटपट अब शांत होने लगी है। 50 प्रतिशत पावरलूम अब पूरी तरह से ठप्प हो गए हैं। इनके मालिक धागे व बिजली की महंगाई के साथ मजदूरों की कमी का भी रोना रो रहे हैं।
          धागे के कारोबार पर सटोरियों का कब्जा हो गया है। सन 2008 की मंदी के दौरान बड़े कारोबारियों ने पावरलूमों का माल लेने से मना कर दिया था। ब्रिकी बाजार के घटाव और धागे की बढ़ती कीमतों के चलते छोटे पावरलूम मालिक बार-बार कर्ज लेने के लिए मजबूर होते रहे हैं। उन्हें बाजार से मिलने वाला कर्ज 24 से 30 प्रतिशत सालाना ब्याज दर पर उठाना पड़ता है। इसे वे कभी चुकता नहीं कर पाए। इसलिए उन्हें पावरलूम बंद करने पड़े।
           चंपानगर (भागलपुर) निवासी मोहम्मद जावेद अंसारी एक बुनकर हैं, उसके पास खुद का पावरलूम तो है, लेकिन इतना पैसा नहीं कि वह उसे चला सके। इसके अलावा बिजली की समस्या अलग से है। नतीजतन, उसके घर की स्थिति दिनोंदिन दयनीय होती जा रही है। वह असमंजस में है कि बाहर जाकर क्या करेगा? क्या इतना कमा पाएगा कि वहां से अपने घर-परिवार के लिए पैसा भेज सके? उसे सरकार की विभिन्न योजनाओं की भी जानकारी है, लेकिन वह कहता है कि योजनाओं का लाभ सिर्फ पहुंच वाले लोगों को ही मिल पाता है, उस जैसे गरीब को नहीं। पिछले चार-पांच सालों के अंदर यहां से करीब 8 से 10 हजार बुनकर मुंबई, मेरठ, मद्रास एवं दिल्ली आदि शहरों में चले गए। इनमें से कुछ तो दूसरे शहरों में पावरलूम कंपनियों में ही काम कर रहे हैं, जबकि कुछ लोग आॅटो-रिक्शा चलाने और सब्जी बेचने के लिए मजबूर हैं।
          भागलपुर को दुनिया रेशम नगरी के नाम से जानती है। बिहार में बुनकरों की संख्या करीब 4 लाख है। वर्ष 1989 तक भागलपुर के बुनकर अकेले पूरे देश का 48 प्रतिशत रेशम तैयार करते थे। भागलपुर के दंगे की आग में अगर सबसे ज्यादा किसी को नुकसान हुआ तो वे थे, इस जिले के बुनकर। दंगे के बाद इस उद्योग में लगातार गिरावट आती गई। विदेशों से आॅर्डर आने बंद हो गए। 1990 में आई लालू यादव की सरकार ने भी निराश किया। शहर के एक चिकित्सक डॉ. एसपी सिंह का कहना है कि बुनकरों में टीबी, निमोकोनिएसिस और दमा की बीमारियां लगातार बढ़ रही हैं। भागलपुर संसदीय क्षेत्र में बुनकर मतदाताओं की संख्या करीब डेढ़ लाख है, वहीं भागलपुर विधानसभा के अंतर्गत करीब 45 हजार बुनकर मतदाता हैं। इन आंकड़ों से पता चलता है कि यहां कौन सांसद या विधायक बनेगा, यह फैसला बुनकरों के वोट करते हैं, इसके बावजूद उनकी दशा यथावत बनी रही। वर्ष 2005 में जदयू-भाजपा गठबंधन वाली नीतीश सरकार बनी। यहां के अश्विनी चौबे लगातार तीसरी बार विधायक व राज्य सरकार में मंत्री बने और सांसद सुशील कुमार मोदी उप मुख्यमंत्री बन गए। मोदी के उप मुख्यमंत्री बनने से भागलपुर संसदीय सीट खाली हो गई। इस बार भाजपा की ओर से कद्दावर नेता सैयद शाहनवाज हुसैन को मैदान में उतारा गया। वे तो जीत गए, लेकिन, भागलपुर का रेशम कॉलेज आज भी बंद है और बुनकरों की बदहाली का रंग दिनों-दिन गहराता जा रहा है।
          जिले के एक वार्ड पार्षद खुर्शीद आलम बबलू बताते हैं कि बैंकों ने अब बुनकरों को कर्ज देना भी बंद कर दिया है। नतीजतन, बुनकर साहूकारों से अधिक ब्याज दर से कर्ज लेते हैं, जिसे चुकाने के लिए घर-जमीन तक बेचना पड़ता जाता है। नाथनगर के बुनकर मोहम्मद नूर आलम का कहना है कि सबसे बड़ी समस्या बिजली की है। 24 घंटे में केवल 3-4 घंटे ही बिजली देखने को मिलती है। आलम बताते हैं कि पूरे इलाके में केवल 10-12 बड़े व्यवसायी हैं, जिनके पास पूंजी है। वही जनरेटर और पैसे की बदौलत अपने कारखानों को जिंदा रखने में सफल रहे हैं। उनके यहां बुनकर काफी कम मजदूरी पर काम करते हैं, क्योंकि काम कम है और बुनकरों की संख्या अधिक।
          नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने से यहां के बुनकरों में उम्मीद जगी थी। बिजली की महंगाई और धागों की कीमतों में लगातार बढ़ोत्तरी आदि के चलते लागत बढ़ती जा रही है, लेकिन अगर बाजार में मांग बनी रहे और बढ़ती रहे तो लूम ठप पड़ने की गुंजाइश कम हो जाएगी। इसे विपरीत बाजार में माल जाम होने के फलस्वरूप उत्पादन का अगला चक्र भी जाम हो जाएगा। दरअसल, भागलपुर में और अन्य जगहों के पावरलूमों के साथ यही कुछ हो रहा है। वैसे ऐसा केवल पावरलूमों के साथ नहीं, बल्कि ज्यादातर छोटे उद्योगों के साथ हो रहा है। पावरलूम का क्षेत्र, कपड़ा उत्पादन का क्षेत्र है। इस क्षेत्र में कपड़े का बाजार का खासा हिस्सा अब रेडीमेड कपड़ो में बदल गया है और विदेशी आयातित कपड़ों की भी धूम मची हुई है। इसके चलते भी बिना सिले कपड़ों का बाजार संकुचित होता जा रहा है। फिर इसके अलावा बिना सिले कपडेÞ के बाजार का बड़ा हिस्सा देशी बड़ी मिलों के उत्पादित कपड़े के रूप में है।
         पहले कई दिग्गज कपड़ा मिलें भी पावरलूम से उत्पादित कपड़ों पर अपना ट्रेड मार्क लगाकर बाजार में उतारती रहती थीं, लेकिन अब वैसा माहौल नहीं रहा। मुंबई व कानपुर जैसे शहरों की तमाम कपड़ा मिलों को उनके धनाढ्य मालिक पिछले 20-25 सालों से बंद करते जा रहे हैं। चीन, कोरिया जैसे देशों से भी कपड़े का आयात होने लगा है। पावरलूम जैसे तमाम छोटे उद्योगों की बबार्दी पर उसी दिन मुहर लग गई थी जब वर्ष 1997 से लगातार विदेशी आयात पर लगे प्रतिबंधों को हटाने का काम हुआ। इससे भी पहले छोटे एवं कुटीर उद्योगों के क्षेत्रों में घुसने से रोकने के लिए देश की बड़ी कंपनियों पर लगे एमआरटीपी जैसे कानूनी प्रतिबंध को भी काटने-घटाने से इन छोटे उद्योगों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता रहा है। पावरलूमों की बिगड़ती स्थितियों के मद्देनजर बुनकरों ने केन्द्रीय सरकार से अपनी सुरक्षा की मांग की है। लेकिन, ऐसी मांगें भी अंतोगत्वा छोटे उद्यमियों को धोखे में ही रखने वाली साबित होंगी, क्योंकि विदेशी कंपनियों को छूट देते हुए सरकार अब इनकी सुरक्षा कदापि नहीं कर सकती।
की समस्या से कुछ हद तक निपटा जा सकता है।

मजहब पर भारी समाज

                                   सलीम अख्तर सिद्दीकी
सुबह के लगभग सात बजे थे। मैं अभी सोकर नहीं उठा था। दरवाजे पर दस्तक हुई। बाहर निकल कर देखा, तो मेरे मोहल्ले के कुछ ‘मौअजिज’ लोग खड़े थे। उनमें से कुछ हज कर आए थे और कुछ जाने की तैयारी में थे। कुछ ऐसे भी थे, जो कई साल से इस्लाम की दावत दे रहे थे और इस काम के लिए दुनियाभर में घूमते थे। उन्होंने मुझसे दरियाफ्त किया कि मोहल्ले की कुछ समस्याओं के लिए     इलाके के पार्षद के यहां जाना है। पार्षद दलित हैं तथा हमारे घर से कुछ ही दूरी पर उनका मकान है। सुबह-सुबह जाने का मकसद यही था कि वह घर पर ही मिल जाएंगे। सभी पार्षद के घर पहुंचे। उन्होंने बड़ी गर्मजोशी से सबका इस्तकबाल किया। बैठे हुए थोड़ी ही समय हुआ कि एक छोटी बच्ची गिलास में पानी लेकर हाजिर हुई। सभी ने एक-एक करके पानी के लिए मना कर दिया। अकेले मैंने ही पानी के गिलास की ओर हाथ बढ़ाया। पानी पीते हुए मेरी नजर अपने एक साथी पर पड़ गई। वह मुझे अजीब नजरों से देख रहे थे, जैसे कह रहे हों कि ‘यह क्या कर रहे हो।’ मैं उनकी नजरों को समझने की कोशिश कर ही रहा था कि एक टेÑ में चाय, नमकीन और बिस्कुट आ गए। पार्षद ने सभी से चाय लेने का आग्रह किया। लेकिन, सभी ने कोई न कोई बहाना बना इंकार कर दिया। पार्षद के चेहरे पर व्यंग्यात्मक भाव आए। पार्षद ने मेरी ओर देखा। मैंने ट्रे से चाय का कप उठा लिया। बाकी चाय के कप ट्रे में रखे रहे। किसी ने नमकीन और बिस्कुट की ओर भी हाथ नहीं बढ़ाया। पार्षद ने संबंधित समस्याएं सुनीं और उन्हें दूर करने का आश्वासन दिया। थोड़ी देर बाद पार्षद से चलने की आज्ञा मांगी, तो उन्होंने कहा, ‘मैं भी आपसे कुछ कहना चाहता हूं।’ सभी ने उनकी ओर सवालिया नजरों से देखा। पार्षद ने कहना शुरू किया, ‘जिस धर्म से आप हैं, मैंने उसका थोड़ा-बहुत अध्ययन किया है। मुझे हजरत मुहम्मद साहब की वह बात बहुत अच्छी लगती है, जब उन्होंने एक हब्शी गुलाम को खरीदकर उस समय गले लगाया था, जब कोई उनके पास जाना भी नहीं चाहता था। वह गुलाम हजरत बिलाल थे। मेरा यही अनुरोध है कि कम से कम इस्लाम के बुनियादी उसूलों पर समाज की कुरीतियों का बोझ डालकर उन्हें दबाइए मत।’ किसी के पास कोई जवाब नहीं था। बात में पता चला कि उनमें से कई को यही पता नहीं था कि हजरत बिलाल कौन थे?
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कुंवर सिंह : लॉयन ऑफ 1857

                                                                                         देवेन्द्र प्रताप
कुंवर सिंह 
1857 के पहले हुए विद्रोहों में आम जनता 'अंग्रेज परस्त सामंतों तथा उनके ब्रिटिश आकाओं, दोनों को ही अपना दुश्मन समझती थी जबकि, बागी सामंतों के साथ मिलकर न सिर्फ वह अंग्रेजों के खिलाफ लड़ती थी, बल्कि उन्हें अपनी स्मृति में रचा-बसाकर सदा के लिए अमर कर देती थी। यही बात 1857 के विद्रोह में भी नजर आती है। अमर सिंह और कुंवर सिंह के जीवित न रहने के बावजूद, आज तक उनके गीत गाए जाते हैं। अंग्रेज परस्त सामंतों में से एक नाम महेश्वर बख्स सिंह का है। उसने कुंवर सिंह के जीवित रहते अंग्रेजों की मदद की थी, इसलिए आम जनता उससे घृणा करती थी। कुंवर सिंह की मृत्यु के बाद भी महेश्वर को हमेशा जनता से डर बना रहता था। उसके द्वारा शाहाबाद के कलेक्टर को लिखे पत्र को दुर्गाप्रसाद ने अपने शोध ग्रंथ में भी शामिल किया है। इस पत्र में महेश्वर  लिखता है, ‘शाहाबाद जिलेभर के निवासी, जहां प्रार्थी की अधिक जमींदारी है, प्रार्थी से सबसे अधिक घृणा और नफरत इसलिए करते हैं कि प्रार्थी ने मृत बागी बाबू कुंवर सिंह के विरुद्ध गत विद्रोह में अंग्रेजों की मदद की थी। लड़ाई के प्रारंभ में ही यह भावना उत्तोत्तर बढ़ती गई और आज तो बहुत बढ़ गई है। इसलिए इतने कम हथियार रखने की आशा से-जबकि आपका प्रार्थी अधिक हथियार रखने की आज्ञा की आशा  किए था-प्रार्थी को अधिक हानि होने की निश्चित संभावना है।'
           1857 के महान स्वतंत्रता संग्राम की विचारधारा को लेकर जितनी बहसें हमारे मुल्क में हैं, उतनी बहस शायद ही दुनिया के किसी आंदोलन को लेकर हो। इसमें से एक पक्ष न सिर्फ 1857 को स्वतंत्रता संग्राम मानने से इंकार करता है, वरन वह इसे महज सामंतों का विद्रोह करार देता है। 1857 के हजारों रणबाकुरों में से एक नाम बाबू कुंवर सिंह का भी है। 23 अप्रैल को उनकी पुण्य तिथि है। वीर कुंवर सिंह ने जिस तरह अंग्रेजों से लोहा लिया उसे देखकर लीबिया के महान स्वतंत्रता स्वतंत्रता सेनानी उमर मुख्तार की याद आ जाती है। गुरिल्ला युद्ध की दोनों की तकनीक में समानता दुर्लभ है। लेकिन, एक तरफ जहां उमर मुख्तार पर हॉलीवुड में ‘डेजर्ट आॅफ लॉयन’ नाम से अत्यंत प्रसिद्ध फिल्म भी बन चुकी है, वहीं हमारे देश की बड़ी आबादी वीर कुंवर सिंह का नाम तक नहीं जानती।
  बिहार में जगदीशपुर के जमींदार कुंवर सिंह ने 70 साल की उम्र में जब विद्रोह किया, तो अंग्रेज सरकार ने उन्हें और उनके साथियों को 'डकैतों  की सूची में डाल दिया। राष्ट्रीय अभिलेखागार में विदेश विभाग की फाइल (763/25.06.1858) इस बात की गवाही देती है। यह फाइल कहती है, ‘उस किसी व्यक्ति को 25 हजार रुपए पुरस्कार दिए जाएंगे, जो जगदीशपुर के विद्रोही बाबू कुंवर सिंह को जीवित रूप से किसी ब्रिटिश सैनिक चौकी अथवा कैंप में सुपुर्द करेगा। आगे यह भी सूचित किया जाता है कि  इस पुरस्कार के अलावा पहली तारीख को जारी सरकारी घोषणा 470 में उल्लेखित बातों के अतिरिक्त किसी भी बलवाई अथवा भगोड़े सैनिक अथवा किसी भी विद्रोही को क्षमा कर दिया जाएगा, जो कुंवर सिंह को सुपुर्द करेगा।'
             नेशनल आर्काइव की एक अन्य फाइल (13/12.01.1858) के अुनसार वीर कुंवर सिंह के भतीजे रिपुभजन सिंह को पकड़वाने पर भी अंग्रेज सरकार ने 50 रुपयेपुरस्कार की घोषणा की थी। लेकिन इसके बावजूद अंग्रेजों को कोई एक नागरिक या सैनिक नहीं मिला, जो कुंवर सिंह या उसके साथियों को अंग्रेजों के हवाल करे या उनकी सूचना तक दे। अलबत्ता, अंग्रेजों के शस्त्रागार से न सिर्फ हथियार गायब होत रहे, बल्कि जगदीशपुर से आजमगढ़ तक के सामंतों और आम जनता ने उन्हें सहयोग देना भी जारी रखा। जब कुंवर सिंह को चारों ओर अंग्रेजों के जासूस ढूंढ़ रहे थे, तब वे शिवपुर में आराम से भोजन कर रहे थे तथा नदी को पार करने के लिए नावों की व्यवस्था कर रहे थे। शिवपुर के सामंतों ने उन्हें 20 नावें दीं, जिससे कुंवर सिंह ने मय लाव-लस्कर दी पार की।
           जो इतिहासकार 1857 को महज सामंतों का विद्रोह करार देते हैं, तथा सभी सामंतों को एक ही लाइन में खड़ा कर देते हैं। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि जनता का एक बड़ा तबका कुंवर सिंह जैसे अंग्रेजों के बागी सामंतों के साथ था।अब ऐसे में 1857 को महज सामंतों का विद्रोह कहना कहां तक सही होगा? आप चाहें तो नेशनल आर्काइव की फाइल (वि.विभाग 504/28.05.1858) भी खंगाल सकते हैं। इसके अनुसार, जब कुंवर सिंह नदी पार करने की योजना पर काम कर रहे थे, तो उनकी शिवपुर के ग्रामीणों ने भी हर संभव मदद की। कुंवर सिंह के भाई अमर सिंह को भी आम ग्रामीण जनता ने न सिर्फ पूरा सहयोग दिया, बल्कि उनकी सेना में भर्ती होकर उसने अंग्रेजों को मार भगाने की कोशिश की। इलाहाबाद से जीएफएडमास्टन ने ईए रीड को प्रेषित तार (सेक्रेटैरियट रिकॉर्ड रूम, लखनऊ) में लिखा: 'अमरसिंह 7000-9000 आदमियों-मुख्यत: ग्रामीणों के साथ हमारी घेरेबंदी कर रहे हैं और रसद एकत्र कर रहे है। इतने बड़े पैमाने पर किसानों  के बीच से सेना में भर्ती, ब्रिटिश सम्राज्यवाद के खिलाफ 'बागी सामन्तों' और किसानों की जर्बदस्त एकता के बिना संभव नहीं है।
       एक सवाल यह भी उठता है कि यदि अंग्रेजों के बागी सामंत जीत जाते तो फिर से भारत में सामंतवाद की वापसी हो जाती। यह बहस का विषय है। फिर भी ऐसे लोगों को अमर सिंह द्वारा जगदीशपुर में गठित क्रांतिकारी सरकार के बारे में अध्ययन करना चाहिए, जो नई तथा पुरानी (परंपरागत) व्यवस्थाओं के मेल से बनी थी। इसकी एक खास व्यवस्था अदालते आम थी, जिसमें न्यायधीशों की कुर्सी पर सवर्ण और अवर्ण दोनों जातियां साथ बैठती थीं। इस संबंध में दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह ने अपने शोध के जरिए बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्यों को उजागर किया है। 1955 में प्रकाशित इस शोधग्रंथ के अनुसार, ‘अदालते आम में चार सदस्य थे शंकर मिश्र, मुल्क सिंह, द्वारिका माली और मंगल सिंह।'  दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह द्वारा दिए गए नाम, अंग्रेजों द्वारा जारी बागियों की सूची से मेल खाते हैं, अंग्रेजों ने इन्हें 'आम अदालत कौन्सिलर' कहा है। अदालते आम में द्वारिका प्रसाद माली दलित जाति के थे। यह निश्चित तौर पर एक आगे बढ़ा हुआ कदम था। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस भी आंदोलन में जनता की जितनी ज्यादा और सचेतन भागीदारी होती है, उसमें उसकी आकांक्षाओं की प्रतिध्वनि भी उतनी ही तेज होती है। महेश्वर बख्श सिंह, कुंवर सिंह का सगोत्रीय भाई था। इसी तरह रिपुभंजन सिंह तथा गुमान सिंह जो कि कुंवर सिंह के भतीजे थे, उन्होंने भी गुपचुप तरीके से अंग्रेजों की मदद की थी। 'विद्रोह कुचल दिए जाने के बाद ऐसे महानुभाव बड़े उत्साह के सामने आए और क्रांति में भाग लेने वालों को डरा-धमकाकर अपना उल्लू सीधा करने लगे तथा सरकार से अपनी खैरख्वाही के लिए जागीर पाने की कोशिश करने लगे। इनकी इन करतूतों से जनता की इनके प्रति घृणा इतनी तीव्र हो गई कि इनका सामाजिक बहिष्कार तक होने लगा।' कुंवर सिंह की मृत्यु के बाद भी, लंबे समय तक 'अंग्रेज परस्त सामंत' जाति-बिरादरी से बहिष्कृत रहे यानी शादी-ब्याह, तीज-त्योहार आदि में ये लोग बिरादरी से बहिष्कृत रहे। ऐसे सैकड़ों अन्य उदाहरण पूरे देश में बिखरे पड़े हैं, जो चीख-चीखकर 1857 के महान स्वतंत्रता संग्राम को महज ‘सैनिक विद्रोह’ या सामंतों का विद्रोह मानने से इंकार करते हैं। जरूरत इस बात की है कि दुनिया के स्तर पर इस सबसे बड़े जनविद्रोह को पुराने सांचे से देखने के बजाए, नए नजरिए से देखा जाए।

दिमाग पर हावी बुद्धू बक्सा

टेलीविजन पर घूमती-फिरती छवियां ज्यादा असरदार होती हैं। ये लोगों को ज्यादा चिंतन-मनन का मौका नहीं देतीं। जिंदगी के किसी यथार्थ चित्र की तरह ये दृश्य हमारे दिमाग में ज्यों के त्यों रच-बस जाते हैं, भले ही वे पूरी तरह काल्पनिक ही क्यों न हों। श्रव्य-दृश्य माध्यम की यही ताकत है। वरना, हम अपने हमदर्द मित्रों से भी ज्यादा चलचित्र की दुनिया के  इन नायक-नायिकाओं को अपना करीबी कैसे मान लेते। ऐसे जबरदस्ती के नायक जो किसी कठिन घड़ी में हमारी मदद नहीं करते, उनसे हमारी कभी बातचीत नहीं होती, मुलाकात का तो सवाल ही नहीं, लेकिन हम उनके फैन बन जाते हैं? बाजार में मौजूद दिग्गज कंपनियां इसका फायदा उठाती हैं और इनके माध्यम से उपभोक्ताओं तक अपनी पहुंच बनाती हैं।
                                                             विक्रम प्रताप
टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रम साहित्य या संगीत की तरह अमूर्त और गंभीर नहीं होते। मूर्त रूप में दिखने वाली घूमती-फिरती छवियां ज्यादा असरदार होती हैं। इन्हें देखकर लोग चिंतन-मनन नहीं करते। जिंदगी के किसी यथार्थ चित्र की तरह ये दृश्य हमारे दिमाग में ज्यों के त्यों रच-बस जाते हैं, भले ही वे पूरी तरह काल्पनिक ही क्यों न हों। श्रव्य-दृश्य माध्यम की यही ताकत है। वरना हम अपने हमदर्द मित्रों से भी ज्यादा कैटरीना कैफ और शाहिद कपूर जैसे नायक-नायिकाओं को अपना करीबी कैसे मान लेते, जिनसे पूरी जिंदगी में न हमारी कभी कोई बातचीत हुई होती है, न मुलाकात और न ही किसी कठिन घड़ी में हमें उनका कोई सहयोग मिला होता है। फिर कैसे वे हमारी जिन्दगी के नायक-नायिका हो जाते हैं और क्यों हम उनके फैन हो जाते हैं? सच तो यह है कि टीवी के माध्यम से उनकी छवि चाहे-अनचाहे हमारे दिमाग में घुसेड़ दी जाती है। बाजार में मौजूद दिग्गज कंपनियां इसका फायदा उठाती हैं और इन्हें बाजार में अपना माल बेचने के लिए इस्तेमाल करती हैं। कार्यक्रम निर्माता इस मायाजाल के नकारात्मक पहलुओं का आभास भी नहीं होने देते। सब कुछ सहज और सामान्य लगे, यही उनकी कलाकारी है।
खड़ी हो रही ‘पप्पुओं’ की फौज
कुछ टीवी चैनल बच्चों को लक्ष्य करके फिल्में, कार्टून और विज्ञापन प्रसारित करते हैं। इन कार्यक्रमों के नायक बच्चों की चेतना कंपनियों के मुताबिक मनचाहे सांचे में ढालते हैं, नतीजतन बच्चे असली दुनिया से कट जाते हैं। इस तरह कम उम्र में जबकि वे प्रकृति और जिंदगी के रहस्य को अपने निजी अनुभव से जानते-समझते हैं, अपने हम उम्र बच्चों के साथ खेलकूद और लड़ाई झगड़े से दोस्ती-दुश्मनी के मायने समझते हैं, कठिन परिश्रम करने से उनके मन में श्रम की गरिमा स्थापित होती है, तो टीवी का कमाल देखिए कि उनका बचपन हैरी पार्टर और कार्टूनों की नकली दुनिया में गुम हो जाता है। बड़े होने पर ऐसे ‘पप्पुओं’ को सामान्य व्यवहारिक ज्ञान न होने के चलते उन्हें हर जगह हंसी का पात्र बनना पड़ता है।
माता-पिता भी हैं दोषी
बच्चों को इस नरक की ओर धकेलने में उनके मां-बाप का भी हाथ होता है, जो सोचते हैं, ‘बच्चा जितनी देर टीवी देखेगा, उतनी देर शैतानी नहीं करेगा।’ यही सोचकर वे चैन की सांस लेते हैं। वे यह नहीं समझ पाते कि शैतानी करके ही बच्चा सीखता है। सामान उठाने और फेंकने से ही उसे हल्की और भारी चीजों के अंतर पता चलता है। दीवार पर आड़ी-तिरझी रेखाएं खींचने पर चित्र और पृष्ठभूमि के अंतरसंबंधों की उसकी समझ साफ होती है। ऐसी न जाने कितनी शरारतें बच्चों को जिन्दगी की सीख देने वाले छोटे-छोटे प्रयोग होते हैं, जिससे वह प्रत्यक्ष ज्ञान हासिल करता है। इससे काटकर बच्चे को टीवी के सामने झोंककर उनसे राहत पाना आसान भले ही है, लेकिन इससे बच्चे का व्यक्तित्व कुंठित हो जाता है और उसकी जिंदगी नरक हो जाती है। बाल मनोविज्ञान की इन बुनियादी बातों को अच्छी तरह जानते हुए भी अपना माल बेचने के लिए कंपनियां बच्चों को अपना शिकार बनाती हैं। अबोध बच्चों के प्रति इस आपराधिक कुकृत्य में चाहे अनचाहे उनके अभिभावक भी शामिल होते हैं।
तू हां कर या ना कर...
टेलीविजन और अन्य दृश्य-श्रव्य माध्यमों के द्वारा परोसी जाने वाली उपभोक्तावादी संस्कृति हर किसी को अपनी जद में ले लेती है। यह उपभोक्ता को गलत-सही का निर्णय करने का अवसर नहीं देती। जैसे एक विज्ञापन में आपने देखा होगा कि खेलते समय प्यास लगने पर खिलाड़ी कोल्ड ड्रिंक की तरफ लपकते हैं। इसे प्यास बुझाने के सर्वश्रेष्ठ साधनों के रूप में दिखाया जाता है। लेकिन, कोल्ड ड्रिंक में कितना कीटनाशक मिला हुआ है और वह कितना हानिकारक है, इसके बारे में जानकारी देना कंपनियां अपनी नैतिक जिम्मेदारी नहीं समझतीं। वे विज्ञापन पर होने वाले खर्च का पाई-पाई वसूल लेना चाहती हंै। वे लोगों को अपनी शर्तों पर सामान खरीदने के लिए तैयार करती हंै और उनके सामने केवल दो ही विकल्प छोड़ती है, वे हां करें या इंकार। कोई तीसरा विकल्प नहीं होता। दिन में सैकड़ों बार हमें अलग-अलग सामानों के लिए अपनी राय देनी होती है कि हम फलां माल खरीदना चाहते हैं या नहीं।
‘बिना श्रम के कुछ भी हासिल करना चोरी है’
टेलीविजन पर आने वाले कई घटिया किस्म के कार्यक्रमों और मीठे जहर भरे विज्ञापनों का एक और खतरनाक पहलू श्रम की गरिमा का नाश करके हमारी नई पीढ़ी को पथभ्रष्ट करना है। यह तीन-तिकड़म, चोरी और सीनाजोरी के जरिए अपनी मनपसंद चीजें हासिल करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है। समझदार मां-बाप बच्चों में शुरू से मेहनत के प्रति लगाव पैदा करने की कोशिश करते हैं। बच्चों को कपड़े और घर की सफाई करना सिखाते हैं। वे बताते हैं कि बिना श्रम के कुछ भी हासिल करना चोरी है। हमें कठिन परिश्रम से नहीं घबराना चाहिए। लेकिन टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले कई कार्यक्रम और कंपनियों के विज्ञापन ऐसे सकारात्मक मूल्यों को रौंदने का काम कर रहे हैं। वे उपभोक्ता वस्तुओं के प्रति लोगों की भूख बढ़ाते हैं। अक्सर वे उसे हासिल करने का सही तरीका नहीं बताते और कभी-कभी तो वे उन तरीकों को बढ़ावा देते हैं, जो इंसान को गलत रास्ते की ओर ले जाते हैं, जैसे- रात में दुकानें बंद हैं, उसी समय हमारे कलाकार को प्यास लगती है और वह दुकान का शटर तोड़कर किसी खास ब्रांड की कोल्ड ड्रिंक से अपनी प्यास बुझा लेता है। चलचित्र के ये नायक लोगों के मन में माल के प्रति ऊंची जगह बना देते हैं। वे इन मालों को पाने के लिए लोगों के अंदर से सभी इंसानी रिश्तों के बंधन तोड़ने की सीख देते हैं। ये नए युग के देवता हैं। कई धार्मिक सीरियलों में भक्ति की जगह चोरी, घूस, दहेज आदि बुराइयों का पाठ पढ़ाया जाता है। परिचित लोगों को धोखा देकर संपत्ति हासिल करने की सीख दी जाती है और इस तरह हासिल की गई संपत्ति से अपने पुरातन देवताओं को खुश करने के लिए लडडू चढ़ाए जाते हैं, दान-धर्म का काम किया जाता है। मनोरंजन के नाम पर परोसे जाने वाले ऐसे कार्यक्रमों में अपराध और धर्म दोनों साथ-साथ उन्नति करते हैं।
समोसा पिछड़ी संस्कृति का प्रतीक कैसे है भैया?
ऊपर से थोपी जाने वाली उपभोक्तावादी संस्कृति का ही नतीजा है कि आज पिज्जा को श्रेष्ठ संस्कृति का प्रतीक बना दिया गया है और समोसे को पिछड़ी संस्कृति का। हमारे देश में शिक्षित और संपन्न तबके के लोगों में खासकर इस विदेशी संस्कृति के प्रति अंधानुकरण की भावना पैदा हुई है। इन उपभोक्ता वस्तुओं को लेकिर उनके अंदर एक किस्म का मिथ्याबोध पैदा हुआ है। यही वजह है कि किसी खास ब्रांड का टीवी, फ्रिज, कूलर और कार रखने वाला इंसान अपने को श्रेष्ठ समझता है, चाहे वह भ्रष्टाचारी और नैतिक रूप से पतित ही क्यों न हो। वहीं दूसरी ओर नैतिक और सदाचारी व्यक्ति अगर गरीब है, तो उसकी समाज मे कोई हैसियत नहीं। माल अंधभक्ति की यह संस्कृति हैसियत और सम्मान पाने के लिए किसी आदमी को नैतिकता और ईमानदारी की कसौटी पर नहीं कसती। उसके लिए ‘बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया’है।
जितने दर्शक उतनी बिक्री
सास-बहू के किस्से पर आधारित धारावाहिक, जासूसी नाटक, राजनीतिक उठापटक, खेल समाचार, रियलटी शो और धार्मिक कार्यक्रमों के जरिए टीवी के सामने भीड़ जुटाई जाती है और दर्शकों की उस जमात को विज्ञापन कंपनियों के हाथों बेच दिया जाता है। जितने अधिक दर्शक, उतना महंगा विज्ञापन। यही उनकी मोटी कमाई का जरिया है। लेकिन, ऐसा नहीं कि टीवी का हर दर्शक विज्ञापन देखकर तुरंत उसके प्रभाव में आ जाता है और न ही विज्ञापन उन्हें बाध्य करता है कि वे तुरंत विज्ञापित माल खरीदने दौड़ पड़ें। फिर भी, करोड़ों दर्शकों में से अगर सिर्फ 1 या 2 प्रतिशत लोग भी उनके द्वारा विज्ञापित माल खरीदें, तो यह संख्या लाखों में होती है और इस तरह उनका उददेश्य पूरा हो जाता है। एक ही विज्ञापन को बार-बार प्रदर्शित करने से उससे प्रभावित होने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जाती है और बार-बार देखने पर वह दर्शकों के अवचेतन में बस जाती है। वे दुकान पर जाते ही किसी खास ब्रांड का सामान मांगते हैं। कंपनियां यूं ही इन पर अरबों रुपये पानी की तरह नहीं बहा रही हैं। हमारे पसंदीदा कलाकार जिन उत्पादों पर खुद विश्वास नहीं करते और अपने जीवन में एक बार भी इस्तेमाल नहीं करते, उन्हीं सामानों का चंद खनकते सिक्कों के लोभ में झूठ बोलकर हमारे सामने प्रचार करते हैं। मजेदार बात यह कि ये लोग ही हमारे आदर्श या नायक भी बन जाते हैं।
हिंसा का पाठ
एक अध्ययन के अनुसार अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के दौरान अमरीका में एक बच्चा टीवी पर औसतन 8000 हत्याएं देखता है और 18 साल की उम्र तक वह दो लाख हिंसक घटनाओं का चश्मदीद होता है। टीवी के 69 प्रतिशत कार्यक्रम हिंसक होते हैं। बच्चे इन हिंसक दृश्यों के इतने आदी हो जाते हैं कि जघन्यता के प्रति उनका बोध और संवेदना बहुत ही कम हो जाती है। अमेरिका में बच्चों द्वारा जरा सी बात पर अपने प्रियजनों और सहपाठियों की हत्या कर देने की घटनाओं में बाढ़ सी आ गई है। अगर टीवी पर दिखाई जाने वाली हिंसा इसी तरह बनी रही तो क्या अमेरिकी समाज इस मानसिक रुग्णता से उबर पाएगा?
समोसे से हार जाएगा पिज्जा?
हमारे देश में समोसा, कचौरी, दही-बड़ा, इडली, डोसा, जलेबी और लजीज खानों की अनगिनत किस्में है। लेकिन, आजकल भांति-भांति के और मूलत: महिलाओं को ध्यान में रखकर बनाए जाने वाले कार्यक्रमों और कई तरह के विज्ञापनों के जरिए पिज्जा जैसे खाद्य पदार्थों को एक स्टेटस सिंबल की तरह और सबसे उम्दा खाद्य के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है। वे यह जानते हैं कि बिना किसी प्रचार के आज भी हमारे यहां का समोसा और अन्य विविधतापूर्ण खाद्य पदार्थों के सामने पिज्जा कहीं नहीं ठहरने वाला। इसीलिए कंपनियां अपने माल की बिक्री के लिए जनमानस तैयार करती हैं।
डियोड्रेंट बेचने के लिए स्त्रियों की गरिमा से खिलवाड़
पुरुष द्वारा डियोड्रेंट छिड़कने पर अर्द्धनग्न लड़कियां उसकी ओर खिंचती चली आती हैं। ऐसे कामुक विज्ञापनों के जरिए औरत की गरिमा को रौंदा जा रहा है। यह व्यवस्था सेक्स के प्रति बहसी और पाशविक रवैया अपनाने वाले लंपटों की जमात पैदा कर रही है। ऐसे नौजवान ही पूंजी के हाथ की कठपुतली बन सकते हैं, जो किसी स्त्री को इंसान समझने के बजाय उपभोग की वस्तु समझने लगे हैं। सांस्कृतिक  पतन को लेकर हाय तौबा मचाने वालों की तलवारें इस पतन के लिए जिम्मेदार पूंजी के खिलाफ क्यों नहीं उठती। वे यह देखने से क्यों इंकार कर देते हैं कि अंधउपभोक्तावादी पश्चिमी संस्कृति और कुछ नहीं, पूंजी की संस्कृति है। यह तर्क दिया जाता है कि गंदे कार्यक्रमों और विज्ञापनों को देखते हुए भी इनकी बुराइयों से बचा जा सकता है। इसका मतलब तो यह हुआ कि जहर खाने के बावजूद उसके प्रभाव से बचा जा सकता है।
-संपर्क: ऋषि नगर, मेरठ, मो. 9045110782

शनिवार, 20 अप्रैल 2013

नेपाली माओवाद और भारत नेपाल संबंधों पर अमलेन्दु उपाध्याय की आनंद स्वरुप वर्मा से बातचीत

अमलेन्दु उपाध्याय, 
बुधवार, १४ जुलाई २०१०
आनन्द स्वरूप वर्मा देश के जाने माने पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। संभवत: नेपाल की राजनीति और खासतौर पर वहां की माओवादी राजनीति पर भारत में उनसे ज्यादा गहराई के साथ कम ही लोग जानते हैं। अपनी बेबाक बयानी के लिए जाने जाने वाले वर्मा जी जब रौ में बोलते हैं तो इतना सच कि जुबां कड़वी हो जाए। जाहिर है सच कड़वा ही होता है। छपास डॉट कॉम के राजनीतिक संपादक अमलेन्दु उपाध्याय ने उनसे नेपाली माओवाद और भारत नेपाल संबंधों पर लम्बी बातचीत की। प्रस्तुत है उनसे बातचीत के प्रमुख अंश :-

आपकी फिल्म ‘फ्लेम्स ऑफ स्नो’ पर सेंसर बोर्ड ने पाबंदी क्यों लगा दी?

सेंसर बोर्ड का कहना है कि इस देश में अभी जो माओवादी आन्दोलन है, उसका जो विस्तार हुआ है उसे देखते हुए हम इस फिल्म पर रोक लगा रहे हैं। लेकिन हमारा कहना है कि इस फिल्म में भारत के माओवादी आन्दोलन के विषय में एक शब्द भी नहीं कहा गया है, कोई फुटेज भी नहीं है कोई स्टिल भी नहीं है। ऐसी स्थिति में अगर नेपाल के आन्दोलन पर, केवल माओवादी आन्दोलन पर नहीं बल्कि वहां के समग्र आन्दोलन पर कोई फिल्म बनाई जा रही है तो उसको यह बहाना देकर रोकना एकदम अनुचित है। क्योंकि यह फिल्म माओवादी आंदोलन के ऊपर नहीं है बल्कि उसके ऊपर केन्द्रित है। क्योंकि इस फिल्म की शुरूआत होती है जब पृथ्वीनारायण शाह ने नेपाल की स्थापना की थी यानि दो सौ ढाई सौ साल के दौरान जो आन्दोलन हुए उनकी झलक देते हुए यह माओवादी आन्दोलन पर केन्द्रित हो जाती है। क्योंकि यह मुख्य आन्दोलन था जिसने वहां राजशाही को समाप्त किया। अब अगर आप यह कहते हैं कि इस फिल्म से यहां के माओवादियों को प्रेरणा मिलेगी तो किसी एक जनतांत्रिक देश में इस तरह की बात कहकर किसी फिल्म को रोकना अनुचित है। तब तो अगर नेपाल के आन्दोलन पर कोई पुस्तक लिखी जाएगी तो भी प्रेरणा मिलेगी? यह स्थिति तो बिल्कुल जो हमारा फन्डामेन्टल राइट यानि अभिव्यक्ति की आजादी है उसका गला घोंटना है।क्या भारत का माओवाद और नेपाल का माओवाद अलग-अलग है?मेरे विचार में हर देश का माओवाद अलग-अलग होता है। क्योंकि जितने भी विचारक रहे हैं मार्क्स, लेनिन, स्टालिन, माओत्से तुंग या आज के दौर में प्रचण्ड, सबका यही कहना है कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद जो एक सिद्धान्त है, उसको आप अपने देश की सांस्कृतिक, भौगोलिक, राजनीतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि के अनुरूप लागू कीजिए। हर देश की राजनीतिक सामाजिक पृष्ठभूमि अलग होती है। नेपाल में राजतंत्र था और वहां एक जबर्दस्त सामंती राजनैतिक व्यवस्था थी। उसमें उन्होंने वहां किस परिस्थिति में माओवाद को लागू किया यह उनका मामला है। भारत के माओवाद और नेपाल के माओवाद में बहुत फर्क है। क्योंकि उन्होंने तो चुनाव में भी हिस्सा लिया और सरकार बनाई। जबकि भारत में अभी ऐसी स्थिति नहीं है। दोनों स्थितियों में फर्क तो काफी है। लेकिन नेपाल के माओवादी आन्दोलन से भारत के माओवादी आन्दोलन को प्रेरणा लेने का सवाल है, जैसा कि सेंसर बोर्ड कहता है तो वह यह भी प्रेरणा ले सकते हैं कि किस तरह कोई आन्दोलन आम जनता के बीच न केवल आदिवासियों के बीच पॉपुलर हो सकता है, मध्यवर्ग को भी प्रभावित कर सकता है, मध्यवर्ग को भी अपने दायरे में ले सकता है और वह एक निरंकुश व्यवस्था के खिलाफ सफल हो सकता है। तो दोनों में फर्क तो है। अब भारत में जो लोग हैं जो सत्ता में बैठे हैं जो सेंसर बोर्ड देख रहे हैं उनकी अकल इतनी नहीं है कि इतना विश्लेषण कर सकें।
क्या आपको लगता है कि भारत की सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था भारत के माओवादियों के खिलाफ हो चुकी है?
यह तो एक दूसरा सवाल हो गया क्योंकि इसका मुझसे कोई मतलब नहीं है। ( हंसते हुए) अगर आप हमसे भारत के माओवादी आन्दोलन पर बातचीत करना चाहते हैं तो एक अलग बात है। हमसे तो नेपाल पर ही बात करें।
चलिए नेपाल पर ही केन्द्रित होते हैं। अक्सर यह आरोप लगते रहे हैं कि नेपाल के माओवादियों से भारत के माओवादियों को समर्थन और मदद मिलती रही है और नेपाली माओवादियों का रुख हमेशा से भारत विरोधी रहा है। क्या नेपाली माओवादी वास्तव में भारत विरोधी हैं?
इसके लिए तो आपको यह देखना होगा कि भारत के माओवादियों की केन्द्रीय समिति और उनके बड़े नेता गणपति के हस्ताक्षर से अब से एक डेढ़ साल पहले खुली चिट्ठी नेपाल के माओवादियों को लिखी गई जिसमें नेपाली माओवादी आन्दोलन की तीखी आलोचना की गई। इस पत्र में यह आलोचना की गई कि नेपाली माओवादी क्रांति का रास्ता छोड़ करके संशोधानवादी हो गए। यह तो दोनों के संबंधों की बात है। जहां तक नेपाल के माओवादियों से मदद मिलते रहने की बात है तो वह इस स्थिति में कभी नहीं रहे कि भारत जैसे किसी विशाल देश के किसी संगठन को मदद कर सकें। अगर आप दोनों देशों के एरिया और आबादी की और रिसोर्सेस से तुलना करें तो देखेंगे कि वह भारत के मुकाबले कहीं ठहरते ही नहीं हैं। ऐसे में वह अपने को संभालेंगे कि भारत के माओवादियों की मदद करेंगे। इसलिए कोई भौतिक मदद या इस तरह की मदद की बात नहीं है लेकिन बिरादराना संबंध वह मानते हैं। वह तो भारत के माओवादियों के साथ, पेरू के माओवादियों के साथ, कोलंबिया के माओवादियों के साथ, हर देश के माओवादियों के साथ एक बिरादराना संबंध मानते हैं। वैसे ही भारत के माओवादियों के साथ मानते हैं। इससे ज्यादा उनका कोई लेना देना नहीं है।
लेकिन प्रचण्ड प्रधानमंत्री बनते ही पहले चीन गए जबकि परंपरा रही है कि नेपाल का राजनेता पहले भारत आता है। वैसे भी हम नेपाल के ज्यादा नजदीक हैं, क्योंकि हमारे सदियों पुराने संबंधा नेपाल से हैं। इस कदम से नहीं लगा कि प्रचण्ड के मन में भारत के प्रति कोई गांठ है?
देखिए यह कौन सी परंपरा है कि कोई प्रधानमंत्री जो बनेगा वह पहले भारत आएगा? भारत कोई मंदिर है जो वहां जाएगा और मत्था टेकेगा? जहां तक मेरा सवाल है मैं इस परंपरा के एकदम खिलाफ हूं। दूसरी बात किन परिस्थितियों में प्रचण्ड भारत न आकर चीन गए उसे देखना पड़ेगा। किसी भी विषय पर बात करते समय उस पूरी प्रक्रिया को देख लीजिए न कि केवल परिणिति। केवल परिणिति को देखने पर सही निष्कर्ष पर नहीं पहुंचेंगे। वह पूरी प्रक्रिया क्या थी मैं आपको थोड़ा संक्षेप में बता दूं। वहां पर बीजिंग में ओलंपिक खेल चल रहे थे चीन में। खेलों के उद्धाटन के समय चीन ने वहां के राष्ट्रपति को निमंत्रण दिया। रामबरन यादव को, जो नेपाली कांग्रेस के हैं। वह जब निमंत्रण मिला तो भारत के नेपाल में राजदूत राकेश सूद ने राष्ट्रपति से कहा कि आप चीन मत जाइए, इससे भारत को अच्छा नहीं लगेगा। तो राष्ट्रपति ने कहा कि हम नहीं जाएंगे। अब केवल बात राष्ट्रपति और राकेश सूद के बीच की होती तो यह किसी भी तरह स्वीकार्य हो सकती थी। मुझे व्यक्तिगत तौर पर यह भी स्वीकार्य नहीं है। लेकिन डिप्लोमैटिक रूप से एकबारगी यह स्वीकार्य हो सकता है। लेकिन राकेश सूद ने यह जानकारी प्रेस को दी कि हमने मना कर दिया और राष्ट्रपति नहीं गए। अब नेपाल की आम जनता को यह बात बहुत अच्छी नहीं लगी कि हमारे राष्ट्रपति को एक, मतलब राष्ट्रपति तो बहुत बड़ा पद है न, राष्ट्रपति को एक ब्यूरोक्रेट भारत का मना कर दे और वह मान जाए। जब समापन समारोह के लिए, तब यह प्रचण्ड प्रधानमंत्री नहीं बने थे, 15 अगस्त 2008 को बने हैं, और उनको जाना था 16 या 17 अगस्त को, इनको भी निमंत्रण मिला समापन समारोह के लिए और प्रचण्ड ने स्वीकृति दे दी थी। राकेश सूद ने उन्हें भी मना किया कि आप मत जाइए। तब प्रचण्ड ने कहा कि मैंने स्वीकृति दे दी है तो फिर सूद ने कहा कि आप मत जाइए भारत को अच्छा नहीं लगेगा। उन्होंने कहा मैं क्यों नहीं जाऊं जब मैंने स्वीकृति दे दी है मैं जाऊंगा। और वह चले गए। मान लीजिए कि प्रचण्ड उस समय नहीं जाते और राकेश सूद इस बात को भी प्रेस में देता ही कि हमने मना किया तो एक संप्रभु राष्ट्र के राष्ट्रपति और प्रधाानमंत्री को भारत का राजदूत मना कर दे कि आप यह न करें वह न करो, यह उचित नहीं है। इसलिए अपनी देश की जनता की भावनाओं को देखते हुए प्रचण्ड के लिए चीन जाना जरूरी हो गया था। अगर राकेश सूद ने यह गड़बड़ियां नहीं की होतीं तो शायद वह इसको एवायड भी कर सकते थे। इसलिए इस घटना का विश्लेषण पूरी परिस्थिति देखकर ही करना चाहिए। हालांकि प्रचण्ड ने भी इसके बाद जो कहा मैं उससे भी बहुत सहमत नहीं हूं कि ‘मेरी पहली राजनीतिक यात्रा तो भारत की ही होगी। क्या जरूरत थी यह भी कहने की। नेपाल एक संप्रभु राष्ट्र है वह भारत का कोई सूबा नहीं है कोई प्रॉविंस नहीं है कोई प्रांत नहीं है।
 देखने में आ रहा है कि माओवादियों का आन्दोलन नेपाल में भी कुछ कमजोर पड़ता जा रहा है और आम जनता पर उनकी पकड़ कुछ ढीली पड़ती जा रही है। क्या कारण हैं कि माओवादी कमजोर पड़ रहे हैं?
यह कहने का आधार कोई है?
जी बिल्कुल। अभी उन्होंने हड़ताल का आह्वान किया और लोगों ने सड़को पर उतरकर उसका विरोधा किया तो उन्हें हड़ताल वापस लेनी पड़ी? 
 नहीं। एक मई को जो हड़ताल का आह्वान किया था, वह आप नेपाल के किसी भी सोर्स से पता कर लीजिए अखबार से, जो बुर्जुआ अखबार हैं उनसे मालूम कीजिए वह अब तक का सबसे बड़ा प्रदर्शन था। रहा सवाल यह हड़ताल वापस लेने का तो वैसे भी उस को चार पांच दिन से अधिक नहीं चलाते क्योंकि उससे वहां की आम जनता को काफी दिक्कतें उठानी पड़तीं। लेकिन एक चीज का ध्यान दीजिए कि राजतंत्र समाप्त तो हो गया, भौतिक रूप से समाप्त हो गया। लेकिन अभी तमाम राजावादी तत्व सभी पार्टियों में मौजूद हैं। सामन्तवाद वहां अभी मौजूद है, वह तो समाप्त नहीं हुआ है। तो बहुत सारे ऐसे तत्व हैं जो इस समय अपने को माओवादियों के खिलाफ लामबंद कर रहे हैं। पिछले एक वर्ष के दौरान माओवाद विरोधी ताकतों को नजदीक आने का एक अच्छा मौका मिला है। इसमें बहुत सारी अन्तर्राष्ट्रीय ताकतें जिसमें अमेरिका और स्वयं भारत भी शामिल है, इन्होंने माओवाद के खिलाफ तत्वों की मदद की है। निश्चित रूप से जो खबरें आई हैं वह सही हैं कि कुछ प्रदर्शन हुए हैं काठमांडू में लेकिन काठमांडू और शहर तो कभी भी माओवादियों के आधार नहीं रहे उनका आधार तो ग्रामीण इलाका है। काठमांडू में जरूर इस तरह के तत्व हैं लेकिन केवल इस आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि उनकी पकड़ कमजोर पड़ गई है। क्योंकि जिस दिन माओवादियों की पकड़ कमजोर पड़ जाएगी उन्हें नष्ट करने में एक मिनट का भी समय वह ताकतें नहीं लगाएंगी जो उनकी विरोधी हैं।प्रचण्ड ने बीच में एक बार आरोप लगाया था कि उनकी सरकार गिराने में विदेशी ताकतों का हाथ था और खासतौर पर उन्होंने भारत की तरफ इशारा किया था और आपने सुना भी होगा कि योगी आदित्यनाथ ने बयान दिया था कि राजतंत्र की बहाली के लिए वह नेपाल जाएंगे, बाबा रामदेव भी वहां गए और आरएसएस के प्रचारक इन्द्रेश जी के भी नेपाल में पड़े रहने की खबरें आई थीं।
तो क्या आपको लगता है कि भारत की दक्षिणपंथी ताकतें माओवादियों के खिलाफ नेपाल में काम कर रही हैं?
 जी हां, प्रचण्ड ने केवल संकेत ही नहीं दिया था बल्कि उन्होंने खुलकर कहा था कि भारत ने उनकी सरकार गिराने में पूरी मदद की थी। और उसकी वजह थी कि सेनाध्यक्ष रुकमांगद कटवाल वाला प्रकरण। कटवाल को जब प्रचण्ड ने बर्खास्त किया तो तीन-तीन बार कटवाल ने प्रधानमंत्री के आदेशों की अवहेलना की थी। इसलिए जरूरी हो गया था उन्हें बर्खास्त करना। उस समय भी राकेश सूद ने प्रचण्ड से कहा था कि अगर आप कटवाल को बर्खास्त करेंगे तो इसके बहुत गम्भीर परिणाम होंगे। अपमानजनक शब्दावली प्रयोग की थी हमारे राजदूत ने। इस राजदूत ने तो ठेका ले रखा है नेपाल की जनता को भारत विरोधी बनाने का। जबकि हम लोग लगातार यह प्रयास करते हैं कि दोनों देशों की जनता के बीच एक सद्भाव बना रहे। लेकिन राकेश सूद की वजह से यह सद्भाव बहुत समय तक बना नहीं रह पाएगा। इसके बाद प्रचण्ड ने कटवाल को बर्खास्त किया। एक निर्वाचित प्रधानमंत्री को यह अधिकार है कि वह सेनाधयक्ष को बर्खास्त कर सके। उन्होंने बर्खास्त किया और राष्ट्रपति ने उन्हें बहाल कर दिया। उन राजनीतिक दलों ने खासतौर पर नेकपा एमाले जो वहां की प्रमुख राजनीतिक दल है उसके अधयक्ष झलनाथ खनाल ने, जिनकी पार्टी सरकार में शामिल थी, वायदा किया कि कटवाल की बर्खास्तगी का वह समर्थन करेंगे। लेकिन जब प्रचण्ड ने बर्खास्त किया तो उन्होंने समर्थन वापस ले लिया। यह प्रचण्ड का मानना है और वहां की जनता का मानना है कि नेकपा एमाले ने जो समर्थन वापिस लिया वह भारत के इशारे पर वापिस लिया। अब यह बात सही है या गलत मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा। लेकिन आम नेपाली जनता के अन्दर धारणा यही है, राकेश सूद की हरकतों की वजह से, कि भारत ने ही प्रचण्ड की सरकार गिराने में मदद की। और यही बात प्रचण्ड ने भी कही है। तो एक बात तो है कि भारत की भूमिका इस समय अच्छी नहीं रही। जिस समय नवंबर 2005 में बारह सूत्रीय समझौता हुआ था उसके बाद से भारत की बहुत अच्छी गुडविल बन गई थी नेपाल में। और नेपाली जनता भारत सरकार के प्रति सकारात्मक रुख अख्तियार कर रही थी। लेकिन कटवाल प्रसंग के बाद से लगातार एक के बाद एक कई घटनाएं ऐसी हो चुकी हैं जिनसे नेपाली जनता को लग रहा है कि भारत उसके हितों के खिलाफ काम कर रहा है। हाल के ही अखबार उठाकर देखिए, कांतिपुर और काठमांडू पोस्ट जो वहां के दो बड़े अखबार हैं, और यह माओवादी अखबार नहीं हैं। बाकायदा अखबार हैं जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया है या इंडियन एक्सप्रेस है, इनके प्रिन्ट के कोटा को अट्ठाइस दिन से यहां रोक रखा है कलकत्ता बंदरगाह पर भारत सरकार के अधिकारियों ने। महज इसलिए कि इस अखबार ने लगातार यह लिखा कि मौजूदा परिस्थिति में माधाव नेपाल को इस्तीफा दे देना चाहिए ताकि एक आम सहमति की सरकार बन सके। माधाव नेपाल की सरकार को चूंकि भारत सरकार समर्थन कर रही है इसलिए इनको यह चीज नागवार लगी। इतना ही नहीं राकेश सूद ने वहां के उद्योगपतियों को जो भारतीय उद्योगपति हैं, बुलाकर कहा कि आप लोग कांतिपुर को, काठमांडू पोस्ट को और कांतिपुर टेलीविजन को विज्ञापन देना बन्द कर दें। तो यह सारी चीजें जो हो रही हैं वह दोनों देशों की जनता के संबंधों को बहुत खराब करेंगी। मेरी चिन्ता यह है और अगर दोनों देशों के संबंध तनावपूर्ण होते हैं तो उससे नेपाल का नुकसान तो होगा ही क्योंकि वह छोटा देश है लेकिन भारत का भी कोई बहुत भला नहीं होने जा रहा है।
अगर प्रचण्ड यह समझ लेते कि कटवाल को बर्खास्त करने से भारत की तरफ से इस तरह का हस्तक्षेप हो सकता है तो क्या स्थिति थोड़ी सुधार सकती थी? 
 नहीं प्रचण्ड को तो यह मालूम पड़ गया था कि अगर हम कटवाल को बर्खास्त करेंगे तो ऐसा होगा क्योंकि उन्हें बहुत खुलकर धामकी दी थी राकेश सूद ने और शायद इस धामकी के जवाब में ही उन्हें कटवाल को बर्खास्त करना और ज्यादा जरूरी हो गया था। क्योंकि अतीत में भारत सरकार के राजदूतों के या भारत सरकार के ब्यूरोक्रेट्स की यह आदत पड़ गई थी कि वह नेपाल के प्रधानमंत्रियों को कुछ भी कह कर अपनी मनमर्जी करवाते थे। कम से कम प्रचण्ड के साथ यह बात नहीं है। उन्होंने कभी यह नहीं कहा, देखिए अगर आज नेपाल के अन्दर साक्षात् माओत्से-तुंग भी शासन करने आ जाएं तो भारत के साथ किसी तरह की दुश्मनी एफोर्ड नहीं कर सकते। इसको प्रचण्ड अच्छी तरह जानते हैं कि भारत से नेपाल तीन तरफ से घिरा हुआ है, यूं कहिए इण्डिया लॉक्ड कंट्री है। ठीक है। भारत से यह नाराजगी मोल लेंगे तो भारत उनकी जनता को कितना कष्ट पहुंचाएगा? तो अगर कोई पार्टी या कोई पार्टी का राजनेता जो सचमुच जनता के हितों की परवाह करता होगा, मैं यह मानता हूं कि माओवादी जनता की हितों की ज्यादा परवाह करते हैं और पार्टियों के मुकाबले, तो वह कभी नहीं चाहेगा कि भारत के साथ शत्रुतापूर्ण संबंधा हों, और प्रचण्ड ने कई मौकों पर यह कहा है कि हमारे पड़ोसी दो जरूर हैं चीन और भारत। हम राजनीतिक तौर से एक समान इक्वल डिस्टेंस रखेंगे दोनों से। लेकिन भारत के साथ हमारे जो संबंध हैं, सांस्कृतिक संबंध, भौगोलिक संबंध, इनकी कोई तुलना ही नहीं हो सकती चीन से। हमारे और भारत के बीच में रोटी और बेटी का संबंध है, यह शब्द प्रचण्ड ने इस्तेमाल किए थे। तो जब पूरा कल्चरली एक है, दोनों की खुली सीमा है। बिहार का एक बहुत बड़ा हिस्सा खुले रूप से नेपाल आता जाता है। तो ऐसी स्थिति में प्रचण्ड खुद ऐसा नहीं चाहेंगे कि भारत के साथ हमारे संबंधा कटु हों। लेकिन उसके साथ-साथ एक संप्रभु राष्ट्र होने के नाते प्रचण्ड यह जरूर चाहेंगे कि भारत हमारी संप्रभुता का सम्मान करे। छोटे देश और बड़े देश में आकार तो हो सकता है कि अलग-अलग हों लेकिन कहीं यह नहीं होता है कि छोटे देश की संप्रभुता छोटी हो और बड़े देश की संप्रभुता बड़ी हो। अगर ऐसा होता तो इंग्लैण्ड की संप्रभुता तो बड़ी छोटी होती, जो ढाई सौ तीन सौ साल तक भारत पर शासन कर सकी। इसलिए संप्रभुता छोटी बड़ी नहीं होती है देश का आकार छोटा बड़ा होता है। इस बात को भारत का ब्यूरोक्रेट नहीं समझता है। इसलिए जरूरत यह है रूलिंग क्लास के माइंड सेट को बदलने की। एक आरोप यह लगता रहा है कि जैसा आपने भी कहा कि यहां का जो रूलिंग क्लास ब्यूरोक्रेट है, यह भारत की विदेश नीति के साथ हमेशा कुछ न कुछ गड़बड़ करता रहता है।
कहीं न कहीं इसके पीछे इस वर्ग के अपने कुछ निहित स्वार्थ होते हैं या कुछ और इंट्रैस्ट होते हैं? क्या यह आरोप सही है? देखिए प्रमाण तो कोई नहीं हैं। लेकिन निश्चित तौर पर आखिर क्या वजह है कि किसी भी पड़ोसी देश के साथ हमारे संबंधा अच्छे नहीं हैं। कुछ चीजें तो हैं जो हमारे वश में नहीं हैं। भौगोलिक सीमा, ठीक है भारत एक बड़ा देश है, उसके लिए हम कुछ नहीं कर सकते। बड़े देश का एरोगेन्स तो हम रोक सकते हैं न! तो यह जो प्रॉब्लम है। भूटान के राजतंत्र को हम लगातार समर्थन देते रहे हैं। आप समर्थन दीजिए लेकिन किसकी कॉस्ट पर? वहां की जनता जो रिफ्यूजी बना दी गई जनतंत्र की मांग करने पर! यह हमारी नीति है। और हम दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र हैं और हम दुनिया के सबसे सड़े गले राजतंत्र को समर्थन देते रहे आम जनता के साथ धोखा करके। तो यह बड़ी शर्मनाक स्थिति है और यह हमारी विदेश नीति की असफलता है कि आज सारे पड़ोसी देश हमसे खतरा महसूस करते हैं। बजाय इसके कि अगर आप एक बड़े भाई की तरह रहते या जुड़वां भाई की तरह रहते तो वह चीज नहीं है।

ये हमारे-तुम्हारे बच्चे तो नहीं?

                                                     सलीम अख्तर सिद्दीकी
वह शहर का एक ऐसा पॉश इलाका था, जहां पर कई नामी पब्लिक स्कूल थे। बढ़ती गर्मी के बीच उस इलाके से गुजर रहा था, तो प्यास की वजह से गला सूखने लगा। मैंने पानी की तलाश में इधर-उधर निगाह दौड़ाई, लेकिन उस कंक्रीट के जंगल में कहीं हैंडपंप तक नहीं नजर आया। एक दुकान पर पानी की बोतल लेने के लिए मैं रुका। बोतल लेकर उसे खोला और मुंह से लगाया ही था कि दुकान के सामने पांच-छह मोटर साइकिलें आकर रुकीं। वे नामी पब्लिक स्कूल के छात्र थे। उस स्कूल में दाखिला लेने के लिए मारामारी होती थी। बच्चों के अभिभावक स्कूल के दावों की जांच किए बगैर स्कूल संचालक की हर शर्त पूरी करते थे। एक होड़ थी और लोग उसमें शामिल थे। बहरहाल, जो बाइक पर आए लड़कों की उम्
र से वे 11वीं या 12वीं के छात्र लग रहे थे। दुकानदार को जैसे पता था कि उन्हें क्या चाहिए। छात्रों के कुछ कहने से पहले ही दुकानदार ने महंगी सिगरेट का एक पैकेट उनकी ओर बढ़ा दिया। सभी ने अपने-अपने लिए पैकेट में से एक-एक सिगरेट निकाली। एक छात्र ने बारी-बारी से सभी की सिगरेट सुलगाई। एक छात्र ऐसा भी था, जो शायद सिगरेट नहीं पीता था। उसका हाथ खाली देखकर एक छात्र ने कहा, ‘अबे! यह क्यों सिगरेट नहीं पी रहा है?’ दूसरे छात्र ने सिगरेट न पीने वाले छात्र का मजाक उड़ाते हुए कहा, ‘तू जानता नहीं, यह अपने स्कूल में ‘भाई साहब’ के नाम से मशहूर है।’ सभी ने ठहाका लगाया। लड़का झेंप गया। तभी एक छात्र अपनी सिगरेट लेकर आगे बढ़ा, ‘आज इसका बपतिस्मा करते हैं।’ इतना कहकर उसने सिगरेट उसके मुंह से लगा दी। छात्र ने नानुकर की तो सभी एक साथ बोले ‘अबे! नखरे मत कर। तेरा बतिस्मा हो जाएगा, तो आज सभी को कोल्ड ड्रिंक मेरी तरफ से।’ यह प्रस्ताव सुनकार सभी उससे सिगरेट में कश लगाने की जिद करने लगे। उस छात्र ने थोड़े अनमने ढंग से सिगरेट में दो-तीन कश लगाए और खांसता हुआ बाहर चला गया। सभी छात्रों ने जोरदार तरीके से ‘हुर्रे’ बोला। कोल्ड ड्रिंक की बोतलें खुलने लगीं। वह छात्र दोबारा दुकान में घुसा। अब उसने खुद एक छात्र के हाथ से सिगरेट लेकर कश लगाए। तभी छात्रों में से एक की आवाज आई, ‘यह तो बहुत जल्दी सैट हो गया। इसके बतिस्मा की खुशी में आज शाम की बीयर मेरी तरफ से।’ दुकान में बीयर पिलाने की बात करने वाले छात्र के पक्ष में नारे लगने लगे। जरा सोचिए, इनमें हमारे-तुम्हारे बच्चे तो नहीं हैं?

बाजार के हवाले आईपीएल

                                                                  नंदलाल
आईपीएल को बाजार के खिलाड़ियों ने कैसे उपयोग किया, इसे दो उदाहरणों से समझा जा सकता है। हममें से बहुतों को आईपीएल शुरू होने से पहले यह नहीं पता था कि एन. श्रीनिवासन की कंपनी का नाम इंडिया सीमेंट्स है और इसका मालिक आगे चलकर भारतीय क्रिकेट पर कंट्रोल करेगा। इंडिया सीमेंट्स को जानने वाले कहते हैं कि यह विज्ञापनों को लेकर संकोची स्वभाव की कंपनी थी, जिसे विज्ञापन बाजार में उतरने की सख्त जरूरत थी, ताकि बाजार में अपने व्यापार को स्थापित कर सके।
पटौदी मेमोरियल लेक्चर के दौरान बोलते हुए सुनील गावस्कर ने कहा, 'ग्लोबल स्तर पर क्रिकेट के प्रसार के लिए टी-20 और वनडे उचित फॉर्मेट है, लेकिन हमें क्रिकेट की आत्मा टेस्ट को बचाना होगा।' गावस्कर ने टेस्ट क्रिकेट को बचाने के लिए, जो समाधान बताए उनमें सबसे प्रमुख था स्पोर्टिंग विकेट तैयार करना। लेकिन, क्या स्पोर्टिंग विकेट तैयार करने से ही टेस्ट क्रिकेट की चुनौतियों का हल मिल जाएगा।
इस बयान को गहराई से समझा जाए, तो टेस्ट क्रिकेट के सामने खड़ी चुनौतियों के कई चेहरे उभर कर आते हैं और उनमें सबसे महत्वपूर्ण है 'बाजार का हाथ, किसके साथ?' कहते हैं, किसी भी वस्तु की कीमत मार्केट में उसकी मांग से तय होती है। ठीक यही चीज टेस्ट क्रिकेट, वनडे और टी-20 पर भी लागू होती है। वर्तमान में शायद ही कोई ऐसा देश हो, जहां भारत की तरह बाजार ने क्रिकेट को मार्केटिंग, प्रमोशन और बेचने के लिए इस्तेमाल किया हो। गावस्कर अपने पूरे लेक्चर के दौरान टेस्ट, वनडे और टी-20 के इस आर्थिक पहलू पर नहीं बोलते, क्योंकि वह भी किसी न किसी टेलीविजन चैनल के साथ जुड़े हैं।
टेलीविजन ने दिया क्रिकेट को सहारा
आइए, टेस्ट, वनडे और टी-20 के इस आर्थिक पहलू को समझने के लिए वापस 1950 और 60 के दशक में चलते हैं। इसी दौरान दो महत्वपूर्ण आविष्कार हुए, कार और टेलीविजन। इनमें से एक टेलीविजन ने क्रिकेट को देखने, दिखाने और चीजों को बेचने का तरीका बदल दिया। ध्यान देने वाली चीज यह है कि टेस्ट क्रिकेट के संदर्भ में मेमन ने 1992 में प्रकाशित अपनी किताब में लिखा है, ‘यही वह समय था जब पांच दिवसीय क्रिकेट अपने ही घर में क्राइसिस का सामना कर रहा था। टिकटों की बिक्री बहुत नीचे आ गिरी थी और स्टेडियम में ज्यादातर सीटें दर्शकों का इंतजार करती मिलती।’
स्क्रीन के पार दर्शकों की दुनिया
इसी समय इंग्लैंड में स्थानीय क्लबों ने आर्थिक तंगी से निपटने और क्रिकेट के प्रति लोगों का रुझान बढ़ाने के लिए ओवरों की संख्या सुनिश्चित कर दी। यहां मैच के आखिर में रिजल्ट महत्वपूर्ण था। जो टेस्ट क्रिकेट में हमेशा संभव नहीं था, मैचों के ड्रा होने की संभावना ज्यादा थी। ओवरों की तय संख्या ने हार और जीत की प्रतिशतता को एकाएक बढ़ा दिया। कैरी पैकर ने इसी फॉमूर्ले को पकड़ा और इस खेल में परिवर्तन के बजाय क्रिकेट के कलेवर को ही बदल डाला। गौरतलब है कि 1970 में पैकर ने कहा था टीवी स्क्रीन के उस पार नई ऊर्जा और संभावना से भरपूर दर्शकों की एक विशाल संख्या बैठी है, जिसे इस खेल को बेचा जा सकता है, थोड़ा आकर्षक बनाकर।
सीमित ओवरों का क्रिकेट बना मुख्य खेल
आस्ट्रेलिया और इंग्लैंड (दो देशों के बीच खेली जाने वाली तत्कालीन श्रृंखलाओं में सबसे ज्यादा लोकप्रिय) के बीच खेली जानी वाली एशेज श्रृंखला के एक्सक्लूसिव प्रसारण के लिए पैकर को अनुमति नहीं मिली। लेकिन, ज्यादातर क्रिकेटरों ने पैकर का समर्थन किया  और इन्हीं बागी क्रिकेटरों के साथ पैकर ने वर्ल्ड सीरीज क्रिकेट (डब्ल्यूसीएस) शुरू की। जो आगे चलकर वनडे क्रिकेट के रूप में सामने आया। वर्ल्ड क्रिकेट सीरीज ने केवल क्रिकेट को ही नहीं बेचा, बल्कि पैकर ने चीजों को ऐसे मैनेज किया कि सारी वस्तुएं बेची जा सकें। खिलाड़ियों को स्टार्स की तरह प्रोजेक्ट करना, नाइट मैचों का आयोजन, रंगीन कपड़े और पिच के दोनों छोर पर कैमरा। क्रिकेट और टेलीविजन के इस कॉकटेल का जादुई असर हुआ। टेस्ट क्रिकेट को पीछे छोड़ बाजार के अनुकूल सीमित ओवरों का क्रिकेट ही मुख्य खेल बन गया।
दुधारू गाय बनी आईपीएल
पैकर के फॉर्मूले का अल्ट्रा मॉडर्न स्वरूप आईपीएल और बाकी देशों में खेली जा रही टी-20 लीग है। टी-20 लीगों के चलते इस खेल में लाभ और हानि के प्रतिशत का ग्राफ बहुत आकर्षक बन गया है। आज टेस्ट खेलने वाले ज्यादातर देशों के पास अपनी प्रीमियर लीग हंै। क्योंकि, वे जानते हैं कि आईपीएल जैसी प्रतियोगिताएं दुधारू गाय जैसी हैं, जहां विज्ञापन के तमाम फॉर्मूले अपनाए जा सकते हैं। लेकिन, यही देश टेस्ट क्रिकेट को बचाने के लिए कितने लालायित हैं, इसका सार्थक रूप में कोई उदाहरण नहीं मिलता।
मार्केटिंग व्हीकल के रूप में आईपीएल का इस्तेमाल
अपनी इस योजना को लागू करने के लिए इंडिया सीमेंट्स ने आईपीएल के पहले संस्करण में चेन्नई सुपर किंग्स नाम की फ्रेंचाइजी के तहत महेन्द्र सिंह धोनी (लगभग 6 करोड़) को 1.5 मिलियन में खरीद अपने प्रचार अभियान को गति दी। मजेदार बात ये है कि श्रीनिवासन ने इसी दौरान कहा था इंडिया सीमेंट्स अपनी आईपीएल टीम को ‘कॉलिंग कार्ड’ की तरह इस्तेमाल करेगा। टीम की सफलता और लोकप्रियता को देखते हुए इंडिया सीमेंट्स ने सुपरकिंग्स नाम से अपने ब्रांड को बाजार में उतारा और इसकी पैकेजिंग को टीम की जर्सी का रंग दिया। कहा जा सकता है इंडिया सीमेंट्स ने आईपीएल को मार्केटिंग व्हीकल के रूप में बखूबी इस्तेमाल किया।
चीयर गर्ल्स और ग्लैमर का कॉकटेल
श्रीनिवासन और इंडिया सीमेंट्स से दो कदम आगे बढ़ते हुए रिचर्ड ब्रैसनन और डोनाल्ड क्रैम्प को कॉपी करने वाले विजय माल्या ने तो आईपीएल की शुरुआत में ही यह स्पष्ट कर दिया कि रॉयल चैलेंजर्स बंगलुरू उनके बिजनेस को प्रमोट करने का जरिया है। चाहे वह उनकी एयरलाइंस हो या शराब। आईपीएल के मैचों पर नजर रखने वाले जानते हैं कि साइट स्क्रीन से लेकर मैदान का हर कोना विज्ञापनों से पटा होता है। चीयर गर्ल्स और ग्लैमर का कॉकटेल यहां भी दर्शकों के सर चढ़कर बोलता है। क्रिकेट स्टार्स के साथ फिल्म स्टार्स की उपस्थिति स्टेडियम में बैठे लोगों को क्रेजी बना रही है। धोनी और हरभजन जैसे खिलाड़ी ‘मेक इट लॉर्ज’ कहते हुए एक दूसरे चैंलेज कर रहे हैं। मैदान पर ड्रामा, एक्शन और रिजल्ट सब कुछ है।
सपोर्टिंग विकेट बनाम टेस्ट क्रिकेट
एक आम व्यक्ति को लाइव ड्रामा और एक्शन के साथ रिजल्ट चाहिए। वह थकाऊ टेस्ट क्रिकेट क्यों देखेगा। जब उसे रिजल्ट के लिए पांचवें दिन तक इंतजार करना पड़े। क्या सपोर्टिंग विकेट बना देने से टेस्ट क्रिकेट की चुनौतियों का हल हो जाएगा? अफसोस,  गावस्कर सब कुछ जानते हुए भी अनजान बन रहे हैं। क्योंकि, ज्यादातर देशों ने क्रिकेट को लोकप्रिय बनाने का ठेका मल्टीनेशनल कंपनियों और बाजार को दे रखा है। जो अपना ‘टेस्ट’ प्रॉफिट प्रतिशत के आधार पर चुनता है न कि क्रिकेट की आत्मा को बचाने के लिए।  
(लेखक पेशे से पत्रकार हैं)

किसे मानें अपनी तस्वीर


                   सीमा श्रीवास्तव
आज सबसे सशक्त मीडिया है टेलीविजन। यह दृश्य-श्रव्य माध्यम है और इसकी पहुंच दूर-दूर तक है। टेलीविजन का बटन दबाते ही कैटवाक करती कोई माडल, या अगले ही ही क्षण साड़ी में सलीके से लिपटी पतिव्रता स्त्री की तस्वीर नजर आती है। कभी ऐश्वर्या राय और प्रियंका की खूबसूरती के राज बताए जाएंगे, तो कभी किसी देवी की औरत धर्म निभाने की कहानी का गुणगान किया जाएगा।
टेलीविजन पर कभी पूरे घर को खुश रखने के लिए अपनी इच्छाओं का गला घोंट देने वाली आदर्श गृहणी की कहानी दिखाई जाती है, तो कभी अराजकता की हद तक अपनी मर्जी से जीती, भोग-विलास में लीन किसी स्वार्थी लड़की का चित्र। एक तीसरी तस्वीर भी है जिसमें औरत अपनी पहचान और आजीविका के लिए नौकरी करती है, पर घर की खुशी या शादी में बाधा आने पर नौकरी  छोड़ देती है। चाहे वह बहुत बड़े पद पर ही क्यों न हो, सास ससुर, पति की सेवा वह अपना प्रमुख धर्म समझती है। उस औरत की समाज में काफी प्रतिष्ठा है, पर घर में वह अपने पति की आज्ञाकारी पत्नी होती है। आजकल मीडिया औरतों की इस तस्वीर को खूब सजा संवार कर परोस रहा है। टेलीविजन में औरतों की ये तीनों तस्वीरें एक साथ ही पेश की जा रही हैं। ऐसे में औरतें दुविधा में हैं कि वास्तव में कौन सी तस्वीर उनकी अपनी है या कौन सी तस्वीर उनकी होनी चाहिए।
कैटवॉट करती मॉडल
पहली तस्वीर जो कि कोई उत्पाद बेचती या कैटवॉक करती किसी मॉडल की है, जिसे देखकर लगता ही नहीं कि वह हमारे समाज की लड़की है। उसके लिए छेड़छाड़, बलात्कार जैसी समस्या है ही नहीं, क्योंकि उसकी सुरक्षा की दीवार बहुत मजबूत है। उसकी मुख्य समस्या है कि कैसे वह खुद को ज्यादा से ज्यादा खूबसूरत बनाकर लोगों के सामने प्रस्तुत करे। उसकी और हमारी समस्या में कोई तालमेल ही नहीं है। उसे देखकर ऐसा लगता है जैसे वह किसी दूसरी दुनिया की प्राणी हो। इसलिए यह तस्वीर हमारी नहीं हो सकती।
आज्ञाकारी स्त्री की तस्वीर
दूसरी तस्वीर जो कई सदी पीछे की है, पर जिसे आजकल खूब चमकाकर पेश किया जा रहा है, वह एक पतिव्रता स्त्री, आज्ञाकारी बहू-बेटी और त्यागमयी मां की तस्वीर है। धार्मिक-पारिवारिक धारावाहिकों के माध्यम से औरतों के सामने यह तस्वीर भी पेश की जा रही है। इन औरतों के लिए सब कुछ उनका परिवार ही होता है और ये सारी जरूरतों के लिए घर के पुरुष सदस्यों का मुंह देखती हैं। पहली तस्वीर वाली औरत को जितना ही उच्चश्रृंखल, गैरजिम्मेदार, खुदगर्ज और भोगवादी दिखाया जाता है, उतनी ही तीक्ष्णता से दूसरी तस्वीर की परंपरावादी और यथास्थितिवादी औरत आम दर्शकों को सहज स्वाभाविक लगने लगती है। हमारे समाज की ज्यादातर औरतों की जिन्दगी दूसरी तस्वीर से ज्यादा मेल खाती है और इस तस्वीर को महिमामंडित करने का मकसद उन्हें इसी स्थिति में बने रहने की प्रेरणा देना है। इसलिए कि भले ही औरतें आज घर में सिमटी हुई हैं पर समाज विकास के कारण घर से बाहर निकलकर पढ़-लिखकर नौकरी करने का सपना भी आज की औरतें देखने लगी हैं। आज औरतें निहायत पारंपरिक होकर नहीं जीना चाहतीं। वे अपनी पहचान और अस्तित्व के लिए सचेत हैं। वे इस घुटन से बाहर आने के लिए छटपटा रही हैं, जबकि मीडिया उन्हें वापस घर में लौटने का मूल्य परोस रहा है, जो वास्तव में एक अपराध है।
विश्व बैंक के एक हालिया सर्वेक्षण के अनुसार उत्तर प्रदेश में 90 प्रतिशत औरतों को घर से बाहर कदम रखने के लिए पुरुषों की इजाजत लेनी पड़ती है। एक तिहाई औरतों के पास निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं है। टीवी पर दिखने वाली औरतों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर दिखाया जाता है, पर मानसिक रूप से वे भी अपने पिता, पति या पुत्र पर निर्भर रहती हैं। वे पुरुषवादी जकड़न को तोड़ती तो दिखाई जाती हैं, पर अंतत: समझौता कर खुश रहती हैं। औरतों के लिए यह तस्वीर ज्यादा खतरनाक है, क्योंकि ये समझौते इतने सुंदर तरीके से पेश किए जाते हंै कि हमें लगता है कि हां ऐसा ही होना चहिए।
गलत आदर्श पेश करती तस्वीर
तीसरी तस्वीर जो देखने में काफी लुभावनी लगती है, जिसे देखकर लगता है कि दुनिया की सारी औरतें पढ़ी-लिखी और सभी आत्मनिर्भर हैं। सीरियलों में इन औरतों को इतना समर्थ दिखाया जाता है, जिसमें वे दफ्तर और घर दोनों का काम अत्यंत दक्षता के साथ करती हैं-बगैर थके, बिना किसी चिड़चिड़ाहट और गुस्से के। उसकी यह छवि देखकर आश्चर्य होता है कि कोई इंसान इतना समर्थ कैसे हो सकता है। कहीं न कहीं इस तस्वीर के माध्यम से वे यह भी पुष्ट करना चाहते हैं कि औरत कितना भी पढ़-लिख जाए, कुछ भी बन जाए, घरेलू जिम्मेदारियां तो उसे ही निभानी हैं। विज्ञान टेक्नोलॉजी चाहे जहां पहुंच जाए, घरेलू श्रम उसके हिस्से का ही है। यदि उसमें खरीदने की क्षमता हो, तो वह कपड़े हाथ से नहीं, वाशिंग मशीन से धो रही है और घर की सफाई वैक्यूम क्लीनर से कर रही है। लेकिन काम की जिम्मेदारी उसी की है। हमारे समाज में स्त्रियों की स्थिति टीवी में दिखने वाली इस तस्वीर के विपरीत है।
इन तस्वीरों पर गहराई से विचार करने पर स्पष्ट हो जाता है कि दरअसल ये तीनों ही तस्वीरें औरत विरोधी और पुरुषवादी मानसिकता की पोषक हैं। पहली तस्वीर, औरत को शरीर के रूप में पेश करती है, दूसरी पुरुष की दासी के रूप में और तीसरी तस्वीर गलत समझौते को आदर्श मूल्य बनाकर पेश करती है। ये तीनों ही तस्वीर औरतों को छल और बरगलाने वाली हैं। अत: मीडिया के इस झूठे आइने को तोड़कर हमें अपनी एक नई तस्वीर तलाशनी होगी, जिसमें औरत इस सड़े-गले, पिछड़े समाज की मूल्यों-मान्यताओं से जूझ तो रही होगी पर उसके चेहरे पर अपने पिछले संघर्षों की दमक भी होगी, उन संघर्षों की दमक जिनके बल पर उसने ढेर सारे अधिकार हासिल किए हैं और ढेरों अधिकार अभी उसे हासिल करने हैं। यही हमारी सच्ची तस्वीर होगी।

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

तात्या टोपे: 1857 के संग्राम के महान गुरिल्ला

                                                                                मुनेश त्यागी
1857 में भारत में अंग्रेजों के खिलाफ हुए व्यापक विद्रोह को वैज्ञानिक समाजवाद के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स ने हिन्दुस्तान का पहला स्वतंत्रता संग्राम कहा था। इस महासंग्राम ने भारत के अनेक वीरों व वीरांगनाओं को विश्व प्रसिद्ध कर किया। इस संग्राम में अपनी रणनीति, वीरता और सूझबूझ से नाना साहब, बेगम हजरतमहल, बहादुरशाह जफर, अजीमुल्ला खां, वीर कुंवर सिंह, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई आदि ने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए। तात्या टोपे भी इस भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक अत्यंत बहादुर, चतुर और योग्य सेनानायक थे।
तात्या टोपे का असली नाम रामचंद्र राव था। उनका जन्म पूना के एक गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ। इनके पिता का नाम पांडुरंग राव भट्ट था। तात्या टोपे ने नाना साहब पेशवा और झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के साथ अंग्रेजों के खिलाफ भारत के स्वतंत्रता संग्राम में पूरी शिद्दत से हिस्सा लिया। सदैव टोपे धारण किए रहने के कारण इनका नाम तात्या टोपे पड़ गया।
गुरिल्ला युद्ध की शुरुआत 
1857 के महासंग्राम में असफल होने के बाद संघर्ष को जारी रखने के लिए अंग्रेजों के खिलाफ भारत के स्वतंत्रता संग्राम में तात्या टोपे ने छापामार युद्ध यानी गुरिल्ला लड़ाई का सहारा लिया। फिरंगियों की कई सेनाएं उनका पीछा करती रहीं, लेकिन उनकी आंखों में धूल झोंककर तातिया प्राय: दस माह तक लड़ते रहे और अंग्रेजों को छकाते रहे। वे नई सेना इकटठा करते, नए स्थानों पर कब्जा करते और उनके हाथ से निकल जाने पर दूसरे नए स्थान पर पहुंच जाते। तात्या अपने साथियों के साथ नर्मदा पार करके दक्षिण भारत में निकल जाना चाहते थे, क्योंकि दक्षिण में छापामार युद्ध चलाना ज्यादा सुविधाजनक था।
रणनीति में माहिर तात्या
होशंगाबाद के पास तात्या ने संसार के बड़े-बड़े युद्ध विशारदों को चकित कर सेना सहित नर्मदा नदी पार कर गए। उनकी प्रशंसा करते हुए अंग्रेजी इतिहास लेखक मालेसन ने लिखा, ‘जिस दृढ़ता और धैर्य से तात्या ने अपनी इस योजना को पूरा किया, उसकी प्रशंसा न करना असंभव है।’ इसी तरह तात्या के विषय में लंदन टाइम्स के एक संवाददाता ने लिखा, ‘तात्या ने मध्य भारत में तहलका मचा रखा है। उसकी यात्राएं बिजली की तरह प्रतीत होती हैं। वह कभी हमारे सैन्य दलों के आगे से निकल जाता है, कभी पीछे से, कभी सामने से, कभी पहाड़ों पर से, कभी नदियों से, कभी वादियों में से, कभी घाटियों में से, कभी दलदलों में से, कभी घूमकर फिर भी वह हाथ न आया।’
फौज को कूच करवाने में माहिर तात्या
तात्या कमाल के गुरिल्ला कमांडर थे। उन्होंने आजादी के लिए खजाने लूटे, सेनाएं जमा कीं और खोई भी, कई बार हारने के बाद भी एक विजयी योद्धा की तरह अपना हौसला नहीं खोया। उनके द्वारा नर्मदा नदी पार करने के दृश्य को प्रसिद्ध इतिहासकार सुंदरलाल ने अलौकिक कूच बताया है। तात्या ने अपनी सेना को तोपें छोड़कर नदी में कूदने की आज्ञा दी और उनकी सेना पलभर में नर्मदा के पार दिखाई दी। इस पर मालसेन लिखता है, ‘संसार की किसी भी सेना ने कभी कहीं पर इतनी तेजी के साथ कूच नहीं किया, जितनी तेजी के साथ तात्या की भारतीय सेना इस समय कूच कर रही थी।’
हंसते हुए चूमा फांसी का फंदा
तात्या को अंग्रेजों की गुलामी कतई भी बर्दास्त न थी। वे किसी भी कीमत पर प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को जारी रखना चाहते थे। उनकी कार्यनीतियां और युद्धकौशल विस्मयकारी और अद्वितीय था। अंग्रेजी सेना को चकमा देकर भागना और अपनी लड़ाई को जारी रखना उनके लिए कोई बड़ा काम नहीं था। तात्या और उनके साथियों का मुख्य उद्देश्य था- देश को आजाद कराना, फिरंगियों को मार भगाना, अंग्रेजों की लूट, अत्याचार ज्यादतियों ओर शोषण से देश और जनता को बचाना।
अंग्रेजों ने छल, कपट, धोखाधड़ी, ‘फूट डालो और राज करो’ की नीतियों से भारत को गुलाम बनाया। अपनी इसी नीति के तहत उन्होंने तात्या टोपे को पकड़ने की नीति अपनाई। इस महान सेनानायक को पकड़वाने वाला यह देशद्रोही और दगाबाज सिंधिया का जागीरदार मानसिंह था। इसने विश्वासघात करके तातिया को 7 अप्रैल, 1859 को पकड़वा दिया। तातिया को फांसी देने का दिन 18 अप्रैल, 1859 नियत किया गया। फांसी के दिन हजारों शिवपुरी वासी तात्या को दूर से श्रद्धापूर्वक नमस्कार कर रहे थे। तात्या टोपे फांसी के तख्ते पर चढ़े और हंसते हुए फांसी का फंदा अपने गले में डाल लिया। भीड़ ने जय तात्या की आवाज बुलंद की। ऐसा लगा जैसे भीड़ में हजारों तात्या जिंदा हो गया हो।
                                                           संपर्क : 27 ए जनकपुरी, गढ़ रोड, मेरठ, मो. 9837151641

बुधवार, 3 अप्रैल 2013

शालिनी की मौत पर उठे सवाल


लखनऊ 02 अप्रैल। नगर की कई सामाजिक-राजनैतिक संगठनों के संयुक्त तत्वावधान में आज सामाजिक कार्यकत्री सुश्री शालिनी के असामयिक निधन पर एक श्रद्धांजली सभा प्रेस क्लब में की गयी। इस श्रंद्धाजली सभा में नगर के सैकड़ों सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उपस्थिति होकर अपनी श्रंद्धाजली अर्पित की।
     शालिनी अपने छात्र जीवन से ही सामाजिक कामों में लग गयी थीं और अंतिम सांस तक उसके प्रति समर्पित रहीं। करीब दो दशक तक वे लखनऊ में सक्रिय रहीं। एक बेहद संवेदनशील, विश्वसनीय और कठोर श्रम वाले व्यक्तित्व की इस महिला ने एक न्यायपूर्ण समाज बनाने के लिए अपना सब कुछ दांव व पर लगा दिया, यहां तक कि अन्त में जीवन भी। वे करीब दो वर्षो से बीमार चल रही थीं, लेकिन उनका करीब तीन महीने पहले व्यवस्थित इलाज शुरू हुआ। इलाज के शुरू होते ही पता चला कि कैंसर का रोग उनके पूरे शरीर में फ़ैल चुका था और अब कोई दवा काम नहीं करेगी। 21 दिसम्बर, 1974 में बलिया में जन्मी शालिनी ने 29 मार्च, 2013 को दिल्ली के एक अस्पताल में अंतिम सांस ली। मेरी अपील है कि शालिनी के दो वर्ष की मेडिकल रिपोर्ट उपलब्ध कराने में आप लोग मदद करें।        -सत्येन्द्र कुमार, सामाजिक कार्यकर्ता व शालिनी के पिता 
         इस गमगीन मौके पर उपस्थित सामाजिक कार्यकर्ताओं और नागरिकों ने उनके इस त्यागपूर्ण योगदान के लिए अभार प्रकट किया और अपनी इस बहादुर बेटी को सलाम किया। आवाज़ की अल्का जी ने सवाल उठाया कि एक दिन में कोई 35 वर्ष की लड़की नहीं मरेगी आम जनता में ऐसे मौत पर हम सवाल उठाते हैं तो इस पर क्यों नहीं उठाया जाना चाहिए। इप्टा के राकेश ने शालिनी की कथित वसीयतनामा को घृणित व अमानवीय करार देते हुए कहा कि इसके मन्तब्य बड़े विचित्र दिखते हैं। जन संस्कृति मंच की ताहिरा ने कहा कि जो प्रश्न मानवीयता को ही उखाड़ फेकती है उसके लिए आगे एक मज़बूत बहस की जरूरत है। टीम अन्ना के आलोक सिंह ने कहा कि विचार मौत से बड़ी होती है। विपिन जी ने कहा कि कली समय से पहले ही मुरझा गयी और संवादहीनता की स्थिति ने इसे जन्म दिया। आम आदमी पार्टी के राजीव पाण्डेय ने विचारधारा का सवाल उठाया। डा. रमेश दीक्षित और काकोरी उत्थान स्मारक पुर्नउत्थान समिति के एम.के. सिंह ने शालिनी की मौत पर गहरी चिन्ता प्रकट की। पीयूसीएल की वन्दना मिश्रा ने आश्चर्य प्रकट किया कि किताबों के बीच पली-बढ़ी लड़की शालिनी कैसे अपने कष्ट को नहीं समझ सकी। जनजागरूकता अभियान के सीबी सिंह ने कहा कि जनवादी आन्दोलन में आज ढेरों खुराफात हो रहे हैं जिसे रोकने की जरूरत है। नागरिक परिषद के के.के.शुक्ला ने कहा कि शालिनी आर्थिक, सामाजिक, बेईमानी की शिकार हुई। आम आदमी पार्टी की अरूणा सिंह ने कहा कि इसके खिलाफ संघर्ष का संकल्प लेकर ही सच्ची श्रद्धान्जली दे सकते हैं। पंतनगर से आए प्रोफेसर भूपेश कुमार सिंह ने कहा कि जिस संगठन से शालिनी जुडी हुई थीं वहां असहमति की कोई जगह नहीं है। उन्होंने शालिनी की मौत पर भी सवाल उठाया। राही मासूम रज़ा फाउण्डेशन के राम किशोर ने ऐसे संगठनों को बेनकाब करने का आह्वान किया। आॅल इण्डिया वर्करस काउन्सिल के राम कृष्ण जी ने कहा कि शालिनी ने घर न बनाने का फैसला करके जो मिसाल कायम की दअसल उसी का दोहन हुआ। सामाजिक कार्यकर्ता मुकुल ने शालिनी के साथ गुजारे दिनो की चर्चा करते हुए बताया कि साथी शालिनी की मृत्यु ने कुछ नए प्रश्नों को जीवित कर दिया। हलांकि वे प्रतिकूल स्थितियों में भी अपने कामों की निरंतरता से लोगों में इस उम्मीद को बनाये रखने में मदद की, कि अन्याय का राज मिटेगा और एक नयी और बेहतर दुनिया बनेगी। अखिलेश जी ने कहा कि शालिनी रोज़ शाम को हजरतगंज लखनऊ में किताबों का स्टाल लगाती थीं। लखनऊ शहर के सामाजिक कार्यकर्ताओं एवं नागरिकों की उन्होंने जरूरी पुस्तकें उपलब्ध करवा के बड़ी सेवा की। जन कलाकार परिषद के डा नरेश, अनमोल, सी.एम. शुक्ला आदि ने भी अपनी बात रखे। संचालन सामाजिक कार्यकर्ता ओ.पी. सिन्हा ने किया।